कायोत्सर्ग के ३२ दोष
कायोत्सर्ग के ३२ दोष
अब कायोत्सर्ग के ३२ दोष बतलाते हैं-
१. घोटकदोष - घोड़े के समान एक पैर उठाकर अर्थात् एक पैर से भूमि को स्पर्श न करते हुए खड़े होना ।
२. लता दोष - वायु से हिलती लता के समान हिलते हुए कायोत्सर्ग करना ।
३. स्तंभदोष - स्तंभ का सहारा लेकर अथवा स्तंभ के समान शून्य हृदय होकर कायोत्सर्ग करना ।
४. कुड्य दोष - दीवाल आदि का आश्रय लेकर कायोत्सर्ग करना ।
५. माला दोष - पीठादि-पाटा आदि के ऊपर आरोहरण कर अथवा मस्तक के ऊपर कोई रज्जु वगैरह वस्तु का आश्रय लेकर खड़े होना ।
६. शबरी दोष - भिल्लनी के समान गुह्य अंग को हाथों से ढक कर या जंघा से जघन को पीड़ित करके खड़े होना ।
७. निगड दोष - अपने दोनों पैरों को बेड़ी से जकड़े हुए की तरह पैरों में बहुत अंतराल करके खड़े होना।
८. लंबोत्तर दोष - नाभि से ऊध्र्व भाग को लंबा करके अथवा कायोत्सर्ग में स्थित हुए अधिक ऊँचे होना या झुकना ।
९. स्तनदृष्टि दोष - अपने स्तन भाग पर दृष्टि रखना ।
१०. वायस दोष - कौवे के समान इधर-उधर देखना ।
११. खलीन दोष - जैसे घोड़ा लगाम लग जाने से दाँतों को घिसता-कटकट करता हुआ सिर को ऊपर नीचे करता है वैसे ही दाँतों को कट-कटाते हुए सिर को ऊपर नीचे करना।
१२. युग दोष - जैसे कंधे के जुये से पीड़ित बैल गरदन फैला देता है वैसे ही ग्रीवा को लम्बी करके कायोत्सर्ग करना।
१३. कपित्थ दोष - वैथ की तरह मुट्ठी बाँध कर कायोत्सर्ग करना।
१४. शिर:प्रकंपित दोष - कायोत्सर्ग करते समय सिर हिलाना ।
१५. मूक दोष - मूक मनुष्य के समान मुख विकार करना , नाक सिकोड़ना।
१६. अंगुलि दोष - कायोत्सर्ग करते समय अंगुलियों से गणना करना ।
१७. भ्रूविकार दोष - कायोत्सर्ग करते समय भृकुटियों को चढ़ाना या विकार युक्त करना ।
१८. वारुणीपायी दोष - मदिरापायी के समान झूमते हुए कायोत्सर्ग करना।
१९. से २८ तक दिशावलोकन दोष - कायोत्सर्ग करते समय पूर्वादि दिशाओं का अवलोकन करना । इसमें दश दिशा संबंधी दश दोष हो जाते हैं।
२९. ग्रीवोन्नमन दोष - कायोत्सर्ग करते समय गर्दन को ऊँची उठाना ।
३०. प्रणमन दोष - कायोत्सर्ग में गर्दन अधिक नीचे झुकाना । ३१. निष्ठीवन दोष - थूकना, श्लेष्मा आदि निकालना । ३२. अंगामर्श दोष - कायोत्सर्ग करने में शरीर का स्पर्श करना । इन बत्तीस दोषों को छोड़कर धीर-वीर साधु दु:खों का नाश करने के लिये माया से रहित, अपनी शक्ति और अवस्था-उम्र के अनुरूप कायोत्सर्ग करते हैं।
अब कायोत्सर्ग के ३२ दोष बतलाते हैं-
१. घोटकदोष - घोड़े के समान एक पैर उठाकर अर्थात् एक पैर से भूमि को स्पर्श न करते हुए खड़े होना ।
२. लता दोष - वायु से हिलती लता के समान हिलते हुए कायोत्सर्ग करना ।
३. स्तंभदोष - स्तंभ का सहारा लेकर अथवा स्तंभ के समान शून्य हृदय होकर कायोत्सर्ग करना ।
४. कुड्य दोष - दीवाल आदि का आश्रय लेकर कायोत्सर्ग करना ।
५. माला दोष - पीठादि-पाटा आदि के ऊपर आरोहरण कर अथवा मस्तक के ऊपर कोई रज्जु वगैरह वस्तु का आश्रय लेकर खड़े होना ।
६. शबरी दोष - भिल्लनी के समान गुह्य अंग को हाथों से ढक कर या जंघा से जघन को पीड़ित करके खड़े होना ।
७. निगड दोष - अपने दोनों पैरों को बेड़ी से जकड़े हुए की तरह पैरों में बहुत अंतराल करके खड़े होना।
८. लंबोत्तर दोष - नाभि से ऊध्र्व भाग को लंबा करके अथवा कायोत्सर्ग में स्थित हुए अधिक ऊँचे होना या झुकना ।
९. स्तनदृष्टि दोष - अपने स्तन भाग पर दृष्टि रखना ।
१०. वायस दोष - कौवे के समान इधर-उधर देखना ।
११. खलीन दोष - जैसे घोड़ा लगाम लग जाने से दाँतों को घिसता-कटकट करता हुआ सिर को ऊपर नीचे करता है वैसे ही दाँतों को कट-कटाते हुए सिर को ऊपर नीचे करना।
१२. युग दोष - जैसे कंधे के जुये से पीड़ित बैल गरदन फैला देता है वैसे ही ग्रीवा को लम्बी करके कायोत्सर्ग करना।
१३. कपित्थ दोष - वैथ की तरह मुट्ठी बाँध कर कायोत्सर्ग करना।
१४. शिर:प्रकंपित दोष - कायोत्सर्ग करते समय सिर हिलाना ।
१५. मूक दोष - मूक मनुष्य के समान मुख विकार करना , नाक सिकोड़ना।
१६. अंगुलि दोष - कायोत्सर्ग करते समय अंगुलियों से गणना करना ।
१७. भ्रूविकार दोष - कायोत्सर्ग करते समय भृकुटियों को चढ़ाना या विकार युक्त करना ।
१८. वारुणीपायी दोष - मदिरापायी के समान झूमते हुए कायोत्सर्ग करना।
१९. से २८ तक दिशावलोकन दोष - कायोत्सर्ग करते समय पूर्वादि दिशाओं का अवलोकन करना । इसमें दश दिशा संबंधी दश दोष हो जाते हैं।
२९. ग्रीवोन्नमन दोष - कायोत्सर्ग करते समय गर्दन को ऊँची उठाना ।
३०. प्रणमन दोष - कायोत्सर्ग में गर्दन अधिक नीचे झुकाना । ३१. निष्ठीवन दोष - थूकना, श्लेष्मा आदि निकालना । ३२. अंगामर्श दोष - कायोत्सर्ग करने में शरीर का स्पर्श करना । इन बत्तीस दोषों को छोड़कर धीर-वीर साधु दु:खों का नाश करने के लिये माया से रहित, अपनी शक्ति और अवस्था-उम्र के अनुरूप कायोत्सर्ग करते हैं।
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