चन्द्रप्रभ स्वामी

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*८वें तिर्थंकर श्री चन्द्रप्रभ स्वामी का मोक्ष कल्याणक*
 तिथि भाद्रपद वदि सप्तमी,
वीर संवत २५४६,
मंगलवार दिनांक ११/०८/२०२०,
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देवाधिदेव आठवें तीर्थंकर श्री चंद्रप्रभ स्वामीजी का मोक्ष कल्याणक हम सभी धर्मप्रेमियों मांगलिक हो.
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*चन्द्रप्रभ स्वामी का पूर्व भव*
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धातकीखण्ड द्वीप के प्राग्विदेह क्षेत्र का आभूषण रूप मंगलावति विजय में रत्न संचया नामक नगर था।
उस नगर में पद्म नामक राजा राज्य करते थे। उसके राज्य में सभी सम्पन्न और प्रसन्न थे। उसका भण्डार अखूट था। इस महाराज को लेशमात्र भी दु:ख नहीं था,  फिर भी तत्ववेताओ में श्रेष्ठ वह राजा संसार वास के प्रति वैराग्य दशा को धारण किये हुए था।
संसार को असार जानकर राजा पद्म ने युगंधर गुरु के पास दिक्षा ग्रहण की। विभिन्न अभिग्रहों को धारण कर मन को दमन करते हुए इन्द्रियों का निग्रह करते हुए और अपने शरीर में भी आकांक्षा रहित इस पद्म साधु ने लंबे समय तक संयम का पालन किया। बीस स्थानको में से कई स्थानकों की आराधना कर इस राजा ने तिर्थंकर नामकर्म का उपार्जन किया।
आयुष्य पूर्ण कर व्रतरूपी वृक्ष के प्रथम फल वैजयंत नामक विमान में देव हुए। और तैंतीस सागरोपम का आयुष्य पूर्ण कर पद्म राजा का जीव वैजयन्त विमान से चैत्र वदी पंचमी के दिन चंद्रमा के अनुराधा नक्षत्र में प्रवेश करने पर जंबुद्विप के भरतक्षेत्र में चंद्रानना नामक नगरी के महाराज महासेन की रानी लक्ष्मणा देवी की कुक्षी में अवतरा।
🌺उस समय सुख पूर्वक अपनी शैय्या पर सो रही रानी ने चौदह स्वप्न देखे।
🌺क्रमशः पोष वदी द्वादशी को चंद्र के चिन्ह वाले चंद्रमा के समान रंग वाले पुत्र रत्न को जन्म दिया।
🌺दिक्कुमारियों ने आकर माता का शुचि  कर्म किया सौधर्मैंद्र देवताओं ने परिवार से युक्त वहाँ आकर प्रभु का मेरुपर्वत पर जन्माभिषेक किया।
🌺बाल्यावस्था को पार कर प्रभु यौवनावस्था को प्राप्त हुए। तब उनका शरीर डेढ़ सो धनुष उंचा था।🌺 अपने भोगकर्म जानकर और माता पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए अनेक राजकन्याओं से विवाह किया अपने आयुष्य दस लाख पूर्व में से ढाई लाख वर्ष बीत जाने पर प्रभु के माता- पिता राज्य भार दिया, चौबीस पुर्वांग सहित साढे़ छे सालों तक प्रभु ने पृथ्वी का पालन किया, उसके बाद प्रभु ने दिक्षा ग्रहण करने की आज्ञा ली।
🌺वैसे प्रभु अपने दिक्षा काल को जानते थे, तब भी नियुक्त ज्योतिषियों के समान लोकांतिक देवों ने आकर प्रभु को दिक्षा के समय की सूचना दी। 🌺प्रभु ने सांवत्सरिक दान देना प्रारंभ कर दिया। वर्ष के अंत में सेवकों के समान इन्द्रों ने आकर प्रभु का दिक्षा अभिषेक किया। मनोरमा नामक शिबिका में आरूढ़ होकर सहस्त्राम्र वन में गये, शिबिका से उतर कर त्रिरत्नों को ग्रहण करने की इच्छा वाले प्रभु ने रत्नालंकार आदि त्याग कर दिया। पोष वदि  तेरस के दिन अनुराधा नक्षत्र के साथ दीक्षा ग्रहण की।
🌺दुसरे दिन पद्मखंड नगर के सोमदत्त राजा के घर प्रभु ने परमान्न ( खीर) पारणा किया।🌺 प्रभु ने ६ मास तक छद्मस्थ अवस्था में विहार किया।
🌺सहस्त्राम्र् वन में पुन्नाग वृक्ष के निचे प्रभु प्रतिमा धारण कर खड़े रहे। जैसे ही घाति कर्म विनष्ट हो गये,  वैसे ही फाल्गुन वदि सप्तमी को चन्द्र के अनुराधा नक्षत्र में आने पर प्रभु को उज्जवल केवलज्ञान उत्पन्न हुआ।

⭐वैजयंत विमानसे अहमिन्द्र के जीव का गर्भावतरण,
⭐पिता: इक्ष्वाकुवंशी राजा महासेन
⭐माता: रानी लक्ष्मणा,
⭐जन्म व दीक्षा नक्षत्र:अनुराधा,
⭐वैराग्यकारण:दर्पण में मुख देखना,
⭐दीक्षा वन:सहस्त्राम्र्,
⭐दीक्षा वृक्ष:पुन्नाग,
⭐सहदीक्षित: १००० साधु,
⭐दीक्षा पालकी: मनोरमा
 ⭐दीक्षोपवास:बेला,
⭐प्रथम पारणा:सोमदत्त राजा,
 स्थान:नलिन नगर,
गोचरी वस्तु:गाय के दूध की खीर
जन्म व दीक्षा कल्याणक
⭐स्थान:चंद्रपुरी नगरी
प्रभु के परिवार में
⭐ढाई लाख साधु,
⭐तीन लाख अस्सी हजार साध्वीजी,
⭐दो हजार चौदह पुर्व धारी,
⭐आठ हजार अवधि ज्ञानी,
⭐आठ हजार मन:पर्यव ज्ञानी
⭐दस हजार केवलज्ञानी,
⭐चौदह हजार वैक्रीय लब्धि वाले,  सात हजार वादलब्धि वाले।
⭐ढाई लाख श्रावक।
⭐चार लाख इक्यानवे हजार श्राविकाऐं।
🌺चौबीस पूर्वांग और तीन माह कम एक लाख पूर्व विहार कर के प्रभु सम्मेतशिखर पर पधारे वहाँ एक हजार साधुओं के साथ अनशन व्रत ग्रहण किया।🌺 फिर सब योगों का निरोध कर प्रभु निष्कंध ध्यान को प्राप्त पूर्वांग कुमारावस्था में चौबीस पूर्व सहित साढ़े छह लाख पूर्व राज्य शासन में और चौबीस पुर्वांग एक लाख पूर्व दीक्षा अवस्था में व्यतीत किये। 🌺इस प्रकार कुल मिलाकर दस लाख पूर्व का आयुष्य पूर्ण कर प्रभु का निर्वाण हुआ।
    🌺 सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के निर्वाण के बाद नौ सो करोड़ सागरोपम व्यतीत होने पर प्रभु चंद्रप्रभ स्वामी का निर्वाण हुआ।
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🙏🙏🙏जय जिनेन्द्र सा
जिनाज्ञा विरुद्ध कुछ भी लिखा गया हो तो मिच्छा मि दुक्कड़म्
---भगवन्त कोठारी
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