जैन मरण

 

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*📕 रोज के 10 प्रश्र्न 📘*


 *DATE ~ 18/02/2021*


 *आशीर्वाद एवं प्रेरणा स्रोत*


*श्री चम्पक गच्छ नायक तपस्वीराज परम पूज्य गुरुदेव श्री पारस मुनिजी म.सा* 


*प्रवचन प्रभावक परम पूज्य श्री पंकज मुनीजी म सा*

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     *🌸आज के गुरूजी 🌸*

          *हंसराजजी भंसाली*

                  *चैन्नई*

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🦚 *टॉपिक -: संथारा*🦜

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1संथारा कितने तरह का होता है

3


2 कोंनसा संथारा अति दुर्लभ होता है

पदोपगमन संथारा


3 यह अति दुर्लभ क्यो होता है

यह व्रज ऋषभ नारच सहनन वाले को होता है


4कय्या कारण है यह हर कोई नहीं कर सकता है

इस संथारे में अंगोपांग का हिलना डुलना नहीं होता


5इंगित मरण संथारा किसे कहते है

निश्चित स्थान से चल फिर सकते है


6अंतिम संथारे का नाम क्या

भक्त प्रत्याख्यान संथारा


7यह संथारा कैसा होता है

तिविहार ओर चोविहार भी


8कौनसे संथारे चोविहार ही होते है

पादोपगमन इंगित मरण संथारा


9भक्त प्रत्याख्यान संथारा कितने प्रकार का होता है

निहारी

अनिहारी


10 निहारी का अर्थ क्या है

नगर के अंदर


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*13:2:21*

*अध्याय*




*12:2:21*

*अध्याय*

पह Mत्ररन बोल गति 

मृत्यु के बाद गति होती है तो 

पहले मृत्यु को जाने कि मृत्यु क्या है।


*मृत्युमार्गे प्रवृत्तस्य, वीतरागो ददातु में। समाधिबोधपाथेयं, यावन्मुक्तिपुरी पुरः*।।


जिस प्रकार विदेश जाते समय घर के प्रेमी जन जाने वाले के साथ मार्ग में खाने पीने की सामग्री रख देते हैं जिससे कि मार्ग में जाने वाले को किसी प्रकार का कष्ट न हो, उसी प्रकार है वीतराग देव! है धर्म-पितामह! मैं मृत्यु-मार्ग पर अग्रसर हो रहा हूँ। मुझे मुक्ति रूपी नगरी में पहुंचना है। मुक्तिपुरी तक सकुशल पहुंचने के लिए मुझे समाधि का बोध अथवा चित्त को समाधि और सदबोध प्रदान कीजिए जिससे मेरी यात्रा सानन्द पूर्ण हो।


*मृत्यु के १७ प्रकार*


*(१) अविचियमृत्यु* (अनुवीचि मरण) -जल की तरंग या लहर को वीचि कहते हैं। जैसे जल में वायु के बाद दूसरी तरंग उठती रहती है उसी तरह

उत्पन्न होने के बाद उदय में आये हुए आयुकर्म के दलिकों का प्रतिसमय निर्जीर्ण (शक्ति हीन)होना। अर्थात् समय-समय पर आयु का कम होते जाना ।वीचि नाम विच्छेद का भी है जिस मरण में कोई व्यवधान न हो, उसे आवीचिमरण कहते हैं ।




*२) तद्भवमरण*-वर्तमान भव में जो शरीर प्राप्त हुआ है, उससे संबंध छूट जाना व प्रतिक्षण आयु आदि प्राणों का बराबर क्षय होते रहना नित्यमरण है 

और नूतन शरीर पर्याय को धारण करने के लिए पूर्व पर्याय का नष्ट होना तद्भवमरण है। 

लोक प्रसिद्ध मरण तद्भवमरण कहलाता है

*३) अवधिमृत्यु*-अवधि सीमा या मर्यादा को कहते हैं। मर्यादा से जो मरण है उसे अवधिमरण कहते हैं।

एक बार भोगकर छोड़े हुए परमाणुओं को दुवारा भोगने से पहले जब तक जीव उनका भोगना शुरू नहीं करता तब तक अवधिमरण कहलाता है।

कोई जीव वर्तमान भव की आयु को भोगता हुआ आगामी भव की उसी आयु को बाँधकर मरे और आगामी भव में भी उसी आयु को भोगकर मरेगा, तो ऐसे जीव के वर्तमान मरणको अवधिमरण कहा जाता है। तात्पर्य यह कि जो जीव आयु के जिन दलिकों को अनुभव करके मरताहै , यदि पुनः उन्हीं दलिकों का अनुभव करके मरेगा, जीव जिस गति में

एक बार जन्म मरण करता है वह

 अवधिमरण कहलाता है

 *४) आद्यन्तमरण*-सर्व से और देश से आयु क्षीण होना


*सर्वावधि*  प्रकृति स्थिति अनुभव व प्रदेशों सहित जो आयु वर्तमान समय में जैसी उदय में आती है वैसी ही आयु फिर प्रकृत्यादि विशिष्ट बँधकर उदय में आवेगी तो उसको सर्वावधिमरण कहते हैं।

*देशावधि*

 यदि वही आयु आंशिकरूप से सदृश होकर बँधे व उदय में आवेगी तो उसको देशावधि मरण कहते हैं

तथा दोनों भवों में एक सी मृत्यु होना।

, ऐसे जीव के वर्तमान भव  के मरण को आद्यन्तमरण  कहते हैं।


*५) बालमरण*-विष, शस्त्र, अग्नि या पानी से अथवा पहाड़ से नीचे गिर कर आत्मघात करके मरना तथा ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना न करके अज्ञानपूर्वक हाय-हाय करते हुए मरना।


*६)पण्डितमरण*-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र सहित समाधिपूर्व पूर्ण होना।


*7वलन्मृत्यु*-संयम एवं व्रत से भ्रष्ट होकर मरना।  *8वालपण्डितमरण*- सम्यक्त्व युक्त श्रावक के व्रतो के आचरण करके समाधिभाव के  साथ शरीर का त्याग करना।

*9सशल्य मरण*

निदानशल्य और मिथ्यात्वशल्य में से किसी भी शल्य के साथ मरना


*10प्रमादमृत्यु* प्रमाद के वश होकर तथा घोर संकल्प-विकल्पमय परिणामों के साथ प्राणों का परित्याग करना। 

 *11वशार्त्त मृत्यु*-इन्द्रियों के वश होकर, कषाय के वश होकर, वेदना के वश या हास्य के वश होकर मृत्यु होना।


*12विप्रणमृत्यु*-संयम, शील, व्रत आदि का निर्वाह न होने से घात करना। 

 *13गुद्धपृष्ठमृत्यु*-संग्राम में शूरवीरता के साथ प्राण त्यागना।


*१४) भक्तप्रत्याख्यान मृत्यु*-विधिपूर्वक तीनों प्रकार के आहार के त्याग का यावज्जीव प्रत्याख्यान करके शरीर को त्यागना। 

*१५) इंगितमृत्यु*- संथारा ग्रहण करने के पश्चात् दूसरे से वैयावृत्य न कराते हुए शरीर त्यागना।


*१६) पादोपगमन मृत्यु*- आहार और शरीर का यावज्जीवन त्याग करके स्वेच्छापूर्व --चलन आदि क्रियाओं का भी त्याग करके समाधिपूर्वक शरीरोत्सर्ग करना । 

*१७)केवलिमरण*-केवलज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् मोक्ष में जाते समय अन्तिम रूप से शरीर का छूटना।


मृत्यु के यह सत्तरह प्रकार अष्टपाहुड ग्रन्थ के पांचवें भावपाहुड में बताए गए हैं उत्तराध्ययन सूत्र में सामान्य रूप से मृत्यु के दो भेद बताए गए हैं। वे इस प्रकार हैं: 

*बालाणं अकामं तु, मरणं असई भवे। पंडियाणं सकामं तु, उक्कोसेण सईं भवे ॥*


-श्रीउत्तराध्ययन, अ०५, गा

अर्थात्- अज्ञानी जीव *अकाल मृत्यु* से मरते हैं। उन्हें पुनः- पुन: मरना पड़ता है। किन्तु पण्डित अर्थात् ज्ञानी पुरुषों का *सकाम मरण* होता है, और वह उत्कृष्ट एक बार ही होता है, उन्हें फिर मरना नहीं पड़ता-वे अमर- मुक्त हो जाते हैं ।


आत्महित के अभिलाषी पुरुषों को दोनों प्रकार की मृत्यु का स्वरूप समझ लेना आवश्यक है। वह निम्नलिखित है:-

*1अकाम मृत्यु* *2सकाम मृत्यु*

*1अकाम मृत्यु*(बाल मरण) ⤵️

जो जीव परलोक में आस्था नहीं रखते, वे कहते हैं-कौन जाने परलोक है या नहीं? हमारे इतने सगे-सम्बन्धी कुटुम्बी और स्नेही लोग मर गए, मगर किसी ने कुछ भी समाचार संदेश नही भेजा

इस प्रकार की विचारधारा से प्रेरित होकर  तथाविषय भोग से मैं अत्यंत आशक्त होकर 


वे हिंसा करते हुए  मिथ्या भाषण करते हुए चोरी करते हुए व्यभिचार का सेवन करते हुए और सभी प्रकार के पापों का आचरण करते हुए संकुचित नहीं होते हैं वह मदिरा का सेवन करने लगते हैं मांस भक्षण से परहेज नहीं करते  वेश्या गमन जैसे घोर दुष्कर्म करने से भी नहीं चूकते 

वे धर्म के नाम से चिढ़ते हैं पाप के कामों में हर्ष के साथ प्रवृत्ति करते हैं संतों के संगति से दूर रहते हैं  चोरों -जोरो की संगति में मजा मानते हैं हाय रे अब मुझे महान कष्ट से संचित किए हुए वह को भोगोपभोग के साधनों को त्याग कर चला जाना पड़ेगा इस तरह के मृत्यु की इच्छा के बिना ही रोते विलाप करते हुए मृत्यु के मुंह में प्रवेश करते हैं इस प्रकार का मरण बाल मरण कहलाता है बाल मरण में मरने वाले प्राणी इस पर संसार में अनंत मरण को प्राप्त होता है।

होती है।   

*2सकाम मरण*

 महात्मा पुरुष, काल रूपी शत्रु को रोग आदि रूप दूतों के द्वारा निकट आया जान कर तत्काल

सावधान हो जाते हैं वे शारीरिक सुखों का सर्वथा परित्याग करके क्षुदा तृषा आदि के दुखों को दुख ना मानते हुए बल्कि सुख का साधन समझते हुए ज्ञान,दर्शन चरित्र और तप रुपि चतुरंगिणीन सेना से सुसज्जित होकर *सकाम मरण* रूपी संग्राम के द्वारा काल रूपी दुर्दांत शत्रु को पराजित कर देते हैं फल स्वरुप अनंत अक्षय आत्मिक सुख को प्राप्ति रूप मोक्ष के महाराज को प्राप्त करके सदा के लिए निष्कंटक बन जाते हैं।


*15: 3: 21*

*अध्याय*



जिसने जन्म लिया है, उसे एक न एक दिन मरना तो होगा ही। मृत्यु से बचने का जगत् में कोई उपाय नहीं है। बड़े-बड़े प्रतापशाली, चक्रवर्ती , वासुदेव आदि समर्थ-पुरुष इस भूतल पर आए, मगर उनमें से एक भी मृत्यु से नहीं बचा। वास्तव में मृत्यु से बचना सम्भव ही नहीं है। इस प्रकार जब मृत्यु निश्चित है तो उसे बिगाड़ कर आत्मा का अहित क्यों करना चाहिए? रोते, कराहते और हाय-हाय करते क्यों मरना चाहिए? ऐसा उपाय क्यों नहीं करना चाहिए जिससे कि एक ही बार मर कर सदा के लिए अमरता प्राप्त हो जाए? वह उपाय कितना ही विकट क्यों न हो, फिर भी पुन:- पुन: मृत्यु के घोर कष्ट भोगने की अपेक्षा तो वह उपाय अल्प कष्टकर ही है। अनन्त जन्म-मरण के दुःखों की तुलना में समाधिमरण का कष्ट किसी गिनती में ही नहीं है। ऐसा विचार कर शूरवीर महात्मा सकाममरण करते हैं और सदा के लिए मृत्यु के दुःखों से छूट जाते हैं।


सकाममरण के पांच गुणनिष्पन्न नाम हैं-

( १) मुमुक्षु जीवों की कामना जन्म-जरा-मृत्यु से बचने की होती है। इस कामना की सिद्धि होने के कारण उसे 'सकाम- मरण' कहते हैं।

 (२) सब प्रकार की आधि, व्याधि, उपाधि से चित्त जब निवृत्त होता है और शान्ति के साथ धर्मध्यान में लगा रहता है तभी सकाममरण होता है, अत: उसका दूसरा नाम 'समाधिमरण' है। 

(३) मृत्यु के समय तीन या चारों प्रकार के आहार का त्याग किया जाता है, अतएव उसे 'अनशन' भी कहते हैं। 

(४) अन्तिम बार बिछौने में शयन करने के कारण इसे 'संथारा लेना' भी कहते हैं। 

(५) सकाममृत्यु के समय अपने जीवन भर के दोषों का सम्यक् प्रकार से निरीक्षण किया जाता है, उनकी आलोचना, निन्दा और कहा की जाती है, अतएव इसे 'संलेखना' भी कहते हैं।अथवा माया, मिथ्यात्व और निदान रूप तीनों शल्यों की आलोचना आदि करने के कारण इसे सल्लेखना कहते हैं

सल्लेखना दो शब्दों से मिलकर बना है सत्+लेखना। इस का अर्थ है - सम्यक् प्रकार से काया और कषायों को कमज़ोर करना। यह श्रावक और मुनि दोनो के लिए बतायी गयी है। इसे जीवन की अंतिम साधना भी माना जाता है, जिसके आधार पर व्यक्ति मृत्यु को पास देखकर सबकुछ त्याग देता है। जैन ग्रंथ, तत्त्वार्थ सूत्र के सातवें अध्याय के २२वें श्लोक में लिखा है: "व्रतधारी श्रावक मरण के समय होने वाली सल्लेखना को प्रतिपूर्वक सेवन करे"।

जैन ग्रंथो में सल्लेखना के पाँच अतिचार बताये गए हैं:


संलेखना के पांच अतिचार


(१) *इह लोगासंसप्पओगे*-इस संथारे के फलस्वरूप मेरी कीर्ति, ख्याति, प्रतिष्ठा हो, लोग मुझे बड़ा त्यागी, वैरागी समझें, धन्य-धन्य कहें, इस प्रकार इस लोक सम्बन्धी आकांक्षा करने से अतिचार लगता है।


(२) *परलोगासंसप्पओगे*-मृत्यु के पश्चात् मुझे इन्द्र का पद मिले, उत्कृष्ट ऋद्धि का धारक देव बनूं, चक्रवर्ती या राजा होऊ सुन्दर शरीर की प्राप्ति हो, इत्यादि परलोक संबंधी आकांक्षा करने से यह अतिचार लगता है।


(३) *जीवियासंसप्पओगे*-संथारे में अपनी महिमा पूजा होती देख कर बहुत समय  अन्तिम 

तक जीवित रहने की इच्छा करना। '


(4) *मरणासंसप्पओगे*-क्षुधा तृषा आदि की पीड़ा से व्याकुल होकर जल्दी मर जाने की इच्छा करना।


(५) *कामभोगासंसप्पओगे*

-काम- भोगों की इच्छा करना।


संलेखनावत जीवन का अंतिम और महान् व्रत है । वह मृत्यु को सुधारने की उत्कृष्ट कला है। इस कला की साधना अतीव सावधानी के साथ करनी चाहिए। उक्त पांच अतिचारों में से किसी भी अतिचार का सेवन नहीं करना चाहिए। संथारे का प्रधान फल आत्मशुद्धि और आत्म-कल्याण है उससे आनुषंगिक फल के रूप में जो सांसारिक सुख प्राप्त होने वाले हैं वे तो इच्छा न करने पर भी स्वतः प्राप्त हो जाते हैं । उन फलों की इच्छा करने से व्रत मलिन हो जाता है और व्रत का प्रधान फल मारा जाता है। अतएव किसी भी प्रकार की सांसारिक कामना नहीं रखते हुए जिनेन्द्र भगवान् के गुणों में ही अपने चित्त को रमाकर, संसार के अनित्य स्वरूप का विचार करते हुए, धर्मध्यान में ही संथारे का समय व्यतीत करना चाहिए। कहा भी है

 मोक्ष की अभिलाषा रखने वालों को विषय मात्र का त्याग कर देना चाहिए ।



कुछ औऱ विस्तार से जानें

अनशन की पूर्व भूमिका को संथारा कहते हैं। सलेखना से आत्मा को शुद्ध करने के पश्चात शारीरिक क्षमता व मनोबल देख कर संथारा (अनशन ) किया जाता हैं। संथारा दो प्रकार का होता हैं।


(1) सागारी ( थोड़े काल के लिए) (2) यावज्जीवन(पूर्ण जीवन के लिए)


*सागारी संथारा*

मृत्यु का कोई समय निश्चित नहीं है। कभी-कभी वह अचानक ही हमला कर देती है और जीवन-धन का अपहरण कर लेती है। कई लोग सदा की भांति सोते हैं और सोते-सोते ही मृत्यु के ग्रास बन जाते हैं। ऐसी हालत में धर्मशील पुरुषों को सदैव सावधान रहना चाहिए। कदाचित् अचानक मृत्यु आ जाए तो आत्मा कोरा परभव में चला जाएगा, ऐसा भय सदैव रख कर रात्रि में सोते समय इत्वर (स्वल्प) काल के लिए अर्थात् सोकर उठने तक के


समय के लिए और कदाचित् सोते-सोते ही मृत्यु आ जाए तो यावज्जीवन के लिए यथायोग्य या जब कोई अचानक संकट काल आ जाए या बीमारी आदि की भयंकरता हो, उस समय सागारी संथारा किया जाता हैं।रात को सोते समय भी प्रात: काल उठने तक सागारी संथारा किया जाता हैं। इसके लिए निम्नोक्त विधि का उपयोग किया जाता हैं।

तेरापंथ  के हिसाब से⤵️


आहार,शरीर उपधि, पचखूं पाप अठार। मरण पाऊं तो वोसिरे, जीऊं तो आगार।


दूसरी विधि(मंदिर मार्गी)⤵️


शयन करने से पहले पूर्वोक्त आवस्सही इच्छाकारेण की पाटी और तस्सुत्तरी की पाटी कह कर चार लोगस्स का कायोत्सर्ग करे। एक लोगस्स प्रकट में कह कर दोनों हाथ जोड़ कर कहे.


भक्खंति, डझंति, मारंति 

किंवि उवसग्गेणं मम आउ-अन्तो भवेज्ज तहा सरीरसम्बन्ध- मोह-ममत्त-अट्ठारसपावट्ठाणाणि चउव्विहं पि आहारं वोसिरामि, सुहसमाहिएणं निद्दावइक्कति तओ आगारो।

*अर्थात* सोते समय कदाचित् कोई आपात स्थिति आ जाये जैसे- सिंह आदि खा जाए, आग लगने से शरीर जल जाए, पानी में बह जाऊं, शत्रु आदि मार डाले या आयु पूर्ण होने से मर जाऊं या किसी अन्य उपसर्ग से मेरी आयु का अन्त हो जाए तो मैं अपने शरीर की मोह-ममता का, अठारह पापस्थानों का और चारों प्रकार के आहारों का त्याग करता हूँ| अगर सुख-समाधि के साथ जागृत होऊं तो मैं सब प्रकार से खुला हूँ।

इस प्रकार संकल्प करके नमस्कार मन्त्र का स्मरण करता हुआ शयन करे। जागने पर पूर्वोक्त प्रकार से चार लोगस्स का कायोत्सर्ग करके निम्नलिखित पाठ का उच्चारण करे:


'पडिक्कमामि निगामसिज्जाए संथारा उवट्टणाए परियट्टणाए आउट्टणपसारणाए, छप्पइसंघट्टनाए, कुइए, कक्काराइए, छीए, जंभाइए, आमोसे, ससरक्खामोसे, आउलमाउलाए सुविणवक्तियाए, इत्थीविपरियासयाए, दिट्ठिविपरियासयाए मणविपरियासयाएं, पाणभोयण- विपरियासयाए, जो मे राइसिय अइयारो कओ तस्स मिच्छा मि दुक्कडं।२


इस पाठ का उच्चारण करने के बाद कहना चाहिए:


सागारिय अणसणस्स-आगारयुक्त अनशन (संथारे) का।


पच्चक्खाणं-प्रत्याख्यान (नियम) फासियं-स्पर्शा

पालिय-पाला


(कुण्डलिया छन्द)


मरदों माथे मनुष्य ने मरवानो तो छेज, पण परमार्थ करणे मरणो मुश्किल एज। मरणां मुश्किल एज सकल संसार सभारे। बाह बाह कहि सहु विश्व अहोनिशि कीर्ति उच्चारे। 

दाखे दलपतराम वचनना पालो विरदो, मरवानो तो छेज मनुष्य न माथे मरदो।


इतने सूत्र उतारने में कोई भी गलती रह गई हो तो माफ करियेगा 

मिच्छामि दुक्कड़म🙏🙏


*16:2:21*

*अध्याय*

2 यावज्जीवन संथारा(अनगारी संलेखना)


[आर्या छन्द ]


उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायाञ्च निःप्रतीकारे। धर्माय तनुविमोचनमाहुः संलेखनामार्याः॥


-रत्नकरण्डक श्रावकाचार।


अर्थात्-प्राणान्तकारी उपसर्ग के आने पर, अन्न-पानी की प्राप्ति न हो सके ऐसे दुर्भिक्ष के पड़ने पर, वृद्धावस्था के कारण शरीर के अत्यन्त ही जीर्ण हो जाने पर, असाध्य रोग उत्पन्न हो जाने पर, इस प्रकार का संकट आ जाने पर जब प्राण बचने का कोई उपाय न हो तब (अथवा निमित्त ज्ञान आदि के द्वारा अपनी आयु का निश्चित रूप से अन्त समीप आया जान कर) अपने धर्म की रक्षा के लिए शरीर का त्याग संलेखना तप कहलाता है, गणधरों ने कहा है


संलेहणा हि दुविहा, अब्भन्तरिया य बाहिरा चेव । अब्भन्तरा कसाएसु, बाहिरा होइ हु सरीरे ॥ २१ ॥


-भगवती आराधना।


अर्थात्-क्रोध आदि कषायों का त्याग करना आभ्यन्तर संलेखना है और शरीर का त्याग करना बाह्य संलेखना है। इस प्रकार संलेखना दो तरह की है: संलेखना की विधि-संलेखना को 'अपच्छिम मारणंतिय संलेहणा झूसणा आराहणा' भी कहते हैं। जब मृत्यु निकट आ जाए तो उसे सुधारने के लिए धर्मसेवन पूर्वक शरीर का


त्याग करने के लिए सावधान बनना चाहिए। जिनकी मनोकामना संसार के कामों से निवृत्त


१. नवकारसी आदि दस प्रत्याख्यानों को तथा पौषध एवं दया को पारते समय भी यह पाठ बोलना चाहिए। 


अन्तिम शुद्धि हो गई है, अर्थात् जिन्हें अब संसार का कोई भी कार्य नहीं करना है, वही आत्मार्थ का साधन करने के लिए अर्थात् संथारा करने के लिए तैयार हो सकते हैं। जो संलेखना करने को उद्यत हुआ है उसका कर्त्तव्य है कि-पहले इस भव में सम्यक्त्व और व्रतों को ग्रहण करने के पश्चात् सम्यक्त्व में और व्रतों में उपयोग पूर्वक जो-जो अतिचार लगे हों, उनकी गवेषणा करे। अतिचारों की गवेषणा करने पर स्ववश, परवश या मोहवश जो जो अतिचार लगे हों, उन सब छोटे-बड़े अतिचारों की आलोचना करने के लिए आचार्य, उपाध्याय अथवा साधु, जो उस अवसर पर निकट में विराजमान हों, उनके समक्ष निवेदन कर दे। कदाचित् आलोचना सुनने योग्य साधु मौजूद न हों तो गंभीरता आदि गुणों से युक्त साध्वी जी के सामने अपने दोषों को प्रकट करे। अगर साध्वी जी का योग भी न मिले तो उक्त गुणयुक्त श्रावक के समक्ष और श्रावक भी मौजूद न हो तो श्राविका के सामने अपने दोषों को प्रकट कर दे। कदाचित् श्राविका भी न हो तो जंगल में जाकर पूर्व तथा उत्तर दिशा की ओर मुख करके, सीमन्धर स्वामी को नमस्कार करके,प्रायश्चित करे और  हाथ जोड़ कर खड़ा हो और पुकार कर कहे-प्रभो! मैंने अमुक-अमुक अनाचीर्ण का आचरण किया है, मैं अपनी समझ के अनुसार उसका प्रायश्चित्त आपकी साक्षी से स्वीकार करता हूँ/या करती हूं। अगर वह न्यून या अधिक हो तो 'तस्स मिच्छा मि दुक्कड।


इस प्रकार नि:शल्य होकर फिर संथारा करे। जैसे काले रंग का कोयला आग में पड़ कर श्वेत वर्ण की राख के रूप में परिणत हो जाता है, उसी प्रकार संथारा रूपी अग्नि में झौंकने से आत्मा भी पाप की कालिमा को त्याग कर उज्ज्वल हो जाती है। अतएव संथारा करने के इच्छुक साधक को ऐसे स्थान पर जाना चाहिए जहां खान-पान, भोग-विलास के पदार्थ विद्यमान न हों, संसार-व्यवहार सम्बन्धी शब्द और दृश्य सुनने तथा देखने में न आवें। त्रस एवं स्थावर जीवों की हिंसा होने की सम्भावना न हो ऐसे उपाश्रय, पौषधशाला आदि स्थानों में अथवा जंगल, पहाड़, गुफा आदि स्थानों में जाए। वहां जाकर जहां चित्त की समाधि का योग हो ऐसे शिला आदि स्थानों को रजोहरण से आहिस्ते-आहिस्ते प्रमार्जन करे। कचरे को किसी पाटी आदि पर ले ले और निर्जीव जगह देख कर विधिपूर्वक परठ दे। फिर लघुनीति और बड़ी नीति, श्लेष्म और पित्त आदि को परठने की भूमिका का प्रतिलेखन करे। संथारे की भूमि हरितकाय, अंकुर, चींटी आदि के बिल वगैरह से रहित होनी चाहिए। उसे सूक्ष्म दृष्टि से देखकर फिर संथारा करने की जगह आ जाए ।इतना सब कर चुकने के पश्चात् प्रतिलेखन और प्रमार्जन करने में तथा गमन-आगमन करने में जो पाप लगा हो, उसकी निवृत्ति के लिए पूर्वोक्त विधि के अनुसार 'इच्छाकारेण' का तथा 'तस्सुत्तरी' का पाठ कह कर इच्छाकारेण' का कार्यात्सर्ग करे, तत्पश्चात् ' लोगस्स' का पाठ बोले।, फिर निम्नलिखित शब्द कहे-प्रतिलेखना में पृथ्वीकाय आदि किसी भी काय की विराधना की हो या कोई भी दोष लगा हो तो 'तस्स मिच्छा मि दुक्कडं।'


इसके पश्चात् अगर शरीर कष्ट सहन करने में समर्थ हो तो जमीन पर या शिला परबिछौना

करके उस पर संथारा करें



*इस no पर भेजे* ⤵️


9️⃣9️⃣2️⃣6️⃣1️⃣6️⃣4️⃣0️⃣8️⃣9️⃣

*अंजुगोलछा*

*आप लिख कर टाइप करके या वॉइज  मैसेज भी भेज सकते हैं*


*ऊपर का अध्याय पढ़ कर इन प्रश्न का उत्तर  देना है, कल प्रातः 10बजे तक*।




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