बड़ी साधुवंदना -7
बड़ी साधुवंदना - 61
चारित्र लइ ने पहोंच्या, शिवपुर ठाम,
धुर आदि मकाई , अंत अलक्ष मुनि नाम।71।
अंतगड जी सूत्र के छट्ठे वर्ग में 16 महापुरुषों की जीवनगाथा का वर्णन है। जिसमे हमने अर्जुनमुनि व अतिमुक्त कुमार की कथा देखी। अब अन्य 14 ।
वीर प्रभु अपनी केवली चर्या दौरान विभिन्न नगरों में विचरण करते, भव्य जीवो को बोध देते। उनमे से कई भव्यात्मा ने संयम ले कर स्वकल्याण कर लिया। कोई राजा था, कोई राजकुमार, कोई गाथापति ( सेठ ) था कोई रानी। उनमे से कुछ नाम इस गाथा में दिये गये है।
इनके नाम - नगर - दीक्षा पर्याय
उनमे से कुछ का वर्णन इस प्रकार है।
मकाई गाथापति - राजगृही - 16 वर्ष
किंकम गाथापति - राजगृही - 16 वर्ष
काश्यप गाथापति - राजगृही - 16 वर्ष
क्षेमक गाथापति - काकन्दी नगरी - 16 वर्ष
धृतिधर गाथापति - काकन्दी - 16 वर्ष
कैलाश गाथापति - साकेत - 12 वर्ष
हरिचन्दन गाथापति - साकेत - 12 वर्ष
वारवत्तक गाथापति - राजगृही - 12 वर्ष
सुदर्शन गाथापति - वाणिज्य - 5 वर्ष
पूर्ण भद्र गाथापति - वाणिज्य - 5 वर्ष
सुमनभद्र गाथापति - श्रावस्ती - बहुत वर्ष
सुप्रतिष्ठ गाथापति - श्रावस्ती - 27 वर्ष
मेघ गाथापति - राजगृही - बहुत वर्ष
अलक्ष राजा - वाराणसी - बहुत वर्षो तक।
इन सभी ने प्रभु के श्रीमुख से देशना सुनी, संसार भाव से विरक्त होकर संयम ग्रहण किया। उत्कृष्ट आराधना कर सभीने आयुष्य के अंत समय मे केवल्यप्राप्ति कर विपुलगिरी पर्वत से सिद्ध बुद्ध मुक्त हुये।
बड़ी साधुवंदना - 62
वली कृष्णराय नी अग्रमहिषी आठ ।
पुत्र बहू दोय, संच्या पुण्य ना ठाठ।72।
यादव कुल सतिया, टाल्यो दुख उचाट।
पहुँची शिवपुर माँ , ए छे सूत्र नो पाठ।73।
गजसुकुमाल मुनि के निर्वाण पश्चात कृष्ण वासुदेव थोड़े व्यथित थे। फिर सांब कुमार आदि यादव कुमारों ने दीक्षा लेकर स्व कल्याण के मार्ग पर कदम बढ़ा दिए।
उन सबको देख वासुदेव यह सोचने लगे की मै कितना अधन्य हूं। में इन कुमारों की तरह संयम नही ले सकता। भोग वैभव को छोड़कर त्याग मार्ग अपना नही सकता।
ऐसे में वहाँ नेमप्रभुका पदार्पण हुआ।
उनके दर्शन वन्दन के पश्चात प्रभुने कृष्ण से उनकी शंका का समाधान किया।
कृष्ण, आप वासुदेव हो। पूर्व भव में किये संयम, धर्म व तप के फल स्वरूप तुमने निदान किया लौकिक सुख का। इस लिए तुम्हारे अंतराय कर्म का उदय होने से तुम संयम ग्रहण नही कर सकते।
तब कृष्ण ने पूछा - की अहो भगवन, स्वर्ग की अल्कापुरीके समान 9 योजन चौड़ी 12 योजन लंबी इस द्वारिका का अंत कैसे होगा .? मेरी मृत्यु कैसे हॉगी ?
तब प्रभुने कहा
सुरा, अग्नि व द्वेपायन ऋषि के निमित्त से द्वारिका नगरी का विनाश होगा। व उस आग से बचे हुए तुम, जंगल में जराकुमार के हाथों मारे जाओगे। यहां से काल कर आप तीसरी नरक में उत्पन्न होंगे।
अपना भविष्य जानकर दुखी कृष्ण को प्रभु बतला रहे है। है कृष्ण, आप शोक न करे। किये कर्मो का भुगतान सब को करना है। आप नरक से आकर यागली चौबीसी के अमम नाम से बारहवें तीर्थंकर बनोगे।
यह सब जानकर कृष्ण वासुदेव ने द्वारिका को विनाश से बचाने के प्रयत्न शुरू किये।
नगर में सुरा यानी मदिरा पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया।
धर्म के प्रभाव को समझकर अविरत तोर पर पूरे नगर में आयंबिल शुरू करवाये।
और कृष्ण ने पूरे नगर में सभी को संयम ग्रहण करने की प्रेरणा दी।
जिन किसी को संयम लेने में परिवार का पालन अंतराय रूप था , उनकी जिम्मेदारी राज्य की हॉगी यह भी घोषणा करवाई।
इस घोषणा के बाद द्वारिका के कई नागरिकों, सन्नारियों , राजकुमार,राजकुमारियों ने संयम ग्रहण किया।
नेमप्रभु की देशना सुनकर विरक्त बनी हुई कृष्ण वासुदेव की 8 पटरानियां भी इस घोषणा से खुश हुई। उन्होंने आज्ञा लेकर प्रभुके पास संयम ग्रहण किया। उनके नाम
पद्मावतीजी, गौरी, गांधारी, लक्ष्मणा, सुसीमा, जांबवंतीजी, रुक्मिणी थे।
इसी कड़ी में कृष्ण वासुदेव की पुत्रवधू ( शांबकुमार की पत्नियां ) मूल श्री व मुलदत्ता ने भी संयम ग्रहण किया।
सभी ने 20 वर्ष तक संयम का उत्कृष्ट पालन कर आयु का अंत देख एक माह की संलेखना सहित सिद्ध, बुद्ध मुक्त हुई।
धन्य इन त्याग वीरो को
बड़ी साधुवंदना - 63
श्रेणिक नी राणी ,काली आदिक दस जाण ।
दस पुत्र वियोगे सांभली वीर नी वाण।74।
चंदनबाला पे संयम, लइ हुई जाण।
तप करी झोंसी पहोंची छे निर्वाण।75।
नंदादीक तेरह ,श्रेणिक नृप नी नार ।
सघली चंदनबाला, पे लीधो संजम भार।76।
एक मास संथारे, पहोंची मुक्ति मझार ।
ए नेवु जणा नो अंतगड मां अधिकार।77।
धन्य धन्य जिनशासन,
यह बहुत बड़ा कथानक है इसे संक्षिप्त कर रहा हूं। उसमे रस खंडन या कोई विगत रह जाती हो तो क्षमा याचना।
नेमप्रभु के शासन में कृष्ण की प्रभुभक्ति अजोड़ थी, उन्होंने कई जीवो को धर्माराधना में , संयम ग्रहण कर स्वकल्याण के लिए प्रेरित किया । ठीक वैसे ही वीर प्रभु के शासन में श्रेणिक राजा की धर्म दलाली भी उत्कृष्ट मानी जाती है।
प्रभु वीर विचरण करते हुए एकबार राजगृही नगरी के गुणशील नामक उद्यान में पधारे। प्रजा तथा राजपरिवार के सदस्य दर्शन, वन्दन व देशना श्रवण हेतु आये। श्रेणिक की नन्दा आदि 13 रानियां भी इस समाचार को पाकर हर्षित हुई। वे भी प्रभुके दर्शन के लिए आई। देशना सुनकर वैराग्यवासित हुई। राजमहल आकर उन्होंने श्रेणिक से संयम ग्रहण की आज्ञा मांगी।
श्रेणिक ने तो सभी के लिए संयम मार्ग खोल रखा था। जिन्हें भी संयम ग्रहण करना हो , वे खुशी से करें। कृष्ण की तरह ही संयम ग्रहण करने वाले के पीछे उनकी संसारिक जिम्मेदारियां राज्य उठाएगा यह घोषणा भी करवाई हुई थी।
श्रेणिक राजा ने खुशी खुशी सभी रानियों को आज्ञा दी।
तेरहो रानियों ने संयम ग्रहण किया। 20 वर्षो तक उत्कृष्ट संयम का पालन किया। ग्यारह अंगों का अभ्यास किया। और सिद्ध बुद्ध मुक्त हुई।
उन 13 के नाम
नन्दा, नन्दवती, नन्दोत्तरा, नंद श्रेणिका, मरुता, सुमरुता, महामरुता, मरूदेवा, भद्रा, सुभद्रा, सुजाता, सुमनातिका, भूतदत्ता ।
राजगृही में राज परिवार का माहौल बिगड़ गया था । राज्य की लालसा का निमित्त बना, और
श्रेणिक के पूर्वभव के वैरी कोणिक ने इस भव के पिता को कैद में डाल दिया था। वहां श्रेणिक ने अपने प्राण त्याग दिए। उसके बाद कि कथा आगे
कोणिक ने नइ राजधानी बनाई - चंपा नगरी।
कोणिक अब विशाल मगध देश का स्वामी था। अब श्रेणिक के पुत्र व कोणिक के भाइ हल विहल के पास देव प्रदत्त दिव्य हार व सेंचानक हाथी बटवारे में आये थे। पर कोणिक पत्नी को वह दोनो भी चाहिए थे। स्त्री हठ के आगे आज तक किसी नही चली।
आगे की कथा......
बड़ी साधुवंदना - 64
श्रेणिक नी राणी ,काली आदिक दस जाण ।
दस पुत्र वियोगे सांभली वीर नी वाण।74।
चंदनबाला पे संयम, लइ हुई जाण।
तप करी झोंसी पहोंची छे निर्वाण।75।
नंदादीक तेरह ,श्रेणिक नृप नी नार ।
सघली चंदनबाला, पे लीधो संजम भार।76।
एक मास संथारे, पहोंची मुक्ति मझार ।
ए नेवु जणा नो अंतगड मां अधिकार।77।
कल के कथानक से आगे ....
रानी की जिद पर कोणिक ने हल विहल से हार व हाथी की मांग की। हल विहल कोणिक की हार हाथी की मांग को अस्वीकार कर अपने नाना चेटक के यहां चले गए। कोणिक नही माना।
आखिर मात्र एक हार हाथी के लिए कोणिक - चेटक के बीच महाभयंकर युद्ध हुए। रथ मूसल व शिला कंटक संग्राम। इस युद्ध की भयानकता अत्यधिक थी। लाखो सैनिकों ने प्राण गंवाए। शब्दो मे इन महा नरसंहारक युद्धों का वर्णन करना संभव नही। इन युद्धों में मात्र नरसंहार ही नही हुआ, मृत्यु के समय आर्त- रौद्र ध्यान के कारण कई हजारों जीव नरक व तिर्यंच गति में उत्पन्न हुए। कितनी करुणता। एक मात्र स्त्री हठ 😢
उस भीषण युद्ध के समय वीर प्रभु कोणिक की नई बसाई नगरी चंपा में बिराजित थे। कोणिक व उसके साथी 10 महाबली भाई भी युद्ध मे उसके साथ गये हुए थे।
उन 10 योद्धाओ की 10 माता वीर प्रभुके दर्शन के लिए गई।
उन्होंने प्रभु के दर्शन वन्दन , देशना श्रवण पश्चात पूछा - हम युद्ध मे गये अपने पुत्रों को वापिस देख पायेंगे या नही। तब प्रभुने इनकार किया। दसो रानीया समझ गई कि अब वे जीवित लौटकर नही आयेंगे। प्रभुकी देशना सुनकर वे वैरागी तो बन ही चुके थे। निमित्त भी मिल गया। उन्होंने भी संयम स्वीकार किया। और
सिर्फ संयम ग्रहण कर के ही नही रहे। ग्यारह अंगों का अभ्यास किया। एकबार गुरुणी चंदनबाला जी की आज्ञा लेकर उत्कृष्ट तप की आराधना प्रारंभ की। इन्होंने जो विविध तप किये आज भी वे कठिन तप व तपस्वी को धन्य माने जाते है।
तप पूर्ण होने के बाद भी विविध धर्म तप आराधना करने लगी। फिर जब तप से देह अत्यंत कृश हो गया। हड्डियों से भी कड़कड़ आवाज आने लगी। तब अंत समय जानकर इन्होंने अंतिम संलेखना अनशन ग्रहण कर निर्वाण प्राप्त किया। और सिद्ध बुद्ध मुक्त बनी।
उन वीर माताओके नाम - उनके तप का नाम - उनकी संयम पर्याय इस प्रकार है।
काली रानी - रत्नावली तप - 8 वर्ष
सुकाली रानी - कनकावली - 9 वर्ष,
महाकाली रानी - लघु सिंह निष्क्रीडित तप - 10 वर्ष,
कृष्णा देवी - महा सिंह निष्क्रीडित तप - 11 वर्ष,
सुकृष्णा रानी - सप्तसप्तमिका से दशदशमिका तप - 12 वर्ष,
महा कृष्णा रानी - लघुसर्वतो भद्र - 13 वर्ष,
वीर कृष्णा रानी - महा सर्वतोभद्र - 14,
राम कृष्णा रानी - भद्रोत्तर प्रतिमा - 15 वर्ष,
पितृसेन कृष्णा रानी - मुक्तावली तप - 16 वर्ष,
महासेन कृष्णा - आयंबिल वर्धमान तप - 17 वर्ष।
बड़ी साधुवंदना - 65
श्रेणिक ना बेटा, जाली आदिक तेवीस ।
वीर पे व्रत लइ ने , पाल्यो विश्वावीस ।78।
तप कठिन करीने, पूरी मन जगीश ।
देवलोके पहोच्या, मोक्ष जाशे तजी रिश ।79।
पिछली कुछ पोस्ट में हमने आठवें अं yuग श्री अंतगड जी सूत्र में वर्णित कुछ दृष्टांत देखे। साधुवन्दना में अब आगे के कथानक नोंवे अंग अनुत्तरो ववाईय सूत्र से लिये गये है।
यानी जैसे अंतगड जी सूत्र में वर्णित 90 आत्माएं मोक्ष में पधारे वैसे ही इस आगममे वर्णित सभी आत्माएं काल कर देवलोक में श्रेष्ठ , सभी देवलोक से ऊपर स्थित, ऐसे 5 अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुए।और शीघ्र ही मोक्ष में पधारेंगे।
यह 5 विमान में सिर्फ सम्यग्दृष्टि देव ही होते है। सभी एक समान देव। लंबे समय तक निर्बाध सुख भोगना और कुछ भव में ही मोक्ष जाना। यही उनकी नियति बन जाती है। और इन 5 मे भी सर्वार्थसिद्ध विमान के देव तो अब एक ही मनुष्य के भव कर के सिद्ध हो जाएंगे।
राजगृही नगरी के श्रेणिक राजा की रानी धारिणी के पुत्र थे जाली कुमार । अत्यंत तेजस्वी राजकुमार। अत्यंत वैभव में पले बढ़े, युवान होने पर 8- 8 सुंदर कन्याओं के साथ विवाह हुआ। राजमहल में संसार के उत्तम सुख को भोग रहे थे।
एकबार वीर प्रभुका राजगृही में पदार्पण हुआ। भव्य जीवो की एक खासियत होती है , प्रभु की एक देशना ही उनके हृदय को स्पर्श कर जाती है और स्वकल्याण के लिए उद्यत बन जाते है। जाली कुमार ने भी एक देशना सुनकर संयमग्रहण को उत्सुक बने। माता पिता से आज्ञा प्राप्त करना आसान नही था। पर दृढ़ धर्मी और गाढ़ वैराग्य पानी की तरह अपना राह बना ही लेता है। मातापिता को मनाकर संयम ग्रहण किया। मुनि बन कर उत्कृष्ट आराधना करने लगे। 11 अंगों का अभ्यास कर, तप आदि के साथ विचरने लगे। 16 वर्ष तक उत्कृष्ट संयम का पालन किया। आयुष्य के अंतिम समय संलेखना ग्रहण कर विजय नाम के अनुत्तर विमानमें उत्पन्न हुए। वँहा उनकी स्थिति 32 सागरोपम थी।
जालिकुमार जैसे ही श्रेणिक- धारिणी के अन्य 20 पुत्र, श्रेणिक व नन्दा रानी के पुत्र अभयकुमार, श्रेणिक व चेलना रानी के पुत्र विहास (हल्ल ) - विहल , भी प्रभु की देशना सुनकर प्रवजीत हुए। यो श्रेणीक राजा के कुल 23 पुत्र उत्कृष्ट आराधना करते हुए अंत मे अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हुए।
इनकी संयम पर्याय आदि में थोड़ी भिन्नता है। पर अंत मे सभी 23 कुमार अलग अलग 5 विमानों में उत्पन्न हुए। अगले भव में मोक्ष चले जायेंगे।
इन 23 के नाम
जाली, मयाली, उवयाली, पुरुषसेन, वारीसेन, दीर्घ दन्त, लष्टदन्त, विहल, वेहास, अभय, दीर्घसेन, महासेन, लष्टदन्त, गूढ़ दन्त, शुद्ध दन्त, हल, द्रुम, द्रुमसेन, महाद्रुम सेन, सिंह, सिंहसेन, महासिंह सेन, पुण्य सेन ।
इन वैभवी राजकुमारो के कथानक से, इनकी त्याग, संयम दृढ़ता से हमारे जीवन मे भी जिनधर्म की श्रद्धा दृढ़ बने यही मंगल प्रार्थना।
बड़ी साधुवंदना - 66
सम्राट श्रेणिक
पिछली गाथाओं में हमने श्रेणिकजी की रानी व उनके पुत्रो के कथानक देखे। इन सब मे एक मुख्य कथानक रह जाता है तो आज बिना गाथा के ही आज जिनशासन के महान राजा श्रेणिक की विशाल कथा को अति संक्षिप्त में देखते है।
राजा प्रसेनजित के 100 उपरांत पुत्रो में श्रेणिक सबसे ज्यादा बहादुर व बुद्धिमान था। राजा ने अपनी राजगद्दी किसे सौंपनी यह नक्क़ी करने के लिए गुप्त रूप से सभी पुत्रो की कई परीक्षाएं ली। जिसमे श्रेणिक का प्रदर्शन शानदार रहा। उन्होंने श्रेणिक को राजा बनाने का तय कर लिया। परन्तु श्रेणिक अभी 14 वर्ष के थे। और राजपरिवार में सत्ता के लिए चलते षड्यंत्रों में श्रेणिक को नुकसान न हो इस लिए उसे राज्य से निष्कासित करने का नाटक किया।
घूमते घूमते श्रेणिक राज्य से बाहर एक वेणातट नगर में आया , वहां के सेठ सुभद्र के यहां गुप्त रूप से काम करने लगा। समय बीतता गया। सुभद्र सेठ ने उसका चारित्र, उसकी पुण्याई , उसका राजसी व्यक्तित्त्व देखकर उसके किसी खानदानी व्यक्ति होने का विश्वास कर अपनी पुत्री नंदा के साथ श्रेणिक का विवाह किया। नंदा गर्भवती थी तभी राजगृही से प्रसेनजित की बीमारी व उसे शीघ्र राजगृही पहुंचने का आदेश आ गया। श्रेणिक नन्दा रानी को बिना कुछ बताये राजगृही आये। नन्दा ने फिर अभयकुमार को जन्म दिया। जो अत्यंत बुद्धिमान था। उसी के प्रयत्नों से श्रेणिक व नन्दा का पुनः मिलन हुआ। अभयकुमार श्रेणिक के दरबार मे सबसे ऊपर 500 मंत्रियों का मुखिया बना। श्रेणिक को राजकार्य के उपरांत धर्मकार्यो में भी अभयकुमार प्रेरणा देते रहे।
श्रेणिक ने राजा बनने के बाद कई विवाह किया। जिसमें नंदा उपरांत मुख्य चेलना, धारिणी, दुर्गंधा आदि थी ।
उधर वैशाली नगरी के चेटक राजा की अंतिम पुत्री चेलना का विवाह भी अजीब संयोगों में हुआ।
हुआ यों कि चेटकराजा जिनका उपनाम चेड़ा राजा भी था उनकी छट्ठी पुत्री सुज्येष्ठा जी का अपहरण करने गए श्रेणिक राजा ने सुज्येष्ठा की छोटी बहन चेलना को रानी बना कर ले आये।
श्रेणिक राजा अन्य धर्मी थे । जैन धर्म की समझ उन्हें अनाथी मुनि से मिली। उन्हें धर्म की सही समझ देने का, उन्हें दृढ़ जिनधर्मानुरागी बनाने का श्रेय वीर प्रभुके बाद चेलना रानी को जाता है। फिर तो इस हद तक श्रेणिक जिनधर्म में अनुरक्त हुए कि उन्होंने अपने राज्य में यह घोषणा करवा दी थी कि जो भी मनुष्य संयम ग्रहण करना चाहे तो कर सकता है। उनकी सभी सांसारिक जिम्मेदारियों का वहन राज्य करेगा। पूर्वभव में बांधे कर्मो की अंतराय से वह एक व्रत भी धारण नही कर पाये उसका उन्हें बेहद अफसोस था। उन्होंने प्रयास भी किया कि एक नवकारसी करे, एक सामायिक का पुण्य प्राप्त करे पर, यह शक्य नही बना। परन्तु उन्होंने उत्कृष्ट धर्म दलाली की। धर्मदलाली के प्रभाव से उन्होंने तीर्थंकर नाम कर्म का बन्ध किया। भरत क्षेत्र में ही आगामी चौबीसी में वे प्रथम तीर्थंकर पद्मनाभस्वामी बनेंगे।
पूर्वभव का वैरी कोणिक पुत्र बना। चेलना को कोणिक गर्भ में आते ही समझ आ गया था कि गर्भस्थ जीव पिता का वैरी बनेगा। उसने पुत्र का त्याग कर दिया था। परंतु करुणावान श्रेणिक उसे वापिस ले आया। और प्यार से उसका पालन किया। पर कोणिक युवान होते ही पूर्व द्वेष के चलते उसने श्रेणिक को कैद में डाला।
पूर्वका द्वेष इतना ज्यादा था कि कुछ ग्रन्थ अनुसार कोणिक रोज श्रेणिक को 100 चाबुक मारता था। कैद में भूखे प्यासे रखता था। एक दिन वह वैर का अंत आनेवाला था। निमित्त में चेलना बनी। उसने कोणिक को समझाया। कोणिक तलवार लेकर श्रेणिक की बेड़ियां काटने कारागार पहुंचा। तब श्रेणिक को लगा यह मुझे मारने आ रहा है। पुत्र को पितृहत्या के दोष से बचाने उसने तुरन्त विषपान कर प्राण त्याग दिए। और काल कर प्रथम नरक में 84000 वर्ष की स्थिति वाला नारकी बने। कोणिक ने बाद में बहुत पश्चाताप किया।
श्रेणिक के जीवन मे अत्यंत चढ़ाव उतार आये।उनकी जीवनगाथा का प्रचुर वर्णन मिलता है। पर एक वाक्य में कहे तो श्रेणिक जिनशासन का एक परम प्रतापी सम्राट रहा। जिसने जिनशासन को अमूल्य योगदान दिया व उसके समय मे जैन धर्म ने बहुत ऊंचाई को छू लिया था।
बड़ी साधुवंदना - 67
काकन्दी नो धन्नो, तजी बत्तीसों नार ।
महावीर समीपे, लीधो संयम भार ।80।
करी छट्ठ छट्ठ पारणा, आयंबिल उज्झित आहार।
श्री वीर वखाण्यो, धन धन्नो अणगार ।81।
एक मास संथारे , सर्वार्थ सिद्धि पहुंत।
महाविदेह क्षेत्र मां करशे, भव नो अंत ।82
धन्ना नी रीते , हुआ नव्वे सन्त।
श्री अनुत्तरो ववाई मां, भाखी गया भगवंत। 83।
काकन्दी नगरी में भद्रा नामक एक अत्यंत वैभवी सार्थवाही थी। उनके पुत्र का नाम धन्यकुमार था। उच्च गुणो से युक्त धन्यकुमार का विवाह 32 श्रेष्ठी कन्याओं के साथ हुआ था।
माता गृह व व्यापार में दक्ष थी। कुमार अत्यंत सुखमय अवस्था मे अपना भोगयुक्त जीवन जी रहे थे। तब वंहा वीर प्रभुका पदार्पण हुआ।
वीर प्रभुकी देशना सुनकर धन्यकुमार को वैराग्य उत्पन्न हुआ। अपने मनुष्यभव को सार्थक बनाने हेतु संयम ग्रहण को उत्सुक हुए।
घर आकर माता से आज्ञा मांगी। इकलौते पुत्र को सरलता से आज्ञा कहां मिल जाती। बहुत संवाद हुआ। माता ने कई प्रलोभन दिए, कई विलाप, कई युक्तियों का प्रयोग किया। परन्तु भव्यात्मा धन्यकुमार दृढ़ बन चुके थे। आख़िर माता को सहमत होना पड़ा।
भद्रामाता राजा जितशत्रुजी के पास दीक्षा महोत्सव के लिए छत्र चामर आदि लेने गए। इतने वैभव को छोड़कर संयम ग्रहण? राजा जितशत्रुजी भी यह सुनकर प्रभावी हुए। उन्होंने स्वयं दीक्षा महोत्सव किया।
इस तरह धन्यकुमार धन्ना अणगार बने।
दीक्षा के दिन ही भगवान की आज्ञा लेकर आजीवन छट्ठ के पारणे छट्ठ करने का अभिग्रह लिया।
अहो, उत्कृष्ट तप, अहो रसनेन्द्रिय पर उत्कृष्ट विजय। पारणे में भी आयंबिल करना, व आयंबिल में भी उज्झित आहार ही वापरने का निर्णय लिया। उज्झित आहार मतलब जो आहार फेकने योग्य हो, जिसे याचक भी ग्रहण करने से मना कर दे ऐसे आहार । मात्र देह का निर्वाह हो।
इनकी इस अनासक्ति, इस उग्र तप को आज भी अनुमोदा व सराहा जाता है।
स्वयं वीर प्रभुने श्रेणिक के एक प्रश्न के उत्तर में 14,000 सन्तो में धन्ना मुनि के तप , संयम की प्रसंशा की ।
ऐसे त्यागवीरो से ही जिनशासन देदीप्यमान है।
इस तरह उत्कृष्ट संयम आराधना करते हुए देह को क्षीण बनाकर एक माह की अंतिम आराधना संलेखना कर विपुलगिरी से कालधर्म को प्राप्त हुए। व सर्वार्थसिद्ध विमानमें 33 सागरोपम स्थिति (आयुष्य) वाले देव बने।
इन्ही मुनि की तरह विभिन्न नगरों के अन्य 9 आत्माओं ने भी उत्कृष्ट संयम पालन कर अंत मे संलेखना सह मृत्यु से सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुए।
उनके नाम
सुनक्षत्रजी, ऋषिदास, पेल्लक, रामपुत्र, चन्द्रिक, पुष्टिमात्रिक , पेढल पुत्र, पोट्टील, विहल्ल ।
इन सभी की गाथा हमारे जीवन में भी सत्पुरुषार्थ की प्रेरणा बने यही मंगलकामना।
बड़ी साधुवंदना - 68
सुबाहु प्रमुख ,तजी पांच पांच सौ नार ।
पछी वीर पे लीधा, पंच महाव्रत सार। 84।
चारित्र लेइने , पाल्यो निरतिचार ।
देवलोके पहोंच्या , सुख विपाके अधिकार। 85।
प्रभु वीर की अंतिम वाणी उत्तराध्ययन व विपाक सूत्र।
समस्त संसारी जीव कर्मो के विपाक से ही प्रवाहित होते है। शुभकर्मों से जीव सुखमय सांसारिक अवस्था प्राप्त करता है तो अशुभ पाप कर्मों से महान दुख मय अवस्थाओं को प्राप्त करता है।
इन सुख व दुख के विपाक को अच्छे से समझाता हुआ आगम है विपाक। उसके दो मुख्य विभाग सुख विपाक व दुख विपाक।
प्रस्तुत गाथा सुखविपाक सूत्र से ली गई है। जिसमे सुपात्रदान का अत्यंत महत्त्व बतलाया गया है। भाव सहित साधुजीको, व्रतधारी को उनकी साधना में सहायभूत बनते हुए उच्च भाव से आहार औषध आदि का दान देना आदि उच्च पुण्य बन्ध का कारण बनता है।
सुबाहुकुमार आदि 10 श्रेष्ठ आत्माओंने पूर्व भव में अत्यंत शुभ भाव पूर्वक साधु महात्माओको सुपात्र दान दिया। फल स्वरूप इस भव में राजा के यहां अत्यंत वैभव युक्त, अत्यंत सुखमय जीवन को प्राप्त किया। सभी का विवाह 500 राजकन्याओं के साथ हुआ। अत्यंत वैभव, सुखमय जीवन जी रहे इन सभी राजकुमारो को वीर प्रभु के दर्शन हुए। उनसे पहले श्रावक व्रत लिए। कालांतर में संयम ग्रहण किया। ग्यारह अंगों के अभ्यास के साथ ही उत्कृष्ट संयम पालन कर संलेखना की। इनमें से 1, 2 , 3 व दसवें मुनि मृत्यु प्राप्त कर देवलोक पहुंचे। अन्य 6 मोक्ष को प्राप्त किया।
इन दस का नाम - नगर - माता पिता -
1 - सुबाहु - हस्तिशीर्ष नगर - अदिन शत्रु व धारिणी
2 - भद्र नंदी - रुषभपुर - धनावह राजा - सरस्वतीजी
3 - सुजात कुमार - वीरपुर - वीरकृष्ण राजा - श्रीमती रानी
4 - सुवासव कुमार - विजयपुर - वासवदत्त राजा - श्रीकृष्णा रानी
5 -जिनदास - सौगंधिका - अप्रतिहत राजा - सुकृष्णा रानी
6 - धनपति कुमार -कनकपुर - प्रियचंद्र - सुभद्रा रानी
7 - महाबल कुमार - महापुर - बलराजा - सुभद्रा रानी
8 - भद्र नंदी -सुघोष - अर्जुन राजा- तत्त्व वती रानी
9 -महाचंद्र कुमार -चंपा नगरी - दत्त राजा - रक्तवती रानी
10 - वरदत्त कुमार -साकेत - मित्र नंदी - श्रीकांता रानी
इन जीवों का वर्णन सुन हम भी पुण्य- पाप का महत्त्व समझे यही मंगलकामना।
बड़ी साधुवंदना - 69
श्रेणिक ना पोता, पउमादिक हुआ दस।
वीर पे व्रत लइने , काढयो देह नो कस ।86।
संयम आराधी, देवलोक मां जइ वस।
महाविदेह क्षेत्र माँ, मोक्ष जासे लेइ जस। 87।
बलभद्र ना नन्दन , निषधादिक हुआ बार।
तजी पचास पचास अंतेउरी, त्याग दियो संसार।88।
सहु नेमी समीपे , चार महाव्रत लीध।
सर्वार्थसिद्ध पहोंच्या , होसे विदेहे सिद्ध । 89।
निरयावलिका सूत्र से लीये हुये कथानकों की ऊपर की 2 गाथाएं।
श्रेणिक राजा के पुत्र तथा रानियों के नाम। कुल 36 पुत्र तथा 26 रानियों के नाम का वर्णन देखने मे आता है। यहां मत मतांतर संभव है।
पिछली गाथाओ में हमने श्रेणिक के पुत्रो में हमने 23 के नाम देखे , आज अन्य 10 के नाम चित्र में दिए है, जो युद्ध मे मारे गये व जिनकी रानियों तथा जिनके पुत्रो ने दीक्षा ली ।
नन्दीसेन व मेघकुमार ने भी दीक्षा ली। कोणिक तिमिस्त्रा गुफा के पास मारा गया।
रानियों के नाम मे 23 ने दीक्षा ली उसका वर्णन आ गया। उपरांत धारिणी जी चेलनाजी, दुर्गंधा जी आदि के नाम मुझे पढ़ने मिले। दुर्गंधा जी के संयम ग्रहण का भी एक ग्रन्थ में पढ़ा।
। उसी श्रृंखला में अब आगे - श्रेणिक राजा की काली आदि 10 रानियों ने जिन 10 पुत्रो के मृत्यु की आगाही सुनकर संयम ग्रहण किया, उन्हीं 10 पुत्र काल कुमार आदि के दस पुत्रो यानि श्रेणिक के दस पोतो ने भी वीर प्रभु से देशना सुनकर वैराग्य प्राप्त किया। दसों ने वीर प्रभु से संयम ग्रहण कर उत्कृष्ट धर्माराधना करने लगे। ग्यारह अंग का अभ्यास किया। व 2 से लगाकर 5 वर्ष तक का संयम पालकर अंतिम समय जानकर विपुलगिरी पर्वत पर संलेखना ग्रहण की। एक मास के संथारे की अवधि बाद काल कर देवलोक में उत्पन्न हुये । आगामी भव महाविदेह में कर सिद्ध बुद्ध मुक्त बनेंगे।
सभी कुमारों के नाम, मातापिता के नाम आदि वर्णन अलग से चित्र में सरलता से दिया है।
कुल श्रेणिक के परिवार में कुल दीक्षाये 69 देखने मे आई । यह अंक भिन्न हो सकता है। तत्त्व केवली गम्यं ।
(25 पुत्र, 24 रानियां, 10 पौत्र )
गाथा 88 , 89
बलभद्र जी के पुत्र
आगे की 2 गाथाओ में बलभद्र के निषध आदि बारह राजकुमारो का वर्णन किया गया है। यह विस्तृत वर्णन वन्हिदशा आगममे मिलता है।
ये बारहों बलभद्र जी तथा रेवती रानी के पुत्र थे।अत्यंत सुख भोग वैभव में ये सभी पले बढ़े, युवान हुए । पुरुषोचित कला में प्रवीण हुए। सभी का 50 - 50 राजकन्या के साथ विवाह हुआ। नेम प्रभु जब द्वारिका नजदीक नन्दनवन में पधारे तब इन सभी ने उनकी देशना से धर्मानुरागी बन श्रावक व्रत अंगीकार किए। कई वर्षों तक श्रावकोचित आराधना करते हुए एक बार पौषध में चिंतन करने लगे।
अहो, धन्य वे सभी मुनि , जिन्होंने संयम ग्रहण कर मनुष्यभव को सार्थक कर लिया।अब मुझे भी देह में जब तक जोर है तब तक उत्कृष्ट आराधना कर लेना चाहिए। यह सोचकर संसार के सारे सुख वैभव , पचासों पत्नियां आदि त्याग कर, इन्होंने नेम प्रभु के पास चार महाव्रत रूप संयम ग्रहण किया।
चार महाव्रत ?
हमारे 24 तीर्थंकरों के शासन में, आचार की आवश्यकता आदि में कुछ सूक्ष्म फर्क होता था।
ऋषभदेव प्रभु तथा वीर प्रभु के शासन के सन्तो को, उस समय मनुष्यो की प्रकुति अनुरूप पांच महाव्रत होते थे। परंतु मध्य के 22 तीर्थंकर के सन्तो के लिए चतुर्याम धर्म यानी चार महाव्रत होते थे।
9 वर्ष तक उत्कृष्ट संयम का आराधन किया। अंत मे 20 दिनों का संलेखना संथारे के साथ काल कर सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुए।
आगे महाविदेह में जन्म लेकर उत्कृष्ट आराधना कर मोक्ष जाएंगे।
बलभद्र जी के 12 पुत्रो के नाम इस प्रकार है।
निषध, मातली, वह, वेह, पगया, युक्ति, दसरथ, दृढ़रथ,
महाधन्वा, सप्त धन्वा, दस धन्वा, शत धन्वा।
बड़ी साधुवंदना - 70
धन्ना ने शालीभद्र , मुनीश्वरो नी जोड़।
नारी ना बंधन, तत्क्षण नाख़्या तोड़।90।
घर कुटुंब कबीलों, धन कंचन नी क्रोड़।
मास मास खमण तप, टालशे भव नी खोड़। 91।
जिनशासन के दो अदभुत विरले सितारों की गाथा। जिन्हें सुनकर बस त्याग की पराकाष्ठा की अनुभूति होती है। साला और बहनोई की कथा।शालीभद्र जी - धन्ना जी
राजगृही नगरी में श्रेणिक राजा का राज्य। धनाढ्य सेठ गोभद्र व माता भद्रा के सुकोमल राजकुमार जैसे पुत्र । पुत्र जन्म के बाद गोभद्र सेठ का देवलोक हुआ। सेठ का व्यापार बहुत विस्तीर्ण था। बहुत सा धन खजानों में भरा हुआ था। अब सभी वहीवटी कार्य माता भद्रा संभाल रही थी। वे भी दक्ष थे। राज संबंधित कार्य में भी भद्रा माता प्रवीण थे। राज के लिए उनकी राष्ट्र भक्ति भी बेजोड़ थी।
कहते है : - देव बनकर पुत्र प्रेम वश गोभद्र जी रोजाना धन की 99 पेटियां शालीभद्र के लिए भेजा करते थे। सोचो , कितना वैभव होगा।
सहज जिज्ञासा होती है कि शालीभद्र को इतनी रिद्धि कैसे मिली?
तो इसके लिए हम उसका पूर्वभव देखते है : -
राजगृही के पास एक छोटा गांव, वँहा धन्या नामकी एक ग्वालिन अपने छोटे से पुत्र संगम के साथ रहती थी। बहुत दरिद्र अवस्था मे ये दोनों जी रहे थे पर संस्कार धार्मिक थे।
एकबार पड़ोस के बच्चों को खीर खाते देख संगम ने माँ से खीर खाने की इच्छा व्यक्त की । घर मे खीर की सामग्री नही थी। धन्या व्यथित हुई। आसपास की महिलाओं ने खीर की सामग्री दी। धन्या ने खीर बनाई। संगम काफी उतावला हो रहा था खीर खाने को। खीर बनने के बाद धन्या ने उसे पात्र में डालकर दी और स्वयं पानी भरने चली गई। संगम खीर ठंडी होने की राह देख रहा था। इतने में वहां एक जैन मुनिराज पधारे। संगम को बहुत खुशी हुई। माँ के संस्कार थे। उसने साधुजी का स्वागत किया। अत्यंत अहोभाव से जिस खीर के लिए लालायित था वह पात्र की सारी खीर साधुजी के पात्रो में उंडेल दी। उस समय उसके भाव, सुपात्र दान के भाव इतने उच्च थे , शुभ नाम कर्म का बन्ध कर लिया। उसी शुभनाम कर्म की वजह से इस भव शालीभद्र की रिद्धि प्राप्त की।
पुत्र शालीभद्र ने अभी युवावस्था में कंदम रखा था। 32 सुंदर श्रेष्ठी कन्याओं के साथ विवाह हुआ था। माता के रहते *~अभी तक~* शालीभद्र अभी तक व्यवहारिक काम से अछूते ही रहे थे। यही नही , व्यवहार का सामान्य ज्ञान भी अभी उन्हें नही था। माता ने अत्यंत लाड़ में , वैभव में पाला था। घर में ही सारे सुख मुहैया करवाये गये थे ।अभी तक घर से बाहर निकलना तो दूर पर सात मंजिला महल के सातवें मंजिल से उन्हें ज्यादा नीचे आने तक का काम नही पड़ता था। बहुत सुकुमाल अवस्था मे शालीभद्र जी पल बढ़ रहे थे।
माता भद्रा की राज निष्ठा का एक दृष्टांत उल्लेखनीय है , जो शालीभद्र कि विरक्ति का निमित्त बना। यह हम आगे देखेंगे।
Fb ग्रुप जैनिज़्म
All india jain aagam group
सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रंथ से,
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।
चारित्र लइ ने पहोंच्या, शिवपुर ठाम,
धुर आदि मकाई , अंत अलक्ष मुनि नाम।71।
अंतगड जी सूत्र के छट्ठे वर्ग में 16 महापुरुषों की जीवनगाथा का वर्णन है। जिसमे हमने अर्जुनमुनि व अतिमुक्त कुमार की कथा देखी। अब अन्य 14 ।
वीर प्रभु अपनी केवली चर्या दौरान विभिन्न नगरों में विचरण करते, भव्य जीवो को बोध देते। उनमे से कई भव्यात्मा ने संयम ले कर स्वकल्याण कर लिया। कोई राजा था, कोई राजकुमार, कोई गाथापति ( सेठ ) था कोई रानी। उनमे से कुछ नाम इस गाथा में दिये गये है।
इनके नाम - नगर - दीक्षा पर्याय
उनमे से कुछ का वर्णन इस प्रकार है।
मकाई गाथापति - राजगृही - 16 वर्ष
किंकम गाथापति - राजगृही - 16 वर्ष
काश्यप गाथापति - राजगृही - 16 वर्ष
क्षेमक गाथापति - काकन्दी नगरी - 16 वर्ष
धृतिधर गाथापति - काकन्दी - 16 वर्ष
कैलाश गाथापति - साकेत - 12 वर्ष
हरिचन्दन गाथापति - साकेत - 12 वर्ष
वारवत्तक गाथापति - राजगृही - 12 वर्ष
सुदर्शन गाथापति - वाणिज्य - 5 वर्ष
पूर्ण भद्र गाथापति - वाणिज्य - 5 वर्ष
सुमनभद्र गाथापति - श्रावस्ती - बहुत वर्ष
सुप्रतिष्ठ गाथापति - श्रावस्ती - 27 वर्ष
मेघ गाथापति - राजगृही - बहुत वर्ष
अलक्ष राजा - वाराणसी - बहुत वर्षो तक।
इन सभी ने प्रभु के श्रीमुख से देशना सुनी, संसार भाव से विरक्त होकर संयम ग्रहण किया। उत्कृष्ट आराधना कर सभीने आयुष्य के अंत समय मे केवल्यप्राप्ति कर विपुलगिरी पर्वत से सिद्ध बुद्ध मुक्त हुये।
बड़ी साधुवंदना - 62
वली कृष्णराय नी अग्रमहिषी आठ ।
पुत्र बहू दोय, संच्या पुण्य ना ठाठ।72।
यादव कुल सतिया, टाल्यो दुख उचाट।
पहुँची शिवपुर माँ , ए छे सूत्र नो पाठ।73।
गजसुकुमाल मुनि के निर्वाण पश्चात कृष्ण वासुदेव थोड़े व्यथित थे। फिर सांब कुमार आदि यादव कुमारों ने दीक्षा लेकर स्व कल्याण के मार्ग पर कदम बढ़ा दिए।
उन सबको देख वासुदेव यह सोचने लगे की मै कितना अधन्य हूं। में इन कुमारों की तरह संयम नही ले सकता। भोग वैभव को छोड़कर त्याग मार्ग अपना नही सकता।
ऐसे में वहाँ नेमप्रभुका पदार्पण हुआ।
उनके दर्शन वन्दन के पश्चात प्रभुने कृष्ण से उनकी शंका का समाधान किया।
कृष्ण, आप वासुदेव हो। पूर्व भव में किये संयम, धर्म व तप के फल स्वरूप तुमने निदान किया लौकिक सुख का। इस लिए तुम्हारे अंतराय कर्म का उदय होने से तुम संयम ग्रहण नही कर सकते।
तब कृष्ण ने पूछा - की अहो भगवन, स्वर्ग की अल्कापुरीके समान 9 योजन चौड़ी 12 योजन लंबी इस द्वारिका का अंत कैसे होगा .? मेरी मृत्यु कैसे हॉगी ?
तब प्रभुने कहा
सुरा, अग्नि व द्वेपायन ऋषि के निमित्त से द्वारिका नगरी का विनाश होगा। व उस आग से बचे हुए तुम, जंगल में जराकुमार के हाथों मारे जाओगे। यहां से काल कर आप तीसरी नरक में उत्पन्न होंगे।
अपना भविष्य जानकर दुखी कृष्ण को प्रभु बतला रहे है। है कृष्ण, आप शोक न करे। किये कर्मो का भुगतान सब को करना है। आप नरक से आकर यागली चौबीसी के अमम नाम से बारहवें तीर्थंकर बनोगे।
यह सब जानकर कृष्ण वासुदेव ने द्वारिका को विनाश से बचाने के प्रयत्न शुरू किये।
नगर में सुरा यानी मदिरा पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया।
धर्म के प्रभाव को समझकर अविरत तोर पर पूरे नगर में आयंबिल शुरू करवाये।
और कृष्ण ने पूरे नगर में सभी को संयम ग्रहण करने की प्रेरणा दी।
जिन किसी को संयम लेने में परिवार का पालन अंतराय रूप था , उनकी जिम्मेदारी राज्य की हॉगी यह भी घोषणा करवाई।
इस घोषणा के बाद द्वारिका के कई नागरिकों, सन्नारियों , राजकुमार,राजकुमारियों ने संयम ग्रहण किया।
नेमप्रभु की देशना सुनकर विरक्त बनी हुई कृष्ण वासुदेव की 8 पटरानियां भी इस घोषणा से खुश हुई। उन्होंने आज्ञा लेकर प्रभुके पास संयम ग्रहण किया। उनके नाम
पद्मावतीजी, गौरी, गांधारी, लक्ष्मणा, सुसीमा, जांबवंतीजी, रुक्मिणी थे।
इसी कड़ी में कृष्ण वासुदेव की पुत्रवधू ( शांबकुमार की पत्नियां ) मूल श्री व मुलदत्ता ने भी संयम ग्रहण किया।
सभी ने 20 वर्ष तक संयम का उत्कृष्ट पालन कर आयु का अंत देख एक माह की संलेखना सहित सिद्ध, बुद्ध मुक्त हुई।
धन्य इन त्याग वीरो को
बड़ी साधुवंदना - 63
श्रेणिक नी राणी ,काली आदिक दस जाण ।
दस पुत्र वियोगे सांभली वीर नी वाण।74।
चंदनबाला पे संयम, लइ हुई जाण।
तप करी झोंसी पहोंची छे निर्वाण।75।
नंदादीक तेरह ,श्रेणिक नृप नी नार ।
सघली चंदनबाला, पे लीधो संजम भार।76।
एक मास संथारे, पहोंची मुक्ति मझार ।
ए नेवु जणा नो अंतगड मां अधिकार।77।
धन्य धन्य जिनशासन,
यह बहुत बड़ा कथानक है इसे संक्षिप्त कर रहा हूं। उसमे रस खंडन या कोई विगत रह जाती हो तो क्षमा याचना।
नेमप्रभु के शासन में कृष्ण की प्रभुभक्ति अजोड़ थी, उन्होंने कई जीवो को धर्माराधना में , संयम ग्रहण कर स्वकल्याण के लिए प्रेरित किया । ठीक वैसे ही वीर प्रभु के शासन में श्रेणिक राजा की धर्म दलाली भी उत्कृष्ट मानी जाती है।
प्रभु वीर विचरण करते हुए एकबार राजगृही नगरी के गुणशील नामक उद्यान में पधारे। प्रजा तथा राजपरिवार के सदस्य दर्शन, वन्दन व देशना श्रवण हेतु आये। श्रेणिक की नन्दा आदि 13 रानियां भी इस समाचार को पाकर हर्षित हुई। वे भी प्रभुके दर्शन के लिए आई। देशना सुनकर वैराग्यवासित हुई। राजमहल आकर उन्होंने श्रेणिक से संयम ग्रहण की आज्ञा मांगी।
श्रेणिक ने तो सभी के लिए संयम मार्ग खोल रखा था। जिन्हें भी संयम ग्रहण करना हो , वे खुशी से करें। कृष्ण की तरह ही संयम ग्रहण करने वाले के पीछे उनकी संसारिक जिम्मेदारियां राज्य उठाएगा यह घोषणा भी करवाई हुई थी।
श्रेणिक राजा ने खुशी खुशी सभी रानियों को आज्ञा दी।
तेरहो रानियों ने संयम ग्रहण किया। 20 वर्षो तक उत्कृष्ट संयम का पालन किया। ग्यारह अंगों का अभ्यास किया। और सिद्ध बुद्ध मुक्त हुई।
उन 13 के नाम
नन्दा, नन्दवती, नन्दोत्तरा, नंद श्रेणिका, मरुता, सुमरुता, महामरुता, मरूदेवा, भद्रा, सुभद्रा, सुजाता, सुमनातिका, भूतदत्ता ।
राजगृही में राज परिवार का माहौल बिगड़ गया था । राज्य की लालसा का निमित्त बना, और
श्रेणिक के पूर्वभव के वैरी कोणिक ने इस भव के पिता को कैद में डाल दिया था। वहां श्रेणिक ने अपने प्राण त्याग दिए। उसके बाद कि कथा आगे
कोणिक ने नइ राजधानी बनाई - चंपा नगरी।
कोणिक अब विशाल मगध देश का स्वामी था। अब श्रेणिक के पुत्र व कोणिक के भाइ हल विहल के पास देव प्रदत्त दिव्य हार व सेंचानक हाथी बटवारे में आये थे। पर कोणिक पत्नी को वह दोनो भी चाहिए थे। स्त्री हठ के आगे आज तक किसी नही चली।
आगे की कथा......
बड़ी साधुवंदना - 64
श्रेणिक नी राणी ,काली आदिक दस जाण ।
दस पुत्र वियोगे सांभली वीर नी वाण।74।
चंदनबाला पे संयम, लइ हुई जाण।
तप करी झोंसी पहोंची छे निर्वाण।75।
नंदादीक तेरह ,श्रेणिक नृप नी नार ।
सघली चंदनबाला, पे लीधो संजम भार।76।
एक मास संथारे, पहोंची मुक्ति मझार ।
ए नेवु जणा नो अंतगड मां अधिकार।77।
कल के कथानक से आगे ....
रानी की जिद पर कोणिक ने हल विहल से हार व हाथी की मांग की। हल विहल कोणिक की हार हाथी की मांग को अस्वीकार कर अपने नाना चेटक के यहां चले गए। कोणिक नही माना।
आखिर मात्र एक हार हाथी के लिए कोणिक - चेटक के बीच महाभयंकर युद्ध हुए। रथ मूसल व शिला कंटक संग्राम। इस युद्ध की भयानकता अत्यधिक थी। लाखो सैनिकों ने प्राण गंवाए। शब्दो मे इन महा नरसंहारक युद्धों का वर्णन करना संभव नही। इन युद्धों में मात्र नरसंहार ही नही हुआ, मृत्यु के समय आर्त- रौद्र ध्यान के कारण कई हजारों जीव नरक व तिर्यंच गति में उत्पन्न हुए। कितनी करुणता। एक मात्र स्त्री हठ 😢
उस भीषण युद्ध के समय वीर प्रभु कोणिक की नई बसाई नगरी चंपा में बिराजित थे। कोणिक व उसके साथी 10 महाबली भाई भी युद्ध मे उसके साथ गये हुए थे।
उन 10 योद्धाओ की 10 माता वीर प्रभुके दर्शन के लिए गई।
उन्होंने प्रभु के दर्शन वन्दन , देशना श्रवण पश्चात पूछा - हम युद्ध मे गये अपने पुत्रों को वापिस देख पायेंगे या नही। तब प्रभुने इनकार किया। दसो रानीया समझ गई कि अब वे जीवित लौटकर नही आयेंगे। प्रभुकी देशना सुनकर वे वैरागी तो बन ही चुके थे। निमित्त भी मिल गया। उन्होंने भी संयम स्वीकार किया। और
सिर्फ संयम ग्रहण कर के ही नही रहे। ग्यारह अंगों का अभ्यास किया। एकबार गुरुणी चंदनबाला जी की आज्ञा लेकर उत्कृष्ट तप की आराधना प्रारंभ की। इन्होंने जो विविध तप किये आज भी वे कठिन तप व तपस्वी को धन्य माने जाते है।
तप पूर्ण होने के बाद भी विविध धर्म तप आराधना करने लगी। फिर जब तप से देह अत्यंत कृश हो गया। हड्डियों से भी कड़कड़ आवाज आने लगी। तब अंत समय जानकर इन्होंने अंतिम संलेखना अनशन ग्रहण कर निर्वाण प्राप्त किया। और सिद्ध बुद्ध मुक्त बनी।
उन वीर माताओके नाम - उनके तप का नाम - उनकी संयम पर्याय इस प्रकार है।
काली रानी - रत्नावली तप - 8 वर्ष
सुकाली रानी - कनकावली - 9 वर्ष,
महाकाली रानी - लघु सिंह निष्क्रीडित तप - 10 वर्ष,
कृष्णा देवी - महा सिंह निष्क्रीडित तप - 11 वर्ष,
सुकृष्णा रानी - सप्तसप्तमिका से दशदशमिका तप - 12 वर्ष,
महा कृष्णा रानी - लघुसर्वतो भद्र - 13 वर्ष,
वीर कृष्णा रानी - महा सर्वतोभद्र - 14,
राम कृष्णा रानी - भद्रोत्तर प्रतिमा - 15 वर्ष,
पितृसेन कृष्णा रानी - मुक्तावली तप - 16 वर्ष,
महासेन कृष्णा - आयंबिल वर्धमान तप - 17 वर्ष।
बड़ी साधुवंदना - 65
श्रेणिक ना बेटा, जाली आदिक तेवीस ।
वीर पे व्रत लइ ने , पाल्यो विश्वावीस ।78।
तप कठिन करीने, पूरी मन जगीश ।
देवलोके पहोच्या, मोक्ष जाशे तजी रिश ।79।
पिछली कुछ पोस्ट में हमने आठवें अं yuग श्री अंतगड जी सूत्र में वर्णित कुछ दृष्टांत देखे। साधुवन्दना में अब आगे के कथानक नोंवे अंग अनुत्तरो ववाईय सूत्र से लिये गये है।
यानी जैसे अंतगड जी सूत्र में वर्णित 90 आत्माएं मोक्ष में पधारे वैसे ही इस आगममे वर्णित सभी आत्माएं काल कर देवलोक में श्रेष्ठ , सभी देवलोक से ऊपर स्थित, ऐसे 5 अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुए।और शीघ्र ही मोक्ष में पधारेंगे।
यह 5 विमान में सिर्फ सम्यग्दृष्टि देव ही होते है। सभी एक समान देव। लंबे समय तक निर्बाध सुख भोगना और कुछ भव में ही मोक्ष जाना। यही उनकी नियति बन जाती है। और इन 5 मे भी सर्वार्थसिद्ध विमान के देव तो अब एक ही मनुष्य के भव कर के सिद्ध हो जाएंगे।
राजगृही नगरी के श्रेणिक राजा की रानी धारिणी के पुत्र थे जाली कुमार । अत्यंत तेजस्वी राजकुमार। अत्यंत वैभव में पले बढ़े, युवान होने पर 8- 8 सुंदर कन्याओं के साथ विवाह हुआ। राजमहल में संसार के उत्तम सुख को भोग रहे थे।
एकबार वीर प्रभुका राजगृही में पदार्पण हुआ। भव्य जीवो की एक खासियत होती है , प्रभु की एक देशना ही उनके हृदय को स्पर्श कर जाती है और स्वकल्याण के लिए उद्यत बन जाते है। जाली कुमार ने भी एक देशना सुनकर संयमग्रहण को उत्सुक बने। माता पिता से आज्ञा प्राप्त करना आसान नही था। पर दृढ़ धर्मी और गाढ़ वैराग्य पानी की तरह अपना राह बना ही लेता है। मातापिता को मनाकर संयम ग्रहण किया। मुनि बन कर उत्कृष्ट आराधना करने लगे। 11 अंगों का अभ्यास कर, तप आदि के साथ विचरने लगे। 16 वर्ष तक उत्कृष्ट संयम का पालन किया। आयुष्य के अंतिम समय संलेखना ग्रहण कर विजय नाम के अनुत्तर विमानमें उत्पन्न हुए। वँहा उनकी स्थिति 32 सागरोपम थी।
जालिकुमार जैसे ही श्रेणिक- धारिणी के अन्य 20 पुत्र, श्रेणिक व नन्दा रानी के पुत्र अभयकुमार, श्रेणिक व चेलना रानी के पुत्र विहास (हल्ल ) - विहल , भी प्रभु की देशना सुनकर प्रवजीत हुए। यो श्रेणीक राजा के कुल 23 पुत्र उत्कृष्ट आराधना करते हुए अंत मे अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हुए।
इनकी संयम पर्याय आदि में थोड़ी भिन्नता है। पर अंत मे सभी 23 कुमार अलग अलग 5 विमानों में उत्पन्न हुए। अगले भव में मोक्ष चले जायेंगे।
इन 23 के नाम
जाली, मयाली, उवयाली, पुरुषसेन, वारीसेन, दीर्घ दन्त, लष्टदन्त, विहल, वेहास, अभय, दीर्घसेन, महासेन, लष्टदन्त, गूढ़ दन्त, शुद्ध दन्त, हल, द्रुम, द्रुमसेन, महाद्रुम सेन, सिंह, सिंहसेन, महासिंह सेन, पुण्य सेन ।
इन वैभवी राजकुमारो के कथानक से, इनकी त्याग, संयम दृढ़ता से हमारे जीवन मे भी जिनधर्म की श्रद्धा दृढ़ बने यही मंगल प्रार्थना।
बड़ी साधुवंदना - 66
सम्राट श्रेणिक
पिछली गाथाओं में हमने श्रेणिकजी की रानी व उनके पुत्रो के कथानक देखे। इन सब मे एक मुख्य कथानक रह जाता है तो आज बिना गाथा के ही आज जिनशासन के महान राजा श्रेणिक की विशाल कथा को अति संक्षिप्त में देखते है।
राजा प्रसेनजित के 100 उपरांत पुत्रो में श्रेणिक सबसे ज्यादा बहादुर व बुद्धिमान था। राजा ने अपनी राजगद्दी किसे सौंपनी यह नक्क़ी करने के लिए गुप्त रूप से सभी पुत्रो की कई परीक्षाएं ली। जिसमे श्रेणिक का प्रदर्शन शानदार रहा। उन्होंने श्रेणिक को राजा बनाने का तय कर लिया। परन्तु श्रेणिक अभी 14 वर्ष के थे। और राजपरिवार में सत्ता के लिए चलते षड्यंत्रों में श्रेणिक को नुकसान न हो इस लिए उसे राज्य से निष्कासित करने का नाटक किया।
घूमते घूमते श्रेणिक राज्य से बाहर एक वेणातट नगर में आया , वहां के सेठ सुभद्र के यहां गुप्त रूप से काम करने लगा। समय बीतता गया। सुभद्र सेठ ने उसका चारित्र, उसकी पुण्याई , उसका राजसी व्यक्तित्त्व देखकर उसके किसी खानदानी व्यक्ति होने का विश्वास कर अपनी पुत्री नंदा के साथ श्रेणिक का विवाह किया। नंदा गर्भवती थी तभी राजगृही से प्रसेनजित की बीमारी व उसे शीघ्र राजगृही पहुंचने का आदेश आ गया। श्रेणिक नन्दा रानी को बिना कुछ बताये राजगृही आये। नन्दा ने फिर अभयकुमार को जन्म दिया। जो अत्यंत बुद्धिमान था। उसी के प्रयत्नों से श्रेणिक व नन्दा का पुनः मिलन हुआ। अभयकुमार श्रेणिक के दरबार मे सबसे ऊपर 500 मंत्रियों का मुखिया बना। श्रेणिक को राजकार्य के उपरांत धर्मकार्यो में भी अभयकुमार प्रेरणा देते रहे।
श्रेणिक ने राजा बनने के बाद कई विवाह किया। जिसमें नंदा उपरांत मुख्य चेलना, धारिणी, दुर्गंधा आदि थी ।
उधर वैशाली नगरी के चेटक राजा की अंतिम पुत्री चेलना का विवाह भी अजीब संयोगों में हुआ।
हुआ यों कि चेटकराजा जिनका उपनाम चेड़ा राजा भी था उनकी छट्ठी पुत्री सुज्येष्ठा जी का अपहरण करने गए श्रेणिक राजा ने सुज्येष्ठा की छोटी बहन चेलना को रानी बना कर ले आये।
श्रेणिक राजा अन्य धर्मी थे । जैन धर्म की समझ उन्हें अनाथी मुनि से मिली। उन्हें धर्म की सही समझ देने का, उन्हें दृढ़ जिनधर्मानुरागी बनाने का श्रेय वीर प्रभुके बाद चेलना रानी को जाता है। फिर तो इस हद तक श्रेणिक जिनधर्म में अनुरक्त हुए कि उन्होंने अपने राज्य में यह घोषणा करवा दी थी कि जो भी मनुष्य संयम ग्रहण करना चाहे तो कर सकता है। उनकी सभी सांसारिक जिम्मेदारियों का वहन राज्य करेगा। पूर्वभव में बांधे कर्मो की अंतराय से वह एक व्रत भी धारण नही कर पाये उसका उन्हें बेहद अफसोस था। उन्होंने प्रयास भी किया कि एक नवकारसी करे, एक सामायिक का पुण्य प्राप्त करे पर, यह शक्य नही बना। परन्तु उन्होंने उत्कृष्ट धर्म दलाली की। धर्मदलाली के प्रभाव से उन्होंने तीर्थंकर नाम कर्म का बन्ध किया। भरत क्षेत्र में ही आगामी चौबीसी में वे प्रथम तीर्थंकर पद्मनाभस्वामी बनेंगे।
पूर्वभव का वैरी कोणिक पुत्र बना। चेलना को कोणिक गर्भ में आते ही समझ आ गया था कि गर्भस्थ जीव पिता का वैरी बनेगा। उसने पुत्र का त्याग कर दिया था। परंतु करुणावान श्रेणिक उसे वापिस ले आया। और प्यार से उसका पालन किया। पर कोणिक युवान होते ही पूर्व द्वेष के चलते उसने श्रेणिक को कैद में डाला।
पूर्वका द्वेष इतना ज्यादा था कि कुछ ग्रन्थ अनुसार कोणिक रोज श्रेणिक को 100 चाबुक मारता था। कैद में भूखे प्यासे रखता था। एक दिन वह वैर का अंत आनेवाला था। निमित्त में चेलना बनी। उसने कोणिक को समझाया। कोणिक तलवार लेकर श्रेणिक की बेड़ियां काटने कारागार पहुंचा। तब श्रेणिक को लगा यह मुझे मारने आ रहा है। पुत्र को पितृहत्या के दोष से बचाने उसने तुरन्त विषपान कर प्राण त्याग दिए। और काल कर प्रथम नरक में 84000 वर्ष की स्थिति वाला नारकी बने। कोणिक ने बाद में बहुत पश्चाताप किया।
श्रेणिक के जीवन मे अत्यंत चढ़ाव उतार आये।उनकी जीवनगाथा का प्रचुर वर्णन मिलता है। पर एक वाक्य में कहे तो श्रेणिक जिनशासन का एक परम प्रतापी सम्राट रहा। जिसने जिनशासन को अमूल्य योगदान दिया व उसके समय मे जैन धर्म ने बहुत ऊंचाई को छू लिया था।
बड़ी साधुवंदना - 67
काकन्दी नो धन्नो, तजी बत्तीसों नार ।
महावीर समीपे, लीधो संयम भार ।80।
करी छट्ठ छट्ठ पारणा, आयंबिल उज्झित आहार।
श्री वीर वखाण्यो, धन धन्नो अणगार ।81।
एक मास संथारे , सर्वार्थ सिद्धि पहुंत।
महाविदेह क्षेत्र मां करशे, भव नो अंत ।82
धन्ना नी रीते , हुआ नव्वे सन्त।
श्री अनुत्तरो ववाई मां, भाखी गया भगवंत। 83।
काकन्दी नगरी में भद्रा नामक एक अत्यंत वैभवी सार्थवाही थी। उनके पुत्र का नाम धन्यकुमार था। उच्च गुणो से युक्त धन्यकुमार का विवाह 32 श्रेष्ठी कन्याओं के साथ हुआ था।
माता गृह व व्यापार में दक्ष थी। कुमार अत्यंत सुखमय अवस्था मे अपना भोगयुक्त जीवन जी रहे थे। तब वंहा वीर प्रभुका पदार्पण हुआ।
वीर प्रभुकी देशना सुनकर धन्यकुमार को वैराग्य उत्पन्न हुआ। अपने मनुष्यभव को सार्थक बनाने हेतु संयम ग्रहण को उत्सुक हुए।
घर आकर माता से आज्ञा मांगी। इकलौते पुत्र को सरलता से आज्ञा कहां मिल जाती। बहुत संवाद हुआ। माता ने कई प्रलोभन दिए, कई विलाप, कई युक्तियों का प्रयोग किया। परन्तु भव्यात्मा धन्यकुमार दृढ़ बन चुके थे। आख़िर माता को सहमत होना पड़ा।
भद्रामाता राजा जितशत्रुजी के पास दीक्षा महोत्सव के लिए छत्र चामर आदि लेने गए। इतने वैभव को छोड़कर संयम ग्रहण? राजा जितशत्रुजी भी यह सुनकर प्रभावी हुए। उन्होंने स्वयं दीक्षा महोत्सव किया।
इस तरह धन्यकुमार धन्ना अणगार बने।
दीक्षा के दिन ही भगवान की आज्ञा लेकर आजीवन छट्ठ के पारणे छट्ठ करने का अभिग्रह लिया।
अहो, उत्कृष्ट तप, अहो रसनेन्द्रिय पर उत्कृष्ट विजय। पारणे में भी आयंबिल करना, व आयंबिल में भी उज्झित आहार ही वापरने का निर्णय लिया। उज्झित आहार मतलब जो आहार फेकने योग्य हो, जिसे याचक भी ग्रहण करने से मना कर दे ऐसे आहार । मात्र देह का निर्वाह हो।
इनकी इस अनासक्ति, इस उग्र तप को आज भी अनुमोदा व सराहा जाता है।
स्वयं वीर प्रभुने श्रेणिक के एक प्रश्न के उत्तर में 14,000 सन्तो में धन्ना मुनि के तप , संयम की प्रसंशा की ।
ऐसे त्यागवीरो से ही जिनशासन देदीप्यमान है।
इस तरह उत्कृष्ट संयम आराधना करते हुए देह को क्षीण बनाकर एक माह की अंतिम आराधना संलेखना कर विपुलगिरी से कालधर्म को प्राप्त हुए। व सर्वार्थसिद्ध विमानमें 33 सागरोपम स्थिति (आयुष्य) वाले देव बने।
इन्ही मुनि की तरह विभिन्न नगरों के अन्य 9 आत्माओं ने भी उत्कृष्ट संयम पालन कर अंत मे संलेखना सह मृत्यु से सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुए।
उनके नाम
सुनक्षत्रजी, ऋषिदास, पेल्लक, रामपुत्र, चन्द्रिक, पुष्टिमात्रिक , पेढल पुत्र, पोट्टील, विहल्ल ।
इन सभी की गाथा हमारे जीवन में भी सत्पुरुषार्थ की प्रेरणा बने यही मंगलकामना।
बड़ी साधुवंदना - 68
सुबाहु प्रमुख ,तजी पांच पांच सौ नार ।
पछी वीर पे लीधा, पंच महाव्रत सार। 84।
चारित्र लेइने , पाल्यो निरतिचार ।
देवलोके पहोंच्या , सुख विपाके अधिकार। 85।
प्रभु वीर की अंतिम वाणी उत्तराध्ययन व विपाक सूत्र।
समस्त संसारी जीव कर्मो के विपाक से ही प्रवाहित होते है। शुभकर्मों से जीव सुखमय सांसारिक अवस्था प्राप्त करता है तो अशुभ पाप कर्मों से महान दुख मय अवस्थाओं को प्राप्त करता है।
इन सुख व दुख के विपाक को अच्छे से समझाता हुआ आगम है विपाक। उसके दो मुख्य विभाग सुख विपाक व दुख विपाक।
प्रस्तुत गाथा सुखविपाक सूत्र से ली गई है। जिसमे सुपात्रदान का अत्यंत महत्त्व बतलाया गया है। भाव सहित साधुजीको, व्रतधारी को उनकी साधना में सहायभूत बनते हुए उच्च भाव से आहार औषध आदि का दान देना आदि उच्च पुण्य बन्ध का कारण बनता है।
सुबाहुकुमार आदि 10 श्रेष्ठ आत्माओंने पूर्व भव में अत्यंत शुभ भाव पूर्वक साधु महात्माओको सुपात्र दान दिया। फल स्वरूप इस भव में राजा के यहां अत्यंत वैभव युक्त, अत्यंत सुखमय जीवन को प्राप्त किया। सभी का विवाह 500 राजकन्याओं के साथ हुआ। अत्यंत वैभव, सुखमय जीवन जी रहे इन सभी राजकुमारो को वीर प्रभु के दर्शन हुए। उनसे पहले श्रावक व्रत लिए। कालांतर में संयम ग्रहण किया। ग्यारह अंगों के अभ्यास के साथ ही उत्कृष्ट संयम पालन कर संलेखना की। इनमें से 1, 2 , 3 व दसवें मुनि मृत्यु प्राप्त कर देवलोक पहुंचे। अन्य 6 मोक्ष को प्राप्त किया।
इन दस का नाम - नगर - माता पिता -
1 - सुबाहु - हस्तिशीर्ष नगर - अदिन शत्रु व धारिणी
2 - भद्र नंदी - रुषभपुर - धनावह राजा - सरस्वतीजी
3 - सुजात कुमार - वीरपुर - वीरकृष्ण राजा - श्रीमती रानी
4 - सुवासव कुमार - विजयपुर - वासवदत्त राजा - श्रीकृष्णा रानी
5 -जिनदास - सौगंधिका - अप्रतिहत राजा - सुकृष्णा रानी
6 - धनपति कुमार -कनकपुर - प्रियचंद्र - सुभद्रा रानी
7 - महाबल कुमार - महापुर - बलराजा - सुभद्रा रानी
8 - भद्र नंदी -सुघोष - अर्जुन राजा- तत्त्व वती रानी
9 -महाचंद्र कुमार -चंपा नगरी - दत्त राजा - रक्तवती रानी
10 - वरदत्त कुमार -साकेत - मित्र नंदी - श्रीकांता रानी
इन जीवों का वर्णन सुन हम भी पुण्य- पाप का महत्त्व समझे यही मंगलकामना।
बड़ी साधुवंदना - 69
श्रेणिक ना पोता, पउमादिक हुआ दस।
वीर पे व्रत लइने , काढयो देह नो कस ।86।
संयम आराधी, देवलोक मां जइ वस।
महाविदेह क्षेत्र माँ, मोक्ष जासे लेइ जस। 87।
बलभद्र ना नन्दन , निषधादिक हुआ बार।
तजी पचास पचास अंतेउरी, त्याग दियो संसार।88।
सहु नेमी समीपे , चार महाव्रत लीध।
सर्वार्थसिद्ध पहोंच्या , होसे विदेहे सिद्ध । 89।
निरयावलिका सूत्र से लीये हुये कथानकों की ऊपर की 2 गाथाएं।
श्रेणिक राजा के पुत्र तथा रानियों के नाम। कुल 36 पुत्र तथा 26 रानियों के नाम का वर्णन देखने मे आता है। यहां मत मतांतर संभव है।
पिछली गाथाओ में हमने श्रेणिक के पुत्रो में हमने 23 के नाम देखे , आज अन्य 10 के नाम चित्र में दिए है, जो युद्ध मे मारे गये व जिनकी रानियों तथा जिनके पुत्रो ने दीक्षा ली ।
नन्दीसेन व मेघकुमार ने भी दीक्षा ली। कोणिक तिमिस्त्रा गुफा के पास मारा गया।
रानियों के नाम मे 23 ने दीक्षा ली उसका वर्णन आ गया। उपरांत धारिणी जी चेलनाजी, दुर्गंधा जी आदि के नाम मुझे पढ़ने मिले। दुर्गंधा जी के संयम ग्रहण का भी एक ग्रन्थ में पढ़ा।
। उसी श्रृंखला में अब आगे - श्रेणिक राजा की काली आदि 10 रानियों ने जिन 10 पुत्रो के मृत्यु की आगाही सुनकर संयम ग्रहण किया, उन्हीं 10 पुत्र काल कुमार आदि के दस पुत्रो यानि श्रेणिक के दस पोतो ने भी वीर प्रभु से देशना सुनकर वैराग्य प्राप्त किया। दसों ने वीर प्रभु से संयम ग्रहण कर उत्कृष्ट धर्माराधना करने लगे। ग्यारह अंग का अभ्यास किया। व 2 से लगाकर 5 वर्ष तक का संयम पालकर अंतिम समय जानकर विपुलगिरी पर्वत पर संलेखना ग्रहण की। एक मास के संथारे की अवधि बाद काल कर देवलोक में उत्पन्न हुये । आगामी भव महाविदेह में कर सिद्ध बुद्ध मुक्त बनेंगे।
सभी कुमारों के नाम, मातापिता के नाम आदि वर्णन अलग से चित्र में सरलता से दिया है।
कुल श्रेणिक के परिवार में कुल दीक्षाये 69 देखने मे आई । यह अंक भिन्न हो सकता है। तत्त्व केवली गम्यं ।
(25 पुत्र, 24 रानियां, 10 पौत्र )
गाथा 88 , 89
बलभद्र जी के पुत्र
आगे की 2 गाथाओ में बलभद्र के निषध आदि बारह राजकुमारो का वर्णन किया गया है। यह विस्तृत वर्णन वन्हिदशा आगममे मिलता है।
ये बारहों बलभद्र जी तथा रेवती रानी के पुत्र थे।अत्यंत सुख भोग वैभव में ये सभी पले बढ़े, युवान हुए । पुरुषोचित कला में प्रवीण हुए। सभी का 50 - 50 राजकन्या के साथ विवाह हुआ। नेम प्रभु जब द्वारिका नजदीक नन्दनवन में पधारे तब इन सभी ने उनकी देशना से धर्मानुरागी बन श्रावक व्रत अंगीकार किए। कई वर्षों तक श्रावकोचित आराधना करते हुए एक बार पौषध में चिंतन करने लगे।
अहो, धन्य वे सभी मुनि , जिन्होंने संयम ग्रहण कर मनुष्यभव को सार्थक कर लिया।अब मुझे भी देह में जब तक जोर है तब तक उत्कृष्ट आराधना कर लेना चाहिए। यह सोचकर संसार के सारे सुख वैभव , पचासों पत्नियां आदि त्याग कर, इन्होंने नेम प्रभु के पास चार महाव्रत रूप संयम ग्रहण किया।
चार महाव्रत ?
हमारे 24 तीर्थंकरों के शासन में, आचार की आवश्यकता आदि में कुछ सूक्ष्म फर्क होता था।
ऋषभदेव प्रभु तथा वीर प्रभु के शासन के सन्तो को, उस समय मनुष्यो की प्रकुति अनुरूप पांच महाव्रत होते थे। परंतु मध्य के 22 तीर्थंकर के सन्तो के लिए चतुर्याम धर्म यानी चार महाव्रत होते थे।
9 वर्ष तक उत्कृष्ट संयम का आराधन किया। अंत मे 20 दिनों का संलेखना संथारे के साथ काल कर सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुए।
आगे महाविदेह में जन्म लेकर उत्कृष्ट आराधना कर मोक्ष जाएंगे।
बलभद्र जी के 12 पुत्रो के नाम इस प्रकार है।
निषध, मातली, वह, वेह, पगया, युक्ति, दसरथ, दृढ़रथ,
महाधन्वा, सप्त धन्वा, दस धन्वा, शत धन्वा।
बड़ी साधुवंदना - 70
धन्ना ने शालीभद्र , मुनीश्वरो नी जोड़।
नारी ना बंधन, तत्क्षण नाख़्या तोड़।90।
घर कुटुंब कबीलों, धन कंचन नी क्रोड़।
मास मास खमण तप, टालशे भव नी खोड़। 91।
जिनशासन के दो अदभुत विरले सितारों की गाथा। जिन्हें सुनकर बस त्याग की पराकाष्ठा की अनुभूति होती है। साला और बहनोई की कथा।शालीभद्र जी - धन्ना जी
राजगृही नगरी में श्रेणिक राजा का राज्य। धनाढ्य सेठ गोभद्र व माता भद्रा के सुकोमल राजकुमार जैसे पुत्र । पुत्र जन्म के बाद गोभद्र सेठ का देवलोक हुआ। सेठ का व्यापार बहुत विस्तीर्ण था। बहुत सा धन खजानों में भरा हुआ था। अब सभी वहीवटी कार्य माता भद्रा संभाल रही थी। वे भी दक्ष थे। राज संबंधित कार्य में भी भद्रा माता प्रवीण थे। राज के लिए उनकी राष्ट्र भक्ति भी बेजोड़ थी।
कहते है : - देव बनकर पुत्र प्रेम वश गोभद्र जी रोजाना धन की 99 पेटियां शालीभद्र के लिए भेजा करते थे। सोचो , कितना वैभव होगा।
सहज जिज्ञासा होती है कि शालीभद्र को इतनी रिद्धि कैसे मिली?
तो इसके लिए हम उसका पूर्वभव देखते है : -
राजगृही के पास एक छोटा गांव, वँहा धन्या नामकी एक ग्वालिन अपने छोटे से पुत्र संगम के साथ रहती थी। बहुत दरिद्र अवस्था मे ये दोनों जी रहे थे पर संस्कार धार्मिक थे।
एकबार पड़ोस के बच्चों को खीर खाते देख संगम ने माँ से खीर खाने की इच्छा व्यक्त की । घर मे खीर की सामग्री नही थी। धन्या व्यथित हुई। आसपास की महिलाओं ने खीर की सामग्री दी। धन्या ने खीर बनाई। संगम काफी उतावला हो रहा था खीर खाने को। खीर बनने के बाद धन्या ने उसे पात्र में डालकर दी और स्वयं पानी भरने चली गई। संगम खीर ठंडी होने की राह देख रहा था। इतने में वहां एक जैन मुनिराज पधारे। संगम को बहुत खुशी हुई। माँ के संस्कार थे। उसने साधुजी का स्वागत किया। अत्यंत अहोभाव से जिस खीर के लिए लालायित था वह पात्र की सारी खीर साधुजी के पात्रो में उंडेल दी। उस समय उसके भाव, सुपात्र दान के भाव इतने उच्च थे , शुभ नाम कर्म का बन्ध कर लिया। उसी शुभनाम कर्म की वजह से इस भव शालीभद्र की रिद्धि प्राप्त की।
पुत्र शालीभद्र ने अभी युवावस्था में कंदम रखा था। 32 सुंदर श्रेष्ठी कन्याओं के साथ विवाह हुआ था। माता के रहते *~अभी तक~* शालीभद्र अभी तक व्यवहारिक काम से अछूते ही रहे थे। यही नही , व्यवहार का सामान्य ज्ञान भी अभी उन्हें नही था। माता ने अत्यंत लाड़ में , वैभव में पाला था। घर में ही सारे सुख मुहैया करवाये गये थे ।अभी तक घर से बाहर निकलना तो दूर पर सात मंजिला महल के सातवें मंजिल से उन्हें ज्यादा नीचे आने तक का काम नही पड़ता था। बहुत सुकुमाल अवस्था मे शालीभद्र जी पल बढ़ रहे थे।
माता भद्रा की राज निष्ठा का एक दृष्टांत उल्लेखनीय है , जो शालीभद्र कि विरक्ति का निमित्त बना। यह हम आगे देखेंगे।
Fb ग्रुप जैनिज़्म
All india jain aagam group
सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रंथ से,
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें