कथा त्याग का मूल्यअभय कुमार
श्रमण भगवान महावीर के पंचम गणधर आर्य सुधर्मा के चरणों में जहाँ एक ओर बड़े बड़े राजा, राजकुमार तथा श्रेष्ठी आकर मुनि दीक्षा लेते, वहाँ दूसरी ओर दीन दरिद्र, यहाँ तक की पथ के भिखारी भी दीक्षित होते, साधना करते| इसी श्रंखला में एक बार राजगृह का एक लकड़हारा भी विरक्त होकर मुनि बन गया था| साधना के क्षेत्र में तो आत्मा की ही परख होती है, देह, वंश और कुल की नहीं|
एक बार महामंत्री अभयकुमार सामंतों के साथ वन विहार के लिए जा रहे थे की मार्ग में वही लकड़हारा मुनि भिक्षा के लिए नगर में प्रवेश करते हुए सामने मिल गए| अभयकुमार ने घोड़े के नीचे उतरकर मुनि चरणों में भक्ति भाव से वंदना की| वंदना करके जब उसने पीछे देखा तो सामंत लोग कनखियों से हँस रहे थे| सामंत ही नहीं बल्कि आस पास के लोग भी मुस्कुरा रहे थे|
महामंत्री समझ तो गए थे पर फिर भी उन्होंने सामंतों से हँसने का कारण पूछा, तो एक सामंत ने व्यंग्यपूर्वक कहा, "मगध का महामंत्री किस राजर्षि के चरणों में सर झुका रहा है? जो कल दर दर की ठोकरें खाने वाला एक दीन लकड़हरा था, वही आज बहुत बड़ा त्यागी बन गया| धन्य हो, इतना गजब का त्याग उसने किया है कि मगध के महामंत्री भी अश्व से नीचे उतर कर प्रणाम करते हैं| कितनी प्रसन्नता की बात है|"
सामंत के शब्दों में तीखा व्यंग्य था, त्याग का उपहास था| अभयकुमार को उस संस्कारहीन परिहास पर रोष तो आया, परन्तु उसने विवेकपूर्वक मुस्कुराते हुए उस रोष को भीतर ही पी लिया| अज्ञान और अहंकार का प्रतिकार ज्ञान और नम्रता से ही हो सकता है| अभयकुमार जानता था की सामंत ने मगध के महामंत्री का नहीं अपितु भगवान महावीर की त्याग परंपरा का उपहास किया है| भोग में फंसा त्याग की ऊंचाई की कल्पना करे भी तो कैसे करे| अभयकुमार बिना कुछ कहे आगे बढ़ गए|
दुसरे दिन महामंत्री ने राजसभा में एक एक कोटि स्वर्ण मुद्राओं के ढेर लगवाए और खड़े सामंतों से कहा, " जो व्यक्ति जीवन भर कच्चे जल का उपयोग, अग्नि का उपयोग और स्त्री सहवास का त्याग करे, उसे मैं ये तीन कोटि स्वर्ण मुद्राएँ दूंगा|"
सभा में सन्नाटा छा गया, सभी सामंत एक दुसरे का मुँह देखने लगे|
"कितना कठिन है", एक सामंत ने कहा|
" इन तीनों के त्याग का मतलब है, एक तरह से जीवन का ही त्याग, फिर तो साधू ही ना बन जाएँ, और फिर इन स्वर्ण मुद्राओं का करेंगे भी क्या?" दुसरा सामंत बोला|
सभा से कोई उत्तर नहीं मिला| महामंत्री फिर खड़े हुए और गंभीर स्वर में बोले, " लगता है हमारे वीर सामंत एक साथ तीन बड़ी शर्तों को देखकर अचकचा गए हैं| अच्छा तो उनके लिए विशेष सुविधा की घोषणा किए देता हूँ, तीनो में से किसी एक ही प्रतिज्ञा करने वाले को भी स्वर्ण मुद्राएँ दी जा सकती हैं|"
फिर भी सभा में सन्नाटा छाया रहा| कोई भी वीर सामंत महामंत्री की इस नरम की गई शर्त को भी स्वीकार करने का साहस नहीं कर सका| महामंत्री ने सभा पर गंभीर दृष्टी डाली, "क्या कोई व्यक्ति यह साधारण सा त्याग करने का भी साहस नहीं कर सकता?"
तभी सभी सामंत एक स्वर में बोले, "नहीं महाराज, यह साधारण नहीं बल्कि असाधारण त्याग है, किसी एक ही वास्तु के त्याग का अर्थ है जीवन की समस्त सुख सुविधाओं, आमोद प्रमोद का त्याग|"
अभयकुमार बोले," तो फिर सामंतो ! जिस व्यक्ति ने बिना किसी लालच के इस तीनों का त्याग किया हो, वह कितना महान और कितना वीर योद्धा होगा आध्यात्मिक क्षेत्र का?"
"अति महान! अति वीर! अवश्य ही वह अत्यंत कठिन तथा असाधारण कार्य करने वाला है, उसका त्याग महान है|", एक साथ कई सामंत बोल उठे|
अभयकुमार बोले, "वीर सामंतों! मैंने कल जिस मुनि को नमस्कार किया था, वह इन तीनों का ही नहीं बल्कि ऐसे अनेक असाधारण उग्र व्रत तथा प्रतिज्ञाओं का पालन करने वाला वीर है, त्यागी है| उसके पास भोग के साधन भले ही अल्प रहे हों, पर भोग की अनंत इच्छाओं को तो उसने जीत लिया है| त्याग का मानदंड राजकुमार या लकड़हारा नहीं हुआ करता, व्यक्ति के मन की सच्ची विरक्ति हुआ करती है|"
महामंत्री के विश्लेषण पर सामंत मौन थे, साथ ही प्रसन्न भी| कई झुके हुए चेहरों पर पश्चाताप की निर्मल रेखाएं भी प्रस्फुटित हो रही थी| सभी त्याग का सच्चा अर्थ समझ गए थे|
एक बार महामंत्री अभयकुमार सामंतों के साथ वन विहार के लिए जा रहे थे की मार्ग में वही लकड़हारा मुनि भिक्षा के लिए नगर में प्रवेश करते हुए सामने मिल गए| अभयकुमार ने घोड़े के नीचे उतरकर मुनि चरणों में भक्ति भाव से वंदना की| वंदना करके जब उसने पीछे देखा तो सामंत लोग कनखियों से हँस रहे थे| सामंत ही नहीं बल्कि आस पास के लोग भी मुस्कुरा रहे थे|
महामंत्री समझ तो गए थे पर फिर भी उन्होंने सामंतों से हँसने का कारण पूछा, तो एक सामंत ने व्यंग्यपूर्वक कहा, "मगध का महामंत्री किस राजर्षि के चरणों में सर झुका रहा है? जो कल दर दर की ठोकरें खाने वाला एक दीन लकड़हरा था, वही आज बहुत बड़ा त्यागी बन गया| धन्य हो, इतना गजब का त्याग उसने किया है कि मगध के महामंत्री भी अश्व से नीचे उतर कर प्रणाम करते हैं| कितनी प्रसन्नता की बात है|"
सामंत के शब्दों में तीखा व्यंग्य था, त्याग का उपहास था| अभयकुमार को उस संस्कारहीन परिहास पर रोष तो आया, परन्तु उसने विवेकपूर्वक मुस्कुराते हुए उस रोष को भीतर ही पी लिया| अज्ञान और अहंकार का प्रतिकार ज्ञान और नम्रता से ही हो सकता है| अभयकुमार जानता था की सामंत ने मगध के महामंत्री का नहीं अपितु भगवान महावीर की त्याग परंपरा का उपहास किया है| भोग में फंसा त्याग की ऊंचाई की कल्पना करे भी तो कैसे करे| अभयकुमार बिना कुछ कहे आगे बढ़ गए|
दुसरे दिन महामंत्री ने राजसभा में एक एक कोटि स्वर्ण मुद्राओं के ढेर लगवाए और खड़े सामंतों से कहा, " जो व्यक्ति जीवन भर कच्चे जल का उपयोग, अग्नि का उपयोग और स्त्री सहवास का त्याग करे, उसे मैं ये तीन कोटि स्वर्ण मुद्राएँ दूंगा|"
सभा में सन्नाटा छा गया, सभी सामंत एक दुसरे का मुँह देखने लगे|
"कितना कठिन है", एक सामंत ने कहा|
" इन तीनों के त्याग का मतलब है, एक तरह से जीवन का ही त्याग, फिर तो साधू ही ना बन जाएँ, और फिर इन स्वर्ण मुद्राओं का करेंगे भी क्या?" दुसरा सामंत बोला|
सभा से कोई उत्तर नहीं मिला| महामंत्री फिर खड़े हुए और गंभीर स्वर में बोले, " लगता है हमारे वीर सामंत एक साथ तीन बड़ी शर्तों को देखकर अचकचा गए हैं| अच्छा तो उनके लिए विशेष सुविधा की घोषणा किए देता हूँ, तीनो में से किसी एक ही प्रतिज्ञा करने वाले को भी स्वर्ण मुद्राएँ दी जा सकती हैं|"
फिर भी सभा में सन्नाटा छाया रहा| कोई भी वीर सामंत महामंत्री की इस नरम की गई शर्त को भी स्वीकार करने का साहस नहीं कर सका| महामंत्री ने सभा पर गंभीर दृष्टी डाली, "क्या कोई व्यक्ति यह साधारण सा त्याग करने का भी साहस नहीं कर सकता?"
तभी सभी सामंत एक स्वर में बोले, "नहीं महाराज, यह साधारण नहीं बल्कि असाधारण त्याग है, किसी एक ही वास्तु के त्याग का अर्थ है जीवन की समस्त सुख सुविधाओं, आमोद प्रमोद का त्याग|"
अभयकुमार बोले," तो फिर सामंतो ! जिस व्यक्ति ने बिना किसी लालच के इस तीनों का त्याग किया हो, वह कितना महान और कितना वीर योद्धा होगा आध्यात्मिक क्षेत्र का?"
"अति महान! अति वीर! अवश्य ही वह अत्यंत कठिन तथा असाधारण कार्य करने वाला है, उसका त्याग महान है|", एक साथ कई सामंत बोल उठे|
अभयकुमार बोले, "वीर सामंतों! मैंने कल जिस मुनि को नमस्कार किया था, वह इन तीनों का ही नहीं बल्कि ऐसे अनेक असाधारण उग्र व्रत तथा प्रतिज्ञाओं का पालन करने वाला वीर है, त्यागी है| उसके पास भोग के साधन भले ही अल्प रहे हों, पर भोग की अनंत इच्छाओं को तो उसने जीत लिया है| त्याग का मानदंड राजकुमार या लकड़हारा नहीं हुआ करता, व्यक्ति के मन की सच्ची विरक्ति हुआ करती है|"
महामंत्री के विश्लेषण पर सामंत मौन थे, साथ ही प्रसन्न भी| कई झुके हुए चेहरों पर पश्चाताप की निर्मल रेखाएं भी प्रस्फुटित हो रही थी| सभी त्याग का सच्चा अर्थ समझ गए थे|