निर्जरा भावना
#भावना - 25
निर्जरा भावना
ज्ञान दीप तप तेल भर, घर शोधे भ्रम छोर।
या विधि निकसै नही, पैठे पूरब चोर।
पँच महाव्रत संचरण, समिति पांच प्रकार ।
प्रबल पंच इन्द्रिय विजय , धार निर्जरा सार ।9।
आश्रव रूपी छिद्र द्वारा नांव में आ रहे पानी को हमने संवर रूपी बुच से बंद कर दिया। अब नांव के पहले से अंदर भरा हुआ पानी भी निकालना आवश्यक है। उस पानी को बाहर निकालने की क्रिया जैसी है निर्जरा।
गाथा में कवि कह रहे है,
ज्ञान के साथ , सही मार्ग की श्रद्धा व समझ के साथ आत्मा रूपी द्वीप में तप का तेल भरकर इस भवसागर का हमे अंत ढूंढना है। इसके बिना पूर्व में संचित किये कर्मो से छूटने का रास्ता नही। पांच महाव्रत, पांच समिति , तीन गुप्ति का पालन कर के पांचों इंद्रियों को वश में करना यही निर्जरा का सार है।
निर्जरा यानी क्या?
तो हमने पूर्व में जो पाप किये है उनको तप रूपी अग्नि में जलाने का उपक्रम करना। ताकि हम कर्म मल से छुटकारा पाकर आत्मा के शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर सके।
इस निर्जरा को समझकर उसका चिंतन करना, आराधना करना निर्जरा भावना है। यानी कर्मो को आत्मा से पृथक करते जाने का विचार करना।
निर्जरा यानी तप, इसे मुख्यतः 2 विभागों में बांटा गया है। बाह्य व आभ्यन्तर। बाह्य तप में अनशन, उनोदरी, भिक्षाचर्या, रस परित्याग, कायक्लेश व प्रतिसंलिनता यह 6 भेद समाविष्ट है, तो प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान व कायोत्सर्ग यह 6 भेद आभ्यन्तर यानी आंतरिक तप है।
पांचों महाव्रत का पालन, आठ प्रवचन माता का पालन और 5 इन्द्रिय पर विजय पाकर उन्हें कर्म बंध से रोकना व पुराना कर्म निर्जरा से क्षय करना यह साधक का मुख्य उद्देश्य हो।
कई मुमुक्षु आत्माओं ने इस पथ पर बढ़कर अपना कल्याण कर लिया। अर्जुनमाली से अर्जुन मुनि बने महात्मा ने 6 महीने उत्कृष्ट भाव से बाह्य व अभ्यन्तर तप की आराधना की। कई पुराने वैरी जनों ने उपसर्ग दिए पर उन्होंने अपने मन को कषायों से राग द्वेष से दूर रखकर मात्र 6 महीनों में अपने कर्म क्षय कर दिए। ठीक ऐसे ही गजसुकुमाल मुनि ने एक रात में भिक्षु प्रतिमा ग्रहण कर कैसा भीषण उपसर्ग सहा? सोमिल ने सिर पर अंगारे रख दिये तो भी गजसुकुमाल मुनि ने अंशमात्र विचलित हुए बिना मात्र एक रात में मोक्ष मंजिल प्राप्त कर ली।
ऐसे हम एक और दृष्टांत को देखने का प्रयास करेंगे।
सन्दर्भ : - जैन तत्त्व प्रकाश, व अन्य ग्रंथ
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र प्ररूपणा की हो तो मिच्छामी दुक्कडम।
निर्जरा भावना
ज्ञान दीप तप तेल भर, घर शोधे भ्रम छोर।
या विधि निकसै नही, पैठे पूरब चोर।
पँच महाव्रत संचरण, समिति पांच प्रकार ।
प्रबल पंच इन्द्रिय विजय , धार निर्जरा सार ।9।
आश्रव रूपी छिद्र द्वारा नांव में आ रहे पानी को हमने संवर रूपी बुच से बंद कर दिया। अब नांव के पहले से अंदर भरा हुआ पानी भी निकालना आवश्यक है। उस पानी को बाहर निकालने की क्रिया जैसी है निर्जरा।
गाथा में कवि कह रहे है,
ज्ञान के साथ , सही मार्ग की श्रद्धा व समझ के साथ आत्मा रूपी द्वीप में तप का तेल भरकर इस भवसागर का हमे अंत ढूंढना है। इसके बिना पूर्व में संचित किये कर्मो से छूटने का रास्ता नही। पांच महाव्रत, पांच समिति , तीन गुप्ति का पालन कर के पांचों इंद्रियों को वश में करना यही निर्जरा का सार है।
निर्जरा यानी क्या?
तो हमने पूर्व में जो पाप किये है उनको तप रूपी अग्नि में जलाने का उपक्रम करना। ताकि हम कर्म मल से छुटकारा पाकर आत्मा के शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर सके।
इस निर्जरा को समझकर उसका चिंतन करना, आराधना करना निर्जरा भावना है। यानी कर्मो को आत्मा से पृथक करते जाने का विचार करना।
निर्जरा यानी तप, इसे मुख्यतः 2 विभागों में बांटा गया है। बाह्य व आभ्यन्तर। बाह्य तप में अनशन, उनोदरी, भिक्षाचर्या, रस परित्याग, कायक्लेश व प्रतिसंलिनता यह 6 भेद समाविष्ट है, तो प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान व कायोत्सर्ग यह 6 भेद आभ्यन्तर यानी आंतरिक तप है।
पांचों महाव्रत का पालन, आठ प्रवचन माता का पालन और 5 इन्द्रिय पर विजय पाकर उन्हें कर्म बंध से रोकना व पुराना कर्म निर्जरा से क्षय करना यह साधक का मुख्य उद्देश्य हो।
कई मुमुक्षु आत्माओं ने इस पथ पर बढ़कर अपना कल्याण कर लिया। अर्जुनमाली से अर्जुन मुनि बने महात्मा ने 6 महीने उत्कृष्ट भाव से बाह्य व अभ्यन्तर तप की आराधना की। कई पुराने वैरी जनों ने उपसर्ग दिए पर उन्होंने अपने मन को कषायों से राग द्वेष से दूर रखकर मात्र 6 महीनों में अपने कर्म क्षय कर दिए। ठीक ऐसे ही गजसुकुमाल मुनि ने एक रात में भिक्षु प्रतिमा ग्रहण कर कैसा भीषण उपसर्ग सहा? सोमिल ने सिर पर अंगारे रख दिये तो भी गजसुकुमाल मुनि ने अंशमात्र विचलित हुए बिना मात्र एक रात में मोक्ष मंजिल प्राप्त कर ली।
ऐसे हम एक और दृष्टांत को देखने का प्रयास करेंगे।
सन्दर्भ : - जैन तत्त्व प्रकाश, व अन्य ग्रंथ
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र प्ररूपणा की हो तो मिच्छामी दुक्कडम।
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