ऋषभदेव के पूर्व भव
*) विद्याधर के स्वामी महाबलइसी जम्बूद्वीप में विदेहक्षेत्र के अंतर्गत ‘गंधिला’ नाम का देश है। अपने इस भरतक्षेत्र के सदृश वहाँ पर भी मध्य में विजयार्ध पर्वत है, जिसकी दक्षिण-उत्तर दोनों ही श्रेणियों में विद्याधर लोग निवास करते हैं। इस पर्वत की उत्तर श्रेणी में ‘अलका’ नाम की सुन्दर नगरी है। वहाँ पर ‘महाबल’ नाम के राजा धर्मनीतिपूर्वक प्रजा का पालन करते थे। उनके महामति, संभिन्नमति, शतमति और स्वयंबुद्ध ये चार मंत्री थे।
विद्याधरों के पास तीन प्रकार की विद्याएँ हुआ करती हैं-जातिविद्या, कुल विद्या और साधितविद्या। मातृपक्ष से प्राप्त विद्या जातिविद्या है। पितृपक्ष से प्राप्त विद्या कुलविद्या है एवं मंत्रादि से सिद्ध की हुई विद्या साधितविद्या है। इन विद्याओं के बल से वे अनेक प्रकार के रूप, महल, नगर, वस्तु आदि बना लेते हैं और भोगोपभोग सामग्री से अधिक सुखी रहते हैं। विद्या के बल से यत्र-तत्र मानुषोत्तर पर्वत तक विहार करते रहते हैं। मेरु आदि पर्वतों पर जाकर भक्ति, पूजा, वंदना करके महान् पुण्य बंध किया करते हैं।
किसी दिन राजा महाबल की जन्मगाँठ का उत्सव हो रहा था, विद्याधरों के राजा महाबल सिंहासन पर बैठे हुए थे। उस समय वे चारों तरफ में बैठे हुए मंत्री, सेनापति, पुरोहित, सेठ तथा विद्याधर आदि जनों से घिरे हुए, किसी को स्थान, मान, दान देकर, किसी के साथ हँसकर, किसी से संभाषण आदि कर सभी को संतुष्ट कर रहे थे। उस समय राजा को प्रसन्नचित्त देखकर स्वयंबुद्ध मंत्री ने कहा-हे राजन् ! जो आपको यह विद्याधरों की लक्ष्मी प्राप्त हुई है, उसे केवल पुण्य का ही फल समझिए। ऐसा कहते हुए मंत्री ने अहिंसामयी सच्चे धर्म का विस्तृत विवेचन किया।
यह सुनकर महामति नाम के मिथ्यादृष्टि मंत्री ने कहा कि हे राजन्! इस जगत् में आत्मा, धर्म और परलोक नाम की कोई चीज नहीं है। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चार भूतों के मिलने से ही चैतन्य की उत्पत्ति हो जाती है। जन्म लेने से पहले और मरने के पश्चात् आत्मा नाम की कोई चीज नहीं है इसलिए आत्मा की और परलोक की चिंता करना व्यर्थ है। जो लोग वर्तमान सुख को छोड़कर परलोकसंबंधी सुख चाहते हैं, वे दोनों लोकों के सुख से च्युत होकर व्यर्थ ही क्लेश उठाते हैं।
अनंतर संभिन्नमति मंत्री बोलने लगा कि हे राजन! यह सारा जगत् एक विज्ञान मात्र है क्योंकि यह क्षणभंगुर हैं। जो-जो क्षणभंगुर होते हैं वे सब ज्ञान के ही विकार हैं। ज्ञान से पृथक् चेतन-अचेतन आदि कोई भी पदार्थ नहीं है। यदि पदार्थों का अस्तित्व मानो तो वे नित्य होना चाहिए परन्तु संसार में कोई भी पदार्थ नित्य नहीं दिखते हैं, सब एक-एक क्षण में ही नष्ट हो जाते हैंं अतः परलोक में सुख प्राप्ति हेतु धर्मकार्य का अनुष्ठान करना बिल्कुल ही व्यर्थ है।
इसके बाद शतमति मंत्री अपनी प्रशंसा करता हुआ नैरात्म्यवाद को पुष्ट करने लगा। उसने कहा कि यह समस्त जगत् शून्यरूप है, इसमें नर, पशु, पक्षी, घट, पट आदि जो भी चेतन-अचेतन पदार्थ दिख रहे हैं वे सर्व मिथ्या हैं। भ्रांति से ही वैसा प्रतिभास होता है जैसे कि इंद्रजाल और स्वप्न में दिखने वाले पदार्थ मिथ्या ही हैं, भ्रांतिरूप ही हैं। आत्मा-परमात्मा तथा परलोक की कल्पना भी मिथ्या ही है अतः जो पुरुष परलोक के लिए तपश्चरण आदि अनुष्ठान करते हैं, वे यथार्थ ज्ञान से रहित हैं।
इन तीनों मंत्रियों के सिद्धान्तों को सुनकर स्वयंबुद्ध मंत्री ने अपने सम्यग्ज्ञान के बल से उनका बलपूर्वक खंडन करके स्याद्वाद सिद्धान्त को सत्य सिद्ध कर दिया तथा राजा महाबल के पूर्वजों का पुण्य चरित्र भी सुनाते हुए धर्म और धर्म के फल का महत्व बतलाया। इस प्रकार स्वयंबुद्ध मंत्री के उदार और गंभीर वचनों से समस्त सभा प्रसन्न हो गई।
किसी समय स्वयंबुद्ध मंत्री सुमेरु पर्वत की वंदना को गया था। वहाँ वंदना करते हुए सौमनसवन के पूर्व दिशा के चैत्यालय में बैठ गया। अकस्मात् ही पूर्व विदेह से युगमंधर भगवान् के समवसरणरूपी सरोवर के मुख्य हंसस्वरूप आकाश में चलने वाले आदित्यगति और अरिंजय नाम के दो मुनिराज वहाँ आ गये। बुद्धिमान् मंत्री ने उनकी पूजा-स्तुति आदि करके उपदेश श्रवण किया। अनंतर प्रश्न किया कि हे भगवन्! हमारा महाबल स्वामी भव्य है या अभव्य?
आदित्यगति मुनिराज ने कहा-हे मंत्रिन् ! तुम्हारा स्वामी भव्य ही है। वह इससे दशवें भव में भरत क्षेत्र का प्रथम ‘तीर्थंकर’ होगा। पश्चिम विदेह के गंधिला देश में सिंहपुर नगर है। वहाँ के राजा श्रीषेण के जयवर्मा और श्रीवर्मा नाम के दो पुत्र थे। उनमें से छोटा श्रीवर्मा माता-पिता और सभी को अतिशय प्रिय था, अतः राजा ने उसे ही राज्यभार सौंप दिया और बड़े पुत्र की उपेक्षा कर दी। इस घटना से जयवर्मा ने पूर्वकृत पापों की निंदा करते हुए विरक्त होकर
स्वयंप्रभ गुरु से जिन-दीक्षा ले ली। वह मुनि नव दीक्षित था। एक दिन आकाश मार्ग से जाते हुए महीधर विद्याधर का वैभव देखकर विद्याधर के भोगों का निदान कर लिया अर्थात् ‘ये विद्याधर के भोग मुझे अगले भव में प्राप्त हों’ ऐसा भाव कर लिया। उसी समय बामी से निकलकर एक भयंकर सर्प ने उसे डस लिया। वह मुनिराज मरकर के आपके राजा महाबल हुए हैं। पूर्व में भोगों की इच्छा से आज भी उसे भोगों में आसक्ति अधिक है किन्तु अभी आपके वचनों से वह शीघ्र ही विरक्त होगा। आज रात को उसने स्वप्न देखा है कि तीन मंत्रियों ने उसे जबरदस्ती कीचड़ में गिरा दिया और तुमने मंत्रियों की भत्र्सना करके राजा को सिंहासन पर बिठा कर अभिषेक किया है। अनंतर दूसरे स्वप्न में अग्नि की एक ज्वाला को क्षीण होते हुए देखा है। अभी वह तुम्हारी ही प्रतीक्षा में बैठा है, अतः तुम शीघ्र ही जाकर उसके पूछने के पहले ही स्वप्नों को फल सहित बतलाओ।
मंत्री स्वयंबुद्ध ने तत्क्षण ही जाकर राजा को बताया कि प्रथम स्वप्न का फल भविष्य में विभूतिसूचक है एवं द्वितीय स्वप्न का फल यह है कि आपकी आयु एक माह की शेष रह गई है। अब शीघ्र ही धर्म को धारण करो और बहुत कुछ विस्तृतरूप में धर्म का उपदेश दिया। राजा महाबल ने विरक्तचित्त होकर अपने पुत्र अतिबल को राज्य देकर घर के उद्यान के जिनमंदिर में आठ दिन तक आष्टाह्निक महायज्ञ पूजन किया। अनन्तर सिद्धवूâट चैत्यालय में जाकर गुरु की साक्षीपूर्वक जीवनपर्यन्त के लिए चतुराहार का त्याग करके विधिवत् सल्लेखना ग्रहण कर ली। मंत्री को सल्लेखना कराने में निर्यापकाचार्य बनाकर सन्मान किया। शरीर से निर्मम हो बाह्य-अभ्यन्तर परिग्रह का त्याग कर वह मुनि के सदृश प्रायोपगमन संन्यास में स्थिर हो गया। इस सन्यास में स्वकृत-परकृत उपकार की अपेक्षा नहीं रहती है। कठिन तपश्चर्या करते हुए महाबल विद्याधर ने शरीर को अतिशय क्षीण करके पंच परमेष्ठियों का स्मरण करते हुए अत्यन्त निर्मल परिणामों को प्राप्त हो गया। मांस, रक्त के सूख जाने पर महाबल शरीर को छोड़कर ऐशान स्वर्ग में श्रीप्रभ विमान में ‘ललितांग’ नामक उत्तम देव हो गया। इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से धर्म की सहायता करने वाले मंत्री ने अन्त तक अपने मंत्रीपने का कार्य किया।
वास्तव में हितैषी बन्धु, मंत्री, पत्नी, पुत्र, मित्र वे ही हैं जो मोक्षमार्ग में लगाते हैं किन्तु आजकल तो ये परिकर लोग धर्म से हटाकर विषयों में फसाने में ही सच्ची हितैषिता समझते हैं।
पूर्वकाल में भी ऐसे लोग थे जो कि धर्म से छुटाकर पाप मार्ग में या विषयों में लगाकर अपना प्रेम व्यक्त करते थे किन्तु ऐसे लोग कम थे और आज भी ऐसे लोग हैं जो अपने कुटुम्बियों को हितकर धर्म मार्ग में-त्याग मार्ग में लगाकर प्रसन्न होते हैं परन्तु ऐसे लोग विरले ही हैं।
(२) ललितांग देव
ललितांग देव अणिमा, महिमा आदि ऋद्धियों का धारक ऐशान स्वर्ग के दिव्य भोगों का अनुभव कर रहा था। उस देव के चार हजार देवियाँ थीं और चार महादेवियाँ थीं। महादेवियों के नाम क्रमशः स्वयंप्रभा, कनकप्रभा, कनकलता और विद्युल्लता थे। देवों की आयु सागर प्रमाण से रहती थी और देवियों की आयु पल्य के प्रमाण से रहती थी अतः उस देव की अनेकों देवियाँ अपनी-अपनी आयु पूर्ण कर चुकीं और उनके-उनके स्थान पर अन्य-अन्य देवियाँ आती गयीं। जब ललितांग देव की आयु कुछ पल्य प्रमाण ही शेष रही, तब स्वयंप्रभा नाम की अतिशय प्यारी महादेवी उत्पन्न हुई।
धातकीखण्ड द्वीप के विदेह क्षेत्र में पलाल पर्वत नाम के ग्राम में देविल नाम के पटेल की पत्नी सुमति के उदर से धनश्री नाम की कन्या हुई। किसी दिन उसने पाठ करते हुए एक समाधिगुप्त नाम के मुनिराज के समीप में एक मरे हुए कुत्ते का दुर्गंधित कलेवर डाल दिया। मुनिराज ने इस घटना से उसे सम्बोधित किया-पुत्री! तूने यह बहुत ही गलत कार्य किया है तुझे इस पाप के निमित्त से बहुत ही कटु फल भोगना पड़ेगा। सुनकर वह बालिका धनश्री घबरा गई एवं गुरु के चरणों में बार-बार नमस्कार कर क्षमायाचना करने लगी। उस क्षमायाचना से उसका पाप हल्का हो गया। अपनी आयु पूर्ण कर वह धातकीखण्ड द्वीप के पश्चिमविदेह में गंधिला देश के पाटली नामक ग्राम में नागदत्त वैश्य की पत्नी सुमति के गर्भ से कन्या हो कर जन्मी, उसका नाम निर्नामा रखा गया। एक दिन उसने अम्बरतिलक पर्वत पर विराजमान अवधिज्ञानी पिहितास्रव महामुनि के दर्शन किये। पुनः प्रश्न किया-भगवन् ! मैं किस कर्म के उदय से इस दरिद्र कुल में जन्मी हूँ ? महामुनि ने कहा-पुत्री! तूने पूर्वभव में एक महामुनि के निकट में मृतक कुत्ते को डालकर पाप संचित किया था, यद्यपि तूने मुनि के सम्बोधन से क्षमायाचना कर बहुत कुछ पाप घटा लिया था फिर भी जो शेष पाप बच गया था, उसी के निमित्त से तू मनुष्य योनि में आकर भी दरिद्रावस्था को प्राप्त है।
पुनः पुनः कन्या के द्वारा इस पापक्षय का उपाय पूछने पर गुरुदेव ने बताया कि-बालिके! तू जिनेन्द्रगुणसंपत्ति व्रत एवं श्रुतज्ञानव्रत विधिवत् कर, जिससे तेरे समस्त पापों का क्षय होगा।
इसकी विधि इस प्रकार है-तीर्थंकर प्रकृति बंध के लिए कारणभूत सोलहकारण भावनाओं के १६ व्रत, पाँच कल्याणक के ५, आठ प्रातिहार्य के ८, चौंतीस अतिशय के ३४, ऐसे ६३ व्रत करने होते हैं। यह व्रत जिनेन्द्रगुणसंपत्ति व्रत कहलाता है।
दूसरे श्रुतज्ञानव्रत में मतिज्ञान के २८, ग्यारह अंगों के ११, परिकर्म के २, सूत्र के ८८, अनुयोग का १, पूर्व के १४, चूलिका के ५, अवधिज्ञान के ६, मनःपर्ययज्ञान के २ और केवलज्ञान का १, ऐसे १५८ व्रत होते हैं।
इन व्रतों की उत्तम विधि तो उपवास की ही है। मध्यम या जघन्यरूप से अपनी शक्ति एवं गुरु आज्ञा के अनुसार भी आज व्रत किये जाते हैं। यही निर्नामा कन्या इन व्रतों के प्रभाव से ईशान स्वर्ग में ललितांग देव की स्वयंप्रभा नाम की देवी हुई।
वह देव स्वयंप्रभा देवी के साथ मेरु पर्वत, मानुषोत्तर पर्वत आदि पर सदैव क्रीड़ा किया करता था। किसी समय अकस्मात् ललितांग देव के गले की मंदार की माला मुरझा गई और भी अनेकों चिन्हों से देव ने अपनी आयु छह माह की अवशेष जान ली और शोक से पीड़ित हो गया। इस समाचार को जानकर सामानिक जाति के देवों ने आकर ललितांग देव को समझाना शुरू किया। उन्होंने कहा-हे देव! अधिक कहाँ तक कहा जावे, स्वर्ग से च्युत होने के सम्मुख देव को जो तीव्र दुःख होता है, वह नारकी को भी नहीं हो सकता। इस समय आप प्रत्यक्ष उस दुःख का अनुभव कर रहे हैं, किन्तु स्वर्ग से च्युत होना अनिवार्य है। इसलिए हे आर्य! ऐसे धर्म का अवलम्बन करो जो कि जन्म-मरण के चक्कर से छुटाने वाला है यह धर्म परम शरण है।
इस प्रकार देवों के सम्बोधन से ललितांग देव ने धैर्य को धारण कर धर्म में बुद्धि लगाई और पन्द्रह दिन तक समस्त लोक के जिनचैत्यालयों की पूजा की। अनन्तर अच्युत स्वर्ग की जिनप्रतिमाओं की पूजा करता हुआ आयु के अन्त में स्थिरचित्त होकर चैत्यवृक्ष के नीचे बैठ गया तथा वहीं निर्भय हो हाथ जोड़कर उच्च स्वर से नमस्कार मंत्र का उच्चारण करता हुआ अदृश्य हो गया अर्थात् मर गया।
उधर ईशान स्वर्ग में स्वयंप्रभा देवी ललितांग देव के वियोग में बहुत ही संताप को प्राप्त हुई। तब दृढ़धर्म देव ने उसका शोक दूर करके उसे धर्म में स्थिर
किया। उस समय वह स्वयंप्रभा छह महीने तक बराबर जिन पूजा करने में उद्यत रही। तदनन्तर सौमनस वन संबंधी पूर्व दिशा के जिनमंदिर में चैत्यवृक्ष के नीचे पंच परमेष्ठी का स्मरण करते हुए समाधिपूर्वक प्राण त्याग कर स्वर्ग से च्युत हुई। पूर्व विदेह के पुण्डरीकिणी नगर के राजा वङ्कादन्त की रानी लक्ष्मीमती से ‘श्रीमती’ नाम की कन्या हो गई। क्रमशः श्रीमती कन्या ने यौवन अवस्था को प्राप्त कर लिया।
(३) राजा वङ्काजंघ
इस जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह में पुष्कलावती देश है, उसमें उत्पलखेट नाम का नगर है। वहाँ के राजा वङ्काबाहु की रानी वसुंधरा ने शुभ दिन पुत्ररत्न को जन्म दिया, जिसका नाम ‘वङ्काजंघ’ रखा गया। वह वङ्काजंघ अपनी रूप संपत्ति से मानो ललितांग देव के रूप को भी हँस रहा था। एक दिन केवली भगवान् के पूजार्थ देवों के आगमन को देखकर श्रीमती को ललितांग देव का स्मरण हो गया। अनन्तर उसने एक चित्रपट पर ललितांग देव संबंधी घटनाएँ बनाकर अपनी धाय को दे दिया और वह पंडिता धाय महापूत जिनालय में जाकर वह चित्रपट लेकर बैठ गई। अनेकों राजकुमारों के अनंतर कदाचित् वह वङ्काजंघ राजकुमार वहाँ दर्शनार्थ आये और चित्रपट को देखते ही उन्हें जातिस्मरण हो गया। कुमार वङ्काजंघ ने भी अपना परिचय देकर और अपना चित्रपट देकर उस पंडिता को विदा कर दिया।
चक्रवर्ती वङ्कादंत की वसुंंधरा बहन थी और वङ्काबाहु बहनोई तथा वङ्काजंघ भानजा था। बड़े ही आदर से वङ्काजंघ के साथ श्रीमती का विवाह सम्पन्न हो गया।
चक्रवर्ती वङ्कादंत की वसुंंधरा बहन थी और वङ्काबाहु बहनोई तथा वङ्काजंघ भानजा था। बड़े ही आदर से वङ्काजंघ के साथ श्रीमती का विवाह सम्पन्न हो गया।
चक्रवर्ती की कन्या को ब्याह कर राजकुमार वङ्काजंघ दूसरे दिन सायंकाल में अनेक दीपकों का प्रकाश कर रानी श्रीमती के साथ महापूत जिनालय में दर्शनार्थ आये और स्वर्णमयी जिनप्रतिमा का अभिषेक करके अष्टद्रव्यों से पूजा की, अनेकों स्तुतियों से जिनेन्द्र भगवान् की स्तुति करके राजमहल में आ गये।
किसी समय अपनी ससुराल जाते हुए राजा वङ्काजंघ ने वन में डेरा डाल दिया। वहीं पर आकाश में गमन करने वाले दमधर और सागरसेन मुनिराज आहारार्थ पधारे। उन्होंने वन में ही आहार लेने की प्रतिज्ञा कर रखी थी। राजा वङ्काजंघ ने रानी श्रीमती के साथ उनको भक्ति से पड़गाहा और विधिवत् आहारदान दिया, उसी समय देवों ने पंचाश्चर्य वृष्टि कर दी। अनन्तर कंचुकी के कहने से यह मालूम हुआ कि ये तुम्हारे ही अंतिम युगल पुत्र हैं अर्थात् बाबा वङ्काबाहु के साथ वङ्काजंघ के अट्ठानवे पुत्रों ने दीक्षा ग्रहण कर ली थी। उनमें से ये अंतिम युगल पुत्र थे। यह जानकर राजा-रानी के हर्ष का पार नहीं रहा।
उनकी भक्तिपूजा करके उनसे धर्म का स्वरूप सुना, पुनः अपने और श्रीमती के तथा औरों के पूर्व भव पूछे। दमधर मुनिराज ने बताया कि हे राजन् ! आप इससे आठवें भव में भरतक्षेत्र के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव होंगे और श्रीमती का जीव राजा श्रेयांस होकर दान तीर्थ का प्रवर्तक होगा। ये मतिवर मंत्री आदि जो बड़े प्रेम से आहारदान देख रहे थे, इनमें से क्रमशः मतिवर मंत्री का जीव भरत चक्रवर्ती होगा, आनन्द पुरोहित का जीव बाहुबलि होगा, अकंपन सेनापति ऋषभसेन पुत्र होगा एवं धनमित्र सेठ अनन्तविजय पुत्र होगा। ये सिंह, सूकर, वानर और नकुल जो बड़े प्रेम से आहारदान देख रहे थे, ये इस दान की अनुमोदना से उन्नति करते हुए आपकी ऋषभदेव की पर्याय में क्रमशः विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित नाम के पुत्र होंगे। ये सभी जीव आपके तीर्थ में ही मोक्ष को प्राप्त करेंगे। इन सबका संबंध सुनकर राजा वङ्काजंघ आदि सभी को महान हर्ष हुआ।
राजा वङ्काजंघ ने एक बार में ही आहारदान देकर इतना महान् पुण्य संचय कर लिया था।
किसी समय वे राजा अपनी रानी श्रीमती के साथ महल में सोए हुए थे। नौकरों ने कमरों को सुगंधित करने के लिए धूप खेई थी। अनन्तर खिड़कियाँ खोलना भूल गए। बस अंदर में धुएँ के रुक जाने से दोनों के कंठ रुँध गए और वे दीर्घ निद्रा में सो गये अर्थात् मर गये।
अहो! देखो, जो भोगापभोग की वस्तुएँ आनन्दमयी होती हैं, वे ही मृत्यु का कारण बन गर्इं, इसलिए इन भोगों को धिक्कार हो!
इस दान के प्रभाव से वे दोनों मरकर उत्तरकुरु नामक उत्तम भोगभूमि में दम्पत्ति हो गये और वहाँ पर दस प्रकार के कल्पवृक्षों के भोगों का अनुभव करने लगे।
(४) भोगभूमिज आर्य
किसी समय वङ्काजंघ आर्य अपनी स्त्री के साथ कल्पवृक्ष की शोभा देखते हुए बैठे थे कि वहाँ पर आकाशमार्ग से दो चारण-ऋद्धिधारी मुनि उतरे। वङ्काजंघ के जीव आर्य ने शीघ्र ही पत्नी सहित खड़े होकर उनका विनय करके नमस्कार किया। उस समय उन दोनों दम्पत्ति के नेत्रों से हर्षाश्रु निकल रहे थे। दोनों मुनि दम्पत्ति को आशीर्वाद देकर यथायोग्य स्थान पर बैठ गये। उनके नाम प्रीतिंकर और प्रीतिदेव थे। वङ्काजंघ ने पूछा-हे भगवन् ! आप कहाँ से आये हैं? आपके प्रति मेरे हृदय में आत्मीयता का भाव उमड़ रहा है।
प्रीतिंकर मुनिराज बोले-हे आर्य! आप इससे पूर्व चतुर्थ भव में विद्याधर के राजा महाबल थे और मैं आपका स्वयंबुद्ध नाम का मंत्री था। उस समय मैंने तुम्हें जैनधर्म ग्रहण कराया था, पुनः मैं जैनेश्वरी दीक्षा लेकर अंत में मरकर स्वर्ग में गया। वहाँ से पूर्व विदेह के राजा प्रियसेन की रानी सुन्दरी देवी के मैं प्रीतिंकर पुत्र हुआ हूँ और यह प्रीतिदेव महातपस्वी मेरा छोटा भाई है। हम दोनों ने स्वयंप्रभ जिनराज के समीप दीक्षा लेकर अवधिज्ञान एवं चारणऋद्धि प्राप्त कर ली है। चूँकि उस भव में आप मेरे परम मित्र थे इसलिए आपको समझाने के लिए हम यहाँ आये हैं।
हे भव्य! निर्मल सम्यक्त्व के बिना केवल पात्रदान के प्रभाव से तू यहाँ उत्पन्न हुआ है, ऐसा समझ। महाबल के भव में तूने हमसे ही तत्वज्ञान प्राप्त कर शरीर छोड़ा था, परन्तु उस समय भी तू सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं कर सका था, अब हम सम्यक्त्वरूपी अमूल्य निधि को तुझे देने के लिए यहाँ आये हैं। इसलिए हे आर्य! आज सम्यग्दर्शन ग्रहण करें। वीतराग सर्वज्ञ देव, आप्त कथित आगम और जीवादि पदार्थों का बड़ी निष्ठा से श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। यह आठ अंग सहित, आठ मद, छह अनायतन और तीन मूढ़ता रहित होता है। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य-ये चार इसके गुण हैं।
इस प्रकार मुनिराज वङ्काजंघ आर्य को समझाकर श्रीमती आर्या को समझाने लगे। हे मातः! सम्यग्दर्शन के बिना ही यह स्त्रीपर्याय प्राप्त होती है, सम्यग्दृष्टि जीव प्रथम नरक के बिना छह नरकों में, स्त्री पर्याय में, एकेन्द्रिय पर्याय, विकलत्रय पर्याय आदि निंद्य योनियों में उत्पन्न नहीं होते हैं। हे मातः! तू भी सम्यग्दर्शन धारण कर और इस स्त्रीपर्याय से छूटकर क्रम से सप्तपरमस्थानों को प्राप्त कर।
दोनों दम्पत्ति ने अत्यधिक प्रसन्नचित्त होकर सम्यक्त्वरत्न को ग्रहण किया। पहले कहे हुए वङ्काजंघ पर्याय में आहारदान के समय जो सिंह, सूकर, वानर और नेवला थे, वे दान की अनुमोदना से वहीं पुरुष पर्याय में जन्मे थे। वे भी इस समय प्रीतिंकर गुरुदेव के मुख से उपदेश सुनकर सम्यग्दर्शनरूपी अमृत को प्राप्त हुए थे। दोनों ही दम्पत्ति को दोनों ही मुनिराज ने बार-बार धर्म-प्रेम से स्पर्श किया और आशीर्वाद देते हुए आकाशमार्ग से विहार कर गये। जब वे मुनिराज चले गये, तब आर्य वङ्काजंघ ने बहुत देर तक उनके वियोगजन्य दुःख का अनुभव किया। अनन्तर उनके गुणों का चिंतवन करते हुए सोचने लगा कि देखो! महाबल के भव में भी वे स्वयंबुद्ध नामक मेरे गुरु हुए थे और इस भव में सम्यग्दर्शन देकर विशेष गुरु हुए हैं। सचमुच में जैसे सिद्धरस ताँबा आदि धातुओं को स्वर्ण बना देता है वैसे ही गुरु संगति भी भव्यजनों को शुद्ध सिद्ध बना देती है। गुरु उपदेशरूपी नौका के बिना यह घोर संसार-समुद्र नहीं तिरा जाता है, गुरु ही अकारण बन्धु हैं, इस प्रकार सम्यक्त्व से विशुद्ध उन भोगभूमिज आर्यों ने कल्पवृक्ष के उत्तम भोगों का अनुभव करते हुए और तत्त्वभावना में मन को लगाते हुए तीन पल्य की आयु को समाप्त कर दिया।
वङ्काजंघ का जीव ऐशान स्वर्ग के श्रीप्रभ विमान में श्रीधर नाम का ऋद्धिधारी देव हुआ। श्रीमती आर्या भी सम्यक्त्व के प्रभाव से स्त्रीपर्याय से छूटकर उसी स्वर्ग में स्वयंप्रभ नाम का उत्तम देव हुआ। सिंह, सूकर, वानर, नकुल के जीव भी उसी स्वर्ग में उत्तम ऋद्धि के धारक देव हो गए। ये वङ्काजंघ का जीव भरत क्षेत्र में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव होगा और श्रीमती का जीव राजा श्रेयांस होगा।
प्रश्न-मुनियों के उपदेश के सिवाय भोगभूमिज में क्या और भी कोई सम्यक्त्व के कारण हैं?
उत्तर-हाँ, जातिस्मरण हो जाने से, उपदेश श्रवण से, देवद्र्धि आदि देखने से भी सम्यक्त्व प्रगट हो सकता है।
कोई भी सम्यग्दृष्टि जीव मरकर भोगभूमि में नहीं जा सकता। सम्यग्दृष्टि पात्रदान के प्रभाव से स्वर्ग ही जायेगा। हाँ, यदि किसी ने पहले मनुष्यायु, तिर्यंचायु का बंध कर लिया, अनन्तर सम्यग्दर्शन प्रगट हुआ है तब वह जीव नियम से कर्मभूमि का मनुष्य या तिर्यंच न होकर भोगभूमि में ही मनुष्य या तिर्यंचयोनि में जन्म लेगा और वहाँ से सौधर्म-ईशान स्वर्ग में जन्मेगा।
सचमुच में पूर्व जन्म के स्नेह के संस्कार से ही प्रीतिंकर महामुनिराज ने उन भोगभूमिजों को सम्यक्त्व ग्रहण कराया अन्यथा वहाँ भोगभूमि में वे मुनिराज क्यों जाते ?
स्नेह और बैर दोनों के संस्कार जीवों के कई भवों तक चलते रहते हैं अतः बैर का संस्कार कभी नहीं बनाना चाहिए।
(५) श्रीधरदेव
श्रीप्रभ नामक पर्वत पर ध्यान करते हुए प्रीतिंकर मुनिराज को केवलज्ञान प्रकट हो गया और देवों ने आकर गंधकुटी की रचना करके केवलज्ञान की पूजा की। ईशान स्वर्ग के श्रीधर देव ने भी अवधिज्ञान से जान लिया कि हमारे गुरु प्रीतिंकर मुनिराज को केवलज्ञान प्रकट हो चुका है, वह भी उत्तमोत्तम सामग्री लेकर पूजा के लिए वहाँ आया। पूजन आदि करके धर्म का स्वरूप सुना, अनंतर प्रश्न किया-
हे भगवन् ! महाबल की पर्याय में जो मेरे तीन मंत्री मिथ्यादृष्टी थे, वे इस समय किस गति में हैं? उस समय सर्वज्ञदेव ने कहा कि हे भव्य! उन तीनों में से महामति और संभिन्नमति ये दो मंत्री तो निगोद पर्याय को प्राप्त हो चुके हैं जहाँ मात्र सघन अज्ञानांधकार ही व्याप्त है। वहाँ अत्यन्त तृप्त खौलते हुए जल में होने वाली खलबलाहट के समान अनेकों बार जन्म-मरण धारण करने पड़ते हैं। वहाँ निगोद पर्याय में यह जीव एक श्वांस के काल में अठारह बार जन्म-मरण कर लेता है। निगोद से निकलकर पुनः त्रस पर्याय पाना बहुत ही कठिन है। जैसे कि कोई मनुष्य समुद्र में एक राई का दाना डाल दे और हजार वर्ष के बाद उसको ढूंढ़े तो मिलना कठिन है, वैसे ही निगोद पर्याय से निकलना अत्यन्त कठिन है तथा शतमति मंत्री मिथ्यात्व के कारण द्वितीय नरक में चला गया है।
उस समय प्रीतिंकर गुरुदेव के वचनों को सुनकर वह श्रीधर देव सोचने लगा-अहो! निगोद पर्याय में जाकर संबोधा भी नहीं जा सकता है। देखो, पाँचों इन्द्रियों की प्राप्ति होना कितना कठिन है और ये जीव क्षणिक स्वार्थ में पड़कर मिथ्यात्व से मोहित होकर ऐसी दुर्गति को प्राप्त कर लेते हैं। उस समय उसने द्वितीय नरक में जाकर शतमति मंत्री के जीव को समझाने का प्रयत्न किया।
देव ने कहा-अरे मूढ़ शतमति! देख, क्या तू मुझ महाबल को जानता है? उस भव में तूने मुझे भी मिथ्यात्व का उपदेश दिया था और उसके फलस्वरूप प्रत्यक्ष में तू इस नरक वेदना को भोग रहा है। अब तू शीघ्र ही सम्यग्दर्शनरूपी रत्न को ग्रहण कर। इस प्रकार देव के बहुत कुछ उपदेश से उस नारकी ने मिथ्यात्व का वमन करके सम्यग्दर्शन को ग्रहण कर लिया। आयु के अंत में भयंकर नरक से निकलकर पुष्करद्वीप के पूर्व विदेह में महीधर चक्रवर्ती का पुत्र जयसेन हुआ। यौवन अवस्था में उसका विवाह हो रहा था, उस समय पुनः श्रीधर देव ने स्वर्ग से आकर उसे समझाया और नरकों के भयंकर दुःख की याद दिलाई जिससे वह जयसेन तत्क्षण ही विषयों से विरक्त हो गया और यमधर मुनिराज के समीप जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली। तपश्चरण करते हुए अंत में समाधिपूर्वक प्राण छोड़कर ब्रह्मस्वर्ग में इंद्र पद को प्राप्त कर लिया। देखो, कहाँ तो नारकी होना, कहाँ इंद्र पद की प्राप्ति होना? मिथ्यात्व और सम्यक्त्व का यह प्रत्यक्ष फल देखकर हे भव्य जीवों! धर्म में ही अपनी बुद्धि को स्थिर करो। अनंतर अवधिज्ञानी इस ब्रह्मेन्द्र ने अपने पूर्वभवों के वृत्तांत को याद कर ब्रह्मस्वर्ग से ईशानस्वर्ग में आकर श्रीधर देव की विशेष रूप से पूजा की क्योंकि उपकारी के उपकार को न भूलना, उनकी पूजा-भक्ति करना ही विनीत सम्यग्दृष्टि का कत्र्तव्य है।
नौवां भव🔴
देव आयु समाप्त होने पर,जैसे बर्फ गलता है वैसे ही *वज्रजंघ का* जीव वहाँ से च्यवन कर जम्बूदीप केविदेह क्षेत्रमे,क्षितिप्रतिष्ठित नगरमें सुविधि वैध के घर पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। नाम *जीवानंद* रखा गया।उसी दिन उसी शहर में, धर्म के चार अङ्गों की तरह, दूसरे चार बालक जन्मे।
पहला *ईशानचंद्र राजा के घर कनकवती नाम कि रानी से महीधर* नामक पुत्र हुआ।
दूसरा सुनासीर मंत्री की *लक्ष्मी नामक स्त्री से लक्ष्मीपुत्र के समान सुबृद्धि* नामक हुए।
*तीसरा सागरदत्त नामक सेठ की अभयमती रानी से पूर्णभद्र* नामक पुत्र हुआ।
चौथा धनश्रेष्ठि की *शीलमती ने गुणाकर* नाम का पुत्र हुआ।
दाइयों द्वारा सभी सुख सामग्री के साथ उनका समान रूप से लालन पालन होने लगा।वह सब शरीर के अंग जैसे एकसाथ बढ़ते है, वैसे ही एकसाथ खेल कूदते। सारी कलाएं
इस तरह ग्रहण की जैसे *वृक्ष मेघ का जल समान रूप से ग्रहण करते है*
श्रीमती की आत्मा का पहले देवलोक में से च्यवन हुआ और वह ईश्वरदत्त श्रेष्ठि के यहाँ *केशव* नाम के पुत्र रूप में पैदा हुई। * *पाँच इन्द्रिय और छट्ठे मन की तरह,पूर्व पुण्योदय से परस्पर गाढ़ मैत्री हो गयी*। वे दिनभर साथ रहते।
उनमे से जीवानंद औषधि और रस, वीर्य , और पाक आदि अष्टांग आयुर्वेद को* अपने पिता से ज्ञान प्राप्त कर‼ जैसे *हाथी में ऐरावतऔर नवग्रह में सूर्यअग्रणी होता है* वैसे ही सभी वैद्यों में वह,
ज्ञानवान और निर्दोष विद्या को जानने वाला हु।
एक बार वे सभी छह मित्र जीवानंद वैद्य के घर मे प्रसन्नता पूर्वक वार्तालाप कर रहे थे।तभी एक *मुनिराज गोचरी के लिए पधारे। वे साधु पुण्यपाल राजा के गुणाकर नाम के पुत्र थे। उन्होने लक्ष्मी की चंचलता और संसार की असारता को जानकर राज्य छोड़ भगवती दीक्षा अंगीकार की थी। दीक्षा अंगीकार कर उग्र *तप नीरस आहार आदि के कारण गर्मी में जैसे नदी सुख जाती है, वैसे ही तप से शरीर सुख गया था*।बदन में भी अल्प रक्त मांस रह गया था। *बेसमय और अपथ्य भोजन से शरीर मे कृमिकाष्ठ*(ऐसा कोढ़ जिसमे कीड़े पैदा
हो जाते हौ )। *सारे शरीर मे रोग फैल जाने पर भी वे *मोक्ष कामी किसी से दवा नही मांगते थे*।
छः मित्रो ने देखा देह के प्रति निर्मम बने हुए *महात्मा किसी भी प्रकार की चिकित्सा कराने के लिए उत्सुक नहीं थे*, वे अत्यंत समता पूर्वक रोग की भयंकर पीड़ा को सहन कर रहे थे।
*गोमुत्रिका विधान*( साधु जब आहार लेने जाय तो वह सिलसिलेवार घरो में आहार के लिए न जाये,कारण*सिलसिलेवार जाने से संभव है अगले घरवाले साधु के लिए कुछ तैयारी कर ले*।इसलिए *दाहिने हाथ से बाएं की श्रेणी* के किसी घर मे जाते है और *बाएं हाथ से दाये जाते* है) घर घर फिरते साधु को, छट्ठ के पारणे के दिन दरवाजे से आते देखा तब महीधर ने जीवानंद से कहा" *तुम रोग-परीक्षा में निपुण हो,औषधितत्वज्ञ हो और चिकित्सा-कर्म में भी दक्ष हो: परंतु तुम में दया का अभाव है*❗जिस तरह*वेश्या धनहीन को नज़रे उठा के नही देखती उसी तरह तुम निरन्तर स्तुति औरप्रार्थना करने वालो के सामने नही देखते*❗परंतु विवेक औरविचारशील पुरुष को एकमात्र धन का लोभी होना उचित नही है❗ *किसी समय धर्मार्थ चिकित्सा भी करनी चाहिए*। निदान और चिकित्सा में जो तुम्हारी कुशलता है, उस के लिए धिक्कार है‼ क्योंकि ऐसे मुनि की तुम उपेक्षा करते हो।परोपकार बुदधि से चिकित्सा करने वाले वैद्य को *धर्म ,धन और यश तीनो की प्राप्ति होती है*❗
हे जीवानंद❗" तू धर्म का आश्रय कर और व्याधिग्रस्त महात्मा की चिकित्सा कर❗ *ये महात्मा रोगमुक्त बनेंगे और इसके फलस्वरूप तुम्हे भी महान पुण्य होगा*❗
राजपुत्र महीधर की बात सुनकर विज्ञान रत्नजीवानंद ने कहा," तुंमने मुझे याद दिलाई, यह बहुत अच्छा किया❗" धन्यवाद❗ अक्सर---- दुनिया मे ब्राह्मण जाति द्वेष रहित नही होती( द्वेष करने वाली होती है) *बनियो की जाती अवंचक( न ठगने वाली) नही होती( ठगने वाली होती है)। मित्रमंडली इर्ष्या न करने वाली नही होती। ❗।शरीरधारी निरोग नही होता।विद्वान धनवान नही होते, *गुणवान निरभिमानी नही होते❗ स्त्री *अचपल नहीं होती ❗और राजपुत्र एक *अच्छे चारित्र* वाला नही होता❗
वे महामुनि अवश्य ही चिकित्सा करने लायक है।उस बीमारी के लिए *जिन औषधि की जरूरत है, उनमे से मेरे पास लक्षपाक तेल है,परंतु गोशीर्षचन्दन और रत्नकम्बल ये दो मेरे पास नही है*❗इनको तुम लाकर दो तो मैं *मैं उन महात्मा की चिकित्सा करने का संकल्प लेता हूँ*।
ये दोनों चीजें हम लाएंगे, कहकर *पांचो मित्र बाजार में गये*।और मुनि अपने स्थान पर गए।
पांचो मित्र बाजार जाकर 🚵🏻एक बूढ़े वणिक की दुकान में👳🏽♀ वणिक से कहा :" हमे *गोशीर्षचन्दन और रत्नकम्बल* दाम लेकर दीजिये"❗ उस वणिक ने कहा" इन दोनों का मूल्य *एक-एक लाख 💴💰मुहर है।मूल्य देकर आप इन्हें ले जा सकते है"।इसके साथ उसने पूछा कि " आपको इसकी जरूरत क्यो है❓पांचो ने कहा 'जो दाम हो सो ले लीजिए और हमे ये वस्तुये दे दीजिए'❗यह बात सुनते ही वणिक आश्चर्य चकित हो गया,उसके नेत्र फटे 🙄🙄की फटे रह गए वह हक्का बक्का होकर देखता रह🤔🤔 गया।वह अपने मन मे विचार करने लगा" अहो❗कहाँ तो *इन सब का उन्माद- प्रमाद और कामदेव🙍🏻♂🙍🏻♂🙍🏾♂ से भी अधिक मदपूर्ण यौवन और कहाँ इन सबकी वयोवृद्ध के योग्य विवेक- पूर्णमति*❓इस *उठती जवानी में,इनमे वृद्ध के योग्य विवेक-पूर्ण मति- गति देखकर* विस्मय होता है: मेरे जैसे बुढ़ापे से जर्जर शरीर वाले मनुष्यो के करने योग्य शुभ कामो को ये करते है और दमन करने योग्य भार को उठाते है: ऐसा विचार कर वृद्ध वणिक ने कहा--" हे भद्र पुरुषो❗इस *गोशीर्षचन्दन और रत्नकम्बल ले जाइए। आप लोगो का कल्याण हो❗ मूल्य की दरकार नही❗इनका मूल्य चुकाने की आवश्यकता नही है❗ मुनि के उपचार में मुझे भी लाभ मिलना चाहिये❗आप लोगो ने मुझे धर्मकार्य में हिस्सेदार बनाया है*❗ कहकर दोनों चीजे दी। *अपना शेष धन धर्मकार्य में लगाकर भागवती दीक्षा अंगीकार कर* आत्म कल्याण किया❗
🌱 🌱रत्नकम्बल और👬👬👬 गोशीर्षचंदन लेकर वह छह मित्र 🌳 वटवृष के नीचे ध्यान कर रहे मुनी के पास आये।उन्होंने हाथ जोड़कर विनती की" हे धयानमग्न मुनिवर❗ *यधपि आप इस देह के प्रति निर्मम हो,फिर भी आपके😷 ध्यान में हम थोड़ा अंतराय पैदा कर रहें* है❗ आप अनुमति प्रदान करने🙏🏼 की कृपा करें"❗
देह के प्रति निर्मम बने हुए महात्मा ने मूक सहमति प्रदान की।
मुनिवर के देह से🕷🕷 निकले हुए *कीड़े व्यर्थ ही न मार जाय इसलिए वे थोड़ी देर पहले मरी हुई गाय का कलेवर* ले आये❗क्योकि सद वैद्य 👨🏽⚕🔎कभी भी *विपरीत📌✂ चिकित्सा* नही करते❗
उसके बाद उन्होंने मुनि के प्रत्येक अंग 🙌🏾 में *लक्षपाक 🥃 तेल* से मालिश की, जिस तरह🌿 *क्यारी का जल बाग में फैल जाता है: उसी तरह वह तेल मुनि की नस नस में फैल गया*❗ *उग्र व्याधि को शांत करने उग्र औषधि का प्रयोग करना पड़ता है*❗ उस तेल के उष्णवीर्य 🔥☄होने के कारण मुनि मूर्छित हो गए❗
कल हम जानेंगे की जीवानंद वैद्य अपने 🍖🥃💊⚱ *अष्टांगआयुर्वेद* के ज्ञान से कैसे आगे की चिकित्सा करेंगे।
लक्षपाक तेल के प्रभाव व्याकुल हुए कीड़े🕷🕷 मुनि की देह से निकलने लगे: *जिस तरह बिल में जल डालने पर चींटिया बाहर निकलती है*❗ कीडो को निकलता देख,🕷🕷🕷 जीवानन्द ने मुनी को रत्नकम्बल से इस तरह आच्छादित कर दिया: जैसे *चंद्रमा अपने चांदनी को आच्छादित करता है*❗रत्नकम्बल में शीतलता होने से, सारे कीड़े उसमे लीन हो गए: जिस तरह *गर्मी के मौसम की दोपहरी में तपी हुई मछलियां 🐠🐠🐟शैवाल में लीन हो जाती है*❗ उसके बाद बिना हिलाये धीरे धीरे उठाकर ,सारे कीड़े गाय की लाश पर डाल दिये गए❗
*सत्पुरुष दया से काम लेते है*❗
इस के बाद,जीवानंद👨🏽⚕ ने,अमृतरस- समान प्राणी को जिलाने वाले,🥛 *गोशीर्षचन्दन का लेप कर के मुनि की देह को शांत किया*❗
चिकित्सा🥃🛌👨🏽⚕ के तीनों चरण पूर्ण होते ही मुनि 😷निरोग और नवीन कांतिमान हो गए और🌛🌜 उजाली हुई सोने की मूर्ति की तरह शोभा पाने लगे❗ *मुनिवर की चिकित्सा से उन् छः मित्रो ने विशेष पुण्य उपार्जित 👏🏻👏🏻 किया*❗ मुनि ने सबको धर्मलाभ की आशीष दी....🖐.तत्पश्चात वे मुनि वहाँ से अन्यत्र विहार कर गए❗कारण,साधुपुरुष कभी एक स्थान पर ज्यादा नही रुकते है❗फिर *उन बुद्धिमानो ने बचे हुए ⚖⚖ रत्नकम्बल और गोशीर्षचन्दन को बेचकर💰💰💵 सोना लिया*❗ *सोने से मेरु के 🌠शिखर का जिनचैत्य 🎪बनवाया*❗एक शुभ दिन उस परमात्मा की प्रतिष्ठा🚩 करवाई❗उसके बाद वे प्रतिदिन परमात्मा की🍚🍎🌹🌹 अष्टप्रकारी पूजा करने लगे❗ द्रव्यपूजा के बाद भावपूजा करने लगे❗ *जिनपुजा व गुरु की उपासना- सेवामें* तत्पर उन लोगों ने कर्म की तरह बहुत सा *समय ⌛⌛व्यतीत किया*❗एक बार उन छह *मित्रो के मन संसार से 😣😣विरक्ति के भाव उत्पन्न हुए*❗ तब उन्होंने गुरु महाराज के पास जाकर दीक्षा ली❗
🌿🌿 दीक्षा 😷लेकर वे नक्षत्रो 🌟💥जिस तरह *एक राशि से दूसरी राशि पर चक्कर लगाते है ❗ उसी तरह एक गांव 🏕से दूसरे🌲 वन में नियत समय तक रहकर विहार करने लगे*❗ उपवास, छठ और अट्ठम🤐 तप करते हुए *अपने चरित्र रत्न को अत्यंत निर्मल किया*❗ वे माधुकरी वृत्ति( भवरों की तरह) से भिक्षा ग्रहण करते थे❗ अर्थात *जिस तरह भवरें फूलो को कष्ट दिए बिना पराग ग्रहण करता* है❗ उसी तरह वे गृहस्तो से👨👨 आहार ग्रहण करते थे❗ *सुभट 🤺योद्धा जिस तरह प्रहार को सहते है उसी तरह वे भूख,प्यास,इ परिषह सहने करते थे*❗ *मोहराजा🥊🤼♂🤼♂ के चारों सेनापतियों को उन्होंने क्षमा के अस्त्रो 🥇से जीत लिया था*❗ अंत समय उन्होंने *द्रव्य और भाव से संलेखना कर के*, कर्मरूपी पर्वत को नाश करने में वज्रवत अनशन व्रत ग्रहण किया❗पंचपरमेष्ठी का स्मरण करते हुए अपने अपने शरीर त्याग दिए❗
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
💁♂💁 *भगवान रुषभदेवजी/आदिनाथजी जीवन चरित्र* 🙋🙋♂
श्री आदिनाथ चरित्र-39
🔴 दसवाँ भव🔴
*वे छः आत्माये देह🙏🏼 त्यागकर,अच्युत नामक *बारवे 🗼देवलोक में,इंद्र के समानिक🤴 देव हुए❗ *इस प्रकार के तप का🎊🎉 सामान्य फल नही होता है❗ *बाइस सागरोपम की🏮 आयु पूर्ण कर वे वह से 🛏 चयवे अर्थात उनका *उस लोक से दूसरे लोक के🌁 लिए पतन हुआ‼ अर्थात *जब तक मोक्ष नही⚪ होता है ,तब तक प्राणी को नित्य शांति नही मिलती❗ वह एक स्थान में सदा नही रहता❗ *एक लोक से दूसरे लोक में,दूसरे से भी तीसरे में..... इस तरह घूमा करता है❗ *एक शरीर छोड़ता है दूसरा शरीर धारण करता है*❗ *शरीर त्यागने और धारण करने का झगडा एक मात्र मोक्ष से ही मिटता है*❗
*मोक्ष हो जाने से प्राणी को फिर जन्म मरण नही करना पड़ता है*❗
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
💁♂💁 *भगवान रुषभदेवजी/आदिनाथजी जीवन चरित्र* 🙋🙋♂
श्री आदिनाथ चरित्र-40
*जम्बूदीप पुष्कलावती🕌 विजय मे लवणसमुद्र के पास,पुंडरिकनी नाम की नगरी है❗उस नगरी के राजा वज्रसेन 🤴👸🏼कि धारिणी नाम की रानी की कुक्षी से, उनमे से पांच ने अनुक्रमसे, पुत्र रूप में जन्म लिया❗ उसमे जीवानंद का जीव ,चौदह महास्वप्न 🎉🎉से सूचित *वज्रनाभ* नामक पुत्र हुआ❗राजपुत्र क् जीव👼🏻 *बाहु* नामक दूसरा पुत्र हुआ❗मंत्री पुत्र का जीव 👦🏻*सुबाहु* नामक तीसरा पुत्र हुआ❗श्रेष्ठि पुत्र और सारथेस का जीव *पीठ और महापीठ नाम के पुत्र हुए❗केशव का जीव 👶सुयशा नाम का अन्य राजपुत्र हुआ❗सुयशा बचपन से वज्रनाभ का आश्रय करने लगा❗कहा है *पूर्वजन्म से हुआ संबंध 🤝🤝 हुआ स्नेह बंधुत्व में ही बंधता है❗ अर्थात जिन में पूर्वजन्म में प्रीति होती है,उनकी इस 👨👦👦👨👦👦जन्म में भी प्रीति होती है❗ *मानो छः वर्षधर पर्वत्तो ने पुरुष रूप में जन्म लिया हो*, इस तरह वे राजपुत्र और सुयशा अनुक्रम से बढ़ने लगे❗*वे महापराक्रमी *राजपुत्र इस तरह🐎🐎🐎 घोड़े कुदाते थे,मानो सूर्यपुत्र क्रीड़ा कर रहे हो❗ *शिला की तरह 🗻🗻बड़े बड़े पर्वतों को उठाते थे*❗ *कलाओ 🤼♂🤺🤽♂का अभ्यास कराने में उनके कलाचार्य 👨🏻🏫को सिखाने को विशेष कष्ट नही उठाना पड़ता*❗ *क्योंकि महान पुरूषों में ये गुण खुद बखुद पैदा हो जाते है*❗
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
💁♂💁 *भगवान रुषभदेवजी/आदिनाथजी जीवन चरित्र* 🙋🙋♂
श्री आदिनाथ चरित्र-41
यौवन के प्रांगण में प्रवेश करने पर अनेक राजकन्याओं 👩👩👧👧👩👧 के साथ वज्रनाभ का🤝 पाणिग्रहण हुआ❗ लौकांतिक देवो 💁♂ने आकर राजा वज्रसेन से विज्ञप्ति की-- *स्वामिन ❗धर्मतीर्थ प्रवताओ*, इसके बाद राजा वज्रसेन ने वज्र जैसे *पराक्रमी वज्रनाभ को⛩ राजगद्दी पर आसीन किया*❗🌧 *मेघ जिस तरह पृथ्वी को तृप्त करता है उसी तरह उसने सावंतसरिक 💰💰दान से पृथ्वी को तृप्त किया❗देव🤴 ,असुर 👺और 👩🏼✈मनुष्य के स्वामियों ने राजा वज्रसेन का 🚶🚶🚶निर्गमोउत्सव किया❗ *राजा ने नगर के बाहर उद्यान 🌳🌲में जाकर दीक्षा 😷ली*❗ उसी समय उन्हें मनपर्यव 👏🏻👏🏻ज्ञान प्राप्त हुआ❗पीछे *वह नाना प्रकार के 🤐अभिग्रह धारण कर पृथ्वी पर विहार👣 करने* लगे❗
इधर वज्रनाभ ने अपने सब प्रत्येक भाइ को अलग देश 🏠🏣दे दिए और *लोकपालों में जिस तरह इन्द्र शोभता है* *उसी तरह वह भी रोज सेवा में उपस्थित रहनेवाले *चारो भाइयो से ⛱शोभा पाने लगा*❗ *अरुण जैसे सूर्य का सारथी है वैसे सुयश🌅 उसका सारथी हुआ*❗ महारथी पुरुषो को सारथी भी अपने समान चाहिए❗
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
💁♂💁 *भगवान रुषभदेवजी/आदिनाथजी जीवन चरित्र* 🙋🙋♂
श्री आदिनाथ चरित्र-42
समय का प्रहाव आगे बढ़ने लगा❗ *वज्रनाभ ने सारे पुष्कलावती विजय को जीत लिया*❗वज्रनाभ ने छः खंडों पर ⛳विजय प्राप्त की और चक्रवर्ती बने❗
🍂जैसे *कमलिनी जल के प्रमाण से ऊंची होती है वैसे ही पुण्य के अनुसार संपत्ति मिलती है*🍂
*सुगंध से आकर्षित होकर भंवरे आते है* वैसे ही उस
के *प्रबल पुण्योदय से आकर्षित नव निधियां भी आकर उसकी सेवा करने लगी*❗भोगो का 💃🏽🥂🎺🎠उपभोग करनेवाले *उस चक्रवर्ती कि धर्मबुद्धि भी अधिकाधिक बढ़ने लगी मानो वह बढ़ती हुई आयु से स्पर्धा कर रही हो*❗ *अधिक 🌧जल से जैसे लताये 🌿बढ़ती है वैसे ही संसार के *वैराग्य की संपत्ति से उसकी धर्मबुद्धि भी पुष्ट होने लगी*❗
एक शुभदिन *समस्त घाती कर्मो का क्षय वज्रसेन भगवन को केवलज्ञान🌅 उत्पन्न हुआ*❗ देवताओ ने आकर समवसरण की रचना की❗चतुर्विध *धर्म की स्थापना की परमात्मा ने पैतीस गुणो से युक्त *धर्मदेशना प्रदान की,जिसे सुनकर अनेक पुण्यात्माओं ने *सर्वविरती, देशविरती* धर्म स्वीकार किया❗
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
💁♂💁 *भगवान रुषभदेवजी/आदिनाथजी जीवन चरित्र* 🙋🙋♂
📔📔श्री आदिनाथ चरित्र-43
एक बार भगवान वज्रसेन विहार करते हुए पुंडरिकनी🕍 आये❗वहाँ उनका समवसरण हुआ❗ *उसी समय वज्रनाभ की आयुध शाला🥊🥅 में सूर्यमंडल का तिरस्कार करनेवाले ⚙ चक्ररत्न ने प्रवेश किया*❗ दूसरे तेरह रत्न भी उसको तत्काल मिल गए❗
*सुगंध से आकर्षित होकर जैसे भंवरे आते है* वैसे ही *प्रबल पुण्योदय* से आकर्षित
*नवनिधियाँ* भी आकर उसकी सेवा करने लगी❗
*प्रभु का 👣आगमन सुनकर वज्रनाभ चक्रवर्ती बंधुवर्ग👨👦🤴👨👦 सहित राजहंस की तरह, सानंद प्रभु के समवसरण में* आया❗ तीन प्रदीक्षणा देकर , जगत्पति 👏🏻🙏🏼को वंदना कर छोटे भाई की तरह इन्द्र के पीछे बैठा ❗फिर *भव्यजीवो की,मनरूपी सीप में बोधरूपी मोती को उत्पन्न करने वाली 🌨स्वाति नक्षत्र की वर्षा के समान* प्रभु की *अमृत देशना 🗣🗣को वह श्रवण करने* लगा❗ मृग जैसे गाना सुनकर हर्षित होता है उसी तरह देशना सुन *हर्षपूर्वक🤔🤔🤔😌😌 विचार करने* लगा......
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भाग 2 *महावीर के उपदेश ग्रुप*
💁♂💁 *भगवान रुषभदेवजी/आदिनाथजी जीवन चरित्र* 🙋🙋♂
भाग 2
श्री आदिनाथ चारित्र-44
🗣🗣 देशना सुनकर वज्रनाभ चक्रवर्ती मन मे🤔🤔😴 विचारने लगे" यह अपार🎡 *संसार समुद्र की तरह दुष्टर है.... इसका पार 🎢करना कठिन है❗इसको पार लगानेवाले लोकनाथ 🙏🏼मेरे पिता ही है❗ यह अंधरे की तरह पुरुषो को अत्यंत *अंधा🗿🗿 करनेवाले मोह को सब तरफ से भेदने वाले जिनेश्वर है❗ *चिरकाल से संचित कर्मराशी असाध्य👽👽 व्याधि स्वरूपा है❗ उसकी चिकित्सा🔍🔍 करनेवाले पिता ही है❗*मेघ की आवाज सुनकर *विदुरपर्वत की भूमि रत्नों🌨 से अंकुरित होती है* वैसे ही मेरी स्थिति है❗ करुणा रूपी *अमृत के सागर रूप ये प्रभु ही दुःख का नाश करने वाले है और अद्वितीय सुख को उत्पन्न करने वाले है❗ अहो❗😣😒 ऐसे स्वामी के होते हुए भी मैंने, *मोह से प्रमादी* बने हुए लोगो के मुखिया ने, अपने *आत्मा को बहुत समय तक धर्म से वंचित रखा*❗
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
💁♂💁 *भगवान रुषभदेवजी/आदिनाथजी जीवन चरित्र* 🙋🙋♂
📔श्री आदिनाथ चरित्र📔
45
🌿वज्रनाभ चक्रवर्ती ने *वैराग्य 🙏🏼भावना* से विनती की" हे नाथ❗ *जिस तरह घास🌱🌱 खेत को खराब 🌾🌾करती है* उसी तरह *अर्थसाधन के प्रतिपादन करनेवाले नीति 📓📓शास्त्र* ने मेरी 😇😇 *मति को बहुत समय तक भ्रष्ट रखा* ❗ *विषयो में लोलुप👅👃👁 होकर मैंने(कर्म) अनेक प्रकार के रूप धरकर अपनी आत्मा को नट की तरह चिरकाल🎡 तक नचाया है*❗ यह *मेरा साम्राज्य अर्थ और काम का कारण है❗ इसमें धर्म का जो चिंतन होता है वह भी पाप का अनुबन्ध कराने वाला होता है*❗ आप जैसे पिता का पुत्र होकर ,भी मैं यदि इस *संसार 💨💨समुद्र में भटकूँ तो मुझमे और सामान्य मनुष्यो में क्या भिन्नता होगी*⁉ इसलिए जैसे आपके दिए हुए *साम्राज्य⛩ का पालन किया*, ठीक उसी तरह अब मैं *संयम- साम्राज्य का पालन😷😷 करूँगा*:इसलिए आप मुझे🙏🏼 संयम प्रदान करे
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
💁♂💁 *भगवान रुषभदेवजी/आदिनाथजी जीवन चरित्र* 🙋🙋♂
📔श्री आदिनाथ चारित्र📔46..
🌼🌼अपने *वंशरूपी आकाश में सूरज🌞🌞 के समान चक्रवर्ती* वज्रनाभ ने *निज पुत्र को राज्य ⛩💺💺सौंपकर* भगवान के पास *दीक्षा 😷ग्रहण की*❗ पिता और बड़े *भाई ने जिस मार्ग का👣👣 अनुसरण किया उस व्रत 👏🏻👏🏻को बाहु आदि सब भाइयो ने 🙏🏼ग्रहण किया*❗ कारण यही उनकी कुलरीति थी❗ *सुयशा 🏇🏻🏇🏻सारथी* ने भी धर्म के सारथी ऐसे *भगवान* से अपने *स्वामी के साथ दीक्षा* ली❗
☘☘ कारण, *सेवक स्वामी की चाल पर ही🏇🏻🚴🏼♀ चलने वाले होते है*❗ ☘☘
वज्रनाभ मुनि थोड़े समय मे ही *शास्त्र 📚📖📚समुद्र के पारगामी हो गए❗ इससे मानो वे जंगम द्वादशंगी* 📔📔हो ऐसे मालूम पड़ते थे❗ *बाहु वैगेरे मुनि* भी *ग्यारह* 📝📝अंग के ज्ञाता हुए❗
कहा है::
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
💁♂💁 *भगवान रुषभदेवजी/आदिनाथजी जीवन चरित्र* 🙋🙋♂
📔श्री आदिनाथ चारित्र📔47...
कहा है::
☘☘☘☘ *क्षयोपशम से विचित्रता पाई हुई गुणसम्पत्ति भी विचित्र तरह की होती है*❗ ☘☘☘☘
यानी जैसा *क्षयोपशम👨🏼🔬✍🏿✍🏿 होता है वैसे ही गुण मिलते है*❗☘☘
यद्यपि वे *सन्तोषरूपी धन* के धनी थे तो भी तिर्थंकर की वाणी 🗣🗣रूपी *अमृत का पान* 👂🏻👂🏻करने से वे थकते नही थे❗ तथा तिर्थंकर की *सेवा और दुष्कर तप* करने में असंतुष्ट रहते थे ❗ 👏🏻👏🏻मासोपवास 🤐💳तप में भी वह अपनी *तप भावना को और प्रबल करते*❗👏🏻
भगवान *वज्रसेन*
स्वामी उत्तम शुक्ल घ्यान 🌅 *निर्वाण पद* को प्राप्त हुए❗ देवो ने 🤴👰⏺आकर *महोत्सव*🎊🎉🎊 किया❗
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
💁♂💁 *भगवान रुषभदेवजी/आदिनाथजी जीवन चरित्र* 🙋🙋♂
📔श्री आदिनाथ चारित्र📔48
🌺🌺 वज्रसेन स्वामी के निर्वाण🔆🔆 के बाद धर्म के भाई के समान *वज्रनाभ मुनि* अपने साथ *व्रतधारण 😷😷करने वाले मुनियो के साथ पृथ्वी पर विहार 👣👣करने लगे*❗
अंतरात्मा से जैसे *पांच 🤝👂🏻इंद्रिया सनाथ होती है* वैसे ही वज्रनाभ स्वामी से *बाहु वैगरह चारो भाई तथा सारथी, ये पांचो मुनि सनाथ हुए*❗
🌿 *चंद्रमा की कांति🌒🌓🌙 से जिस तरह औषधियां 🎍🎄प्रगट* होती है उसी तरह योग के प्रभाव से 1 *खेलादी 💥☄लब्धि* कोटिवेध रास से जिस तरह *ताम्बा सोना हो* जाता है ❗उसी तरह *कोढ़ी 💩🤧के शरीर पर थोड़ा सा थूक मलने पर शरीर सोने 👨सा हो जाता है*❗
2 *जल्लोसहि लब्धि*
इससे👁👂🏻👃 कान, आंख और शरीर का मैल का नाश , *कस्तूरी समान शरीर सुगंधित होता है*❗
3 *आमोसहि लब्धी* अमृत के🚿 स्नान से जैसे रोग जाते है वैसे ही *शरीर के 💈स्पर्श से रोग चले जाते है*❗:
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
💁♂💁 *भगवान रुषभदेवजी/आदिनाथजी जीवन चरित्र* 🙋🙋♂
📔श्री आदिनाथ चारित्र📔
📔श्री आदिनाथ चारित्र📔49
🔴वज्रनाभ मुनि के तपोबल से प्राप्त लब्धिया🔴
4 *सव्वोसहि लब्धी*
बारिश का🌨⛈ जल,नदी का 💦💦जल, इस लब्धी वाले के स्पर्श से सभी तरह के रोग का नाश होता है❗अगर विष मिला हुआ अन्न 🍵🍵पात्र में आय तो भी वह निर्विष हो☕ जाता है❗ स्वाति नक्षत्र के 💧जल से सिप मोती बन जाती है वैसे ही उनके नख ,केश💅🏼 आदि उनके शरीर से होने वाली सभी चीजें रामबाण दवाइयां💊💊 बन जाती है
5 *अणुत्व शक्ति*
इच्छा करने मात्र से शरीर को छोटा 👶👨🖕बड़ा रुप बनाने की धागे की तरह शरीर को सुई निकालने की शक्ति ❗
6 महत्व शक्ति: जिसमें शरीर को इतना बड़ा कर सकते थे कि 🗼🗼मेरुपर्वत उनके घुटने तक आवे.🗽
7 लघुत्व शक्ति : इसमें🎈🎈 शरीर हवा से भी हल्का हो जाता है❗
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
💁♂💁 *भगवान रुषभदेवजी/आदिनाथजी जीवन चरित्र* 🙋🙋♂
📔श्री आदिनाथ चारित्र📔
🔴 श्री आदिनाथ चरित्र🔴 50
*वज्रनाभ मुनि को प्राप्त लब्धियो का वर्णन*➡
8 गुरुत्व शक्ति: इन्द्रादिक *देव भी जिसे सह नही सकते ऐसा ,वज्र से भारी शरीर* करने की शक्ति❗
9 *प्राप्ति शक्ति*: पृथ्वी पर रहते हुए भी पेड के पत्तो की तरह *मेरु के🗼 अग्रभाग और ग्रहदिक को🌞⚡💫🌙 स्पर्श करने की शक्ति*❗
10 *प्राकाम्य शक्ति*: जमीन की तरह पानी मे💦 चलने 🚶🚶की *जल की तरह जमीन पर भी डुबकी* लगाने की शक्ति
11 एषत्व शक्ति: चक्रवर्ती और *इ🤴न्द्र की तरह रिद्धि 💍🚀🗽का विस्तार करने की शक्ति*❗
12 *वशित्व शक्ति*; क्रूर से 🦁🐍क्रूर *प्राणियो को वश में करने की शक्ति*❗
13 *अप्रतिघाती शक्ति*: *छिद्र की तरह पर्वत के बीच में से बेरोक निकल जाने* की शक्ति❗
14 *अप्रतिहत अन्तरध्यान* शक्ति: *पवन की तरह अदृश्य* रूप धारण करने की शक्ति❗
15 *कामरूप लब्धी*: एक ही समय *अनेक👱🏽👲👴🏻 प्रकार के रूपों* से लोक को पूर्ण करने की शक्ति❗
16 बीज बुद्धि: एक अर्थरूपी बीज से *अनेक अर्थरूपी* बीजो को जान सके ऐसी शक्ति❗(अर्थात- जैसे अच्छी जोति हुई जमीन में बीज बोता है और उसके अनेक बिज होते है,इसी तरह *ज्ञानावरणीय आदि कर्मो के क्षयोपशम की अधिकता से एक अर्थ रूपी बीज को जानने- सुनने से अनेक अर्थ* को जानते है, उसे बीज बुद्धि कहते है❗
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
💁♂💁 *भगवान रुषभदेवजी/आदिनाथजी जीवन चरित्र* 🙋🙋♂
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51
*वज्रनाभ मुनि को प्राप्त लब्धियो का वर्णन* ➡
17 *कोष्टलब्धी*: इससे कोठे 🍙 में रखे हुए धान्य की तरह पहले *सुने हुए अर्थ, स्मरण 🤦♂किये वैगैर भी यथास्थित रहते* है❗
18 *पदानुसारिणी लब्धी*; इससे आदि,अंत या मध्य का *एक पद सुनने से सारे ग्रंथ का📚 बोध हो जाता है*❗
19 *मनोबली लब्धी*: इससे एक वस्तु का उद्धार🗞📖 करके याने *एक बात जानकर अन्तर्मुहूर्त में सारे श्रुतसमुद्र का अवगाहन* किया जा सकता है❗
20 *वागबली लब्धी*: इस में *एक मुहूर्त में मूलाक्षरों गिनने की लीला से सारे शास्त्र पाठ* का किया जा सकता है❗
21 *काय लब्धी*: इससे बहुत समय *कायोत्सर्ग करके प्रतिमा की तरह स्थिर रहने पर भी थकान नही होती है*❗
23 *अमृत- क्षीरमध्वज्याश्रवी लब्धी*: इससे पात्र में पड़े हुए खराब 🍛अन्न में भी अमृत, षिर, 🍷🥃🍺मधु और घी वैगरे का रस आता है, दुख से पीड़ित लोगों को *इस लब्धी वाले कि वाणी से अमृत, मधु , और घी की जैसी शांति देनेवाली होती है*❗
22 *अक्षिण महानसी लब्धी*;
इससे पात्र मे पडे हुए अन्न 🍱से कितने ही दान देने पर भी *वह अन्न कायम रहता है, समाप्त नही होता*❗
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
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52
*वज्रनाभ मुनि के पास रही हुई लब्धियो का वर्णन*➡
23 *अक्षिण महालय लब्धी*:
इससे तीर्थंकरों की पर्षदा की तरह *कम जगह में भी असंख्य प्राणियो को बिठाया जा सकता* है❗
24 *सभिन्नश्रोत लब्धी*: इससे *एक इन्द्रियो 👃से दूसरी 👂🏻👂🏻इन्द्रिय का ज्ञान प्राप्त हो सकता है*❗ चक्रवती की फौज का कोलाहल हो रहा हो, *शंख 🕹🔦🥁🎷,ढोल, पणव आदि एकसाथ बज रहे हो*,तो भी इस लब्धिवाला *सभी की आवाजों को अलग अलग पहचान सकता है*❗
25 *जंघा चारण लब्धी*: इस लब्धिवाला एक 👣कदम में *जम्बूदीप* से 🎪 *रुचकद्वीप* 🏜पहुँच सकता है, और लौटते समय एक कदम 🎿में *नन्दीश्वरद्वीप और दूसरे कदम में🎿🗼 जम्बूदीप यानी जहाँ से चला है वही पहुँच सकता है*❗और अगर ऊपर की तरफ जाना हो तो *एक कदम में मेरुपर्वत 🗻🏝स्थित पांडुक उद्यान में जा सकता है* ,और लौटते हुए एक कदम 🌳🌳*नंदनवन में रख दूसरे🐾🐾
कदम में *जहाँ से चला हो वही* पहुँच जाता है❗
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
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*वज्रनाभ मुनि के पास प्राप्त लब्धिया* ➡
26 *विद्याचारण लब्धी*: इस लब्धी वाला एक कदम में *मानुषोत्तर⛰ पर्वत पर, दूसरा नन्दीश्वरद्वीप 🎪और तीसरे क़दम* में रवाना होने की जगह पहुँच सकता है❗उपर जाना हो तो🚶🚶 *जंघाचारण से विपरीत गमनागमन( जाना आना) कर सकता है*❗
ये सारी लब्धिया वज्रनाभ आदि मुनियो के पास थी❗इनके अलावा *आसिविष 🗣🎓 लब्धी और हानीलाभः पहुचाने वाली कई दूसरी लब्धिया भी उनको मिली थी❗ मगर *इन लब्धी का उपयोग वे कभी नही करते थे*❗सच है----
🌿 *मोक्ष जाने की इच्छा रखनेवाले मिली हुई वस्तुओ की इच्छा नही रखते है*❗🌿
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*वज्रनाभ मुनि के पास प्राप्त लब्धिया* ➡
26 *विद्याचारण लब्धी*: इस लब्धी वाला एक कदम में *मानुषोत्तर⛰ पर्वत पर, दूसरा नन्दीश्वरद्वीप 🎪और तीसरे क़दम* में रवाना होने की जगह पहुँच सकता है❗उपर जाना हो तो🚶🚶 *जंघाचारण से विपरीत गमनागमन( जाना आना) कर सकता है*❗
ये सारी लब्धिया वज्रनाभ आदि मुनियो के पास थी❗इनके अलावा *आसिविष 🗣🎓 लब्धी और हानीलाभः पहुचाने वाली कई दूसरी लब्धिया भी उनको मिली थी❗ मगर *इन लब्धी का उपयोग वे कभी नही करते थे*❗सच है----
🌿 *मोक्ष जाने की इच्छा रखनेवाले मिली हुई वस्तुओ की इच्छा नही रखते है*❗🌿
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*विस स्थानक पदों का वर्णन* ➡
9 *दर्शनपद*:शंका आदि *दोषों से रहित,स्थिरता आदि गुणों से भूषित और *क्षमा आदि लक्षण वाला सम्यग्दर्शन* होना इस पद की आराधना है❗
10: *विनयपद्*: *ज्ञान,दर्शन ,चरित्र और उपचार* ऐसे चार तरह के- कर्मो दूर करने वालों का *विनय करना* इस पद क आराधना है❗
11 *चारित्र पद*: *इच्छा,मिथ्यात,करुणादिक दस तरह की समाचारी* के *योग में और आवश्यक में अत्तिचार रहित* होकर यत्न करना इस पद की आराधना है❗
12 *ब्रह्चार्य पद* : *अहिंसा आदि मूलगुणों में और समिति* आदि *उत्तरगुणो में अत्तिचार रहित प्रवुति करना* इस पद की आराधना है❗
13 *समाधिपद*: पल पल और *क्षण क्षण प्रमाद छोड़कर शुभध्यान में रहना* इस पद की आराधना है❗
14 *तप पद* : *मन और शरीर को पीड़ा न हो, इस तरह यथाशक्ति तप करना*❗
15 *दानपद*: *मन, वचन काया की शुद्धिपूर्वक तपस्वियोंको अन्न आदि का दान* इस आराधना का लक्ष है❗
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*विस स्थानक पदों का वर्णन* ➡
9 *दर्शनपद*:शंका आदि *दोषों से रहित,स्थिरता आदि गुणों से भूषित और *क्षमा आदि लक्षण वाला सम्यग्दर्शन* होना इस पद की आराधना है❗
10: *विनयपद्*: *ज्ञान,दर्शन ,चरित्र और उपचार* ऐसे चार तरह के- कर्मो दूर करने वालों का *विनय करना* इस पद क आराधना है❗
11 *चारित्र पद*: *इच्छा,मिथ्यात,करुणादिक दस तरह की समाचारी* के *योग में और आवश्यक में अत्तिचार रहित* होकर यत्न करना इस पद की आराधना है❗
12 *ब्रह्चार्य पद* : *अहिंसा आदि मूलगुणों में और समिति* आदि *उत्तरगुणो में अत्तिचार रहित प्रवुति करना* इस पद की आराधना है❗
13 *समाधिपद*: पल पल और *क्षण क्षण प्रमाद छोड़कर शुभध्यान में रहना* इस पद की आराधना है❗
14 *तप पद* : *मन और शरीर को पीड़ा न हो, इस तरह यथाशक्ति तप करना*❗
15 *दानपद*: *मन, वचन काया की शुद्धिपूर्वक तपस्वियोंको अन्न आदि का दान* इस आराधना का लक्ष है❗
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*विसस्थानक तप पदों का वर्णन*➡
16 *वैयावच्च पद*: *आचार्य आदि दस( जिन, सूरी, वाचक,मुनि, बाल मुनि, स्थविर, रोगी मुनि, तपस्वी,चैत्य और श्रमण संघ) ये दस* की🍱🥃🛋 *अन्न ,जल,आसन* वैगेरे से वैयावच्च करना❗
17 *संयमपद*: *चतुर्विध संघ के सभी विघ्नों को दूर करके मन मे समाधि उत्पन्न करना* ❗
18 *अभिनव ज्ञान पद*: अपूर्व ऐसे *सूत्र और अर्थ इन दोनों को प्रयत्न पूर्वक ग्रहण* करना❗
19 *श्रुतपद*: *श्रद्धा से, प्रकाशन से और *अवर्णवाद- निंदा को मिटाकर के 📚 श्रुतज्ञान की भक्ति करना*❗
20 *तीर्थपद*: *विद्या, निमित, कविता,वाद और धर्मकथा आदि से शाशन की प्रभावना करना*❗
इस बीस स्थानक में से एक एक पद की आराधना भी *तिर्थंकर नामकर्म* के बंध का कारण होती है,परंतु वज्रनाभ मुनि ने इन बीसों पद की आराधना करके *तिर्थंकर नाम कर्म का बंध* किया था❗
*बाहु मुनि ने साधुओ की सेवा करके चक्रवर्ती🤴🍻🎠 🏺🛋 के भोग- फलो को देने वाला कर्म बांधा*❗
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*58*
🌿🌿 तपस्वी मुनियो की सेवा 💆🏼♂💆🏼♂करने वाले *बाहु और सुबाहू मुनि ने लोकोत्तर बाहुबल👊🏻💪🏿 उर्पाजन किया*❗
तब वज्रनाभ तब वज्रनाभ मुनि ने कहा:" अहो❗ *साधुओं की 😷😷😷 वैयावच्च और सेवा करने वाले ये बाहु और सुबाहू मुनि 👏🏻👏🏻👏🏻 धन्य है*❗"
तब प्रशंसा सुन कर पीठ और महापीठ मुनियो ने सोचा की *जो लोंगोका उपकार करते है उन्ही की तारीफ 👌🏻👌🏻👌🏻 होती है*❗हम *दोनों आगमो का📕📖📚 अध्ययन और ध्यान* करने में। लगे रहे, *इसीलिए हमारी तारीफ़ कौन करेगा❓अथवा सभी लोग अपना काम करने वालो को ही मानते है*❗
*इस तरह की ईर्ष्या🔥 भावना से वे दोनों चलित हुए*❗
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
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*59*
*पीठ और महापीठ मुनियो ने माया मिथ्यात्व इर्ष्या युक्त भाव से बांधे हुए दुष्कृत्य💩 को आलोचना न करने से😴😴 , उन्होंने स्त्री नाम कर्म का🙍🏻🙍🏻 कर्म उपार्जन किया*❗
*उन छः महर्षियो ने *अत्तिचार रहित और तलवार 🗡🗡की धार के समान प्रवज्या* *को चौदह लाख पूर्व⌛⏳ तक पालन किया❗पीछे वह धीर गंभीर मुनि दोनों😷😷 प्रकार की *संलेखना- पूर्वक पादोपगमन अनशन 🤐🤐🤐 अंगीकार कर* *उस देह का त्याग किया*❗
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*60*
* *सागरचंद्र का वृतांत*
जम्बूदीप के पश्चिम🏰 महाविदेह में, *शत्रुओं से जो कभी पराजित नही हुई* ऐसी🏢 अपराजिता नामक नगरी में, *अपने बल💪🏿🤼♂ पराक्रम से जगत को जीतने वाला और लक्ष्मी💰💰 में ईशान इन्द्र 🤴🤴के समान* *ईशानचंद्र नामक👑 राजा था*❗
उसी नगरी में *चंदनदास👵 नामक सेठ* रहता था❗ उसके पास बहुत धन ,सम्पति 💵💸थी❗ वह धर्मात्मा पुरुषों में मुख्य और *दुनिया को सुख पहुचाने में चंदन के समान था*❗
उसके *सागरचंद्र* 👲नामक पुत्र था❗ उससे दुनिया की🏞 आंखे ठंडी होती थी❗ *समुद्र 🗾जैसे चंद्रमा🌚 को आनंदित करता है*, वैसे ही वह पिता को आनंदित ☺करता था❗ *स्वभाव से ही वह सरल, धार्मिक। और विवेकी* था❗ इससे सारे नगर में *महिमामंडित* हो गया था❗
कल आगे का भाग
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
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🌹श्री आदिनाथ चरित्र🌹
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*61*
एक दिन वह 🕍राजदरबार में गया❗ वहाँ राजा ⛩सिंहासन पर बैठा था❗ उसकी सेवा में 👳👳🏽♀👴🏻👱🏽चारो तरफ सामंत बैठे थे❗ *राजा ने सागरचंद्र को उसके पिता के समान आसन, 🛋🍭 ताम्बूलदान( पान बीड़ा) वैगेरे से सत्कार किया* और बड़ा स्नेह 😘😘जतलाया❗
उस समय कोई मंगलपाठक आया और📻📻 *शंख की ध्वनि को भी दबानेवाली ऊंची आवाज में कहने लगा," हे राजा, आज आपके उद्यान मे उद्यान पालिका--- मालिन- की तरह फूलो को सजानेवाली वसंतलक्ष्मी का आगमन हुआ है*❗ इसलिए खिले हुए सुगंध से दिशाओ के मुख को सुगंधित करने वाले बगीचे को, आप इसी तरह सुशोभित कीजिये जिस तरह *इन्द्र नंदनवन को सुशोभित करता है*" ,मंगलपाठक की बात सुनकर राजा ने द्वारपाल को👨🚒 हुक्म दिया--- अपने नगर में घोषणा 🥁🥁करदो की, *कल सवेरे सब लोग राजबाग में एकत्रित हो" इसके बाद सागरचंद्र को आज्ञा दी आप भी आईये* गा❗
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
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*62*
राजा से आज्ञा🙏🏼 पाकर सागरचंद्र खुशी 😌 खुशी अपने घर गया❗👱🏽अपने मित्र अशोकदत्त को यह बात बताई❗
दूसरे दिन *राजा अपने👨👩👧👦 परिवार सहित* बाग 🎄🎄में गया❗नगर के 👫👫लोग भी बाग मे आ गए❗कहते है ...
🌱🌱
*प्रजा सदा हि राजा का अनुकरण करती है*❗ सागरचंद्र भी अपने *मित्र अशोकदत्त के साथ उद्यान में जिस तरह मलय✨🌈 पवन के साथ वसंत ऋतुआती है❗ वहाँ कामदेव 🤴🤴के शाशन में सभी लोग फूल 🥀🌺चुनकर 💃🏽💃🏽🕺गीत, नाच वैगेरे क्रीड़ा करने लगे❗पद पद पर गायन और वाद्य🎷🥁🎻 कि ध्वनी इस तरह हो रही थी मानो वह दूसरे *इन्द्रियो के विषय को जीतने*
के लिए निकली है* *❗ नगर के लोग *इस बाग की तुलना कामदेव के बाग से करने लगे*❗
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
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*63*
राजोउद्यान में उसी समय किसी वृक्ष की गुफा में से "रक्षा करो,रक्षा करो " की आवाज़ किसी स्त्री की कंठ अकस्मात से निकली❗ उस आवाज़ के कान में पड़ते ही,उस से आकर्षित हुए समान सागरचंद्र " ये क्या है"❗ कहता हुआ संभ्रम के साथ वहाँ दौड़ गया❗ वहाँ जाकर उसने देखा कि, की जिस तरह व्याघ्र हिरनी को पकड़ लेता है: उसी तरह बंदिवनो ने पूर्णभद्र सेठ की पुत्री प्रियदर्शना को बदमाशोने पकड़ रखा है
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*64*
सागरचंद्र ने 👨💼 राजोउद्यान *में प्रियदर्शना को बदमाशो 🤑😎😎से इस तरह छुड़ाया मानो लकड़हारे के पास से आम्रलता 🍃🍃छुड़ाई जाती है*❗ उस समय *प्रियदर्शना 🙍🏻 सागरचंद्र की और आकर्षित हुई*❗उसी समय उस के मन 😘💏मे यह विचार आया" अहो❗ यह *परोपकारी सत्पुरुष कौन है*❓यह तो अच्छा ही हुआ मेरी👍🏻 सदभाग्य रूपी संपत्ति के कारण यह उपकारी यहाँ आया है❗ वह पुनः पुनः सागरचंद्र को निहारनेलगी❗ वह मन मे विचारने लगी" *कामदेव के रूप को तिरस्कार करने वाला यह पुरुष ही मेरा पति* हो❗"
इस तरह विचारती वह अपने घर की ओर रवाना हुई❗
*सागरचंद्र भी, मूर्ति स्थापित की गई हो इस तरह प्रियदर्शना को अपने हृदय - मंदिर में रखकर मित्र👬 अशोकदत्त के साथ घर गया*❗
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
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*65*
सागरचंद्र के *राजवाटिका🌼🌺☘ का पराक्रम 🤺उसके पिता के कानों में पड़ा क्योकि ऐसी बाते 🤗🤗किस तरह छिप सकती है❗ चंदनदास ने मन में विचार किया," इस पुत्र का💑 प्रियदर्शना पर प्रेम हुआ, यह उचित ही है ❗कारण..... 🍀🍀🍀 *कमलिनी की मित्रता 🤝 राजहंस से ही होती है*❗🍀🍀🍀🎍
परंतु उसने जो 💪🏿वीरता प्रकाशित की ,यह अनुचित हुआ❗कारण *पराक्रमी बनियो को अपना पराक्रम प्रकट नही 👊🏻करना चाइए*❗
फिर.... सागर का स्वभाव भी सरल है❗ *उसकी मित्रता 💩मायावी और 👿धूर्त अशोकदत्त से हुई है ये अयोग्य बात है*❗
*उसका साथ इस तरह बुरा है ,*जैसे 🍌🍌*केले के साथ *बेर 🍈🍈का संग अहितकर* होता है *❗" इस तरह विचार करता हुआ बहुत देर तक 🤔🤔 सोचने के बाद उसने *सागरचंद्र को अपने कक्ष🏛🏛 में बुलाया*❗
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
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*66*
सागरचंद्र 👦🏻को जिस तरह *उत्तम 🐘🐘हाथी को उसका महावत शिक्षा 👈देता है* वैसे ही देना शुरू किया❗
" हे पुत्र❗ सब 📚📚शास्त्रों का अभ्यास करने से तुम व्यवहार- को अच्छी तरह समझते हो, तो भी मैं तुमसे कुछ कहता हूँ❗ *हम बनिये( वणिक) कला-- कौशल से निर्वाह करने वाले है, इसलिए हमें सौम्य 😌स्वभाव व मनोहर वेश🤵 से रहना चाहिए❗ इस तरह रहने से निंदा नही होती:: इसलिए इस जवानी में 💪🏿💪🏿भी तुमको गूढ़ 🏇🏻🏇🏻 पराक्रमी( वीरता को गुप्त रखने वाला) होना चाहिये*❗वणिक ,सामान्य अर्थ के लिए भी आशंका वृत्ति वाले कहलाते है❗
*स्त्रियों का👰 शरीर जैसे ढका हुआ ही अच्छा लगता है वैसे ही, हमारी 💰💸संपत्ति, विषयक्रीड़ा 💏और दान ये सभी गुप्त ही अच्छे लगते है*❗
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
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*67*
चंदनदास ने आगे समजाते। हुए सागरचंद्र को कहा:: *जैसे ऊंट 🐪के पैरों में बंधा हुआ सोने का कंकण नही शोभता* वैसे ही ही अपनी जाति के लिए 🚷 *अयोग्य काम* करना हमे शोभा नही देता❗
इसलिए हे❗ प्रिय पुत्र❗ *अपने कुल परंपरा से आये हुए योग्य व्यवहार करनेवाले बनो*❗
जो अपने कुल में होता आया है वही तुम करो❗ *तुम्हें धन 💰💰की तरह गुण🗣 को भी गुप्त रखना चाहिए*❗जो *स्वभाव से कपटी 🤓🤡और दुर्जन है, उनकी संगति त्याग देना चाहिये*❗कारण::::
🍂🍂🍂 *दुर्जन की संगति पागल कुत्ते के जहर की तरह समय पाकर विकृत होती है-- नुकसान पहुँचाती है*❗🍂🍂🍂🍂
हे वत्स❗तेरा *मित्र अशोकदत्त* अधिक परिचय से तुझे इसी तरह दूषित करेगा *जिस तरह कोढ़👽 का रोग ,फैलने से शरीर को दूषित करता है*❗वह मायावी वेश्या👯 की तरह *मन मे जुदा ,वचनमे जुदा और कार्य मे जुदा होता है*❗
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*68*
चंदनदास सेठ प्रेमपूर्वक हितोपदेश 📖 😌 देकर चुप रहे,तब सागरचंद्र मन मे सोचने लगा,"पिताजी ऐसा उपदेश कर रहे है इसका अर्थ उन्हें 👩प्रियदर्शना संबंधी बात इनको मालूम 🗣हो गयी है❗ ऐसे उपदेश देने वाले लोग भाग्यशालियों को👏🏻👏🏻 मिलते है❗ ठीक है, इनकी इच्छा पूरी हो❗" थोड़ी देर विचार कर बोला:" पिताजी आप जो आदेश🙏🏼 करे, जो हुक्म दे वही मुझे करना चाहिए: क्योंकि मैं आप का पुत्र हूँ❗ जिस काम के करने में गुरुजनों की आज्ञा का 🚫उल्लंघन हो, उस काम के करने से अलग होना ही भला;लेकिन अनेक बार दैवयोग से ऐसे कार्य आ पड़ते है, जिनमे विचार 😇😇करने की थोड़ी गुंजाइश भी नही रहती है,विचार के लिए समय ⏳ही नही होता❗
🍂🍂 जिस तरह किसी किसी मूर्ख 🔔के पांव पवित्र करने में पर्व- वेला🔕 निकल जाती है: उसी तरह मनुष्य विचारते रहता है और समय निकल जाने से हानि होती है❗🍂🍂🍂🍂
ऐसे प्राण संकट काल में रहने पर भी, जान पर बन आने पर भी आपको शर्मिंदा नही करूँगा❗
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
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*69*
सागरचंद्र 👨अपने पिता को कहते है कि आप 🙏🏼 मुझ पर विश्वास रखिये की मैं ऐसा कोई कार्य नही करूँगा, *जिससे आपको लज्जा से सिर 🙇🏼🤦♂ नीचा करना पड़े*❗
आगे कहते है," आपने अशोकदत्त 👦🏻के बारे में जो कहा,मगर *मैं न तो उन दोषों से दूषित 🖕 हूँ और ना ही उसके 👌🏻गुणों से भूषित हूँ*❗ सदा का सहवास, रात दिन 🤝*एकसाथ रहना,, बार बार मिलना, 🤼♂खेलना, *समान 💰💰जाती, समान 📔📓विद्या, समान 👥शील, समान वय 👶👶🏽और परोक्ष में भी उपकारिता ,सुख दुःख एकसाथ हिस्सा लेना* आदि कारणों से मेरी मित्रता 🤷🏽♂👰 हुई है❗ *मुझे उसमे कोई कपट 🤓🤓😎नही दिखता है*❗ उसके सम्बंध में आपको किसीने 🗣🗣🗣 अवश्य ही कोई *झूठी* बातें कही है"❗
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
💁♂💁 *भगवान रुषभदेवजी/आदिनाथजी जीवन चरित्र* 🙋🙋♂
📚श्री आदिनाथ चरित्र📚
*70*
सागरचंद्र अपने पिता को पूरी तरह से अपनी और *अशोकदत्त कि मित्रता* के बारे में आश्वस्त करते हुए विनय पूर्वक कहता है,"
🍂🍂 *दुष्ट लोग दुःखी 😩😰😰करनेवाले होते है*❗🍂🍂
यदि *वह 🗿🗿 मायावी भी होगा तो भी वह मेरा क्या नुकसान 🤷🏽♂🤷🏽♂💰कर सकेगा*❗🎭
🐾 एकसाथ रखने पर *कांच 💎 कांच ही रहेगा और मणि मणि ही रहेगा*❗
सागरचंद्र इस तरह कहकर चुप हो गया, तब सेठ ने कहा👵 " पुत्र❗ यधपि तू बुद्धिमान है , तथापि मुझे कहना ही चाहीए:;
*पराये का अन्तःकरण जानना कठिन है उसके दिल मे क्या है यह जानना आसान नही"*❗
इस तरह सेठ ने कई बातों से आगे...... *संग ,असंग,गुण अवगुण आदि* के बारे में सागरचंद्र को सदुपदेश दिया❗
🌾🍁🐂🌾🍁🐂🌾🍁🐂🌾🍁🐂🌾🍁🐂🌾🍁🐂🌾🍁
*महावीर के उपदेश ग्रुप*
💁♂💁 *भगवान रुषभदेवजी/आदिनाथजी जीवन चरित्र* 🙋🙋♂
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*71*
*सागरचंद्र के मनोभावों💏 को समझ कर सेठ ने शिलादिक 🙍🏻गुणों👩 से परिपूर्ण प्रियदर्शना* की सागरचंद्र के लिए 🙏🏼 *पूर्णभद्र सेठ से मांगा*❗( प्राथना की) तब' *आपके पुत्र ने उपकार 👦🏻द्वारा मेरी पुत्री👩 को पहले ही खरीद ली है'* ऐसा। कह कर *पूर्णभद्र सेठ ने सागरचंद्र के पिता की बात स्वीकार 👍🏻👍🏻कर ली*❗ अर्थात अपनी कन्या देना स्वीकार👧 किया❗
।फिर, *शुभ दिन 🌝🌞और शुभ* 🌈💥लग्न मे* 🕰 उनके मातापिता👱🏻♀🎅🏻 ने ने। *सागरचंद्र के साथ🤴👰 प्रियदर्शना का बाजे 🎊🎷🎷 गाजे के साथ विवाह 🤝🤝कर दिया*❗ अनेक प्रकार 🚌🎠💸💰 की 💍🛍भेंट दी❗
*दोनों 💏💏 एक दूसरे को पाकर अत्यंत खुश हुए*❗
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
💁♂💁 *भगवान रुषभदेवजी/आदिनाथजी जीवन चरित्र* 🙋🙋♂
.📚श्रीआदिनाथ चरित्र📚
*72*
सागरचंद्र और प्रियदर्शना 🎀🎀 *मनचाहा बाजा बजने🎉🎉 पर* जिस तरह🤗🤗 खुशी होती है :: उसी तरह *मनोवांछित 💏विवाह होने से दोनों को हुई*❗ 👫 समान अन्त..करण होने से एक दिल एक आत्मा हो ,इस त्तरह *उन दोनों की प्रीति सारस 🦆🦆पक्षी की तरह बढ़ने 🌈🌈🌈लगी*❗
*चंद्र से 🌚⭐ चांदनी⭐जिस तरह शोभती है: उसी तरह निर्मल हृदय और सौम्य दर्शनवाली प्रियदर्शना सागरचंद्र से शोभने लगी❗ *चिरकाल से घटना घटाने वाले दैव ☃⛄🎲के योग से, उन शीलवान, रूपवान, और सरलहृदय 🎲स्त्री पुरुषो का उचित योग हुआ*--- अच्छा मेल 🤝🤝मिला❗
*आपस मे एक दूसरे का विश्वास होने से,👣 उन दोनों का आपस मे अविश्वास 👐🏼 तो हुआ ही नही*❗
🌿🌿🌿🌿क्योंकि *सरल हृदयवाले कभी विपरीत शंका 👆👉🏻👇नही करते है*❗
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
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📚श्री आदिनाथ चरित्र📚
*73*
एक दिन सागरचंद्र🚶 किसी काम से बाहर गया हुआ था❗ ऐसे ही समय *कुट्टिल 🤓अशोकदत्त उसके घर🏠 आया,* और उसकी पत्नी प्रियदर्शना 🙎🏼से बोला" *सागरचंद्र हमेशा धनदत्त सेठ की स्त्री 👩के साथ एकांत में 👥 मिलता जुलता है*❗ इस का क्या मतलब है❓ स्वभाव से 😌सरल प्रियदर्शना ने कहा---" *उसका मतलब आपका मित्र 🙅🏻जाने अथवा उनके साथ साथ सदा रहने वाले आप जाने*⁉ *व्यवसायी 👨👦🏻और बडे लोगो की एकांत 🌑सूचक काम को कौन जान सकता है*❓ और जो जाने भी तो घर मे में क्यो कहे⁉" तब अशोकदत्त😎😎 ने कहा" *तुम्हारे पति का उस स्त्री के साथ एकांत में मिलने जुलने का मतलब मैं जानता हूँ, पर 😬🤐कह कैसे सकता हूँ*❓"
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
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📚श्रीआदिनाथ चरित्र📚
*74*
दुष्ट 🤓 अशोकदत्त सागरचंद्र के बारे में सुशील 👩 प्रियदर्शना को किसी *दूसरी स्त्री👥 से एकांत में मिलने की बात* कहता है तब 🙄प्रियदर्शना पूछती है "इसमें उनका क्या प्रयोजन है"
⁉
तब अधम 👿अशोकदत्त कहता है *हे ,"सुंदरी 🙎🏼मृगनयनी❗ जो प्रयोजन मेरा🤝 तुम्हारे साथ है वही सागरचंद्र 💘💘का उसके साथ है"*❗
अशोकदत्त के ऐसा कहने पर भी उसके भावो को न समझकर सरला प्रियदर्शना ने पूछा," *तुम्हारा मेरे साथ क्या प्रयोजन है*❓
अशोकदत्त ने कहा," हे👱🏻♀ सुंदरी❗ *तेरे पति के सिवा, तेरे साथ क्या कोई अन्य रसीले 👲 पुरुष का समागम का प्रयोजन नही*⁉
*कानो में सुई 🙄😤😤जैसा,उसका एकएक शब्द सुनकर वह कुपित हुई क्रोध से 😱 कांप उठी*❗
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
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*75*
*अशोकदत्त कि इच्छा 😍😍को सूचित करनेवाले उसके वचन🗣👂🏻👂🏻 सुनकर वह रुष्ट होकर सिर 😠😠झुकाकर बोली," हे नराधम👿❗ हे निर्लज्ज👺❗ तुमने ऐसी बात सोची भी कैसे❓ अगर सोची तो जुबान🤒🤒 पर भी क्यो लाये❓ मूर्ख तेरे इस दु: साहस को धिक्कार है❗ और हे🗿 दुष्ट❗ मेरे महात्मा 👦🏻👦🏻पति को तू अपने समान होने की संभावना करता है, नीच❗तू मित्रता 🤝 के बहाने शत्रुता का काम कर रहा है❗ तुझे 👋👋धिक्कार है❗हे पापी❗ *हे 🤓 चांडाल❗ तू यहाँ से 🏃🏼🏃🏼चला जा❗ *एक क्षण भी खड़ा मत रह❗ तुझे देखने 😡😡से भी मुझे पाप होता है*❗
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
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*76*
*प्रियदर्शना से अपमानित 🤥😬होकर, अशोकदत्त चोर की तरह वहाँ से नौ दो ग्यारह 🚶🚶🚶हुआ*❗ *गोहत्या करने. वाले कि 🤢 तरह,अपने पाप की गठरी को अंधकार से मलिन 😫😩मुख से खीजता हुआ जा रहा था**,इतने में उसे सामने से आता सागरचंद्र दिख गया❗ सरल सागरचंद्र ने उससे आंखे चार होते ही पूछा--' मित्र❗ तुम दु: खि क्यो 🕺दिखाई दे रहे हो❓ *सागर की बात सुनते ही वह दीर्घ नि:श्वास त्याग कर,कष्ट से दुखी हुए समान, होंठो को चबाते हुआ, मा या के पहाड़ बनाकर वह कपटी बोला" हे भाई*❗
🌱🌱 *हिमालय पर्वत के नजदीक रहने वालों को सर्दी से ठीठुर ने का कारण जिस तरह प्रगट है :, उसी *तरह इस संसार मे बसने वाले के उद्ववेग का कारण भी प्रगट ही है*❗🌱🌱 आगे ओर नीचता से बोलता है ❗ *बुरे जगह के फोड़े की तरह, यह न तो छु छूपाया जा सकता है ना ही प्रगट किया जा सकता है*❗
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
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*77*
अशोकदत्त सागर को अपने *मन का कपट 😭😭😰 छुपाकर मगरमच्छ के आंसू दिखाकर चुप हो गया❗ निष्कपट 😌सागरचंद्र में विचार करता है'अहो❗ *यह 🎡संसार असार है, जिसमे ऐसे पुरुषो को भी 😴😴अकस्मात ऐसे संदेह के स्थान प्राप्त हो जाते है*❗
*धुंआ🌋🌋 जिस तरह अग्नि की सूचना देता है*: उसी तरह, :::
*धीरज से न सहने योग्य,इसके भीतरी उद्वग इनके 😥 😢 आंसू,जबरदस्ती सूचना देते है"*❗ इस तरह विचार करके सागरचंद्र दुखी स्वर से कहने लगा---- 'हे *बंधु❗ अगर कहने लायक हो तो इस समय 👬👬अपना दुख मुझे बताक़र अपने दुख का भार कम करो"*❗
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*78*
अशोकदत्त अपनी धूर्तता 🤓🤓😎भरी बातों से सागरचंद्र 🤔🤔
वह सोचता है की *मेरा मित्र जरूर संकट में है*❗
इधर अशोकदत्त कहता है,"'प्राण समान 🤝आप से *मैं कोई भी बात छुपाकर रख नही सकता,तब इस बात को कैसे छुपा सकता हूँ❓ आप जानते है *अमावस्या 🌑🌑की रात जिस तरह अंधेरा करती है: उसी तरह स्त्रियां 🙍🏻🙍🏻अनर्थ उत्पन्न करती है*❗
सागरचंद्र ने पूछा--- *भाई ❗तुम इस समय नागिन 🐍🐍जैसे किसी स्त्री के संकट में पड़े हो*❓
अशोकदत्त ने बनावटी लज्जा दिखाकर बोला *प्रियदर्शना मुझसे बहुत दिनों से अनुचित बात 👥❤❤कहा करती थी❗मैंने यह समझकर की कभी तो लाज 😔😔😩आएगी और यह खुद ही *ऐसी बातों से अलग हो जाएगी, मैने लज्जा के मारे कितनो दिन तक उसकी उपेक्षा की*, तो भी *वह कुलटा नारी योग्य बातें कहने से बंद नही हुई*❗
*अहो❗ स्त्रीओ का अनुचित आग्रह कितना होता है.*......
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
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📚 श्रीआदिनाथ चरित्र📚
*79*
कपटी 🤓अशोकदत्त आगे कहता है---हे मित्र❗ आज *मैं तुमसे मिलने 🏢तुम्हारे घर गया था❗तब छल-कपट से भरी हुई उस स्त्री ने 🗿राक्षसी की तरह मुझे रोका*❗ *मगर हाथी🐘🐘 जैसे बंधन से छूटता है उसी तरह उसके पंजे 💅🏼से बड़ी कठिनाई से छूटकर* जल्दी जल्दी 🏃🏼🏃🏾वही से आ रहा हूँ❗ मैंने रास्ते मे सोचा," *यह स्त्री मुझे जीता 🤦♂🤦♂ना छोड़ेगी इसलिए मुझे आत्मघात 🔫🔫कर लेना चाहिये* मगर मरना भी तो ठीक नही है❗कारण यह स्त्री *मेरे लिए मेरी अनुपस्थिति में 🗣🗣मेरे मित्र से इन सब बातों से विपरीत कहेगी*: इसलिए क्यो न मैं स्वयं ही अपने मित्र को सारी बात बता दूं: *जिससे वह स्त्री 👱🏻♀पर विश्वास करके अपना नाश न करे*❗अथवा यह भी ठीक नही क्योंकि *यह तुम्हारे घाव पर नमक छिड़कने वाली बात* होगी❗
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
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*79*
कपटी 🤓अशोकदत्त आगे कहता है---हे मित्र❗ आज *मैं तुमसे मिलने 🏢तुम्हारे घर गया था❗तब छल-कपट से भरी हुई उस स्त्री ने 🗿राक्षसी की तरह मुझे रोका*❗ *मगर हाथी🐘🐘 जैसे बंधन से छूटता है उसी तरह उसके पंजे 💅🏼से बड़ी कठिनाई से छूटकर* जल्दी जल्दी 🏃🏼🏃🏾वही से आ रहा हूँ❗ मैंने रास्ते मे सोचा," *यह स्त्री मुझे जीता 🤦♂🤦♂ना छोड़ेगी इसलिए मुझे आत्मघात 🔫🔫कर लेना चाहिये* मगर मरना भी तो ठीक नही है❗कारण यह स्त्री *मेरे लिए मेरी अनुपस्थिति में 🗣🗣मेरे मित्र से इन सब बातों से विपरीत कहेगी*: इसलिए क्यो न मैं स्वयं ही अपने मित्र को सारी बात बता दूं: *जिससे वह स्त्री 👱🏻♀पर विश्वास करके अपना नाश न करे*❗अथवा यह भी ठीक नही क्योंकि *यह तुम्हारे घाव पर नमक छिड़कने वाली बात* होगी❗
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
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*80*
कपटी अशोकदत्त सागरचंद्र को प्रियदर्शना के बारे में *अनाप शनाप🗿🎭 बताकर मगरमच्छ के आँसु😥😰 बहाकर *यह बताने में सफल हो गया कि प्रियदर्शना दु:शिला 🙍🏻 नारी हैं*❗आगे कहता है कि "प्रियदर्शना से पिंड छुड़ाकर अभी मैं तुम्हारे🏢 घर की ओर से🚶 आ रहा था की तुंमने🕺 मुझे देखा❗ *हे भाई यही मेरे दुःख कारण है*❗"
*अशोकदत्त की बातें ☝🏾 सागरचंद्र 🤦♂को ऐसी लगी मानो🍷 😱हलाहल ( भयंकर विष) का पान किया हो❗ *वह पवन रहित समुद्र की 🌊भांति स्थिर हो गया*❗फिर थोड़ा संयत होकर बोला" बंधु❗
*स्त्रियों से ऐसी ही आशा है: कारण खारी जमीन के तल में हमेशा खारा जल ही होता है*❗ हे मित्र *अब तुम खेद 😒मत करो,अच्छे काम मे लगे रहो और उसकी बातों को याद मत करो❗भाई,वह जैसी हो,भले ही वैसे ही रहे,: परंतु *हम मित्रों 👥के मन मे मलिनता 🤝नही आनी चाहिए*❗"
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
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📚श्रीआदिनाथ चरित्र📚
*81*
अशोकदत्त सरल सागरचंद्र को 😧 *मनगढंत कहानी* बनाकर उसका *विश्वास🤝 जितने में सफल हो गया*❗ सागरचंद्र के अनुनय 🙏🏼 विनय *वह 🤓अधम और खुश हो गया*❗
🍂🍂,*क्योंकि *मायावी लोग *अपराध 🎭🎭करकर भी अपनी आत्मप्रशंसा कराते है*❗🍂🍂
उस दिन से *सागरचंद्र ने प्रियदर्शना को 💔💔प्यार करना छोड़ दिया,नीस्नेह🖤 होकर,रोगवाली अंगुली की तरह,उसके साथ 😣👨👧रहने लगा*❗फिर भी *उसके साथ पहले की तरह बर्ताव रखा*❗
क्योकि☘☘☘
*अगर अपने हाथों से लगाई हुई लता। अगर बांझ 🌵🌵🌵भी हो जाय तो नही उखाड़ते*❗
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
💁♂💁 *भगवान रुषभदेवजी/आदिनाथजी जीवन चरित्र* 🙋🙋♂
📚श्री आदिनाथ चरित्र📚
*82*
प्रियदर्शना ने यह🤔😴 सोचकर, कि *मेरी वजह से इन दोनों की मित्रो का वियोग 🙅🏾♂🙅🏻♂न हो जाय, अशोकदत्त के संबंध वृतांत अपने पति से न कहा*❗
सागरचंद्र *संसार को 🤦♂🏟 जेल खाना समझकर, अपनी सारी💰💰💵💸 धनदौलत को दीन 😰😪और अनाथों को दान करके कृतार्थ करने लगा*❗ समय आने पर प्रियदर्शना, अशोकदत्त और सागरचंद्र तीनों ने अपनी-अपनी उम्र पूरी करके देह त्याग दी❗
🌈🌼🌼🌼🌈🌼🌼
सागरचंद्र और प्रियदर्शना *जम्बूदीप 🌄🌉में,भरत क्षेत्र के दक्षिण खंड में,गंगासिन्धु 🗾🗾के मध्यप्रदेश में युगलिक 🎎उतपन्न हुए*❗
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
💁♂💁 *भगवान रुषभदेवजी/आदिनाथजी जीवन चरित्र* 🙋🙋♂
📚श्रीआदिनाथ चरित्र📚
*83*
जब वे दोनों युगलिक पने उत्पन्न हुए तब *अवसर्पिणी के तीसरे आरे में पल्योपम का आठवा भाग शेष था*❗
*पांच भरत और पांच *ऐरावत क्षेत्रो में समय की व्यवस्था करने का🎆🌠 *कारणरूप बारा आरो का एक कालचक्र 🎡गिना जाता है*❗
अवसर्पिणी काल के छः आरे है❗ वे इस प्रकार है❗
1⃣ *एकांत सुषमा*------ यह *चारकोटकोटी⏳⌛ सागरोंपम* का होता है❗
2⃣* *सुषमा*-----यह *तीन कोटकोटी सागरोपम* का होता है❗
3⃣ *सुषमा दुखमा*-----यह *दो कोटकोटी सागरोपम का होता है*❗
4⃣दुखमा सुषमा----यह *बयालीस हज़ार काम एक कोटाकोटी सागरोपम* का होता है❗
5⃣ दुखमा यह *इक्कीस हज़ार वर्ष* का होता है❗
6⃣ *एकांतदुखमा*------यह भी *इक्कीस हज़ार वर्ष* का होता है❗
🍁जिस तरह अवसर्पिणी कहे उसी तरह उत्सर्पिणि के भी *प्रतिलोम क्रम* से समझने चाहिए❗🍁
🍃🍃 *अवसर्पिणी *और उत्सर्पिणी काल की कुल संख्या मिलाकर बीस *कोड़ाकोड़ी सागरोपम होती है*❗ उसे *कालचक्र कहते है*❗
(६) राजा सुविधिकुमार
श्रीधर देव का जीव ईशान स्वर्ग से च्युत होकर जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह क्षेत्र में महावत्सा देश की सुसीमा नगरी के राजा सुदृष्टि की रानी सुंदरनंदा के गर्भ में आ गया। नव माह बाद सुंदरनंदा ने पुत्र रत्न को जन्म दिया। उसके अनेक उत्तम-उत्तम लक्षणों को देखकर परिवार के जनों ने उसका सुविधि यह नाम रखा। यह बालक माता-पिता एवं प्रजाजनों के हर्ष को बढ़ाते हुए धीरे-धीरे तरुण अवस्था को प्राप्त हो गया। वहीं विदेह क्षेत्र में अभयघोष नाम के चक्रवर्ती थे, उनकी एक पुत्री का नाम मनोरमा था। चक्रवर्ती ने अपनी पुत्री मनोरमा का विवाह राजकुमार सुविधि के साथ कर दिया। इधर राजा सुदृष्टि ने भी सुविधि को सर्वगुणों से युक्त देखकर उसे अपना राज्य सौंप दिया। राजा सुविधि अपनी रानी मनोरमा के साथ धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ का सेवन कर रहे थे। इसी मध्य ईशान स्वर्ग के श्रीप्रभ देव का जीव रानी के गर्भ में आ गया, नव माह बाद पुत्र रत्न उत्पन्न हुआ। उसका नाम ‘केशव’ रखा। राजा वङ्काजंघ की पर्याय में जो रानी श्रीमती का जीव था और जिसने भोगभूमि में ‘आर्या’ की पर्याय में श्रीगुरु से सम्यग्दर्शन धारण किया था। अतएव सम्यक्त्व के माहात्म्य से जिसने स्त्रीपर्याय से छूटकर ईशानस्वर्ग में श्रीप्रभ देव के वैभव को प्राप्त किया था, वही श्रीमती पत्नी का जीव इस भव में राजा का पुत्र हो गया है। वास्तव में पुत्र ही पिता के लिए अतीव स्नेह बन्धन का कारण होता है पुनः वह यदि पूर्वभवों में प्रिय पत्नी के रूप में रहा हो तो भला उसके प्रति प्रेम का क्या कहना? यही कारण था कि राजा सुविधि का अपने पुत्र केशव के प्रति अप्रतिम स्नेह था।
इधर वङ्काजंघ राजा के द्वारा वन में आहारदान के समय जो सिंह, नकुल, वानर और सूकर पशुओं ने दान की अनुमोदना से पुण्यसंचित कर भोगभूमि के सौख्य को पाया था पुनः वे चारों ही द्वितीय स्वर्ग में देव हुए थे। वे चारों ही देव अपनी-अपनी आयु पूर्ण कर स्वर्ग से च्युुत होकर उसी विदेहक्षेत्र में क्रम से वरदत्त, वरसेन, चित्रांगद और प्रशान्तमदन नाम के राजपुत्र हो गये। ये सभी समान आकार, समान रूप और समान वैभव को धारण करने वाले अपने-अपने योग्य राज्यलक्ष्मी को पाकर सुख का अनुभव करते थे।
एक समय भगवान् विमलवाहन का समवसरण वहाँ आया हुआ था। अभयघोष चक्रवर्ती और वे वरदत्त आदि चारों राजा अपने अनेक परिकर को लेकर भगवान् की वंदना करने के लिए गये। भगवान् की वंदना, भक्ति करके प्रभु का दिव्य उपदेश सुना। साथ में हजारों-हजारों राजा थे। चक्रवर्ती को प्रवचन सुनने के बाद वैराग्य हो गया। संसार की क्षणभंगुरता को जानकर सम्राट् चक्रवर्ती ने चारों राजा समेत अठारह हजार राजाओं के साथ एवं अपने पाँच हजार राजपुत्रों के साथ वहीं समवसरण में दैगंबरी दीक्षा ले ली और महामुनि बन गये।
राजा सुविधि को जब यह समाचार विदित हुआ तब उसे धर्मप्रेम के साथ आश्चर्य भी हुआ तथा रानी मनोरमा को पिता व पाँच हजार भ्राताओं की एक साथ मुनिदीक्षा सुनकर बहुत ही शोक हुआ, वह मोह के वशीभूत हो विलाप करने लगी-
हे पिताजी! आपने सम्पूर्ण राज्य को, सम्पूर्ण अन्तःपुर को एवं सम्पूर्ण प्रजा को कैसे अनाथ कर दिया? अब यह चक्ररत्न किसकी आज्ञा में रहेगा? रानी के शोक को दूर करने के लिए राजा सुविधि ने उन सभी मुनियों की वंदना के लिए प्रस्थान किया। वहाँ समवसरण में पहुँचकर भगवान् विमलवाहन की वंदना-स्तुति की पुनः पूजा करने के बाद चक्रवर्ती महामुनि के चरणों में नमस्कार किया। मनोरमा ने अपने पूज्य पिता के चरणों की वंदना करके शोक और मोह को छोड़कर हर्षितमना हो हाथ जोड़कर स्तुति करना प्रारंभ किया-
हे भगवन् ! आप धन्य हैं, आपने छह खण्ड के वैभव को, चक्ररत्न को एवं सर्व आरंभ-परिग्रह को छोड़कर अपनी आत्मा को परमात्मा बनाने के लिए यह अर्हंत मुद्रा धारण की है। आपकी भक्ति करके मैं भी अपनी आत्मा को परमात्मा बनाने के पुरुषार्थ में लगा सकू ऐसी मुझे शक्ति प्राप्त हो, मैं यही याचना करती हूँ।
अनन्तर क्रम-क्रम से सभी भाइयों के चरणों में नमोऽस्तु करते हुए और आनंदाश्रु से उनके चरणों का प्रक्षालन करते हुए सभी के गुणों की स्तुति करके अपने कोठे में आकर बैठ गई।
राजा सुविधि मनोरमा के साथ प्रभु का दिव्य उपदेश सुनकर अपने राज्य में वापस आ गये।
एक दिन राजा सुविधि चिन्तन करते हैं-
अहो! मेरे श्वसुर ने और मेरे चारों साथी राजाओं ने तथा पाँच हजार मेरी पत्नी के भाइयों ने-मेरे सालों ने मुनि दीक्षा ले ली, उन्होंने एक क्षण में इतने विशाल चक्रवर्ती साम्राज्य को छोड़ दिया। मेरा राज्य तो उसके आगे बहुत ही अल्प है फिर भी मैं नहीं छोड़ पा रहा हूँ। वास्तव में राज्य को, रानी को एवं सब कुछ परिग्रह को छोड़ना सरल है, मुझे कुछ भी कठिन नहीं लगता किन्तु मैं भला इस ‘केशव’ पुत्र को वैâसे छोड़ँ? इसके स्नेहबंधन को छोड़ना ही आज मेरे लिए दुष्कर हो रहा है।
इत्यादि प्रकार से चिन्तन कर राजा ने क्रम-क्रम से ग्यारह प्रतिमा के स्थान को प्राप्त कर क्षुल्लक दीक्षा धारण कर ली।१
१. दर्शन प्रतिमा
२. व्रत प्रतिमा
३. सामायिक प्रतिमा
४. प्रोषधप्रतिमा
५. सचित्तत्याग प्रतिमा
६. दिवामैथुनत्याग प्रतिमा अथवा रात्रि भोजन त्याग प्रतिमा
७. ब्रह्मचर्य प्रतिमा
८. आरम्भत्याग प्रतिमा
९. परिग्रहत्याग प्रतिमा
१०. अनुमतित्याग प्रतिमा
११. उद्दिष्टत्याग प्रतिमा।
इन ग्यारह प्रतिमाओें के धारी क्षुल्लक उत्कृष्ट श्रावक कहलाते हैं।
इस प्रकार सम्यग्दर्शन से पवित्र व्रतों की शुद्धता को प्राप्त हुए राजर्षि सुविधि ने बहुत काल तक मोक्ष मार्ग की उपासना की थी।
अनन्तर जीवन के अन्त में सर्व परिग्रह का त्याग कर दैगंबरी दीक्षा ग्रहण कर ली और समाधिपूर्वक शरीर का त्याग कर अच्युत स्वर्ग में इंद्र पद प्राप्त कर लिया। पुत्र केशव ने भी निग्र्रंथ दीक्षा ग्रहण कर आयु के अंत में शरीर को छोड़ कर सोलहवें स्वर्ग में प्रतीन्द्र पद प्राप्त कर लिया। वरदत्त आदि चारों राजाओं ने जो दीक्षा ली थी, वे भी वहीं यथायोग्य सामानिक जाति के देव हो गये।
(७) अच्युतेन्द्र
सोलहवें स्वर्ग में इन्द्र की उपपाद शय्या से सुविधि महामुनि का जीव नवयौवन के रूप में ऐसे उठ कर बैठ गया कि मानों जैसे सोकर ही उठ कर बैठा हो। इंद्र के जन्म लेते ही अन्य देवगण ‘जय-जय’ शब्दों का उच्चारण करते हैं, आनन्दरूप बाजे बजने लगते हैं, तब इंद्र अपने अवधिज्ञान से अपनी उत्पत्ति को जानकर सामने खड़े हुए देवपरिवार को देखकर धर्म की प्रशंसा करते हैं-
अहो! धर्म की महिमा अपरम्पार है कि जहाँ मनुष्यलोक से प्राणी इस स्वर्गलोक में आ जाता है।
पुनः सर्वप्रथम इंद्र ने सरोवर में स्नान कर वस्त्रालंकारों को धारण कर अपने विमान के जिनमंदिर में प्रवेश किया। भक्तिभाव से जिनप्रतिमाओं की वंदना की, भक्तिपूर्वक स्तोत्र पाठ किया, अनन्तर जिनबिंबों का अभिषेक-पूजन किया।
इन्हें अणिमा, महिमा आदि आठ ऋद्धियाँ प्राप्त थीं। बाईस सागर प्रमाण यहाँ की आयु थी। इनके अधिकार में एक इंद्रक विमान, पैंतीस बड़े-बड़े श्रेणीबद्ध विमान और एक सौ तेईस प्रकीर्णक विमान-ऐसे एक सौ उनसठ विमान थे। तेंतीस त्रायस्त्रिंश देव, पुत्र के समान थे। दश हजार सामानिक देव और चालीस हजार आत्मरक्ष देव थे। तीन प्रकार की सभा में अन्तःपरिषद में एक सौ पच्चीस देव, मध्यमपरिषद में दो सौ पचास देव और बाह्यपरिषद में पाँच सौ देव थे। चारों दिशाओं की रक्षा करने वाले चार लोकपाल थे।
इन अच्युतेन्द्र की आठ महादेवियाँ थीं। त्रेसठ बल्लभिका देवियाँ थी। एक-एक महादेवी ढाई सौ-ढाई सौ अन्य देवियों से घिरी रहती थीं। इस इंद्र की प्रत्येक देवी अपनी विक्रिया से दश लाख चौबीस हजार सुन्दर स्त्रीरूप बना सकती थी।
हाथी, घोड़े, रथ, पियादे, बैल, गंधर्व और नृत्यकारिणी के भेद से इंद्र की सेना में सात कक्षाएँ थीं। पहली सेना में बीस हजार हाथी थे, फिर आगे की कक्षाओं में दूनी-दूनी संख्या थी, इस प्रकार इंद्र की यह विशाल सेना थी।
इस इंद्र की एक-एक देवी की तीन-तीन सभाएँ थीं। उनमें से पहली सभा में २५ अप्सराएँ थीं, दूसरी सभा में ५० एवं तीसरी सभा में १०० अप्सराएँ थीं।
इस अच्युतेन्द्र का इंद्राणियों के साथ मैथुन मानसिक था। ये बाईस हजार वर्षों में एक बार मानसिक आहार लेते थे। ग्यारह महिने मेेंं एक बार श्वासोच्छ्वास लेते थे और इनके शरीर की अवगाहना तीन हाथ प्रमाण थी।
ये इंद्र अपनी इंद्राणी और अनेक परिवार देवों के साथ भगवान के पंचकल्याणकों में जाकर अतिशय भक्ति किया करते थे।
कभी-कभी इन्द्र की सभा में अप्सराओं के नृत्य हुआ करते थे, जिसमें तीर्थंकर भगवंतों के गुणानुवाद गाए जाते थे। इस तरह संगीत, नृत्य आदि के द्वारा मनोरंजन करते-कराते बहुत सा काल इंद्रराज का व्यतीत हो रहा था।
ये अच्युतेन्द्र नंंदीश्वर द्वीप में वर्ष में तीन बार आष्टान्हिक पर्व में पहुँचते थे। वहाँ असंख्य देव परिकर के साथ मिलकर नंदीश्वर के बावन जिनमंदिरों में विराजमान जिनप्रतिमाओं का अभिषेक करके विशेष-संगीत, नृत्य आदि से चौबीस घण्टे अखण्ड पूजा करते थे। प्रत्येक जिनमंदिर में १०८-१०८ जिनप्रतिमाएँ वहाँ विराजमान हैं। प्रत्येक जिनप्रतिमा के आजू-बाजू में श्रीदेवी, लक्ष्मीदेवी और श्रुतदेवी-सरस्वती देवी विराजमान रहती हैं तथा सर्वाण्ह यक्ष और सनत्कुमार यक्ष की मूर्तियाँ भी रहती हैं। इसी तरह आठ-आठ मंगल द्रव्य एक-एक प्रतिमाओं के गर्भगृह में रहते हैं जो कि प्रत्येक १०८-१०८ रहते हैं।
कहा भी है-
सिरिदेवी सुददेवी, सव्वण्हसणक्कुमारजक्खाणं।
रूवाणि य जिणपासे, मंगलमट्ठविहमवि होदि।।
आठ दिन तक लगातार चारों निकायों के देव-भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी और कल्पवासी देवगण वहाँ आठवें नंदीश्वर द्वीप में पूजा करते रहते हैं पुनः वहाँ पूजा पूर्ण कर वापसी में ढाई द्वीप के अंतर्गत सुदर्शनमेरु, विजयमेरु, अचलमेरु, मंदरमेरु और विद्युन्मालीमेरु की तीन-तीन प्रदक्षिणा देकर पूजा, भक्ति करके अपने-अपने स्वर्गों में चले जाते हैं।
जम्बूद्वीप में सुदर्शनमेरु है जो कि विदेहक्षेत्र के ठीक मध्य में स्थित है। धातकीखण्ड में पूर्वधातकी खण्ड में विजयमेरु एवं पश्चिमधातकी खण्ड में अचलमेरु है। पुष्करार्ध द्वीप में पूर्व पुष्करार्ध में मंदरमेरु एवं पश्चिम पुष्करार्ध में विद्युन्माली मेरु है। धातकी खण्ड में दक्षिण और उत्तर में इष्वाकार पर्वत होने से इसके पूर्वधातकीखण्ड और पश्चिमधातकीखण्ड ऐसे दो भेद हो गये हैं। ऐसे ही पुष्करद्वीप में बीचों-बीच में मानुषोत्तर पर्वत होने से उसके आधे भाग में कर्मभूमि है-मनुष्यों का अस्तित्व है और मानुषोत्तर से परे मनुष्यों का अस्तित्व नहीं है अतः वहाँ मात्र तिर्यंचों की भोगभूमि है। मानुषोत्तर के इधर के भाग में दक्षिण-उत्तर में इष्वाकार पर्वतों के होने से इस पुष्करार्ध के भी पूर्व-पश्चिम ऐसे दो भाग हो गये हैं। इन्हीं के पूर्व में मंदरमेरु एवं पश्चिम में विद्युन्माली मेरु हैं।
प्रथम स्वर्ग से लेकर सोलहवें स्वर्ग तक के इंद्र एवं देवगण अपनी इंद्राणी, देवी आदि के साथ मध्यलोक में आते रहते हैं और सुमेरु पर्वत से लेकर तेरहद्वीपों के ४५८ ऐसे अकृत्रिम जिनमंदिरों की वंदना किया करते हैं। इन अच्युत स्वर्ग से ऊपर के सभी देव ‘अहमिंद्र’ कहलाते हैं। उनके न तो देवियाँ हैं न परिवारदेव ही हैं। वे अपने स्थान से ही अपने-अपने विमानों में स्थित जिनमंदिरों में विराजमान जिनबिंबों की पूजा करते हैं, यहाँ मध्यलोक में उनका आना-जाना नहीं है।
इस प्रकार वह अच्युतेन्द्र अपने प्रतीन्द्र के साथ पूरे स्वर्ग के सुखों का अनुभव करके वहाँ जीवन भर जो जिनेन्द्रभक्ति-पूजा से महान् पुण्य अर्जित किया था उसके फलस्वरूप अपनी आयु के अंत में वहाँ से च्युत होकर यहाँ मध्यलोक में विदेह क्षेत्र में रानी श्रीकांता के गर्भ में आ गया और जन्म लेकर चक्रवर्ती ‘वङ्कानाभि’ हो गया।
(८) चक्रवर्ती वङ्कानाभि
जम्बूद्वीप से पूर्व विदेह में पुष्कलावती देश है। उसकी पुण्डरीकिणी नगरी में राजा वङ्कासेन राज्य करते थे जो कि तीर्थंकर थे। उनकी रानी का नाम श्रीकांता था।
सुविधि राजर्षि, जो कि अच्युतेन्द्र हुए थे, उनका जीव स्वर्ग से चयकर श्रीकांता रानी के ‘वङ्कानाभि’ नाम का पुत्र हुआ। पहले कहे हुए सिंह, सूकर, वानर और नकुल के जीव भी, जो कि अच्युत स्वर्ग में सामानिक देव हुए थे, वे उन्हीं रानी से क्रमशः विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित नाम के पुत्र हो गये। वङ्काजंघ की पर्याय में जो मतिवर आदि मंत्री के जीव थे, वे राजा वङ्काजंघ के मरने के बाद दीक्षा लेकर अंत में मरकर ग्रैवेयक में अहमिंद्र हुए थे, वे भी उन्हीं श्रीकांता रानी के क्रमशः सुबाहु, महाबाहु, पीठ और महापीठ नाम के पुत्र हो गये। श्रीमती का जीव केशव, जो कि अच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्र हुआ था, वह भी वहाँ से चयकर उसी नगरी में कुबेरदत्त वणिक् की अनंतमती भार्या से ‘धनदेव’ नाम का पुत्र हो गया जो कि चक्रवर्ती वङ्कानाभि का गृहपति रत्न हुआ है।
किसी समय तीर्थंकर वङ्कासेन को वैराग्य होते ही लौकांतिक देवों ने आकर प्रभु की पूजा-स्तुति करके दीक्षा की अनुमोदना की। राजा वङ्कासेन ने भी युवा पुत्र वङ्कानाभि को समस्त पृथ्वी का राज्यभार सौंप पट्ट बाँध करके मुकुटबद्ध राजाओं से नमस्कार कराते हुए ऐसा आशीर्वाद दिया ‘तू बड़ा भारी चक्रवर्ती हो’ और आप देवों द्वारा आनीत पालकी में बैठकर आम्रवन में पहुँचे, जहाँ एक हजार राजाओं के साथ स्वयं दीक्षा ग्रहण कर ली। इधर राजा वङ्कानाभि की आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ और उधर पिता वङ्कासेन को केवलज्ञान प्रगट हो गया था। राजा वङ्कानाभि चक्ररत्न से छह खंड वसुधा को जीतकर छियानवे हजार रानियों से युक्त एकछत्र साम्राज्य का उपभोग कर रहे थे। किसी समय पिता वङ्कासेन तीर्थंकर से धर्मोपदेश सुनकर सम्पूूर्ण साम्राज्य को जीर्ण-तृण के समान मानकर एक क्षण में त्याग कर दिया और सोलह हजार मुकुटबद्ध राजाओं, एक हजार पुत्रों, आठ भाइयों और धनदेव के साथ-साथ मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से पिता वङ्कासेन तीर्थंकर के समवसरण में ही जैनेश्वरी दीक्षा ले ली।
तेरह प्रकार का चारित्र, बारह प्रकार का तप, बाईस परीषह आदि उत्तर गुणों का पालन करते हुए उन मुनिराज ने तीर्थंकर के पादमूल में सोलहकारण भावनाओं का चिंतवन किया था।
उन सोलहकारण भावनाओं के नाम निम्न प्रकार हैं-
१. दर्शनविशुद्धि
२. विनयसंपन्नता
३. शीलव्रतेष्वनतिचार
४. अभीक्ष्णज्ञानोपयोग
५. संवेग
६. शक्तितस्त्याग
७. शक्तितस्तप
८. साधु समाधि
९. वैयावृत्यकरण
१०. अर्हद्भक्ति
११. आचार्यभक्ति
१२. बहुश्रुतभक्ति
१३. प्रवचनभक्ति
१४. आवश्यक अपरिहाणि
१५. मार्गप्रभावना और
१६. प्रवचनवत्सलता।
सम्यग्दर्शन को विशुद्ध रखना, विनय से सम्पन्न होना, शीलव्रतों में अतिचार न लगाना, नित्य ही ज्ञानोपयोग में लीन रहना, संसार से भीरुता, शक्ति के अनुसार तप करना, ज्ञान और संयम के साधनभूत पदार्थों का त्याग (दान) करना, साधुओं के व्रतादि में विघ्न आने पर उन्हें दूर करना, साधुओं की वैयावृत्ति करना, अरहंत भगवान् की भक्ति, आचार्य की भक्ति, बहुश्रुत मुनियों की भक्ति और प्रवचन की भक्ति करना, आवश्यक क्रियाओं का पूर्णरूप से पालन करना, जैन धर्म की प्रभावना करना तथा धर्मात्माओं में अखंड प्रेम रखना, इस प्रकार की सोलह भावनाओं का उत्कृष्ट रीति से चिंतन करते हुए उन धीर-वीर वङ्कानाभि मुनिराज ने तीन लोक में क्षोभ उत्पन्न करने वाली तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया।
उन मुनिराज को ऋद्धियों की बिल्कुल भी इच्छा नहीं थी फिर भी अणिमा, महिमा आदि गुणों सहित विक्रिया ऋद्धि प्रगट हो गई। कोष्ठ बुद्धि, बीज बुद्धि आदि बुद्धि ऋद्धियाँ भी उत्पन्न हो गर्इं। जगत् का हित करने वाली जल्लौषधि, सर्वौषधि आदि ऋद्धियों ने भी उनका वरण किया, यद्यपि मुनिराज ने घी, दूध आदि रस का त्याग कर दिया था तो भी घी, दूध आदि को झराने वाली अनेकों रस ऋद्धियाँ भी प्रगट हुई थीं। वे बल ऋद्धि के प्रभाव से कठिन से कठिन परीषह भी सह लेते थे।
अक्षीण ऋद्धि के बल से वे जिस दिन जिस घर में आहार लेते थे, उस दिन उस घर में अन्न अक्षय हो जाता था-चक्रवर्ती के कटक को भोजन कराने पर भी वह भोजन क्षीण नहीं होता था। इस प्रकार वे मुनिराज सदैव छठे-सातवें गुणस्थान में चढ़ते-उतरते रहते थे।
परिणामों की विशुद्धि से वे सातिशय अप्रमत्त नाम सातवें गुणस्थान से आगे बढ़कर उपशम श्रेणी में चढ़ गये अर्थात् आठवें, नवमें, दशवें और ग्यारहवें गुणस्थान में पहुँच गये। अन्तर्मुहूर्त के अनन्तर वे मुनि नीचे उतर कर पुनः स्वस्थान अप्रमत्त नामक सातवें गुणस्थान में स्थित हो गये। उसका खास कारण यह है कि ग्यारहवें गुणस्थान की स्थिति अन्तर्मुहूर्त ही है। तत्पश्चात् आयु के अंत में श्रीप्रभ पर्वत पर पहुँचकर वङ्कानाभि महामुनि ने प्रायोपगमन संन्यास ग्रहण कर लिया। वे उस समय स्वयं तथा पर से किंचित् भी शरीर का उपचार नहीं करते थे, न कराते ही थे। उस समय उनके शरीर में चर्म और हड्डी मात्र ही शेष रह गई थी, तो भी वे निश्चलचित्त निराकुलता से ध्यानस्थ थे।
वे द्वितीय बार उपशम श्रेणी पर आरूढ़ हुए और पृथक्त्ववितर्क नामक शुक्लध्यान को पूर्ण कर उत्कृष्ट समाधि को प्राप्त हुए। अंत में उपशांतमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान में प्राण छोड़कर सर्वार्थसिद्धि पहुँचे और वहाँ अहमिंद्र पद को प्राप्त हो गए।
(९) सर्वार्थसिद्धि के अहमिंद्र देव
वङ्कानाभि चक्रवर्ती उपशम श्रेणी में ध्यान में आरूढ़ थे, उनकी आयु पूर्ण हो गई और उन महामुनि ने शुक्ल- ध्यान के प्रभाव से तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठ ऐसे सर्वार्थसिद्धि नाम के विमान में जन्म धारण किया। यह विमान लोक के अंतिम भाग से बारह योजन नीचे है अर्थात् इस विमान से बारह योजन ऊपर सिद्ध शिला है। इसकी लम्बाई-चौड़ाई और गोलाई जम्बूद्वीप के बराबर है-एक लाख योजन है। यह स्वर्ग के त्रेसठ पटलों के अंत में चूड़ामणि रत्न के समान स्थित है। चूँकि उस विमान में उत्पन्न होने वाले जीवों के सम्पूर्ण मनोरथ अनायास ही सिद्ध हो जाते हैं इसलिए उसका सर्वार्थसिद्धि यह सार्थक नाम है। उस विमान में निग्र्रन्थ दिगम्बर महामुनि ही जन्म लेते हैं।
इस प्रकार अकृत्रिम और श्रेष्ठ रचना से शोभायमान उस विमान में उपपाद शय्या में वह देव क्षण भर में पूर्ण शरीर को प्राप्त हो गया। दोष, धातु, मल और पसीना आदि से रहित, सुन्दर लक्षणों से युक्त तथा पूर्ण यौवन अवस्था को प्राप्त उसका शरीर क्षण भर में ही प्रगट हो गया। उसके जन्म लेते ही वहाँ उत्तम-उत्तम बाजे बजने लगे, सर्वत्र हर्ष की लहर दौड़ गई। वह अहमिंद्र साथ-साथ उत्पन्न हुए वस्त्र, अलंकार, दिव्य माला आदि से अतिशय सुन्दर था। एक हाथ का उस का दिव्य वैक्रियक शरीर था, तेंतीस सागर की उत्कृष्ट आयु थी। तेंतीस हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर उसका दिव्य मानसिक अमृत का आहार था और साढ़े सोलह महीने व्यतीत होने पर श्वासोच्छ्वास ग्रहण करता था ‘‘मैं इंद्र हूँ, मैं इंद्र हूँ’’ इस प्रकार वहाँ के सभी उत्तम देव ‘अहमिंद्र’ इस अन्वर्थ नाम को धारण करते थे। वहाँ उन अहमिंद्रों में न तो परस्पर में असूया है, न परनिन्दा है, न आत्म प्रशंसा है और न ईष्र्या ही है। वे सभी पूर्णतया सुखी हुए हर्षयुक्त निरन्तर क्रीड़ा करते रहते हैं। इन सबका शरीर श्वेतवर्ण का रहता है। इन सबकी लेश्याएँ, वस्त्राभरण आदि श्वेत-शुक्ल रहते हैं।
वहाँ जन्म लेने के बाद उन अहमिंद्र ने अपने विमान में स्थित अतिशायी जिनमंदिर में जाकर भगवान की प्रतिमाओं का अभिषेक किया। दिव्य अष्टद्रव्य की सामग्री और दिव्य रत्नों के थाल भरकर भगवान का पूजन किया।
चक्रवर्ती वङ्कानाभि की पर्याय में जो विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित, बाहु, सुबाहु, पीठ और महापीठ नाम के भाई थे तथा रानी श्रीमती का जीव जो कि ‘धनदेव’ नाम से चक्रवर्ती का गृहपति रत्न हुआ था, इन नौ महामुनियों ने भी तपश्चर्या के प्रभाव से वहीं सर्वार्थसिद्धि में अहमिंद्र पद को प्राप्त किया था। ये सब अपने-अपने अवधिज्ञान से अपने स्वामी ‘वङ्कानाभि’ चक्रवर्ती के जीव ऐसे अहमिंद्र के पास आये और पूर्वभवों की चर्चा तथा धर्म के माहात्म्य की प्रशंसा करते हुए मनोविनोद करने लगे।
ये सर्वार्थसिद्धि के अहमिंद्र अपने अवधिज्ञान से सम्पूर्ण लोक के मूर्तिक पदार्थों को देखते रहते थे लेकिन कहीं भी इनका गमनागमन नहीं था अतः एक दिन इन सभी ने निर्णय किया कि-
आज हम सभी यहीं से परोक्ष में सुदर्शनमेरु पर्वत के सोलह जिनमंदिरों की पूजा करेंगे। वे सब वहीं से सुमेरुपर्वत को मानों साक्षात् देखते हुए के समान ही उसकी पूजा कर रहे थे। ऐसे ही कभी नन्दीश्वर द्वीप के जिनालयों की, कभी मध्यलोक के ४५८ जिनमंदिरोें की, कभी तीन लोक के सम्पूर्ण ८ करोड़, ५६ लाख , ९७ हजार ४८१ जिनमंदिरों में विराजमान सम्पूर्ण जिनप्रतिमाओं की पूजा, भक्ति, स्तुति किया करते थे।
कभी-कभी तीर्थंकर के जन्मकल्याणक के निमित्त से वहाँ पर बाजों के बजने से ‘भगवान का जन्म हुआ है’ ऐसा जानकर परोक्ष में ही सात पैंड आगे जाकर नमस्कार करते थे।
कभी-कभी ये अहमिंद्र वहाँ पर तत्त्वचर्चा किया करते थे-जैसे कि -‘जो संसार के दुःखों से प्राणियों को निकालकर उत्तम सुख में पहुँचावे, वही धर्म है’।
‘आत्मा शक्तिरूप से परमात्मा है, जैसे कि बीज में शक्तिरूप से वृक्ष विद्यमान है, दूध में घी है, तिल में तेल है, ऐसे ही आत्मा में परमात्मा छिपा हुआ है, उसे प्रयोग से-सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र के बल से प्रगट किया जा सकता है।’
‘‘जो जीव अपनी आत्मा को भगवान बना लेते हैं, शुद्ध सिद्ध परमात्मा बन जाते हैं वे फिर कभी संसार में जन्म नहीं धारण करते हैं। ‘संसार में पंचेन्द्रिय के विषय सुखों में आसक्त हुआ प्राणी बार-बार नरक, निगोदों में, तिर्यंच योनियों में अनेक प्रकार के दुःख उठाता रहता है। जब यही प्राणी सच्चे अहिंसामयी परमधर्म का आश्रय ले लेता है तब सदा-सदा के लिए नित्य, निरंजन, निर्विकार, चिच्चैतन्यस्वरूप परमपद को प्राप्त कर लेता है।
अहो! हम सभी ने कई जन्मों में महान पुण्य संचित किया है, सच्ची निर्दोष तपस्या की है, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष और मत्सर आदि अंतरंग शत्रुओं को वश में किया है, तभी ये उत्तम अहमिंद्र पद प्राप्त हुआ है।
अब हमें यहाँ के सुखों को भोगकर मनुष्य पर्याय प्राप्त करना है। हम सभी नियम से उस मनुष्य भव में मुनि बनेंगे और मोक्ष को प्राप्त करेंगे। हम सभी एक भवावतारी हैं, हमारे संसार का अब अन्त आ चुका है।
वङ्कानाभि के जीव अहमिंद्र, जो कि आगे तीर्थंकर होने वाले थे, छह महीने पूर्व से ही इस मध्यलोक के जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में अयोध्या नगरी की रचना की गयी। सौधर्मेन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने माता मरुदेवी के आँगन में रत्न बरसाना शुरू किया। तभी वहाँ के अहमिंद्रों ने आकर उन भावी तीर्थंकर के गुणों की स्तुति करना प्रारंभ कर दिया-
‘हे स्वामिन् ! आप धन्य हैं, आपके प्रसाद से ही हम सभी ने धर्म को पाया है और आगे भी आपके तीर्थ में ही हम सभी मोक्ष को प्राप्त करेंगे।’ इत्यादि प्रकार से धर्मचर्चा करते हुए वङ्कानाभि के जीव अहमिंद्र ने अपनी तेंतीस सागर की आयु पूर्ण कर ली और मध्यलोक में आने के सन्मुख हो गये। इस प्रकार भगवान् ऋषभदेव का यह नवमां अवतार हुआ है।
(१०) भगवान ऋषभदेव
महाराजा नाभिराय और मरुदेवी से अलंकृत पवित्र स्थान में कल्पवृक्षों का अभाव देखकर और ‘‘इन दोनों के स्वयंभू ऋषभदेव पुत्र जन्म लेंगे।’’ ऐसा अवधिज्ञान से जानकर स्वयं इंद्र अनेक उत्साही देवों के साथ वहाँ आते हैं और उसी स्थल को मध्य में करके एक सुन्दर नगरी की रचना कर देते हैं। चार गोपुर द्वार, परिखा, उद्यान आदि से सहित वह नगरी ‘अरिभिः योद्धुं न शक्या इति अयोध्या’ शत्रुओं से युद्ध करने में समर्थ न होने से ‘अयोध्या’ इस सार्थक नाम से सम्बोधित की जाती है। पाँच मंदिर इस नगरी के मध्यभाग में इन्द्रपुरी के साथ स्पर्धा करने वाला ऐसा दिव्य राजमहल तैयार किया जाता है। सभी देव मिलकर शुभ दिन, शुभ मुहूर्त, शुभयोग और शुभ लग्न में वहाँ पुण्याहवाचन करते हैं। उसी समय अंतिम कुलकर महाराजा नाभिराय अपनी महारानी मरुदेवी के साथ उस महल में प्रवेश करते हैं। तभी इन्द्र उन दोनों का अभिषेक करके सम्मान करते हुए उनकी पूजा करते हैं।
‘तीर्थंकर ऋषभदेव यहाँ अवतार लेने वाले हैं’ ऐसा समझकर इन्द्र कुबेर को बुलाकर आज्ञा देते हैं-
‘हे धनपते! छह महीने बाद तीर्थंकरदेव यहाँ स्वर्ग से अवतार लेने वाले हैं अतः तुम बड़े आदर से रत्नों की वर्षा करना शुरू कर दो।’
इन्द्र की आज्ञा पाते ही कुबेर बहुमूल्य उत्तम-उत्तम पंचवर्णी रत्नों की मोटी-मोटी धारा बरसाने लगता है। आँंगन में बरसती हुई रत्नों की धारा ऐसी मालूम पड़ती है, मानों पुण्य की परम्परा ही बरस रही हो। तभी से कुबेर के द्वारा की जाने वाली रत्न और सुवर्ण की वर्षा से यह पृथ्वी ‘हिरण्यगर्भा’ इस नाम को प्राप्त हो गई है।
अनन्तर महारानी मरुदेवी राजमहल में गंगा की लहरों के समान श्वेत रेशमी चद्दर से सुशोभित कोमल शय्या पर शयन कर रही है। रात्रि के पिछले प्रहर में वे सोलह स्वप्न देखती हैं पुनः वे देखती हैं कि सुवर्ण के समान कांतिवाला एक सुन्दर बैल हमारे मुख में प्रवेश कर रहा है। तत्क्षण ही बजते हुए मांगलिक बाजों की ध्वनि से और बंदीजनों तथा सखियों द्वारा गाये गये प्राभातिक मंगलगान से रानी जाग्रत होकर उठकर महामंत्र का स्मरण करके अपने नेत्रों का उद्घाटन करती हैं। मंगल स्नान करके मांगलिक वस्त्राभूषण धारण कर वह अपने पतिदेव के समीप पहुँचकर उचित विनय से महाराजा नाभिराय का दर्शन करके उन्हीं के समीप अपने लिए रखे गये भद्रासन पर बैठ जाती हैं पुनः प्रसन्नमुद्रा में महाराज से निवेदन करती हैं-
‘हे देव! आज मैंने सोते हुए रात्रि के पिछले प्रहर में बहुत ही आश्चर्यजनक उत्तम-उत्तम स्वप्न देखे हैं। पहले स्वप्न में ऐरावत हाथी, पुनः उत्तम बैल, सिंह, हाथियों द्वारा अभिषेक को प्राप्त होती हुई लक्ष्मी, दो मालाएँ, चन्द्रमा, उगता हुआ सूर्य, मछलियों का युगल, जल से भरे दो कलश, कमलों से युक्त सरोवर, समुद्र, सिंहासन, स्वर्ग से आता हुआ विमान, नागेन्द्र भवन, रत्नों की राशि और बिना धुएँ की अग्नि। इन सोलह स्वप्नों के बाद मैंने मेरे मुख में एक स्वर्ण वर्ण का बैल प्रवेश करते हुए देखा है, सो मैं इन सबका फल आपके श्रीमुख से सुनना चाहती हूँ।’
महाराजा नाभिराय रानी के मुख से स्वप्नों को सुनकर तथा अपने दिव्य अवधिज्ञान से उनके फलों को जानकर कहते हैं-
‘हे देवि! सुनो, सर्वप्रथम जो स्वप्न में तुमने ऐरावत हाथी देखा है उसका फल यह है कि तुम त्रिभुवन के गुरु ऐसे तीर्थंकर पुत्र को जन्म देवोगी। द्वितीय स्वप्न में उत्तम बैल के देखने से वह समस्त लोक में ज्येष्ठ होगा। सिंह के देखने से वह अनन्त बल से युक्त होगा। मालाओं के देखने से वह समीचीन धर्मतीर्थ का चलाने वाला होगा। अभिषेक को प्राप्त होती हुई लक्ष्मी के देखने से वह सुमेरु पर्वत पर देवों के द्वारा अभिषेक को प्राप्त होगा। पूर्ण चन्द्रमा के देखने से वह समस्त लोगों को आनन्द देने वाला होगा। सूर्य के देखने से देदीप्यमान प्रभा का धारक होगा। दो कलश देखने से वह अनेक निधियों का स्वामी होगा। मछलियों का युगल देखने से सुखी होगा। सरोवर के देखने से अनेक लक्षणों से शोभित होगा। समुद्र के देखने से पूर्णज्ञानी केवली होगा। सिंहासन के देखने से जगत् का गुरु होकर साम्राज्य को प्राप्त करेगा। देवों का विमान देखने से वह स्वर्ग से अवतीर्ण होगा। नागेन्द्र का भवन देखने से जन्म से ही वह अवधिज्ञानरूपी लोचनों से सहित होगा। चमकते हुए रत्नों की राशि देखने से वह गुणों की खान होगा और निर्धूम अग्नि के देखने से कर्मरूपी ईन्धन को जलाने वाला होगा तथा तुम्हारे मुख में जो वृषभ ने प्रवेश किया है उसका फल यह है कि तुम्हारे निर्मल गर्भ में तीर्थंकर भगवान् अपना शरीर धारण करेंगे।’
महाराजा नाभिराय के मुख से ऐसा फल सुनकर रानी मरुदेवी हर्ष के अतिरेक से रोमांचित हो जाती हैं। उस समय उन्हें इतना आनन्द होता है कि मानों साक्षात् अभी ही तीर्थंकर शिशु को प्राप्त कर लिया हो। तदनन्तर आषाढ़ कृष्णा द्वितीया के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र में अहमिन्द्र का जीव सर्वार्थसिद्धि से च्युत होकर माता मरुदेवी के गर्भ में अवतीर्ण हो जाता है। उसी समय अनेक चिन्होें से तीर्थंकर के ‘गर्भावतार’ को जानकर सौधर्म इन्द्र असंख्य देव-देवियों के साथ स्वर्ग से चयकर यहाँ मृत्युलोक की अयोध्या नगरी में आ जाते हैं। नगरी की तीन प्रदक्षिणा देकर माता-पिता को नमस्कार करते हैं पुनः माता-पिता की नाना प्रकार से पूजा कर संगीत-नृत्य आदि उत्सव करके गर्भकल्याणक महोत्सव मनाकर अपने-अपने स्थान पर चले जाते हैं।
इस अवसर्पिणी काल के सुषमादुःषमा नामक तृतीय काल में चौरासी लाख पूर्व, तीन वर्ष, आठ मास और एक पक्ष के शेष रह जाने पर भगवान् ऋषभदेव का गर्भावतार कल्याणक मनाया गया है।
उसी समय से इन्द्र की आज्ञानुसार दिक्कुमारी देवियाँ वहाँ आकर दासियों के समान माता की सेवा करने लगती हैं।
(२)
मध्यलोक के बीचों बीच में जम्बूद्वीप नाम का पहला द्वीप है। यह एक लाख योजन विस्तृत थाली के समान गोल आकार वाला है। इसमें पूर्व-पश्चिम लम्बे छह कुलाचल हैं जिनके नाम हैं-हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी। इन पर्वतों से विभाजित सात क्षेत्र हो जाते हैं-भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत ये उनके नाम हैं। सर्वप्रथम भरत क्षेत्र का विस्तार जम्बूद्वीप के १९० वाँ भाग अर्थात् ५२६, ६/१९ योजन है। आगे के पर्वत और क्षेत्र विदेहपर्यन्त इससे दूने-दूने प्रमाण वाले होते गये हैं। पुनः विदेह के बाद नील पर्वत से लेकर आधे-आधे प्रमाण वाले होते गये हैं। इन हिमवान आदि पर्वतों पर क्रम से पद्म, महापद्म, तिगिञ्छ, केसरी, महापुण्डरीक और पुण्डरीक ऐसे छह सरोवर हैं। पद्म सरोवर के पूर्व-पश्चिम से गंगा-सिंधु नदी निकलती हैं जो कि भरत क्षेत्र में बहती हैं। इसी पद्म सरोवर के उत्तर तोरण द्वार से रोहितास्या नदी निकल कर हैमवत क्षेत्र में चली जाती है तथा महापद्म सरोवर के दक्षिण तोरणद्वार से रोहित् नदी निकल कर हैमवत क्षेत्र में चली जाती है। इस प्रकार मध्य के सरोवरों से दो-दो नदियाँ एवं अंतिम शिखरी सरोवर से प्रथम सरोवर के समान तीन नदियाँ निकली हैं। ऐसी ये गंगा-सिन्धु, रोहित-रोहितास्या हरित् -हरिकान्ता, सीता-सीतोदा, नारी-नरकांता, सुवर्णकूला-रूप्यकूला और रक्ता-रक्तोदा नाम की चौदह महानदियाँ हैं जो कि भरत आदि सात क्षेत्रों में क्रम से दो-दो बहती हैं।
इन पद्म आदि सरोवरों में बहुत ही सुन्दर, सुवर्णमयी कमल खिल रहे हैं जो कि वनस्पतिकायिक न होकर पृथ्वीकायिक रत्नों से निर्मित अकृत्रिम हैं। इन कमलों की कर्णिकाओं पर दिव्य भवन बने हुए हैं जिन पर क्रम से श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ये देवियाँ निवास करती हैं।
प्रथम पद्म सरोवर हजार योजन लम्बा, पाँच सौ योजन चौड़ा और दश योजन गहरा है। इसके मध्य भाग में जो कमल है वह एक योजन विस्तृत है। इसके एक हजार ग्यारह पत्ते हैं। इसकी नाल ब्यालीस कोश ऊँची और एक कोश मोटी है यह वैडूर्य मणि से निर्मित है। इसका मृणाल तीन कोश मोटा रूप्यमय श्वेत वर्ण का है। इस कमल की नाल चालीस कोश तो जल के अंदर है और दो कोश जल के ऊपर है। कमल की कर्णिका दो कोश ऊँची और एक कोश चौड़ी है। इस कर्णिका के ऊपर श्रीदेवी का भवन बना हुआ है। यह भवन एक कोश लम्बा, आधा कोश चौड़ा और पौन कोश ऊँचा है। उसमें श्रीदेवी निवास करती हैं, इनकी आयु एक पल्य प्रमाण है।
इसी पद्म सरोवर में मुख्य कमल से आधे प्रमाण वाले ऐसे एक लाख चालीस हजार एक सौ पन्द्रह और भी कमल हैं जिन्हें परिवार कमल कहते हैं। इन कमलों के भवनों में श्रीदेवी के परिवार देव निवास करते हैं।
श्रीदेवी की अपेक्षा ह्री देवी के मुख्य कमल का विस्तार दूना है व परिवार कमलों की संख्या भी दूनी हो गई है। ह्री देवी की अपेक्षा धृति देवी की दूनी है व आगे कीर्ति देवी की धृति देवी के बराबर, बुद्धि देवी की ह्री देवी के बराबर व लक्ष्मी देवी की श्री देवी के बराबर है।
इन सरोवरों में जितने कमल हैं सभी में जिनमंदिर हैं, इसलिए जितने कमल हैं उतने ही जिनमंदिर में प्रत्येक १०८-१०८ जिन प्रतिमाएँ विराजमान हैंं। ये देवियाँ भक्ति-भाव से सतत ही जिन प्रतिमाओं की पूजा, अर्चा किया करती हैंं।
इन्द्र की आज्ञा से ये ही श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी नाम वाली देवियाँ वहाँ से इस भरत क्षेत्र में आकर माता मरुदेवी की सेवा में तत्पर हो जाती हैं। वे देवियाँ सर्वप्रथम स्वर्ग से लाए हुए पवित्र पदार्थों द्वारा माता को विशुद्ध करती हैं। उन देवियों में कोई तो माता के आगे अष्ट मंगल द्रव्य धारण करती हैं, कोई ताम्बूल देती हैं, कोई स्नान कराती हैं और कोई वस्त्राभूषण पहनाती हैं। कोई भोजनशाला के काम में लग जाती हैं, कोई शय्या बिछाती हैं, कोई पैर दबाती हैं, कोई तरह-तरह की सुगंधित माला पहनाती हैं। कोई सुगंधित द्रव्यों का विलेपन करके माता के शरीर को सुवासित करती हैंं।
पुनः एक देवी राजमहल का आंगन बुहारती है तो दूसरी गीले कपड़े से भूमि को स्वच्छ करती है, तीसरी चंदन के घोल का छिड़काव करती है, चौथी रत्नों के चूर्ण से रंगावली का विन्यास करती है, रंग-बिरंगे चौक पूरती है, पाँचवी दिव्य पुष्पगुच्छों का उपहार भेंट करती हैं।
इन देवियों के अतिरिक्त भी कितनी देवियाँ अपना शरीर छिपाकर दिव्य प्रभाव दिखलाती हुई योग्य सेवा क्रिया द्वारा निरन्तर माता की शुश्रूषा करती रहती हैं। कितनी ही देवियाँ अन्तर्हित होकर अपने दिव्य प्रभाव से माता के लिए माला, वस्त्र, आहार और आभूषण आदि देती हैं। जब माता मरुदेवी चलती हैं तब देवियाँ उनके वस्त्रों को कुछ ऊपर उठा लेती हैं, माता जब बैठती हैं तब देवियाँ आसन लाकर उपस्थित करती हैं और जब खड़ी होती हैं तब वे देवियाँ माता के चारों ओर से खड़ी होकर सेवा करती हैं। कितनी ही देवियाँ रात्रि के प्रारंभ काल में राजमहल के अग्रभाग पर अतिशय देदीप्यमान मणियों के दीपक रखती हैं। कितनी ही देवियाँ दृष्टिदोष दूर करने के लिए उतारना उतारती हैं, कितनी ही देवियाँ मन्त्राक्षरों द्वारा माता का रक्षा बन्धन करती हैं और कितनी ही देवियाँ नंगी तलवार हाथ में लेकर रात्रि के समय माता के निकट बैठकर पहरा देने का काम करती हैं।
कितनी ही देवियाँ मिलकर माता को जलक्रीड़ा के लिए प्रेरित करती हैं, कभी-कभी सभी मिलकर माता को वनक्रीड़ा के लिए ले जाती हैं तो कभी कथा गोष्ठी से माता का मन अनुरञ्जित करती हैं। कभी संगीत गोष्ठी का कार्यक्रम चलता है तो कभी नाना प्रकार के वादित्रों को बजाकर सारे अयोध्या नगर को मुखरित कर देती हैं। कभी-कभी वे देवियाँ भक्ति से विभोर हो माता के गुणों का गान करते हुए नृत्य कला का प्रदर्शन करती हैं। उस समय देवियाँ रंग-बिरंगे चौक के चारों ओर फूलों को बिखेरते हुए उस रंग भूमि में पुष्पांजलि क्षेपण करती हैं। कभी-कभी ये देवियाँ तीर्थंकर के गुणों का गान करते हुए वीणा बजाती हैं तो कोई देवी बांसुरी बजाकर माता का मनोरंजन करती हैं। इस प्रकार देवियों के द्वारा सेवा को प्राप्त हुई मरुदेवी ऐसी शोभायमान हो रही हैं कि मानों तीनों लोकों की लक्ष्मी ही एकरूपता को प्राप्त होकर मरुदेवी के रूप में स्थित हैं।
माता के गर्भ का नवमाँ महीना निकट आ जाने पर ये देवियाँ विशिष्ट-विशिष्ट काव्य गोष्ठियों के द्वारा माता को प्रसन्न करते हुए नाना प्रकार के गूढ़ प्रश्न करना प्रारंभ कर देती हैं। एक देवी कहती है-
कः पंजरमध्यास्ते..........कः परुषनिस्वनः। कः प्रतिष्ठा जीवानां...कः पाठ्योक्षरच्युतः।।
हे मातः! पिंजड़े में कौन रहता है? कठोर शब्द करने वाला कौन है? जीवों का आधार क्या है? और अक्षरच्युत होने पर भी पढ़ने योग्य क्या है?
शुकः पंजरमध्यास्ते, काकः परुषनिस्वनः। लोकः प्रतिष्ठा जीवानां, श्लोकः पाठ्योक्षरच्युतः।।
तब श्लोक के पाद में जो एक-एक अक्षर कम था, उसकी पूर्ति करते हुए माता उसी श्लोक से उत्तर देती हैं। ‘तोता पिंजड़े में रहता है। कौआ कठोर शब्द बोलने वाला है। जीवों का आधार लोक है और अक्षरच्युत होने पर भी श्लोक पढ़ने योग्य है।’
एक देवी प्रश्न करती है-
त्वत्तनौ काम्ब गम्भीरा, राज्ञो दोलंब आकुतः। कीदृव् किं नु विगाढव्यं, त्वं च श्लाघ्या कथं सती।।
हे मातः! तुम्हारे शरीर में गंभीर क्या है? राजा नाभिराय की भुजाएँ कहाँ तक लम्बी हैं? कैसी और किस वस्तु में अवगाहना करनी चाहिए और हे पतिव्रते! तुम अधिक प्रशंसनीय किस प्रकार हो?’’
तब माता एक ही वाक्य से चारों प्रश्नों का उत्तर दे देती हैं-
‘‘नाभिराजानुगाधिकं नाभिः आजानु गाधि-कं, नाभिराजानुगा अधिकं।’’ इस वाक्य के एक-एक पद से ही चारों प्रश्नों का उत्तर ऐसा है किः- ‘‘हमारे शरीर में गंभीर (गहरी) नाभि है। महाराजा नाभिराय की भुजाएँ आजानु-घुटनों तक लम्बी हैं। गाधि-कुछ गहरे कं-जल में अवगाहन करना चाहिए और नाभिराज की अनुगामिनी-आज्ञाकारिणी होने से मैं अधिक मैं प्रशंसनीय हूँ।
एक देवी चित्रबद्ध श्लोक द्वारा माता की स्तुति करते हुए कहती है-
मुदेऽस्तु वसुधारा ते, देवताशीस्तताम्बरा। स्तुतादेशे नभाताधा, वशीशे स्वस्वनस्तसु।।
जिसकी आज्ञा अत्यन्त प्रशंसनीय है और जो जितेन्द्रिय पुरुषों में अतिशय श्रेष्ठ है ऐसी हे माता! देवताओं के आशीर्वाद से आकाश को व्याप्त करने वाली अत्यन्त सुशोभित जीवों की दरिद्रता को नष्ट करने वाली और नम्र होकर आकाश से पड़ती हुई यह रत्नों की वर्षा तुम्हारे आनन्द के लिए हो।’’ यह अर्धभ्रम श्लोक है। इस श्लोक के तृतीय और चतुर्थ चरण के अक्षर प्रथम तथा द्वितीय चरण में ही आ गये हैं।
मु दे स्तु व सु धा रा ते
दे व ता शी स्त ता म्ब रा
स्तु ता दे शे न भा भा ता धा
व शी शे स्व स्व न स्त सु
इस प्रकार अनेक अर्थों से गूढ़ और तत्त्व चर्चा के रहस्य से भरपूर ऐसे बहुत से प्रश्नों को देवियाँ कर रही हैं और माता बिना श्रम के सहजभाव से उन प्रश्नों का उत्तर दे रही हैं। यद्यपि माता स्वयं ही ज्ञान में कम नहीं हैं फिर भी मति, श्रुत और अवधि ऐसे तीन ज्ञान से युक्त बालक को उदर में धारण करने से वे और भी अधिक प्रतिभासंपन्न हो रही हैं। जैसे अनेक रत्नों से परिपूर्ण रत्न की खान अतिशय शोभा को प्राप्त होती है, वैसे ही गुणरत्नों के पुंज ऐसे तीर्थंकर को उदर में धारण करने से माता मरुदेवी भी अतिशय शोभा को प्राप्त हो रही हैं।
माता का उदर पहले के समान ही कृश है, न त्रिवली भंग हुई है, न उदर बढ़ा है, फिर भी अन्दर में गर्भ वृद्धि को प्राप्त हो रहा है। न माता का मुख सफेद हुआ है, न मुख का स्वाद ही फीका हुआ है और न साधारण गर्भवती महिलाओं के समान उन्हें कुछ क्लेश ही प्रतीत हो रहा है। दर्पण में पड़े प्रतिबिंब के समान माता के उदर में स्थित तीर्थंकर बालक माता को किंचित् भी पीड़ा नहीं पहुँचा रहा है, यही एक आश्चर्य की बात है। जैसे स्फटिक मणि के बने हुए घर के बीच में रखा हुआ निश्चल दीपक सुशोभित होता है, उसी प्रकार से तीर्थंकर शिशु स्वयं में किसी प्रकार के कष्ट का अनुभव न करते हुए माता के उदर में विराजमान हैं। अपने उदर में नाभिकमल के ऊपर तीर्थंकर ऋषभदेव को धारण करती हुई महारानी मरुदेवी साक्षात् लक्ष्मी के समान सुशोभित हो रही हैं।
अपने समस्त पापों का नाश करने के लिए इन्द्र के द्वारा भेजी हुई इन्द्राणी भी अनेक अप्सराओं के साथ वहाँ आकर गुप्तरूप से महासती मरुदेवी की सेवा कर रही है। माता मरुदेवी स्वयं किसी को नमस्कार नहीं करती हैं फिर भी संसार के समस्त लोग उन्हें नमस्कार कर रहे हैं। इस विषय में अधिक कहने से क्या? यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त है कि उस समय तीनों लोकों में वे ही एक प्रशंसनीय महिला हैं क्योंकि जगत् स्रष्टा अर्थात् भोगभूमि के बाद कर्मभूमि की व्यवस्था करने वाले ऐसे ऋषभदेव तीर्थंकर की वे जननी हैं इसलिए कहना चाहिए कि वे समस्त लोक की जननी हैं। श्री, ह्री आदि देवियाँ सतत जागरूक होकर अत्यन्त विनय और भक्ति से उनकी उपासना कर रही हैं और महाराजा नाभिराय भी स्वयं हर वक्त उन्हें प्रसन्न रखते हुए अपने समय को सुन्दरता से व्यतीत कर रहे हैं।
(३)
नव महीना पूर्ण हो जाने पर माता मरुदेवी पुत्ररत्न को जन्म देती हैं। जिस प्रकार प्रातःकाल के समय पूर्व दिशा से कमलों को विकसित करने वाले ऐसे देदीप्यमान सूर्य का उदय होता है, उसी प्रकार चैत्र कृष्ण नवमी के दिन सूर्योदय के समय ब्रह्मनामक महायोग में माता मरुदेवी से मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानों से शोभायमान तीर्थंकर के अवतार ऐसे महापुरुष का जन्म होता है। उसी समय समस्त दशाएँ स्वच्छ हो जाती हैं, आकाश निर्मल हो जाता है। स्वर्ग में देवों के यहाँ बिना बजाये बाजे बजने लगते हैं। कल्पवासी देवों के यहाँ घण्टा की ध्वनि होने लगती है, ज्योतिषी देवों के विमानों में सिंहनाद गूंजने लगता है, व्यंतरवासी देवों के यहाँ शंख की ध्वनि होने लगती है। इन्द्रों के तथा देवों के सिंहासन कंपायमान हो उठते हैं। उनके यहाँ कल्पवृक्षों से फूल बरसने लगते हैंं। प्रजा में सर्वत्र आनन्द की लहर दौड़ने लगती है।
उस समय इन सारे आश्चर्यों के प्रगट होने से और स्वयं के आसन के हिल उठने से सौधर्म इन्द्र आश्चर्यचकित हो अपने अवधिज्ञान को लगाता है। उसे उसी क्षण विदित हो जाता है कि इस मध्यलोक में जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के अंतर्गत अयोध्या नगरी में महाराजा नाभिराय की महारानी मरुदेवी ने तीन लोक के स्वामी ऐसे पुत्ररत्न को जन्म दिया है।
सौधर्म इन्द्र उसी समय अपने आसन से उतर कर उस दिशा में सात पैंड चलकर शिर झुकाकर तीर्थंकर को परोक्षरूप में नमस्कार करते हैं। पुनः हर्ष से गद्गद हो देवों को आज्ञा देते हैं कि-
‘हे देवगण! भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड की अयोध्या नगरी में इस अवसर्पिणी के तृतीयकाल के अंत में युगादिपुरुष प्रथम तीर्थंकर का जन्म हुआ है अतः आप लोग शीघ्र ही सेना से सुसज्जित होकर अपने परिवार सहित वहाँ चलने के लिए तैयार हो जावो।’’ एक क्षणमात्र में ही सोलहस्वर्ग तक के सभी इन्द्र-इन्द्राणियाँ और असंख्य देवगण अपने-अपने स्थान से निकल पड़ते हैं।
सौधर्म इन्द्र का वाहनजाति का देव ऐरावत हाथी का रूप लेकर वहाँ आ जाता है। यह ऐरावत हाथी बहुत ही सुन्दर दिख रहा है। यह बहुत ही विशाल है, इसका रंग श्वेत है, इसके बत्तीस मुख हैं, प्रत्येक मुख में आठ-आठ दाँत हैं, एक-एक दाँत पर एक-एक सरोवर है, एक-एक सरोवर में एक-एक कमलिनी है, एक-एक कमलिनी में बत्तीस-बत्तीस कमल खिल रहे हैं, एक-एक कमल में बत्तीस-बत्तीस दल हैं और इन लम्बे-लम्बे प्रत्येक दलों पर बत्तीस-बत्तीस देव अप्सराएँ नृत्य कर रही हैं। इन देव अप्सराओं की सुन्दरता और उनकी नृत्यकला सामान्य स्त्रियों में असंभव है।
सौधर्म इन्द्र अपनी शची इन्दाणी के साथ इस ऐरावत हाथी पर सवार होकर स्वर्ग से प्रस्थान कर देता है। इन्द्र के सामानिक, त्रायस्ंित्रश, पारिषद, आत्मरक्ष और लोकपाल देव इन्द्र को चारों ओर से घेर कर चलने लगते हैं। अनीक जाति के देव हाथी, घोड़े, रथ, गन्धर्व, नर्तकी, पदाति और बैल इन सात प्रकार की सेना को सजाकर निकल पड़ते हैं। उस समय सभी इन्द्र अपने-अपने वाहनों पर चढ़कर बहुत ही वैभव के साथ चल पड़ते हैं। असंख्य देव-देवियाँ साथ में चल रहे हैंं। दुन्दुभि बाजों के गंभीर शब्दों से तथा देवों के जय-जय शब्दों के उच्चारण से आकाश मंडल में बड़ा भारी कोलाहल व्याप्त हो जाता है।
अर्धनिमिष मात्र में ही इन्द्रगण अयोध्या में आकर नीचे उतर जाते हैं और महाराजा नाभिराय के आँगन में पहुँच जाते हैं। इन्द्र की आज्ञा से शची देवी जिनमाता के प्रसूतिगृह में प्रवेश करती हैं वहाँ जिनबालकरूपी सूर्य से युक्त माता मरुदेवी को देखकर बार-बार उनकी प्रदक्षिणा देकर प्रच्छन्नरूप से ही जिनमाता की स्तुात करती हैं-
‘हे मातः! तुम तीनों लोकों की कल्याणकारी माता हो, तुम्हीं मंगल करने वाली हो, तुम्हीं महादेवी हो, तुम्हीं पुण्यवती हो और तुम्हीं यशस्विनी हो।’’
इस प्रकार के नाना वर्णों से माता की स्तुति कर उन्हें बार-बार नमस्कार कर वह इन्द्राणी गुप्तरूप से ही माता को मायामयी निद्रा से सुलाकर उनके पास में दूसरा मायामयी बालक सुला देती है और आप स्वयं जिनबालक को दोनों हाथों से उठाकर गोद में ले लेती हैं। उस समय तीर्थंकर शिशु के शरीर का स्पर्श कर इन्द्राणी को इतना हर्ष होता है कि मानों उसे तीनों लोकों का समस्त ऐश्वर्य ही मिल गया हो। वह बार-बार बालक का मुख देखती है और उसके कोमल शरीर का स्पर्श करती है। उस समय उसके इतना पुण्य संचित हो जाता है कि आगे सदा-सदा के लिए उसकी स्त्रीपर्याय का छेद हो जाता है और वह एक१ भवावतारिणी हो जाती है।
वह शची देवी जिन बालक को लेकर प्रसूतिगृह से बाहर आने लगती है। उस समय दिक्कुंमारी देवियाँ हाथों में छत्र, ध्वजा, कलश, चमर, सुप्रतिष्ठ, झारी, दर्पण और ताड़ का पंखा इन आठ मंगल द्रव्यों को लेकर भगवान् के आगे-आगे चलने लगती हैं। कोई देवियाँ मंगल हेतु मंगल दीपक हाथ में लिए हुए हैंं वे दीपक जिनबालक की दीप्ति के आगे फीके हो रहे हैं। इंद्राणी बाहर आकर जिनबालक को बड़े प्रेम से अपने पतिदेव के हाथों में सौंप देती हैं। उस समय इन्द्र भगवान् शिशु को गोद में लेकर परम आनन्द को प्राप्त होता हुआ गद्गदवाणी से भगवान् की स्तुति करने लगता है-
‘‘हे देव! आप तीनों जगत् की एक दिव्य ज्योति हैं, हे देव! आप तीनों जगत् के गुुरु हैं, हे देव! आप तीनों जगत् के विधाता हैं, हे देव! आप तीनों जगत् के स्वामी हैं, हे देव! केवलज्ञानरूपी सूर्य के लिए आप उदयाचल पर्वत हैं, भव्य कमलसमूह को विकसित करने के लिए सूर्य हैं, हे नाथ! आप गुरुओं के भी गुरु हैं इसलिए आपको नमस्कार हो, हे नाथ! आपसे ही हम लोगों को ज्ञान प्राप्त होगा, इसलिए आपको नमस्कार हो।’’
इस प्रकार अनेक स्तुति करके भगवान् को गोद में लिए हुए ऐरावत हाथी पर आरूढ़ हो जाता है और मेरुपर्वत पर चलने के लिए इशारा करता है। उसी क्षण ऐशान इन्द्र जिन-शिशु के ऊपर छत्र लगा लेता है। सानत्कुमार और माहेन्द्र ये दोनों तरफ से चँवर ढोरने लगते हैंं। किन्नर देव वीणा आदि बजाते हुए भगवान के जन्मोत्सव के गीत गाने लगते हैं, किन्नरियाँ नाचने लगती हैं। सभी देव जय-जयकार की ध्वनि से आकाश-पाताल को एक कर देते हैंं। अनेक प्रकार के बाजे एक साथ बजने लगते हैं। सौधर्म इन्द्र के साथ-साथ असंख्य देवों का समूह चल पड़ता है और वह अर्धनिमिष मात्र में ही ज्योतिषपटल का उल्लंघन कर निन्यानवे हजार योजन ऊँचे सुमेरुपर्वत पर पहुँच जाता है।
(४)
इसी जम्बूद्वीप के बीच में विदेहक्षेत्र है उसके ठीक मध्य में सुमेरुपर्वत स्थित है। यह एक लाख योजन ऊँचा है। इसकी नींव पृथ्वी में एक हजार योजन है और इसकी चूलिका चालीस योजन की है अतः यह इस चित्रा भूमि से निन्यानवे हजार चालीस योजन ऊँचा है। पृथ्वी तल पर इसकी चौड़ाई दस हजार योजन प्रमाण है। सुमेरु के चारों तरफ पृथ्वी तल पर ही भद्रसाल वन है जो कि पूर्व-पश्चिम में २२००० योजन विस्तृत है और दक्षिण-उत्तर में २५० योजन प्रमाण है। इस वन में पाँच सौ योजन ऊपर जाकर नन्दनवन है जो कि अन्दर में पाँच सौ योजन तक कटनीरूप है। इस वन से साढ़े बासठ हजार योजन ऊपर जाकर सौमनस वन है जो पाँच सौ योजन की कटनीरूप है। इससे आगे छत्तीस हजार योजन ऊपर पांडुक वन है जो कि चार सौ चौरानवे योजन प्रमाण कटनीरूप है। इस पर्वत की चूलिका प्रारंभ में बारह योजन है और घटते हुए अग्रभाग में चार योजन मात्र रह गई है।
इस पर्वत के विस्तार में मूल से एक प्रदेश से ग्यारह प्रदेशों पर एक प्रदेश की हानि हुई है। इसी प्रकार ग्यारह अंगुल जाने पर एक अंगुल, ग्यारह हाथ जाने पर एक हाथ और ग्यारह योजन जाने पर एक योजन की हानि हुई है। अतः घटते-घटते यह पर्वत अग्रभाग में चार योजन मात्र विस्तृत रह गया है।
यह पर्वत नींव में १००० योजन तक वङ्कामय है। पृथ्वीतल से लेकर ६१००० योजन तक नाना प्रकार के उत्तम पंचवर्णी रत्नमयी है, आगे ३८००० योजन तक सुवर्णमय है और चूलिका वैडूर्यमणिमय है। इस सुमेरु के भद्रसाल, नंदन, सौमनस और पांडुक इन चारों ही वनों में आम्र, अशोक, सप्तच्छद और चंपक आदि नाना प्रकार के वृक्ष सतत फल और पूâलों से शोभायमान रहते हैंं। इन वनों में कितने ही कूट, देवभवन, स्वच्छ जल से भरी हुई बावड़ी आदि हैं। इन चारों ही वनों में पूर्व-दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशाओं में एक-एक जिन-मंदिर हैं जो कि अकृत्रिम हैं, अनादि निधन हैं और सुवर्ण, रत्न आदि उत्तम धातु के बने हुए हैंं। प्रत्येक जिनमंदिर में १०८-१०८ जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं। ऐसे इस सुमेरुपर्वत में सोलह जिन-मंदिर हैं। चारण ऋद्धिधारी मुनि, देव-देवियाँ और विद्याधर हमेशा वहाँ जिन-प्रतिमाओं की वंदना के लिए आते रहते हैं और इन नंदन आदि वनों में विचरण करते हुए कहीं भी शिलापट्ट पर स्थित होकर अपनी आत्मा का ध्यान किया करते हैं।
पांडुक वन की विदिशाओं में चार शिलाएँ हैं। ईशान दिशा में पांडुकशिला, आग्नेय में पांडुकम्बला, नैऋत्य में रक्ताशिला और वायव्य में रक्तकंबला नाम वाली हैं। ये शिलाएं अर्धचन्द्राकार हैं सौ योजन लंबी, पचास योजन चौड़ी और आठ योजन मोटी हैं। इन शिलाओं के ऊपर बीच में तीर्थंकर के जन्माभिषेक के लिए सिंहासन है और उसके आजू-बाजू सौधर्म-ईशान इन्द्र के लिए भद्रासन हैं जिन पर खड़े होकर ये दोनों जिन-बालक का जन्माभिषेक करते हैं। ये आसन गोल हैं।
पांडुकशिला पर हमारे इस भरत क्षेत्र के जन्मे हुए तीर्थंकरों का जन्माभिषेक उत्सव मनाया जाता है। पांडुकम्बला शिला पर पश्चिम विदेह के तीर्थंकरों का, रक्ताशिला पर ऐरावत क्षेत्र के तीर्थंकरों का और रक्तकम्बलाशिला पर पूर्वविदेह के तीर्थंकरों का जन्माभिषेक होता है। इन पांडुक आदि शिलाओं की देवगण सतत जल, चंदन, अक्षत आदि से पूजा किया करते हैं। इन पर छत्र, चमर, झारी, ठोना, दर्पण, कलश, ध्वजा और ताड़ का पंखा ये आठ मंगल द्रव्य सदा स्थित रहते हैं।
(५)
सौधर्म इन्द्र महामहोत्सव सहित बड़े प्रेम से देवों के साथ-साथ सुमेरु पर्वत की प्रदक्षिणा देता है पुनः पांडुक शिला के सिंहासन पर जिनबालक को पूर्व दिशा में मुख करके विराजमान कर देता है। उस समय जिनेंद्रदेव की जन्मकल्याणक महिमा को देखने के लिए उत्सुक हुए सभी देव क्रम-क्रम से यथायोग्य स्थान पर बैठ जाते हैं। कहीं देवगण नृत्य में विभोर हो रहे हैं तो कहीं अघ्र्य समर्पण कर रहे हैं। कहीं देवियाँ मंंगल गीत गा रही हैं तो कहीं वीणा, बांसुरी आदि बजाकर नृत्य कर रही हैं। उस समय इन्द्र की आज्ञा से वहाँ पर इतने बड़े मंडप की रचना की गई कि जिसमें तीनों लोकों के समस्त प्राणी परस्पर में बाधा न देते हुए बैठ सके, यह एक तीर्थंकर बालक का ही प्रभाव समझना चाहिए। इस मंडप की सजावट अनुपम है, चारों तरफ कल्पवृक्ष के पुष्पों की मालाएँ लटक रही हैं जिनकी सुगंध से सारा वातावरण सुगंधित हो रहा है।
स्वयं इन्द्र समस्त विधि संपन्न करने में लगा हुआ है। देवगण क्षीरसागर से कलश भर-भर कर ला रहे हैं। ये कलश आठ योजन लम्बे हैं, इनका पेट चार योजन चौड़ा है और मुख के पास की चौड़ाई एक योजन प्रमाण है। ये सब कलश स्वर्णमयी हैं, ये सब चंदन से चर्चित हैं, इनके वंâठ भाग में मोतियों की मालाएँ पहनाई गई हैं। इनमें क्षीरसागर का जल जो कि दूध के समान श्वेत है, वह लबालब भरा हुआ है। इनके मुख पर खिले हुए कमल रखे हुए हैं अतः ये कलश बहुत ही सुन्दर दिख रहे हैं। ऐसे ये १००८ कलश जिनबालक के जन्माभिषेक हेतु सजाये गये हैं।
सर्वप्रथम सौधर्म इन्द्र मंत्रोच्चारणपूर्वक प्रथम कलश हाथ में उठाता है और ऐशान इन्द्र द्वितीय कलश उठाता है। दोनों इन्द्र एक साथ जिनबालक के मस्तक पर जलधारा छोड़ते हैं उसी समय एक साथ सर्व प्रकार के देवदुंदुभि आदि बाजे बजने लगते हैं और देवगण जय-जय शब्द बोलने लगते हैं। उस समय ऐसा लगता है कि मानों सारा विश्व शब्दमय ही हो गया है पुनः सौधर्म इन्द्र सभी कलशों को एक साथ उठाने के लिए अपनी एक हजार भुजाएँ बना लेता है और सारे कलशों को एक साथ उठाकर ऐसा लगता है मानों भाजनांग जाति का एक विशाल कल्पवृक्ष ही आ गया हो। शेष सभी इन्द्र-इन्द्राणी और देवगण भी भगवान के मस्तक पर अनेक कलशों से जलधारा छोड़ते हैं। आश्चर्य इसी बात का है कि तीर्थंकर के अवतार ये जन्मजात शिशु इतने-इतने बड़े कलशों के इतने जल को अपने मस्तक पर लीलामात्र से झेल लेते हैं चूँकि उनमें जन्मजात ही अतुल्यबल विद्यमान है। उस समय अगणित देव भगवान के मस्तक पर एक साथ जल की धारा छोड़ रहे हैं तब ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मानों गंगा-सिंधु आदि महानदियाँ ही एक साथ आकर प्रभु के मस्तक पर गिर रही हैं और जिनबालक मेरु के समान ही स्थिर बैैठे हुए हैं। उस समय अभिषेक की जलबिंदुएँ आकाश में ऊपर उछल कर पुनः चारों तरफ नीचे गिरती हुई झरनों के समान प्रतीत होती हैं।
भगवान स्वयं पवित्र हैं, उन्होंने अपने पवित्र अंगों से उस जल को पवित्र कर दिया है और उस जल ने समस्त दिशाओं में फैलकर इस सारे संसार को पवित्र कर दिया है। वह अभिषेक जल का प्रवाह अपनी इच्छानुसार बैठे हुए सुरदम्पत्तियों को दूर हटाता हुआ पाण्डुक वन में चारों तरफ फैल गया। पहले तो वह मेरुपर्वत के अच्छे-अच्छे वनों में विश्राम करता है अर्थात् वन के भीतर वृक्षों के समूह से रुक जाने के कारण धीरे-धीरे चलता है परन्तु ज्यों ही वह वन के मार्ग को पार कर जाता है त्यों ही शीघ्र दूर तक फैल कर नीचे की ओर बहने लगता है। वह सुमेरु के नीचे चारों तरफ से बहता हुआ दुग्ध सदृश श्वेत जल उस समय ऐसा दिख रहा है कि मानों आकाशगंगा की धारा ही नीचे पड़ रही है। मेरुपर्वत के ऊपर से पड़ता हुआ वह जल का प्रवाह ऐसा शोभ रहा है कि मानों मेरुपर्वत को खड़े नाप से नाप ही रहा है।
‘‘क्या यह अमृत की राशि है? अथवा स्फटिकमणि का पर्वत है? या कोई दूसरा चाँदी का पर्वत है?’’
देवों को भी एक क्षण के लिए ऐसा वितर्क हो रहा था। वह अभिषेक जल का प्रवाह अपनी बिन्दुओं से ऊपर स्वर्ग तक पहुँचकर पुनः नीचे ज्योतिर्लोक तक आकर सब ओर वृद्धि को प्राप्त हो रहा था। उस समय आकाश में फैले हुए तारागण अभिषेक जल में डूबकर बिखरे हुए मोतियों के समान सुशोभित हो रहे थे। सूर्यमण्डल तथा चन्द्रमण्डल भी जलप्रवाह में डूबकर दूसरे ही क्षण बाहर आ गये थे। इसके बाद विधि-विधान को जानने वाले सौधर्म इन्द्र सुगन्धित जल से जिनबालक का अभिषेक करते हुए सम्पूर्ण जगत् की शान्ति के लिए शान्तिमंत्र का उच्चारण करते हैं। अभिषेक की विधि सम्पन्न हो जाने पर सभी इन्द्र उस गन्धोदक को अपने-अपने मस्तक पर लगाकर फिर सारे शरीर में लगा लेते हैं और कुछ गन्धोदक अपने-अपने स्वर्ग में ले जाने के लिए रख लेते हैं।
अनन्तर सभी इन्द्र-इन्द्राणी और देव-देवियाँ मिलकर भगवान की प्रदक्षिणा देते हैं पुनः जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल और अघ्र्य से भगवान की पूजा करते हैं। वे इन्द्रादिगण सुमेरु के चूड़ामणि ऐसे जिनबालक की पुनः-पुनः प्रदक्षिणा देकर उन्हें नमस्कार करते हैं। उस समय पवनकुमार देव भक्ति से प्रत्येक दिशाओं में मन्द सुगन्धित वायु चला देते हैं। मेघकुमार देव अमृत से मिश्रित मन्द-मन्द जल कण को बरसाने लगते हैं और सभी देव कल्पवृक्षों के पुष्पों की वर्षा करने लगते हैं। देवों के द्वारा बजाये गये दुंदुभि बाजे तीनों लोकों को कल्याण की सूचना करते हुए ही गंभीर ध्वनि करने लगते हैं।
जिनका अभिषेक कराने वाला स्वयं इन्द्र है, स्नान करने का सिंहासन सुमेरुपर्वत है, नृत्य करते हुए मंगल गीत गाने वाली देवियाँ हैं, परिचर्या हेतु किंकर सभी देवगण हैं और स्नान कराने का कटाह (टब) क्षीरसमुद्र है ऐसे पवित्रात्मा जिनेन्द्रदेव समस्त जगत् को पवित्र करने वाले होवें।
(६)
इंद्रों द्वारा तीर्थंकर ऋषभदेव का अभिषेक महोत्सव संपन्न हो जाने पर सौधर्म इन्द्र की शची इन्द्राणी हर्ष के साथ जगद्गुरु तीर्थंकर शिशु को अलंकार पहनाने के लिए अपनी गोद में ले लेती हैं। स्नान के अनंतर ऋषभदेव के शरीर में लगे हुए जलकणों को वस्त्र से पोंछते हुए भगवान के मुख पर अपने निकटवर्ती कटाक्षों की छाया को जलकण समझते हुए पुनः पुनः पोेंछने का प्रयास करती हैं। अनंतर ऋषभदेव के शरीर में चन्दनादि सुगन्धित गंध का विलेपन करके उन्हें स्वर्ग से लाये हुए सुन्दर वस्त्र पहनाती हैं। जगत् के तिलक ऐसे ऋषभदेव के ललाट में तिलक लगाती हैं, मस्तक पर कल्पवृक्ष के पुष्पों का मुकुट पहनाती हैं, जगत् के चूड़ामणि के मस्तक पर चूड़ामणि रत्न रख देती हैं, नेत्रों में अंजन लगाती हैं, ऋषभदेव के दोनों कान बिना बेधन किये ही छिद्रसहित थे, अतः उनके दोनों कानों में इन्द्राणी मणिमय कुण्डल पहनाती हैं, मणियों का हार पहनाकर कंठ की शोभा को द्विगुणित कर देती हैं, दोनों भुजाओं में बाजूबन्द, कड़ा, अनन्त पहनाती हैं तब ऐसा मालूम होता है कि मानों उनकी दोनों भुजाएँ कल्पवृक्ष की दो शाखाएँ ही हों, छोटी-छोटी घंटियाँ जिसमें बज रही हैं ऐसी मणिमयी करधनी कमर में पहना देती हैं, गोमुख के आकार वाले मणियों से शब्दायमान ऐसे सुन्दर आभूषण से चरणों की आभा द्विगुणित कर देती हैं। इन्द्राणी की गोद में बैठे हुए तथा सर्व अलंकारों से अलंकृत जिनबालक इतने अधिक सुन्दर दिख रहे हैं कि उस समय सौधर्मइन्द्र भगवान के रूप को देखते हुए भक्ति से विभोर हो जाता है। जब वह टिमकार रहित एकटक देखते हुए भी तृप्त नहीं होता है तब अपनी विक्रिया से हजार नेत्र बनाकर एकटक देखता ही रह जाता है पुनः भक्तिरस में डूबा हुआ वह इन्द्र अन्य अनेक देवों के साथ प्रभु की स्तुति प्रारंभ करता है-
‘‘हे देव! हम लोगों कोे परम आनन्द देने के लिए ही आप उदित हुए हैं, क्या सूर्य के उदित हुए बिना कभी कमलों का समूह प्रबोध को प्राप्त हो सकता है? हे देव! मिथ्याज्ञानरूपी अन्धकूप में पड़े हुए इन संसारी जीवों के उद्धार करने की इच्छा से आप धर्मरूपी हाथ का सहारा देने वाले हो। हे देव! आप देवों के आदिदेव हैं, तीनों जगत् के आदिगुरु हैं, जगत् के आदिविधाता हैं और धर्म के आदिनायक हैं। हे देव! आप ही जगत् के स्वामी हैं, आप ही जगत् के पिता हैं और आप ही जगत् के रक्षक हैं। हे नाथ! संसाररूपी रोग से दुःखी ये प्राणी अमृत के समान आपके वचनरूपी औषधि के द्वारा निरोग होकर आपसे परम कल्याण को प्राप्त होंगे।
हे भगवन् ! आप सम्पूर्ण क्लेशों को नष्ट कर इस तीर्थंकररूप परमपद को प्राप्त हुए हैं अतएव आप ही पवित्र हैं, आप ही दूसरों को पवित्र करने वाले हैं और आप ही अविनाशी उत्कृष्ट ज्योतिः स्वरूप हैं। हे देव! यद्यपि आप बिना स्नान किये ही पवित्र हैं तथापि मेरुपर्वत पर जो आपका अभिषेक किया गया है वह पापों से मलिन हुए इस जगत् को पवित्र करने के लिए ही किया गया है। हे देव! आपके जन्माभिषेक से केवल हम लोग ही पवित्र नहीं हुए हैं, किन्तु यह मेरुपर्वत, क्षीरसमुद्र तथा उन दोनों के वन, उपवन और जल भी पवित्र हो गये हैं।
हे देव! यद्यपि आप बिना लेप लगाये ही सुगन्धित हैं और बिना आभूषण पहने ही सुन्दर हैं तथापि हम भक्तों ने भक्तिवश ही सुगन्धित द्रव्यों के लेप और आभूषणों से आपकी पूजा की है। हे भगवन् ! आप तेजस्वी हैं, संसार में सबसे अधिक तेज को धारण करते हुए प्रगट हुए हैं, इसलिए ऐसे मालूम होते हैं मानों मेरुपर्वत के गर्भ से संसार का एक शिखामणि-सूर्य ही उदित हुआ हो। हे देव! स्वर्गावतरण के समय आप ‘सद्योजात’ नाम को धारण कर रहे थे। ‘अच्युत’-अविनाशी आप ही हैं और आज सुन्दरता को धारण करते हुए ‘कामदेव’ इस नाम को आपने ही सार्थक किया है अर्थात् ब्रह्मा हैं, विष्णु हैं और महेश हैं। जिस प्रकार शुद्ध खान से निकला हुआ मणि संस्कार के योग से देदीप्यमान हो जाता है उसी प्रकार आप भी जन्माभिषेकरूपी जातकर्म संस्कार से अतिशय देदीप्यमान हो रहे हैं। हे देव! विस्तार से आपकी स्तुति करने वाले योगिराज आपको पुराणपुरुष, पुरु, कवि और पुराण आदि मानते हैं। हे नाथ! आपकी आत्मा अत्यन्त पवित्र है इसलिए आपको नमस्कार हो, आपके गुण सर्वत्र प्रसिद्ध हैं इसलिए आपको नमस्कार हो और आप ही जन्म-मरण के भय को नष्ट करने वाले हैं, इसलिए आपको नमस्कार हो।
हे नाथ! आप क्षमा-पृथ्वी के समान क्षमा-शान्ति गुण को ही प्रधानरूप से धारण करते हैं इसलिए क्षमा-पृथ्वीरूप को धारण करने वाले आपके लिए नमस्कार हो। आप जल के समान जगत् को आनन्दित करने वाले हैं इसलिए जलरूप धारण करने वाले आपको नमस्कार हो। आप वायु के समान वेगशाली हैं और मोहरूपी महावृक्ष को उखाड़ने वाले हैं इसलिए वायुरूप को धारण करने वाले आपको नमस्कार हो। आप कर्मरूपी र्इंधन को जलाने वाले हैं, आपका शरीर कुछ लालिमा लिए हुए पीतवर्ण का है इसलिए अग्निरूप को धारण करने वाले आपको नमस्कार हो। आप आकाश की तरह पापरूपी धूलि से रहित हैं, विभु हैं, व्यापक हैं, अनादि अनन्त हैं, निर्विकार हैं, सबके रक्षक हैं इसलिए आकाशरूप को धारण करने वाले आपको नमस्कार हो। आप याजक के समान ध्यानरूपी अग्नि में कर्मरूपी साकल्य का होम करने वाले हैं, इसलिए याजकरूप को धारण करने वाले आपको नमस्कार हो। आप चन्द्रमा के समान निर्वाण (मोक्ष अथवा आनन्द) को देने वाले हैं इसलिए चन्द्ररूप को धारण करने वाले आपको नमस्कार हो। आप अनन्त पदार्थों को प्रकाशित करने वाले केवलज्ञानरूपी सूर्य से सर्वथा अभिन्न रहते हैं इसलिए सूर्यरूप को धारण करने वाले आपको नमस्कार हो। हे नाथ! इस प्रकार आप पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, याजक, चन्द्र और सूर्य इन आठ मूर्तियों को धारण करने वाले महादेव हैं इसलिए आपको नमस्कार हो।
हे नाथ! आप ‘महाबल’-अतुल्यबल के धारक हैं अथवा इस भव से पूर्व दशवें भव में महाबल विद्याधर थे इसलिए आपको नमस्कार हो। आप ‘ललितांग’ हैं-सुन्दर शरीर को धारण करने वाले हैं अथवा नवमें भव पूर्व ऐशान स्वर्ग में ललितांग देव थे, इसलिए आपको नमस्कार हो। आप धर्मरूपी तीर्थ को प्रवर्ताने वाले ऐश्वर्यशाली ‘वङ्काजंघ’ हैं-वङ्का के समान मजबूत जंघाओं को धारण करने वाले हैं अथवा आठवें भवपूर्व ‘वङ्काजंघ’ नाम के राजा थे, इसलिए आपको नमस्कार हो। आप ‘आर्य’-पूज्य हैं अथवा सातवें भवपूर्व भोगभूमिज आर्य थे इसलिए आपको नमस्कार हो। आप दिव्य ‘श्रीधर’-उत्तम शोभा से युक्त हैं अथवा छठे भवपूर्व ‘श्रीधर’ नाम के देव थे इसलिए आपको नमस्कार हो। आप ‘सुविधि‘-उत्तम भाग्यशाली हैं अथवा पाँचवे भवपूर्व सुविधि नाम के राजा थे इसलिए आपको नमस्कार हो। आप ‘अच्युतेन्द्र’-अविनाशी स्वामी हैं अथवा चौथे भवपूर्व अच्युत स्वर्ग के इन्द्र थे, ऐसे आपके लिए नमस्कार हो। आप ‘वङ्कानाभि‘-वङ्का के समान नाभि और सारे शरीर को धारण करने वाले हैं अथवा तीसरे भवपूर्व वङ्कानाभि नाम के चक्रवर्ती थे ऐसे आपको नमस्कार हो। आप ‘सर्वार्थसिद्धि के नाथ’ अर्थात् सब पदार्थों की सिद्धि के स्वामी हैं अथवा दूसरे भवपूर्व आप सर्वार्थसिद्धि विमान में अहमिंद्र थे ऐसे आपको नमस्कार हो। हे नाथ! आप ‘दशावतारचरम’ अर्थात् सांसारिक पर्यायों में अंतिम अथवा ऊपर कहे हुए महाबल आदि दश अवतारों में अंतिम शरीर को धारण करने वाले नाभिराज के पुत्र ‘ऋषभदेव’ हुए हैं इसलिए आपको नमस्कार हो।
हे देव! इस प्रकार परम आनन्द से युक्त होकर आपकी स्तुति करते हुए हम लोग इसी फल की आशा करते हैं कि हम लोगों की भक्ति सतत आप में ही बनी रहे, बस! हमें अन्य किसी के पास जाने से अब कुछ प्रयोजन नहीं है।
इस प्रकार हर्ष से गद्गद होकर सौधर्म इन्द्र, उनके साथ अन्य इन्द्र तथा देवगण सभी मिलकर जिनबालक की स्तुति करके बार-बार नमस्कार करते हैं पुनः अयोध्या की ओर प्रस्थान करने के लिए तैयारी करते हैं। पूर्ववत् दुंदुभि बाजे बजने लगते हैं, सौधर्म इन्द्र जिनबालक को ऐरावत हाथी के कंधे पर विराजमान करके आप इन्द्राणी सहित उसी पर सवार होकर वहाँ से प्रस्थान कर देता है। सभी देवगण जय-जयकार के नारों से आकाशमण्डल को गुञ्जायमान कर देते हैं, बड़े भारी कोलाहल, गीत, नृत्य और वाद्य के साथ-साथ आकाशरूपी आँगन का उल्लंघन कर क्षणमात्र में वे अयोध्या नगरी में आ जाते हैं।
(७)
महाराजा नाभिराय के श्रीगृह के आँगन में देवों ने अतिशय सुन्दर मण्डप रचना करके मध्य में उच्चासन पर सिंहासन रख दिया था। सौधर्म इन्द्र जिनबालक को गोद में लिए हुए वहाँ माता मरुदेवी के महल में प्रवेश कर मध्य में रचित दिव्य सिंहासन पर पूर्वाभिमुख करके ऋषभदेव को विराजमान कर देता है। देवों के जय-जयकार के साथ दुंदुभि बाजों का गंभीर घोष होने लगता है। महाराजा नाभिराय अपने पुत्र को देखकर एकदम रोमांचित हो उठते हैं और एकटक देखते ही रह जाते हैं। इन्द्राणी द्वारा मायामयी निद्रा दूरकर जगाई गई माता मरुदेवी भी वहाँ आकर अपने उचित आसन पर विराजमान हो जाती हैं और अपने पुत्ररत्न के मुख को देखकर अतिशय हर्ष को प्राप्त हो जाती हैं। तत्पश्चात् सौधर्मइन्द्र अन्य इन्द्रों और देव-देवियों के साथ उन जगत् पूज्य माता-पिता को बहुमूल्य वस्त्र-आभूषण समर्पित कर विधिवत् पूजा करता है पुनः वह इन्द्र उन दोनों की स्तुति करता है-‘‘हे पूज्य! आप दम्पत्ति महापुण्यशाली हैं और धन्य हैं क्योंकि समस्त लोक में श्रेष्ठ ऐसा तीर्थंकर पुत्र आपको ही हुआ है। आप दोनों की बराबरी करने वाला इस लोक में अन्य कोई भी नहीं है, क्योंकि आप जगत् के गुरु के भी गुरु अर्थात् माता-पिता हैं। हे नाभिराज! आप ऐश्वर्यशाली उदयाचल हैं और हे माता मरुदेवि! आप पूर्वदिशा हैं क्योंकि वह पुत्ररूपी परमज्योति आप से ही उत्पन्न हुई है। आज आपका यह घर हम लोगों के लिए जिनालय के समान पूज्य है और आप जगत्पिता के भी माता-पिता हैं अतः हम लोेगों के लिए सदा पूज्य हैं।’’
इस प्रकार इन्द्र माता-पिता की स्तुति कर उनके हाथों में जिनबालक को सौंप देता है पुनः तीर्थंकर को सुमेरु पर्वत पर ले जाकर वहाँ पर जन्माभिषेक करने की सारी विधि का वर्णन करता है। माता-पिता अपने जन्मजात पुत्र का ऐसा पुण्य प्रताप सुनते हुए हर्ष और आश्चर्य की चरम सीमा पर पहुँच जाते हैं। अनन्तर इन्द्र माता-पिता से अनुमति प्राप्त कर अयोध्यावासी लोगों के साथ-साथ बड़े वैभव सहित पुनरपि जिनबालक का जन्मोत्सव मनाता है।
उस समय अयोध्या नगरी की शोभा स्वर्ग से भी बढ़कर अनुपम दिख रही है। सर्वत्र पताकाओं की पंक्तियाँ लहरा रही हैं, नगर निवासिनी स्त्रियाँ अप्सराओं के समान वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो मंगलगीत गा रही हैं, धूप की सुगन्धि से सारा दिग्मंडल व्याप्त हो गया है, नगर की सब गलियों में रत्नचूर्ण से चौक बनाये गये हैं। नगर के गोपुर और दरवाजों पर बँधे हुए तोरण अपनी शोभा से जन-जन का मन आकृष्ट कर रहे हैं। समस्त पुरवासी लोग गीत, नृत्य तथा वादित्र आदि अन्य अनेक मंगल कार्यों में तन्मय हो रहे हैं। उस समय उस नगर में न तो कोई दीन ही रहा है, न निर्धन ही और न कोई ऐसा ही रहा है कि जिसकी इच्छाएँ पूर्ण नहीं हुई हों और आनन्द से हर्षातिरेक नहीं हो रहा हो। इस तरह सारे संसार को आनन्दित करने वाला महोत्सव जैसा मेरुपर्वत पर हुआ था, वैसा ही अन्तःपुर सहित इस अयोध्या नगर में हो रहा है। उन नगर निवासियों का आनन्द देखकर अपने आनन्द को प्रकाशित करते हुए इन्द्र ‘आनन्द’ नामक नाटक करने के लिए उद्यमशील होता है।
ज्यों ही इन्द्र नृत्य करना प्रारंभ करता है, त्यों ही संगीत विद्या में कुशल गन्धर्वदेव अपने बाजे वगैरह ठीक कर विस्तार के साथ संगीत प्रारंभ कर देते हैं। उस समय अनेक बाजे बज रहे हैं, तीनों लोकों में फैली हुई कुलाचलों सहित पृथ्वी ही इन्द्र की रंगभूमि है, स्वयं सौधर्म इन्द्र प्रधान ही नृत्य करने वाला है, नाभिराज आदि उत्तम-उत्तम पुरुष उस नृत्य के दर्शक हैं, जगद्गुरु भगवान ऋषभदेव उसके आराध्य (प्रसन्न करने योग्य) देव हैं और धर्म, अर्थ, काम इन तीन पुरुषार्थों की सिद्धि तथा परमानन्दरूप अपवर्ग की प्राप्ति होना ही उसका फल है। इन ऊपर कही हुई वस्तुओं में से एक-एक वस्तु भी सज्जन पुरुषों को प्रीति उत्पन्न करने वाली है फिर पुण्योदय से सभी वस्तुओं का समुदाय किसी एक जगह आ मिले तो कहना ही क्या?
उस समय इन्द्र पहले त्रिवर्ग-धर्म, अर्थ, कामरूप फल को सिद्ध करने वाला गर्भावतारसम्बन्धी नाटक करता है पुनः जन्माभिषेकसंंबंधी नाटक करना प्रारंभ करता है। तदनंतर तीर्थंकर के महाबल आदि दशावतारसंबंधी वृत्तान्त को लेकर अनेक रूप दिखलाने वाले अन्य अनेक नाटक करता है। इन नाटकों का प्रयोग करते समय इन्द्र सबसे पहले पापों का नाश करने के लिए मंगलाचरण करता है पुनः सावधान होकर पूर्वरंग का प्रारंभ करता है। पूर्वरंग प्रारंभ करते समय इन्द्र पुष्पाञ्जलि क्षेपण करते हुए सबसे पहले ताण्डव नृत्य प्रारंभ करता है। उसके प्रारंभ में वह नान्दी मंगल करता है फिर नान्दी मंगल कर चुकने के बाद रंगभूमि में प्रवेश करता है। उस समय नाट्यशास्त्र के अवतार को जानने वाला और मंगलमय वस्त्राभूषण धारण करने वाला वह इन्द्र बहुत ही सुन्दर दिख रहा है। वह रंगभूमि में उतरते ही पहले अपने दोनों हाथ कमर पर रख कर चारों ओर से देवों से घिरा हुआ ऐसा दिखता है कि मानों वातवलयों से घिरा हुआ लोकस्कंध ही हो। वह इन्द्र ताल के साथ-साथ पैर रखकर रंगभूमि के चारों ओर घूमता हुआ ऐसा लगता है मानों पृथ्वी को नाप ही रहा हो। जब वह पुष्पाञ्जलि बिखेर कर ताण्डव नृत्य करना शुरू करता है तब उसकी भक्ति से प्रसन्न हुए देवगण आकाश से पुष्प बरसाने लगते हैं। उसी समय पुष्कर आदि करोड़ों प्रकार के बाजे एक साथ बजने लगते हैं फिर भी वे सभी वाद्य लय से लय मिलाकर बज रहे हैं। वीणा बजाती हुई किन्नरियाँ भगवान के गुणों के गीत गा रही हैं।
नृत्य करते हुए इन्द्र अपनी विक्रिया से हजारों भुजाएँ बना लेता है, तब पृथ्वी हिलने लगती है और समुद्र लहराने लगता है मानों आनन्द से थिरक-थिरक कर नाच ही रहा है। नृत्य करते समय वह इन्द्र क्षण भर में एक रह जाता है, पुनः अनेक हो जाता है, क्षण भर में पास में दिखाई देता है पुनः बहुत दूर पहुँच जाता है, क्षण भर में आकाश में दिखाई देता है तत्क्षण ही जमीन पर आ जाता है। विक्रिया से इस प्रकार नृत्य करता हुआ इन्द्र ऐसा लगता है कि मानों इन्द्रजाल का खेल ही दिखा रहा हो।
इन्द्र की हजारों भुजाओं पर मंद-मंद हास्य करती हुई देव अप्सराएँ नृत्य कर रही हैं। भुजाओं पर स्थित होकर नृत्य करती हुई देव नर्तकियाँ वद्र्धमान लय के साथ, कितनी ही ताण्डव नृत्य के साथ और कितनी ही देवांगनाएँ अनेक प्रकार के अभिनय दिखलाते हुए नृत्य कर रही हैं। नृत्य के समय फिरकी लेता हुआ इन्द्र हर्ष से विभोर होकर विक्रिया से अपने हजार नेत्र बना लेता है। कितनी ही देवियाँ इन्द्र के हाथों की अंगुलियों पर अपने चरण पल्लव रखती हुई लीलापूर्वक नृत्य कर रही हैं उस समय ऐसा लगता है कि मानों ये देवियाँ सूची नृत्य (सुई की नोक पर ही नृत्य) कर रही हों। अपने भुजदण्डों पर देव-नर्तकियों को नृत्य कराता हुआ वह इन्द्र ऐसा दिख रहा है मानों किसी यंत्र की पटियों पर लकड़ी की पुतलियों को नचाता हुआ कोई यान्त्रिक-यंत्र चलाने वाला ही हो। कभी वह इन्द्र अपनी एक ओर की भुजाओं पर देवों को नृत्य कराता है और दूसरी ओर की भुजाओं पर देवियों को नृत्य कराता हुआ अद्भुत ही प्रतीत हो रहा है।
उस समय एक ओर तो दीप्त और उद्धत रस से भरा हुआ ताण्डव नृत्य हो रहा है, दूसरी ओर सुकुमार प्रयोगों से भरा हुआ लास्य नृत्य हो रहा है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न रस वाले, उत्कृष्ट और आश्चर्यकारक नृत्य को दिखलाता हुआ इन्द्र लोगों में अतिशय प्रेम उत्पन्न कर रहा है। ऐसा आनन्द नाम का नृत्य बड़े सज-धज के साथ सम्पन्न करके इन्द्र अपनी विक्रिया को समेट कर जिनबालक के सन्मुख हाथ जोड़कर खड़ा हो जाता है। पुनः- ‘‘ये भगवान् वृष-श्रेष्ठ धर्म से सहित हैं’’।
ऐसा कहते हुए इन्द्र प्रभु का ‘वृषभस्वामी’ यह नामकरण करता है पुनः ‘पुरुदेव’ इस नाम से सम्बोधित करते हुए दूसरा नामकरण भी कर देता है। उसी समय सभी देवगण एक साथ-
‘‘तीर्थंकर ऋषभदेव की जय हो, पुरुदेव की जय हो, जय हो, जय हो।’’
ऐसे जय जयकार करने लगते हैं। अनन्तर माता-पिता को प्रसन्न करके वह इन्द्र जिनबालक की सेवा के लिए अर्थात् स्नान कराने, वस्त्राभूषण पहनाने, शरीर संस्कार करने और क्रीड़ा कराने आदि के लिए अनेक देवियों को धाय बनाकर नियुक्त कर देता है पुनः सौधर्म इन्द्र अन्य देव-देवियों के साथ पिता नाभिराय से आज्ञा लेकर अपने स्थान को चला जाता है।
(८)
जिनबालक ऋषभदेव को रत्नों के बने पालने में झुलाती हुई देवांगनाएँ तीर्थंकर के पुण्य गीत को गा रही हैं और फूली नहीं समा रही हैं। वे देवांगनाएँ धायरूप में बालक को कभी गोद में लेकर प्यार करती हैं, कभी हँसाती हैं तो कभी माता की गोद में दे देती हैं, पुनः दूसरी देवी आकर झट से अपनी गोद में ले लेती है। प्रजा के लोग दिन पर दिन दर्शन के लिए वहाँ आते रहते हैं और बालक को यदि गोद में ले पाते हैं तो अपने आप को बहुत ही पुण्यशाली समझ लेते हैं। कितनी ही महिलाएं, बालिकाएँ और नववधुएँ आकर बालक को गोद में ले-लेकर खिलाती रहती हैं। जिनबालक के मुखरूपी चन्द्रमा पर मन्द हास्यरूपी चाँदनी सदैव प्रगट रहती है, उससे माता-पिता का सन्तोषरूपी समुद्र अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त होता रहता है। ऋषभदेव दूज के चन्द्रमा के समान शरीर की वृद्धि के साथ-साथ अनेक गुणों से भी वृद्धि को प्राप्त हो रहे हैं।
धीरे-धीरे उनके मुखकमल से क्रम-क्रम से अस्पष्टवाणी प्रगट होने लगती है जिसे सुन-सुनकर माता-पिता व प्रजा के लोग अत्यधिक आनन्द का अनुभव करते हुए ऐसा चाहते हैं कि हम लोग सदा प्रभु की वाणी सुनते ही रहें। इन्द्रनील मणियों की भूमि पर धीरे-धीरे गिरते-पड़ते चलते हुए बालक ऋषभदेव बहुत ही सुन्दर लगते हैं। कभी देवियाँ हाथ की अँगुली का सहारा देती हैं और कभी भगवान स्वयं चलना चाहते हैं तब देवियाँ अंगुली छोड़ देती हैं तथा बालक की डगमगाती हुई चाल को देखकर हँसने लगती हैं, तब बालक भी खिलखिलाकर हँसने लगता है। बालक को हँसते हुए देखकर माता मरुदेवी हर्ष के अतिरेक से रोमांचित हो जाती हैं।
बालक ऋषभदेव धीरे-धीरे मणियों की भूमि पर बैठने लगते हैं और देव बालकों के साथ रत्नों की धूलि में क्रीड़ा करने लगते हैं। इन्द्र की आज्ञा से बहुत से देव स्वर्ग से आकर जिनबालक की अवस्था के अनुसार अपने-अपने शरीर को बनाकर बालक के साथ क्रीड़ा करते हुए बहुत ही सुख का अनुभव करते हैं। जिनबालक अपनी बाल्य अवस्था को पार कर कौमार अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं। उनके साथ-साथ ही देवगण वैसा ही शरीर बनाकर उनके साथ खेला करते हैं। बालक का मनोहर शरीर, प्यारी बोली, मनोहर अवलोकन और मुस्कराते हुए वार्तालाप करना यह सब संसार की प्रीति को बढ़ा रहे हैं। बालक के शरीर के साथ-साथ उनकी कलाएँ वृद्धिंगत होती जा रही हैं। ऋषभदेव बालक होते हुए भी उनमें बालसुलभ चेष्टाएँ न होकर प्रौढ़ता और गंभीरता विद्यमान है।
बालक ऋषभदेव गर्भ से ही मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञान से समन्वित हैं इसलिए वे समस्त विद्याओं के ईश्वर हैं क्योंकि जन्मान्तर का संस्कार स्मरणशक्ति को सदैव पुष्ट रखता है यही कारण है कि वे समस्त लोक के गुरु हैं उनका कोई भी गुरु नहीं बन सकता है। वे प्रभु बिना शिक्षा के ही समस्त कलाओं में प्रशंसनीय कुशलता को, समस्त विद्याओं में प्रशंसनीय चतुराई को और समस्त क्रियाओं में प्रशंसनीय कर्मठता को प्राप्त हो चुके हैं। वे प्रभु सरस्वती के एकमात्र स्वामी हैं इसलिए समस्त वाङ्मय (शास्त्र) इन्हें प्रत्यक्ष हो गये हैं। ये समस्त प्राचीन इतिहास के ज्ञाता हैं, उत्तम कवि हैं, वक्ता हैं, गमक हैं और सबको प्रिय हैं क्योंकि कोष्ठबुद्धि, बीजबुद्धि आदि विद्याएँ उन्हें स्वभाव से प्राप्त हो गई हैं। क्षायिक सम्यग्दर्शन ने उनके मन के समस्त दोषों को दूर कर दिया है और स्वभाव से प्राप्त हुई सरस्वती ने उनके वचनसंंबंधी समस्त दोषों का अपहरण कर लिया है। उनके परिणाम बहुत ही शान्त हैं, आठ वर्ष की उम्र में बिना गुरु के ही पाँच अणुव्रतरूप चर्या प्रगट हो चुकी है अतः उनकी सारी चेष्टाएँ जगत का हित करने वाली ही होती हैं।
तीर्थंकर ऋषभदेव कभी तो, जिनका पूर्वभव में अच्छी तरह अभ्यास किया है ऐसे लिपिविद्या तथा संगीतादि कला शास्त्रों का, स्वयं अभ्यास करते हैं और कभी दूसरों को कराते हैं। कभी छन्दशास्त्र, कभी अलंकार शास्त्र, कभी प्रस्तार, नष्ट, उद्दिष्ट, संख्या आदि का विवेचन और कभी चित्र खींचना आदि कला शास्त्रों का मनन करते हैंं। कभी वैयाकरणों के साथ व्याकरणसंबंधी चर्चा करते हैं, कभी कवियों के साथ काव्य-चर्चा, कभी अधिक बोलने वाले वादियों के साथ वाद करते हैं, कभी गीतगोष्ठी, कभी नृत्यगोष्ठी, कभी वादित्रगोष्ठी और वीणागोष्ठी के द्वारा विद्वानों का मनोरंजन करते हैं। कभी मयूरों का रूप धरकर नृत्य करते हुए देवकिंकरों को लय के अनुसार हाथ की ताल दे-देकर नृत्य कराते हैं। कभी विक्रिया शक्ति से तोते के रूपधारी देवकुमारों को स्पष्ट और मधुर अक्षरों से श्लोक पढ़ाते हैं। कभी हंसरूपधारी देवों को अपने हाथ से मृणाल के टुकड़े देकर सम्मानित करते हैं। कभी हाथी का रूप धरकर क्रीड़ा करने वाले देवों के साथ आनन्द से क्रीड़ा करते हैं। कभी मुर्गों का रूप धारण कर रत्नमयी जमीन में पड़ते हुए अपने प्रतिबिंबों के साथ ही युद्ध करने के इच्छुक देवों को देखते हुए उन पर प्रेम से हाथ फेरते हैं। कभी विक्रिया शक्ति से मल्ल का रूप धारण कर मात्र क्रीड़ा करने के लिए युद्ध के इच्छुक देवों को प्रोत्साहित कर रहे हैं। कभी क्रौंच और सारस पक्षियों के रूपधारी देवों का उच्च स्वर-व्रेंकार शब्द सुनते हुए उन पर हाथ फिराते हैं। कभी माला आदि आभूषणों से अलंकृत देव बालकों को दण्ड क्रीड़ा (पड़गर का खेल) में लगाकर नचाते हैं। कभी घर के आँगन में देवांगनाओं द्वारा बनायी गयी रत्नचूर्ण की चित्रावली का निरीक्षण करते हैं।
कभी वे देव बालक एक साथ मिलकर गद्य में और पद्य में उनके निर्मल यश का बखान करते हैं उसे प्रभु सुनते हुए मुस्करा देते हैंं। कभी उनके दर्शनों के लिए प्रजा के लोग आ जाते हैं तब प्रभु मधुर और स्नेह युक्त दृष्टि से उनका अवलोकन करके किन्हीं के साथ मन्द हास्य से सहित सम्भाषण करके उन्हें प्रसन्न कर देते हैं। उस समय प्रजा को भी ऐसा लगता है मानों हमारा राज्याभिषेक ही हो गया हो। कभी देव बालकों के साथ कृत्रिम बावड़ियों में जल क्रीड़ा का आनन्द लेते हैं तो कभी सरयू नदी में प्रवेश कर लकड़ी के बने हुए यंत्रों से जलक्रीड़ा करते हैं।
जलक्रीड़ा के समय मेघकुमार जाति के देव भक्ति से धारा-गृह (फव्वारा) की रचना करके चारों ओर जल की धारा छोड़ते हुए प्रभु की सेवा करते हैं। नन्दन के समान अयोध्या के बगीचे में जब प्रभु वन क्रीड़ा के लिए जाते हैं तब पवनकुमार जाति के देव पृथ्वी को धूलि रहित करते हुए बगीचे के वृक्षों को धीरे-धीरे हिलाते हैं तब लताओं से पुष्पों की वर्षा होने लगती है उस समय ऐसा लगता है मानों प्रभु के आगमन की खुशी में ही लताएँ नाच रही हैं और पुष्पाञ्जलि क्षेपण कर रही हैं। इस प्रकार देवगण ऋषभदेव के वय के अनुसार वेष, भूषा और क्रीड़ा से प्रभु का मनोरंजन करने के बहाने स्वयं का मनोरंजन करते हुए प्रभु की सेवा का पुण्य सम्पादन कर रहे हैं तथा प्रभु के सानिध्य में ऊँची से ऊँची व्याकरण, छन्द आदि चर्चाएँ तथा तत्त्वचर्चाएँ करते हुए अपने ज्ञान को विकसित कर रहे हैं।
महाराजा नाभिराय के घर में देव बालकों के साथ समय यापन करते हुए ऋषभदेव सारी प्रजा के नेत्रों को आह्लादित कर रहे हैं। सौधर्म इन्द्र अपने यहाँ के मानस्तंभ के रत्नकरण्डकों में उत्पन्न हुई सुगन्धित मालाएँ, दिव्यलेप आदि दिव्यभोग सामग्री और वस्त्र अलंकार आदि वस्तुएँ नित्य प्रति वहीं (स्वर्ग) से प्रभु के लिए भेजता रहता है। तीर्थंकर कुमार स्वर्ग से लाए हुए उन माला, लेप, वस्त्र, आभरण आदि भोगोपभोग सामग्री का ही उपभोग करते हैं।
(९)यौवन अवस्था में प्रवेश करने पर तीर्थंकर ऋषभदेव का शरीर बहुत ही सुन्दर दिख रहा है। जन्मकाल से ही प्रभु के दश अतिशय प्रगट हो गये थेः १. उनका रूप बहुत ही सुन्दर और असाधारण था जो कि तपाये हुए स्वर्ण के समान कांतिवाला था
२. पसीना से रहित था
३. धूलि और मल से रहित था
४. उनका रुधिर दूध के समान था
५. समचतुरस्रनामक सुन्दर संस्थान था
६. वङ्कावृषभनाराच नाम का उत्तम संहनन था
७. सुगंधि की परम सीमा प्राप्त कर चुका था
८. एक हजार आठ लक्षणों से अलंकृत था
९. अप्रमेय, महाशक्तिशाली था और
१०. प्रिय तथा हितकारी वचन बोलने वाला था।
ये दश प्रकार की विशेषताएँ तीर्थंकर के अवतार पुण्यशाली दिव्य पुरुष में जन्म से ही विद्यमान रहती हैं।
श्रीवृक्ष, शंख, कमल, स्वस्तिक, अंकुश, तोरण, चमर, सफेद छत्र, सिंहासन, पताका, दो मछली, दो कुम्भ, कच्छप, चक्र, समुद्र, सरोवर, विमान, भवन, हाथी, मनुष्य, स्त्रियाँ, सिंह, वाण, धनुष, मेरु, इन्द्र, देवगंगा, पुर, गोपुर, चंद्रमा, सूर्य, उत्तम घोड़ा, ताल-वृन्त-पंखा, बांसुरी, वीणा, मृदंग, मालाएँ, रेशमीवस्त्र, दुकान, कुंडल आदि चमकते हुए आभूषण, फल सहित उपवन, पके हुए कलमों से सुशोभित खेत, रत्नद्वीप, वङ्का, पृथ्वी, लक्ष्मी, सरस्वती, कामधेनु, वृषभ, चूड़ामणि, महानिधियाँ, कल्पलता, सुवर्ण, जम्बूद्वीप, गरुड़, नक्षत्र, तारे, राजमहल, मंगलादि ग्रह, सिद्धार्थ वृक्ष, आठ प्रातिहार्य और आठ मंगलद्रव्य इन्हें आदि लेकर एक सौ आठ लक्षण और मसूरिका आदि नौ सौ व्यञ्जन तीर्थंकर के शरीर में विद्यमान रहते हैं। इन मनोहर और शुभ लक्षणों से व्याप्त श्री ऋषभदेव का शरीर ऐसा सुन्दर दिख रहा है कि जैसे ज्योतिषी देवों से भरित आकाशरूपी आँगन। उनका मुखरूपी चन्द्र इतना अधिक कांतिमान है कि तीनों लोकों में उसके समान कांति अन्य किसी की भी नहीं है। वात, पित्त और कफ इन तीन दोषों से उत्पन्न हुई व्याधियाँ तीर्थंकर के शरीर में स्थान नहीं पा सकी थीं सो ठीक ही है, वृक्ष अथवा अन्य पर्वतों को हिलाने वाली वायु मेरुपर्वत पर अपना असर नहीं दिखा सकती। उनके शरीर में न कभी बुढ़ापा आ सकता है, न कभी उन्हें खेद होता है और न कभी असमय में उनका अपघात (मृत्यु) ही हो सकता है। उनके श्रीवत्स से चिन्हित वक्षस्थल पर ‘इन्द्रच्छद’ नाम का दिव्यहार बहुत ही सुन्दर प्रतीत हो रहा है।
किसी एक दिन महाराजा नाभिराय ऋषभदेव की यौवन अवस्था का प्रारंभ देखकर अपने मन में विचार करते हैं-
‘‘ये देव अतिशय सुन्दर शरीर के धारक हैं इनके चित्त को हरण करने वाली कौन सी सुन्दर स्त्री हो सकती है? सुन्दर स्त्री तो मिल सकती है, परन्तु इनका विषयराग अत्यन्त मन्द है इसलिए इनके विवाह का प्रारंभ करना ही कठिन कार्य है। दूसरी बात यह है कि इनका धर्मतीर्थ की प्रवत्ति करने में बहुत बड़ा उद्योग है इसलिए ये नियम से सर्व परिग्रह को छोड़कर वन में प्रवेश करेंगे। तथापि तपस्या करने के लिए जब तक इनका समय आता है तब तक इनके लिए लोकव्यवहार के अनुरोध से योग्य स्त्री का विचार करना चाहिए। जिस प्रकार हंसी कीचड़ रहित मानसरोवर में निवास करती है उसी प्रकार कोई योग्य और कुलीन स्त्री इनके निर्मल मानस में निवास करे।’’
ऐसा विचार कर लक्ष्मीवान् महाराजा नाभिराय बड़े ही आदर और हर्ष के साथ तीर्थंकर ऋषभदेव के पास पहुँचते हैं। पिता को सामने आते देख प्रभु ऋषभदेव उनका स्वागत करते हैं। दोनों यथायोग्य अपने-अपने आसन पर विराजमान हो जाते हैं। तब महाराजा नाभिराय शांतिपूर्वक ऋषभदेव से कहते हैं-
‘‘हे देव! मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूँ इसलिए आप सावधान होकर सुनिये। आप जगत् के अधिपति हैं इसलिए आपको जगत् का उपकार करना चाहिए। हे देव! आप जगत् की सृष्टि करने वाले ब्रह्मा हैं तथा स्वयंभू हैं-अपने आप ही उत्पन्न हुए हैं, क्योंकि आपकी उत्पत्ति में अपने आपको पिता मानने वाले हम तो एक छलमात्र हैं। जिस प्रकार सूर्य के उदय होने में उदयाचल निमित्तमात्र है क्योंकि सूर्य तो स्वयं ही उदित होता है उसी प्रकार आपकी उत्पत्ति होने में हम निमित्तमात्र हैं क्योंकि आप स्वयं ही उत्पन्न हुए हैं। आप माता के पवित्र गर्भ-गृह में कमलरूपी दिव्य-आसन पर अपनी उत्कृष्ट शक्ति स्थापन कर उत्पन्न हुए हैं इसलिए वास्तव में आप शरीररहित हैं। यद्यपि मैं आपका यथार्थ में पिता नहीं हूँ, निमित्तमात्र से ही पिता कहलाता हूँ तथापि मैं आपसे एक अभ्यर्थना करता हूँ कि आप इस समय संसार की सृष्टि की ओर भी अपनी बुद्धि लगाइये। आप आदिपुरुष हैं इसलिए आपको देखकर अन्य लोग भी ऐसी ही प्रवृत्ति करेंगे क्योंकि जिनके उत्तम सन्तान होने वाली है ऐसी प्रजा महापुरुषों के ही मार्ग का अनुगमन करती है इसलिए हे ज्ञानियों में श्रेष्ठ! आप इस संसार में किसी इष्ट कन्या के साथ विवाह करने के लिए मन कीजिए क्योंकि ऐसा करने से प्रजा की संतति का उच्छेद नहीं होगा और प्रजा की संतति का उच्छेद नहीं होने पर धर्म की संतति बढ़ती रहेगी। इसलिए हे देव! मनुष्यों के इस अविनाशीक विवाहरूपी धर्म को आप अवश्य ही स्वीकार कीजिये। हे देव! आप इस विवाह कार्य को गृहस्थों का एक धर्म समझिए क्योंकि गृहस्थों को सन्तान की रक्षा में प्रयत्न अवश्य ही करना चाहिए। यदि आप मुझे किसी भी तरह गुरु (बड़ा) मानते हैं तो आपको मेरे वचनों का किसी भी कारण से उल्लंघन नहीं करना चाहिए क्योंकि गुरुओं के वचन उल्लंघन करना इष्ट नहीं है।’’
इस प्रकार वचन कहकर धीर-वीर महाराजा नाभिराय चुप हो गए, तब ऋषभदेव हँसते हुए-
‘‘ओम्’’ऐसा कहकर उनके वचन स्वीकार कर लेते हैं।
‘‘अहो! इन्द्रियों को वश में करने वाले भगवान ने जो विवाह कराने की स्वीकृति दी थी वह क्या उनके पिता की चतुराई थी, अथवा प्रजा का उपकार करने की इच्छा थी अथवा वैसा कोई कर्मों का नियोग ही था।’’
ऋषभदेव की अनुमति जानकर नाभिराय निःशंक होकर बड़े हर्ष के साथ विवाह का बड़ा भारी आयोजन करते हैं। पहले सौधर्म इन्द्र की अनुमति से सुशील, सुन्दर लक्षणों वाली, सती, बहुत ही शांत परिणामों वाली और यौवनवती ऐसी यशस्वती तथा सुनन्दा नाम की दो कन्याओं को उनके भ्राता तीर्थंकर महापुरुष के साथ अपनी बहनों का विवाह प्रस्ताव सुनकर रोमांचित हो जाते हैं, उनके हर्ष का पार नहीं रहता है। तभी इन्द्र के साथ बहुत से देवगण आकर आनन्द के साथ बहुत बड़े विवाह मण्डप की रचना कर देते हैं। अयोध्या नगरी की शोभा का तो कहना ही क्या? प्रजा के लोगों में तो आनन्द की विशेष लहर है ही, वे सभी लोग मंगल महोत्सव को मनाने में विशेष तैयारियाँ कर ही रहे हैं, सारी नगरी ध्वजा, पताका, तोरणद्वार और फूलों की मालाओं से सजायी गई है। देवगण भी उत्साह से सारे महोत्सव को सम्पन्न कराने में दत्तचित्त हैं।
इस प्रकार महामहोत्सव के साथ तीर्थंकर ऋषभदेव का विवाह सम्पन्न होता है। नाभिराय अपने परिवार के लोगों के साथ दोनों पुत्रवधुओं को देखकर बहुत ही सन्तुष्ट हो रहे हैं, सो ठीक ही है क्योंकि संसारीजनों को विवाह आदि लौकिक धर्म ही प्रिय होता है। उस समय माता मरुदेवी बहुत प्रसन्न हो रही हैं, सो सच ही है पुत्र के विवाहोत्सव में माताओं को अधिक प्रेम होता ही हैै। प्रजा के लोगों का भी आनन्द बढ़ता ही जा रहा है। मनुष्य स्वयं ही भोगों की तृष्णा रखते हैं इसलिए वे स्वामी को भोग स्वीकार करते देखकर उन्हीं का अनुसरण करने लगते हैं। तीर्थंकरदेव का वह विवाहोत्सव केवल मनुष्यलोक की ही प्रीति के लिए नहीं हुआ था, प्रत्युत् उसने स्वर्गलोक में भी भारी प्रीति को उत्पन्न किया था।
नवविवाहिता यशस्वती और सुनन्दा साक्षात् तीर्थंकर ऋषभदेव जैसे वर को प्राप्त कर महासौभाग्यशालिनी हुई ही थीं, साथ ही अपने स्त्रीपर्याय को भी वे उस समय बहुत ही उत्तम गिन रही थीं। उन दोनों की सुन्दरता श्री ऋषभदेव के योग्य थी और गुणों में वे स्त्री सृष्टि में सर्वोच्च थीं, तभी तो उन्हें तीर्थंकर की पत्नी होने का पुण्य अवसर मिला था। वे नाना प्रकार के सुन्दर-सुन्दर स्वर्ग से लाये गये वस्त्र, आभूषणों से अलंकृत थीं। उनके गले में एकावली हार शोभायमान हो रहा था जो कि उनके कण्ठ की शोभा को द्विगुणित कर रहा था।
जहाँ तीर्थंकर ऋषभदेव तो वर हैं और यशस्वती-सुनन्दा जैसी यथा नाम तथा गुणों वाली कन्याएँ वधू हैं, अन्तिम कुलकर महाराजा नाभिराय के साथ ही सौधर्म इन्द्र विवाह महोत्सव करने वाला है और अयोध्या की भाग्यशालिनी प्रजा के साथ-साथ सर्व आर्यखण्ड के लोग तथा स्वर्ग के असंख्य देव-देवियाँ जहाँ उत्सव को देखने वाले हैं, पुरी की पुरन्ध्रिकाएँ और अप्सराएँ जहाँ मंगलगीत गाने वाली और नृत्य करने वाली हैं, वहाँ के उस समय के महामहोत्सव का भला कौन वर्णन कर सकता है?
कीर्ति और लक्ष्मी के समान यशस्वती और सुनन्दा ने अपने सर्व उत्तम-उत्तम गुणों से प्रभु ऋषभदेव का मन हरण कर लिया था, सो ठीक है। यद्यपि कामदेव तीर्थंकर ऋषभदेव के सामने अनेक बार अपमानित हो चुका था तथापि वह गुप्तरूप से अपना संचार करता ही रहता था। इस प्रकार उन देवियों के साथ सांसारिक सुखों का अनुभव करते हुए जगद्गुरु तीर्थंकर ऋषभदेव का बहुत सा समय भी क्षणमात्र के समान व्यतीत हो जाता है।
(१०)
यशस्वती महादेवी राजहल में सो रही हैं, रात्रि के पिछले प्रहर में कुछ उत्तम-उत्तम स्वप्न देखती हैं, उसी समय तुरही की मंगल ध्वनि बजने लगती है और बंदीजन मंगलपाठ-सुप्रभाती पढ़ने लगते हैं-
‘‘हे दूसरों का कल्याण करने वाली और स्वयं सैकड़ों कल्याणों को प्राप्त होने वाली देवि! अब तुम जागो, क्योंकि यह उषा की मंगल बेला पूर्व दिशा को अनुरक्त (लाल) कर रही है। हे मातः! तुम्हारे द्वारा देखे गये अनेकों मंगलीक शुभ स्वप्न तुम्हारे और जगत् के मंगल के लिए होवें। हे कल्याणि! आपके पतिदेव के स्मरण से आपका यह सुप्रभात आपके लिए मंगलमयी होवे। हे ऋषभदेव की प्रियवल्लभे! अब तुम शय्या छोड़ो और सभी परिवार के जनों को आनन्दित करो।’’
इत्यादि मंगल पदों से सुप्रभाती पढ़ते हुए बंदीजनों का कोलाहल शांत हो रहा है। तब यशस्वती महादेवी शय्या को छोड़कर प्राप्तःकाल का मंगलस्नान कर हर्ष से रोमांचित शरीर हो सबके स्वामी तीर्थंकर ऋषभदेव के समीप पहुँचती हैं। विनय से पतिदेव को प्रणाम कर उनके द्वारा निर्दिष्ट भद्रासन पर बैठ जाती हैं पुनः तीर्थंकर देव के सन्मुख हाथ जोड़कर निवेदन करती हैं-
तब ऋषभदेव अपने दिव्य अवधिज्ञान से स्वप्नों के फल को जानकर कहते हैं-
‘‘ हे देवि! स्वप्नों में जो तूने सुमेरु पर्वत देखा है उसका फल यह है कि तेरे चक्रवर्ती पुत्र होगा।
सूर्य उसके प्रताप को और चन्द्रमा उसकी कांतिरूपी सम्पदा को सूचित कर रहा है।
सरोवर के देखने से तेरा पुत्र अनेक पवित्र लक्षणों से चिन्हित शरीर छोड़कर अपने विस्तृत वक्षस्थल पर कमलवासिनी-लक्ष्मी को धारण करने वाला होगा।
हे देवि! पृथ्वी का ग्रसा जाना देखने से तुम्हारा वह पुत्र चक्रवर्ती होकर समुद्ररूपी वस्त्र को धारण करने वाली समस्त छह खण्ड पृथ्वी का स्वामी होगा तथा समुद्र को देखने से वह चरमशरीरी होकर संसाररूपी समुद्र को पार करने वाला होगा।
हे कमलनयने! इक्ष्वाकुवंश को आनन्द देने वाला वह पुत्र तेरे सौ पुत्रों में सबसे ज्येष्ठ होगा।’’
इस प्रकार पति के वचन सुनकर महारानी यशस्वती हर्ष के अतिरेक से रोमांच को प्राप्त होती हुई पतिदेव को प्रणाम कर अपने राजमहल में वापस आ जाती हैं। इधर सर्वार्थसिद्धि से अहमिंद्र का जीव च्युत होकर महादेवी यशस्वती के पवित्र गर्भ में निवास करने लगता है। वह देवी तीर्थंकरदेव के दिव्य प्रभाव से उत्पन्न हुए गर्भ को धारण कर रही है। यही कारण है कि वह अपने ऊपर आकाश में चलते हुए सूर्य को भी नहीं सहन करती है। वीर सम्राट् को गर्भ में धारण करने वाली वह अपने मुख को तलवाररूपी दर्पण में देखती है पुनः अतिशय मान से संयुक्त वह तलवार में पड़ती हुई अपनी प्रतिकूल छाया को भी नहीं सहन कर सकती है। वह रत्नगर्भा भूमि के समान, फलवाली बेल के समान, सूर्यरूपी तेज जिसमें छिपा है ऐसी पूर्व दिशा के समान अतिशय सुन्दरता को प्राप्त हो रही हैै। यशस्वती देवी के गर्भावस्था में भी उदर की त्रिवली भंग नहीं हुई थी ऐसा लगता था कि मानों बालक अभंग दिग्विजय प्राप्त करेगा। उस देवी को सदा उत्तम-उत्तम दोहले होते रहते हैं जो कि माता मरुदेवी के हर्षसागर की वृद्धि को करने वाले रहते हैं।
इस प्रकार नव महीने व्यतीत हो जाने पर यशस्वती महादेवी देदीप्यमान तेज से परिपूर्ण और महापुण्यशाली पुत्ररत्न को जन्म देती हैं। तीर्थंकर ऋषभदेव के जन्म के समय में जो शुभ दिन, शुभ लग्न, शुभ योग, शुभ चन्द्रमा और शुभ नक्षत्र आदि थे, वे ही शुभ दिन आदि उस समय भी हैं अर्थात् उस समय चैत्र कृष्ण नवमी, मीन लग्न, ब्रह्मयोग, धनराशि का चंद्रमा और उत्तराषाढ़ा नक्षत्र है। उस समय उत्तम मुहूर्त में जन्मा हुआ वह शिशु अपनी दोनों भुजाओं से पृथ्वी का आलिंगन कर उत्पन्न हुआ है इसलिए निमित्तज्ञानियों ने बतलाया कि ‘यह समस्त पृथ्वी का अधिपति अर्थात् चक्रवर्ती होगा।’ उस समय पुत्र जन्म के अवसर पर उसके दादा-दादी अर्थात् महाराजा नाभिराय और महारानी मरुदेवी दोनों ही परमहर्ष को प्राप्त हो रहे हैं। अतीव हर्ष को प्राप्त हुई पुत्रवती सौभाग्यवती स्त्रियाँ मंगल बधाई गाती हुई यशस्वती देवी को आशीर्वाद देते हुए कहती हैं-
‘‘हे देवि! पुत्राणां शतं प्रसूष्व, शतपुत्रा भव, अर्थात् हे देवि! तू इसी प्रकार सौ पुत्रों को उत्पन्न कर।’’
उसी क्षण राजमंदिर में बड़े-बड़े नगाड़े बजने लगते हैं, तुरही, दुंदुभि, झल्लरी, शहनाई, सितार, शंख, काहल और ताल आदि अनेक बाजे बज रहे हैं। देवगण भी आकाश से सुगन्धित पुष्पोें की वर्षा कर रहे हैं। सुगंधित कमल पराग से मिश्रित जल के छींटों से सहित ऐसी हवा मंद-मंद चल रही है। देवगण आकाश में जय-जयकार के शब्दोच्चारण से सारे वातावरण को मुखरित कर रहे हैं। देवियाँ शुभ मंगल शब्दों के द्वारा शिशु को शुभाशीर्वाद दे रही हैं-
‘हे तीर्थंकर के सुपुत्र! तुम चिरंजीव रहो, करोड़ों मंगल को प्राप्त करो।’’
नर्तकियाँ मंगल गीत गाते हुए नृत्य कर रही हैं, अयोध्या नगर की गली-गली में चंदन का छिड़काव किया जा रहा है एवं मंगल चौक पूरे जा रहे हैं। रत्ननिर्मित तोरणों से घर-घर के द्वार सजाये गये हैं। सौभाग्यवती स्त्रियाँ रत्नों के चूर्ण से नाना तरह के सुन्दर चौक बनाकर उन पर सुवर्ण कमलों से ढके हुए ऐसे मंगलीक सुवर्ण कलश रख रही हैं। उस समय समस्त अयोध्यानगरी उत्सव को धारण कर रही है।
तीर्थंकर ऋषभदेव स्वयं अपने हाथों से सुवर्ण, रत्न आदि दान से धन की धारा बरसा रहे हैं अर्थात् सुवर्ण रत्न आदि दान दे रहे हैं। वह बालकरूपी चंद्रमा तीर्थंकर ऋषभदेवरूपी उदयाचल से उदय को प्राप्त हुआ है अतएव वह समस्त अंतःपुर सहित नगर भर में आनन्दरूपी अमृत को बरसा रहा है। ‘‘उस समय प्रेम से भरे हुए सभी बंधुगण समस्त भरतक्षेत्र के अधिपति होने वाले उस पुत्र को ‘भरत’ इस नाम से संबोधित कर रहे हैं। इतिहास के जानने वालों का कहना है कि जहाँ अनेक आर्यपुरुष रहते हैं ऐसा यह हिमवान पर्वत से लेकर समुद्रपर्यंत का चक्रवर्तियोें का क्षेत्र उसी ‘भरत’ पुत्र के नाम के कारण ‘भारतवर्ष’ इस नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हो रहा है।’’
उस बालक के चरणकमलों में चक्र, छत्र, तलवार, दण्ड आदि चौदह रत्नों के चिन्ह बने हुए हैं और वे ऐसे मालूम पड़ते हैं कि मानों ये चौदह रत्न लक्षणों के बहाने ही भावी चक्रवर्ती की पहले से ही सेवा कर रहे हों। वह बालक माता यशस्वती के स्तन का पान करता हुआ जब कभी दूध के कुरले को बार-बार उगलता था तब वह ऐसा मालूम पड़ता था कि मानों अपना यश ही दिशाओं में बाँट रहा है। वह बालक ‘भरत’ अपनी मंद मुस्कान, मनोहर हास, मणिमयी भूमि पर चलना और अव्यक्त मधुर भाषण आदि के द्वारा अपने दादा-दादी और माता-पिता के हर्ष समुद्र को बढ़ा रहा है। जैसे-जैसे बालक बढ़ रहा है, वैसे-वैसे ही उसके गुण भी बढ़ते जा रहे हैं।
विधि के विधाता तीर्थंकर ऋषभदेव उस बालक के क्रम से अन्नप्राशन, चौल और उपनयन आदि संस्कार स्वयं करते हैं।
बालक भरत शैशव में प्रवेश कर रहे हैं। उस समय उनकी वाणी, कला, विद्या, द्युति, शील और विज्ञान आदि सब कुछ वही हैं जो कि उनके पिता ऋषभदेव के हैं। पिता के साथ तन्मयता को प्राप्त भरत पुत्र को देखकर प्रजा कहा करती है कि ‘पिता का आत्मा ही पुत्र नाम से कहा जाता है’ यह बात बिल्कुल सच है। वह भरत पन्द्रहवें मनु तीर्थंकर ऋषभदेव के मन को भी अपने अधीन कर लेते हैं इसलिए लोग कहने लगे कि-
‘‘अहो! यह सोलहवाँ मनु उत्पन्न हो गया है।’’
केवल मात्र भरत के चरणों का पराक्रम ही समस्त पृथ्वीमंडल पर आक्रमण करने वाला है फिर भला उसके सम्पूर्ण शरीर का पराक्रम कौन सहन कर सकता है? उसके शरीरसम्बन्धी बल का वर्णन केवल इतने से ही समझ लिया जाता था कि वह चरमशरीरी है, और उसकी आत्मासंबंधी बल का वर्णन दिग्विजय आदि बाह्य चिन्हों से जाना जावेगा। चक्रवर्ती के क्षेत्र में रहने वाले समस्त मनुष्य और देवों में जितना बल होता है उससे कई गुना अधिक बल चक्रवर्ती भरत की भुजाओं में है। ‘जहाँ सुन्दर आकार है वहीं समस्त गुण निवास करते हैं’ इस लोकोक्ति के अनुसार सत्य, शौच, क्षमा, त्याग, प्रज्ञा, उत्साह, दया, दम, शम और विनय ये गुण उनकी आत्मा के साथ-साथ रह रहे हैं। सुन्दर शरीर, नीरोगता, ऐश्वर्य, धन-सम्पत्ति, बल, आयु, यश, बुद्धि, सर्वप्रियवचन और चातुर्य आदि इस संसार में जितने भी कुछ सुख के कारण हैं वे सब अभ्युदय कहलाते हैं और वे सब संसारी जीवों को पुण्य के उदय से ही प्राप्त होते हैं। जब तीर्थंकर ऋषभदेव भी अपने प्रिय पुत्र भरत के मुख को देखकर उसके विनयपूर्ण शब्दों को सुनकर प्रणाम के बाद उठाकर खड़े हुए उसका बार-बार आलिंगन कर तथा उसे अपनी गोद में बिठाकर परम संतोष को प्राप्त होते रहते हैं, तब पुनः महाराजा नाभिराज, दादी मरुदेवी और माता यशस्वती तथा सुनन्दा के आनन्द का क्या कहना है! वे तो भरत की चेष्टा को उत्सुकता से देखा ही करते हैं।
(११)
तीर्थंकर ऋषभदेव की द्वितीय वल्लभा सुनन्दा महादेवी किसी समय रात्रि के पिछले प्रहर में शुभ स्वप्नों को देखकर सर्वार्थसिद्धि से च्युत हुए अहमिंद्र के जीव को अपने उदर में धारण करती हैं। सुखपूर्वक नवमास व्यतीत कर उत्तम नक्षत्र आदि शुभयोग में पुत्ररत्न को जन्म देती हैं। उस समय भी पूर्ववत् नाना उत्सव किये जाते हैं तथा बालक का ‘बाहुबली’ यह नामकरण किया जाता है जो कि मानों उस बालक के भविष्य में होने वाले अचिन्त्य बाहुबल को ही सूचित कर रहा है। यह बालक भी इस युग के चौबीस कामदेवों में से ‘प्रथम कामदेव’ है अतः इसकी सुन्दरता का वर्णन लेखनी के द्वारा कोई नहीं कर सकता है। इस बालक के शरीर का वर्ण मरकतमणि के समान हरा है जो कि अभूतपूर्व ही सौंदर्य को दिखा रहा है।
इधर माता यशस्वती के क्रम-क्रम से निन्यानवे पुत्र होते हैं। वृषभसेन, अनन्तविजय, अनन्तवीर्य, अच्युत, वीर और वरवीर आदि जिनके अच्छे-अच्छे नाम हैं और ये सभी भी चरमशरीरी महापुण्यवान् हैं। इनके बाद महादेवी यशस्वती के एक सुन्दर कन्या का जन्म होता है जिसका ‘ब्राह्मी’ ऐसा नाम रखा जाता है। उसी प्रकार से सुनन्दा देवी के भी एक पुत्री का जन्म होता है जिसे सुन्दरी नाम से पुकारा जाता है। इस प्रकार तीर्थंकर ऋषभदेव के भरत, बाहुबली आदि एक सौ एक पुत्र एवं ब्राह्मी-सुन्दरी ऐसी दो पुत्रियाँ हैं। इन सभी परिवार के साथ महाराजा नाभिराय और माता मरुदेवी अपने आप में महान् सुख का अनुभव कर रहे हैं।
कर्मयुग के प्रारंभ में तीर्थंकर ऋषभदेव स्वयं अपने पुत्रों के लिए कण्ठ और वक्षस्थल के अनेक आभूषण बनाते हैं, भरत, बाहुबली आदि सभी पुत्र भी उन आभूषणों को धारण कर ज्योतिषी देवों के समान सुशोभित हो रहे हैं।
उन आभूषणों में यष्टि, हार और रत्नावली आदि, मोती तथा रत्नों के बने हुए अनेक आभूषण हैं। उनमें से यष्टि नामक आभूषण शीर्षक, उपशीर्षक, अवघाटक, प्रकाण्डक और तरल प्रबंध के भेद से पाँच प्रकार का होता है। ये पाँचों प्रकार की यष्टियाँ मणिमध्या और शुद्धा के भेद से दो-दो प्रकार की हैंं। जिसके बीच में एक मणि लगा हो, उसे मणिमध्या और जिसके बीच में मणि नहीं लगा हो, उसे शुद्धा यष्टि कहते हैं। मणिमध्या यष्टि को सूत्र तथा एकावली भी कहते हैं और यदि यही मणिमध्या यष्टि सुवर्ण तथा मणियों से चित्र-विचित्र हो तो उसे रत्नावली भी कहते हैं। जो यष्टि किसी निश्चित प्रमाण वाले सुवर्ण मणि, माणिक्य और मोतियों के द्वारा बीच में अन्तर दे-देकर गूँथी जाती हैै, उसे अपवर्तिका कहते हैं।
जिसके बीच में एक बड़ा मोती हो वह शीर्षक है, जिसके बीच में क्रम से तीन मोती लगे हों उसे उपशीर्षक, जिसमें पाँच मोती हों उसे प्रकाण्डक, जिसके बीच में एक बड़ा मणि हो और उसके दोनों ओर क्रम-क्रम से घटते हुए छोटे-छोटे मोती लगे हों उसे तरल प्रबंध कहते हैं।
यष्टि अर्थात् लड़ियों के समूह को हार कहते हैं, वह हार लड़ियों की संख्या के न्यूनाधिक होने से इन्द्रच्छंद आदि के भेद से ग्यारह प्रकार का होता है। जिसमें १००८ लड़ियाँ हों वह इन्द्रच्छंद है। यह हार सबसे उत्कृष्ट होता है, इसे इन्द्र, चक्रवर्ती तथा तीर्थंकर ही पहनते हैं। जिसमें ५०४ लड़ियाँ हों उसे विजयच्छंद हार कहते हैं, यह हार अर्ध चक्रवर्ती और बलभद्र के पहनने योग्य है। जिसमें १०८ लड़ियाँ हों उसे हार कहते हैं, जिसमें मोतियों की ८१ लड़ियाँ हों उसे देवच्छंंद, जिसमें ६४ लड़ियाँ हों उसे अर्धहार, जिसमें ५४ हों उसे रश्मिकलाप, जिसमें ३२ हों उसे गुच्छ, जिसमें २७ हों उसे नक्षत्रमाला, जिसमें २४ हों उसे अर्धगुच्छ, २० लड़ियों के हार को माणव और १० लड़ियों के हार को अर्धमाणव कहते हैं। इन इन्द्रच्छंद आदि हारों के मध्य में जब मणि लगा दिया जाता है तब उन नामों के साथ माणव शब्द और भी सुशोभित होने लगता है अर्थात् इन्द्रच्छंद माणव, विजयच्छन्द माणव आदि।
जो एक शीर्षकहार है वह शुद्धहार है। यदि शीर्षक के आगे इन्द्रच्छंद आदि उपपद लगा दिये जाते हैं तो वह भी ग्यारह भेदों से युक्त हो जाता है। इसी प्रकार उपशीर्षक आदि शुद्ध हारों के भी ग्यारह-ग्यारह भेद होते हैं। इस प्रकार सब हार पचपन प्रकार के होते हैं। अर्धमाणव हार में यदि मणि लगाया गया हो तो उसे फलकहार कहते हैं। उसी फलकहार में जब सोने के तीन अथवा पाँच फलक लगे हों तो उसके सोपान और मणि सोपान ऐसे दो भेद हो जाते हैं।
इस प्रकार से तीर्थंकरदेव के द्वारा निर्मित कराये गये आभूषणों को धारण करने से उनके सभी पुत्र और पुत्रियाँ अतिशय अलंकृत हो रहे हैं। सर्व राजकुमारों में भरत अतिशय तेजस्वी सूर्य के समान हैं, युवा बाहुबली चंद्रमा के समान हैं, शेष राजपुत्र ग्रह, नक्षत्र और तारागण के समान हैं। उन सभी राजपुत्रों में ब्राह्मी दीप्ति के समान और सुन्दरी चाँदनी के समान सुशोभित हो रही हैं।
सभी पुत्र-पुत्रियों से घिरे हुए तीर्थंकर ऋषभदेव ज्योतिषी देवों से घिरे हुए ऊँचे सुमेरु पर्वत के समान शोभायमान हो रहे हैं और महाराजा नाभिराय तथा माता मरुदेवी के आनन्द को बढ़ा रहे हैं।
(१२)
तीर्थंकर ऋषभदेव राज्यसभा में सिंहासन पर विराजमान हैं। उनके चित्त में विद्या और कला के उपदेश की भावना जाग्रत हो रही है। इसी बीच ब्राह्मी और सुंदरी दोनों कन्याएँ मांगलिक वेष-भूषा धारण किए हुए अपने पूज्य पिता के निकट आती हैं। उस समय देखने वालों को ऐसा प्रतीत हो रहा है कि- ‘‘ये कोई दिव्य कन्याएँ हैं? अथवा नागकन्याएँ हैं? अथवा दिक् कन्याएँ हैं? अथवा सौभाग्य देवियाँ हैं? अथवा लक्ष्मी और सरस्वती हैं? अथवा उनकी अधिष्ठात्री देवी हैं? अथवा उन्हीं का अवतार हैं? अथवा क्या जगन्नाथ ऋषभदेवरूपी महासमुद्र से उत्पन्न हुई लक्ष्मी हैं?’’
इत्यादिरूप सभासद लोग उनकी प्रशंसा कर रहे हैं। दोनों कन्याएँ पिता के समीप आकर विनयपूर्वक हाथ जोड़कर गवासन से बैठकर नमस्कार करती हैं।
‘‘हे पूज्य पिताजी! प्रणाम।’’
‘‘चिरंजीव रहो पुत्री!’’
ऐसा आशीर्वाद देते हुए तीर्थंकर महाराज नमस्कार करती हुई अपनी पुत्रियों को बड़े प्यार से उठाकर अपनी गोद में बिठा लेते हैं पुनः उनके मस्तक पर हाथ फेरते हुए और मुस्कुराते हुए बड़े प्रेम से कहते हैं-
‘‘आओ, पुत्रियों आओ! तुम समझती होंगी कि हम आज देवों के साथ अमरवन को जाएँगी परन्तु अब ऐसा नहीं हो सकता चूँकि वे देवगण पहले ही चले गए।’’
दोनों कन्याएँ भी पिता का असीम प्रेम प्राप्त कर और उनके ऐसे विनोदपूर्ण मधुर शब्द सुनकर हँस पड़ती हैं। तब ऐसा प्रतीत होता है कि मानों उनके मुख से फूल ही झड़ रहे हैं।
इस प्रकार कुछेक क्षण तीर्थंकर देव अपनी पुत्रियों के साथ विनोद करते हुए अनंतर कहते हैं-
‘‘पुत्रियों! तुम अपने शील और विनय गुण के कारण इस किशोरावस्था में भी वृद्धा के समान हो। तुम दोनों का यह शरीर, यह अवस्था और यह अनुपम शील यदि विद्या से विभूषित कर दिया जावे तो तुम दोनों का यह जन्म सफल हो सकता है। इस लोक में विद्यावान् पुरुष पंडितों के द्वारा भी सम्मान को प्राप्त होता है और विद्यावती स्त्री भी सर्वश्रेष्ठ पद को प्राप्त होती है।
विद्या ही सभी मनुष्यों का हित करने वाली है, विद्या ही सम्पूर्ण दिशाओं में यश को विस्तृत करने वाली है, अच्छी तरह से आराधना की गई यह विद्यादेवता ही मनुष्यों के संपूर्ण मनोरथों को पूर्ण करने वाली है। यह विद्या ही मनुष्यों के लिए कामधेनु है, विद्या ही चिंतामणि रत्न है, विद्या ही धर्म, अर्थ तथा कामरूप फल से सहित संपदाओं को उत्पन्न करती है, विद्या ही बंधु है, विद्या ही मित्र है, विद्या ही कल्याण करने वाली है, विद्या ही साथ जाने वाला धन है और विद्या ही सर्व प्रयोजनों को सिद्ध करने वाली है इसलिए हे पुत्रियों! तुम दोनों अब विद्या ग्रहण करने में प्रयत्न करो क्योंकि तुम दोनों की यही विद्या ग्रहण करने की उम्र है।’’
तीर्थंकर ऋषभदेव ऐसा कहकर बार-बार उन्हें आशीर्वाद देकर अपने चित्त में स्थित श्रुतदेवता को आदरपूर्वक सुवर्ण के विस्तृत पट्टे पर स्थापित करते हैं, पुनः-
‘सिद्धं नमः’
इस मंगलाचरणरूप मंत्र का उच्चारण कर पुत्रियों से उच्चारण कराकर अपने दाहिने हाथ से दार्इं ओर बैठी हुई पुत्री को ‘अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ¸ ऌ ल¸ ए ऐ ओ औ, क ख ग घ ङ, च छ ज झ ञ, ट ठ ड ढ ण, त थ द ध न, प फ ब भ म, य र ल व, श ष स ह, अनुस्वार (अं), विसर्ग (अः), जिह्वामूलीय और उपध्मानीय इन चार अयोगवाहपर्यंत समस्त स्वर-व्यंजनरूप शुद्ध अक्षरावली को लिखाते हैं और बाएँ हाथ से अपनी बार्इं तरफ बैठी हुई पुत्री को इकाई-दहाई आदि स्थानों के क्रम से १, २, ३, आदि संख्यारूप गणित लिखाते हैं।
वे दोनों कन्याएँ पूज्य पिता ऋषभदेव के मुख से इन सिद्धमातृकारूप अक्षरलिपि१ व गणित को अच्छी तरह से समझकर हृदय में धारण कर लेती हैं। गणधरदेव व्याकरणशास्त्र, छन्दशास्त्र और अलंकारशास्त्र इन तीनों के समूह को ‘वाङ्मय’ कहते हैं। इस वाङ्मय के बिना न तो कोई शास्त्र है और न कोई कला है इसलिए प्रभु ऋषभदेव सबसे पहले उन पुत्रियों को वाङ्मय का ही उपदेश देते हैं।
उस समय स्वयंभू ऋषभदेव का बनाया हुआ एक बड़ा भारी व्याकरणशास्त्र प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ था, उसमें सौ से भी अधिक अध्याय थे और वह समुद्र के समान अत्यन्त गंभीर था। इसी प्रकार उन्होंने अनेक अध्यायों में छन्दशास्त्र का भी उपदेश दिया और उसके ‘उक्ता, अत्युक्ता’ आदि छब्बीस भेद भी दिखलाए। अनेक विद्याओं के अधिपति ऋषभदेव ने प्रस्तार, नष्ट, उद्दिष्ट, एक द्वि त्रि लघु क्रिया, संख्या और अध्वयोग, छन्दशास़्त्र के इन छह प्रत्ययों का भी निरूपण किया। प्रभु ने अलंकारों का संग्रह करते समय अथवा अलंकार संग्रह ग्रंथ में उपमा, रूपक, यमक आदि अलंकारों का कथन किया और माधुर्य, ओज आदि दशप्राण अर्थात् गुणों का भी निरूपण किया था।
कुछ ही दिनों मेें ब्राह्मी और सुन्दरी दोनों पुत्रियों की व्याकरणरूपी दीपिका से प्रकाशित हुई समस्त विद्याएँ और कलाएँ अपने आप ही परिपक्व अवस्था को प्राप्त हो जाती हैं। इस प्रकार गुरु अथवा पिता के अनुग्रह से उन्होंने समस्त विद्याएँ पढ़ ली हैं अतः अब वे दोनों पुत्रियाँ सरस्वती देवी के अवतार लेने के लिए पात्रता को प्राप्त हो चुकी हैं अर्थात् वे इतनी ज्ञानवती हो चुकी हैं कि साक्षात् सरस्वती भी उनमें अवतार ले सकती हैं।
जगद्गुरु तीर्थंकर ऋषभदेव अपने भरत आदि पुत्रों को भी विनयी बनाकर क्रम से आम्नाय के अनुसार उन्हें अनेक शास्त्र पढ़ाते हैं। भरत पुत्र को अत्यन्त विस्तृत बड़े-बड़े अध्यायों से स्पष्ट अर्थशास्त्र और संग्रह प्रकरण सहित नृत्यशास्त्र पढ़ाते हैं। वृषभसेन पुत्र को गाना, बजाना आदि अनेक पदार्थों के संग्रह सहित सौ से भी अधिक अध्याय युक्त ऐसे गंधर्व शास्त्र को पढ़ाते हैंं। अनन्तविजय पुत्र के लिए नाना प्रकार के सैकड़ों अध्यायों से भरी हुई चित्रकलासंबंधी विद्या का उपदेश देते हैं और लक्ष्मीशोभा सहित समस्त कलाओं का निरूपण करते हैं तथा सूत्रकार की विद्या और मकान बनाने की विद्या को भी विस्तार से सिखाते हैं। बाहुबली पुत्र के लिए कामनीति, स्त्री-पुरुषों के लक्षण, आयुर्वेद, धनुर्वेद, घोड़ा-हाथी आदि के लक्षण जानने के तंत्र और रत्न परीक्षा आदि के शास्त्रों को अनेक प्रकार के बड़े-बड़े अध्यायों में विभाजित कर सिखाते हैं।
इस विषय में अधिक कहने से क्या? संक्षेप में इतना ही बस है कि लोक का उपकार करने वाले जितने भी शास्त्र हो सकते हैं, जगद्गुरु प्रभु ऋषभदेव उन सभी को अपने पुत्रों को सिखलाते हैं। जिस प्रकार स्वभाव से देदीप्यमान रहने वाले सूर्य का तेज शरद् ऋतु में और भी अधिक हो जाता है उसी प्रकार प्रभु ऋषभदेव के अपनी समस्त विद्याओं के प्रकाशित कर देने पर उनका तेज उस समय अत्यधिक महिमा को प्राप्त हो रहा है। इस प्रकार अपने इष्ट पुत्र-पुत्रियों से घिरे हुए और अनेक प्रकार के दिव्य सुखों का अनुभव करते हुए तीर्थंकर ऋषभदेव का बीस लाख पूर्व वर्षपर्यन्त का कुमार काल पूर्ण हो चुका है।
(१३)
इसी बीच में काल के प्रभाव से महौषधि, दीप्तौषधि, कल्पवृक्ष तथा सब प्रकार की औषधियाँ शक्तिहीन हो गई हैं। मनुष्यों के निर्वाह के लिए जो बिना बोये हुए धान्य उत्पन्न हो रहे थे, वे भी काल के प्रभाव से प्रायः विरलता को प्राप्त हो गये हैं, जहाँ कहीं कुछ-कुछ मात्रा में ही रह गये हैं। कल्पवृक्ष रस, वीर्य और फल देने आदि से रहित हो गये हैंं। ऐसे समय में वहाँ की प्रजा रोग आदि अनेक बाधाओंं से व्याकुलता को प्राप्त होने लगती है। तब जीवित रहने की इच्छा से प्रजा के प्रमुख-प्रमुख लोग महाराजा नाभिराय के समीप पहुँचकर अपना दुःख निवेदन करते हैं। महाराज नाभिराय कहते हैं-
‘‘हे प्रजाजनों! अब तुम तीर्थंकर के अवतार उन ऋषभदेव के पास जाओ, वे ही तुम्हें आजीविका का उपाय बतायेंगे।’’
इतना सुनकर तथा नाभिराय को नमस्कार कर प्रजाजन तीर्थंकर प्रभु ऋषभदेव के समीप आ जाते हैं और साष्टांग नमस्कार कर प्रार्थना करते हैंं-
‘‘हे प्रभु! जीवित रहने की इच्छा से हम लोग आपकी शरण में आये हुए हैं, इसलिए हे तीन लोक के नाथ! अब आप जीविका का उपाय बतलाकर हम लोगों की रक्षा कीजिए। हे विभो! जो कल्पवृक्ष पिता के समान हमारी रक्षा करते थे, वे सब मूल से नष्ट हो गये हैं और जो धान्य बिना बोए हुए उग रहे थे, वे भी अब नहीं फल रहे हैं। हे देव! हम लोगों को भूख-प्यास की बाधा सता रही है और अन्न-पानी से रहित हुए हम लोग अब एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकते हैं। हे देव! शीत, आतप, महावायु और वर्षा आदि का उपद्रव, आश्रयरहित, मकानरहित हम लोगों को दुःखी कर रहा है इसलिए अब इन सबके दूर करने का उपाय बतलाइये। हे विभो! आप ही इस युग के आदिकर्ता हैं और कल्पवृक्ष के समान उन्नत हैं सो आपका आश्रय पाकर हम लोग भय के स्थान कैसे हो सकते हैं? हे देव! जिस प्रकार हम लोगों की आजीविका निरुपद्रव हो जाये, आज उसी प्रकार का उपदेश देकर हम लोगों को कृतार्थ कीजिये। हे दयानिधे! अब शीघ्र ही हम लोगों पर प्रसन्न होइये।’’
प्रजाजनों के इस प्रकार के दीन वचन सुनकर दया के सागर तीर्थंकर देव का हृदय करुणा से आद्र्र हो उठा, वे अपने मन में विचार करने लगे-
‘‘पूर्व और पश्चिम विदेहक्षेत्र में जो स्थिति वर्तमान है, वही स्थिति आज यहाँ प्रवृत्त करने योग्य है तभी यह प्रजा जीवित रह सकती है। वहाँ जिस प्रकार असि, मषि आदि छह कर्म हैं, जैसी क्षत्रिय आदि वर्णों की स्थिति है और जैसी ग्राम-नगर, घर आदि की पृथव्â-पृथव्â रचना है उसी प्रकार यहाँ पर भी होनी चाहिए। इन्हीं उपायों से इन सबकी आजीविका चल सकती है। इनके जीवन के लिए और कोई अन्य उपाय नहीं हैं।१ कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने पर अब यह कर्मभूमि प्रगट हो गई है, इसलिए यहाँ अब प्रजा को असि, मषि आदि छह क्रियाओं द्वारा आजीविका करना ही उचित है।’’
इस प्रकार प्रभु ऋषभदेव क्षणभर सोचकर पुनः प्रजा को बार-बार आश्वासन देते हुए कहते हैं-
‘‘तुम लोग भयभीय मत होओ।’’
इतना कहते ही प्रभु उसी क्षण मन में इन्द्र का स्मरण करते हैं। प्रभु के स्मरणमात्र से ही सौधर्म इन्द्र बहुत से देवों के साथ वहाँ उपस्थित हो जाता है और प्रभु को नमस्कार कर उनकी इच्छानुसार प्रथम ही मांगलिक कार्य करके अयोध्यापुरी के मध्य में जिनमंदिर की रचना करता है। उस काल में शुभ दिन, शुभ नक्षत्र, शुभ मुहूर्त और शुभ लग्न था तथा सूर्य आदि ग्रह अपने-अपने उच्च स्थान में स्थित थे और जगद्गुरु ऋषभदेव की हर तरह की अनुकूलता थी। मध्य में जिनमंदिर का निर्माण करके वह इन्द्र पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर इस प्रकार चारों दिशाओं में भी क्रम से जिनमंदिर का निर्माण करता है पुनः कौशल आदि महादेश, अयोध्या आदि महानगर, वन और सीमा सहित गाँव, खेड़ों आदि की भी रचना करता है।
सुकोशल, अवन्ती, पुण्ड्र, उण्ड्र, अश्मक, रम्यक, कुरु, काशी, कलिंग, अंग, वंग, सुह्य, समुद्रक, काश्मीर, उशीनर, आनर्त, वत्स,पंचाल, मालव, दशार्ण, कच्छ, मगध, विदर्भ, कुरुजांगल, करहाट, महाराष्ट्र, सुराष्ट्र, आभीर, कोंकण, वनवास, आन्ध्र, कर्णाट, कौशल, चोल, केरल, दारु, अभिसार, सोवीर, शूरसेन, अपरान्तक, विदेह, सिन्धु, गान्धार, यवन, चेदि, पल्लव, काम्बोज, आरट्ट, बाल्हीक, तुरुष्क, शक और केकय इन देशों की रचना करता है तथा इनके सिवाय और भी अनेक देशों का विभाग कर देता है।
उस समय इन्द्र ने कितने ही देश अदेवमातृक, कितने ही देश देवमातृक और कितने ही देश साधारण बनाएँ। जहाँ नदी और नहरों से सिंचाई होती है वे अदेवमातृक हैं, जहाँ वर्षा के जल से सिंचाई हो जाती है ऐसे प्रदेश देवमातृक कहलाते हैं और जहाँ दोनों प्रकार से सिंचाई संभव हो उन्हें साधारण देश कहते हैं।
‘विजयार्ध पर्वत के समीप से लेकर समुद्रपर्यंत (दक्षिण दिशा में लवण समुद्रपर्यंत) कितने ही देश साधारण थे, कितने ही बहुत जल वाले थे और कितने ही देश जल की दुर्लभता से सहित थे।’
उन सभी देशों से व्याप्त यह पृथ्वी (भरत क्षेत्र का आर्यख्ण्ड) ऐसी प्रतीत हो रही थी मानों यह स्वर्ग का एक टुकड़ा ही हो। जिस प्रकार स्वर्ग के स्थानों की सीमाओं पर लोकपाल देवों के स्थान होते हैं उसी प्रकार उन देशों की अन्त सीमाओं पर भी सब ओर सीमारक्षक पुरुषों के किले बना दिए। उन देशों के मध्य में भी अनेक देश ऐसे थे जो लुब्धक, आरण्य, चरट, पुलिंद तथा शबर आदि म्लेच्छ जाति के लोगों द्वारा रक्षित हो रहे थे। उन देशों के मध्य भाग में कोट, प्राकार, परिखा, गोपुर और अटारी आदि से शोभायमान राजधानी बनाई गई थीं। राजधानी को घेरकर सब ओर शास्त्रोक्त लक्षण वाले गाँवों आदि की रचना हुई थी।
जिनमें बाड़ से घिरे हुए घर हों, अधिकतर शूद्र और किसान लोग रहते हों, जो बगीचे और तालाबों से सहित हों, उन्हें ग्राम कहते हैं। जिसमें सौ घर हों उसे छोटा गाँव कहते हैं। जिसमें पाँच सौ घर हों और किसान धनसंपन्न हों उसे बड़ा गाँव कहते हैं। छोटे गाँवों की सीमा एक कोस की और बड़े गाँवों की सीमा दो कोस की होती है। नदी, पहाड़, गुफा, श्मशान, क्षीरवृक्ष, बबूल आदि कंटीले वृक्ष, वन और पुल, इनसे गाँवों की सीमा का विभाग किया जाता है।
जो परिखा, गोपुर, अटारी, कोट और प्राकार से सुशोभित हो, जिसमें अनेक भवन बने हों और प्रधान पुरुषों के रहने योग्य हो, वह पुर या नगर कहलाता है।
जो नगर नदी और पर्वत से घिरा हो, उसे खेट कहते हैं। जो केवल पर्वत से घिरा हो, उसे कर्वट कहते हैं। जो पाँच सौ गाँवों से घिरा हो, वह मडम्ब कहलाता है। जो समुद्र के किनारे बसा हो, उसे पत्तन कहते हैं। जो नदी के किनारे हो, वह द्रोणमुख है। जो ऊँचे-ऊँचे धान्य के ढेरों से सहित हो, वह संवाह है।
इस प्रकार इन्द्र जहाँ-तहाँ उन-उन योग्य स्थानों के अनुसार बड़े ही अच्छे ढंग से गाँव-नगर आदि की रचना कर देता है, उसी समय से वह ‘पुरन्दर’ इस सार्थक नाम को धारण कर लेता है। तदनन्तर वह सौधर्म इन्द्र तीर्थंकर ऋषभदेव की आज्ञा से इन नगर आदि स्थानों में प्रजा को बसाकर कृतकृत्य होता हुआ प्रभु की आज्ञा लेकर अपने स्वर्गधाम को चला जाता है पुनः तीर्थंकर ऋषभदेव अपनी बुद्धि की कुशलता से असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्पकला इन छह क्रियाओं का प्रजा के लिए उपदेश देते हैं। उस समय प्रभु सरागी हैं, गृहस्थावस्था में राज्य सिंहासन पर आरूढ़ हैं, वीतरागी नहीं हैं, इसलिए वो प्रजा को गृहस्थाश्रम की आजीविका का उपाय बतला रहे हैं-
‘‘हे प्रजाजनों! असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन छह क्रियाओं द्वारा तुम लोग आजीविका करो। तलवार आदि धारण करना असि कर्म है। लिखकर आजीविका करना मषिकर्म है। जमीन को जोतना-बोना कृषि कर्म है। शास्त्र पढ़ाकर या नृत्य-गायन आदि सिखाकर आजीविका करना विद्या कर्म है। व्यापार करना वाणिज्य कर्म है और हस्त की कुशलता से जीविका करना शिल्पकर्म है, यह शिल्प चित्र खींचना, पूâल-पत्ते काटना आदि की अपेक्षा अनेक प्रकार है।’’
ऋषभ तीर्थंकर उस समय उन-उन की योग्यतानुसार उन्हें वैसी-वैसी शिक्षा दे रहे हैं। उसी समय आदिब्रह्मा ऋषभदेव तीन वर्ण की स्थापना करते हैंं। जो तलवार धारण कर विपत्ति से रक्षा करने में समर्थ हैं उन्हें क्षत्रिय संज्ञा देते हैं, जो खेती, व्यापार तथा पशुपालन आदि के द्वारा आजीविका करने योग्य हैं उन्हें वैश्य संज्ञा दी तथा जो उनकी सेवा शुश्रूषा के योग्य हैं उन्हें शूद्र संज्ञा से अभिहित करते हैं, शूद्र में दो भेद हैं-कारू और अकारू। धोबी आदि शूद्र कारू हैं और उनसे भिन्न अकारू हैं।
प्रभु से उपदेश, आदेश और वर्ण व्यवस्था को प्राप्त कर प्रजा अपने-अपने योग्य कर्मों को यथायोग्य रूप से करना प्रारंभ कर देती है। अपने वर्ण की निश्चित आजीविका को छोड़कर कोई भी मनुष्य दूसरी आजीविका नहीं करता है, इसलिए उनके कार्यों में कभी संकर (मिलावट) दोष नहीं आता है। उस समय उनके विवाह, जाति संंबंध तथा व्यवहार आदि सभी कार्य प्रभु ऋषभदेव की आज्ञानुसार ही होते थे। उस काल में जितने भी पापरहित आजीविका के उपाय थे, वे सब प्रभु ऋषभदेव की सम्मति से ही प्रवृत्त हुए थे, क्योंकि सनातन ब्रह्मा प्रभु ऋषभदेव ही माने गए हैं।
युग की आदि में प्रथम तीर्थंकर के अवतार ऋषभदेव ने इस प्रकार से कर्मयुग का प्रारंभ किया था, इसलिए पुराण के जानने वाले महामुनि उन्हें ‘कृतयुग’ नाम से पुकारते हैं। जिस दिन प्रभु ने वर्ण व्यवस्था बनाकर प्रजा को असि, मसि आदि षट्कर्मों का उपदेश दिया था वह पुण्य तिथि मानी जा रही है अतः उसी समय से प्रभु ऋषभदेव को प्रजा ने ‘प्रजापति’ कहकर भी सम्बोधा था। अब प्रभु के द्वारा सदुपदेश प्राप्त कर प्रजा सुख से अपना गार्हस्थ्य जीवन बिता रही है।
(१४)
एक लाख योजन विस्तृत गोलाकार (थाली सदृश) इस जम्बूद्वीप में हिमवान, महाहिमवान, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी इन छह कुलाचलों से विभाजित सात क्षेत्र हैं, जिनके नाम-भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत हैं। भरत क्षेत्र का दक्षिण-उत्तर विस्तार ५२६-६/१९ योजन है। आगे पर्वत और क्षेत्र के विस्तार विदेह क्षेत्र तक दूने-दूने हैं पुनः आधे-आधे हैं।
इनमें से भरत क्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र के आर्यखण्ड में षट्काल परिवर्तन से भोगभूमि और कर्मभूमि की व्यवस्था चलती रहती है जो अशाश्वत कहलाती है। हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र में जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था है, हरि और रम्यक क्षेत्र में मध्यम भोगभूमि की व्यवस्था है। विदेहक्षेत्र में दक्षिण-उत्तर में देवकुरु-उत्तरकुरु नाम से क्षेत्र हैं जहाँ पर उत्तम भोगभूमि की व्यवस्था है। ये छहों भोगभूमियाँ शाश्वत हैं। विदेहक्षेत्र में पूर्व-पश्चिम में १६ वक्षार पर्वत और १२ विभंगा नदियों के निमित्त से ३२ क्षेत्र हो जाते हैं जिनके नाम कच्छा, सुकच्छा आदि हैं। इन बत्तीसों विदेहक्षेत्रों में कर्मभूमि की व्यवस्था सदाकाल एक जैसी रहती है अतः इन्हें शाश्वत कर्मभूमि कहते हैं।
विदेहक्षेत्र का विस्तार (दक्षिण-उत्तर) ३३६८४-४/१९ योजन है और उसकी लम्बाई (पूर्व-पश्चिम) १००००० योजन है। इस विदेह के ठीक मध्य में सुदर्शन मेरु पर्वत है जो एक लाख चालीस योजन ऊँचा है। पृथ्वी पर इसकी चौड़ाई १० हजार है और घटते-घटते ऊपर जाकर ४ योजन मात्र की रह गई है। इस सुमेरु की चारों विदिशाओं में एक-एक गजदन्त पर्वत है जो कि एक तरफ से सुमेरु का स्पर्श कर रहे हैं और दूसरी तरफ से निषध-नील पर्वत को छूते हुए हैं। इन पर्वतों के निमित्तों से भी विदेह की चारों दिशाएँ पृथक-पृथक् विभक्त हो गई हैं। सुमेरु से उत्तर की ओर उत्तरकुरु में ईशान कोण में जम्बूवृक्ष है और सुमेरु से दक्षिण की ओर देवकुरु है जिसमें आग्नेय कोण में शाल्मलीवृक्ष है। इन दोनों कुरुओं में दश प्रकार के कल्पवृक्ष होने से वहाँ पर सदा ही उत्तम भोगभूमि की व्यवस्था रहती है।
सुमेरु के पूर्व-पश्चिम में विदेह क्षेत्र में सीता-सीतोदा नदियाँ बहती हैं। इससे पूर्व-पश्चिम विदेह में भी दक्षिण-उत्तर भाग हो जाते हैं। सुमेरु के पूर्व में और सीता नदी के उत्तर में सर्वप्रथम भद्रसाल वन की वेदिका है, पुनः क्षेत्र है, पुनः वक्षार पर्वत है जो कि ५०० योजन विस्तृत, १५५९३-२/१९ योजन लम्बा तथा नील पर्वत के पास ४०० योजन एवं सीता नदी के पास ५०० योजन ऊँचा है। यह पर्वत सुवर्णमय है। इस पर चार कूट हैं। जिनमें से नदी के पास के कूट पर जिनमंदिर एवं शेष तीन कूटों पर देव-देवियों के आवास हैं। इस पर्वत के बाद क्षेत्र, पुनः विभंगानदी, पुनः क्षेत्र, पुनः वक्षार पर्वत ऐसे क्रम से चार वक्षार पर्वत और तीन विभंगा नदियों के अन्तराल से तथा एक तरफ भद्रसाल की वेदी और दूसरी तरफ देवारण्य
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