कथा अर्जुन माली

अमृत जीता विष हारा

भगवान महावीर के समय की बात है| मगध जनपद की राजधानी राजगृही में अर्जुन नाम का एक माली रहता था| नगर के बाहर उसका एक सुन्दर बगीचा था, जिसमें तरह तरह के पुष्प थे| अर्जुन इसी बगीचे से अपनी जीविका चलाता था| इसी बगीचे के पास मुद्गरपाणी यक्ष का एक प्राचीन मंदिर था, जिसमें हाथ में मुद्गर लिए हुए यक्ष की एक प्रतिमा थी|

अर्जुन बचपन से मुद्गरपाणी का भक्त था| वह प्रतिदिन अपनी फूलों की टोकरियाँ लेकर बगीचे में जाता और फूल चुनता| इन फूलों में से जो फूल सबसे सुन्दर होते, उन्हें वह यक्ष को चढ़ाता, यक्ष की पूजा भक्ति करता और तत्पश्चात राजमार्ग पर फूल बेचकर अपनी जीविका चलाता|
एक बार राजगृह में कोई उत्सव था| अर्जुन ने सोचा की इस अवसर पर फूलों की अच्छी बिक्री होगी| वह सुबह सुबह उठा और अपनी स्त्री को साथ लेकर बगीचे में पँहुचा| दोनों ने फूलों से अपनी टोकरियाँ भर लीं और रोज़ की तरह फूलों को लेकर यक्ष की पूजा करने चल दिए|
राजगृह में ललिता नाम की गुंडों की टोली थी| यह टोली अपना मनमाना काम करती, वेश्याघरों में रहती और भाँति भाँति के कुकर्म करती|
इस टोली के छह गुंडों ने दूर से देखा के माली अपनी औरत के साथ यक्ष मंदिर में जा रहा है| ये लोग चुपचाप मंदिर के किवाड़ों के पीछे छिप गए और जब माली और उसकी औरत यक्ष की पूजा कर रहे थे, तब गुंडे चुपके से किवाड़ों के पीछे से निकले और माली को रस्सी से बांध उसकी स्त्री के साथ अपनी भोग लिप्सा शांत की|
अर्जुन बंधन में जकड़ा रहा और गुस्से से तमतमाते हुए यक्ष से बोला, " यक्ष! मैं बचपन से तेरी पूजा करता आया, पर मुझे पता नहीं था की तू सिर्फ एक पत्थर की मूर्ति के अलावा और कुछ भी नहीं है| यदि तुझ में कुछ भी शक्ति है, चमत्कार है तो आज तेरा भक्त की तेरे सामने ये दुर्दशा हो रही है, तुझे शर्म आनी चाहिए| कुछ दिखा अपना चमत्कार"|
अर्जुन के ह्रदय में अपमान का दंश था, मन में तीव्र वेदना थी| मुद्गरपाणी यक्ष ने सचमुच उसकी पुकार सुनी और वह उसके शरीर में प्रविष्ट हो गया| एक झटके के साथ उसके बंधन चूर चूर होकर बिखर गए| अब अर्जुन के हाथ में यक्ष का वह लोहे का मुद्गर भीम की गदा की तरह लहरा उठा और उसने एक झटके में उन छह गुंडों और अपनी स्त्री इन सातों की हत्या कर दी|
सातों प्राणियों की हत्या करके भी यक्षाविष्ट अर्जुन का गुस्सा शांत नहीं हुआ| वह क्रोध में विक्षिप्त की तरह इधर उधर भटकने लगा| जो भी उसके सामने आता वह एक प्रहार में उसको मार डालता|
इस घटना से उसके मन में इतना भयंकर क्रोध और घृणा जगी की वह प्रतिदिन छह पुरुष एवं एक स्त्री की हत्या करके ही शांत होता था|
हरा भरा उद्यान शमशान घाट बन गया| शहर में आतंक छा गया| मौत के मुंह में कौन जाए, लोगों का आना जाना बंद हो गया| राजा श्रेणिक ने कई योद्धाओं को भेजा परन्तु यक्ष की शक्ति के सामने कोई नहीं टिक पाया|
इसी बीच भगवान महावीर राजगृह के बाहर गुणशील उद्यान में पधारे| जब लोगों ने यह सुना तो दर्शन करने की भावना उमड़ी| पर बीच का यह मृत्यु मार्ग कौन पार कर सकता था, रास्ते के बीच में मृत्यु का जो राक्षस बैठा था उससे दो दो हाथ कौन करे? सबने घर बैठे ही भगवान की भक्ति भाव से वंदना कर ली|
परन्तु एक युवा श्रावक सुदर्शन भगवान महावीर के दर्शनों का प्यासा था और उनके दर्शन करने उसी दिशा में चल पड़ा| उसके माता-पिता, मित्र-परिजनों ने बहुत समझाया परन्तु उसका एक ही उत्तर था, "अभय को भय नहीं खा सकता| मैं अमृत के दर्शन करने जा रहा हूँ, मुझे मृत्यु के विष का कोई भय नहीं" उसके साहस, विश्वास और निष्ठा पर सभी दांग थे|
वह चलते चलते गुणशील उद्यान के सुनसान मार्ग पर पँहुचा| अर्जुनमाली ने आज बहुत दिनों बाद एक मनुष्य को इस रास्ते पर आते हुए देखा| वह हाथ में मुद्गर संभाले सुदर्शन की और लपका| सुदर्शन वीर योद्धा की तरह दृढ़ता के साथ वहीँ खड़ा हो गया, न डरकर पीछे लौटा और न आगे दौड़ा| उसने शीघ्र ही संथारे की सगारिक मुद्रा धारण कर अविचल ध्यान मुद्रा में  स्थित हो गया|
सुदर्शन की तेजस्वी एवं निर्भय मुख को देखकर अर्जुन के पैर ठिठक गए| प्रहार के लिए उसका मुद्गर ऊपर उठा अवश्य, पर वह वहीँ अधर में उठा रह गया| सुदर्शन के आत्म साहस और सुदृढ़ संकल्पों के सामने अर्जुन के शरीर में रहे यक्ष का तेज समाप्त हो गया| अहिंसा के समक्ष हिंसा परास्त हो गई| क्षमा के सामने क्रोध हार गया| यक्ष देवता घबडा गया और अर्जुन के शरीर से कुच कर भाग गया| अर्जुन धडाम से भूमि पर गिर गया| उसका क्रोध शांत हो गया| सुदर्शन अभी ध्यान में लीन था| अर्जुनमाली भक्ति तथा तेज से प्रभावित हो उसके चरणों में गिर गया और अपने कृत कर्मों की क्षमा मांगने लगा|
सुदर्शन ने ध्यान खोला और चरणों में झुके हुए अर्जुन को प्रेम से उठाते हुए बोला, " अर्जुन! उठो, तुम भी अपना जीवन सुधर सकते हो| चलो भगवान महावीर के चरणों में| मैं भी वहीँ जा रहा हूँ| वे करुणा के देवता हमें कल्याण का मार्ग बताएँगे|"
अर्जुन की आँखों में आशा की आभा चमक उठी| वह सुदर्शन के साथ महावीर के दर्शन करने चल पड़ा|
लोगों ने देखा- सुदर्शन, अर्जुन जैसे नृशंस हत्यारे को साथ लिए, भगवान महावीर की धर्म सभा की ओर जा रहा है| पापी जब धर्मी बन जाता है तब भी साधारण लोग उसे आशंका से देखते हैं| पहले तो लोगों के मन में अनेक आशंकाएं उठीं, उन्हें यह यक्ष का छलावा लगा, अत: बहुत देर तक वे उसे कुतुहलवश देखते रहे| पर जब उन्होंने देखा की अर्जुन आज बहुत शांत है, उसकी गर्दन विनय से नीचे झुकी हुई है, उसके दोनों हाथ प्रणाम की मुद्रा में हैं| बस फिर क्या था? नगर के द्वार खुल गए| राजगृह के सहस्त्रों नर नारी निर्भय होकर प्रभु की धर्म देशना सुनने एकत्रित हुए| प्रभु का उपदेश हुआ| अहिंसा और प्रेम की वह धारा बही की अर्जुनमाली का ह्रदय आप्लावित हो उठा| उसने प्रभु के समक्ष आत्मनिंदा की और अहिंसा की साधना में प्रव्रजित होने की प्रार्थना की| प्रभु के चरणों में प्रव्रजित हो वह बेले का तप करते हुए तथा लोगों की निंदा व कष्ट सहते हुए अपनी आत्मा के कर्मों को नष्ट किया तथा एक दिन केवल ज्ञान की अमर ज्योति को प्राप्त किया| 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

भगवान पार्श्वनाथ प्रश्नोत्तरी

जैन प्रश्नोत्तरी

सतियाँ जी 16