जिनरक्षित जिनपाल की कहानी
जिनपाल ने जिनरक्षित से कहा की इस बार लवण समुद्र की तरफ चलेंगे और वहां से इतने हीरे जवाहरात भर कर लाएंगे की सात पीढ़ियों तक कमाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी| जिनरक्षित को उसका प्रस्ताव उचित लगा और दोनों भाई लवण समुद्र की तरफ चल दिए|
सागर की लहरों से खेलता हुआ उनका जहाज़ लवण समुद्र की तरफ चला जा रहा था की अचानक आकाश में काले काले बादल घिर आए, बिजली चमकने लगी और चारों तरफ़ अंधकार छा गया| समुद्र में भयंकर तूफान उठने लगा| ऊँची ऊँची लहरों में जहाज़ तिनके की तरह डोलने लगा| भयंकर तूफान को देख दोनों भाई बहुत भयभीत हो गए और भगवान से अपने प्राणों की रक्षा की याचना करने लगे|
लहरों में उछलता हुआ जहाज़ एक बड़ी चट्टान से जा टकराया और टुकड़े टुकड़े होकर बिखर गया| दोनों भाई अपनी प्राण रक्षा के लिए हाथ पैर मारने लगे तभी जहाज़ का एक टूटा हुआ तख्ता उनके हाथ लगा| उसी के सहारे तैरते तैरते वे एक किनारे पर पंहुचे| भाग्य से वह रत्नद्वीप का तट था| उस द्वीप की स्वामिनी रत्नादेवी बड़ी ही दुष्ट प्रकृति की थी| जब उसे अपने अवधिज्ञान द्वारा दोनों भाइयों के द्वीप पर पंहुचने का पता चला तो वह आकाशमार्ग से उड़कर उनके पास पँहुच गई और उन भाइयों से कहा की इस रत्नद्वीप पर तुम्हारा स्वागत है, चलो मेरे साथ मेरे महल में रहो| यह सुन दोनों भाई उस देवी के साथ उसके महल में जाने लगे|
रत्नादेवी उन्हें बड़े स्नेहपूर्वक अपने राजमहल में ले गई| विविध प्रकार के व्यंजन और मदिरा पीने को दी और कहा की तुम दोनों मेरे साथ यहाँ आनंदपूर्वक रहो और मुझे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लो|
उसकी बात सुनकर जिनपाल तथा जिनरक्षित स्तब्ध रह गए और सोचने लगे की यह तो बड़ी ही निर्लज्ज स्त्री है| जिनरक्षित ने कहा "नहीं ! हमें यह बात स्वीकार नहीं|"
इस पर देवी ने उन्हें नंगी तलवार दिखाते हुए कहा की या तो मेरा प्रस्ताव स्वीकार करो वर्ना मैं यहीं तुम्हारा सिर धड से अलग कर दूंगी|
भय का मारा मनुष्य क्या नहीं करता| दोनों ने देवी की बात स्वीकार कर ली और वहां देवी के साथ रहने लगे| एक दिन जिनपाल ने जिनरक्षित से कहा "अब हम रत्नादेवी की आज्ञा के बिना कहीं जा नहीं सकते उसने हमें सुखों का लालच देकर अपना गुलाम बना लिया है|"
एक बार रत्नादेवी को लवण समुद्र की देखभाल के लिए जाना पड़ा, उसने दोनों भाइयों को बुलाकर कहा "मैं कुछ दिनों के लिए तुमसे दूर जा रही हूँ| तुम दोनों यहाँ सुख से रहो, खाओ, पीओ, बाग़ बगीचों में घुमो, परन्तु एक बात का ध्यान रखना| इस द्वीप के दक्षिण दिशा के जंगलों में एक भयंकर विषधर रहता है, अत: उधर कभी मत जाना बाकि तीनो ओर बाग़ बगीचे हैं, जहाँ भी जाना चाहो जा सकते हो|"
जिनपाल और जिनरक्षित इतने दिनों से देवी के कठोर प्रतिबंधों से छटपटाए हुए थे| आज पहली बार उन्हें देवी की अनुपस्तिथि में स्वतंत्र घुमने का अवसर मिला था| घूमते घूमते उन्हें देवी की बात याद आई और उनके मन में दक्षिण दिशा में जाने की जिज्ञासा जाग उठी| उन्होंने दक्षिण दिशा के वन की ओर जाने का निश्चय किया|
दक्षिण दिशा के वन में प्रवेश करते ही उन्होंने एक भयंकर शमशान देखा| चारों ओर हड्डियों के ढेर लगे थे| भयंकर दुर्गन्ध आ रही थी| यह देखकर उनके पाँव लड़खड़ाने लगे| फिर भी जिज्ञासा उन्हें आगे बढ़ा ले गई| कुछ आगे चलने पर उन्हें एक मनुष्य शूली से टंगा हुआ मिला जो भयंकर पीड़ा से छटपटा रहा था| यह देख दोनों के आश्चर्य का पार ना रहा| उन्होंने निकट जाकर पुछा "भाई ! यह क्या है ? तुम्हारी यह दशा किसने व क्यों की ?"
इस पर वह व्यक्ति बोला की "मैं काकन्दी नगरी का व्यापारी हूँ| जहाज़ टूट जाने से भटकता हुआ रत्नादेवी के चंगुल में फँस गया| एक दिन मेरे छोटे से अपराध से क्रुद्ध होकर उसने मुझे शूली पे चढ़ा दिया| यहाँ आने वाला हर मनुष्य उसके जाल में फँसता है और अंत में उसकी यही दुर्दशा होती है|" यह सुनकर दोनों भाइयों के पसीने छूट गए| जिनपाल ने उस व्यक्ति से पुछा की इससे मुक्त होने का कोई उपाय है ? तो वह व्यक्ति बोला "हाँ एक उपाय है| पूर्व दिशा के वन में शैलक नाम का एक यक्ष अमावस्या को अश्व रूप में उपस्थित होकर अपने भक्तों को पुकारता है "किसकी रक्षा करूँ ?" उस समय जो प्रार्थना करता है वह उसे बचा कर ले जाता है|
दोनों भाई यह सुनकर वापस महल में आ गए और सोचा की आज ही अमावस्या की रात है, हमें तुरंत पूर्व के जंगल की ओर चलना चाहिए| यह निश्चय कर दोनों पूर्व के जंगल की ओर पंहुचे|
नियत समय पर अश्वरूप धारी यक्ष प्रकट हुआ और आवाज़ लगाई " किसको तारूँ ? किसकी रक्षा करूँ ?"
इस पर दोनों भाई बोले "हे देव ! कृपा कर हमें इस विपत्ति से बचाइए"
यक्ष ने कहा "तुम दोनों मेरी पीठ पर बैठ जाओ| मैं तुम्हें सुरक्षित रूप से यथास्थान पँहुचा दूंगा, किन्तु ध्यान रखना, देवी तुम्हारे पीछे दौड़ेगी, वह बहुत भय व प्रलोभन दिखाएगी| यदि तुम उसके मोह जल में फँस गए और उसकी और मुड़कर भी देख लिया तो मैं तुम्हें अपनी पीठ से उतार कर समुद्र में फेंक दूंगा|" इतना कहकर यक्ष ने उनको अपनी पीठ पर बिठाया और उड़ चला|
इधर रत्नादेवी जब वापस महल पँहुची तो महल को सुनसान देखकर चौंकी| उसने अपने अवधिज्ञान के प्रयोग से जान लिया की दोनों भाई यक्ष की मदद से यहाँ से निकलने का प्रयत्न कर रहे हैं| वो तुरंत उन्हें रोकने उनके पीछे दौड़ी और झूठे प्यार भरे मीठे शब्दों में पुकारने लगी "मेरे प्राण प्रिय ! मुझे छोड़कर मत जाओ| मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकुंगी | मैं जीवन भर तुम्हारी दासी बनकर रहूंगी|"
जिनपाल ने देवी की बातों पर ध्यान नहीं दिया और अविचल भव से बैठा रहा| किन्तु जिनरक्षित का मन थोडा सा पिघल गया, उसने देवी की मोह भरी बातों से विचलित होकर ज्यों ही देवी की ओर नज़र उठाई की अश्व रुपी यक्ष ने उसे अपनी पीठ से गिरा दिया| देवी ने क्रोध में आकर समुद्र में गिरने से पहले ही उसके टुकड़े टुकड़े कर दिए और जिनपाल सुखपूर्वक अपने घर पँहुच गया|
शिक्षा - जो साधक लालसा एवं प्रलोभनों पर विजय प्राप्त कर लेता है, वह सुखपूर्वक अपनी जीवन यात्रा तय करता है, और जो उसके मायाजाल में जा फँसा, तो अपना सर्वनाश कर बैठता है| इसलिए प्रलोभनों से बचना चाहिए|
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