बड़ी साधुवंदना -6
बड़ी साधुवंदना - 51
गौतमादिक कुंवर सगा अठारह भ्रात ।
सब अंधक वृष्णि सुत, धारिणी ज्यारी मात।55।
तजी आठ अंतेऊर काढ़ी दीक्षा नी वात।
चारित्र लइनें कीधो मुक्ति नो साथ ।56।
अब 55 से 77 तक कि गाथाओमे श्री अंतगड सूत्र में वर्णित आत्माओका कथनक आता है।
स्थानकवासी परंपरा में पर्युषण के 8 दिनों में इस लघु आगमका वांचन होता है। इस आगम में वर्णित 90 आत्मा मोक्ष में गये। नेमप्रभु व वीर प्रभु के शासन की ये 90 आत्माओका चारित्र अत्यंत प्रेरणास्पद है। यह आगम चंपा नगरी के पूर्ण भद्र उद्यान में सुधर्मा स्वामी ने जंबूस्वामी को दी हुई वांचना के रूप में संकलित है।
कुबेर की अल्कापुरी जैसी वैभवी, अति रमणीय, सुनियोजित देवो द्वारा निर्मित द्वारिका नगरी में अर्ध चक्री कृष्ण वासुदेव का राज्य था। उनके परिवार के एक राजा अंधक वृष्णि के धारिणी नामक रानी से 18 पुत्र थे। जिसमें गौतम , समुद्र, गंभीर, सागर, स्तमित , अचल, कांपिल्य, अक्षोभ, प्रसेनजीत, विष्णु इन दस तथा अन्य अक्षोभ, सागर, समुद्र, हिमवान, अचल, धरण, पूरण, अभिचन्द्र आठ ।
इन 18 राजकुमारों का विवाह 8- 8 कन्याओं के साथ हुआ था। राजसी वैभव के साथ सभी राजकुमार संसार का श्रेष्ठ सुख वैभव भोग रहे थे।
वहाँ तीर्थंकर नेमप्रभु का आगमन हुआ। नगरी के बाहर नन्दन उद्यान में आकर बिराजे। केवलीप्रभु का आगमन सुनकर राजा - प्रजा दर्शन वन्दन उपदेश श्रवण हेतु आने लगे। गौतम आदि 18 कुमार भी आये। प्रभु की देशना सुनने के बाद संसार से विरक्त हुए। ओर मातापिता से दीक्षा की आज्ञा मांगी।
कितना आश्चर्य होगा, अत्यंत राजसी सुख में बड़े पले, जिन्होंने दुख का स्पर्श तक नही किया होगा वे जीव भी भगवान की देशना सुनकर सब सुख सामान छोड़ कर कठिन मोक्ष मार्ग चुनने को तत्पर हो गये। धन्य है जिन वाणी।
18 राजकुमार ने माता पिता को समझाकर संयम स्वीकार किया। अत्यंत उग्र आराधना करने लगे।
ग्यारह अंगों का अभ्यास का स्वाध्याय , 12 भिक्खु प्रतिमा व गुणरत्न संवत्सर आदि विविध तप करते हुए विचरने लगे। कालांतर में तप आदि से देह कृश हो गया तब एक माह की अनशन संलेखना कर सिद्ध गति को प्राप्त हुए।
बड़ी साधुवंदना - 52
श्री अनिकसेनादीक , छहो सहोदर भ्रात,
वसुदेव ना नन्दन , देवकी ज़्यारी मात ।57।
भद्दील पुर नगरी , नाग गाहावई जाण ।
सुलसा घर वधिया ,सांभली नेम नी वाण।58।
तजी बत्तीस बत्तीस अंतेऊर निकल्या छिटकाय,
नल कुबेर समाना भेट्या श्री नेमी ना पांय।59।
करि छट्ठ छट्ठ पारणा, मन मे वैराग्य लाय,
एक मास संथारे मुक्ति बिराज्या जाय ।60।
वलि दारुक सारण सुमुख दुमुख मुनिराय,
वलि कुपक अनाद्रष्ट गया मुक्ति गढ़ मांय।61।
श्रीकृष्ण वासुदेव के माता पिता - देवकीजी - वसुदेव जी । धूर्त , कपटी, जुल्मी , कंस वसुदेव का मित्र था। काका देवक की पुत्री देवकी से कंस ने वसुदेव का विवाह करवाया।
विवाह के समय कंसकी पत्नी जीवयशा मद्य में द्युत थी। वँहा कंस के भाई अतिमुक्त अनगार पधारे। जीवयशा ने अपनी सुध खोकर उन मुनि का परिहास किया । तब मुनि ने कहा - जिस देवकी के विवाह में तुम अपनी सुध खोकर एक मुनि से अपमानजनक वर्ताव कर रही हो उसी देवकी का सातवां पुत्र तुम्हारे पति का वध करेगा।
तब भावी अमंगल की आशंका से डरी जीवयशा ने यह बात कंस को बताई। महामुनियों की बात कभी असत्य नही होती। यह जानता हुआ कंस अपनी मृत्यु पर विजय पाने की योजना बनाने लगा। तब उसने बातो बातो में वसुदेव से उसकी 7 सन्तान मांग ली। कंस मित्र भी था व देवकी का भाई भी। मेरे पुत्र पुत्री मेरे पास पले या मामा के पास क्या फर्क पड़ेगा। यह सोचकर अतिमुक्त मुनि की भविष्यवाणी से अंजान वसुदेव देवकी ने कंस को वचन दे दिया।
जब कंस की धूर्तता, नीचता का पता चला तब तक देर हो गई थी।
पर हम मनुष्यो से आगे हमारे कर्म का प्राधान्य ज्यादा है। देवकी के पुत्रों का आयुष्य लंबा था, वे 7 चरम शरीरी थे तो कंस की चाल कर्मो के आगे व्यर्थ थी।
कैसे?
भद्दीलपुर नगरी में नाग गाथापति व सुलसा नामक दंपत्ति रहता था। वैभवी परिवार, जिन धर्मानुरागी संस्कार व दृढ़ धर्म श्रद्धा से युक्त था। सुलसा के लिए किसी ने भविष्यवाणी की थी, की वह मृतवंध्या हॉगी। यानी उसके सारे पुत्र मृत ही होंगे। इस आपत्ति से बचने हेतु सुलसा ने लंबे समय तक विधि से हरिणगमेशी नामक देव की आराधना की। इस से प्रसन्न हुए देव ने उसका समाधान किया : - जन्म मृत्यु तो मेरे हाथ नही पर तुम्हारे सद्य जन्मे मृत पुत्रो को में उसी समय जन्मे किसी के जीवित पुत्रो से बदल दूंगा। सुलसा आश्वस्त हुई।
कालांतर में सुलसा व देवकी जी एक साथ गर्भवती बने । सुलसा मृत बालक को जन्म देती। देवकी के पुत्र जीवित होते। हरिणगमेशी देव उन्हें जन्म के समय ही आपस मे बदल देते। कंस उन मृत बालको को बिना देखे समझे ही तलवार से वार करता। और संतोष पा लेता की उसने देवकी के पुत्र को मार दिया।
इस तरह एक दो नही पर देवकी व सुलसा ने छह पुत्रो को जन्म दिया और देव ने देवकीपुत्रो को बचा लिया। है न कर्मो की लीला न्यारी?
देवकी के छह पुत्र सुलसा जी के घर बड़े हुए। उनके नाम
अनिकसेन, अनंत सेन, अजितसेन, अनहत रिपु, शत्रुसेन, देवसेन ।
छहो पुत्र नल कुबेर के समान सुंदर, व एक जैसे ही दिखने वाले थे। युवान वय में आते ही उन का 32 - 32 सुंदर कन्याओं के साथ विवाह हुआ। छहो पुत्र नाग गाथापति के यहां अत्यंत सुख भोगते हुए जी रहे थे।
एकबार वहाँ नेमप्रभु का पदार्पण हुआ। उनकी देशना सुनकर छहो भाई विरक्त हुए। माता पिता से आज्ञा लेकर भरपूर वैभव, 32 पत्नियां, संसारी विषयक सुख सब छोड़कर नेमप्रभुके शिष्य बने।
दीक्षा लेते ही उन्होंने छठ के पारणे छठ करने का निर्णय किया और तदनुसार अपनी आत्मा का कल्याण करते हुए विचरने लगे।
ऐसे ही द्वारका के राजा वसुदेव व पत्नी धारिणी के 3 पुत्र सारण, दारुक अनावृष्ट
तथा बलदेव की पत्नी धारिणी के 3 पुत्रों सुमुख, दुमुख , कुपक। यह छह राजकुमार भी नेमप्रभु की देशना से विरक्त हुए। अपनी 50- 50 पत्नियों को छोड़कर नेमप्रभु से संयम अंगीकार किया। इन छहो राजकुमारों ने। बीस बीस वर्ष तक उग्र संयम तप आराधना की। 14 पूर्व तक का अभ्यास किया। अंत मे अपनी आत्मा का कल्याण करते हुए एक मास की संलेखना कर सिद्ध बुद्ध मुक्त हुए।
अनिकसेन आदि 6 मुनि का आगे का कथानक कल
कितने त्यागी आत्मा होंगे यह सभी....
बड़ी साधुवंदना - 53
वसुदेव ना नन्दन , धन्य धन्य गजसुकुमाल ।
रुपे अति सुंदर , कलावन्त वय बाल।62।
श्री नेमी समीपे , छोड्यो मोह जंजाल।
भिक्षु नी पडिमा , गया मसाण महाकाल ।63।
देखी सोमिल कोप्यो, मस्तक बांधी पाल ।
खैरा ना खीरा , सिर ठविया असराल ।64।
मुनि नजर न खंडी, मेटी मन नी झाल।
परिषह सही ने , मुक्ति गया तत्काल ।65।
कल हमने अनिकसेन आदि 6 भाइयों के जन्म दीक्षा की कथा पढ़ी।
अब आगे...
रूप में नलकुबेर के समान, एक जैसे दिखने वाले अनिकसेन आदि 6 भाई दीक्षा के बाद नेमप्रभु के अंतेवासी बनकर बेले बेले पारणा करते, संयम की उत्कृष्ट आराधना करते हुए विचरने लगे।
एकबार नेमप्रभु विचरते हुए शिष्योके समेत द्वारिका नगरी पधारे। नगरी के बाहर उद्यान में स्थित होकर आराधना करने लगे।
एक दिन छहो भाइयों ने प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे प्रहर में ध्यान कर तीसरे प्रहर में प्रभु के पास आकर गोचरी जाने की आज्ञा मांगी।
इस वाक्य में जिनशासन की विशालता भी है, ओर छोटे से आचार में विनय की आवश्यकता भी बतलाई, दिन व रात्रि के चारो प्रहर में साधुजीको क्या क्या करना उसका विस्तृत वर्णन भी है तो गोचरी लेने भी प्रभु की आज्ञा लेने जाना, गोचरी लाकर वापिस प्रभु को दिखाकर वापरना आदि सूक्ष्म बातो में भी गुरु के लिए आवश्यक विनय का निरूपण किया जाता है। ऐसे ही कथानकों में सभी छोटी से छोटी लाइन भी जिनशासन के कई बड़े पहलू को समझा जाती है। अफसोस हम समय व जगह की मर्यादा की वजह से लिख नही पाते ।
प्रभुसे आज्ञा लेकर छट्ठ के पारणे के लिए छहो मुनि 2 - 2 करके 3 संघाड़े (मुनियों के ग्रुप ) में द्वारिका नगरी के घरों में गोचरी हेतु विचरने लगे।
इस समय द्वारिका के राजा श्रीकृष्ण वासुदेव की माता देवकी ने 2 मुनियों को राजमहल की ओर पधारते देखा। मुनियों को देख धर्मी देवकी माता अत्यंत हर्षित हुई।और 7/8 कदम आगे जाकर विनय वन्दन सहित मुनि को गोचरी के लिए राजमहल में लेकर आई।
व वासुदेव के लिए निर्मित सिंहकेसरी मोदक बड़े भाव से बहोराये।
उन 2 मुनि के जाने के बाद थोड़ी देर दूसरे 2 मुनि का संघाड़ा देवकी माँ के यहां आया। देवकी माता ने उन्हें ठीक से पहचाना नही। 6 हो मुनिका रूप रंग एक जैसा ही होने से उन्हें लगा कि वही 2 मुनि पुनः गोचरी हेतु आये है। फिर भी पूरे भाव से विनय वन्दन सहित उन्हें गोचरी में सिंहकेसरी मोदक बहोराये ।
कुछ देर बाद तीसरा संघाड़ा भी गोचरी हेतु वँहा आया। तब भी देवकी माता को लगा कि वही मुनि तीसरी बार गोचरी लेने आये है। पुनः विनय वन्दन सहित अत्यंत भाव पूर्वक सिंहकेसरी मोदक बहोराये। बहोराने के बाद अत्यंत नम्रता के साथ देवकी माता ने उन 2 मुनियों से पूछा - कि क्या द्वारिका नगरी के लोगो की दान व धर्म की भावना कम हो गई है जो आपको आवश्यक गोचरी नगरजनो से प्राप्त नही हो रही है? जिसकी वजह से आपको 3 - 3 बार एक ही घर मे आना पड़ा?
यहां देवकीमाता का सन्तो के आचार का ज्ञान, जागरूकता तो है ही, परन्तु उससे ज्यादा महत्त्वपूर्ण उनका विनय वन्दन व गोचरी बहोराने के बाद नम्रता से पूछना हम सभीको समझने जैसा है। हम उपरछल्ले ज्ञानी बनकर श्रावक साधुके अम्मा पिया है यह सोचकर ज्यादा समझे बिना सन्तो की गलतियों पर भड़क उठते है। देवकीमाता जिनधर्मानुरागी के साथ अर्धचक्री कृष्ण वासुदेव की माता थी। फिर भी कितना विनय।
उन्हें नगरजनो के धार्मिकता की भी चिंता थी।
हम सोचते है राजा के घर का भोजन यानी राजपिण्ड सन्तो के लिए अकल्पनीय है। फिर वे मुनि क्यों राजमहल गये।
तो समाधान -
महाव्रती सन्तो के लिए आचार के 10 कल्प बताये गये है।
प्रथम व चौबीसवें प्रभु के सन्तो तथा मध्य के 22 तीर्थंकरों के स्वभाव व मति को ध्यान में रखते हुए कल्प पालन में कुछ भिन्नता है। मध्य के 22 तीर्थंकरों के सन्तो के लिए राजपिण्ड न ग्रहण करना आवश्यक कल्प नही। यही कल्प 1 व 24 वे प्रभुके सन्तो के लिए आवश्यक है।
देवकीमाता को अब मुनि क्या जवाब देते है यह अगले भाग में ,....
बड़ी साधुवंदना - 54
वसुदेव ना नन्दन , धन्य धन्य गजसुकुमाल ।
रुपे अति सुंदर , कलावन्त वय बाल।62।
श्री नेमी समीपे , छोड्यो मोह जंजाल।
भिक्षु नी पडिमा , गया मसाण महाकाल ।63।
देखी सोमिल कोप्यो, मस्तक बांधी पाल ।
खैरा ना खीरा , सिर ठविया असराल ।64।
मुनि नजर न खंडी, मेटी मन नी झाल।
परिषह सही ने , मुक्ति गया तत्काल ।65।
देवकीमाता को अब मुनि क्या जवाब देते है ...
2 मुनि देवकीमाता का आशय समझ गये। की अन्य 4 मुनि भी गोचरी हेतु राजमहल आ गये। और अंग रूप एक होने की वजह से देवकीमाता उन्हें एक ही समझ रही है। तब उन्होंने बताया कि जो मुनि पहले यहां आये वे स्वायं नही पर उनके भाई मुनि थे। भद्दीलपुर नगर के नाग गाथापति व सुलसा के अंगजात 6 भाई है। और रूप में एक जैसे होने की वजह से आपको भ्रांति हुई।
मुनि देवकीमाता का भ्रम दूर कर चले गये।
अनिकसेन आदि छहो भाई ने वर्षो तक संयम की उत्कृष्ट आराधना की, अंत समय मे अनशन संलेखना कर सिद्ध बुद्ध मुक्त हुए।
इधर मुनियों के जाने के बाद देवकीमाता एक अन्य चिंता से ग्रसित हो गई। उन्हें किसी भविष्यवेत्ता ने बताया था कि तुम्हारे एक रंग रूप के 6 पुत्र होंगे। और ऐसी जगत में अन्य कोई माता नही हॉगी।
तो क्या उनकी भविष्यवाणी गलत हुई। अनिकसेन आदि 6 भाई की माता भी तो है। उन्हें वँहा बिराज रहे नेमप्रभु के पास जाकर इस शंका का समाधान करने की इच्छा हुई।
वे प्रभुके पास आये दर्शन वन्दन पश्चात स्वयं प्रभुने उनका समाधान किया। ये 6 मुनि वास्तव में तुम्हारे ही पुत्र है। उनकी पूरी जन्मकथा सुनाई। देवकीमाता हर्षित हुई। व राजमहल लौट आई।
पर माँ का मन पुनः आर्त ध्यान में लग गया। अहो, में कितनी दुर्भागी। नलकुबेर समान सुंदर 7- 7 पुत्रो को जन्म देकर भी माँ के सुख से वंचित रही। 6 भाई सुलसा के यहां व कृष्ण यशोदा के यहां पले बढ़े। किसी का बचपन नही देखा, उन्हें गोदी में लेकर स्नेह नही कर पाई, उनकी मीठी तोतली भाषा मे माँ शब्द सुन नही पाई। कृष्ण के भी 6 माह में एक बार वन्दन करने आते है तभी मिल पाती हूँ। इत्यादि सोचकर देवकीमाता दुखी व उदास हो गई।
(कृष्ण- वासुदेव पद पर आसीन होते हुए भी, राज कार्य मे अत्यंत व्यस्त होते हुए भी प्रतिदिन माताओको वन्दन करने जाते थे। परंतु पिता वसुदेव की 72 000 रानियां थी, प्रतिदिन 400 माताओको वन्दन करते थे। तो देवकीमाता का नँबर 6 महीने में एक बार आता था। )
तब कृष्ण वासुदेव माता को वन्दन के लिए आये। माँ को उदास देखकर वजह पूछी। माँ ने अपनी उदासी का कारण बताया। तब कुछ समाधान करने का आश्वासन देकर कृष्ण वासुदेव अपने कक्ष में आये। अट्टम कर एक देव का आह्वाहन किया। देव आने पर उन्होंने माता की व्यथा बतलाई। तब देव ने कहा कि अभी आपकी माता के एक और पुत्र का योग है ही। वह अल्पायु में दीक्षा लेगा।
कृष्ण वासुदेव ने दीक्षा की बात छुपाकर माता को सारी बात बताई। देवकीमाता प्रसन्न हुई।
कालांतर में देवकीमाता पुनः गर्भवती बनी।
कृष्ण वासुदेव पूर्व निदान की वजह से तप व्रत धारण नही कर सकते । यह सही है। परन्तु लौकिक कामना हेतु , देव को बुलाने वे छट्ठ अट्टम करते है। ऐसे अन्य प्रसंग भी उपलब्ध है।
आगे ....
बड़ी साधुवंदना - 55
वसुदेव ना नन्दन , धन्य धन्य गजसुकुमाल ।
रुपे अति सुंदर , कलावन्त वय बाल।62।
श्री नेमी समीपे , छोड्यो मोह जंजाल।
भिक्षु नी पडिमा , गया मसाण महाकाल ।63।
देखी सोमिल कोप्यो, मस्तक बांधी पाल ।
खैरा ना खीरा , सिर ठविया असराल ।64।
मुनि नजर न खंडी, मेटी मन नी झाल।
परिषह सही ने , मुक्ति गया तत्काल ।65।
आगे ....
देवकीमाता ने पूरा गर्भसमय बीत जाने के बाद एक सुंदर पुत्र को जन्म दिया। उस कोमल सुंदर नवजात पुत्र को गजसुकुमाल नाम दिया। देवकीमाता अत्यंत स्नेह के साथ उनका लालनपालन करने लगी। इतने वर्षों से अधूरी रही उनकी मनोकामना पूर्ण हुई। गजसुकुमाल धीरे धीरे तरुणावस्था में आये। करीब 16 वर्ष की उनकी उम्र हुई।
उस समय विहार करते हुए प्रभु नेमनाथ द्वारिका पधारे। जनता दर्शन वन्दन व उपदेश श्रवण हेतु उमड़ पड़ी। कृष्ण वासुदेव भी परिवार सहित दर्शन वन्दन को निकले। राह में एक सोमश्री नामक सुंदर ब्राह्मण कन्या को देखा। वह कन्या अपने भाई गजसुकुमाल की पत्नी के रूप में पसन्द आई। उसके पिता सोमिल से पूछकर सोमश्री को गजसुकुमाल की भार्या के रूप में नक्की कर लिया। गजसुकुमाल भी प्रभु के दर्शन को आये। देशना सुनकर संसार से विरक्त हो गये।
कभी यह सोचते है कि उन भव्य आत्माओका मन कितना सरल होगा, उनका भाग्य कितना बलवान होगा कि एक देशना सुनकर ही अत्यंत वैभव, सभी सुख सुविधाओं को तत्क्षण छोड़ने का निर्णय कर लेते है। ऐसे कितने ही भव्यात्मा हो गये।
गजसुकुमाल ने राजमहल आकर मातापिता से दीक्षा की अनुमति मांगी।
देवकीमाता के लिए यह घटनाक्रम असह्य था। फिर गजसुकुमाल ने मातापिता को समझाकर सहमत किया। माता की इच्छा थी, की दीक्षा से पहले एकबार गजसुकुमाल को राजा बना हुआ देखे।
उनकी इच्छानुसार उनका राज्याभिषेक किया गया।
मातापिता की इच्छा पूरी करने के बाद उसी दिन उनकी दीक्षा हुई।
सुबह राजकुमार, दोपहर राजा व शाम तक मुनि... भविष्य में क्या लिखा होता है कोई नही जानता।
दीक्षा लेकर मुनि नेमप्रभु के पास आये। अत्यंत दुष्कर ऐसी भिक्षु की बारहवीं प्रतिमा अंगीकार करने की आज्ञा मांगी।
केवलज्ञानी नेमप्रभु भावी को देख रहे थे। उन्होंने आज्ञा दी।
मुनि महाकाल नामक श्मशान में आये। और एक वृक्ष के नीचे जगह का पडीलेहण किया और आंखे खुली रखकर एक मुद्रा में स्थिर होकर भिक्षु की बारहवीं प्रतिमा का आराधन करने लगे। कायोत्सर्ग शुरू हुआ।
प्रतिमा - यानी एक विशिष्ट तप,
आगमो में श्रावक के लिए 11 व सन्तो के लिए 12 प्रतिमा बतलाई गई है। उसमें 12 वी भिक्षु प्रतिमा अत्यंत दुष्कर है। जिसमे श्मशान में जाकर एक रात एक मुद्रा में वृक्ष के नीचे ध्यान करना होता है। कहते है इस प्रतिमा में देव, मनुष्य या तिर्यंच का उपसर्ग निश्चित होता ही है। उन उपसर्गो में मन मजबूत रहा तो क्रमशः केवलज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। पर अस्थिर होने पर बहुत हानि भी हो सकती है। उनकी मति विक्षिप्त तक हो जाती है।
गजसुकुमाल को कौनसा उपसर्ग आएगा यह आगे.....
बड़ी साधुवंदना - 56
वसुदेव ना नन्दन , धन्य धन्य गजसुकुमाल ।
रुपे अति सुंदर , कलावन्त वय बाल।62।
श्री नेमी समीपे , छोड्यो मोह जंजाल।
भिक्षु नी पडिमा , गया मसाण महाकाल ।63।
देखी सोमिल कोप्यो, मस्तक बांधी पाल ।
खैरा ना खीरा , सिर ठविया असराल ।64।
मुनि नजर न खंडी, मेटी मन नी झाल।
परिषह सही ने , मुक्ति गया तत्काल ।65।
गजसुकुमाल को कौनसा उपसर्ग आया, यह आगे..
सुकुमाल देह वाले,आज ही दीक्षित हुए महामुनि कर्मो की विपुल निर्जरा के लिए महाकाल शमशान में आकर एक पेड़ के नीचे स्थित होकर बारहवीं भिक्षु प्रतिमा ले कर ध्यानस्थ हुए।
वहाँ से सोमिल ब्राह्मण का गुजरना हुआ। सोमिल ने उन्हें पहचाना तब उसका क्रोध प्रकट हुआ। यह वही राजकुमार है जिसके साथ मेरी पुत्री का विवाह तय हुआ था, मेरी पुत्री को छोड़कर अब ये यहां नाटक कर रहा है। सोमिल अपने क्रोध को नियंत्रित न कर सका, जैसे जैसे उसका चिंतन बढ़ता गया उसका क्रोध - वैर बढ़ता गया। आखिर उस क्रोध ने एक अनर्थ कर दिया। मेरी पुत्री का त्याग करने वाले को अभी दण्ड देता हूं। यह सोचकर वँहा पानी से गीली हुई मिट्टी लेकर उसी दिन मुंडित हुए कोमल सर पर एक पाल जैसी बना दी। वंही जल रही खैर की लकड़ी की चित्ता से अंगारे लेकर मुनि के सर पर उस पाल के भीतर डाल दिये।
अहो, क्रोध में मनुष्य का विवेक कितना खो जाता है। सोमिल को तनिक भी ख्याल नही आया कि मुनि को कितनी असह्य वेदना हो रही होगी। परन्तु इन सब से परे हटकर मुनि अपने ध्यान में एकाग्र थे। पाल बंधी, अंगारे डले, वेदना हो रही , सब देखते समझते हुए भी मुनि न तनिक विचलित हुए, न मन वचन काया से प्रतिकार किया, न ही सोमिल पर द्वेष किया। देखिए साथियों , इस विपरीत परिस्थिति में उन्होंने अपना चिंतन और शुद्ध बना लिया। देह यह साधन है, उसे हो रही पीड़ा मेरी साधना है, यह सर नही जल रहा मेरे कर्म जल रहे है। सोमिल मुझे नही, मेरे कर्मो को जलाने में मददरूप बन रहा है। कितना अदभुत समभाव। ( और हम, किसी के एक कटुवचन पर भी अपना आत्म संतुलन खो देते है। )
महामुनि का चिंतन उच्च से उच्चत्तर होता गया। इसी पीड़ा में वे भावों के विकास की सीढ़ी चढ़ते गये और केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। आयुकर्म भी पूर्ण होने को आया था। मुनि उसी अंतरमुहूर्त में निर्वाण को प्राप्त हुए। एक रात में ही विपुल कर्मो की निर्जरा कर सिद्ध बुद्ध मुक्त हुए।
सोमिल वहाँ से घर आ गया।
दूसरे दिन सुबह श्रीकृष्ण वासुदेव हाथी पर बैठ कर राजमार्ग पर से होते हुए नेमिनाथ प्रभु एवं भ्राता मुनि के दर्शन के लिए निकले। चतुरंगिणी सेना साथ थी।
राह में एक वृद्ध को देखा। जो अपने घर के बाहर रखे ईंटो के ढेर में से थोड़ी थोड़ी कर अपने घर के भीतर ले जा रहा था।
वासुदेव को उस पर दया आई। उन्होंने उसे मदद करने के उद्देश्य से हाथी पर बैठे बैठे ही एक ईंट उठाकर घर के भीतर रख दी। उसकी चतुरंगिणी सेना ने भी राजा का अनुकरण किया। सब ने एक एक ईंट उठाकर घरमें रख दी। तो उस वृद्ध का काम पूरा हो गया। एक ही पल में सभी ईंटें घर के भीतर पँहुच गई।
वासुदेव प्रभुके पास आये। दर्शन वन्दन करने के पश्चात अपने भाई मुनि को वन्दन करने की इच्छा प्रकट की।
तब केवलज्ञानी प्रभुने उन्हें मुनि की केवल्यप्राप्ति व निर्वाण की घटना सुनाई।
श्रीकृष्ण वासुदेव अत्यंत क्रोधित हुए व उस नीच - अधम व्यक्ति का परिचय पूछा।
तब नेमप्रभु ने कहा- यह सब कर्मो के अधीन है। उस व्यक्ति ने तो गजसुकुमाल मुनि को मदद ही की है । जिस तरह आज राजमार्ग से आते हुए आपने एक वृद्ध का कई दिनों का ईंट घर मे रखने का काम चंद पलो में कर दिया उसी तरह उस व्यक्ति ने भी गजसुकुमाल के कर्मो की विपुल निर्जरा एक रात में ही करवा दी। अतः , आप उस व्यक्ति पर क्रोध न करे तथा भाई के लिए शोक न करे। उन्होंने अपना लक्ष्य पा लिया है। केवलज्ञानी प्रभु ने आगे कहा :- उस व्यक्ति की पहचान में कहु तो आज वह आपको घर जाते हुए मार्ग में आपको देखते ही हृदयाघात से प्राण छोड़ देगा।
नेम प्रभु के वचनों को सुनकर उदास मन से राजमार्ग व चतुरंगिणी सेना को छोड़कर छोटे मार्ग से राजमहल के लिए निकले।
इधर अब सुबह सोमिल भी अपने कृत्य के बाद सजा से भयभीत हो गया। कृष्ण वासुदेव जब प्रभु के पास जाएंगे तो केवली प्रभु द्वारा सब जान लेंगे। तब मुझे दंड मिलेगा। तो बेहतर है कि मृत्युदंड से बचने के लिए मैं जल्दी ही यह नगर छोड़ दूँ ।
यह सोचकर वह छोटे मार्ग से नगर से बाहर निकलने लगा।
इधर कृष्ण भी उसी मार्ग से राजमहल लोट रहे थे। मृत्युदंड की कल्पना से भयभीत सोमिल ने राह में कृष्ण को देखा। कृष्ण तो अनजान थे पर स्वयं ही मृत्यु के भय से हृदयाघात से ग्रसित हुआ। तत्काल उसने प्राण छोड़ दिये। कृष्ण ने यह देखा तब सब समझ गए। सैनिकों को सोमिल के देह का निकाल करने की आज्ञा देकर दुखी हृदय से घर आये।
गजसुकुमाल की कथा पूर्ण ।
बड़ी साधुवंदना - 57
धन्य जाली मयाली , उवयाली आदि साध,
सांब ने प्रद्युम्न अनिरुद्ध साधु अगाध ।66।
वली सत्यनेमि दृढ़ नेमी, करणी कीधी निर्बाध,
दसे मुक्ति पहोंच्या, जिनवर वचन आराध ।67।
बड़ी साधुवन्दना की 25 गाथा तक के कथानक का वर्णन उत्तराध्ययन सूत्र से लिया है।
27 से 38 वी गाथा में आये कथानकों का वर्णन श्री भगवतीजी सूत्र से लिया है।
39 से 54 तक कि गाथाएं ज्ञाताधर्म कथांग सूत्र से है।
55 से 77 तक के कथानक अंतगड जी सूत्र से लिये हुए है।
यो विविध शास्त्रों से प्रेरणाजनक दृष्टांत लेकर इस बड़ी साधुवन्दना की रचना कर जयमलजी महाराज साहब ने हम पर असीम उपकार किया है।
अंतगड जी से ली हुई प्रस्तुत 2 गाथाओं में द्वारिका नगरी के यादव वंश के 10 कुमारों के जन्म, विवाह, वैराग्य, दीक्षा व निर्वाण का वर्णन है।
ये दस कुमार व उनके मातापिता के नाम
जालिकुमार, मयाली, उवयाली, पुरुष सेन, वारीसेन यह पांच राजा वसुदेव तथा रानी धारिणी के पुत्र थे।
प्रद्युम्न कुमार कृष्ण व रूक्मिणी जी के पुत्र थे।
सांब कुमार - कृष्ण व जांबवंतीजी के पुत्र थे।
अनिरुद्ध कुमार - प्रद्युम्न कुमार तथा वैदर्भी रानीके पुत्र थे।
सत्यनेमि जी व दृढ़ नेमीजी समुद्रविजय जी व शिवादेवी जी के पुत्र थे।
यह दस कुमार का वर्णन साथ लेने का आशय इनके कथानक में रही समानता ही है। इनका जन्म दीक्षा आदि साथ हुआ यह नही।
इन दसो के गर्भ में आने पर माता ने सिंह का स्वप्न देखा । शुभ महूर्त में इनका जन्म हुआ। कुछ बड़े होने पर सभी आवश्यक शिक्षा इन्होंने पूर्ण की। यौवन वय में आने पर दसो का विवाह 50 सुंदर राजकन्याओ के साथ किया गया।
एकदा नेम प्रभु के पदार्पण पर उनकी देशना सुनकर वैराग्य वासित हुए। माता पिता से आज्ञा लेकर इन्होंने नेमप्रभु के पास संयम लिया।
सोलह वर्ष तक संयम की उत्कृष्ट आराधना की। अंत मे एक मास की संलेखना कर सिद्ध बुद्ध मुक्त हुए।
इनसभी कथानकों का वर्णन हमे प्रचुर वैभव में रहते हुए भी निमित्त मिलते ही स्वयं के कल्याण के लिए उद्यत हो गये यह समझने जैसा है।
बड़ी साधुवंदना - 58
धन्य अर्जुनमाली , कियो कदाग्रह दूर ।
वीर पे व्रत लइ ने , सत्यवादी हुआ शुर।68।
करि छट्ठ छट्ठ पारणा , क्षमा करी भरपूर।
छह मास माँही , कर्म किया चकचुर।69।
अर्जुनमाली,
अदभुत गाथा , अदभुत कथानक।
एक क्रूर , पापी जीव भी धर्म से जुड़कर अपनी आराधना से उसी भव अपना उत्कृष्ट कल्याण कर सकता है ।
राजगृही नगरी में अर्जुनमाली व बन्धुमती नामक एक मालाकार दंपत्ति रहता था। बगीचे में फूलोकी खेती कर बाजार में फूलों को बेचना उनका काम। वंहा नगर के एक छौर पर मुदगरपाणि नामक एक यक्ष का स्थान ( यक्षायतन ) था। उस यक्ष के हाथ मे अत्यंत वजनदार मुदगर नामक शस्त्र रहता था। अर्जुनमाली व बन्धुमती बरसो से इस यक्ष की पूजा करते आ रहे थे। एक दिन ऐसे ही वे पूजा करने यक्षायतन में आये। तब वहाँ नगर के उच्छृंखल , नीच 6 मित्रो की टोली उपस्थित थी। राजा के किसी कठिन कार्य के करने पर इन्हें राजा से अभयदान मिला हुआ था । यानी ये कोई भी गुनाह करे सब माफ। इस अभयदान से यह ललित मित्र मंडली अपने अधम कृत्यों में निरंकुश बन चुकी थी।
जब माली दंपत्ति यक्षायतन में आये तब वहां यह टोली उपस्थित थी। बन्धुमती को देखकर उनकी विषयवासना उन्मत्त बनी। छहो मित्रो ने यक्ष की मूर्ति के सामने अर्जुनमाली को बांधकर बन्धुमती के साथ व्यभिचार का धृणित कृत्य किया। अर्जुनमाली लाचार क्रोध व परवशता से छटपटा रहा था। उसका क्रोध फिर उस यक्ष की तरफ मुड़ा। उसने यक्ष प्रतिमा के आगे अपना क्रोध व्यक्त किया। बरसो से यक्ष की पूजा करने का यह क्या फल दिया? तुम ताकतवर होते तो 6 मित्रो की इतनी हिम्मत नही होते। अर्जुनमाली की वेदना, उसका क्रोध, उसकी अभिव्यक्ति देख यक्ष प्रकट होकर अर्जुनमाली के देह में प्रविष्ट हो गया। उसके देह में आते ही अर्जुनमाली में अथाह बल आ गया। सारे बंधन तोड़ दिए। और वंही 6 हो मित्रो को तथा बन्धुमती को मृत्यु तक पहुंचा दिया।
अब उस यक्ष का क्रोध शांत नही हो रहा था। अर्जुनमाली रोज 6 पुरुष व एक स्त्री की हत्या करता रहा। करीब 6 माह में कुछ कम दिन तक यह क्रम चलता रहा।
राजा श्रेणिक भी इस यक्ष के प्रकोप से परेशान था। राजा ने उस क्षेत्र को प्रतिबंधित कर दिया। उस राह से भी किसी मनुष्य को जाने की अनुमति नही थी।
ऐसे माहौल में वीर प्रभु विचरण करते हुए पधारे। नगरी के बाहर उद्यान में स्थित होकर धर्माराधना करने लगे।
आगे.....
बड़ी साधुवंदना - 59
धन्य अर्जुनमाली , कियो कदाग्रह दूर ।
वीर पे व्रत लइ ने , सत्यवादी हुआ शुर।68।
करि छट्ठ छट्ठ पारणा , क्षमा करी भरपूर।
छह मास माँही , कर्म किया चकचूर।69।
अर्जुनमाली,
अदभुत गाथा , आगे.....
समभाव रखना बहुत बड़ा तप है।
वीर प्रभु के राजगृही पधारने के समाचार सुनकर जनता अत्यंत हर्षित हुई। पर अफसोस, बाहर जाने की उस राह पर तो अर्जुनमाली की दहशत थी। नगरजनो को मन मारकर प्रभु को अपने स्थान से ही वन्दन कर संतोष करना पड़ा।
नगर में एक सुदर्शन नामक व्रतधारी श्रेष्ठी रहते थे। वीर प्रभुके अनन्य भक्त। प्रभुके समाचार सुनकर घर मे कैसे बैठे रहते। उन्होंने प्रभु के प्रत्यक्ष दर्शन करने जाने का निर्णय लिया। अपनी श्रद्धा व भक्ति का बल लेकर अपने माता पिता को समझाया व उनकी अनुमति लेकर वे नगर के बाहर उद्यान में जाने के लिए निकले। मार्ग में अर्जुनमाली का स्थान आया।
अर्जुनमाली के देह में प्रविष्ट यक्ष ने उसे देखकर उसकी हत्या के लिये उद्यत हुआ।
सुदर्शन सेठ ने उपसर्ग आया जानकर आगार सहित संथारा ग्रहण किया। सर्व जीव राशि को खमाकर आलोचना की। व ध्यान में लीन हो गये।
यक्ष ने नजदीक आकर सुदर्शन पर मुदगर का प्रहार किया, परन्तु यह क्या, .? उसका मुदगर स्तंभित हो गया। काफी देर तक मुदगर न उठा तो यक्ष, कोई बड़ी शक्ति समझकर अर्जुनमाली के देह से निकलकर वहां से भाग गया।
अर्जुनमाली वहीँ बेहोश होकर गिर पड़ा। कुछ देर बाद सुदर्शन ने उपसर्ग टल गया देखकर संथारा पार लिया। अर्जुनमाली को बेसुध देख उसकी सुश्रुषा कर उसे सुध में लाये।
अर्जुनमाली ने स्वस्थ होते सुदर्शन से उसका परिचय पूछा व वे कंहा जा रहे है यह पूछा। तब सुदर्शन सेठ ने अर्जुनमाली को वीर प्रभु के दर्शन करने जाने की बात बताई। उनकी महिमा समझाई। अर्जुनमाली की विनती के अनुसार सुदर्शन सेठ उसे लेकर वीर प्रभुके चरणों मे आये। प्रभुके दर्शन, वन्दन व देशना श्रवण दोनो को अत्यंत शाताकारी लगा। खास कर अर्जुनमाली के धधकते हृदय को अपार शांति मिली। जैसे दहकती आग मे किसी ने शीतल जल का छींटकाव कर दिया।
प्रभु के पास संयम ले लिया। बेले बेले पारणा करने का निश्चय कर संयम की उत्कृष्ट आराधना कर ने लगे।
इस प्रकार सुदर्शन ने अपनी श्रद्धा के बल पर ना सिर्फ नगरको भयमुक्त किया अपितु अर्जुनमाली के जीवन को भी सही मार्ग बताकर उसका कल्याण किया।
इधर अर्जुनमुनि उत्कृष्ट आराधना कर रहे है। पारणे के दिन नगर में जाते तो उसके जुल्म के भोग बने हुए नगरजन उसे धिक्कारते। उनकी नफरत उनका क्रोध शब्दो मे व्यक्त करते रहते। कोई मारने को उद्यत होता तो कोई अत्यंत अभद्र शब्दो का प्रयोग करता। पर समभाव में दृढ़ मुनि उसकी वजह जानकर शांत रहते।किसी पर अंशमात्र द्वेष नही रखते। इस तरह अपमान, तिरस्कार नफरत के उपसर्ग सहन करते भी अर्जुनमुनि अपनी आराधना में अडिग रहे। ऐसी साधना की , की 6 मास में ही विपुल कर्मो को खपाकर अंत मे मोक्ष प्राप्त किया।
बड़ी साधुवंदना - 60
कुंवर अईमुत्ते दिठा, गौतम स्वाम।
सुणी वीर नी वाणी, कीधो उत्तम काम ।70।
अतिमुक्त, अईमुत्ता, एवंता या अयवंता कुमार के नाम से जाने गये मुनि की कथा : -
पोलासपुर नामक एक रमणीय नगर था। उस नगर में विजय नाम का राजा की रानी थी श्रीमती । उनके पुत्र का नाम अतिमुक्त राजकुमार था। उस समय राजकुमार अतिमुक्त करीब 8 वर्ष के थे।
भगवान महावीर स्वामी भव्य जीवो को तारते हुए , गांव गांव विचरते हुए अपने शिष्यों के समेत पोलासपुर के बाहर श्रीवन उद्यान में पहुचें। और आराधना में स्थिर हुए।
एकदिन गौतमस्वामी नगर के घरों में गोचरी हेतु परिभ्रमण कर रहे थे। तब राजमहल के पास इन्द्रस्थान (बच्चों के खेलने की जगह ) में अतिमुक्त खेल रहे थे।
अतिमुक्त ने रास्ते से गुजरते गौतम स्वामी को जाते हुए देखा । बालक को सहज कौतूहल हुआ और वह गौतमस्वामी के पास आकर पूछा कि पूज्यवर, आप कौन है। कहां रहते हो ? और इस प्रकार क्यों घूम रहे हो?
गौतम स्वामी ने बताया कि हम श्रमण, निर्ग्रन्थ, ईर्यासमिति के धारक गुप्त ब्रह्मचारी है। भिक्षा के लिये घूम रहे है। अतिमुक्त उन्हें अपने घर भी लेकर गये । श्रीमती ने भाव पूर्वक भिक्षा व्होराई । अतिमुक्त कुमार की जिज्ञासा पर, तब गौतम स्वामी ने भगवान महावीर स्वामी के विषय मे बताते हुए कहा कि वे श्रीवन उद्यान में ठहरे हुए है। अतिमुक्त कुमार उनके साथ श्रीवन में गये और भगवान महावीर के दर्शन किये और वन्दना की। भगवान महावीर के मुख से धर्म कथा सुनकर अतिमुक्त को वैराग्य हो गया। अतिमुक्त कुमार ने अपने माता पिता से साधू बनने की आज्ञा मांगी।
इस करीब 8 वर्षीय बालक व उसके माता पिता का संवाद अत्यंत तत्त्व सभर है। उसके माता-पिता ने कहा बेटा तुम अभी छोटे हो , संयम क्या है , तुम क्या जानो? नहीं माँ मैं जिसको जानता हूँ उसे नही जानता और जिसको नही जानता उसे जानता हूँ। क्या मतलब बेटा उसके माता पिता ने पूछा। तब अतिमुक्त कुमार ने बताया में यह जानता हूं - जो जन्मा है। उसे अवश्य मरना पडेगा। पर मैं ये नहीं जानता वह कब, कहाँ और किस प्रकार, मरेगा और कितने दिनो बाद मरेगा, मैं ये भी नही जानता, कि जीव किन कर्मो के कारण नरक, तिर्यञच, मनुष्य और देव योनि में उत्पन्न होता है। पर इतना जानता हूँ कि जीव अपने कर्मो से ही इन चारो योनि मे पैदा होता है तथा मरता है। हे माता-पिता मैं दीक्षा लेकर इन बातो की जानकारी करना चाहता हूँ। और इस जन्म मृत्यु के चक्र से छूटना चाहता हूं।
अत्यंत ज्ञान सभर संवाद होने के बाद बालक का दृढ़ वैराग्य देख मातापिता ने भारी मन से आज्ञा दी।
अतिमुक्त कुमार ने वीर प्रभुसे दीक्षा ली। और अन्य सन्तो के साथ रहकर धर्माभ्यास व आराधना में जुड़ गए। एक बार मुनियों के साथ जंगल मे गये। वर्षा का समय था, वहाँ एक जगह बारिश का पानी एकत्र हुआ था। बालक मुनि अतिमुक्त ने सहज ही उस मे अपने पात्रे को नांव बनाकर खेलने लगे। अन्य साथी मुनियों ने उन्हें रोका और यह मुनि चर्या में जीवहिंसा का दोष लगता है यह समझाया।
जब सब वृत्तांत वीर प्रभु को पता चला तब उन्होंने शिष्य सन्तो से अतिमुक्त मुनि को चरम शरीरी बताया। ये बाल मुनि इसी भव केवल्यप्राप्ति कर मोक्ष जाएंगे। कभी इन चरम शरीरी , भविष्य के केवलीकी अशातना न करने को कहा। सभी मुनियों ने उनसे क्षमायाचना की।
फिर बहुत वर्षो तक अतिमुक्त मुनि ने श्रमण चारित्र का पालन किया, गुण रत्न संवत्सर तप की आराधना की तथा अंत मे विपुलाचल पर्वत पर अनशन संलेखना सहित निर्वाण प्राप्त कर सिद्ध बुद्ध मुक्त हो गए ।
Fb ग्रुप जैनिज़्म
All india jain aagam group
सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रंथ से,
पोस्ट में तथ्यो के साथ कोई अशातना हुई हो, जिनवाणी विपरीत अंशमात्र भी लिखा हो , जाने अनजाने कोई अशातना हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
गौतमादिक कुंवर सगा अठारह भ्रात ।
सब अंधक वृष्णि सुत, धारिणी ज्यारी मात।55।
तजी आठ अंतेऊर काढ़ी दीक्षा नी वात।
चारित्र लइनें कीधो मुक्ति नो साथ ।56।
अब 55 से 77 तक कि गाथाओमे श्री अंतगड सूत्र में वर्णित आत्माओका कथनक आता है।
स्थानकवासी परंपरा में पर्युषण के 8 दिनों में इस लघु आगमका वांचन होता है। इस आगम में वर्णित 90 आत्मा मोक्ष में गये। नेमप्रभु व वीर प्रभु के शासन की ये 90 आत्माओका चारित्र अत्यंत प्रेरणास्पद है। यह आगम चंपा नगरी के पूर्ण भद्र उद्यान में सुधर्मा स्वामी ने जंबूस्वामी को दी हुई वांचना के रूप में संकलित है।
कुबेर की अल्कापुरी जैसी वैभवी, अति रमणीय, सुनियोजित देवो द्वारा निर्मित द्वारिका नगरी में अर्ध चक्री कृष्ण वासुदेव का राज्य था। उनके परिवार के एक राजा अंधक वृष्णि के धारिणी नामक रानी से 18 पुत्र थे। जिसमें गौतम , समुद्र, गंभीर, सागर, स्तमित , अचल, कांपिल्य, अक्षोभ, प्रसेनजीत, विष्णु इन दस तथा अन्य अक्षोभ, सागर, समुद्र, हिमवान, अचल, धरण, पूरण, अभिचन्द्र आठ ।
इन 18 राजकुमारों का विवाह 8- 8 कन्याओं के साथ हुआ था। राजसी वैभव के साथ सभी राजकुमार संसार का श्रेष्ठ सुख वैभव भोग रहे थे।
वहाँ तीर्थंकर नेमप्रभु का आगमन हुआ। नगरी के बाहर नन्दन उद्यान में आकर बिराजे। केवलीप्रभु का आगमन सुनकर राजा - प्रजा दर्शन वन्दन उपदेश श्रवण हेतु आने लगे। गौतम आदि 18 कुमार भी आये। प्रभु की देशना सुनने के बाद संसार से विरक्त हुए। ओर मातापिता से दीक्षा की आज्ञा मांगी।
कितना आश्चर्य होगा, अत्यंत राजसी सुख में बड़े पले, जिन्होंने दुख का स्पर्श तक नही किया होगा वे जीव भी भगवान की देशना सुनकर सब सुख सामान छोड़ कर कठिन मोक्ष मार्ग चुनने को तत्पर हो गये। धन्य है जिन वाणी।
18 राजकुमार ने माता पिता को समझाकर संयम स्वीकार किया। अत्यंत उग्र आराधना करने लगे।
ग्यारह अंगों का अभ्यास का स्वाध्याय , 12 भिक्खु प्रतिमा व गुणरत्न संवत्सर आदि विविध तप करते हुए विचरने लगे। कालांतर में तप आदि से देह कृश हो गया तब एक माह की अनशन संलेखना कर सिद्ध गति को प्राप्त हुए।
बड़ी साधुवंदना - 52
श्री अनिकसेनादीक , छहो सहोदर भ्रात,
वसुदेव ना नन्दन , देवकी ज़्यारी मात ।57।
भद्दील पुर नगरी , नाग गाहावई जाण ।
सुलसा घर वधिया ,सांभली नेम नी वाण।58।
तजी बत्तीस बत्तीस अंतेऊर निकल्या छिटकाय,
नल कुबेर समाना भेट्या श्री नेमी ना पांय।59।
करि छट्ठ छट्ठ पारणा, मन मे वैराग्य लाय,
एक मास संथारे मुक्ति बिराज्या जाय ।60।
वलि दारुक सारण सुमुख दुमुख मुनिराय,
वलि कुपक अनाद्रष्ट गया मुक्ति गढ़ मांय।61।
श्रीकृष्ण वासुदेव के माता पिता - देवकीजी - वसुदेव जी । धूर्त , कपटी, जुल्मी , कंस वसुदेव का मित्र था। काका देवक की पुत्री देवकी से कंस ने वसुदेव का विवाह करवाया।
विवाह के समय कंसकी पत्नी जीवयशा मद्य में द्युत थी। वँहा कंस के भाई अतिमुक्त अनगार पधारे। जीवयशा ने अपनी सुध खोकर उन मुनि का परिहास किया । तब मुनि ने कहा - जिस देवकी के विवाह में तुम अपनी सुध खोकर एक मुनि से अपमानजनक वर्ताव कर रही हो उसी देवकी का सातवां पुत्र तुम्हारे पति का वध करेगा।
तब भावी अमंगल की आशंका से डरी जीवयशा ने यह बात कंस को बताई। महामुनियों की बात कभी असत्य नही होती। यह जानता हुआ कंस अपनी मृत्यु पर विजय पाने की योजना बनाने लगा। तब उसने बातो बातो में वसुदेव से उसकी 7 सन्तान मांग ली। कंस मित्र भी था व देवकी का भाई भी। मेरे पुत्र पुत्री मेरे पास पले या मामा के पास क्या फर्क पड़ेगा। यह सोचकर अतिमुक्त मुनि की भविष्यवाणी से अंजान वसुदेव देवकी ने कंस को वचन दे दिया।
जब कंस की धूर्तता, नीचता का पता चला तब तक देर हो गई थी।
पर हम मनुष्यो से आगे हमारे कर्म का प्राधान्य ज्यादा है। देवकी के पुत्रों का आयुष्य लंबा था, वे 7 चरम शरीरी थे तो कंस की चाल कर्मो के आगे व्यर्थ थी।
कैसे?
भद्दीलपुर नगरी में नाग गाथापति व सुलसा नामक दंपत्ति रहता था। वैभवी परिवार, जिन धर्मानुरागी संस्कार व दृढ़ धर्म श्रद्धा से युक्त था। सुलसा के लिए किसी ने भविष्यवाणी की थी, की वह मृतवंध्या हॉगी। यानी उसके सारे पुत्र मृत ही होंगे। इस आपत्ति से बचने हेतु सुलसा ने लंबे समय तक विधि से हरिणगमेशी नामक देव की आराधना की। इस से प्रसन्न हुए देव ने उसका समाधान किया : - जन्म मृत्यु तो मेरे हाथ नही पर तुम्हारे सद्य जन्मे मृत पुत्रो को में उसी समय जन्मे किसी के जीवित पुत्रो से बदल दूंगा। सुलसा आश्वस्त हुई।
कालांतर में सुलसा व देवकी जी एक साथ गर्भवती बने । सुलसा मृत बालक को जन्म देती। देवकी के पुत्र जीवित होते। हरिणगमेशी देव उन्हें जन्म के समय ही आपस मे बदल देते। कंस उन मृत बालको को बिना देखे समझे ही तलवार से वार करता। और संतोष पा लेता की उसने देवकी के पुत्र को मार दिया।
इस तरह एक दो नही पर देवकी व सुलसा ने छह पुत्रो को जन्म दिया और देव ने देवकीपुत्रो को बचा लिया। है न कर्मो की लीला न्यारी?
देवकी के छह पुत्र सुलसा जी के घर बड़े हुए। उनके नाम
अनिकसेन, अनंत सेन, अजितसेन, अनहत रिपु, शत्रुसेन, देवसेन ।
छहो पुत्र नल कुबेर के समान सुंदर, व एक जैसे ही दिखने वाले थे। युवान वय में आते ही उन का 32 - 32 सुंदर कन्याओं के साथ विवाह हुआ। छहो पुत्र नाग गाथापति के यहां अत्यंत सुख भोगते हुए जी रहे थे।
एकबार वहाँ नेमप्रभु का पदार्पण हुआ। उनकी देशना सुनकर छहो भाई विरक्त हुए। माता पिता से आज्ञा लेकर भरपूर वैभव, 32 पत्नियां, संसारी विषयक सुख सब छोड़कर नेमप्रभुके शिष्य बने।
दीक्षा लेते ही उन्होंने छठ के पारणे छठ करने का निर्णय किया और तदनुसार अपनी आत्मा का कल्याण करते हुए विचरने लगे।
ऐसे ही द्वारका के राजा वसुदेव व पत्नी धारिणी के 3 पुत्र सारण, दारुक अनावृष्ट
तथा बलदेव की पत्नी धारिणी के 3 पुत्रों सुमुख, दुमुख , कुपक। यह छह राजकुमार भी नेमप्रभु की देशना से विरक्त हुए। अपनी 50- 50 पत्नियों को छोड़कर नेमप्रभु से संयम अंगीकार किया। इन छहो राजकुमारों ने। बीस बीस वर्ष तक उग्र संयम तप आराधना की। 14 पूर्व तक का अभ्यास किया। अंत मे अपनी आत्मा का कल्याण करते हुए एक मास की संलेखना कर सिद्ध बुद्ध मुक्त हुए।
अनिकसेन आदि 6 मुनि का आगे का कथानक कल
कितने त्यागी आत्मा होंगे यह सभी....
बड़ी साधुवंदना - 53
वसुदेव ना नन्दन , धन्य धन्य गजसुकुमाल ।
रुपे अति सुंदर , कलावन्त वय बाल।62।
श्री नेमी समीपे , छोड्यो मोह जंजाल।
भिक्षु नी पडिमा , गया मसाण महाकाल ।63।
देखी सोमिल कोप्यो, मस्तक बांधी पाल ।
खैरा ना खीरा , सिर ठविया असराल ।64।
मुनि नजर न खंडी, मेटी मन नी झाल।
परिषह सही ने , मुक्ति गया तत्काल ।65।
कल हमने अनिकसेन आदि 6 भाइयों के जन्म दीक्षा की कथा पढ़ी।
अब आगे...
रूप में नलकुबेर के समान, एक जैसे दिखने वाले अनिकसेन आदि 6 भाई दीक्षा के बाद नेमप्रभु के अंतेवासी बनकर बेले बेले पारणा करते, संयम की उत्कृष्ट आराधना करते हुए विचरने लगे।
एकबार नेमप्रभु विचरते हुए शिष्योके समेत द्वारिका नगरी पधारे। नगरी के बाहर उद्यान में स्थित होकर आराधना करने लगे।
एक दिन छहो भाइयों ने प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे प्रहर में ध्यान कर तीसरे प्रहर में प्रभु के पास आकर गोचरी जाने की आज्ञा मांगी।
इस वाक्य में जिनशासन की विशालता भी है, ओर छोटे से आचार में विनय की आवश्यकता भी बतलाई, दिन व रात्रि के चारो प्रहर में साधुजीको क्या क्या करना उसका विस्तृत वर्णन भी है तो गोचरी लेने भी प्रभु की आज्ञा लेने जाना, गोचरी लाकर वापिस प्रभु को दिखाकर वापरना आदि सूक्ष्म बातो में भी गुरु के लिए आवश्यक विनय का निरूपण किया जाता है। ऐसे ही कथानकों में सभी छोटी से छोटी लाइन भी जिनशासन के कई बड़े पहलू को समझा जाती है। अफसोस हम समय व जगह की मर्यादा की वजह से लिख नही पाते ।
प्रभुसे आज्ञा लेकर छट्ठ के पारणे के लिए छहो मुनि 2 - 2 करके 3 संघाड़े (मुनियों के ग्रुप ) में द्वारिका नगरी के घरों में गोचरी हेतु विचरने लगे।
इस समय द्वारिका के राजा श्रीकृष्ण वासुदेव की माता देवकी ने 2 मुनियों को राजमहल की ओर पधारते देखा। मुनियों को देख धर्मी देवकी माता अत्यंत हर्षित हुई।और 7/8 कदम आगे जाकर विनय वन्दन सहित मुनि को गोचरी के लिए राजमहल में लेकर आई।
व वासुदेव के लिए निर्मित सिंहकेसरी मोदक बड़े भाव से बहोराये।
उन 2 मुनि के जाने के बाद थोड़ी देर दूसरे 2 मुनि का संघाड़ा देवकी माँ के यहां आया। देवकी माता ने उन्हें ठीक से पहचाना नही। 6 हो मुनिका रूप रंग एक जैसा ही होने से उन्हें लगा कि वही 2 मुनि पुनः गोचरी हेतु आये है। फिर भी पूरे भाव से विनय वन्दन सहित उन्हें गोचरी में सिंहकेसरी मोदक बहोराये ।
कुछ देर बाद तीसरा संघाड़ा भी गोचरी हेतु वँहा आया। तब भी देवकी माता को लगा कि वही मुनि तीसरी बार गोचरी लेने आये है। पुनः विनय वन्दन सहित अत्यंत भाव पूर्वक सिंहकेसरी मोदक बहोराये। बहोराने के बाद अत्यंत नम्रता के साथ देवकी माता ने उन 2 मुनियों से पूछा - कि क्या द्वारिका नगरी के लोगो की दान व धर्म की भावना कम हो गई है जो आपको आवश्यक गोचरी नगरजनो से प्राप्त नही हो रही है? जिसकी वजह से आपको 3 - 3 बार एक ही घर मे आना पड़ा?
यहां देवकीमाता का सन्तो के आचार का ज्ञान, जागरूकता तो है ही, परन्तु उससे ज्यादा महत्त्वपूर्ण उनका विनय वन्दन व गोचरी बहोराने के बाद नम्रता से पूछना हम सभीको समझने जैसा है। हम उपरछल्ले ज्ञानी बनकर श्रावक साधुके अम्मा पिया है यह सोचकर ज्यादा समझे बिना सन्तो की गलतियों पर भड़क उठते है। देवकीमाता जिनधर्मानुरागी के साथ अर्धचक्री कृष्ण वासुदेव की माता थी। फिर भी कितना विनय।
उन्हें नगरजनो के धार्मिकता की भी चिंता थी।
हम सोचते है राजा के घर का भोजन यानी राजपिण्ड सन्तो के लिए अकल्पनीय है। फिर वे मुनि क्यों राजमहल गये।
तो समाधान -
महाव्रती सन्तो के लिए आचार के 10 कल्प बताये गये है।
प्रथम व चौबीसवें प्रभु के सन्तो तथा मध्य के 22 तीर्थंकरों के स्वभाव व मति को ध्यान में रखते हुए कल्प पालन में कुछ भिन्नता है। मध्य के 22 तीर्थंकरों के सन्तो के लिए राजपिण्ड न ग्रहण करना आवश्यक कल्प नही। यही कल्प 1 व 24 वे प्रभुके सन्तो के लिए आवश्यक है।
देवकीमाता को अब मुनि क्या जवाब देते है यह अगले भाग में ,....
बड़ी साधुवंदना - 54
वसुदेव ना नन्दन , धन्य धन्य गजसुकुमाल ।
रुपे अति सुंदर , कलावन्त वय बाल।62।
श्री नेमी समीपे , छोड्यो मोह जंजाल।
भिक्षु नी पडिमा , गया मसाण महाकाल ।63।
देखी सोमिल कोप्यो, मस्तक बांधी पाल ।
खैरा ना खीरा , सिर ठविया असराल ।64।
मुनि नजर न खंडी, मेटी मन नी झाल।
परिषह सही ने , मुक्ति गया तत्काल ।65।
देवकीमाता को अब मुनि क्या जवाब देते है ...
2 मुनि देवकीमाता का आशय समझ गये। की अन्य 4 मुनि भी गोचरी हेतु राजमहल आ गये। और अंग रूप एक होने की वजह से देवकीमाता उन्हें एक ही समझ रही है। तब उन्होंने बताया कि जो मुनि पहले यहां आये वे स्वायं नही पर उनके भाई मुनि थे। भद्दीलपुर नगर के नाग गाथापति व सुलसा के अंगजात 6 भाई है। और रूप में एक जैसे होने की वजह से आपको भ्रांति हुई।
मुनि देवकीमाता का भ्रम दूर कर चले गये।
अनिकसेन आदि छहो भाई ने वर्षो तक संयम की उत्कृष्ट आराधना की, अंत समय मे अनशन संलेखना कर सिद्ध बुद्ध मुक्त हुए।
इधर मुनियों के जाने के बाद देवकीमाता एक अन्य चिंता से ग्रसित हो गई। उन्हें किसी भविष्यवेत्ता ने बताया था कि तुम्हारे एक रंग रूप के 6 पुत्र होंगे। और ऐसी जगत में अन्य कोई माता नही हॉगी।
तो क्या उनकी भविष्यवाणी गलत हुई। अनिकसेन आदि 6 भाई की माता भी तो है। उन्हें वँहा बिराज रहे नेमप्रभु के पास जाकर इस शंका का समाधान करने की इच्छा हुई।
वे प्रभुके पास आये दर्शन वन्दन पश्चात स्वयं प्रभुने उनका समाधान किया। ये 6 मुनि वास्तव में तुम्हारे ही पुत्र है। उनकी पूरी जन्मकथा सुनाई। देवकीमाता हर्षित हुई। व राजमहल लौट आई।
पर माँ का मन पुनः आर्त ध्यान में लग गया। अहो, में कितनी दुर्भागी। नलकुबेर समान सुंदर 7- 7 पुत्रो को जन्म देकर भी माँ के सुख से वंचित रही। 6 भाई सुलसा के यहां व कृष्ण यशोदा के यहां पले बढ़े। किसी का बचपन नही देखा, उन्हें गोदी में लेकर स्नेह नही कर पाई, उनकी मीठी तोतली भाषा मे माँ शब्द सुन नही पाई। कृष्ण के भी 6 माह में एक बार वन्दन करने आते है तभी मिल पाती हूँ। इत्यादि सोचकर देवकीमाता दुखी व उदास हो गई।
(कृष्ण- वासुदेव पद पर आसीन होते हुए भी, राज कार्य मे अत्यंत व्यस्त होते हुए भी प्रतिदिन माताओको वन्दन करने जाते थे। परंतु पिता वसुदेव की 72 000 रानियां थी, प्रतिदिन 400 माताओको वन्दन करते थे। तो देवकीमाता का नँबर 6 महीने में एक बार आता था। )
तब कृष्ण वासुदेव माता को वन्दन के लिए आये। माँ को उदास देखकर वजह पूछी। माँ ने अपनी उदासी का कारण बताया। तब कुछ समाधान करने का आश्वासन देकर कृष्ण वासुदेव अपने कक्ष में आये। अट्टम कर एक देव का आह्वाहन किया। देव आने पर उन्होंने माता की व्यथा बतलाई। तब देव ने कहा कि अभी आपकी माता के एक और पुत्र का योग है ही। वह अल्पायु में दीक्षा लेगा।
कृष्ण वासुदेव ने दीक्षा की बात छुपाकर माता को सारी बात बताई। देवकीमाता प्रसन्न हुई।
कालांतर में देवकीमाता पुनः गर्भवती बनी।
कृष्ण वासुदेव पूर्व निदान की वजह से तप व्रत धारण नही कर सकते । यह सही है। परन्तु लौकिक कामना हेतु , देव को बुलाने वे छट्ठ अट्टम करते है। ऐसे अन्य प्रसंग भी उपलब्ध है।
आगे ....
बड़ी साधुवंदना - 55
वसुदेव ना नन्दन , धन्य धन्य गजसुकुमाल ।
रुपे अति सुंदर , कलावन्त वय बाल।62।
श्री नेमी समीपे , छोड्यो मोह जंजाल।
भिक्षु नी पडिमा , गया मसाण महाकाल ।63।
देखी सोमिल कोप्यो, मस्तक बांधी पाल ।
खैरा ना खीरा , सिर ठविया असराल ।64।
मुनि नजर न खंडी, मेटी मन नी झाल।
परिषह सही ने , मुक्ति गया तत्काल ।65।
आगे ....
देवकीमाता ने पूरा गर्भसमय बीत जाने के बाद एक सुंदर पुत्र को जन्म दिया। उस कोमल सुंदर नवजात पुत्र को गजसुकुमाल नाम दिया। देवकीमाता अत्यंत स्नेह के साथ उनका लालनपालन करने लगी। इतने वर्षों से अधूरी रही उनकी मनोकामना पूर्ण हुई। गजसुकुमाल धीरे धीरे तरुणावस्था में आये। करीब 16 वर्ष की उनकी उम्र हुई।
उस समय विहार करते हुए प्रभु नेमनाथ द्वारिका पधारे। जनता दर्शन वन्दन व उपदेश श्रवण हेतु उमड़ पड़ी। कृष्ण वासुदेव भी परिवार सहित दर्शन वन्दन को निकले। राह में एक सोमश्री नामक सुंदर ब्राह्मण कन्या को देखा। वह कन्या अपने भाई गजसुकुमाल की पत्नी के रूप में पसन्द आई। उसके पिता सोमिल से पूछकर सोमश्री को गजसुकुमाल की भार्या के रूप में नक्की कर लिया। गजसुकुमाल भी प्रभु के दर्शन को आये। देशना सुनकर संसार से विरक्त हो गये।
कभी यह सोचते है कि उन भव्य आत्माओका मन कितना सरल होगा, उनका भाग्य कितना बलवान होगा कि एक देशना सुनकर ही अत्यंत वैभव, सभी सुख सुविधाओं को तत्क्षण छोड़ने का निर्णय कर लेते है। ऐसे कितने ही भव्यात्मा हो गये।
गजसुकुमाल ने राजमहल आकर मातापिता से दीक्षा की अनुमति मांगी।
देवकीमाता के लिए यह घटनाक्रम असह्य था। फिर गजसुकुमाल ने मातापिता को समझाकर सहमत किया। माता की इच्छा थी, की दीक्षा से पहले एकबार गजसुकुमाल को राजा बना हुआ देखे।
उनकी इच्छानुसार उनका राज्याभिषेक किया गया।
मातापिता की इच्छा पूरी करने के बाद उसी दिन उनकी दीक्षा हुई।
सुबह राजकुमार, दोपहर राजा व शाम तक मुनि... भविष्य में क्या लिखा होता है कोई नही जानता।
दीक्षा लेकर मुनि नेमप्रभु के पास आये। अत्यंत दुष्कर ऐसी भिक्षु की बारहवीं प्रतिमा अंगीकार करने की आज्ञा मांगी।
केवलज्ञानी नेमप्रभु भावी को देख रहे थे। उन्होंने आज्ञा दी।
मुनि महाकाल नामक श्मशान में आये। और एक वृक्ष के नीचे जगह का पडीलेहण किया और आंखे खुली रखकर एक मुद्रा में स्थिर होकर भिक्षु की बारहवीं प्रतिमा का आराधन करने लगे। कायोत्सर्ग शुरू हुआ।
प्रतिमा - यानी एक विशिष्ट तप,
आगमो में श्रावक के लिए 11 व सन्तो के लिए 12 प्रतिमा बतलाई गई है। उसमें 12 वी भिक्षु प्रतिमा अत्यंत दुष्कर है। जिसमे श्मशान में जाकर एक रात एक मुद्रा में वृक्ष के नीचे ध्यान करना होता है। कहते है इस प्रतिमा में देव, मनुष्य या तिर्यंच का उपसर्ग निश्चित होता ही है। उन उपसर्गो में मन मजबूत रहा तो क्रमशः केवलज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। पर अस्थिर होने पर बहुत हानि भी हो सकती है। उनकी मति विक्षिप्त तक हो जाती है।
गजसुकुमाल को कौनसा उपसर्ग आएगा यह आगे.....
बड़ी साधुवंदना - 56
वसुदेव ना नन्दन , धन्य धन्य गजसुकुमाल ।
रुपे अति सुंदर , कलावन्त वय बाल।62।
श्री नेमी समीपे , छोड्यो मोह जंजाल।
भिक्षु नी पडिमा , गया मसाण महाकाल ।63।
देखी सोमिल कोप्यो, मस्तक बांधी पाल ।
खैरा ना खीरा , सिर ठविया असराल ।64।
मुनि नजर न खंडी, मेटी मन नी झाल।
परिषह सही ने , मुक्ति गया तत्काल ।65।
गजसुकुमाल को कौनसा उपसर्ग आया, यह आगे..
सुकुमाल देह वाले,आज ही दीक्षित हुए महामुनि कर्मो की विपुल निर्जरा के लिए महाकाल शमशान में आकर एक पेड़ के नीचे स्थित होकर बारहवीं भिक्षु प्रतिमा ले कर ध्यानस्थ हुए।
वहाँ से सोमिल ब्राह्मण का गुजरना हुआ। सोमिल ने उन्हें पहचाना तब उसका क्रोध प्रकट हुआ। यह वही राजकुमार है जिसके साथ मेरी पुत्री का विवाह तय हुआ था, मेरी पुत्री को छोड़कर अब ये यहां नाटक कर रहा है। सोमिल अपने क्रोध को नियंत्रित न कर सका, जैसे जैसे उसका चिंतन बढ़ता गया उसका क्रोध - वैर बढ़ता गया। आखिर उस क्रोध ने एक अनर्थ कर दिया। मेरी पुत्री का त्याग करने वाले को अभी दण्ड देता हूं। यह सोचकर वँहा पानी से गीली हुई मिट्टी लेकर उसी दिन मुंडित हुए कोमल सर पर एक पाल जैसी बना दी। वंही जल रही खैर की लकड़ी की चित्ता से अंगारे लेकर मुनि के सर पर उस पाल के भीतर डाल दिये।
अहो, क्रोध में मनुष्य का विवेक कितना खो जाता है। सोमिल को तनिक भी ख्याल नही आया कि मुनि को कितनी असह्य वेदना हो रही होगी। परन्तु इन सब से परे हटकर मुनि अपने ध्यान में एकाग्र थे। पाल बंधी, अंगारे डले, वेदना हो रही , सब देखते समझते हुए भी मुनि न तनिक विचलित हुए, न मन वचन काया से प्रतिकार किया, न ही सोमिल पर द्वेष किया। देखिए साथियों , इस विपरीत परिस्थिति में उन्होंने अपना चिंतन और शुद्ध बना लिया। देह यह साधन है, उसे हो रही पीड़ा मेरी साधना है, यह सर नही जल रहा मेरे कर्म जल रहे है। सोमिल मुझे नही, मेरे कर्मो को जलाने में मददरूप बन रहा है। कितना अदभुत समभाव। ( और हम, किसी के एक कटुवचन पर भी अपना आत्म संतुलन खो देते है। )
महामुनि का चिंतन उच्च से उच्चत्तर होता गया। इसी पीड़ा में वे भावों के विकास की सीढ़ी चढ़ते गये और केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। आयुकर्म भी पूर्ण होने को आया था। मुनि उसी अंतरमुहूर्त में निर्वाण को प्राप्त हुए। एक रात में ही विपुल कर्मो की निर्जरा कर सिद्ध बुद्ध मुक्त हुए।
सोमिल वहाँ से घर आ गया।
दूसरे दिन सुबह श्रीकृष्ण वासुदेव हाथी पर बैठ कर राजमार्ग पर से होते हुए नेमिनाथ प्रभु एवं भ्राता मुनि के दर्शन के लिए निकले। चतुरंगिणी सेना साथ थी।
राह में एक वृद्ध को देखा। जो अपने घर के बाहर रखे ईंटो के ढेर में से थोड़ी थोड़ी कर अपने घर के भीतर ले जा रहा था।
वासुदेव को उस पर दया आई। उन्होंने उसे मदद करने के उद्देश्य से हाथी पर बैठे बैठे ही एक ईंट उठाकर घर के भीतर रख दी। उसकी चतुरंगिणी सेना ने भी राजा का अनुकरण किया। सब ने एक एक ईंट उठाकर घरमें रख दी। तो उस वृद्ध का काम पूरा हो गया। एक ही पल में सभी ईंटें घर के भीतर पँहुच गई।
वासुदेव प्रभुके पास आये। दर्शन वन्दन करने के पश्चात अपने भाई मुनि को वन्दन करने की इच्छा प्रकट की।
तब केवलज्ञानी प्रभुने उन्हें मुनि की केवल्यप्राप्ति व निर्वाण की घटना सुनाई।
श्रीकृष्ण वासुदेव अत्यंत क्रोधित हुए व उस नीच - अधम व्यक्ति का परिचय पूछा।
तब नेमप्रभु ने कहा- यह सब कर्मो के अधीन है। उस व्यक्ति ने तो गजसुकुमाल मुनि को मदद ही की है । जिस तरह आज राजमार्ग से आते हुए आपने एक वृद्ध का कई दिनों का ईंट घर मे रखने का काम चंद पलो में कर दिया उसी तरह उस व्यक्ति ने भी गजसुकुमाल के कर्मो की विपुल निर्जरा एक रात में ही करवा दी। अतः , आप उस व्यक्ति पर क्रोध न करे तथा भाई के लिए शोक न करे। उन्होंने अपना लक्ष्य पा लिया है। केवलज्ञानी प्रभु ने आगे कहा :- उस व्यक्ति की पहचान में कहु तो आज वह आपको घर जाते हुए मार्ग में आपको देखते ही हृदयाघात से प्राण छोड़ देगा।
नेम प्रभु के वचनों को सुनकर उदास मन से राजमार्ग व चतुरंगिणी सेना को छोड़कर छोटे मार्ग से राजमहल के लिए निकले।
इधर अब सुबह सोमिल भी अपने कृत्य के बाद सजा से भयभीत हो गया। कृष्ण वासुदेव जब प्रभु के पास जाएंगे तो केवली प्रभु द्वारा सब जान लेंगे। तब मुझे दंड मिलेगा। तो बेहतर है कि मृत्युदंड से बचने के लिए मैं जल्दी ही यह नगर छोड़ दूँ ।
यह सोचकर वह छोटे मार्ग से नगर से बाहर निकलने लगा।
इधर कृष्ण भी उसी मार्ग से राजमहल लोट रहे थे। मृत्युदंड की कल्पना से भयभीत सोमिल ने राह में कृष्ण को देखा। कृष्ण तो अनजान थे पर स्वयं ही मृत्यु के भय से हृदयाघात से ग्रसित हुआ। तत्काल उसने प्राण छोड़ दिये। कृष्ण ने यह देखा तब सब समझ गए। सैनिकों को सोमिल के देह का निकाल करने की आज्ञा देकर दुखी हृदय से घर आये।
गजसुकुमाल की कथा पूर्ण ।
बड़ी साधुवंदना - 57
धन्य जाली मयाली , उवयाली आदि साध,
सांब ने प्रद्युम्न अनिरुद्ध साधु अगाध ।66।
वली सत्यनेमि दृढ़ नेमी, करणी कीधी निर्बाध,
दसे मुक्ति पहोंच्या, जिनवर वचन आराध ।67।
बड़ी साधुवन्दना की 25 गाथा तक के कथानक का वर्णन उत्तराध्ययन सूत्र से लिया है।
27 से 38 वी गाथा में आये कथानकों का वर्णन श्री भगवतीजी सूत्र से लिया है।
39 से 54 तक कि गाथाएं ज्ञाताधर्म कथांग सूत्र से है।
55 से 77 तक के कथानक अंतगड जी सूत्र से लिये हुए है।
यो विविध शास्त्रों से प्रेरणाजनक दृष्टांत लेकर इस बड़ी साधुवन्दना की रचना कर जयमलजी महाराज साहब ने हम पर असीम उपकार किया है।
अंतगड जी से ली हुई प्रस्तुत 2 गाथाओं में द्वारिका नगरी के यादव वंश के 10 कुमारों के जन्म, विवाह, वैराग्य, दीक्षा व निर्वाण का वर्णन है।
ये दस कुमार व उनके मातापिता के नाम
जालिकुमार, मयाली, उवयाली, पुरुष सेन, वारीसेन यह पांच राजा वसुदेव तथा रानी धारिणी के पुत्र थे।
प्रद्युम्न कुमार कृष्ण व रूक्मिणी जी के पुत्र थे।
सांब कुमार - कृष्ण व जांबवंतीजी के पुत्र थे।
अनिरुद्ध कुमार - प्रद्युम्न कुमार तथा वैदर्भी रानीके पुत्र थे।
सत्यनेमि जी व दृढ़ नेमीजी समुद्रविजय जी व शिवादेवी जी के पुत्र थे।
यह दस कुमार का वर्णन साथ लेने का आशय इनके कथानक में रही समानता ही है। इनका जन्म दीक्षा आदि साथ हुआ यह नही।
इन दसो के गर्भ में आने पर माता ने सिंह का स्वप्न देखा । शुभ महूर्त में इनका जन्म हुआ। कुछ बड़े होने पर सभी आवश्यक शिक्षा इन्होंने पूर्ण की। यौवन वय में आने पर दसो का विवाह 50 सुंदर राजकन्याओ के साथ किया गया।
एकदा नेम प्रभु के पदार्पण पर उनकी देशना सुनकर वैराग्य वासित हुए। माता पिता से आज्ञा लेकर इन्होंने नेमप्रभु के पास संयम लिया।
सोलह वर्ष तक संयम की उत्कृष्ट आराधना की। अंत मे एक मास की संलेखना कर सिद्ध बुद्ध मुक्त हुए।
इनसभी कथानकों का वर्णन हमे प्रचुर वैभव में रहते हुए भी निमित्त मिलते ही स्वयं के कल्याण के लिए उद्यत हो गये यह समझने जैसा है।
बड़ी साधुवंदना - 58
धन्य अर्जुनमाली , कियो कदाग्रह दूर ।
वीर पे व्रत लइ ने , सत्यवादी हुआ शुर।68।
करि छट्ठ छट्ठ पारणा , क्षमा करी भरपूर।
छह मास माँही , कर्म किया चकचुर।69।
अर्जुनमाली,
अदभुत गाथा , अदभुत कथानक।
एक क्रूर , पापी जीव भी धर्म से जुड़कर अपनी आराधना से उसी भव अपना उत्कृष्ट कल्याण कर सकता है ।
राजगृही नगरी में अर्जुनमाली व बन्धुमती नामक एक मालाकार दंपत्ति रहता था। बगीचे में फूलोकी खेती कर बाजार में फूलों को बेचना उनका काम। वंहा नगर के एक छौर पर मुदगरपाणि नामक एक यक्ष का स्थान ( यक्षायतन ) था। उस यक्ष के हाथ मे अत्यंत वजनदार मुदगर नामक शस्त्र रहता था। अर्जुनमाली व बन्धुमती बरसो से इस यक्ष की पूजा करते आ रहे थे। एक दिन ऐसे ही वे पूजा करने यक्षायतन में आये। तब वहाँ नगर के उच्छृंखल , नीच 6 मित्रो की टोली उपस्थित थी। राजा के किसी कठिन कार्य के करने पर इन्हें राजा से अभयदान मिला हुआ था । यानी ये कोई भी गुनाह करे सब माफ। इस अभयदान से यह ललित मित्र मंडली अपने अधम कृत्यों में निरंकुश बन चुकी थी।
जब माली दंपत्ति यक्षायतन में आये तब वहां यह टोली उपस्थित थी। बन्धुमती को देखकर उनकी विषयवासना उन्मत्त बनी। छहो मित्रो ने यक्ष की मूर्ति के सामने अर्जुनमाली को बांधकर बन्धुमती के साथ व्यभिचार का धृणित कृत्य किया। अर्जुनमाली लाचार क्रोध व परवशता से छटपटा रहा था। उसका क्रोध फिर उस यक्ष की तरफ मुड़ा। उसने यक्ष प्रतिमा के आगे अपना क्रोध व्यक्त किया। बरसो से यक्ष की पूजा करने का यह क्या फल दिया? तुम ताकतवर होते तो 6 मित्रो की इतनी हिम्मत नही होते। अर्जुनमाली की वेदना, उसका क्रोध, उसकी अभिव्यक्ति देख यक्ष प्रकट होकर अर्जुनमाली के देह में प्रविष्ट हो गया। उसके देह में आते ही अर्जुनमाली में अथाह बल आ गया। सारे बंधन तोड़ दिए। और वंही 6 हो मित्रो को तथा बन्धुमती को मृत्यु तक पहुंचा दिया।
अब उस यक्ष का क्रोध शांत नही हो रहा था। अर्जुनमाली रोज 6 पुरुष व एक स्त्री की हत्या करता रहा। करीब 6 माह में कुछ कम दिन तक यह क्रम चलता रहा।
राजा श्रेणिक भी इस यक्ष के प्रकोप से परेशान था। राजा ने उस क्षेत्र को प्रतिबंधित कर दिया। उस राह से भी किसी मनुष्य को जाने की अनुमति नही थी।
ऐसे माहौल में वीर प्रभु विचरण करते हुए पधारे। नगरी के बाहर उद्यान में स्थित होकर धर्माराधना करने लगे।
आगे.....
बड़ी साधुवंदना - 59
धन्य अर्जुनमाली , कियो कदाग्रह दूर ।
वीर पे व्रत लइ ने , सत्यवादी हुआ शुर।68।
करि छट्ठ छट्ठ पारणा , क्षमा करी भरपूर।
छह मास माँही , कर्म किया चकचूर।69।
अर्जुनमाली,
अदभुत गाथा , आगे.....
समभाव रखना बहुत बड़ा तप है।
वीर प्रभु के राजगृही पधारने के समाचार सुनकर जनता अत्यंत हर्षित हुई। पर अफसोस, बाहर जाने की उस राह पर तो अर्जुनमाली की दहशत थी। नगरजनो को मन मारकर प्रभु को अपने स्थान से ही वन्दन कर संतोष करना पड़ा।
नगर में एक सुदर्शन नामक व्रतधारी श्रेष्ठी रहते थे। वीर प्रभुके अनन्य भक्त। प्रभुके समाचार सुनकर घर मे कैसे बैठे रहते। उन्होंने प्रभु के प्रत्यक्ष दर्शन करने जाने का निर्णय लिया। अपनी श्रद्धा व भक्ति का बल लेकर अपने माता पिता को समझाया व उनकी अनुमति लेकर वे नगर के बाहर उद्यान में जाने के लिए निकले। मार्ग में अर्जुनमाली का स्थान आया।
अर्जुनमाली के देह में प्रविष्ट यक्ष ने उसे देखकर उसकी हत्या के लिये उद्यत हुआ।
सुदर्शन सेठ ने उपसर्ग आया जानकर आगार सहित संथारा ग्रहण किया। सर्व जीव राशि को खमाकर आलोचना की। व ध्यान में लीन हो गये।
यक्ष ने नजदीक आकर सुदर्शन पर मुदगर का प्रहार किया, परन्तु यह क्या, .? उसका मुदगर स्तंभित हो गया। काफी देर तक मुदगर न उठा तो यक्ष, कोई बड़ी शक्ति समझकर अर्जुनमाली के देह से निकलकर वहां से भाग गया।
अर्जुनमाली वहीँ बेहोश होकर गिर पड़ा। कुछ देर बाद सुदर्शन ने उपसर्ग टल गया देखकर संथारा पार लिया। अर्जुनमाली को बेसुध देख उसकी सुश्रुषा कर उसे सुध में लाये।
अर्जुनमाली ने स्वस्थ होते सुदर्शन से उसका परिचय पूछा व वे कंहा जा रहे है यह पूछा। तब सुदर्शन सेठ ने अर्जुनमाली को वीर प्रभु के दर्शन करने जाने की बात बताई। उनकी महिमा समझाई। अर्जुनमाली की विनती के अनुसार सुदर्शन सेठ उसे लेकर वीर प्रभुके चरणों मे आये। प्रभुके दर्शन, वन्दन व देशना श्रवण दोनो को अत्यंत शाताकारी लगा। खास कर अर्जुनमाली के धधकते हृदय को अपार शांति मिली। जैसे दहकती आग मे किसी ने शीतल जल का छींटकाव कर दिया।
प्रभु के पास संयम ले लिया। बेले बेले पारणा करने का निश्चय कर संयम की उत्कृष्ट आराधना कर ने लगे।
इस प्रकार सुदर्शन ने अपनी श्रद्धा के बल पर ना सिर्फ नगरको भयमुक्त किया अपितु अर्जुनमाली के जीवन को भी सही मार्ग बताकर उसका कल्याण किया।
इधर अर्जुनमुनि उत्कृष्ट आराधना कर रहे है। पारणे के दिन नगर में जाते तो उसके जुल्म के भोग बने हुए नगरजन उसे धिक्कारते। उनकी नफरत उनका क्रोध शब्दो मे व्यक्त करते रहते। कोई मारने को उद्यत होता तो कोई अत्यंत अभद्र शब्दो का प्रयोग करता। पर समभाव में दृढ़ मुनि उसकी वजह जानकर शांत रहते।किसी पर अंशमात्र द्वेष नही रखते। इस तरह अपमान, तिरस्कार नफरत के उपसर्ग सहन करते भी अर्जुनमुनि अपनी आराधना में अडिग रहे। ऐसी साधना की , की 6 मास में ही विपुल कर्मो को खपाकर अंत मे मोक्ष प्राप्त किया।
बड़ी साधुवंदना - 60
कुंवर अईमुत्ते दिठा, गौतम स्वाम।
सुणी वीर नी वाणी, कीधो उत्तम काम ।70।
अतिमुक्त, अईमुत्ता, एवंता या अयवंता कुमार के नाम से जाने गये मुनि की कथा : -
पोलासपुर नामक एक रमणीय नगर था। उस नगर में विजय नाम का राजा की रानी थी श्रीमती । उनके पुत्र का नाम अतिमुक्त राजकुमार था। उस समय राजकुमार अतिमुक्त करीब 8 वर्ष के थे।
भगवान महावीर स्वामी भव्य जीवो को तारते हुए , गांव गांव विचरते हुए अपने शिष्यों के समेत पोलासपुर के बाहर श्रीवन उद्यान में पहुचें। और आराधना में स्थिर हुए।
एकदिन गौतमस्वामी नगर के घरों में गोचरी हेतु परिभ्रमण कर रहे थे। तब राजमहल के पास इन्द्रस्थान (बच्चों के खेलने की जगह ) में अतिमुक्त खेल रहे थे।
अतिमुक्त ने रास्ते से गुजरते गौतम स्वामी को जाते हुए देखा । बालक को सहज कौतूहल हुआ और वह गौतमस्वामी के पास आकर पूछा कि पूज्यवर, आप कौन है। कहां रहते हो ? और इस प्रकार क्यों घूम रहे हो?
गौतम स्वामी ने बताया कि हम श्रमण, निर्ग्रन्थ, ईर्यासमिति के धारक गुप्त ब्रह्मचारी है। भिक्षा के लिये घूम रहे है। अतिमुक्त उन्हें अपने घर भी लेकर गये । श्रीमती ने भाव पूर्वक भिक्षा व्होराई । अतिमुक्त कुमार की जिज्ञासा पर, तब गौतम स्वामी ने भगवान महावीर स्वामी के विषय मे बताते हुए कहा कि वे श्रीवन उद्यान में ठहरे हुए है। अतिमुक्त कुमार उनके साथ श्रीवन में गये और भगवान महावीर के दर्शन किये और वन्दना की। भगवान महावीर के मुख से धर्म कथा सुनकर अतिमुक्त को वैराग्य हो गया। अतिमुक्त कुमार ने अपने माता पिता से साधू बनने की आज्ञा मांगी।
इस करीब 8 वर्षीय बालक व उसके माता पिता का संवाद अत्यंत तत्त्व सभर है। उसके माता-पिता ने कहा बेटा तुम अभी छोटे हो , संयम क्या है , तुम क्या जानो? नहीं माँ मैं जिसको जानता हूँ उसे नही जानता और जिसको नही जानता उसे जानता हूँ। क्या मतलब बेटा उसके माता पिता ने पूछा। तब अतिमुक्त कुमार ने बताया में यह जानता हूं - जो जन्मा है। उसे अवश्य मरना पडेगा। पर मैं ये नहीं जानता वह कब, कहाँ और किस प्रकार, मरेगा और कितने दिनो बाद मरेगा, मैं ये भी नही जानता, कि जीव किन कर्मो के कारण नरक, तिर्यञच, मनुष्य और देव योनि में उत्पन्न होता है। पर इतना जानता हूँ कि जीव अपने कर्मो से ही इन चारो योनि मे पैदा होता है तथा मरता है। हे माता-पिता मैं दीक्षा लेकर इन बातो की जानकारी करना चाहता हूँ। और इस जन्म मृत्यु के चक्र से छूटना चाहता हूं।
अत्यंत ज्ञान सभर संवाद होने के बाद बालक का दृढ़ वैराग्य देख मातापिता ने भारी मन से आज्ञा दी।
अतिमुक्त कुमार ने वीर प्रभुसे दीक्षा ली। और अन्य सन्तो के साथ रहकर धर्माभ्यास व आराधना में जुड़ गए। एक बार मुनियों के साथ जंगल मे गये। वर्षा का समय था, वहाँ एक जगह बारिश का पानी एकत्र हुआ था। बालक मुनि अतिमुक्त ने सहज ही उस मे अपने पात्रे को नांव बनाकर खेलने लगे। अन्य साथी मुनियों ने उन्हें रोका और यह मुनि चर्या में जीवहिंसा का दोष लगता है यह समझाया।
जब सब वृत्तांत वीर प्रभु को पता चला तब उन्होंने शिष्य सन्तो से अतिमुक्त मुनि को चरम शरीरी बताया। ये बाल मुनि इसी भव केवल्यप्राप्ति कर मोक्ष जाएंगे। कभी इन चरम शरीरी , भविष्य के केवलीकी अशातना न करने को कहा। सभी मुनियों ने उनसे क्षमायाचना की।
फिर बहुत वर्षो तक अतिमुक्त मुनि ने श्रमण चारित्र का पालन किया, गुण रत्न संवत्सर तप की आराधना की तथा अंत मे विपुलाचल पर्वत पर अनशन संलेखना सहित निर्वाण प्राप्त कर सिद्ध बुद्ध मुक्त हो गए ।
Fb ग्रुप जैनिज़्म
All india jain aagam group
सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रंथ से,
पोस्ट में तथ्यो के साथ कोई अशातना हुई हो, जिनवाणी विपरीत अंशमात्र भी लिखा हो , जाने अनजाने कोई अशातना हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडम ।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें