दस अच्छेरा
दस अच्छेरा ( दस आश्चर्य )
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जो बात सामान्यतया नहीं होती,
किन्तु आश्चर्यरूप से कभी-कभी घटित हो जाती है,
उसे अच्छेरा कहते हैं |
अच्छेरा अर्थात आश्चर्य |
इस अवसर्पिणी काल में दस आश्चर्य हुए हैं |
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१. उपसर्ग -
केवलज्ञान होने के बाद तीर्थंकरों को उपसर्ग नहीं हुआ करते,
किन्तु भगवान् महावीर पर दुष्ट गोशालक ने तेजोलेश्या फेंकी,
उसके प्रभाव से शरीर में भीषण रक्त विकार हुआ |
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२. गर्भहरण -
तीर्थंकरों के गर्भ का साहरण नहीं होता,
किन्तु भावीवश इन्द्र की आज्ञा से हरिनैगमेषी देवता ने
भगवान् महावीर के जीव को देवानंदा ब्राह्मणी की कुक्षि से
निकाल कर त्रिशला रानी की कुक्षि में स्थापित किया |
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३. स्त्री तीर्थंकर -
तीर्थंकर सारे पुरुष ही होते हैं,
परन्तु होनहारवश उन्नीसवें तीर्थंकर श्री मल्लि प्रभु स्त्री रूप में हुए |
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४. अभव्य परिषद -
तीर्थंकरों का उपदेश कभी खाली नहीं जाता,
उससे कुछ ना कुछ त्याग-प्रत्याख्यान अवश्य होता है,
परन्तु मनुष्यों की उपस्थिति के अभाव में
भगवान् महावीर की पहली देशना खाली गई |
(देवता त्याग नहीं कर सकते,
उनके अप्रत्याख्यान चतुष्क का उदय रहता है )
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५. कृष्ण का अमरकंका गमन -
वासुदेव से वासुदेव नहीं मिला करते,
लेकिन द्रौपदी को लेकर घातकीखण्डद्वीप की अमरकंकापूरी से लौटते समय श्री कृष्ण वासुदेव शंख द्वारा वहां के कपिल वासुदेव से मिले |
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६ . सूर्य-चन्द्र का अवतरण -
देवता मूलरूप से अपने स्थान को छोड़कर कहीं नहीं जाया करते
( उत्तरवैक्रिय करके ही जाते हैं ),
किन्तु भगवान् महावीर के दर्शन करने के लिए
चन्द्र-सूर्य मूलरूप में आये थे |
---
७ . हरिवंश-कुलोत्पत्ति -
यौगालिकों की गति देवलोक ही है,
किन्तु वैरवश एक देवता ने हरिवंश क्षेत्र के
एक यौगलिक को इस भरत क्षेत्र में रखा और
वह मद्द-मांसादिक का सेवन करके नरकगामी हुआ एवं
उसके नाम से हरिवंशकुल की उत्पत्ति हुई |
---
८. चमरोत्पात -
भवनपति देवता प्रथम स्वर्ग में नहीं जाया करते,
किन्तु असुरपति चमरेन्द्र ने भगवान् महावीर की शरण लेकर
सौधर्म स्वर्ग में जाकर वहां भीषण उत्पात मचाया |
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९. एक सौ आठ सिद्ध -
उत्कृष्ट अवगाहना वाले एक साथ दो से अधिक सिद्ध नहीं हुआ करते,
लेकिन ऋषभदेव भगवान् के समय में एक ही साथ
एक सौ आठ सिद्ध होने का प्रसंग आ गया था |
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१०. असंयत पूजा -
संयत(महाव्रती) ही पूजनीय होते हैं |
पर नौवें तीर्थंकर सुविधिनाथ के शासन में
श्रमण-श्रमणी के अभाव में असंयति की ही पूजा हुई,
अतः यह आश्चर्य माना गाया है |
- " वीतराग-वंदना " पृष्ठ संख्या - १७३ से।
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जो बात सामान्यतया नहीं होती,
किन्तु आश्चर्यरूप से कभी-कभी घटित हो जाती है,
उसे अच्छेरा कहते हैं |
अच्छेरा अर्थात आश्चर्य |
इस अवसर्पिणी काल में दस आश्चर्य हुए हैं |
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१. उपसर्ग -
केवलज्ञान होने के बाद तीर्थंकरों को उपसर्ग नहीं हुआ करते,
किन्तु भगवान् महावीर पर दुष्ट गोशालक ने तेजोलेश्या फेंकी,
उसके प्रभाव से शरीर में भीषण रक्त विकार हुआ |
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२. गर्भहरण -
तीर्थंकरों के गर्भ का साहरण नहीं होता,
किन्तु भावीवश इन्द्र की आज्ञा से हरिनैगमेषी देवता ने
भगवान् महावीर के जीव को देवानंदा ब्राह्मणी की कुक्षि से
निकाल कर त्रिशला रानी की कुक्षि में स्थापित किया |
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३. स्त्री तीर्थंकर -
तीर्थंकर सारे पुरुष ही होते हैं,
परन्तु होनहारवश उन्नीसवें तीर्थंकर श्री मल्लि प्रभु स्त्री रूप में हुए |
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४. अभव्य परिषद -
तीर्थंकरों का उपदेश कभी खाली नहीं जाता,
उससे कुछ ना कुछ त्याग-प्रत्याख्यान अवश्य होता है,
परन्तु मनुष्यों की उपस्थिति के अभाव में
भगवान् महावीर की पहली देशना खाली गई |
(देवता त्याग नहीं कर सकते,
उनके अप्रत्याख्यान चतुष्क का उदय रहता है )
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५. कृष्ण का अमरकंका गमन -
वासुदेव से वासुदेव नहीं मिला करते,
लेकिन द्रौपदी को लेकर घातकीखण्डद्वीप की अमरकंकापूरी से लौटते समय श्री कृष्ण वासुदेव शंख द्वारा वहां के कपिल वासुदेव से मिले |
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६ . सूर्य-चन्द्र का अवतरण -
देवता मूलरूप से अपने स्थान को छोड़कर कहीं नहीं जाया करते
( उत्तरवैक्रिय करके ही जाते हैं ),
किन्तु भगवान् महावीर के दर्शन करने के लिए
चन्द्र-सूर्य मूलरूप में आये थे |
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७ . हरिवंश-कुलोत्पत्ति -
यौगालिकों की गति देवलोक ही है,
किन्तु वैरवश एक देवता ने हरिवंश क्षेत्र के
एक यौगलिक को इस भरत क्षेत्र में रखा और
वह मद्द-मांसादिक का सेवन करके नरकगामी हुआ एवं
उसके नाम से हरिवंशकुल की उत्पत्ति हुई |
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८. चमरोत्पात -
भवनपति देवता प्रथम स्वर्ग में नहीं जाया करते,
किन्तु असुरपति चमरेन्द्र ने भगवान् महावीर की शरण लेकर
सौधर्म स्वर्ग में जाकर वहां भीषण उत्पात मचाया |
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९. एक सौ आठ सिद्ध -
उत्कृष्ट अवगाहना वाले एक साथ दो से अधिक सिद्ध नहीं हुआ करते,
लेकिन ऋषभदेव भगवान् के समय में एक ही साथ
एक सौ आठ सिद्ध होने का प्रसंग आ गया था |
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१०. असंयत पूजा -
संयत(महाव्रती) ही पूजनीय होते हैं |
पर नौवें तीर्थंकर सुविधिनाथ के शासन में
श्रमण-श्रमणी के अभाव में असंयति की ही पूजा हुई,
अतः यह आश्चर्य माना गाया है |
- " वीतराग-वंदना " पृष्ठ संख्या - १७३ से।
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