अशुचि भावना

#भावना - 17

अशुचि भावना

दिपै चाम चादर मढ़ी , हाड़ पिंजरा देह ।
भीतर या सम जगत में, और नही घिन - गेह ।6।

अशुचि भावना का चिंतन सनत कुमार चक्रवर्ती ने किया था।

इस अवसर्पिणी काल के चौथे चक्रवर्ती हस्तिनापुर नरेश सनत कुमार थे। इनकी आयु 3 लाख वर्ष की थी। ये तीर्थंकर धर्मनाथजी के शासन में हुए।

चक्रवर्ती  यानि मनुष्यो में नरदेव, श्रेष्ठ बल तथा उत्कृष्ट वैभव के मालिक। शुभ कर्मोदय से सनतकुमार को देह भी अनुपम सुन्दर प्राप्त हुआ था। उनकी सुंदरता की  प्रशंसा देवलोक में भी होती थी। एकबार प्रथम देवलोक में इंद्र द्वारा सनतकुमार के रूप की  प्रशंसा सुनकर दो देव उनके रूप को देखने आये।
देव ब्राह्मण का रूप लेकर उनके महल में आये। तब सनतकुमार स्नान कर रहे थे। उनका रूप देखकर वे सच में  आश्चर्यचकित हुए। औऱ उनके देह के रूप की  प्रशंसा की।
चक्रवर्ती विप्र बने देव के मुख से उनके रूप की  प्रशंसा सुनकर और गर्वित हुए। उन्होंने कहा , अरे यह तो कुछ नही। जब  मैं पूर्ण श्रृंगार कर, इस देह को अनुपम गहनों से सजाकर जब दरबार मे परिवार समेत बैठूंगा तब इस का असली सौंदर्य तुम देखना।

देव उनके रूप से अभिभूत हुए पर उनके गर्व को देखकर उन्हें इस शरीर की वास्तविकता चक्रवर्ती को दिखाने का निर्णय लिया।
राजा जब सर्व आभूषणों से सज्ज होकर राजसभा में बिराजे तब राजा ने उन विप्रो से पूछा कि अब मेरा रूप कैसा लग रहा है। तब विप्र रुप बनाये  देव ने कहा कि अब आपके देह में कीड़े पड़ गये है। उन्होंने विकुवर्णा (  दैवयिक रचना ) कर राजा को  उनकी विकृत देह दिखाया।
अब राजा आश्चर्य चकित हो गया। अहो, जिस देह की मैंने इतनी सार संभाल ली, उसे अत्युत्तम  व्यंजन खिलाया, विविध शृंगार से सजाया वह कुछ समय में ही ऐसा  घृणित हो गया ?
इस तरह सोचते हुए राजा ने अशुचि भावना का चिंतन किया। उन्हें तब वैराग्य उत्पन्न हुआ। समस्त वैभव युक्त राज्य , सत्ता व परिवार को छोड़कर संयम ग्रहण कर उत्कृष्ट तप व ज्ञान साधना करने लगे।
उत्कृष्ट तपाराधना से उन्हें विभिन्न कई लब्धियाँ प्राप्त हुई।
किसी वेदनीय कर्म के उदय से देह में अत्यंत तकलीफ वाला रोग उत्पन्न हुआ। 

इस रोग में भी उनकी आराधना अक्षुण्ण रही। लब्धियो का प्रयोग कर देह को स्वस्थ नही किया , परन्तु कर्मोदय समझकर उसे समभाव से सहन करते रहे। उनकी तपाराधना देख पुनः देव आये। उन्होंने मुनि को उनका रोग दूर करने के लिए मदद करना चाहा।
गंभीर मुनि ने कहा : - आप मेरा भवरोग मिटा सको तो मिटाओ। इस देह के रोग से मुझे शिकायत नही। ऐसे कहकर अपने थूंक से अपने देह का कुछ हिस्सा स्वस्थ कर दिखाया।

मतलब यह रोग तो में भी मिटा सकता हूं पर मुझे कर्म रोग मिटाना है,  ताकि फिर ऐसा अशुचि वाला देह धारण ही न करना पड़े।
नतमस्तक होकर देव चले गये।
करीब 700 वर्ष तक उन्होंने रोग को सहन किया। ऐसे उत्कृष्ट आराधना से मुनि पर्याय में एक लाख वर्ष बिताया। अंत मे सर्व कर्म खपाकर सिद्ध बुद्ध व मुक्त हुए।

ऐसे कथानकों  से हम यह प्रेरणा ले, कि जब सनत चक्रवर्ती का रूप नही रहा तो हम क्या बिसात में!!! इस देह की अशुचि को समझ कर उच्च भावना द्वारा अपना मार्ग प्रशस्त करने का प्रयास करे।

🙏🙏🙏

सन्दर्भ : - जैन तत्त्व प्रकाश, व अन्य ग्रंथ

जिनवाणी विपरीत अंशमात्र प्ररूपणा की हो तो मिच्छामी दुक्कडम।

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