कथा अंजन चोर की
अंजन चोर की कथा- नि:शंकित अंग में प्रसिद्ध
काश्मीर देश के अन्तर्गत विजयपुर के राजा अरिमंथन के
ललितांग नाम का एक सुन्दर पुत्र था।
इकलौता बेटा होने से माता—पिता के अत्यधिक लाड़
—प्यार से वह विद्याध्ययन नहीं कर सका और
दुब्र्यसनी बन गया। युवा होने पर प्रजा को अत्यधिक
त्रास देने लगा, तब राजा ने उसे देश से निकाल दिया।
वह चोर डाकुओं का सरदार बन गया और
अंजनगुटिका विद्या सिद्ध करके दूसरों से अदृश्य होकर
मनमाने अत्याचार करने लगा जिसके कारण अंजन चोर
नाम से प्रसिद्ध हो गया। किसी समय राजगृह नगर में
रात्री में राजघराने से रत्नहार चुरा कर भागा। तब
कोतवालों ने उसकी विद्या नष्ट करके
उसका पीछा किया, वह श्मशान में पहुँच गया। वहाँ पर
एक वट वृक्ष में सौ सींकों के एक छींके पर एक सेठ
बैठा था। वह बार—बार चढ़—उतर रहा था। चोर ने
पूछा,
यहा क्या है ? सेठ ने कहा—‘‘मुझे जिनदत्त सेठ ने
आकाशगामिनी विद्या सिद्ध करने को दी है। किन्तु
मुझे शंका है कि यदि विद्या सिद्ध नहीं हुई तो मैं नीचे
शस्त्रों पर गिरकर मर जाऊंगा।’’
अंजन चोर ने कहा—भाई ! तुम शीघ्र ही इसके सिद्ध करने
का उपाय मुझे बता दो क्योंकि जिनदत्त सेठ मुनिभक्त
हैं। उनके वचन कभी असत्य नहीं होंगे। सेठ ने विधिपूर्वक सब
बता दिया। उसने शीघ्र ही ऊपर चढ़कर महामंत्र
का स्मरण करते हुए एक साथ सभी डोरियाँ काट दी।
नीचे गिरते हुए अंजन चोर को, बीच में
ही आकाशगामिनी विद्या देवी ने आकर विमान में
बैठा लिया और बोलीं—आज्ञा दीजिए मैं क्या करूं ?
अंजन चोर ने कहा कि मुझे जिनदत्त सेठ के पास
पहुँचा दो।
विद्या देवता ने सुमेरु पर्वत पर पहुँचा दिया। वहाँ पहुँचकर
उसने, चैत्यालयों की वंदना करते हुए जिनदत्त से मिलकर
नमस्कार करके, सारी बातें बता दीं। अनंतर सम्पूर्ण
पापों को छोड़कर देवर्षि नामक मुनिराज के पास
दैगंबरी दीक्षा ले ली। तपश्चर्या के बल से चारण
ऋद्धि प्राप्त कर ली। पुन: केवल ज्ञान प्राप्त कर अन्त में
कैलाश पर्वत से मोक्ष पधार गये। नि:शंकित अंग में
प्रभाव से अंजन निरंजन (सिद्ध) बन गये।
काश्मीर देश के अन्तर्गत विजयपुर के राजा अरिमंथन के
ललितांग नाम का एक सुन्दर पुत्र था।
इकलौता बेटा होने से माता—पिता के अत्यधिक लाड़
—प्यार से वह विद्याध्ययन नहीं कर सका और
दुब्र्यसनी बन गया। युवा होने पर प्रजा को अत्यधिक
त्रास देने लगा, तब राजा ने उसे देश से निकाल दिया।
वह चोर डाकुओं का सरदार बन गया और
अंजनगुटिका विद्या सिद्ध करके दूसरों से अदृश्य होकर
मनमाने अत्याचार करने लगा जिसके कारण अंजन चोर
नाम से प्रसिद्ध हो गया। किसी समय राजगृह नगर में
रात्री में राजघराने से रत्नहार चुरा कर भागा। तब
कोतवालों ने उसकी विद्या नष्ट करके
उसका पीछा किया, वह श्मशान में पहुँच गया। वहाँ पर
एक वट वृक्ष में सौ सींकों के एक छींके पर एक सेठ
बैठा था। वह बार—बार चढ़—उतर रहा था। चोर ने
पूछा,
यहा क्या है ? सेठ ने कहा—‘‘मुझे जिनदत्त सेठ ने
आकाशगामिनी विद्या सिद्ध करने को दी है। किन्तु
मुझे शंका है कि यदि विद्या सिद्ध नहीं हुई तो मैं नीचे
शस्त्रों पर गिरकर मर जाऊंगा।’’
अंजन चोर ने कहा—भाई ! तुम शीघ्र ही इसके सिद्ध करने
का उपाय मुझे बता दो क्योंकि जिनदत्त सेठ मुनिभक्त
हैं। उनके वचन कभी असत्य नहीं होंगे। सेठ ने विधिपूर्वक सब
बता दिया। उसने शीघ्र ही ऊपर चढ़कर महामंत्र
का स्मरण करते हुए एक साथ सभी डोरियाँ काट दी।
नीचे गिरते हुए अंजन चोर को, बीच में
ही आकाशगामिनी विद्या देवी ने आकर विमान में
बैठा लिया और बोलीं—आज्ञा दीजिए मैं क्या करूं ?
अंजन चोर ने कहा कि मुझे जिनदत्त सेठ के पास
पहुँचा दो।
विद्या देवता ने सुमेरु पर्वत पर पहुँचा दिया। वहाँ पहुँचकर
उसने, चैत्यालयों की वंदना करते हुए जिनदत्त से मिलकर
नमस्कार करके, सारी बातें बता दीं। अनंतर सम्पूर्ण
पापों को छोड़कर देवर्षि नामक मुनिराज के पास
दैगंबरी दीक्षा ले ली। तपश्चर्या के बल से चारण
ऋद्धि प्राप्त कर ली। पुन: केवल ज्ञान प्राप्त कर अन्त में
कैलाश पर्वत से मोक्ष पधार गये। नि:शंकित अंग में
प्रभाव से अंजन निरंजन (सिद्ध) बन गये।
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