कथा आचार्य हेमचंद्राचार्य

कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचंद्राचार्य :—

बाल्यवस्था का नाम चांगदेव, पिता का नाम —चाचंग और माता का नाम था— पाहिनी देवी था ।
जन्म स्थल — गुजरात का धंधूका शहर ।
बालक चांगदेव जब गर्भ में था तब माता पहिनी ने आश्चर्यजनक स्वप्न देखा।स्वप्न में माता ने दो दिव्य हाथों को देखा, जिसमें दिव्य रत्न था।” इस दिव्य रत्न को आप ग्रहण करे “ एसी ध्वनि उनको सुनाई दी।इस स्वप्न के अर्थ को जानने के लिए  पहिनीदेवी उसी नगर में उपस्थित आचार्य देवचंद्रसुरी के पास जाती है।आचार्य ने कहा की ,
“ दिव्य रत्न के समान आपको पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी।आगे चलकर आपका पुत्र जिनशासन का महान आचार्य बनेगा और शासन की शोभा बढ़ाएगा।”
पहिनी ने अपने आप को धन्य समझा और गुरु को सविनय वंदन किया।विक्रम संवत ११४५ के कार्तिक पूर्णिमा की रात्रि मे पाहिनी ने एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया और उसका नाम ‘ चांगदेव ‘ रखा गया।बाल्यकाल से ही चांगदेव को धर्म के प्रति अत्यंत रुचि एवं श्रद्धा थी।गुरु देवचंद्रजी के सानिध्य में धर्म के संस्कार  और दृढ़ हुए और एक दिन खंभात में जैन संघ की अनुमति से और उदायन मंत्री के सहयोग से नव वर्ष की आयु में,विक्रम संवत ११५४ में , चांगदेव की दीक्षा हुईं।और उनका नाम “ सोमचंद्र “ रखा गया।
अल्प आयु में शास्त्रों में तथा व्यवहारिक ज्ञान में वे निपुण हो गए।२१ वर्ष की अवस्था में समस्त शस्त्रों का मंथन कर ज्ञान की वृद्धि की।उनकी योग्यता को देखते हुए, विक्रम संवत ११६६ में उनको सूरिपद दिया गया।उस समय एक
विस्मय जनक घटना धटी। सोमचंद्र जो मिट्टी के ढेर पर बेठे थे। तब गुरु देवचंद्र जी के मुख से एसे उदगार निकले, की सोम जहाँ बेठेगा वहाँ हेम ही होगा।” और वास्तव में वहीं से हेम प्राप्त हुआ, तब से वे हेमचंद्र के नाम से जाने गए।

आचार्य श्री हेमचंद्राचार्य ने बीस साल की उम्र से ही साहित्य सर्जन की शुरुआत कर दो थी।उनके महत्वपूर्ण साहित्य सर्जन है, सवा लाख श्लोक प्रमाण वाला व्याकरण का महाग्रंथ—“ सिद्धहेम शब्दनुशासन व्याकरण “, की रचना की। त्रिशास्थिशलकापुरुष चरित्र “- जिसने ६३ शलाका पुरुषों का जीवन चरित्र समाविष्ट है, अनेकार्थ संग्रह के द्वारा एक शब्द के अनेक अर्थ बताए, “ अलंकार चूड़ामणि “और “ छंदानुशासन “ द्वारा काव्य छंद की चर्चा की और “ द्वायाश्रय “के द्वारा गुजरात की अस्मिता का वर्णन किया।जिसमें १४ सर्गों तक सिद्धराज के समय का वर्णन किया और आगे के सर्गों में कुमारपाल के राज्य काल का वर्णन किया।उन्होंने  “ वितराग स्तोत्र “की रचना की जिसमें परमात्मा के अदभुत गुणो का वर्णन है, इसे पढ़ने वाला जीव समाधि को प्राप्त करता है ।योगशास्त्र के ग्रंथो की रचना की । कुल मिलाकर साडे तीन क्रोड श्लोक प्रमाण साहित्य की रचना की।

कलिकाल सर्वज्ञ हेमचंद्राचार्य :—

आचार्य हेमचंद्र अद्वितीय विद्वान थे।व्याकरण शास्त्र के इतिहास में हेमचन्द्र की नाम सुवर्ण अक्षरों से लिखा जाता है।हेमचंद्राचार्य की विशिष्ट कृति है — वितराग स्तोत्र । इस स्तोत्र को उन्होंने कुमारपाल राजा को परमात्मा की भक्ति करने के लिए अर्पित किया था।

प्रतिदिन कुमारपाल इस स्तोत्र का अध्ययन करने के बाद ही जल ग्रहण करते थे।इस स्तोत्र में परमात्मा के गुणो का अदभुत वर्णन है।यह स्तोत्र “ वितरागस्तव “ अथवा “ विंशति प्रकाश “ के नाम से भी प्रचलित है।इस स्तोत्र में बीस प्रकाश है :—जिसमें से कुछ प्रकाशो का विवरण इस प्रकार है—

१) प्रथम प्रकाश में परमात्मा के गुणो का वर्णन करके , तीनो लोक के नाथ एसे परमात्मा को वंदन किया गया है।

२) दूसरे प्रकाश में सहजातिशय का वर्णन किया है।परमात्मा के देह का अतिशय बताते है कि,न केवलं रागमुक्त ,वीतराग मनस्तव ।वपु: स्थितं रक्तमयि, क्षीरधारा सहोदरम ।अर्थात, हे वीतराग ! केवल आपका मन राग रहित है एसा नहीं है, बल्किआपके शरीर का रुधिर भी राग के अभाव से दूध जैसा उज्ज्वल है।

३) इस प्रकाश मे कर्मक्षय से उत्पन्न होने वाले ग्यारह अतिशयो का वर्णन किया है और मैत्री आदि चार भावना से युक्त परमात्मा को नमस्कार करते हुए कहा है —
मैत्रीपवित्रपाय ,मुदितामोद शालिने ।
कृपा पेक्षा प्रतीक्षाय , तुभयं योगात्मने नम: ।।
अर्थात मैत्री भावना से पवित्र पात्र रूप, प्रमोद भावना से सुशोभित तथा करुणा और माध्यस्थ भावना से पूजित एसे योगात्मा को नमस्कार हो।

४) चोथे प्रकाश में देवकृत १९ अतिशयो का वर्णन है।
५)पाँचवे अतिशय में आठ प्रतिहार्य का वर्णन,
६)छठे में विपक्ष निरास का विवेचन है।
७)सातवें प्रकाश का नाम है, जगतकर्तुत्वनिरास, जिसमें जगत का कर्ता यदि ईश्वर को माना जाए तो कितने सारे प्रश्न उपस्थित हो सकते है, उसका समाधान किया गया है।
८) एकांतनिरास,
९) कलिकालोप बृहन,
१०) अदभुत,
११)महिम,
१२) वैराग्य
१३) विरोधहेतु निरास
१४) योगशुद्धि
१५) भक्ति,
१६) आत्म गर्हा,
१७) शरण
१८) कठोरोक्ति ,
१९) आज्ञा और
२०) आशीष ।

आठवें प्रकाश में द्रव्य, पर्याय, नित्य, अनित्य आदि चर्चा की गयी है।ऊनीसवे प्रकाश में परमात्मा की आज्ञा पालन का महत्व क्या है , इसे समझाया गया है और बीसवें प्रकाश में हेमचंद्राचार्य जी ने श्रद्धा और भक्तिपूर्वक अपनी समर्पणता को इस गाथा के माध्यम से दर्शाया है:—

तव प्रेश्योस्मि दासोस्मि सेवकोस्म्य्स्मी किक्करं ।
ओमिति प्रतिपद्यस्व , नाथ नात: परं बुवे ।।

इस प्रकार “वीतराग स्तोत्र” आचार्य हेमचंद्र की अदभुत कृति है, जिसमें उनकी एक कवि के रूप में, एक दार्शनिक के रूप में , एक विनम्र भक्त के रूप में उनकी अलौकिक छवि का दर्शन होता है।


🌹🌹 श्री हेमचंद्राचार्य 🌹🌹

कलिकालसर्वज्ञ हेमचंद्राचार्य ने कविता और व्याकरण, इतिहास और पुराण , योग और अध्यात्म , कोश और अंलकार , त्याग और तपश्चर्या , संयम और सदाचार , राजकल्याण और लोक कल्याण इत्यादि अनेकविध क्षेत्रों में सात दशक के दीर्घकाल तक अभूतपूर्व कार्य किया । साधुता और साहित्य के क्षेत्र में पिछले करीब हजार वर्ष तक उनके समकक्ष का महान व्यक्तित्व दृष्टिगत नहीं होता ।

धंधुका नगर में मोढ़ वणिक जाति के चाचिंग और पाहिणी के पुत्र के लक्षण पालने में से ही प्रकट हुए । शास्त्रों के ज्ञाता , सामुद्रिक लक्षणविद्या के जानकार और अनेक ग्रंथों के रचयिता आचार्यश्री देवेन्द्रसूरि उस समय धंधुका में बिराजमान थे । पाँच वर्ष के बालक चांग को लेकर माता पाहिणी श्री देवचंद्रसूरिजी को प्रणाम करने आई , तब श्री देवचंद्रसूरिजी दर्शनार्थ जिनालय की ओर गये थे । चांग स्वयं गुरु महाराज के पाट पर बैठ गया । दर्शन करके वापस आये श्री देवचंद्रसूरिजी ने यह दृश्य देखा । बालक की मुखाकृति तथा साहजिक अभिरुचि देखकर उन्होंने पाहिणी से कहा , " तेरा पुत्र भविष्य में महान साधु बनकर अनेक लोगों का कल्याण करेगा । "

श्री देवचंद्रसूरि संघ के अग्रणियों को लेकर पाहिणी के घर पधारें । पाहिणी ने अपना महाभाग्य समझकर आनंदपूर्वक चांग को गुरुचरणों में समर्पित कर दिया । उन्हें मुनि सोमचंद्र नाम दिया गया । मुनि सोमचंद्र को किस प्रकार आचार्य हेमचंद्र नाम दिया गया इस विषय में एक दंतकथा प्रचलित है । पाटण के श्रीमंत श्रेष्ठी धनद सेठ ने मुनि को अपने यहाँ गोचरी के लिए पधारने की प्रार्थना की । मुनि सोमचंद्र वृद्ध मुनि वीरचंद्र सहित धनद सेठ के वहाँ गये , तब धनद सेठ की दरिद्रता देखकर सोमचंद्र को मुनि वीरचंद्र ने कहा कि इनके पास बहुत सुवर्ण मुद्राएँ है , परन्तु वे कोयले की तरह काली होने से उनको इसकी खबर नहीं हैं । इसीका नाम है कर्म की प्रबलता ।

धनद सेठ के कानों तक यह बात पहुँची , उन्होंने सोमचंद्र मुनि को उस ढेर पर बिठा दिया । कोयले जैसी काली सुवर्ण मुद्राएँ अचानक सोने की तरह जगमगाने लगी । तब धनद सेठ ने मुनि का आचार्य के रुप में 'हेमचंद्र ' नाम देने के लिए उनके गुरुदेव से कहा । हेमचंद्राचार्य की कीर्ति-कथाएँ गुजरात के राजा सिद्धराज तक पहुँची । एक बार सिद्धराज हाथी पर सवार होकर पाटण के बड़े बाजार से गुजर रहे थे , तब उनकी प्रार्थना के कारण हेमचंद्राचार्य ने एक श्लोक कहा। यह श्लोक सुनकर सिद्धराज प्रभावित हुए । मालवा-विजय के पश्चात् सिद्धराज समक्ष विद्वानों ने भोज के संस्कृत व्याकरण की प्रशंसा की । शत्रु राजा की प्रशंसा सिद्धराज को अच्छी नही लगी , किन्तु जाँच करने पर उसे पता चला कि उसके राज्य में सर्वत्र अभ्यासी भोज के व्याकरण का अध्ययन करते हैं । भोज के व्याकरण से बढ़कर व्याकरण लिखने की सिद्धराज की चुनौती उनके राज्य में एक भी पंडित या विद्वान स्वीकार नहीं पाये , परिणामतः सिद्धराज ने हेमचंद्राचार्य को बिनती की । उन्होंने लगभग एक वर्ष में सवा लाख श्लोक सहित प्राकृत और अपभ्रंश भाषा के व्याकरण को भी समाविष्ट करते हुए ' सिद्धहेमचंद्रशब्दानुशासन ' नामक व्याकरण तैयार किया । हाथी पर अंबारी ( हौदा ) में उसकी एक प्रत रखकर भारी धूमधामपूर्वक पाटण में शोभायात्रा निकाली गई । गुजरात में पहली बार सरस्वती का इतना विराट सम्मान हुआ । ' सिद्धहेम ' के संक्षिप्त नाम से परिचित यह व्याकरण राजदरबार में पढ़ा गया और भारत उपरांत नेपाल ,श्रीलंका और ईरान जैसे सुदूर के देशों में उसे भेजा गया । तत्पश्चात् आज तक की लगभग आठ सौ वर्ष की अवधि में किसी भी विद्वान ने इस प्रकार के व्याकरण की रचना नहीं की । कुमारपाल गादीपति होगें ऐसी भविष्यवाणी हेमचंद्राचार्य ने की थी , परन्तु कुमारपाल के प्रति वैरभाव के कारण सिद्धराज ने उन्हें मरवा देने के अनेक प्रयत्न किये । एक बार खंभात में गुप्त वेश में कुमारपाल हेमचंद्राचार्य से मिलने गये थे । सिपाहियों के आने पर कुमारपाल को छुपा दिया गया था । गुरु की भावनानुसार हेमचंद्राचार्य ने अनेक ग्रंथों की रचना की । सम्राट कुमारपाल के समय में अमारि घोषणा करके अहिंसा का प्रवर्तन किया । 84 वर्ष की सुदीर्घ जीवन यात्रा के पश्चात् विक्रम संवत् 1229 में पाटण में हेमचंद्राचार्य का कालधर्म ( स्वर्गारोहण ) हुआ ।

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साभार:जिनशासन की कीर्तिगाथा


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