प्रमाद की कथा
आलोचना लेने में प्रमाद नहीं करना चाहिए|
(कमलश्री कुत्ती, बंदरी बनी।।)
शिवभूति और वसुभूति दो भाई थे| शिवभूति की स्त्री कमलश्री अपने देवर वसुभूति के प्रति राग वाली बनी और उसने मोहवश अनुचित याचना की| भाभी के ऐसे अनुचित वचनों को सुनकर वसुभूति विचार करने लगा कि-‘‘ओह ! धिक्कार हो कामवासना को, जो ऐसी अनुचित याचना करवाती है| मुझे तो, किसी भी हालत में कामाधीन नहीं होना है|’’ इस प्रकार वैराग्य उत्पन्न होने पर उसने दीक्षा ग्रहण कर ली| यह बात कमलश्री तक पहुँची| राग के उदय से आर्तध्यान में रहती हुई वह मानसिक और वाचिक पाप की आलोचना लिए बिना ही शुनी (कुत्ती) के रूप में उत्पन्न हुई|
एक बार वसुभूति मुनि गोचरी के लिये जा रहे थे| कुत्ती की दृष्टि मुनि पर पड़ी| पूर्वभव के राग के कारण वह मुनि की छाया के समान उनके साथ-साथ चलने लगी| हमेशा मुनि के साथ कुत्ती को देखकर जहां भी मुनि जाते, लोग उनको शुनीपति (कुत्ती पति) मुनि कहने लगे| लोगों के ऐसे वचन सुनकर मुनि लज्जित होने लगे| एक दिन मुनि किसी भी तरीके से कुत्ती की दृष्टि से बचकर अन्यत्र चले गए| मुनि को न देखने पर कुत्ती आर्तध्यान से मरकर जंगल में बन्दरी बनी|
पूर्ववत् बन्दरी मुनि को देखकर मुनि के साथ-साथ घूमने लगी| लोग मुनि को बन्दरीपति कहने लगे| जब लोग ऐसा कहते, तब बन्दरी खुश होती और विषय की चेष्टा करती| एक बार मुनि बंदरी की नज़र से बचकर अन्यत्र चले गए| बंदरी आर्तध्यान में मरकर तालाब में हंसिनी बनी|
संयोगवशात् मुनि उस तालाब के किनारे शीत परिषह सहन करने के लिए काउस्सग्ग कर रहे थे| उन्हें देखकर हंसिनी अव्यक्त रीति से मधुर शब्द व विरह वेदना की आवाज़ करने लगी और पास में आकर आलिंगन करने लगी| मुनि तो शुभ ध्यान में स्थिर रहे| हंसिनी की दृष्टि से बचकर मुनि अन्यत्र विहार कर गए| मुनिश्री को न देखने पर हंसिनी व्यंतर निकाय में देवी के रूप में उत्पन्न हुई|
विभंग ज्ञान से स्वयं के साथ मुनिश्री का संबंध जान कर वह देवी विचार करने लगी कि मेरे देवर ने मेरा कहना नहीं माना| अतः मेरी यह दुर्दशा हुई है| अब वह क्रोध से आगबबूली होकर मुनि को मारने आयी| परंतु मुनिश्री के तप के प्रभाव से वह मार न सकी| जिससे दूसरे अनेक अनुकूल उपसर्ग करने लगी, परन्तु मुनि अपने व्रत में दृढ़ रहे और उन्होंने शुभध्यान के प्रताप से केवलज्ञान प्राप्त किया| सब लोगों के समक्ष केवली ने देवी के पूर्वभवों के संबंध का वर्णन किया| जिससे देवी ने सम्यक्त्व प्राप्त किया| मुनिश्री पृथ्वी पीठ को पावन करते हुये क्रम से मोक्ष सिधाये|
अब इस तरह सोचना चाहिए कि एक ही घर में केवल खराब दृष्टि रखने से और उसकी आलोचना न लेने से कितना भयंकर परिणाम हुआ कि तीन-तीन भव तिर्यंचगति में जन्म लेना पड़ा| इसलिये अगर हम अपने जीवन में हुए पापों की शुद्धि नहीं करेंगे, तो अपनी क्या दशा होगी? अतः आलोचना लेने में प्रमाद नहीं करना चाहिए|
(कमलश्री कुत्ती, बंदरी बनी।।)
शिवभूति और वसुभूति दो भाई थे| शिवभूति की स्त्री कमलश्री अपने देवर वसुभूति के प्रति राग वाली बनी और उसने मोहवश अनुचित याचना की| भाभी के ऐसे अनुचित वचनों को सुनकर वसुभूति विचार करने लगा कि-‘‘ओह ! धिक्कार हो कामवासना को, जो ऐसी अनुचित याचना करवाती है| मुझे तो, किसी भी हालत में कामाधीन नहीं होना है|’’ इस प्रकार वैराग्य उत्पन्न होने पर उसने दीक्षा ग्रहण कर ली| यह बात कमलश्री तक पहुँची| राग के उदय से आर्तध्यान में रहती हुई वह मानसिक और वाचिक पाप की आलोचना लिए बिना ही शुनी (कुत्ती) के रूप में उत्पन्न हुई|
एक बार वसुभूति मुनि गोचरी के लिये जा रहे थे| कुत्ती की दृष्टि मुनि पर पड़ी| पूर्वभव के राग के कारण वह मुनि की छाया के समान उनके साथ-साथ चलने लगी| हमेशा मुनि के साथ कुत्ती को देखकर जहां भी मुनि जाते, लोग उनको शुनीपति (कुत्ती पति) मुनि कहने लगे| लोगों के ऐसे वचन सुनकर मुनि लज्जित होने लगे| एक दिन मुनि किसी भी तरीके से कुत्ती की दृष्टि से बचकर अन्यत्र चले गए| मुनि को न देखने पर कुत्ती आर्तध्यान से मरकर जंगल में बन्दरी बनी|
पूर्ववत् बन्दरी मुनि को देखकर मुनि के साथ-साथ घूमने लगी| लोग मुनि को बन्दरीपति कहने लगे| जब लोग ऐसा कहते, तब बन्दरी खुश होती और विषय की चेष्टा करती| एक बार मुनि बंदरी की नज़र से बचकर अन्यत्र चले गए| बंदरी आर्तध्यान में मरकर तालाब में हंसिनी बनी|
संयोगवशात् मुनि उस तालाब के किनारे शीत परिषह सहन करने के लिए काउस्सग्ग कर रहे थे| उन्हें देखकर हंसिनी अव्यक्त रीति से मधुर शब्द व विरह वेदना की आवाज़ करने लगी और पास में आकर आलिंगन करने लगी| मुनि तो शुभ ध्यान में स्थिर रहे| हंसिनी की दृष्टि से बचकर मुनि अन्यत्र विहार कर गए| मुनिश्री को न देखने पर हंसिनी व्यंतर निकाय में देवी के रूप में उत्पन्न हुई|
विभंग ज्ञान से स्वयं के साथ मुनिश्री का संबंध जान कर वह देवी विचार करने लगी कि मेरे देवर ने मेरा कहना नहीं माना| अतः मेरी यह दुर्दशा हुई है| अब वह क्रोध से आगबबूली होकर मुनि को मारने आयी| परंतु मुनिश्री के तप के प्रभाव से वह मार न सकी| जिससे दूसरे अनेक अनुकूल उपसर्ग करने लगी, परन्तु मुनि अपने व्रत में दृढ़ रहे और उन्होंने शुभध्यान के प्रताप से केवलज्ञान प्राप्त किया| सब लोगों के समक्ष केवली ने देवी के पूर्वभवों के संबंध का वर्णन किया| जिससे देवी ने सम्यक्त्व प्राप्त किया| मुनिश्री पृथ्वी पीठ को पावन करते हुये क्रम से मोक्ष सिधाये|
अब इस तरह सोचना चाहिए कि एक ही घर में केवल खराब दृष्टि रखने से और उसकी आलोचना न लेने से कितना भयंकर परिणाम हुआ कि तीन-तीन भव तिर्यंचगति में जन्म लेना पड़ा| इसलिये अगर हम अपने जीवन में हुए पापों की शुद्धि नहीं करेंगे, तो अपनी क्या दशा होगी? अतः आलोचना लेने में प्रमाद नहीं करना चाहिए|
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