तीर्थंकर के गर्भ काल
प्रभु महावीर का जन्म 💟💟
कल्पसूत्र में वर्णित चौथा व्याख्यान
उस काल और उस समय में श्रमण भगवन्त श्री महावीर के गर्भ में आये याद ग्रीष्म ऋतु का पहला महीना, दूसरा पक्ष-चैत्र मास की शुक्लापक्ष की त्रयोदशी के दिन नव मास पूर्ण होने पर तथा सातवीं आधिरात होने पर अर्थात् नव मास और साढ़े सात दिन संपूर्ण होने पर त्रिशला माता ने पुत्र को जन्म दिया। इस प्रकार सब तीर्थकरों की गर्भवास स्थिति का समान काल नहीं है ।
ऋषभ देव प्रभु नव मास और चार दिन गर्भ में रहे,
अजितनाथ प्रभु आठ मास पच्चीस दिन गर्भ में रहे,
संभव नाथ प्रभु नव मास और छह दिन गर्भ में रहे,
अभिनन्दन स्वामी आठ महीने और अठाईस दिन गर्भ में रहे,
सुमतिनाथ प्रभु नव मास और छह दिन गर्भ में
रहे,
पद्मप्रभ स्वामी नव मास और छह दिन गर्भ में रहे,
सुपार्श्वनाथ प्रभु नव मास और उन्तीस दिन गर्भ में रहे,
चंद्रप्रभ नव मास और सात दिन गर्भ में रहे,
सुविधिनाथ प्रभु आठ मास और छत्तीस दिन गर्भ में रहे,
शीतलनाथ प्रभु नव महीने और छह दिन गर्भ में रहे,
श्रेयांसनाथ प्रभु नव महीने और छह दिन गर्भ में रहे,
वासुपूज्य स्वामी आठ मास और बीस दिन गर्भ में रहे, विमलनाथ प्रभु आठ मास और इक्कीस दिन गर्भ में रहे,
अनन्तनाथ प्रभु नव महीने और छह दिन गर्भ में रहे, धर्मनाथ प्रभु आठ महीने और छबीस दिन गर्भ में रहे,
शान्तिनाथ प्रभु नव मास और छह दिन गर्भ में रहे, कुंथुनाथ प्रभु नव महीने पाँच दिन गर्भ में रहे,
अरनाथ प्रभु नव महीने और आठ दिन गर्भ में रहे, मल्लीनाथ प्रभु नव महीने और सात दिन गर्भ में रहे,
मुनिसुव्रत स्वामी नव मास और आठ दिन गर्भ में रहे, नमीनाथ प्रभु नव मास और आठ दिन गर्भ में रहे,
नेमिनाथ प्रभु नव मास और आठ दिन गर्भ में रहे, पार्श्वनाथ प्रभु नव मास और छह दिन गर्भ में रहे और
श्री महावीर प्रभु नव मास साढ़े सात दिन गर्भ में रहे ।
उस समय सब ग्रहों के उच्च स्थान में आने पर,- मेषादि राशि में रहे हुये सूर्यादिक ऊंचे समझना,
उस में भी दशादि अंशों तक परम उच समझना चाहिये । उन का फल सुखी, भोगी, धनवान, स्वामी, मंडला-धिष, राजा और चक्री अनुक्रम से समझना चाहिये । उन में तीन ग्रह उच्च हों तो राजा होता है, पाँच उच्च हों तो अर्ध चक्री होवे, छह उच्च हों तो चक्रवर्ती और सात ग्रह उच्च हो तो वह तीर्थकर होता है।
इस प्रकार उच्च चद्रमा का योग आने पर, दिशाओं के सौम्य होने पर, अन्धकारादि से रहित होने पर,
क्यों कि प्रभु के जन्म समय सर्वत्र उद्योत होता है । तथा रत, दिग्दाह आदि से रहित होने पर, तथा उल्लू,
दुर्गा आदि के जयकारक शकुन होने पर, तथा दक्षिणावर्त वाले और अनुकूल सुगन्धित शीतल मुखारह पृथवी
को स्पर्श करते हुए, मन्द पान के चलते हुए तथा जय पृथवी पर चारों और खेती लहरा रही थी और देश में
सर्वत्र सुकाल था अतः सुकाल होने से देश के लोग खुशी में मग्न हो कर जब वसन्तोत्सवादि की क्रीड़ा में लग
रहे थे तब अपर रात्रि के समय उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के साथ चद्रमा का योग आने पर बाधा रहित त्रिशला क्षत्रियाणी ने पीडा रहित पुत्र को जन्म दिया।💟💟
कल्पसूत्र में वर्णित चौथा व्याख्यान
उस काल और उस समय में श्रमण भगवन्त श्री महावीर के गर्भ में आये याद ग्रीष्म ऋतु का पहला महीना, दूसरा पक्ष-चैत्र मास की शुक्लापक्ष की त्रयोदशी के दिन नव मास पूर्ण होने पर तथा सातवीं आधिरात होने पर अर्थात् नव मास और साढ़े सात दिन संपूर्ण होने पर त्रिशला माता ने पुत्र को जन्म दिया। इस प्रकार सब तीर्थकरों की गर्भवास स्थिति का समान काल नहीं है ।
ऋषभ देव प्रभु नव मास और चार दिन गर्भ में रहे,
अजितनाथ प्रभु आठ मास पच्चीस दिन गर्भ में रहे,
संभव नाथ प्रभु नव मास और छह दिन गर्भ में रहे,
अभिनन्दन स्वामी आठ महीने और अठाईस दिन गर्भ में रहे,
सुमतिनाथ प्रभु नव मास और छह दिन गर्भ में
रहे,
पद्मप्रभ स्वामी नव मास और छह दिन गर्भ में रहे,
सुपार्श्वनाथ प्रभु नव मास और उन्तीस दिन गर्भ में रहे,
चंद्रप्रभ नव मास और सात दिन गर्भ में रहे,
सुविधिनाथ प्रभु आठ मास और छत्तीस दिन गर्भ में रहे,
शीतलनाथ प्रभु नव महीने और छह दिन गर्भ में रहे,
श्रेयांसनाथ प्रभु नव महीने और छह दिन गर्भ में रहे,
वासुपूज्य स्वामी आठ मास और बीस दिन गर्भ में रहे, विमलनाथ प्रभु आठ मास और इक्कीस दिन गर्भ में रहे,
अनन्तनाथ प्रभु नव महीने और छह दिन गर्भ में रहे, धर्मनाथ प्रभु आठ महीने और छबीस दिन गर्भ में रहे,
शान्तिनाथ प्रभु नव मास और छह दिन गर्भ में रहे, कुंथुनाथ प्रभु नव महीने पाँच दिन गर्भ में रहे,
अरनाथ प्रभु नव महीने और आठ दिन गर्भ में रहे, मल्लीनाथ प्रभु नव महीने और सात दिन गर्भ में रहे,
मुनिसुव्रत स्वामी नव मास और आठ दिन गर्भ में रहे, नमीनाथ प्रभु नव मास और आठ दिन गर्भ में रहे,
नेमिनाथ प्रभु नव मास और आठ दिन गर्भ में रहे, पार्श्वनाथ प्रभु नव मास और छह दिन गर्भ में रहे और
श्री महावीर प्रभु नव मास साढ़े सात दिन गर्भ में रहे ।
उस समय सब ग्रहों के उच्च स्थान में आने पर,- मेषादि राशि में रहे हुये सूर्यादिक ऊंचे समझना,
उस में भी दशादि अंशों तक परम उच समझना चाहिये । उन का फल सुखी, भोगी, धनवान, स्वामी, मंडला-धिष, राजा और चक्री अनुक्रम से समझना चाहिये । उन में तीन ग्रह उच्च हों तो राजा होता है, पाँच उच्च हों तो अर्ध चक्री होवे, छह उच्च हों तो चक्रवर्ती और सात ग्रह उच्च हो तो वह तीर्थकर होता है।
इस प्रकार उच्च चद्रमा का योग आने पर, दिशाओं के सौम्य होने पर, अन्धकारादि से रहित होने पर,
क्यों कि प्रभु के जन्म समय सर्वत्र उद्योत होता है । तथा रत, दिग्दाह आदि से रहित होने पर, तथा उल्लू,
दुर्गा आदि के जयकारक शकुन होने पर, तथा दक्षिणावर्त वाले और अनुकूल सुगन्धित शीतल मुखारह पृथवी
को स्पर्श करते हुए, मन्द पान के चलते हुए तथा जय पृथवी पर चारों और खेती लहरा रही थी और देश में
सर्वत्र सुकाल था अतः सुकाल होने से देश के लोग खुशी में मग्न हो कर जब वसन्तोत्सवादि की क्रीड़ा में लग
रहे थे तब अपर रात्रि के समय उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के साथ चद्रमा का योग आने पर बाधा रहित त्रिशला क्षत्रियाणी ने पीडा रहित पुत्र को जन्म दिया।💟💟
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