भगवान पार्श्वनाथ प्रश्नोत्तरी
भगवान पार्श्वनाथ प्रश्नोत्तरी (नवमाँ भव)
प्रश्न १ -अच्युतेन्द्र की आयु कितने सागर की थी?
उत्तर -२० सागर।
प्रश्न २ -कितने वर्ष बाद उनका मानसिक आहार होता था?
उत्तर -२० हजार वर्ष बाद।
प्रश्न ३ -कितने वर्ष बाद वे श्वासोच्छ्वास लेते थे?
उत्तर -बीस पक्ष (१० माह) बीत जाने पर।
प्रश्न ४ -उनका शरीर कितने हाथ का था?
उत्तर -साढ़े तीन हाथ का।
प्रश्न ५ -अच्युत स्वर्ग में जन्म लेने के बाद सर्वप्रथम उन्होंने क्या किया?
उत्तर -अपने दिव्य अवधिज्ञान के व्दारा सारी बातें जानकर वे इन्द्र मंगल स्नान आदि विधिवत् करके सबसे पहले जिनेन्द्रदेव की पूजा करते हैं।
प्रश्न ६ -उसके पश्चात् उन्होंने क्या किया?
उत्तर -उसके पश्चात् उन्होंने अपनी विभूति का, देवांगनाओं का अवलोकन किया।
प्रश्न ७ -देवों में क्या विशेषता होती है?
उत्तर -उनके शरीर में मल-मूत्र, पसीना आदि नहीं निकलता है, न उनकी पलकें झपकतीं हैं, न नख और केश ही बढ़ते हैं। बुढ़ापा, अकालमृत्यु और व्याधि भी उनके नहीं है।
प्रश्न ८ -अच्युतेन्द्र की चर्या क्या है?
उत्तर -इन्द्रराज अपने परिवार देवों के साथ कभी नन्दीश्वर में पूजा रचाते हैं, कभी सुमेरु पर्वतों की वंदना के लिए चले जाते हैं, कभी सीमंधर आदि तीर्थंकर के समवसरण में दिव्य ध्वनि के व्दारा दिव्य धर्मामृत का पान करते हैं तो कभी ऋषि, मुनियों के दर्शन का लाभ लेते हैं। कभी नंदनवन में क्रीड़ा करते हैं तो कभी सभा में बैठकर देव-देवांगनाओं को संतुष्ट करते हुए मनोविनोद करते हैं। कभी-कभी उन्हें धर्म का उपदेश देते हुए कृतार्थ हो जाते हैं।
प्रश्न ९ -इतने अतुल वैभव को प्राप्त कर क्या उसमें आसक्त हो जाते हैं?
उत्तर -नहीं, भावी तीर्थंकर वे देवेन्द्र इस अतुल वैभव को भोगते हुए भी उसमें आसक्त नहीं होते हैं।
प्रश्न १०-अच्युतेन्द्र अपनी आयु पूर्ण कर कहाँ जन्मे?
उत्तर -अच्युतेन्द्र अपनी आयु पूर्ण कर वाराणसी नगरी में महाराजा अश्वसेन के घर जन्मे।
प्रश्न ११-कमठ का जीव वह नारकी मरकर कहाँ गया?
उत्तर -वह नारकी अपनी नरकायु पूर्ण कर भगवान पार्श्वनाथ की माता वामा देवी का पिता हुआ।
भगवान पार्श्वनाथ प्रश्नोत्तरी (दशवाँ भव )
प्रश्न १ -तीर्थंकर भगवान के कितने कल्याणक होते हैं?
उत्तर -पाँच कल्याणक।
प्रश्न २ -पाँचों कल्याणकोें के नाम बताइये?
उत्तर -गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान एवं निर्वाण ये पाँच कल्याणक हैं।
प्रश्न ३ -जैनधर्म के तेईसवें तीर्थंकर कौन हैं?
उत्तर -भगवान पार्श्वनाथ।
प्रश्न ४ -भगवान पार्श्वनाथ के माता-पिता कौन थे?
उत्तर -वाराणसी नरेश महाराजा अश्वसेन एवं महारानी वामादेवी भगवान के माता-पिता थे।
प्रश्न ५ -तीर्थंकर भगवान के गर्भ में आने के कितने माह पूर्व से रत्नवृष्टि प्रारंभ होती है?
उत्तर -छ: माह पूर्व से।
प्रश्न ६ -यह रत्नवृष्टि कहाँ होती है?
उत्तर -तीर्थंकर भगवान की माता के आँगन में।
प्रश्न ७ -रत्नवृष्टि कौन करता है और किसकी आज्ञा से करता है?
उत्तर -सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से धनकुबेर रत्नवृष्टि करता है।
प्रश्न ८ -प्रतिदिन कितने करोड़ रत्नों की वर्षा होती है?
उत्तर -साढ़े तीन करोड़ प्रमाण रत्न प्रतिदिन बरसते हैं।
प्रश्न ९ -रत्नवृष्टि के साथ-साथ देवगण और क्या-क्या करते हैं?
उत्तर -पंचाश्चर्यवृष्टि।
प्रश्न १०-माता वामादेवी ने तीर्थंकर शिशु के गर्भ में आने से पूर्व कितने स्वप्न देखे?
उत्तर -सोलह स्वप्न।
प्रश्न ११-वे सोलह स्वप्न कौन से हैं?
उत्तर -(१) ऐरावत हाथी (२) शुभ्र बैल (३) सिंह (४) लक्ष्मी देवी (५) दो फूूलमाता (६) उदित होता हुआ सूर्य (७) तारावलि से वेष्ठित पूर्ण चन्द्रमा (८) जल में तैरती हुई मछलियों का युग्म (९) कमल से ढके दो पूर्ण स्वर्ण कलश (१०) सरोवर (११) समुद्र (१२) सिंहासन (१३) देवविमान (१४) धरणेन्द्र विमान (१५) रत्नों की राशि और (१६) निर्धूम अग्नि ये सोलह स्वप्न हैं।
प्रश्न १२-महारानी ने उन स्वप्नों का फल किनसे पूछा?
उत्तर -महाराज अश्वसेन से।
प्रश्न १३-राजा ने उनका क्या फल बतलाया?
उत्तर -राजा ने कहा कि आपके गर्भ में त्रैलोक्यपति तीर्थंकर का जीव अवतरित हो चुका है, आप जगत्पति पुत्ररत्न को प्राप्त करेंगी।
प्रश्न १४-माता की सेवा के लिए कहाँ से देवियाँ आती हैं?
उत्तर -स्वर्ग से (रुचकपर्वतवासिनी एवं कुलाचलवासिनी देवियाँ)
प्रश्न १५-भगवान पार्श्वनाथ की गर्भकल्याणक तिथि क्या है?
उत्तर -वैशाख वदी व्दितीया
प्रश्न १६-भगवान पार्श्वनाथ किस तिथि में जन्मे?
उत्तर -पौषवदी ग्यारस को।
प्रश्न १७-भगवान के जन्म पर क्या विशेष बातें होती हैं?
उत्तर -उसी क्षण सहसा स्वर्ग में बिना बजाए ही घण्टे बजने लगते हैं, ज्योतिर्वासी देवों के यहाँ स्वयं ही सिंहनाद होने लगता है, भवनवासियों के भवनों में स्वयं ही शंखध्वनि उठने लगती है और व्यन्तर देवों के यहाँ भेरी बजने लगती है, इन्द्रों के आसन कांप उठते हैं, उनके मस्तक के मुकुट स्वयमेव ही झुक जाते हैं और कल्पवृक्षों से पुष्पवृष्टि होने लगती है।
प्रश्न १८-प्रभु के जन्म को जानकर सौधर्म इन्द्र क्या करता है?
उत्तर -सौधर्म इन्द्र सभी अतिशय विषयों से जिन जन्म की सूचना को पाकर आसन छोड़कर सात कदम आगे बढ़कर परोक्ष में पुन:-पुन: नमस्कार करता हुआ असीम पुण्य संचित कर लेता है अनन्तर ऐरावत हाथी पर चढ़कर शची इन्द्राणी एवं असंख्य सुरपरिवार के साथ आकर भगवान का जन्मकल्याणक महोत्सव मनाता है।
प्रश्न १९-जिनशिशु का प्रथम दर्शन करने का सौभाग्य किसे प्राप्त होता है?
उत्तर -शची इन्द्राणी को।
प्रश्न २०-प्रभु के प्रथम दर्शन से उसे क्या फल मिलता है?
उत्तर -शची अपनी स्त्री पर्याय को छेदकर पुन: पुरुष जन्म लेकर एक ही भव में मोक्ष चली जाती है।
प्रश्न २१-एक इन्द्र के जीवन में कितनी इन्द्राणियाँ मोक्ष चली जाती हैं?
उत्तर -चालीस नील प्रमाण शची-इन्द्राणियाँ।
प्रश्न २२-ऐसा किस कारण से होता है?
उत्तर -क्योंकि इन्द्र की आयु सागरोपम से और इन्द्राणियों की आयु पल्योपम से होती है।
प्रश्न २३-सौधर्म इन्द्र जिनशिशु का जन्माभिषेक कहाँ करते हैं?
उत्तर -सुमेरु पर्वत की पाण्डुकशिला पर।
प्रश्न २४-भगवान का ‘पार्श्वनाथ’ यह नामकरण किसने किया?
उत्तर -सौधर्म इन्द्र ने जन्माभिषेक के पश्चात् पाण्डुकशिला पर किया।
प्रश्न २५-क्या जिनशिशु माता का स्तनपान करते हैं?
उत्तर -नहीं, इन्द्र तीर्थंकर शिशु के अंगूठे में अमृत को स्थापित कर देता है, उसी अंगूठे को चूसकर जिनबालक वृद्धि को प्राप्त होते हैं।
प्रश्न २६-भगवान के साथ क्रीड़ा कौन करते हैं?
उत्तर -इन्द्र की आज्ञा से प्रभु के साथ उन्हीं की आयु के अनुरूप रूप बनाकर देवगण क्रीड़ा करते हैं।
प्रश्न २७-प्रभु के जन्म के कितने अतिशय होते हैं?
उत्तर -१० अतिशय।
प्रश्न २८-दस अतिशयों के नाम बताइये?
उत्तर -(१) अतीव सुन्दर शरीर (२) सुगंधित शरीर (३) पसीना रहित शरीर (४) मल-मूत्र रहित शरीर (५) प्रिय हित वचन (६) श्वेत रुधिर (७) अतुल्य बल (८) शरीर में १००८ लक्षण (९) समचतुरस्र संस्थान और (१०)वजवृषभनाराच संहनन।
प्रश्न २९-किन जीवों के आहार तो है किन्तु नीहार नहीं है?
उत्तर -तीर्थंकर, उनके माता-पिता, बलभद्र, चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण और भोगभूमिया जीव, इनके आहार तो है किन्तु नीहार नहीं है।
प्रश्न ३०-महाराजा अश्वसेन ने तीर्थंकर पाश्वॅकुुमार के समक्ष कितने वर्ष की उम्र में विवाह का प्रस्ताव रखा?
उत्तर -१६ वर्ष की उम्र में।
प्रश्न ३१-तीर्थंकर पाश्वॅकुमार ने उसे स्वीकार किया अथवा नहीं?
उत्तर -तीर्थंकर पाश्वॅकुुमार ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और बाल ब्रह्मचारी रहे।
प्रश्न ३२-भगवान पार्श्वनाथ राजपुत्रों के साथ कहाँ विचरण कर रहे थे?=
उत्तर -वे राजपुत्रों के साथ हाथी पर सवार होकर बनारस के उध्यान में विचरण कर रहे थे।
प्रश्न ३३-वहाँ उन्होंने क्या देखा?
उत्तर -वहाँ उन्होंने एक तापसी साधु को पंचाग्नि तप करते देखा।
प्रश्न ३४-वह तापसी कौन था?
उत्तर -वह प्रभु पाश्वॅ के नाना थे अर्थात् माता वामादेवी के पिता थे।
प्रश्न ३५-उन्हें देखकर प्रभु पाश्वॅ ने क्या किया?
उत्तर -प्रभु पाश्वॅ बिना नमस्कार किए वहीं खड़े हो गए।
प्रश्न ३६-यह देखकर तापसी ने क्या सोचा?
उत्तर -तापसी ने सोचा कि मैं इसका नाना हूँ फिर भी यह मेरी विनय नहीं कर रहा है ऐसा सोचते-सोचते अतीव क्रोध में आकर वह हाथ में कुल्हाड़ी लेकर लकड़ी चीरने लगा।
प्रश्न ३७-तापसी को लकड़ी चीरते देख पाश्वॅकुमार ने क्या कहा?
उत्तर -पाश्वॅ ने कहा कि हे तापसी! यह काठ मत चीरो, इसमें नागयुगल बैठे हुए हैं।
प्रश्न ३८-यह सुनकर तापसी ने क्या किया?
उत्तर -यह सुन तापसी ने मारे क्रोध के लकड़ी के दो टुकड़े कर दिये।
प्रश्न ३९-क्या उस लकड़ी में सचमुच नागयुगल थे?
उत्तर -हाँ, उस लकड़ी में नागयुगल थे जो तापसी व्दारा दो टुकड़े करते ही नागयुगल के दो टुकड़े हो गए।
प्रश्न ४०-भगवान ने उन्हें कौन सा मंत्र सुनाया?
उत्तर -भगवान ने उन्हें दिव्य उपदेश देते हुए महामंत्र णमोकार सुनाया।
प्रश्न ४१-भगवान के उपदेश को सुनते हुए नागयुगल शरीर का परित्याग कर कहाँ गए?
उत्तर -देवयोनि में धरणेन्द्र और पद्मावती हो गए।
प्रश्न ४२-यह तापसी कौन था? क्या इसका पाश्वॅकुमार से वैर था?
उत्तर -यह कमठचर का जीव था, जो आनन्द मुनिराज की हत्या के पाप से पाँचवें नरक में जाकर सत्रह सागर की आयु तक असीम दुखों को भोगकर निकला और बहुत काल तक अर्थात् तीन सागर तक पशु योनि में त्रस-स्थावर पर्यायों को धारण करते हुए पुन: कुछ कर्मभार के हल्के हो जाने पर महीपालपुर में राजा महीपाल हुआ जिसकी पुत्री वामादेवी थीं।
प्रश्न ४३-राजा महीपाल ने तापसी वेष क्यों धारण किया?
उत्तर -पट्टरानी के मरण के अनंतर वियोगजन्य दुख से दु:खी होते हुए तापसी वेष धारण कर लिया।
प्रश्न ४४-इस घटना के अनन्तर तापसी मरण करके कहाँ जन्मा?
उत्तर -तापसी मरण करके कुतप के प्रभाव से शंबर नाम का ज्योतिषी देव हो गया। प्रश्न ४५-तीर्थंकर भगवान कौन सा भोजन करते हैं?
उत्तर -तीर्थंकर प्रभु गृहस्थावस्था में मत्यॅलोक का अन्न या वस्त्र नहीं ग्रहण करते हैं उनके लिए भोजन, वस्त्र आदि वस्तुएं इन्द्र अपने स्वर्ग से ले जाकर प्रदान करता है।
प्रश्न ४६-भगवान पार्श्वनाथ को वैराग्य किस निमित्त से हुआ?
उत्तर -अयोध्या नरेश जयसेन महाराज के व्दारा एक बार दूत से नाना प्रकार की वस्तुएं वाराणसी में भगवान पार्श्वनाथ के पास भेंट में भेजी गर्इं तब भगवान ने उससे अयोध्या का वैभव पूछा, तब दूत ने सविस्तार भगवान वृषभदेव के अवतार का वर्णन किया जिससे उन्हें राज्य सुख वैभव से वैराग्य हो गया।
प्रश्न ४७-उन्हें कितने वर्ष की उम्र में वैराग्य हुआ?
उत्तर -३० वर्ष की उम्र में।
प्रश्न ४८-भगवान के वैराग्य के समय कौन से स्वर्ग से कौन से देव आते हैं?
उत्तर -पाँचवें ब्रह्म स्वर्ग से लौकांतिक देव आते हैं।
प्रश्न ४९-भगवान कौन सी पालकी में बैठकर दीक्षा हेतु वन को रवाना हुए?
उत्तर -इन्द्र द्वारा लाई गई ‘विमला’ नाम की रत्नपालकी में बैठकर वन के लिए रवाना हुए।
प्रश्न ५०-भगवान पार्श्वनाथ ने कौन से वन में किस वृक्ष के नीचे दीक्षा ली?
उत्तर -भगवान पार्श्वनाथ ने अश्व नामक वन में वटवृक्ष के नीचे दीक्षा ली।
प्रश्न ५१-भगवान पार्श्वनाथ ने कौन सी तिथि में दीक्षा ली?
उत्तर -भगवान पार्श्वनाथ ने पौष वदी एकादशी तिथि में दीक्षा ली।
प्रश्न ५२-उनके साथ अन्य कितने राजाओं ने दीक्षा ली?
उत्तर -३०० राजाओं ने।
प्रश्न ५३-तीर्थंकर भगवान को दीक्षा कौन प्रदान करता है?
उत्तर -तीर्थंकर सिद्धों की साक्षीपूर्वक स्वयं दीक्षा लेते हैं।
प्रश्न ५४-भगवान के केशों का विसर्जन कौन, कहाँ करता है?
उत्तर -इन्द्रगण प्रभु के इन्द्रनीलमणि सदृश केशों को रत्नपिटारी में रखकर बड़े वैभव के साथ क्षीरसागर में विसर्जित करते हैं।
प्रश्न ५५-प्रभु ने दीक्षा के पश्चात् कितने दिन का उपवास किया?
उत्तर -प्रभु ने दीक्षा लेते ही तेले का नियम कर लिया।
प्रश्न ५६-भगवान को मन:पर्यय ज्ञान कब प्रगट होता है?
उत्तर -जन्म से ही मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञान के धारी प्रभु को दीक्षा लेते ही अन्तर्मुहूर्त में मन: पर्ययज्ञान प्रकट हो जाता है।
प्रश्न ५७-प्रभु को प्रथम आहार देने का सौभाग्य किसे प्राप्त हुआ?
उत्तर -प्रभु को प्रथम आहार देने का सौभाग्य गुल्मखेटपुर के महाराज ब्रह्मदत्त को मिला था।
प्रश्न ५८-भगवान पार्श्वनाथ पर उपसर्ग किसने और कब किया?
उत्तर -एक समय प्रभु योग में तन्मय हुए अपनी शुद्धात्मा में लीन थे तभी आकाशमार्ग से गमन करते हुए शंबर नामक ज्योतिषी देव का विमान वहाँ रुक गया, अवधिज्ञान के बल से पूर्व भव के वैर का स्मरण कर अत्यन्त कुपित होकर उसने प्रभु पर घोर उपसर्ग करना प्रारंभ कर दिया।
प्रश्न ५९-आकाशमार्ग से गमन करते हुए शंबरदेव का विमान क्यों रुका?
उत्तर -यह नियम है कि महापुरुषों के ऊपर से किसी भी देव या विध्याधर का विमान उल्लंघन कर नहीं जा सकता है।
प्रश्न ६०-इस उपसर्ग के प्रसंग में कौन से देव का आसन कंपायमान हो उठा?
उत्तर -धरणेन्द्र देव का।
प्रश्न ६१-उन्होंने उपसर्ग का निवारण किस प्रकार किया?
उत्तर -उन्होंने अवधिज्ञान के बल से प्रभु के उपसर्ग को जाना और अपने प्रति किए गए उपकार का चिंतन करते हुए अपनी भार्या पद्मावती देवी के साथ वहाँ आ गये। देव दंपती ने प्रभु की प्रदक्षिणा दी और बार-बार नमस्कार किया तथा प्रभु के मस्तक पर फण का छत्र तान दिया। धरणेन्द्र युगल को देखते ही वह पापी कमठचर भाग खड़ा हुआ।
प्रश्न ६२-उपसर्ग अथवा उपसर्ग निवारण का प्रभु पर क्या कोई असर हुआ?
उत्तर -प्रभु पर इनका कोई असर नहीं हुआ और वे सातिशय अप्रमत्त अवस्थारूप निर्विकल्प ध्यान में स्थिर हो गए और सत्तम गुणस्थान से ऊपर चढ़कर क्षपक श्रेणी में आरोहण करते हुए दशवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म का निर्मूल नाशकर अघातिया कर्मों का क्रमश: नाशकर केवली परमात्मा हो गए।
प्रश्न ६३-केवलज्ञान होते ही प्रभु कहाँ विराजमान हो गए?
उत्तर -केवलज्ञान होते ही इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने अभूतपूर्व समवसरण की रचना कर दी, तत्क्षण ही प्रभु पृथ्वी से ५००० धनुष प्रमाण ऊपर आकाश में पहुँच गए।
प्रश्न ६४-जिस स्थान पर प्रभु का उपसर्ग दूर हुआ, वह स्थान किस नाम से जाना जाता है?
उत्तर -जिस पवित्र स्थान में अहि-सर्प के रूप को धारणकर धरणेन्द्र ने प्रभु के ऊपर छत्र धारण किया था इसलिए उस स्थान का ‘अहिच्छत्र’ यह सार्थक नाम विश्व में प्रख्यात हो गया है।
प्रश्न ६५-भगवान पार्श्वनाथ की केवलज्ञान तिथि क्या है?
उत्तर -चैत्र कृष्णा चतुर्दशी।
प्रश्न ६६-भगवान के समवसरण में प्रथम गणधर कौन थे?
उत्तर -स्वयंभू स्वामी।
प्रश्न ६७-और अन्य कितने गणधर थे?
उत्तर -९ गणधर।
प्रश्न ६८-कितने मुनि और आर्यिकाएँ थीं?
उत्तर -१६००० मुनि एवं ३६ हजार आर्यिकाएँ थीं।
प्रश्न ६९-प्रधान गणिनी आर्यिका माता कौन थीं?
उत्तर -गणिनी आर्यिका सुलोचना।
प्रश्न ७०-श्रावक-श्राविकाओं की संख्या कितनी थी?
उत्तर -१ लाख श्रावक एवं ३ लाख श्राविकाएं थीं।
प्रश्न ७१-शंबर नामक ज्योतिषी देव उपसर्ग के पश्चात् कहाँ गया?
उत्तर -शंबर नाम का ज्योतिषी देव काललब्धि पाकर शांत हो गया और प्रभु को बार-बार नमस्कार कर सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर लिया।
प्रश्न ७२-उसको सम्यग्दर्शन प्राप्त करते देख वन में रहने वाले तापसियों पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर -उसको देख उस वन में रहने वाले सात सौ तपस्वियों ने भी मिथ्यादर्शन छोड़कर संयम धारणकर लिया व सभी शुद्ध सम्यग्दृष्टि हो गए।
प्रश्न ७३-प्रभु ने धर्मोपदेश करते हुए कितने वर्ष तक विहार किया?
उत्तर -५ माह कम सत्तर वर्ष तक।
प्रश्न ७४-भगवान पार्श्वनाथ ने कहाँ से मोक्ष प्राप्त किया?
उत्तर -सम्मेदशिखर पर्वत से।
प्रश्न ७५-कौन सी तिथि में भगवान को निर्वाण प्राप्त हुआ?
उत्तर -श्रावण शुक्ला सप्तमी।
प्रश्न ७६-उस तिथि को किस नाम से जाना जाता है?
उत्तर -मोक्षसप्तमी पर्व के नाम से।
मुकुट सप्तमी मोक्ष सप्तमी
भगवान पार्श्वनाथ का परिचय
इसी जम्बूद्वीप के दक्षिण भरतक्षेत्र में एक सुरम्य नाम का बड़ा भारी देश है। उसके पोदनपुर नगर में अतिशय धर्मात्मा अरविन्द राजा राज्य करते थे। उसी नगर में विश्वभूति ब्राह्मण की अनुन्धरी ब्राह्मणी से उत्पन्न हुए कमठ और मरुभूति नाम के दो पुत्र थे जोकि क्रमश: विष और अमृत से बनाये हुए के समान मालूम पड़ते थे। कमठ की स्त्री का नाम वरुणा तथा मरुभूति की स्त्री का नाम वसुन्धरा था। ये दोनों ही राजा के मन्त्री थे। एक समय किसी राज्यकार्य से मरुभूति बाहर गया था तब कमठ मरुभूति की स्त्री वसुन्धरा के साथ व्यभिचारी बन गया। राजा अरविंद को यह बात पता चलते ही उन्होंने उस कमठ को दण्डित करके देश से निकाल दिया। वह कमठ भी मानभंग से दु:खी होकर किसी तापस आश्रम में जाकर हाथ में पत्थर की शिला लेकर कुतप करने लगा। भाई के प्रेम के वशीभूत हो मरूभूति भी कमठ को ढूंढ़ता हुआ उधर चल पड़ा। उसे आते देख क्रोध के आवेश में आकर कमठ ने वह हाथ की शिला उसके सिर पर पटक दी जिससे मरुभूति मरकर सल्लकी वन में वङ्काघोष नाम का हाथी हो गया। किसी समय अरविन्द ने विरक्त होकर राज्य छोड़ दिया और संयम धारणकर सब संघ की वंदना के लिये प्रस्थान किया। चलते-चलते वे उसी वन में पहुँचकर सामायिक के समय प्रतिमायोग से विराजमान हो गये। वह हाथी संघ में हाहाकार करता हुआ अरविन्द महाराज के सन्मुख आकर मारने के लिए दौड़ा, तत्क्षण ही उनके वक्षस्थल में वत्स के चिन्ह को देखते ही उसे पूर्वभव के संबंध का स्मरण हो आया, तब वह पश्चाताप से शांत होता हुआ चुपचाप खड़ा रहा। अनंतर अरविन्द मुनिराज ने उसे धर्मोपदेश देकर श्रावक के व्रत ग्रहण करा दिये। उस समय से वह हाथी पाप से डर कर दूसरे हाथियों द्वारा तोड़ी हुई वृक्ष की शाखाओं और सूखे पत्तों को खाने लगा। पत्थरों के गिरने से अथवा हाथियों के समूह के संघटन से जो पानी प्रासुक हो जाता था, उसे ही वह पीता था तथा प्रोषधोपवास के बाद पारणा करता था। इस प्रकार चिरकाल तक महान तपश्चरण करता हुआ वह हाथी अत्यन्त दुर्बल हो गया। किसी दिन वह हाथी पानी पीने के लिए वेगवती नदी के किनारे गया और कीचड़ में गिरकर पँâस गया, निकल नहीं सका। वहाँ पर दुराचारी कमठ का जीव मरकर कुक्कुट सर्प हुआ था, उसने पूर्व वैर के संस्कार से उसे काट खाया जिससे वह हाथी महामंत्र का स्मरण करते हुए मरकर बारहवें स्वर्ग में देव हो गया। इधर वह सर्प पाप से मरकर तीसरे नरक चला गया। जंबूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में पुष्कलावती देश है उसके विजयार्ध पर्वत पर त्रिलोकोत्तम नगर में राजा विद्युत्गति राज्य करते थे। वह देव का जीव वहाँ से च्युत होकर राजा की विद्युन्माला रानी से रश्मिवेग नाम का पुत्र हो गया। रश्मिवेग ने युवावस्था में समाधिगुप्त मुनिराज के पास दीक्षा लेकर महासर्वतोभद्र आदि श्रेष्ठ उपवास किये। किसी समय हिमगिरि पर्वत की गुफा में योग धारण कर विराजमान थे कि कुक्कुट सर्प का जीव, जो नरक से निकलकर अजगर हुआ था, उसने निगल लिया। मुनि का जीव मरकर सोलहवें स्वर्ग में देव हुआ और कालांतर में अजगर मरकर छठे नरक चला गया। जंबूद्वीप के पूर्वविदेहसम्बन्धी पद्मादेश में अश्वपुर नगर है। वहाँ के राजा वङ्कावीर्य और रानी विजया के वह स्वर्ग का देव मरकर वङ्कानाभि नाम का पुत्र हुआ। वह पुण्यशाली वङ्कानाभि चक्रवर्ती के पद का भोक्ता हो गया, अनंतर किसी समय विरक्त होकर साम्राज्य वैभव का त्यागकर क्षेमंकर गुरु के समीप जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। कमठ का जीव, जो कि अजगर की पर्याय में मरकर छठे नरक गया था, वह कुरंग नाम का भील हो गया था। किसी दिन तपस्वी चक्रवर्ती वन में आतापन योग से विराजमान थे, उन्हें देखकर उस भील का वैर भड़क उठा, उसने मुनिराज पर भयंकर उपसर्ग किए। मुनिराज आराधनाओं की आराधना से मरण कर मध्यम ग्रैवेयक में श्रेष्ठ अहमिन्द्र हो गए तथा वह पापी भील आयु पूरी करके पाप के भार से पुन: नरक चला गया। जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में कौशलदेशसम्बन्धी अयोध्या नगरी में काश्यपगोत्री इक्ष्वाकुवंशी राजा वङ्काबाहु राज्य करते थे। उनकी रानी प्रभंकरी थी, वह अहमिन्द्र च्युत होकर रानी के गर्भ से आनंद नाम का आनंददायी पुत्र हो गया। वह बड़ा होकर मंडलेश्वर राजा हुआ। किसी दिन आनंद राजा ने महामंत्री के कहने से आष्टान्हिक महापूजा कराई जिसे देखने के लिए विपुलमति नाम के मुनिराज पधारे। आनंदराज ने उनकी वंदना-पूजा आदि करके उनसे पूछा कि हे भगवन्! जिनेन्द्रप्रतिमा अचेतन है उसकी पूजा से पुण्यबंध वैâसे होता है ? मुनिराज ने कहा-यद्यपि प्रतिमा अचेतन है तो भी महान पुण्य का कारण है जैसे चिंतामणि रत्न, कल्पवृक्ष आदि अचेतन होकर मनचिंतित और मनचाहे फल देते हैं, वैसे ही प्रतिमाओं की वंदना-पूजा आदि से जो शुभ परिणाम होते हैं उनसे सातिशय पुण्य बंध हो जाता है इत्यादि प्रकार से वीतराग प्रतिमा का वर्णन करते हुए मुनिराज ने राजा के सामने तीनलोकसम्बन्धी अकृत्रिम चैत्यालयों का वर्णन करना शुरू किया। उसमें प्रारम्भ में ही सूर्य के विमान में स्थित जिनमंदिर की विभूति का अच्छी तरह वर्णन किया। उस असाधारण विभूति को सुनकर राजा आनन्द को बहुत ही श्रद्धा हो गई। उस दिन से वह प्रतिदिन हाथ जोड़कर मस्तक झुकाकर सूर्यविमान में स्थित जिनप्रतिमाओं की स्तुति करने लगा। उसने कारीगरों द्वारा मणि और सुवर्ण का एक सूर्यविमान बनवाकर उसके भीतर जिनमन्दिर बनवाया। अनन्तर शास्त्रोक्त विधि से आष्टान्हिक, चतुर्मुख, रथावर्त, सर्वतोभद्र और कल्पवृक्ष इन नाम वाली पूजाओं का ‘अनुष्ठान' किया। ‘‘उस राजा को इस तरह सूर्य की पूजा करते देखकर उसकी प्रामाणिकता से अन्य लोग भी स्वयं भक्तिपूर्वक सूर्यमंडल की स्तुति करने लगे। आचार्य कहते हैं कि इस लोक में उसी समय से सूर्य की उपासना चल पड़ी है।’’ किसी दिन आनन्द राजा ने अपने सिर पर एक सपेâद बाल देखा, तत्क्षण विरक्त होकर पुत्र को राज्य- वैभव देकर समुद्रगुप्त मुनिराज के पास अनेक राजाओं के साथ दीक्षित हो गये। उन्होंने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और सोलहकारण भावनाओं के चिंतवन से तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया। आयु के अंत समय वे धीर-वीर शांतमना मुनिराज प्रायोपगमन संन्यास लेकर ध्यान में लीन थे। पूर्व जन्म के कमठ का जीव नरक से निकलकर वहीं सिंह हुआ था, सो उसने आकर उन मुनि का कण्ठ पकड़ लिया। सिंहकृत उपसर्ग से विचलित नहीं होने वाले वे मुनिराज मरणकर अच्युत (सोलहवें) स्वर्ग के प्राणत नामक विमान में इन्द्र हो गए। वहाँ पर उनकी आयु बीस सागर की थी, साढ़े तीन हाथ ऊँचा शरीर था। वे वहाँ दिव्य सुखों का अनुभव कर रहे थे। उधर सिंह का जीव भी आयु पूरी करके मरकर नरक चला गया और वहाँ के भयंकर दु:खों का चिरकाल तक अनुभव करता रहा।
भगवान पार्श्वनाथ का गर्भ और जन्म
गर्भावतार-इस जंबूद्वीप के भरतक्षेत्रसम्बन्धी काशी देश में बनारस नाम का एक नगर है। उसमें काश्यपगोत्री राजा विश्वसेन राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम ब्राह्मी था। जब उन सोलहवें स्वर्ग के इन्द्र की आयु छह मास की अवशेष रह गई थी, तब इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने माता के आँगन में रत्नों की धारा बरसाना शुरू कर दी थी। रानी ब्राह्मी ने सोलहस्वप्नपूर्वक वैशाख कृष्णा द्वितीया के दिन इन्द्र के जीव को गर्भ में धारण किया था। नवमास पूर्ण होने पर पौष कृष्णा एकादशी के दिन पुत्र का जन्म हुआ था। इन्द्रादि देवों ने सुमेरू पर्वत पर ले जाकर तीर्थंकर शिशु का जन्माभिषेक करके ‘पाश्र्वनाथ' यह नामकरण किया था। श्री नेमिनाथ के बाद तिरासी हजार सात सौ पचास वर्ष बीत जाने पर इनका जन्म हुआ था। इनकी आयु सौ वर्ष की थी जोकि इसी अंतराल में सम्मिलित है। प्रभु की कांति हरितवर्ण की एवं शरीर की ऊँचाई नौ हाथ प्रमाण थी। ये उग्रवंशी थे।
भगवान पार्श्वनाथ का तप
सोलह वर्ष बाद नवयौवन से युक्त भगवान किसी समय क्रीडा के लिये अपनी सेना के साथ नगर के बाहर गये। कमठ का जीव, जो कि सिंहपर्याय से नरक गया था, वह वहाँ से आकर महीपाल नगर का महीपाल नाम का राजा हुआ था। उसी की पुत्री ब्राह्मी (वामा देवी) भगवान पाश्र्वनाथ की माता थीं। यह राजा (भगवान के नाना) किसी समय अपनी पत्नी के वियोग में तपस्वी होकर वहीं आश्रम के पास वन में पंचाग्नियों के बीच में बैठा तपश्चरण कर रहा था। देवों द्वारा पूज्य भगवान उसके पास जाकर उसे नमस्कार किये बिना ही खड़े हो गये। यह देखकर वह खोटा साधु क्रोध से युक्त हो गया और सोचने लगा ‘‘मैं कुलीन हूँ, तपोवृद्ध हूँ और इसका नाना हूँ’’ फिर भी इस अज्ञानी कुमार ने अहंकारवश मुझे नमस्कार नहीं किया है, क्षुभित हो उसने अग्नि में लकड़ियों को डालने के लिए पड़ी हुई लकड़ी को काटने हेतु अपना फरसा उठाया, इतने में ही अवधिज्ञानी भगवान पाश्र्वनाथ ने कहा, ‘‘इसे मत काटो’’ इसमें जीव हैं किन्तु मना करने पर भी उसने लकड़ी काट ही डाली, तत्क्षण ही उसके भीतर रहने वाले सर्प और सर्पिणी निकल पड़े और घायल हो जाने से छटपटाने लगे। यह देखकर प्रभु के साथ स्थित सुभौमकुमार ने कहा कि तू अहंकारवश यह कुतप करके पाप का ही आस्रव कर रहा है। सुभौम के वचन सुन तपस्वी व्रुâधित होकर अपने तपश्चरण की महत्ता प्रकट करने लगा। तब सुभौमकुमार ने अनेक युक्तियों से उसे समझाया कि सच्चे देव, शास्त्र और गुरू के सिवाय कोई हितकारी नहीं है। जिनधर्म में प्रणीत सच्चे तपश्चरण से ही कर्म निर्जरा होती है। यह मिथ्यातप, जीव हिंसा सहित होने से कुतप ही है। यद्यपि वह तापसी समझ तो गया किन्तु पूर्वबैर का संस्कार होने से अपने पक्ष के अनुराग से अथवा दु:खमय संसार के कारण से अथवा स्वभाव से ही दुष्ट होने से उसने स्वीकार नहीं किया प्रत्युत् यह सुभौमकुमार अहंकारी होकर मेरा तिरस्कार कर रहा है, ऐसा समझ वह भगवान पाश्र्वनाथ पर अधिक क्रोध करने लगा। इसी शल्य से मरकर ‘शम्बर' नाम का ज्योतिषी देव हो गया। इधर सर्प और सर्पिणी कुमार के उपदेश से शांतभाव को प्राप्त हुए तथा मरकर बड़े ही वैभवशाली धरणेन्द्र और पद्मावती हो गये। अनंतर भगवान जब तीस वर्ष के हो गये, तब एक दिन अयोध्या के राजा जयसेन ने उत्तम घोड़ा आदि की भेंट के साथ अपना दूत भगवान पाश्र्वनाथ के समीप भेजा। भगवान ने भेंट लेकर उस दूत से अयोध्या की विभूति पूछी। उत्तर में दूत ने सबसे पहले भगवान ऋषभदेव का वर्णन किया पश्चात् अयोध्या का हाल कहा। उसी समय ऋषभदेव के सदृश अपने को तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध हुआ है, ऐसा सोचते हुए भगवान गृहवास से पूर्ण विरक्त हो गये और लौकांतिक देवों द्वारा पूजा को प्राप्त हुए। प्रभु देवों द्वारा लाई गई विमला नाम की पालकी पर बैठकर अश्ववन में पहुँच गये। वहाँ तेला का नियम लेकर पौष कृष्णा एकादशी के दिन प्रात:काल के समय सिद्ध भगवान को नमस्कार करके प्रभु तीन सौ राजाओं के साथ दीक्षित हो गये। पारणा के दिन गुल्मखेट नगर के धन्य नामक राजा ने अष्टमंगलद्रव्यों से प्रभु का पड़गाहन कर आहारदान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त कर लिये। छद्मस्थ अवस्था के चार मास व्यतीत हो जाने पर भगवान अश्ववन नामक दीक्षावन में पहँुचकर देवदारुवृक्ष के नीचे विराजमान होकर ध्यान में लीन हो गये। इसी समय कमठ का जीव शम्बर ज्योतिषी आकाशमार्ग से जा रहा था, अकस्मात् उसका विमान रुक गया, उसे विभंगावधि से पूर्व का बैर बंध स्पष्ट दिखने लगा। फिर क्या था, क्रोधवश उसने महागर्जना, महावृष्टि, भयंकर वायु आदि से महा उपसर्ग करना प्रारम्भ कर दिया, बड़े-बड़े पहाड़ तक लाकर समीप में गिराये, इस प्रकार उसने सात दिन तक लगातार भयंकर उपसर्ग किया। अवधिज्ञान से यह उपसर्ग जानकर धरणेन्द्र अपनी भार्या पद्मावती के साथ पृथ्वीतल से बाहर निकला। धरणेन्द्र ने भगवान को सब ओर से घेरकर अपने फणाओं के ऊपर उठा लिया और उस की पत्नी वङ्कामय छत्र तान कर खड़ी हो गई। आचार्य कहते हैं कि देखो! स्वभाव से ही क्रूर प्राणी इन सर्प-सर्पिणी ने अपने ऊपर किये गये उपकार को याद रखा, सो ठीक ही है क्योंकि सज्जन पुरुष अपने ऊपर किये हुए उपकार को कभी नहीं भूलते हैं।
भगवान पार्श्वनाथ का केवलज्ञान और मोक्ष
तदनंतर ध्यान के प्रभाव से प्रभु का मोहनीय कर्म क्षीण हो गया इसलिए बैरी कमठ का सब उपसर्ग दूर हो गया। मुनिराज पाश्र्वनाथ ने चैत्र कृष्णा चतुर्थी के दिन प्रात:काल के समय विशाखा नक्षत्र में लोकालोकप्रकाशी केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया। उसी समय इन्द्रों ने आकर समवसरण की रचना करके केवलज्ञान की पूजा की। शंबर नाम का देव भी काललब्धि पाकर उसी समय शांत हो गया और उसने सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया। यह देख, उस वन में रहने वाले सात सौ तपस्वियों ने मिथ्यादर्शन छोड़कर संयम धारण कर लिया, सभी शुद्ध सम्यग्दृष्टि हो गये और बड़े आदर से प्रदक्षिणा देकर भगवान की स्तुति-भक्ति की। आचार्य कहते हैं कि पापी कमठ के जीव का कहाँ तो निष्कारण वैर और कहाँ ऐसी पाश्र्वनाथ की शांति! इसलिए संसार के दु:खों से भयभीत प्राणियों को वैर-विरोध का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए।
भगवान पाश्र्वनाथ के समवसरण में स्वयंभू को आदि लेकर दस गणधर थे, सोलह हजार मुनिराज, सुलोचना को आदि लेकर छत्तीस हजार आर्यिकाएँ, एक लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकाएँ थीं। इस प्रकार बारह सभाओं को धर्मोपदेश देते हुए भगवान ने पाँच मास कम सत्तर वर्ष तक विहार किया। अंत में आयु का एक माह शेष रहने पर विहार बंद हो गया। प्रभु पार्श्र्वनाथ सम्मेदाचल के शिखर पर छत्तीस मुनियों के साथ प्रतिमायोग से विराजमान हो गये। श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन प्रात:काल के समय विशाखा नक्षत्र में सिद्धपद को प्राप्त हो गये। इन्द्रों ने आकर मोक्ष कल्याणक उत्सव मनाया। ऐसे पार्श्र्वनाथ भगवान हमें भी सम्पूर्ण प्रकार के उपसर्गों को सहन करने की शक्ति प्रदान करें।
मुकुटसप्तमी व्रत का स्वरूप
मुकुटसप्तमी तु श्रावणशुक्लसप्तम्येव ग्राह्या, नान्या तस्याम् आदिनाथस्य वा पाश्र्वनाथस्य मुनिसुव्रतस्य च पूजां विधाय कण्ठे मालारोप:। शीर्षमुकुटश्च कथितभागमे।
मुकुट सप्तमी व्रत
अर्थ—श्रावणशुक्ला सप्तमी को ही मुकुट सप्तमी कहा जाता है, अन्य किसी महीने की सप्तमी का नाम मुकुट सप्तमी नहीं है। इसमें आदिनाथ अथवा पाश्र्वनाथ और मुनिसुव्रतनाथ का पूजन कर जयमाला को भगवान का आशीर्वाद समझकर गले में धारण करना चाहिए। इस व्रत को आगम में शीर्षमुकुट सप्तमी व्रत भी कहा गया है।
विवेचन—आगम में श्रावण शुक्ला सप्तमी और भाद्रपद शुक्ला सप्तमी इन दोनों तिथियों के व्रत का विधान मिलता है। श्रावण शुक्ला सप्तमी तिथि के व्रत को मुकुटसप्तमी या शीर्षमुकुट सप्तमी कहा गया है। इस तिथि को व्रत करने वाले को षष्ठी तिथि से ही संयम ग्रहण करना चाहिए। षष्ठी तिथि को प्रात:काल भगवान की पूजा, अभिषेक करके एकाशन करना चाहिए, मध्याह्नकाल के सामायिक के पश्चात् भगवान की प्रतिमा या गुरु के सामने जाकर संयमपूर्वक व्रत करने का संकल्प करना चाहिए।चारों प्रकार के आहार का त्याग सोलह प्रहर के लिए भोजन के समय ही कर देना चाहिए।
सप्तमी को प्रात:काल सामायिक करने के पश्चात् नित्यक्रियाओं से निवृत्त होकर पूजा-पाठ, स्वाध्याय, अभिषेक आदि क्रियाओं को करना चाहिए। पाश्र्वनाथ और मुनिसुव्रतनाथ की पूजा करने के उपरांत जयमाला (फूलमाला) को अपने गले में धारण करना चाहिए। मध्याह्न में पुन: सामायिक करना चाहिए। अपराह्न में चिंतामणि पार्श्वनाथ स्तोत्र का पाठ करना चाहिए। संध्याकाल में सामायिक, आत्मचिंतन और देवदर्शन आदि क्रियाओं को सम्पन्न करना चाहिए। तीनों बार की सामायिक क्रियाओं के अनंतर ‘‘ॐ ह्रीं श्री पाश्र्वनाथाय नम:, ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथाय नम:’’ इन दोनों मंत्रों का जाप करना आवश्यक है। इस प्रकार मंत्र का रात में भी एक जाप करना चाहिए। अष्टमी को पूजन, अभिषेक और स्वाध्याय के अनंतर उपर्युक्त मंत्रों का जाप कर एकाशन करना चाहिए। इस प्रकार सात वर्षों तक मुकुटसप्तमी व्रत किया जाता है, पश्चात् उद्यापन कर व्रत की समाप्ति करनी चाहिए।
कथा— जम्बूद्वीप के कुरुजांगल देश में हस्तिनापुर नगर है। वहाँ के राजा विजयसेन की रानी विजयावती से मुकुटशेखरी और विधिशेखरी नाम की दो कन्याएँ थीं। इन दोनों बहनों में परस्पर ऐसी प्रीति थी कि एक दूसरी के बिना क्षण भर भी नहीं रह सकती थीं। निदान राजा ने ये दोनों कन्याएँ अयोध्या के राजपुत्र त्रिलोकमणि को ब्याह दी।
एक दिन बुद्धिसागर और सुबुद्धिसागर नाम के दो चारणऋषि आहार के निमित्त नगर में आये। सो राजा ने उन्हें विधिपूर्वक पड़गाहकर आहार दिया और धर्मोपदेश श्रवण करने के अनंतर राजा ने पूछा-हे नाथ! मेरी इन दोनों पुत्रियों में परस्पर इतना विशेष प्रेम होने का कारण क्या है?
तब श्री ऋषिराज बोले-इसी नगर में धनदत्त नामक एक सेठ था, उनके जिनवती नाम की एक कन्या थी और वहीं एक माली की वनमती कन्या भी थी सो इन दोनों कन्याओं ने मुनि के द्वारा धर्मोपदेश सुनकर मुकुटसप्तमी व्रत ग्रहण किया था। एक समय ये दोनों कन्याएँ उद्यान में खेल रही थीं (मनोरंजन कर रही थीं) कि इन्हें सर्प ने काट खाया सो नवकार मंत्र का आराधन करके देवी हुर्इं और वहाँ से चयकर तुम्हारी पुत्री हुई हैं। सो इनका यह स्नेह भवांतर से चला आ रहा है। इस प्रकार भवांतर की कथा सुनकर दोनों कन्याओं ने प्रथम श्रावक के पंच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत इस प्रकार बारह व्रत लिए और पुन: मुकुटसप्तमी व्रत धारण किया। सो प्रतिवर्ष श्रावण सुदी सप्तमी को प्रोषध करतीं और
‘ॐ ह्रीं श्री वृषभतीर्थंकरेभ्यो नम:’ इस मंत्र का जाप्य करतीं तथा अष्टद्रव्य से श्री जिनालय में जाकर भाव सहित जिनेन्द्र देव की पूजा करती थीं। इस प्रकार यह व्रत उन्होंने सात वर्ष तक विधिपूर्वक किया पश्चात् विधिपूर्वक उद्यापन करके सात-सात उपकरण जिनालय में भेंट किये। इस प्रकार उन्होंने व्रत पूर्ण किया और अंत में समाधिमरण करके सोलहवें स्वर्ग में स्त्रीलिंग छेदकर इंद्र और प्रतीन्द्र हुर्इं। वहाँ पर देवोचित सुख भोगे और धर्मध्यान में विशेष समय बिताया।
पश्चात् वहाँ से चयकर ये दोनों इन्द्र-प्रतीन्द्र मनुष्य होकर कर्म काट कर मोक्ष जावेंगे। इस प्रकार सेठ जी तथा माली की कन्याओं ने व्रत (मुकुटसप्तमी) पालकर स्वर्गों के अपूर्व सुख भोगे। अब वहाँ से चयकर मनुष्य हो मोक्ष जावेंगे। धन्य है! जो और भव्य जीव, भाव सहित यह व्रत धारण करें, तो वे भी इसी प्रकार सुखों को प्राप्त होवेंगे।
भगवान पार्श्वनाथ प्रश्नोत्तरी '(प्रथम भव)'
प्रश्न १ -भगवान पार्श्वनाथ दस भव पूर्व कौन सी पर्याय में थे?
उत्तर -भगवान पार्श्वनाथ दस भव पूर्व मरुभूति की पर्याय में थे।
प्रश्न २ -मरुभूति कौन था?
उत्तर -मरुभूति राजा अरविन्द का मंत्री था।
प्रश्न ३ -राजा अरविन्द कहाँ के राजा थे?
उत्तर -राजा अरविन्द पोदनपुर के राजा थे।
प्रश्न ४ -मरुभूति को मंत्री पद की प्राप्ति कैसे हुई?
उत्तर -मरुभूति के पिता ब्राह्मण विश्वभूति पोदनपुर नरेश महाराजा अरविन्द के मंत्री थे, एक बार उन्हें संसार से वैराग्य हो गया और वह महाराजा अरविन्द से आज्ञा ले दीक्षा के लिए तत्पर हुए तब अरविंद महाराज ने परम्परा से आगत मंत्री पद उनके दोनों पुत्रों कमठ एवं मरुभूति को प्रदान किया।
प्रश्न ५ -क्या राजा से प्राप्त मंत्री पद को कमठ एवं मरुभूति दोनों ने उचित रूप से निर्वहन किया?
उत्तर -नहीं, कमठ अत्यन्त कुटिल परिणामी दुष्टात्मा था और मरुभूति अतिशय सरल स्वभावी धर्मात्मा था। मंत्री कमठ समय पाकर निरंकुश हो गया और सर्वत्र अन्याय का साम्राज्य फैला दिया जबकि मरुभूति ने उचित रूप से मंत्री पद का निर्वहन किया।
प्रश्न ६ -कमठ ने कौन सा ऐसा दुस्साहसिक कार्य किया जिससे उसे देश निकाला दिया गया?
उत्तर -कमठ ने अपने छोटे भाई मरुभूति की पत्नी के साथ व्यभिचार किया जिसके फलस्वरूप राजा की आज्ञा से उसका सिर मुंडवाकर मुख पर कालिख पोतकर गधे पर बैठाकर सारे नगर में घुमाया गया और देश निकाला दे दिया।ग
प्रश्न ७ -इस अपमान को सहन करता हुआ कमठ कहाँ गया?
उत्तर -इस अपमान की अग्नि से झुलसा हुआ कमठ भूताचल पर्वत पर तापसियों के आश्रम में पहुँचा और उनके प्रमुख गुरु से दीक्षा ले तापसी बन पत्थर की शिला हाथ में लेकर तपस्या करने लगा।
प्रश्न ८ -पंचाग्नि तप किसे कहते हैं?
उत्तर -चारों तरफ अग्नि जलाकर और वृक्ष पर छीके में बैठ जाना तथा नीचे भी अग्नि जला लेना पंचाग्नि तप है।
प्रश्न ९ -क्या मरुभूति भाई के इस निन्दनीय कार्य के कारण उसे क्षमा कर सका?
उत्तर -सरल स्वभावी मरुभूति ने न सिर्पक़ भाई को क्षमा ही प्रदान की अपितु भाई से मिलने व वापस घर लाने की उत्कण्ठा से तापसी आश्रम में जाकर भाई से विनयपूर्वक लौटने की प्रार्थना भी की।
प्रश्न १०-मरुभूति की प्रार्थना को स्वीकार कर क्या कमठ वापस घर आ गया?
उत्तर -जब मरुभूति ने कमठ से प्रार्थना की तब वह वापस घर न आकर अत्यन्त क्रोधित हो उठा और क्रोधवश पत्थर की शिला भाई मरुभूति के सिर पर पटक दी जिससे मरुभूति की वहीं तत्काल मृत्यु हो गयी।
प्रश्न ११-इस कुकृत्य को करने के बाद कमठ का क्या हुआ?
उत्तर -इस कुकृत्य के फल से प्रमुख तापसी गुरु ने उसकी बार-बार निन्दा करते हुए आश्रम से निकाल दिया।
प्रश्न १२-आश्रम से निकलकर वह कहाँ गया?
उत्तर -आश्रम से निकलकर वह पापी वन में पहुँचकर भीलों से मिलकर चोरी, डकैती आदि करने लगा।
प्रश्न १३-मरुभूति कहाँ गया?
उत्तर -मरुभूति भाई के मोहवश मरकर अतिसघन सल्लकी नामक वन में वङ्काघोष नाम का विशालकाय हाथी हो गया।
भगवान पार्श्वनाथ प्रश्नोत्तरी दूसरा भव
प्रश्न १ -सल्लकी वन में कौन से मुनिराज का संघ ठहरा था?
उत्तर -उस वन में आचार्यश्री अरविन्द मुनि का विशाल संघ ठहरा था।
प्रश्न २ -मरुभूति के जीव वङ्काघोष हाथी ने उन मुनियों को देखकर क्या किया?
उत्तर -वङ्काघोष हाथी विशाल संघ में क्षोभ उत्पन्न करता हुआ विचरण करने लगा और सारे संघ में खलबली मचा दी।
प्रश्न ३ -उसे किस प्रकार शांत किया गया?
उत्तर -वह मतवाला हाथी अपने कपोलों से मदजल को बरसाता हुआ जब मुनिराज अरविन्द के सम्मुख पहुँचा तब सुमेरु के समान अचल मुनि के वक्षःस्थल में श्रीवत्स का चिन्ह देखकर उसे जातिस्मरण हो गया और वह शांत हो गया।
प्रश्न ४ -गजराज के शांत हो जाने पर मुनिराज ने क्या किया?
उत्तर -गजराज के शांत हो जाने पर मुनिराज ने उसे पूर्वजन्म की सारी बातें याद दिलाते हुए संसार की असारता का बोध करा दिया और सम्यक्त्व ग्रहण करा दिया।
प्रश्न ५ -अरविन्द मुनि कौन थे?
उत्तर -अरविन्द मुनि पोदनपुर के राजा अरविन्द ही थे जिन्हें वैराग्य उत्पन्न हो गया और उन्होंने दीक्षा ले ली।
प्रश्न ६ -उनके वैराग्य का क्या कारण था?
उत्तर -एक बार राजा अरविन्द अपने महल की छत पर बैठे हुए प्राकृतिक छटा को देख रहे थे तभी मेघ पटल से निर्मित एक सुन्दर मंदिर (उन्नत शिखर युक्त) दिखाई दिया। राजा ने सोचा कि ऐसा सुन्दर मंदिर तो बनवाना चाहिए और चित्र खींचने को कागज-कलम उठाया तभी वह सुन्दर भवन विघटित हो गया, यह देख उन्हें संसार की स्थिति का सच्चा ज्ञान हो गया और राज्यभार पुत्र को सौंपकर उन्होंने गुरु के पास जाकर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली।
प्रश्न ७ -अरविन्द मुनि किस नगर की ओर विहार कर रहे थे?
उत्तर -अरविन्द मुनि संघ सहित सम्मेदशिखर महातीर्थ की वंदना हेतु जा रहे थे।
प्रश्न ८ -सम्मेदशिखर की वन्दना करने से क्या फल मिलता है?
उत्तर -सम्मेदशिखर की एक भी वंदना करने वाले जीव भव्य ही होते हैं, उन्हें नरक गति व तिर्यंचगति नहीं मिलती है, यहाँ तक कि ४९ भव के भीतर वे मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।
प्रश्न ९ -मोक्षमहल में चढ़ने के लिए प्रथम सीढ़ी क्या है?
उत्तर -सम्यग्दर्शन।
प्रश्न १०-सम्यग्दर्शन की क्या परिभाषा है?
उत्तर -सच्चे देव, शास्त्र, गुरु पर दृढ़ श्रद्धान करना, इनके सिवाय रागव्देषादि मल से मलिन ऐसे देव को, दयारहित धर्म को और पाखंडी साधुओं को नहीं मानना ही सम्यग्दर्शन है।
प्रश्न ११-पंच अणुव्रत किसे कहते हैं?
उत्तर -हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील एवं परिग्रह इन ५ पापों का एकदेश त्याग करना पांच अणुव्रत है।
प्रश्न १२-सात शील के नाम बताइये?
उत्तर -३ गुणव्रत एवं ४ शिक्षाव्रत ये सात शील हैं।
प्रश्न १३-किस आयु के बंध जाने पर यह जीव अणुव्रत और महाव्रत को ग्रहण नहीं कर सकता है?
उत्तर -देवायु के सिवाय अन्य आयु के बंध जाने पर।
प्रश्न १४-अणुव्रती एवं महाव्रती को किस गति का बंध नहीं होता है?
उत्तर -जो अणुव्रती या महाव्रती है वह नियम से देवगति में ही जावेगा अन्यत्र तीन गति में जा नहीं सकता अथवा कदाचित् महाव्रती महामुनि है तो मोक्ष भी जा सकता है।
प्रश्न १५-मुनिराज से सम्यक्त्व ग्रहण करने के बाद क्या हाथी ने उसका पालन किया?
उत्तर -मुनिराज से सम्यक्त्व ग्रहण करने के बाद गजराज ने उसका विधिवत् पालन करते हुए सभी के प्रति पूर्ण क्षमा रखी और पांच अणुव्रतों एवं सात शीलों का विधिवत् पालन करते हुए संयमासंयम को साधा।
प्रश्न १६-कीचड़ में फस जाने पर हाथी ने क्या चिन्तवन किया?
उत्तर -कीचड़ में फस जाने पर उस गजपति (श्रावक) ने सोचा-अब मुझे इस अथाह कीचड़ से कोई निकालने वाला नहीं है जैसे कि मोहरूपी कीचड़ में फसे हुए संसारी जीव को इस संसाररूपी अथाह समुद्र से निकालने वाला कोई नहीं है। हाँ, यदि मैं सल्लेखनारूपी बंधु का सहारा ले लूँ तो वह मुझे अवश्य ही यहाँ से निकालकर उत्तम देवगति में पहुँचा सकता है।
प्रश्न १७-हाथी ने किस प्रकार की सल्लेखना ग्रहण की?
उत्तर -हाथी ने चतुराहार का जीवन भर के लिए त्याग करके महामंत्र का स्मरण करते हुए पंच परमेष्ठी का ही अवलम्बन ले लिया।
प्रश्न १८-उसकी मृत्यु किस प्रकार हुई?
उत्तर -कुछ समय पूर्व एक कुक्कुट जाति का सांप वहाँ आया और पूर्व जन्म के संस्कारवश उस हाथी को डस लिया। वेदना से व्याकुल हाथी ने गुरु द्वारा प्राप्त उपदेश का चिन्तवन करते हुए धर्मध्यानपूर्वक इस नश्वर देह का त्याग किया।
प्रश्न १९-हाथी ने किस गति की प्राप्ति की?
उत्तर -हाथी बारहवें स्वर्ग में स्वयंप्रभ विमान में ‘शशिप्रभ’ नाम का देव हुआ।
प्रश्न २०-कुक्कुट सर्प कौन था?
उत्तर -कुक्कुट सर्प कमठ का जीव था।
भगवान पार्श्वनाथ प्रश्नोत्तरी (तीसरा भव)
प्रश्न १ -देवों को जन्म से कितने ज्ञान होते हैं?
उत्तर -देवों को जन्म से मति, श्रुत व अवधि, ऐसे तीन ज्ञान होते हैं।
प्रश्न २ -स्वयंप्रभ विमान में जन्में शशिप्रभ देव ने सर्वप्रथम क्या किया?
उत्तर -देव ने सर्वप्रथम मंगल स्नान कर वस्त्रालंकारों से सुसज्जित हो जिनप्रतिमाओं की पूजा की।
प्रश्न ३ -उस देव की आयु कितनी थी?
उत्तर -१६ सागर।
प्रश्न ४ -शशिप्रभ देव की आहार प्रक्रिया बताइये?
उत्तर -शशिप्रभ देव का अनुपम मानसिक आहार था, सोलह हजार वर्ष के व्यतीत होने पर भोजन की इच्छा होती थी और उसी समय कंठ से अमृत झर जाता था जिससे उसकी तृप्ति हो जाती थी।
प्रश्न ५ -उसकी श्वासोच्छ्वास प्रक्रिया क्या थी?
उत्तर -सोलह पक्ष (८ महीना) बीतने के बाद वह देव श्वासोच्छ्वास ग्रहण करता था।
प्रश्न ६ -उसका अवधिज्ञान कहाँ तक था?
उत्तर -चतुर्थ नरक पर्यंत उसका अवधिज्ञान था।
प्रश्न ७ -उस देव की कितनी ऋद्धियाँ थीं?
उत्तर -उस देव की अणिमा, महिमा आदि आठ ऋद्धियाँ थीं।
प्रश्न ८ -देव शशिप्रभ की नित्य चर्या क्या थी?
उत्तर -कभी वह देव सुदर्शन मेरु पर जाकर सोलह चैत्यालयों की वंदना करता था, कभी वह नंदीश्वर द्वीप मे बावन चैत्यालयों में पूजा करता था, कभी तीर्थंकरों के पंचकल्याणकों के अवसर पर भक्तिभाव से भाग लेता था, कभी चारणऋद्धिधारी मुनियों की वंदना करके उनसे उपदेश सुनता था, कभी अपने सच्चे गुरु अरविन्द मुनिराज की पूजा करता था, कभी यहाँ मध्यलोक में आकर सम्मेदशिखर की वंदना कर असीम पुण्य का संचय करता था। कभी देवांगनाओं के साथ क्रीड़ा, तो कभी नंदनवन में विचरण करते हुए अपूर्व पुण्य के फल का उपभोग करता था।
प्रश्न ९ -कमठ का जीव कुक्कुट सर्प मरकर कहाँ गया?
उत्तर -कुक्कुट सर्प अपनी आयु पूर्ण करके रौद्रध्यान रूप अशुभ परिणामों से मरा और पांचवें नरक में गया।
प्रश्न १०-क्या नरक में मात्र दु:ख ही दु:ख है या कोई सुख भी है?
उत्तर -नरक में इतना असह्य दु:ख है कि वहाँ के दु:खों का वर्णन यदि करोड़ों जिह्वा बनाकर भी सरस्वती देवी करने लगे तो भी वह असमर्थ हो जावेगी। वहाँ सुुख लेशमात्र भी नहीं है।
प्रश्न ११-क्या नारकी जीवों का जन्म देवों की भांति उपपाद शैय्या पर होता है?
उत्तर -नहीं, नारकी जीव जन्म लेते ही अधोमुख गिरते ही उछलता है और पुन: गिरता है, उस समय वहाँ की पृथ्वी का स्पर्श भी इतना भयंकर होता है कि मानो हजारों बिच्छुओं ने एक साथ ही डंक मार दिया हो।
प्रश्न १२-नरक की मिट्टी कैसे है?
उत्तर -नरक की दुर्गन्धित मिट्टी यदि यहाँ आ जाए तो कई कोसों तक जीव मर जावें।
'प्रश्न १३-उस नारकी जीव की आयु कितने सागर प्रमाण है?'
उत्तर -वहाँ इसकी आयु सत्रह सागर प्रमाण है।
भगवान पार्श्वनाथ प्रश्नोत्तरी (चौथा भव)
प्रश्न १ -शशिप्रभ देव ने स्वर्ग से च्युत होकर कौन सी पर्याय में जन्म धारण किया?
उत्तर -शशिप्रभ देव स्वर्ग से च्युत होकर विध्याधर राजा विध्युतगति की महारानी विध्युन्माली से अग्निवेग नामक बालक के रूप में जन्मा।
प्रश्न २ -राजा विध्युन्माली कहाँ के राजा थे?
उत्तर -जम्बूव्दीप के पूर्व विदेह में पुष्कलावती देश के विजयार्ध पर्वत के लोकोत्तम नामक नगर के राजा थे।
प्रश्न ३ -कुमार अग्निवेग को वैराग्य कब हुआ?
उत्तर -राज्य संपदा को भोगते हुए सहसा भरी जवानी में ही उन्हें वैराग्य उत्पन्न हो गया।
प्रश्न ४ -उन्होंने किन गुरु से दीक्षा ग्रहण की?
उत्तर -उन्होंने समाधिगुप्त मुनिराज के समीप धर्मश्रवण कर पंचेन्द्रिय विषयों को विषवत् विषम समझकर तत्क्षण ही तृणवत्, उनका त्याग कर दिया और पंचमहाव्रतों को प्राप्त कर अपने आप में कृतकृत्य हो गये।
'प्रश्न ५ -दीक्षा लेने के पश्चात् उन्होंने क्या किया?'
उत्तर -दीक्षा के पश्चात् वे अग्निवेग महामुनि घोरातिघोर तपश्चरण करने लगे।
प्रश्न ६ -कमठ के जीव उस नारकी ने मरकर कहाँ जन्म लिया?
उत्तर -कमठ के जीव उस नारकी ने मरकर भयंकर अजगर के रूप में जन्म लिया।
प्रश्न ७ -क्या उस अजगर ने इस जन्म में भी मरुभूति के जीव पर उपसर्ग किया?
उत्तर -उस अजगर ने मुनि को देखते ही इस जन्म में भी उपसर्ग करते हुए क्रोध से भयंकर होकर उन्हें निगल लिया।
प्रश्न ८ -उपसर्ग सहन करते हुए वे मुनि इस नश्वर शरीर का त्याग कर कहाँ जन्मे?
उत्तर -मुनिराज परम समताभाव से इस नश्वर शरीर से छूटकर सोलहवें स्वर्ग के पुष्कर विमान में देव हो गए।
भगवान पार्श्वनाथ प्रश्नोत्तरी (पाँचवा भव)
प्रश्न १ -देवों का जन्म कैसा होता है?
उत्तर -देवों का जन्म उपपाद शैय्या पर होता है, जन्म लेते ही वे सोलह वर्ष के युवा की भांति हो जाते हैं।
प्रश्न २ -उस देव का वैभव कैसा था?
उत्तर -उस देव ने देव-देवांगनाओं के व्दारा सेवित असीम वैभव को प्राप्त कर लिया।
प्रश्न ३ -अच्युत देव की आयु कितनी थी?
उत्तर -२२ सागर प्रमाण।
प्रश्न ४ -उसका मानसिक आहार कैसा था?
उत्तर -२२ हजार वर्ष व्यतीत होने पर उनका मानसिक आहार होता था।
प्रश्न ५ -कितने पक्ष व्यतीत होने पर वह श्वासोच्छ्वास ग्रहण करता था?
उत्तर -२२ पक्ष व्यतीत होने पर।
प्रश्न ६ -देव के शरीर की ऊँचाई कितनी थी?
उत्तर -३ हाथ।
प्रश्न ७ -मुनि पर उपसर्ग करने के फलस्वरूप अजगर मरकर कहाँ गया?
उत्तर -अजगर सर्प मुनि हत्या के घोर पाप से क्रूूर परिणामों से मरकर छठे नर्क में गया।
प्रश्न ८ -वहाँ उसकी आयु कितने वर्ष की थी?
उत्तर -२२ सागर।
भगवान पार्श्वनाथ प्रश्नोत्तरी (छठा भव)
प्रश्न १ -अच्युत देव स्वर्ग से च्युत होकर कहाँ जन्मे?
उत्तर -अच्युत देव स्वर्ग से च्युत होकर जम्बूव्दीप के पश्चिम विदेह में पद्म देश के अश्वपुर नगर में शिशु वङ्कानाभि के रूप में जन्मे।
प्रश्न २ -अश्वपुर नगर के राजा का नाम बताइये?
उत्तर -अश्वपुर नगर के राजा महाराज वङ्कावीर्य नरेन्द्र थे।
प्रश्न ३ -शिशु वङ्कानाभि की माता का क्या नाम था?
उत्तर -शिशु वङ्कानाभि की माता का नाम महारानी विजया था।
प्रश्न ४ -शिशु वङ्कानाभि की माता ने उसके जन्म से पूर्व कितने स्वप्न देखे?
उत्तर -शिशु वङ्कानाभि की माता ने उसके जन्म से पूर्व ५ स्वप्न देखे।
प्रश्न ५ -वे स्वप्न क्या थे?
उत्तर -(१) सुदर्शन मेरु (२) सूर्य (३) चन्द्रमा (४) देवविमान (५) जल से परिपूर्ण सरोवर।
प्रश्न ६ -रानी विजया ने उन स्वप्नों का फल किससे पूछा?
उत्तर -रानी विजया ने उन स्वप्नों का फल महाराजा वङ्कावीर्य से पूछा।
प्रश्न ७ -राजा ने उनका क्या फल बताया?
उत्तर -राजा ने स्वप्नों का फल बताते हुए कहा कि तुम चक्रवर्ती पुत्ररत्न को जन्म दोगी।
प्रश्न ८ -चक्रवर्ती राजा कितने खण्ड का स्वामी होता है?
उत्तर -छ: खण्ड का।
प्रश्न ९ -चक्रवर्ती का क्या वैभव होता है?
उत्तर -चक्रवर्ती के ऐरावत हाथी के समान ८४ लाख हाथी होते हैं, वायु के समान वेगशाली रत्नों से निर्मित ८४ लाख रथ होते हैं, पृथ्वी की तरह आकाश में भी गमन करने वाले अठारह करोड़ उत्तम घोड़े होते हैं और योद्धाओं का मर्दन करने वाले ८४ करोड़ पदाति (पियादे) होते हैं। ३२ हजार नाट्यशालाएं, ७२ हजार नगर, ९६ करोड़ गाँव, ९९ हजार द्रोणमुख, ४८ हजार पत्तन, १६ हजार खेट, ५६ अन्तद्र्वीप, १४ हजार संवाह होते हैं। भोजनशाला में चावल पकाने के लिए १ करोड़ हंडे, बीज बोने की नली लगे १ लाख करोड़ हल, ३ करोड़ गौशालाएं, ७०० कुक्षवास, २८ हजार गहनवन व अठारह हजार आर्यखण्ड के म्लेच्छ राजा होते हैं।
प्रश्न १०-चक्रवर्ती का शरीर कैसा होता है?
उत्तर -चक्रवर्ती का शरीर वङ्कामय होता है, उनका संस्थान समचतुरस्र होता है, छह खण्ड के सभी राजाओं में जितना बल होता है, उन सबसे अधिक बल उनके एक शरीर में होता है।
प्रश्न ११-उनके चक्ररत्न का क्या प्रभाव रहता है?
उत्तर -उनके चक्ररत्न के प्रभाव से छह खण्ड के सभी राजा उनकी आज्ञा को सिर से धारण करते हैं। ३२ हजार मुकुटबद्ध राजा उनके चरणों में नत रहते हैं।
प्रश्न १२-चक्रवर्ती की कितनी रानियाँ होती हैं?
उत्तर -चक्रवर्ती की ९६ हजार रानियाँ होती हैं जिनमें से ३२ हजार रानियाँ आर्यखण्ड की, ३२ हजार रानियाँ विध्याधर कन्याएं एवं ३२ हजार रानियाँ म्लेच्छ खण्ड में जन्में राजाओं की हैं। ये सब अप्सराओं के समान सुन्दर होती हैं।
प्रश्न १३-चक्रवर्ती की कितनी निधियाँ होती हैं?
उत्तर -९ निधियाँ होती हैं?
प्रश्न १४-९ निधियों के नाम बताइये?
उत्तर -काल, महाकाल, नैसर्प, पांडुक, पद्म, माणव, पिंगल, शंख और सर्वरत्न।
प्रश्न १५-काल निधि से किसकी प्राप्ति होती है?
उत्तर -काल निधि से काव्य, कोश, अलंकार, व्याकरण आदि शास्त्र और वीणा, बांसुरी, नगाड़े आदि मिलते रहते हैं।
प्रश्न १६-महाकाल निधि का क्या उपयोग है?
उत्तर -महाकाल निधि से असि, मसि, कृषि आदि छह कर्मों के साधन ऐसे समस्त पदार्थ और संपदाएं निरन्तर उत्पन्न होती रहती हैं।
प्रश्न १७-नैसर्प निधि क्या देती है?
उत्तर -नैसर्प निधि शय्या, आसन, मकान आदि देती है।
प्रश्न १८-पांडुक निधि का क्या कार्य है?
उत्तर -पांडुक निधि समस्त धान्य और छहों रसों को उत्पन्न करती है।
प्रश्न १९-पद्मनिधि क्या करती है?
उत्तर -पद्मनिधि रेशमी, सूती वस्त्र आदि प्रदान करती है।
प्रश्न २०-शंखनिधि का क्या उपयोग है?
उत्तर -शंखनिधि सूर्य की प्रभा को तिरस्कृत करने वाले सुवर्ण को देती है।
प्रश्न २१-सर्वरत्न निधि क्या देती है?
उत्तर -सर्वरत्ननिधि महानील, इन्द्रनील, पद्मराग, वैडूर्य, स्फटिक आदि अनेक प्रकार के रत्नों और मणियों को देती है।
प्रश्न २२-चक्रवर्ती के कितने रत्न होते हैं?
उत्तर -१४ रत्न होते हैं।
प्रश्न २३-इनमें से कितने रत्न सजीव और कितने निर्जीव होते हैं?
उत्तर -इनमें से ७ रत्न सजीव और ७ रत्न निर्जीव होते हैं।
प्रश्न २४-इन रत्नों का क्या कार्य है?
उत्तर -ये सब रत्न पृथ्वी की रक्षा और विशाल ऐश्वर्य और उपभोग के साधन हैं।
प्रश्न २५-१४ रत्नों में से ७ निर्जीव रत्नों के नाम बताइये?
उत्तर -चक्र, छत्र, दंड, खड्ग, मणि, चर्म और कांकिणी ये सात निर्जीव रत्न हैं।
प्रश्न २६-सात सजीव रत्नों के नाम बताइये?
उत्तर -सेनापति, गृहपति, हाथी, घोड़ा, स्त्री, तक्ष (सिलावट) और पुरोहित ये सात सजीव रत्न हैं।
प्रश्न २७-चक्रवर्ती वङ्कानाभि के चक्र का क्या नाम था?
उत्तर -सुदर्शन चक्र।
प्रश्न २८-उनके छत्र का क्या नाम था?
उत्तर -सूर्यप्रभ छत्र।
प्रश्न २९-उनके दण्डरत्न का क्या कार्य है?
उत्तर -दण्डरत्न से गुफा का व्दार खोलते हैं।
प्रश्न ३०-सौनन्दक नामक तलवार से क्या करते हैं?
उत्तर -सौनन्दक तलवार को देखकर वैरीजन कम्पित होकर चक्रवर्ती की शरण में आ जाते हैं।
प्रश्न ३१-मणिरत्न का काम बताइये?
उत्तर -मणिरत्न (चूड़ामणि) अंधकार को दूर कर देता है।
प्रश्न ३२-चर्मरत्न और कांकिणी का क्या अर्थ है?
उत्तर -चर्मरत्न से मेघकृत जल के उपद्रव से सेना की रक्षा होती है और कांकिणी रत्न से गुफा में सूर्य-चंद्र का आकार बनाकर प्रकाश फैलाया जाता है।
प्रश्न ३३-सेनापति रत्न और गृहपति रत्न का क्या कार्य है?
उत्तर -सेनापति रत्न दिग्विजय में सभी योद्धाओं से अजेय रहता है और कामवृष्टि नामक गृहपति रत्न घर के सारे काम-काज संभाल लेता है।
प्रश्न ३४-अन्य सजीव रत्नों के क्या-क्या कार्य हैं?
उत्तर -विजयगिरि नामक ऐरावत सदृश उत्तम हाथी राजा का वाहन बनता है। पवनंजय नाम का घोड़ा स्थल के समान समुद्र में भी दौड़ लगाता है। सुभद्रा नाम का स्त्रीरत्न चक्रवर्ती के भोगसुख का साधन है जो कि अपने हाथ की शक्ति से वङ्का को भी दूर कर सकती है। भद्रपुर नामक तक्ष रत्न स्थान-स्थान पर सुन्दर महलों का निर्माण करता है और बुद्धिसागर नाम का पुरोहित रत्न सभी निमित्तादि विध्या में प्रवीण रहता है, सभी धार्मिक कार्य उसी के अधीन रहते हैं।
प्रश्न ३५-चक्रवर्ती के अन्य भोगोपभोग साधन कितने और कौन से हैं?
उत्तर -चक्रवर्ती के नवनिधि, पट्टरानियां, नगर, शय्या, आसन, सेना, नाट्यशाला, भाजन, भोजन और सवारी ये दस प्रकार के भोगोपभोग के साधन रहते हैं।
प्रश्न ३६-चक्रवर्ती के भण्डार का क्या नाम है?
उत्तर -चक्रवर्ती के भण्डार का नाम कुबेरकांत है जो कभी खाली नहीं होता है।
प्रश्न ३७-कोठार का क्या नाम है?
उत्तर -‘वसुधारक’ नाम का अटूट कोठार है।
प्रश्न ३८-उनकी रत्नमाला का नाम बताइये?
उत्तर -अवतंसिका।
प्रश्न ३९-उनके तंबू और शय्या का क्या नाम है?
उत्तर -उनका बहुत ही मनोहर कपड़े का बना हुआ ‘देवरम्य’ नाम का तम्बू है जिसके पायें रत्नमयी हैं, जो सिंह के आकार के हैं, ऐसी ‘सिंहवाहिनी’ नाम की शय्या है।
प्रश्न ४०-सिंहासन का क्या नाम है?
उत्तर -‘अनुत्तर’ नाम का सबसे श्रेष्ठ सिंहासन है।
प्रश्न ४१-चामर का नाम बताइये?
उत्तर -‘अनुपमा’ (देवप्रदत्त)।
प्रश्न ४२-उनके मणिकुंडल, खड़ाऊँ व कवच का नाम बताइये?
उत्तर -विध्युत्प्रभ नामक मणिकुंडल हैं, रत्नों की किरणों से व्याप्त ‘विषमोचिका’ नाम की खड़ाऊँ है जो कि चक्रवर्ती के सिवाय अन्य किसी के पैर का स्पर्श होते ही विष को छोड़ने लगती है तथा कवच का नाम ‘अभेध्य’ है।
प्रश्न ४३-वङ्कानाभि चक्रवर्ती के रथ का नाम बताइये?
उत्तर -अजितंज।
प्रश्न ४४-धनुष और बाण का क्या नाम है?
उत्तर -‘वङ्काकांड’ नाम का धनुष है और ‘अमोघ’ नाम के सफल बाण हैं।
प्रश्न ४५-उनके पास कौन सी शक्ति है?
उत्तर -शत्रु को नाश करने वाली ‘वङ्कातुंडा’ नाम की प्रचंड शक्ति है।
प्रश्न ४६-भाला एवं छुरी का नाम बताइये?
उत्तर -‘सिंहाटक’ नाम का भाला और रत्ननिर्मित मूठ वाली ‘लोहवाहिनी’ नाम की छुरी है।
प्रश्न ४७-विशेष शस्त्र का क्या नाम है?
उत्तर -‘मनोवेग’ नाम का कठाव जाति का एक विशेष शस्त्र है।
प्रश्न ४८-चक्रवर्ती की बारह भेरियों के नाम बताइये?
उत्तर -चक्रवर्ती के ‘आनंदिनी’ नाम की बारह भेरी हैं जो अपनी आवाज को १२ योजन तक लाकर बजा करती हैं।
प्रश्न ४९-नगाड़े कितने हैं? नाम बताइये?
उत्तर -‘विजयघोष’ नाम के १२ नगाड़े हैं जिनकी आवाज लोग आनंद के साथ सुना करते हैं।
प्रश्न ५०-उनके शंखों की कितनी संख्या है?
उत्तर -उनके ‘गंभीरावर्त’ नाम के २४ शंख हैं जो कि समुद्र से उत्पन्न हुए हैं।
प्रश्न ५१-उनका दिव्य भोजन क्या है?
उत्तर -चक्रवर्ती के ‘महाकल्याण’ नाम का दिव्य भोजन है।
प्रश्न ५२-पताकाएं कितनी हैं?
उत्तर -४८ करोड़।
प्रश्न ५३-क्या इतने वैभव को प्राप्त कर भी वे धर्मकार्य करते थे?
उत्तर -चक्रवर्ती वङ्कानाभि इतने वैभव को प्राप्त करके भी धर्म को नहीं भूले थे प्रत्युत् अधिक-अधिक रूप से प्रतिदिन जिनेन्द्रदेव की पूजन करते थे, निग्रँथ गुरुओं व अन्य त्यागियों को आहारादि दान देते थे तथा निरन्तर शील का पालन करते हुए समय-समय पर उपवास भी करते थे।
प्रश्न ५४-वङ्कानाभि चक्रवर्ती को इतने अतुल्य वैभव के बीच वैराग्य कैसी हुआ?
उत्तर -एक बार उस नगर में एक महामुनि पधारे, उनके व्दारा दिये गए दिव्य अमृतमयी उपदेश को सुनकर वे पंचेन्द्रियों के विषयों से विरक्त हो गए और निग्रँथ महामुनि बन गए।
प्रश्न ५५-दीक्षा के पश्चात् उन्होंने क्या किया?
उत्तर -दीक्षा के पश्चात् उन्होंने दुध्वॅर तपश्चरण किया।
प्रश्न ५६-महामुनि वङ्कानाभि के ऊपर उपसर्ग किसने किया?
उत्तर -एक व्रूरकर्मा भिल्लराज ने कुपित होकर अपने तीक्ष्ण बाणों से उनके शरीर का भेदन कर कायर जनों से असहनीय भयंकर उपसर्ग किया।
प्रश्न ५७-ऐसी स्थिति में मुनिराज ने क्या किया?
उत्तर -मुनिराज शरीर से पूर्णतया निस्पृह होकर ज्ञानदर्शन स्वरूप अपनी आत्मा का ध्यान करते हुए धर्मध्यान में स्थिर हो गए और इस नश्वर शरीर से चैतन्य आत्मा का प्रयाण हो गया।
प्रश्न ५८-इस नश्वर देह का त्याग कर उन्होंने किस गति की प्राप्ति की?
उत्तर -इस नश्वर देह का त्यागकर वे मध्यम ग्रैवेयक के मध्यम विमान में श्रेष्ठ अहमिन्द्र हो गए।
भगवान पार्श्वनाथ प्रश्नोत्तरी (सातवाँ भव)
प्रश्न १ -अहमिन्द्र की आयु कितने सागर की थी?
उत्तर -२७ सागर।
प्रश्न २ -अहमिन्द्र का शरीर कैसा था?
उत्तर -अहमिन्द्र का शरीर अतिशय देदीप्यमान, समचतुरस्र संस्थान से युक्त था।
प्रश्न ३ -अहमिन्द्र कहाँ-कहाँ जाते हैं?
उत्तर -अहमिन्द्र परक्षेत्र में विहार नहीं करते हैं।
प्रश्न ४ -स्वर्ग में रहते हुए वे क्या करते हैं?
उत्तर -अहमिन्द्र तत्त्वचर्चा में तल्लीन रहते हुए सम्यग्दर्शन की प्रशंसा करते हैं और अपनी आत्मा के अधीन उत्पन्न हुए उत्कृष्ट सुख को धारण करते हुए सदैव प्रसन्न रहते हैं।
प्रश्न ५ -अहमिन्द्र का जीव स्वर्ग से च्युत होकर कहाँ जन्मा?
उत्तर -अहमिन्द्र का जीव स्वर्ग से च्युत होकर अयोध्या में आनन्द नामक राजकुमार के रूप में जन्मा।
प्रश्न ६ -कमठ का जीव भील मरकर कहाँ गया?
उत्तर -भील रौद्रध्यानपूर्वक शरीर को छोड़कर मुनिहत्या के पाप से सातवें नरक में चला गया।
प्रश्न ७ -जन्मते ही उसे किस दुख का सामना करना पड़ा?
उत्तर -उस अंधकूपमय नरकवास में उसने औंधे मुख जन्म लिया और जन्म लेते ही भूमि पर धड़ाम से गिरा, भूमि का स्पर्श होते ही जैसे हजारों बिच्छुओं ने एक साथ डंक मारा हो, ऐसी भयंकर वेदना हुई, पुन: वह नारकी ५० योजन तक ऊपर उछला और गिरा, जैसे तपे हुए तवे पर तिलों को डालते ही वे पुटपुट उछलने लगते हैं। छिन्न-भिन्न शरीर होता हुआ अत्यन्त दुखी और भयभीत उसी धरा पर लोट-पोटकर बिलबिलाने लगा।
प्रश्न ८ -नारकी जीव के कितने और कौन से ज्ञान होते हैं?
उत्तर -नारकी जीव के कुमति, कुश्रुत और कुअवधि ये तीन ज्ञान होते हैं।
प्रश्न ९ -वहाँ भूख लगने पर क्या आहार है?
उत्तर -नारकी जीव यदि तीन लोक का अन्न भी खा जायें तो भी उनकी भूख शांत नहीं हो सकती है किन्तु खाने को वहाँ एक कण भी नसीब नहीं होता है।
प्रश्न १०-प्यास लगने पर पीने योग्य वस्तु क्या है?
उत्तर -सागर के समस्त जल को पीने के बाद भी प्यास बुझ नहीं सकती, फिर भी वहाँ पर एक बूँद पानी नहीं मिलता है।
प्रश्न ११-क्या नरक में हर समय ठण्डक रहती है?
उत्तर -नरक में इतनी भयंकर ठण्डी है कि एक लाख योजन प्रमाण इतने बड़े लोहे के गोले को पिघलाकर डाल दो किन्तु उसी क्षण वह जम जाता है।
प्रश्न १२-उस नारकी को कितने वर्ष तक यह दु:ख भोगने पड़े?
उत्तर -भील का जीव वहाँ पर सत्ताईस सागर प्रमाण मध्यम आयु पर्यंत इन दु:खों का अनुभव करता रहा है।
प्रश्न १३-सागर किसे कहते हैं?
उत्तर -दो हजार कोश प्रमाण एक लम्बा-चौड़ा और गहरा गड्ढा कल्पना में बनाइये। उसे सात दिन के अन्दर जन्में हुए भेड़ों के बालों से भर दीजिए। इन बालों के इतने-इतने छोटे खण्ड कर दिए जाएं जिनका फिर और खण्ड ही न हो सके, ऐसे रोम खण्डों से भरे हुए उस गड्ढे की खूब ऊपर से कुटाई कर दीजिए। पुन: उनमें से एक-एक रोम को सौ-सौ बरस में निकालिए। जब वह गर्त खाली हो जाए तब एक ‘व्यवहार पल्य’ होता है। इसमें जितना समय लगा है उसे असंख्यात करोड़ वर्षों के समयों से गुणा कर दीजिए। इसमें जितने समय जावेंगे वह ‘उद्धार पल्य’ कहलाता है। अनन्तर सौ वर्ष के जितने समय हैं उतने समयों से उद्धार पल्य के रोमों को गुणित करने से जितने समय होवें यह ‘अद्धापल्य’ हो जाता है। इन दस कोड़ाकोड़ी ‘अद्धापल्यों’ का एक सागर होता है।
प्रश्न १४-कोड़ाकोड़ी किसे कहते हैं?
उत्तर -एक करोड़ को एक करोड़ से गुणा करने पर जो संख्या आती है वह कोड़ाकोड़ी कहलाती है।
भगवान पार्श्वनाथ प्रश्नोत्तरी (आठवाँ भव)
प्रश्न १ -अयोध्यापति आनंद कुमार के माता-पिता का क्या नाम था?
उत्तर -कुमार आनंद की माता का नाम महारानी प्रभाकारी तथा पिता का नाम राजा वङ्काबाहु था?
प्रश्न २ -राजा आनन्द कुमार किस पद पर आरूढ़ थे?
उत्तर -महामण्डलीक पद पर।
प्रश्न ३ -उनके अधीन कितने राजागण थे?
उत्तर -८ हजार मुकुटबद्ध राजा उनकी आज्ञा को शिरसा वहन करते थे।
प्रश्न ४ -महाराजा आनन्द ने आष्टाह्निक महापर्व में कौन सा अनुष्ठान किया?
उत्तर -महाराजा आनन्द ने आष्टाह्निक महापर्व में नन्दीश्वर पूजन का अतुल वैभव के साथ आयोजन किया।
प्रश्न ५ -इसकी सलाह किसने दी?
उत्तर -इसकी सलाह स्वामिहित नामक विवेकशील मंत्री ने दी।
प्रश्न ६ -जिनेन्द्रदेव की पूजा से क्या फल मिलता है?
उत्तर -जिनेन्द्रदेव की पूजा सम्पूर्ण पापों का नाश करने वाली है।
प्रश्न ७ -पर्व के दिनों में की गई पूजा क्या फल प्रदान करती है?
उत्तर -पर्व के संयोग से वह पूजा अतिशय पुण्य को प्रदान करने वाली हो जाती है। जिनपूजा के समान इस संसार में और कोई उत्तम कार्य नहीं है। जिनेन्द्रदेव की पूजा की भावना ही सभी दु:खों को दूर करने का एक अमोघ उपाय है।
प्रश्न ८ -नन्दीश्वर महापूजा में कौन से महामुनि पधारे?
उत्तर -विपुलमति नामक महामुनि पधारे।
प्रश्न ९ -राजा ने उनसे क्या निवेदन किया?
उत्तर -राजा ने उनसे अचेतन प्रतिमाओं व्दारा सचेतन को पुण्य फल प्रदान करने की जिज्ञासा शांत करने हेतु निवेदन किया।
प्रश्न १०-मुनिराज ने उसका क्या उत्तर दिया?
उत्तर -राजा ने कहा कि जिनमंदिर और उनकी प्रतिमाओं के दर्शन करने वालों के परिणामों में जितनी निर्मलता और प्रकर्षता होती है वैसी अन्य कारणों से नहीं हो सकती है। जैसे-कल्पवृक्ष, चिंतामणि आदि अचेतन होते हुए भी मनवांछित और मनचिंतित फल देने में समर्थ हैं, उनसे भी कहीं अधिक वैसी ही जिनप्रतिमाएं सम्पूर्ण मनोरथों को पूर्ण करने में समर्थ है।
प्रश्न ११-वीतराग मुद्रा के दर्शन का क्या फल है?
उत्तर -प्रतिमारूप में वीतरागमुद्रा को देखकर जिनेन्द्रदेव का स्मरण होता है जिससे अनन्तगुणा पुण्यबंध हो जाता है।
प्रश्न १२-जिनप्रतिमा के दर्शन न करने वाले अथवा निन्दा करने वालों को क्या फल मिलता है?
उत्तर -जो मूढ़जन जिनप्रतिमाओं का दर्शन नहीं करते हैं या उनकी निन्दा करते हैं वे स्वयमेव अनन्त संसार सागर में डूब जाते हैं।
प्रश्न १३-उसके पश्चात् मुनिराज ने राजा को क्या बताया?
उत्तर -उसके बाद मुनिराज ने राजा के सामने तीन लोक के अकृत्रिम चैत्यालयों तथा सूर्य, चन्द्र आदि के विमान में स्थित जिनबिंब का वर्णन किया।
प्रश्न १४-सूर्य का विमान कितने योजन का है?
उत्तर -४८/६१ योजन।
प्रश्न १५-एक योजन में कितने मील होते हैं?
उत्तर -४००० मील।
प्रश्न १६-सूर्य का विमान पृथ्वीतल से कितने योजन एवं कितने मील की ऊँचाई पर है?
उत्तर -सूर्य का विमान पृथ्वीतल से ८०० योजन अर्थात् ३२००००० मील की ऊँचाई पर है।
प्रश्न १७-सूर्य की किरणें कितनी और कैसी हैं?
उत्तर -इसमें १२ हजार किरणें हैं जो कि अति उग्र और उष्ण हैं।
प्रश्न १८-यह विमान कैसा है?
उत्तर -यह विमान अर्धगोलक के सदृश है अर्थात् जैसे गेंद या नारंगी को बीच से काटने पर जैसा आकार होता है वैसा ही इन विमानों का आकार है।
प्रश्न १९-सूर्य के विमान को कौन खींचता है?
उत्तर -सूर्य के विमान को आभियोग्य (वाहन) जाति के १६००० देव सतत खींचते रहते हैं।
प्रश्न २०-कौन सी दिशा में कौन से आकार के कितने देव रहते हैं?
उत्तर -४००० देव पूर्व दिशा में सिंह का आकार धारण करते हैं, ४००० देव पश्चिम में बैल का आकार, ४००० देव दक्षिण में हाथी का आकार एवं ४००० देव उत्तर में घोड़े का आकार धारण किये रहते हैं।
प्रश्न २१-सूर्य का विमान किस धातु का बना हुआ है?
उत्तर -सूर्य का विमान पृथ्वीकायिक चमकीली धातु से बना है जो कि अकृत्रिम है।
प्रश्न २२-किस कर्म के उदय से सूर्य की किरणें चमकती हैं?
उत्तर -सूर्य बिम्ब में स्थित पृथ्वीकायिक जीवों के आतप नामकर्म का उदय होने से उसकी किरणें चमकती हैं तथा उसके मूल में उष्णता न होकर किरणों में ही उष्णता होती है।
प्रश्न २३-आकाश में सूर्य की कितनी गलियाँ हैं?
उत्तर -१८४ गलियाँ हैं।
प्रश्न २४-जम्बूव्दीप में कितने सूर्य एवं कितने चन्द्रमा हैं?
उत्तर -जम्बूव्दीप में २ सूर्य और २ चन्द्रमा हैं।
प्रश्न २५-एक मिनट में सूर्य की गति लगभग कितने मील प्रमाण है?
उत्तर -४४७६२३ मील प्रमाण।
प्रश्न २६-सूर्य विमान में क्या-क्या हैं?
उत्तर -सूर्य विमान में नीचे का गोल भाग तो हम-आपको दिख रहा है तथा ऊपर के समतल भाग में चारों तरफ गोल तटवेदी है उसमें चारों दिशाओं में गोपुर-मुख्य फाटक हैं। इस विमान के बीचों-बीच में उत्तम वेदी सहित राजांगण हैं, उसके ठीक बीच में रत्नमय दिव्यकूट है। उस कूट पर वेदी एवं ४ तोरणव्दाराे से युक्त जिनमंदिर है।
प्रश्न २७-उन जिनभवनों में कितनी जिनप्रतिमाएँ हैं?
उत्तर -१०८ जिनप्रतिमाएँ।
प्रश्न २८-उनकी भक्ति-वन्दना देवगण किस प्रकार करते हैं?
उत्तर -सभी देवगण गाढ़ भक्ति से जल, चंदन, तंदुल, पुष्प, नैवेध्य, दीप, धूप और फलों से नित्य ही उनकी पूजा करते रहते हैं।
प्रश्न २९-इन जिनभवनों में सूर्य देव के भवन किस प्रकार के बने हैं?
उत्तर -इन जिनभवनों के चारों ओर समचतुष्कोण, लंबे और नाना प्रकार के सुंदर-सुंदर सूर्य देव के भवन बने हुए हैं।
प्रश्न ३०-ये भवन किस वर्ण के हैं?
उत्तर -कितने ही भवन मरकत वर्ण के, कितने ही कुंदपुष्प के और कितने ही सुवर्ण सदृश बने हुए हैं।
प्रश्न ३१-इन सूर्य भवनों में सूर्यदेव कहाँ विराजते हैं?
उत्तर -इन सूर्य भवनों में सिंहासन पर सूर्य देव विराजमान होते हैं।
प्रश्न ३२-सूर्य इन्द्र की कितनी देवियाँ हैं?
उत्तर -सूर्य इन्द्र की मुख्य देवियाँ चार हैं और अन्य बहुत सारी देवियाँ हैं।
प्रश्न ३३-उन चार मुख्य देवियों के नाम बताइये?
उत्तर -वे चार मुख्य देवियाँ हैं-द्युतिश्रुति, प्रभंकरा, सूर्यप्रभा और अर्चिमालिनी।
प्रश्न ३४-सूर्य विमान के जिनमंदिर की असाधारण विभूति को सुनकर आनंद महाराज ने क्या किया?
उत्तर -सूर्य विमान के जिनमंदिर की असाधारण विभूति को सुनकर आनंद महाराज को बहुत ही श्रद्धा हो गई। वह प्रतिदिन आदि और अंत समय में दोनों हाथ जोड़कर, मुकुट झुकाकर, सूर्य विमान में स्थित जिनप्रतिमाओं की स्तुति करने लगा और महल की छत पर प्रतिदिन अघ्र्यॅ चढ़ाकर पूजा करने लगा। साथ ही कारीगरों के व्दारा मणि और सुवर्ण का एक सूर्य विमान बनवाकर उसमें कांतियुक्त सुन्दर जिनमंदिर बनवाया तथा शास्त्रोक्त विधि से भक्तिपूर्वक आष्टान्हिक, चतुर्मुख, रथावर्त, सर्वतोभद्र तथा कल्पवृक्ष नाम की महापूजाएं कीं।
प्रश्न ३५-सूर्य उपासना की परम्परा कब से शुरू हुई?
उत्तर -आनंद महाराज को सूर्य की पूजा करते देख उनकी प्रामाणिकता से देखा-देखी अन्य लोग भी स्वयं भक्तिपूर्वक सूर्यमंडल की स्तुति करने लगे। इस लोक में उसी समय से सूर्य की उपासना चल पड़ी है।
प्रश्न ३६-आनन्द महाराज को वैराग्य किस निमित्त से हुआ?
उत्तर -उन्हें एक समय दर्पण में मुख अवलोकन करते ही मस्तक पर एक धवल केश दिखाई दिया और वे विषय-भोगों से विरक्त हो गए।
प्रश्न ३७-उन्होंने किन गुरु से दीक्षा ग्रहण की?
उत्तर -उन्होंने सागरदत्त मुनिराज के समीप जिनदीक्षा ग्रहण की।
प्रश्न ३८-अट्ठाईस मूलगुण कौन से हैं?
उत्तर -५ महाव्रत, ५ समिति, ५ इन्द्रियनिरोध, ६ आवश्यक और ७ शेष गुण ये २८ मूलगुण होते हैं।
प्रश्न ३९-पंच महाव्रतों के नाम बताइये?
उत्तर -अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह त्याग महाव्रत।
प्रश्न ४०-अहिंसा महाव्रत किसे कहते हैं?
उत्तर -सम्पूर्ण त्रस-स्थावर जीवों की विराधना का त्याग करना अहिंसा महाव्रत है।
प्रश्न ४१-सत्य महाव्रत किसे कहते हैं?
उत्तर -असत्य और अप्रशस्त वचन बोलने का सर्वथा त्याग करना सत्य महाव्रत है।
प्रश्न ४२-अचौर्य महाव्रत का क्या लक्षण है?
उत्तर -किसी की बिना दी हुई वस्तु ग्रहण करना अचौर्य महाव्रत है।
प्रश्न ४३-ब्रह्मचर्य महाव्रत का क्या लक्षण है?
उत्तर -स्त्री मात्र का त्याग कर देना ब्रह्मचर्य महाव्रत है।
प्रश्न ४४-परिग्रह त्याग महाव्रत की परिभाषा बताओ?
उत्तर -वस्त्र मात्र भी परिग्रह का त्याग कर देना परिग्रह त्याग महाव्रत है।
प्रश्न ४५-समितियाँ कितनी होती हैं परिभाषा सहित बताइये?
उत्तर -चार हाथ आगे जमीन देखकर चलना ईर्या समिति है, हित-मित-प्रिय वचन बोलना भाषा समिति, छ्यालिस दोष तथा बत्तीस अंतराय टालकर शुद्ध आहार लेना एषणा समिति, देख-शोधकर पुस्तक आदि रखना, उठाना आदाननिक्षेपण समिति और प्रासुक भूमि में मल-मूत्रादि विसर्जन करना उत्सर्ग समिति है।
प्रश्न ४६-पंचेन्द्रिय निरोध किसे कहते हैं?
उत्तर -स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन पांच इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना पंचेन्द्रिय निरोध है।
प्रश्न ४७-छह आवश्यकों के नाम बताओ?
उत्तर -सामायिक, स्तुति, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ये षट् आवश्यक हैं।
प्रश्न ४८-सामायिक किसे कहते हैं?
उत्तर -साम्यभावपूर्वक त्रिकाल सामायिक करना सामायिक आवश्यक है।
प्रश्न ४९-स्तुति और वंदना में क्या अंतर है?
उत्तर -चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करना स्तुति आवश्यक है और एक तीर्थंकर आदि की स्तुति करना वंदना है।
प्रश्न ५०-प्रतिक्रमण क्या है?
उत्तर -लगे हुए दोषों को दूर करना प्रतिक्रमण है।
प्रश्न ५१-प्रत्याख्यान व कायोत्सर्ग में क्या अन्तर है?
उत्तर -आगामी दोषों का त्याग करना या आहार आदि का त्याग करना प्रत्याख्यान है और योगमुद्रा आदि से स्थिर चित्त होकर कायोत्सर्ग, ध्यानादि करना कायोत्सर्ग आवश्यक है।
प्रश्न ५२-सात शेष गुण कौन-कौन से हैं?
उत्तर -वस्त्र मात्र का त्यागकर दिगम्बर रहना, केशलोंच करना, स्नान नहीं करना, दंतधावन नहीं करना, भूमिशयन करना, एक बार भोजन करना और खड़े होकर आहार लेना ये सात शेष गुण हैं।
प्रश्न ५३-तीर्थंकर प्रकृति बंध के लिए कारणभूत कौन सी भावनाएं हैं?
उत्तर -सोलहकारण भावना।
प्रश्न ५४-आनंद महाराज ने दीक्षा लेने के पश्चात् क्या किया?
उत्तर -आनंद महाराज २८ मूलगुणों का पालन करते हुए बारह प्रकार के तपश्चरण में तत्पर थे और २२ परिषहो को जीतते हुए उत्तरगुणों को भी धारण कर रहे थे। गुरु के पादमूल में बैठकर उन्होंने ग्यारह अंग तक श्रुत का अध्ययन किया। अनंतर तीर्थंकर नामकर्म के लिए कारणभूत सोलहकारण भावनाओं का चिंतवन किया।
प्रश्न ५५-सोलहकारण भावनाओं के नाम बताइये?
उत्तर -दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता, शीलव्रतेष्वनतिचार, अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, संवेग, शक्तितस्त्याग, शक्तितस्तप, साधुसमाधि, वैय्यावृत्यकरण, अर्हद्भक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुत भक्ति, प्रवचन भक्ति, आवश्यक अपरिहाणि, मार्ग प्रभावना एवं प्रवचन वात्सल्य ये १६ भावनाएं हैं।
प्रश्न ५६-दर्शनविशुद्धि भावना किसे कहते हैं?
उत्तर -पच्चीस मलदोष रहित विशुद्ध सम्यग्दर्शन को धारण करना दर्शनविशुद्धि है।
प्रश्न ५७-विनयसम्पन्नता का अर्थ बताओ?
उत्तर -देव, शास्त्र, गुरु तथा रत्नत्रय का विनय करना।
प्रश्न ५८-शीलव्रतेष्वनतिचार का मतलब बताइये?
उत्तर -व्रतों और शीलों में अतिचार नहीं लगाना।
प्रश्न ५९-‘अभीक्ष्णज्ञानोपयोग’ किसे कहते हैं?
उत्तर -सदा ज्ञान के अभ्यास में लगे रहना।
प्रश्न ६०-संवेग का क्या अर्थ है?
उत्तर -धर्म और धर्म के फल में अनुराग होना।
प्रश्न ६१-शक्तितस्त्याग और शक्तितस्तप में क्या अन्तर है?
उत्तर -अपनी शक्ति के अनुसार आहार, औषधि, अभय और ज्ञानदान देना शक्तितस्त्याग और अपनी शक्ति को न छिपाकर अंतरंग-बहिरंग तप करना शक्तितस्तप है।
प्रश्न ६२-साधु-समाधि का लक्षण बताओ?
उत्तर -साधुओं का उपसर्ग आदि दूर करना या समाधि सहित वीरमरण करना।
प्रश्न ६३-वैय्यावृत्यकरण का क्या अर्थ है?
उत्तर -व्रती, त्यागी, साधर्मी की सेवा करना, वैय्यावृत्ति करना।
प्रश्न ६४-अर्हत्भक्ति और आचार्यभक्ति में क्या अंतर है?
उत्तर -अरहंत भगवान की भक्ति करना अर्हत्भक्ति और आचार्य की भक्ति करना आचार्यभक्ति है।
'प्रश्न ६५-बहुश्रुतभक्ति व प्रवचनभक्ति में क्या अन्तर है?
उत्तर -उपाध्याय परमेष्ठी की भक्ति करना बहुश्रुतभक्ति एवं जिनवाणी की भक्ति करना प्रवचन भक्ति है।
'प्रश्न ६६-मार्गप्रभावना किसे कहते हैं?
उत्तर -जैनधर्म का प्रभाव फैलाना।
'प्रश्न ६७-प्रवचन वात्सल्य किसे कहते हैं?
उत्तर -साधर्मीजनों में अगाध प्रेम करना प्रवचनवात्सल्य है।
'प्रश्न ६८-मुनिराज आनन्द के ऊपर उपसर्ग किसने किया?
उत्तर -एक समय मुनिराज क्षीर वन में प्रायोपगमन सन्यास लेकर प्रतिमायोग से ध्यान में लीन थे तभी कमठचर पापी भील के जीव एक सिंह ने दहाड़ कर मुनिराज पर धावा बोल दिया और उनके कंठ को पकड़कर तीक्ष्ण नखों से सारे बदन को छिन्न-भिन्न कर खा लिया।
'प्रश्न ६९-मुनि ने उस उपसर्ग को किस प्रकार सहन किया?
उत्तर -मुनिराज उस पशुकृत उपसर्ग को परम शांतभाव से सहन करते हैं और अनंत गुणों के निधान, आत्मा के चिंतन में अपना उपयोग लगा देते हैं और इस नश्वर भौतिक मल-मूत्र के पिंड स्वरूप देह को छोड़कर दिव्य वैक्रियक देह धारण कर लेते हैं।
'प्रश्न ७०-उन्होंने किस गति की प्राप्ति की?
उत्तर -वे अच्युत स्वर्ग के प्राणत नामक विमान में इन्द्र हो गए।
'प्रश्न ७१-सिंह का जीव मरकर कहाँ गया?
उत्तर -सिंह का जीव मरकर नरक गया।
क्रमश:
जैनम् जयतु शासनम्
वास्तुगुरू महेन्द्र जैन (कासलीवाल)
जैनम् जयतु शासनम्
वास्तुगुरू महेन्द्र जैन (कासलीवाल)
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