स्वाध्याय

स्वाध्याय को परम तप कहा हैद्वसके कितने भेद हैं तथा स्वाध्याय करने से क्या-क्या लाभ हैं। इसका वर्णन द्वस अध्याय में है।

1. स्वाध्याय किसे कहते हैं ?
सत् शास्त्र का पढ़नामनन करना या उपदेश देना आदि स्वाध्याय माना जाता हैइसे परम तप कहा है।

2. स्वाध्याय के कितने भेद हैं ?
स्वाध्याय के दो भेद हैं निश्चय स्वाध्याय और व्यवहार स्वाध्याय।

3. निश्चय स्वाध्याय किसे कहते हैं ?
ज्ञानभावनालस्यत्यागः स्वाध्यायः- अालस्य त्यागकर ज्ञान की आराधना करना निशश्चय स्वाध्याय है ।

4. व्यवहार स्वाध्याय किसे कहते हैं ?
  1. अंग प्रविष्ट और अंग बाह्य आगम की वाचनापृच्छनाअनुप्रेक्षाआम्नाय और उपदेश करना व्यवहार स्वाध्याय है।
  2. तत्वज्ञान को पढ़नास्मरण करना आदि व्यवहार स्वाध्याय है।

5. व्यवहार स्वाध्याय के कितने भेद हैं ?
स्वाध्याय के पाँच भेद हैं
  1. वाचना - निर्दोष ग्रन्थ (अक्षरऔर अर्थ दोनों को प्रदान करना वाचना स्वाध्याय है।
  2. पृच्छना - संशय को दूर करने के लिए अथवा जाने हुए पदार्थ को दृढ़ करने के लिए पूछना सो पृच्छना है। परीक्षा (पढ़ाने वाले कीके लिए या अपना ज्ञान बताने के लिए पूछनापृच्छना नहीं है। वह तो पढ़ाने वाले का उपहास करना या अपने को ज्ञानी बतलाना है।
  3. अनुप्रेक्षा जाने हुए पदार्थ का बारम्बार चिंतन करना सो अनुप्रेक्षा है। जैसा कि किसी ने कहा है बाटी जली क्योंपान सड़ा क्यों ? घोड़ा अड़ा क्योंविद्या भूली क्यों ? सबका एक ही उत्तर हैपलटा नहीं था।
  4. आम्नाय शुद्ध उच्चारण पूर्वक पाठ को पुन:-पुनः दोहराना आम्नाय स्वाध्याय है और पाठ को याद करना भी आम्नाय है। भक्तामरणमोकार मंत्र आदि के पाठ इसी में गर्भित हैं।
  5. धर्मोपदेश आत्मकल्याण के लिएमिथ्यामार्ग  संदेह दूर करने के लिएपदार्थ का स्वरूपश्रोताओं में रत्नत्रय की प्राप्ति के लिए धर्म का उपदेश देना धर्मोपदेश है। (तसू, 9/25)

6. कौन-कौन सी गति के जीव स्वाध्याय करते हैं ?
मात्र दो गति के जीव स्वाध्याय करते हैं मनुष्य और देव।

7. कौन-कौन सी गति के जीव धर्मोपदेश देते हैं ?
मनुष्य और देवगति के जीव धर्मोपदेश देते हैं।

8. कौन-कौन सी गति के जीव धर्मोपदेश सुनते हैं ?
चारों गतियों के जीव धर्मोपदेश सुनते हैं।

9. क्या नारकी भी धर्मोपदेश सुनते हैं ?
हाँसोलहवें स्वर्ग तक के देव तीसरे नरक तक धर्मोपदेश देने जा सकते हैं। जैसे सीता का जीव लक्ष्मण के जीव को सम्बोधने के लिए तीसरे नरक गया था। (प्रथमानुयोग की अपेक्षा)

10. ज्ञान के कितने अंग हैं परिभाषा बताइए ?
ज्ञान के 8 अंग हैं
  1. व्यञ्जनाचार - व्याकरण के अनुसार अक्षरपदमात्रा का शुद्ध पढ़नापढ़ाना व्यञ्जनाचार है।
  2. अर्थाचार - सही-सही अर्थ समझकर पढ़ना-पढ़ाना अर्थाचार है।
  3. उभयाचार - शुद्ध शब्द और अर्थ सहित आगम को पढ़ना-पढ़ाना उभयाचार है।
  4. कालाचार - शास्त्र पढ़ने योग्य काल में ही पढ़ना-पढ़ाना। अयोग्य काल में सूत्र ग्रन्थ (सिद्धान्त ग्रन्थपढ़ने का निषेध है। जैसेनंदीश्वर श्रेष्ठ महिम दिवसों मेंअष्टमीचतुर्दशीअमावस्या,पूर्णिमा तीनों संध्याकालों मेंअपर रात्रि मेंसूर्यग्रहणचन्द्रग्रहणउल्कापात आदि में गणधर देवों द्वारा और ग्यारह अंग, 10 पूर्वधारियों के द्वारा रचित शास्त्रश्रुतकेवली के द्वारा रचित शास्त्र पढ़ना-पढ़ाना वर्जित है। भावना ग्रन्थप्रथमानुयोगचरणानुयोगकरणानुयोग पढ़ने का निषेध नहीं है।
  5. विनयाचार द्रव्य शुद्धि अर्थात् वस्त्र शुद्धिकाय शुद्धि एवं क्षेत्र शुद्धि के साथ विनयपूर्वक पढ़ना पढ़ाना विनयाचार है।
  6. उपधानाचार - धारणा सहित आराधना करनास्मरण सहित स्वाध्याय करना भूलना नहीं अथवा नियम पूर्वक अर्थात् कुछ त्यागकर स्वाध्याय करना।
  7. बहुमानाचार ज्ञान काग्रन्थ का और पढ़ाने वालों का आदर करनाआगम को उच्चासन पर रख कर मंगलाचरण पूर्वक पढ़नासमाप्ति पर भी भक्ति (जिनवाणी स्तुतिकरना आदि।
  8. अनिह्नवाचार जिस शास्त्र सेया जिन गुरु से आगम का ज्ञान हुआ हैउनके नाम को नहीं छुपाना। जैसे - किसी अल्प ज्ञानी गुरु से पढ़े तो उनका नाम लेने से हमारा महत्व घट जाएगा। इससे विशेष ज्ञानी या प्रसिद्ध गुरु का नाम लेना यह निह्नव है और ऐसा नहीं करना अनिह्नवाचार है। (मू,269)

11. स्वाध्याय से कौन-कौन से लाभ हैं ?
स्वाध्याय करने से प्रमुख लाभ इस प्रकार हैं
  1. असंख्यात गुणी कर्मों की निर्जरा होती है।
  2. ज्ञान एवं स्मरण शक्ति बढ़ती है।
  3. सहनशीलता आती है।
  4. अज्ञान का नाश होता है।
  5. उलझे हुए प्रश्न सुलझ जाते हैं।
  6. मन की चंचलता दूर होती है।
  7. ज्ञान से चारित्र की प्राप्ति होती हैप्रत्याख्यान नामक 9 वें पूर्व का अध्ययन तीर्थंकर के पादमूल में वर्ष पृथक्त्व तक करता है तब उसे परिहार विशुद्धि संयम की प्राप्ति होती है।
  8. देवों द्वारा पूजा भी होती है। जब आचार्य श्री धरसेनजी ने मुनि नरवाहनजी और मुनि सुबुद्धिजी को अध्ययन करायाअध्ययन की समाप्ति पर भूत जाति के देवों ने पूजन की थी और एक महाराज की दंत पंक्ति सीधी की थी। इसके कारण उनका मुनि भूतबलीजी एवं मुनि पुष्पदन्तजी नाम आचार्य श्री धरसेनजी ने रखा था।
  9. ज्ञान के कारण ही मुनि माघनन्दिजी का स्थितिकरण हुआ था। अर्थात् वह पुनः मुनि बन गए।
  10. तत्व चिंतन के लिए नए-नए विषय प्राप्त होते हैं।
  11. शास्त्र स्वाध्याय सुनते-सुनते एक अजैन बालक कालान्तर में क्षुल्लक गणेशप्रसाद वर्णी बने थे।
आत्मानुशासन में कहा है- ‘‘मन मक्रट (बंदर) की तरह चंचल है। इसे स्थिर बनाये रखने में स्वाध्याय परम सहायक है। अत: इसे श्रुतस्कन्धरूपी वृक्ष पर सदा रमाये रखना चाहिए अर्थात् श्रुताभ्याय में/स्वाध्याय में लगाये रखना चाहिए।[१६]
भगवती आराधना में भी कहा गया है[१७] दुष्ट घोड़े की तरह मन खोटे मार्ग में बिराता है। जैसे पहाड़ी नदी के प्रवाह को लौटाना अशक्य होता

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