बड़ीसाधुवंदना - 10
#बड़ीसाधुवंदना - 101
चौबीसे जिन नी , बड़ी शिष्यणी चौबीस।
सती मुक्ति पहोंच्या, पूरी मन जगीश ।103
चोबीसे जिन ना, सर्व साध्वी सार ।
अड़तालीस लाख ने , आठ से सित्तर हजार ।104।
चेडा नी पुत्री , राखी धर्म सु प्रीत।
राजेमती विजया, मृगावती सुविनित ।105।
जिनेश्वर प्ररूपित जिनशासन में सहस्त्रों महापुरुषों के संयम शौर्य, तपवीरता , धर्म के लिए दृढ़ श्रद्धा समर्पण के वर्णन के साथ ही हजारों नारियों के भी महिमा का वर्णन है। बिना लिंग भेदभाव के कोई भी जीव अपनी साधना से मोक्ष जा सकता है।
इस अवसर्पिणी काल मे भरतक्षेत्र में हुए 24 तीर्थंकरों के साध्वीसमुदाय की अग्रणी महान नारीरत्नो का उल्लेख मिलता है।
प्रभु ऋषभदेव की प्रथम साध्वी तथा 3,00,000 साध्वीयो के संघ की नायिका आर्या ब्राह्मी जी थे , तो अंतिम वीर शासन में 36000 साध्विजियो की नायिका आर्या चन्दनबाला जी । इन 24 तीर्थंकर प्रभु जी के साध्वी संघ की नायिकाओं के नाम नीचे कोष्ठक में दे रहा हूं। इन सभी ने प्रभुकी शरण मे संयम की उत्कृष्ट आराधना कर मुक्ति गति को प्राप्त किया।
चौबीसों प्रभुकी कुल साध्वीजीयो की संख्या 48, 70,800 । ( संख्या में कहीँ भिन्नता संभव )
वैशाली नगरी के विशाल साम्राज्य के दृढ़ जिनधर्मानुरागी राजा चेटक का जिनशासन में नाम अग्रगण्य है। इनकी 7 पुत्रियां थी। जिनमे कुछ के वर्णन हमने देखे है।
उन पुत्रियों में
1 - प्रभावतीजी के लग्न उदायन राजा से हुए
2 - पद्मावतीजी - दधिवाहन राजा
3 - मृगावतीजी - शतानीक राजा
4 - शिवादेवी - चण्डप्रद्योत राजा
5 - ज्येष्ठा जी - वीर प्रभुके भाई नंदिवर्धनजी
6 - सुज्येष्ठा जी संयम लिया
7 - चेलना - मगध नरेश श्रेणिकजी
इन सातों पुत्रियों के जीवन चरित्र में उत्कृष्ट धर्म श्रद्धा व त्याग की शूरवीरता प्रकट होती है।
इन 7 मे से 4 की गिनती जिनशासन की महान 16 सतियो में बड़े आदर के साथ की जाती है।
7 में से चेलना जी व ज्येष्ठा जी के अलावा पांचों ने संयमग्रहण कर धर्म की उत्कृष्ट आराधना की थी। चेलना जी की दीक्षा का उल्लेख नही मिला पर उनकी धर्म निष्ठा उच्च थी। श्रेणिक राजा को जिनधर्मानुरागी बनाने में इनका अतुल्य योगदान था।
आगे की गाथाओमे हम इन चेटकपुत्रियो का थोड़ा ज्यादा कथानक देखेंगे।
जिनशासन को गौरववन्ता बनाने वाले इन सतीरत्नो को हमारा भाव पूर्ण नमस्कार हो।
#बड़ीसाधुवंदना - 102
चेडा नी पुत्री , राखी धर्म सु प्रीत।
राजेमती विजया, मृगावती सुविनित ।105।
हम बात कर रहे है जिनशासन के महान सतीरत्नो की।
राजेमतीजी : - 1
एक उज्वल रत्न ।
उग्रसेन राजा की पुत्री।
समुद्रविजय के पुत्र कुमार नेम तो तीर्थंकर की विरक्त आत्मा थे। जब उनके विवाह की बात चली तब नेम कुमार ने साफ मना कर दिया। पर श्री कृष्ण के अविरत आग्रह को देख अनमने से नेमकुमार विवाह के लिए तैयार हुए। उनका संबन्ध राजेमतीजी से तय हुआ। शादी की तैयारियां होने लगी।
नेम कुमार जैसा सुयोग्य वर प्राप्ति से राजेमतीजी प्रसन्न थे। नये विवाहित जीवन की स्वप्न मंजूषा से कई स्वप्न अब प्रकट होने लगे थे।
विवाह का दिन आ गया। नेम प्रभु की बारात राजेमतीजी को ब्याहने बड़े धूमधाम से निकली। बड़ा विस्तृत यादव परिवार सजधज के बारात में शामिल हुआ।
इधर कुछ ही पलों में नेमकुमार जी की विवाहिता बनने के स्वप्न सँजोती हुई राजेमतीजी भी सजधज कर बैठी थी।
पर अचानक यह विघ्न कैसा ?
😢
जैसे एक वज्राघात हुआ कोमलांगिनी राजेमतीजी के हृदय पर!
राजीमती जीको समाचार मिले, की नेमकुमार बारात मोड़कर वापिस चले गए?!
हुआ यह था, जब बारात विवाह स्थल के करीब पहुंची, तब नेमकुमार के कानों में शहनाइयों के सुर के बीच मे अचानक ढेरो पशुओं की चीत्कार की आवाज पड़ी। अहिंसक, व करूणता से भरे नेम कुमार के हृदय को अति वेदना हुई। उन्होंने सारथी द्वारा पता लगाया तब उन्हें ज्ञात हुआ कि विवाह में आये बारातियों की व्यवस्था हेतु बहुत सारे पशुओं को बंधक बनाया गया है।
नेमकुमार स्तब्ध हो गये।
अहो, एक मेरे विवाह निमित्त इतने सारे पशुओं को नारकीय वेदना!!!
नही नही! में उनकी इस वेदना का निमित्त नही बन सकता। ऐसे प्रारंभ से ही पग पग पर जहाँ हिंसा हो ऐसे विवाह बंधन में मुझे नही बंधना। मैं इस संसार का त्याग कर संयम अंगीकार करूँगा। और पशुओं को बाड़े से छुडा़कर वे बारात मोड़कर वापिस चले गए।
उन्हें समझाने का बहुत प्रयास किया गया पर अब नेमकुमार किसी पर राग द्वेष किये बिना संयमग्रहण के निर्णय पर बने रहे।
यह समाचार राजेमतीजी के लिए अत्यंत दुखदायी बने।
#बड़ीसाधुवंदना - 103
चेडा नी पुत्री , राखी धर्म सु प्रीत।
राजेमती विजया, मृगावती सुविनित ।105।
राजीमतीजी - 2
नेमकुमार की दीक्षा का निर्णय सुनकर राजीमती जी अत्यंत दुखी हो गये। अन्यत्र विवाह के लिए उन्होंने मातापिता को स्पष्ट मना कर दिया।
: - आर्य नारी एक बार मन से जिसे पति मान चुकी हो, अब वो भला दूसरे व्यक्ति से विवाह में कैसे बन्ध जाए?
नेमकुमार के वर्षिदान की परंपरा शुरू हुई। इस दौरान राजिमतीजी के सौंदर्य पर मुग्ध बने हुए रथनेमि जो कि नेमकुमार के सगे भाई थे। उन्होंने राजिमतीजी से विवाह करने के कई प्रयास किये। परन्तु राजिमतीजी अब मन से नेमकुमार को ही अपना पति मान चुकी थी। वे जो भी मार्ग चुने, उसका ही अनुसरण करने का दृढ़ मन बना चुकी थी।
राजीमती ने रथनेमि को कई दृष्टांत देकर समझाया। आख़िर जब वे नही माने तब एकबार एक युक्ति की।
उन्होंने रथनेमि जी आये तब बहुत सारा दूध पी लिया। फिर मदनफल ( जिसको सूंघने से पेट मे रहा सारा आहार वमन से बाहर आ जाता है। ) सूंघ कर रथनेमीजी के सामने ही कटोरे में वमन कर दिया। रथनेमि जी को कहा की उस दूध को पी लो। रथनेमीजी अवाक थे।
राजिमतीजी ने कहा : - जिस तरह वमन किया हुआ यह दूध आप पी नही सकते उसी तरह आपके भाई द्वारा त्यागी गयी मैं आपके लिए कैसे योग्य हो सकती हूं। संसार के भोग इसी वमन की तरह है। जिसे नेमकुमार ने त्याग दिया। अब मैं भी उनका ही अनुसरण करूंगी।
रथनेमि जी संभल गये। उन्होंने भी राजिमतीजी का आग्रह छोड़कर विरक्त बन गए।
इधर नेमकुमार ने दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा के 54 दिन बाद उन्हें केवल्यप्राप्ति हुई। नेमकुमार अब नेमप्रभु बन गए।प्रथम समोवसरण में उन्होंने साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका 4 संघ रूप तीर्थ की स्थापना की। राजिमतीजी ,रथनेमीजी आदी कई जनों ने दीक्षा ग्रहण की।
( उनकी दीक्षा के समय मे कुछ मान्यताभेद है। )।
एक बार फिर ऐसा अवसर आया कि रथनेमीजी काम कषाय में बहने लगे तब राजिमतीजी ने उन्हें पुनः समझाकर संयम में स्थिर किया। (आगे की गाथाओमे रथनेमीजी के वर्णन में हम यह पढ़ चुके है। )
इस तरह संयम की उत्कृष्ट आराधना करते हुए सतीरत्ना राजिमतीजी(राजुल ) अंत मे सिद्ध बुद्ध व मुक्त हुई।
#बड़ीसाधुवंदना - 104
चेडा नी पुत्री , राखी धर्म सु प्रीत।
राजेमती विजया, मृगावती सुविनित ।105।
स्थूलभद्रजी, जंबूस्वामी आदि के काम कषाय पर विजय प्राप्ति की गाथा हमने पढ़ी। इसी श्रृंखला में जिनशासन में एक श्रावक श्राविका का नाम अविस्मरणीय है।
विजय - विजया जी
कौशांबी नगरी में अर्हद्दास नामक एक वैभवी श्रेष्ठि रहते थे। उनकी पत्नी का नाम था अर्हद्दासी । पुत्र विजय । पूरा परिवार अत्यंत वैभव में जीते हुए भी जैन मतावलंबी व धर्मनिष्ठ था। पुत्र विजय अन्य शिक्षाओं में प्रवीण बनने के साथ परिवार व माता के संस्कारो से धर्म मे भी अनुराग रखने वाला था। एकदा ऐसे ही किन्हीं श्रमण के दर्शन वन्दन करने गए तब उन मुनिके प्रभावी वाणी में ब्रह्मचर्य का वर्णन सुना। संस्कारी, जैन मुनिवचनो में दृढ़ निष्ठावान विजय ने मुनि के वचनों से प्रेरित होकर ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार करने का निर्णय लिया। पर थे तो गृहस्थी। भविष्य में ब्याह होगा। पत्नी भी आएगी। संसार धर्म भी निभाना होगा यह सोचकर मुनि से आंशिक ब्रह्मचर्य स्वीकार किया। इसमें हर माह के शुक्ल पक्ष के दिनों में ब्रह्मचर्य का संपूर्ण पालन। मुनि से प्रत्याख्यान लेकर आनन्दित होते हुए घर आये।
कुछ दिनों में एक श्रेष्ठी पुत्री सुंदर कन्या विजया से उनका विवाह भी संपन्न हुआ। शुक्ल पक्ष के वे दिन चल रहे थे।
विवाह पश्चात मधुरमिलन की प्रथम रात्री। कई स्वप्नों से सजी हुई रात को जंबूस्वामी की तरह विजय विजया ने भी धन्यातिधन्य बना दिया। कैसे : - जब विजय ने अपनी नवविवाहिता से अपने शुक्ल पक्ष के ब्रह्मचर्य के प्रत्याख्यान की बात सुनाई तब विजया ने एक नई बात उन्हें बताई। एक साध्वीजी से उन्होंने भी हर माह के कृष्ण पक्ष को ब्रह्मचर्य पालन के प्रत्याख्यान ले लिए थे।
एक के प्रत्याख्यान शुक्लपक्ष के, तो दूसरे के प्रत्याख्यान कृष्ण पक्ष के । यानी अब प्रत्याख्यान रहते दोनों का दैहिक मिलन असंभव।
अहो! अहो! अहो आश्चर्यम!
दोनो परस्पर के प्रत्याख्यान सुनकर खेदित नही हुए अपितु धन्यता व हर्ष की अनुभूति करने लगे। वीरांगना विजया के सहकार से अब आजीवन ब्रह्मचर्य पालने की अनुकूलता हो गई, यह सोचकर विजय व ऐसी ही सोच से विजया अत्यंत हर्षित हुए। पर विजया ने भावी चिंता व्यक्त की , जब इस घर - कुल का वारिस के लिए??
#बड़ीसाधुवंदना - 105
चेडा नी पुत्री , राखी धर्म सु प्रीत।
राजेमती विजया, मृगावती सुविनित ।105।
विजय सेठ - विजया सेठानी जी - 2
उदार विजया ने विजय को शुक्ल पक्ष का ब्रह्मचर्य पालन भी हो, और इस घर को वारिस भी मिल जाये इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए विजय को दूसरा विवाह करने की विनती की। पर अब विजय सहज आ मिले त्याग के इस अवसर को खोना नही चाहते थे। विजय ने विजया की उदारता की सराहना करते हुए उसके प्रस्ताव का अस्वीकार किया। उन दोनों ने ब्रह्मचर्य व्रत को आजीवन पालने का दृढ़ निर्णय बना लिया।
पर यह बात गुप्त रहेगी। जब भी यह निर्णय सब को पता चलेगा, हम दोनों संयम अंगीकार करेंगे ।
इस निश्चय के साथ दोनों अपना जीवन धर्ममय मार्ग से जीने लगे। दिन बीते, सुहानी राते, फिर मादक वर्षा, वसंत आदि ऋतुएं, बरसो बीतने लगे। पर उनके व्रत को कोई भी समय डिगा न पाया। न किसी को पता चला। दोनो के खंड ब्रह्मचर्य व्रत को अखंड बनाकर पालन करते रहे। (एक कक्ष में अलग शय्या पर रहकर जीना-निद्रा लेना)
पर एक दिन अचानक!!!!!
अंगदेश में एक जिनदास नामक दृढ़ धर्मी, परम क्रियावान श्रावक रहता था। उसने प्रातःकाल में एक अजीब स्वप्न देखा। वे एकसाथ 84000 तपस्वी मुनियों को पारणा करवा रहे है। वे इस स्वप्न का अर्थ समझें नही।
ऐसे में एक केवली भगवन्त वहां पधारे। उन्होंने जिनदासको स्वप्नों के अर्थ बताते हुए कहा - की एक अखंड ब्रह्मचारी जोड़े को पारणा करवाने से 84000 तपस्वी साधु को पारणा करवाने जितना लाभ मिल सकता है।
जिनदास ने ऐसा जोडा कहा मिलेगा यह प्रतिप्रश्न किया। तब केवली प्रभुने कौशांबी के विजय विजया सेठानी का नाम दिया।
जिनदास जी कौशांबी आये। अर्हद्दास के घर आकर सभी नगरजनो के समक्ष उन दोनों की स्तुति करते हुए दोनो का व्रत सभी के सामने उजागर किया। सब स्तब्ध रह गए। लोगो ने इस त्यागी दंपत्ति की खूब अनुमोदना की।
अपने निर्णय अनुसार उनके व्रत का सभी को पता लग जाने के बाद संयम ग्रहण किया। स्व पर कल्याण करते हुए कई वर्षों तक विचरते रहे। अंत मे देह त्याग 8 कर्मोंका क्षय कर दोनो सिद्ध बुद्ध मुक्त बने।
#बड़ीसाधुवंदना - 106
चेडा नी पुत्री , राखी धर्म सु प्रीत।
राजेमती विजया, मृगावती सुविनित ।105।
मृगावतीजी - 1 : -
जिनशासन के वीर व धर्मनिष्ठ पात्र राजा चेटक की सात पुत्रियों के नाम हमने पढ़े, उनमे से एक नाम है मृगावतीजी। सुंदर, धर्म निष्ठ, कर्तव्य परायण मृगावतीजी का विवाह कौशांबी नरेश शतानीक के साथ हुआ था।
सुखमय दिन बीत रहे थे। राजमहल में मृगावती के पुत्र उदयन अभी छोटा ही था, इधर एक दु:खद घटना घटी। उस घटना के बीज कुछ इस तरह अनजाने बोये गये।
कौशांबी में एक निपुण चित्रकार रहता था। उसकी अविरत चित्र साधना से उसे एक अदभुत कला हस्तगत हो गई थी। वह किसी व्यक्ति का पांव का अंगूठा मात्र देख लेता तो वह उसका पूरा हूबहू चित्र बना सकता था।
उस कला के प्रदर्शन के लिए एकबार उसे राजमहल में बुलाया गया। महारानी मृगावती का पांव का अंगूठा देखकर उसने उनका चित्र बनाना शुरू किया। अदभुत कलाकारी। उसने सिर्फ अंगूठा देखा था पर महारानी का हूबहू चित्र बन रहा था। पर यह क्या? चित्र बनाते समय काले रंग का एक बूंद चित्र में महारानी की जंघा पर गिर गया। गलती हुई मॉनकर चित्रकार ने उस काली बून्द को साफ कर दिया। पर अहो आश्चर्यम ! दूसरी, तीसरी बार उसके हाथों से एक काले रंग की बूंद उसी जगह गिरी। तब चित्रकार ने उसे रहने दिया। वह बून्द जंघा पर स्थित एक तिल जैसे लग रही थी।
चित्र पूरा हुआ। राजा ने देखा वह भी इस कला से प्रसन्न हुआ पर जब उसकी नजर जंघा के तिल पर गई तब उसे संदेह हुआ : - इस चित्रकार को जंघा के तिल का कैसे पता? हो न हो उस ने गलत तरीके से कभी देखा होगा या रानी के साथ कभी गलत संबन्ध रहा होगा।
शंका के इस विष ने राजा शतानीक की मति भ्रमित कर दी।
जिस चित्रकार को पुरस्कृत करना चाहिए था उसे दण्ड स्वरूप दाहिने हाथ का अंगूठा कटवाकर देशनिकाला दे दिया।
वह चित्रकार अपने आप को अपमानित हुआ देखकर, राजा से बदला लेने का सोचा। उसने अपनी कला फिर आजमाई । बिना अंगूठे के ही , रानी मृगावती का सुंदर चित्र बनाकर , अवन्तिनरेश , स्त्री की सुंदरता जिसकी कमजोरी थी, ऐसे लंपट व कामी चण्ड प्रद्योत को दिखाया। और यही नही उसकी सुंदरता की स्तुति कर चण्डप्रद्योत को मृगावती को पाने के लिए लालायित कर दिया।
कामी नरेश चण्डप्रद्योत ने मृगावतीजी को प्राप्त करने के मोह में सार असार का विवेक छोड़कर कौशांबी पर अचानक आक्रमण कर दिया। सहसा हुए इस हमले से स्तब्ध शतानीक नरेश ने प्राण त्याग दिए।
अब राजमहल में लाचार असहाय नारी मृगावती , अपने नन्हे पुत्र के साथ । पर नही, वे एक वीर नारी थी। नगर के बाहर खुद को प्राप्त करने के लिए विशाल सेना लेकर बैठा शत्रु, सेना से भयभीत खुद की नगरी, महल में पति का देहांत इन विपरीत परिस्थिति में कुछ ही समय मे मृगावती ने अपने आप को संभाल लिया। खुद के शील की, नगरजनो की सुरक्षा, पुत्र उदायन का राज्य सिँहासन की सुरक्षा के लिए यह वीर रानी कटिबद्ध हुई।
उसने युक्ति आजमाई । नगरी के बाहर बैठे शत्रु को कहलवाया : - मैं अपने आपको समर्पण करने को तैयार हूं, पर अभी मेरे पति का देहांत हुआ है, 6 माह तक मुझे पति शोक से बाहर आने का समय दीजिये।
चण्डप्रद्योत भी मान कर नगरी में आक्रमण करने से रूक गया। वह 6 माह का समय देकर अवंति लौट गया। रानी ने तब तक अपनी नगरी की सुरक्षा के सघन प्रयास कर लिए।
6 माह बाद चण्डप्रद्योत ने अपने दूत भेजकर अपना वचन याद दिलवाया। तब सिंह समान चरित्र वाली महासती ने अपने चारित्र से डिगने का स्पष्ट इन्कार कर दिया। मैं राजा शतानीक की विधवा हूं, प्राण त्याग दूंगी परन्तु अपने शील को पतित नही होने दूंगी। किसी भी कीमत पर मैं चण्डप्रद्योत की रानी बनना स्वीकार नही करूंगी।
यह सुनकर आवेश में आया चण्डप्रद्योत ने पुनः कौशांबी पर आक्रमण कर दिया।
इसी दौरान वीरप्रभु का कौशांबी में पदार्पण हुआ। प्रभुकी देशना सुनने सभी पधारे। मृगावती भी उदयन के साथ थी। वहीँ चण्डप्रद्योत भी था। प्रभुकी देशना सुनकर मृगावती विरक्त हो गई। उसने वहीँ चण्डप्रद्योत से दीक्षा की आज्ञा मांगी।
जिस मृगावतीजी को पाने के लिए चण्डप्रद्योत 6 माह से उतावला हो रहा था, जिसके लिए विशाल सेना लेकर नगरी के बाहर बैठा था, क्या उसे वह दीक्षित होने के आज्ञा वह देगा??
#बड़ीसाधुवंदना - 107
चेडा नी पुत्री , राखी धर्म सु प्रीत।
राजेमती विजया, मृगावती सुविनित ।105।
मृगावतीजी - 2 : -
प्रभुकी देशना का प्रभाव , जहां जीव अपने जातिगत वैर भी भूल जाते है , उस प्रभुके अतिशय का ही चमत्कार था , कि चण्डप्रद्योत भी मान गया। उसने आक्रमण का विचार छोड़ उदयन को राजा बनाकर मृगावतीजी का दीक्षा समारोह किया।
मृगावतीजी चन्दनबाला जी आर्या की शिष्या बनी।
दीक्षित होकर संयम की उत्कृष्ट आराधना करने लगे।
एकबार आर्या मृगावती जी वीर प्रभुके समोवसरण में गुरुणी चन्दनबाला जी के साथ प्रभुकी दिव्य देशना सुन रही थी। उस समोवसरण मे सूर्य व चन्द्र आदि देव भी उपस्थित थे। यह भी एक आश्चर्य ही था कि ज्योतिष देव अपने मूल देह व विमान के साथ समोवसरण में उपस्थित थे।
देशना के बाद समय सूर्यास्त तक पहुंच गया। तेजस्वी देह व विमानों की वजह से समोवसरण में दिन जैसा ही उजाला था। आर्या चन्दनबाला जी अन्य संकेतो से दिन का अस्त हुआ समझकर अपनी साध्वी मर्यादा समझकर वँहा से उठकर चले गए। परन्तु वहां चल रही धर्मचर्चा में तल्लीन आर्या मृगावतीजी को सूर्यास्त के ध्यान कुछ देर बाद आया। वे तत्काल गुरुणी के पास आ गये।
गुरुणी जी ने एक हल्का उपालंभ व साध्वी आचार को समझने का, ऐसे व्यवहार रखने का सूचन किया।
मृगावतीजी को अपनी गलती का बेहद पश्चाताप हो रहा था। उस पश्चाताप में गुरुणी के लिए द्वेष नही, पर खुद की गलती का अफसोस था। उस गलती को भविष्य में न दोहराने का, संयम में उत्कृष्ट आराधना करने का चिंतन करने लगे। उनका चिंतन क्रमशः उर्ध्वगामी बनता गया। धीरे धीरे शुक्लध्यान में प्रविष्ट हो गए। और उसी रात उन्हें केवल्यप्राप्ति हो गई। लोकालोक की तीनो काल की समग्र वस्तु बिना किसी इन्द्रिय या मन की सहायता से प्रत्यक्ष दिखने लगी।
काजलसी काली रात में उन्होंने ज्ञान का प्रकाशपुंज प्राप्त कर लिया। कितना अदभुत वह चिंतन होगा!!!
गुरुणी चन्दनबाला जी वहीं निंद्रा में थे। उनके पास के संथारे ( सोने की जगह ) पर आर्या मृगावतीजी थे। अचानक उस अंधेरी रात में भी ज्ञान के प्रकाश में उन्होंने एक काले विषधर नाग को गुरुणी की शय्या के पास देखा। गुरुणी का हाथ उस विषधर के मार्ग में आनेवाला था। मृगावतीजी ने गुरुणी का हाथ हल्के से उठाकर दूसरी तरफ कर दिया। सांप चला गया। पर हाथ के स्पर्श से गुरुणी जी जाग गये। उन्होंने पूछा कि क्या हुआ, तब मृगावतीजी ने वहां से गुजरे सर्प की बात बताई।
चन्दनबाला जी आश्चर्यचकित हो गये, इतने अंधेरे में आपको काला सर्प कैसे दिखाई दिया? क्या कोई विशेष ज्ञान प्राप्त हुआ। तब आर्या मृगावतीजी ने कहा : - हां, आपकी कृपा से केवल्यप्राप्ति हुई है। यह केवली का भी गुरु के प्रति विनय देखने जैसा है।
गुरुणी को बहुत हर्ष हुआ, पर अचानक उन्हें शाम में दिए उपालंभ याद आया! अहो, मैने केवली को डांटा, उनकी आशातना की। इस दु:ख में वे विलाप करने लगे। उनसे ऐसी गलती कैसे हो गई, वह उनके रुदन की वजह बन गई। यह विलाप शुभत्त्व की ओर बढ़ा। धीरे-धीरे विलाप के स्थान पर शुक्लध्यान में प्रवेश किया। उर्ध्वचिन्तन की श्रृंखला में बढ़ते हुए उन्होंने भी उसी रात केवलज्ञान प्राप्त कर लिया।
अहो, अदभुत अदभुत था गुरु शिष्या का संयम, उनकी धर्म निष्ठा व संयम में सजगता, अपने दोषों के प्रति जागरूकता। जिससे उन्होंने केवल्यप्राप्ति तक हो गई।
मृगावतीजी ने केवलिपने में विचरते हुए अपना आयु पूर्ण कर अंत मे सिद्ध बुद्ध व मुक्त बने।
धन्य धन्य जिनशासनम !!!
Fb ग्रुप जैनिज़्म
All india jain aagam group
संकलन सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रन्थ से
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।
Fb ग्रुप जैनिज़्म
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सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रन्थ से
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।
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सन्दर्भ : - डॉ पद्ममुनि के ग्रन्थ से
इस कथानक को उपरोक्त ग्रन्थ से लिया है, किन्ही आगममे से नही। तत्त्व केवली गम्यं ।
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।
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सन्दर्भ : - डॉ पद्ममुनि के ग्रन्थ से
इस कथानक को उपरोक्त ग्रन्थ से लिया है, किन्ही आगममे से नही। तत्त्व केवली गम्यं ।
चौबीसे जिन नी , बड़ी शिष्यणी चौबीस।
सती मुक्ति पहोंच्या, पूरी मन जगीश ।103
चोबीसे जिन ना, सर्व साध्वी सार ।
अड़तालीस लाख ने , आठ से सित्तर हजार ।104।
चेडा नी पुत्री , राखी धर्म सु प्रीत।
राजेमती विजया, मृगावती सुविनित ।105।
जिनेश्वर प्ररूपित जिनशासन में सहस्त्रों महापुरुषों के संयम शौर्य, तपवीरता , धर्म के लिए दृढ़ श्रद्धा समर्पण के वर्णन के साथ ही हजारों नारियों के भी महिमा का वर्णन है। बिना लिंग भेदभाव के कोई भी जीव अपनी साधना से मोक्ष जा सकता है।
इस अवसर्पिणी काल मे भरतक्षेत्र में हुए 24 तीर्थंकरों के साध्वीसमुदाय की अग्रणी महान नारीरत्नो का उल्लेख मिलता है।
प्रभु ऋषभदेव की प्रथम साध्वी तथा 3,00,000 साध्वीयो के संघ की नायिका आर्या ब्राह्मी जी थे , तो अंतिम वीर शासन में 36000 साध्विजियो की नायिका आर्या चन्दनबाला जी । इन 24 तीर्थंकर प्रभु जी के साध्वी संघ की नायिकाओं के नाम नीचे कोष्ठक में दे रहा हूं। इन सभी ने प्रभुकी शरण मे संयम की उत्कृष्ट आराधना कर मुक्ति गति को प्राप्त किया।
चौबीसों प्रभुकी कुल साध्वीजीयो की संख्या 48, 70,800 । ( संख्या में कहीँ भिन्नता संभव )
वैशाली नगरी के विशाल साम्राज्य के दृढ़ जिनधर्मानुरागी राजा चेटक का जिनशासन में नाम अग्रगण्य है। इनकी 7 पुत्रियां थी। जिनमे कुछ के वर्णन हमने देखे है।
उन पुत्रियों में
1 - प्रभावतीजी के लग्न उदायन राजा से हुए
2 - पद्मावतीजी - दधिवाहन राजा
3 - मृगावतीजी - शतानीक राजा
4 - शिवादेवी - चण्डप्रद्योत राजा
5 - ज्येष्ठा जी - वीर प्रभुके भाई नंदिवर्धनजी
6 - सुज्येष्ठा जी संयम लिया
7 - चेलना - मगध नरेश श्रेणिकजी
इन सातों पुत्रियों के जीवन चरित्र में उत्कृष्ट धर्म श्रद्धा व त्याग की शूरवीरता प्रकट होती है।
इन 7 मे से 4 की गिनती जिनशासन की महान 16 सतियो में बड़े आदर के साथ की जाती है।
7 में से चेलना जी व ज्येष्ठा जी के अलावा पांचों ने संयमग्रहण कर धर्म की उत्कृष्ट आराधना की थी। चेलना जी की दीक्षा का उल्लेख नही मिला पर उनकी धर्म निष्ठा उच्च थी। श्रेणिक राजा को जिनधर्मानुरागी बनाने में इनका अतुल्य योगदान था।
आगे की गाथाओमे हम इन चेटकपुत्रियो का थोड़ा ज्यादा कथानक देखेंगे।
जिनशासन को गौरववन्ता बनाने वाले इन सतीरत्नो को हमारा भाव पूर्ण नमस्कार हो।
#बड़ीसाधुवंदना - 102
चेडा नी पुत्री , राखी धर्म सु प्रीत।
राजेमती विजया, मृगावती सुविनित ।105।
हम बात कर रहे है जिनशासन के महान सतीरत्नो की।
राजेमतीजी : - 1
एक उज्वल रत्न ।
उग्रसेन राजा की पुत्री।
समुद्रविजय के पुत्र कुमार नेम तो तीर्थंकर की विरक्त आत्मा थे। जब उनके विवाह की बात चली तब नेम कुमार ने साफ मना कर दिया। पर श्री कृष्ण के अविरत आग्रह को देख अनमने से नेमकुमार विवाह के लिए तैयार हुए। उनका संबन्ध राजेमतीजी से तय हुआ। शादी की तैयारियां होने लगी।
नेम कुमार जैसा सुयोग्य वर प्राप्ति से राजेमतीजी प्रसन्न थे। नये विवाहित जीवन की स्वप्न मंजूषा से कई स्वप्न अब प्रकट होने लगे थे।
विवाह का दिन आ गया। नेम प्रभु की बारात राजेमतीजी को ब्याहने बड़े धूमधाम से निकली। बड़ा विस्तृत यादव परिवार सजधज के बारात में शामिल हुआ।
इधर कुछ ही पलों में नेमकुमार जी की विवाहिता बनने के स्वप्न सँजोती हुई राजेमतीजी भी सजधज कर बैठी थी।
पर अचानक यह विघ्न कैसा ?
😢
जैसे एक वज्राघात हुआ कोमलांगिनी राजेमतीजी के हृदय पर!
राजीमती जीको समाचार मिले, की नेमकुमार बारात मोड़कर वापिस चले गए?!
हुआ यह था, जब बारात विवाह स्थल के करीब पहुंची, तब नेमकुमार के कानों में शहनाइयों के सुर के बीच मे अचानक ढेरो पशुओं की चीत्कार की आवाज पड़ी। अहिंसक, व करूणता से भरे नेम कुमार के हृदय को अति वेदना हुई। उन्होंने सारथी द्वारा पता लगाया तब उन्हें ज्ञात हुआ कि विवाह में आये बारातियों की व्यवस्था हेतु बहुत सारे पशुओं को बंधक बनाया गया है।
नेमकुमार स्तब्ध हो गये।
अहो, एक मेरे विवाह निमित्त इतने सारे पशुओं को नारकीय वेदना!!!
नही नही! में उनकी इस वेदना का निमित्त नही बन सकता। ऐसे प्रारंभ से ही पग पग पर जहाँ हिंसा हो ऐसे विवाह बंधन में मुझे नही बंधना। मैं इस संसार का त्याग कर संयम अंगीकार करूँगा। और पशुओं को बाड़े से छुडा़कर वे बारात मोड़कर वापिस चले गए।
उन्हें समझाने का बहुत प्रयास किया गया पर अब नेमकुमार किसी पर राग द्वेष किये बिना संयमग्रहण के निर्णय पर बने रहे।
यह समाचार राजेमतीजी के लिए अत्यंत दुखदायी बने।
#बड़ीसाधुवंदना - 103
चेडा नी पुत्री , राखी धर्म सु प्रीत।
राजेमती विजया, मृगावती सुविनित ।105।
राजीमतीजी - 2
नेमकुमार की दीक्षा का निर्णय सुनकर राजीमती जी अत्यंत दुखी हो गये। अन्यत्र विवाह के लिए उन्होंने मातापिता को स्पष्ट मना कर दिया।
: - आर्य नारी एक बार मन से जिसे पति मान चुकी हो, अब वो भला दूसरे व्यक्ति से विवाह में कैसे बन्ध जाए?
नेमकुमार के वर्षिदान की परंपरा शुरू हुई। इस दौरान राजिमतीजी के सौंदर्य पर मुग्ध बने हुए रथनेमि जो कि नेमकुमार के सगे भाई थे। उन्होंने राजिमतीजी से विवाह करने के कई प्रयास किये। परन्तु राजिमतीजी अब मन से नेमकुमार को ही अपना पति मान चुकी थी। वे जो भी मार्ग चुने, उसका ही अनुसरण करने का दृढ़ मन बना चुकी थी।
राजीमती ने रथनेमि को कई दृष्टांत देकर समझाया। आख़िर जब वे नही माने तब एकबार एक युक्ति की।
उन्होंने रथनेमि जी आये तब बहुत सारा दूध पी लिया। फिर मदनफल ( जिसको सूंघने से पेट मे रहा सारा आहार वमन से बाहर आ जाता है। ) सूंघ कर रथनेमीजी के सामने ही कटोरे में वमन कर दिया। रथनेमि जी को कहा की उस दूध को पी लो। रथनेमीजी अवाक थे।
राजिमतीजी ने कहा : - जिस तरह वमन किया हुआ यह दूध आप पी नही सकते उसी तरह आपके भाई द्वारा त्यागी गयी मैं आपके लिए कैसे योग्य हो सकती हूं। संसार के भोग इसी वमन की तरह है। जिसे नेमकुमार ने त्याग दिया। अब मैं भी उनका ही अनुसरण करूंगी।
रथनेमि जी संभल गये। उन्होंने भी राजिमतीजी का आग्रह छोड़कर विरक्त बन गए।
इधर नेमकुमार ने दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा के 54 दिन बाद उन्हें केवल्यप्राप्ति हुई। नेमकुमार अब नेमप्रभु बन गए।प्रथम समोवसरण में उन्होंने साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका 4 संघ रूप तीर्थ की स्थापना की। राजिमतीजी ,रथनेमीजी आदी कई जनों ने दीक्षा ग्रहण की।
( उनकी दीक्षा के समय मे कुछ मान्यताभेद है। )।
एक बार फिर ऐसा अवसर आया कि रथनेमीजी काम कषाय में बहने लगे तब राजिमतीजी ने उन्हें पुनः समझाकर संयम में स्थिर किया। (आगे की गाथाओमे रथनेमीजी के वर्णन में हम यह पढ़ चुके है। )
इस तरह संयम की उत्कृष्ट आराधना करते हुए सतीरत्ना राजिमतीजी(राजुल ) अंत मे सिद्ध बुद्ध व मुक्त हुई।
#बड़ीसाधुवंदना - 104
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राजेमती विजया, मृगावती सुविनित ।105।
स्थूलभद्रजी, जंबूस्वामी आदि के काम कषाय पर विजय प्राप्ति की गाथा हमने पढ़ी। इसी श्रृंखला में जिनशासन में एक श्रावक श्राविका का नाम अविस्मरणीय है।
विजय - विजया जी
कौशांबी नगरी में अर्हद्दास नामक एक वैभवी श्रेष्ठि रहते थे। उनकी पत्नी का नाम था अर्हद्दासी । पुत्र विजय । पूरा परिवार अत्यंत वैभव में जीते हुए भी जैन मतावलंबी व धर्मनिष्ठ था। पुत्र विजय अन्य शिक्षाओं में प्रवीण बनने के साथ परिवार व माता के संस्कारो से धर्म मे भी अनुराग रखने वाला था। एकदा ऐसे ही किन्हीं श्रमण के दर्शन वन्दन करने गए तब उन मुनिके प्रभावी वाणी में ब्रह्मचर्य का वर्णन सुना। संस्कारी, जैन मुनिवचनो में दृढ़ निष्ठावान विजय ने मुनि के वचनों से प्रेरित होकर ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार करने का निर्णय लिया। पर थे तो गृहस्थी। भविष्य में ब्याह होगा। पत्नी भी आएगी। संसार धर्म भी निभाना होगा यह सोचकर मुनि से आंशिक ब्रह्मचर्य स्वीकार किया। इसमें हर माह के शुक्ल पक्ष के दिनों में ब्रह्मचर्य का संपूर्ण पालन। मुनि से प्रत्याख्यान लेकर आनन्दित होते हुए घर आये।
कुछ दिनों में एक श्रेष्ठी पुत्री सुंदर कन्या विजया से उनका विवाह भी संपन्न हुआ। शुक्ल पक्ष के वे दिन चल रहे थे।
विवाह पश्चात मधुरमिलन की प्रथम रात्री। कई स्वप्नों से सजी हुई रात को जंबूस्वामी की तरह विजय विजया ने भी धन्यातिधन्य बना दिया। कैसे : - जब विजय ने अपनी नवविवाहिता से अपने शुक्ल पक्ष के ब्रह्मचर्य के प्रत्याख्यान की बात सुनाई तब विजया ने एक नई बात उन्हें बताई। एक साध्वीजी से उन्होंने भी हर माह के कृष्ण पक्ष को ब्रह्मचर्य पालन के प्रत्याख्यान ले लिए थे।
एक के प्रत्याख्यान शुक्लपक्ष के, तो दूसरे के प्रत्याख्यान कृष्ण पक्ष के । यानी अब प्रत्याख्यान रहते दोनों का दैहिक मिलन असंभव।
अहो! अहो! अहो आश्चर्यम!
दोनो परस्पर के प्रत्याख्यान सुनकर खेदित नही हुए अपितु धन्यता व हर्ष की अनुभूति करने लगे। वीरांगना विजया के सहकार से अब आजीवन ब्रह्मचर्य पालने की अनुकूलता हो गई, यह सोचकर विजय व ऐसी ही सोच से विजया अत्यंत हर्षित हुए। पर विजया ने भावी चिंता व्यक्त की , जब इस घर - कुल का वारिस के लिए??
#बड़ीसाधुवंदना - 105
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विजय सेठ - विजया सेठानी जी - 2
उदार विजया ने विजय को शुक्ल पक्ष का ब्रह्मचर्य पालन भी हो, और इस घर को वारिस भी मिल जाये इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए विजय को दूसरा विवाह करने की विनती की। पर अब विजय सहज आ मिले त्याग के इस अवसर को खोना नही चाहते थे। विजय ने विजया की उदारता की सराहना करते हुए उसके प्रस्ताव का अस्वीकार किया। उन दोनों ने ब्रह्मचर्य व्रत को आजीवन पालने का दृढ़ निर्णय बना लिया।
पर यह बात गुप्त रहेगी। जब भी यह निर्णय सब को पता चलेगा, हम दोनों संयम अंगीकार करेंगे ।
इस निश्चय के साथ दोनों अपना जीवन धर्ममय मार्ग से जीने लगे। दिन बीते, सुहानी राते, फिर मादक वर्षा, वसंत आदि ऋतुएं, बरसो बीतने लगे। पर उनके व्रत को कोई भी समय डिगा न पाया। न किसी को पता चला। दोनो के खंड ब्रह्मचर्य व्रत को अखंड बनाकर पालन करते रहे। (एक कक्ष में अलग शय्या पर रहकर जीना-निद्रा लेना)
पर एक दिन अचानक!!!!!
अंगदेश में एक जिनदास नामक दृढ़ धर्मी, परम क्रियावान श्रावक रहता था। उसने प्रातःकाल में एक अजीब स्वप्न देखा। वे एकसाथ 84000 तपस्वी मुनियों को पारणा करवा रहे है। वे इस स्वप्न का अर्थ समझें नही।
ऐसे में एक केवली भगवन्त वहां पधारे। उन्होंने जिनदासको स्वप्नों के अर्थ बताते हुए कहा - की एक अखंड ब्रह्मचारी जोड़े को पारणा करवाने से 84000 तपस्वी साधु को पारणा करवाने जितना लाभ मिल सकता है।
जिनदास ने ऐसा जोडा कहा मिलेगा यह प्रतिप्रश्न किया। तब केवली प्रभुने कौशांबी के विजय विजया सेठानी का नाम दिया।
जिनदास जी कौशांबी आये। अर्हद्दास के घर आकर सभी नगरजनो के समक्ष उन दोनों की स्तुति करते हुए दोनो का व्रत सभी के सामने उजागर किया। सब स्तब्ध रह गए। लोगो ने इस त्यागी दंपत्ति की खूब अनुमोदना की।
अपने निर्णय अनुसार उनके व्रत का सभी को पता लग जाने के बाद संयम ग्रहण किया। स्व पर कल्याण करते हुए कई वर्षों तक विचरते रहे। अंत मे देह त्याग 8 कर्मोंका क्षय कर दोनो सिद्ध बुद्ध मुक्त बने।
#बड़ीसाधुवंदना - 106
चेडा नी पुत्री , राखी धर्म सु प्रीत।
राजेमती विजया, मृगावती सुविनित ।105।
मृगावतीजी - 1 : -
जिनशासन के वीर व धर्मनिष्ठ पात्र राजा चेटक की सात पुत्रियों के नाम हमने पढ़े, उनमे से एक नाम है मृगावतीजी। सुंदर, धर्म निष्ठ, कर्तव्य परायण मृगावतीजी का विवाह कौशांबी नरेश शतानीक के साथ हुआ था।
सुखमय दिन बीत रहे थे। राजमहल में मृगावती के पुत्र उदयन अभी छोटा ही था, इधर एक दु:खद घटना घटी। उस घटना के बीज कुछ इस तरह अनजाने बोये गये।
कौशांबी में एक निपुण चित्रकार रहता था। उसकी अविरत चित्र साधना से उसे एक अदभुत कला हस्तगत हो गई थी। वह किसी व्यक्ति का पांव का अंगूठा मात्र देख लेता तो वह उसका पूरा हूबहू चित्र बना सकता था।
उस कला के प्रदर्शन के लिए एकबार उसे राजमहल में बुलाया गया। महारानी मृगावती का पांव का अंगूठा देखकर उसने उनका चित्र बनाना शुरू किया। अदभुत कलाकारी। उसने सिर्फ अंगूठा देखा था पर महारानी का हूबहू चित्र बन रहा था। पर यह क्या? चित्र बनाते समय काले रंग का एक बूंद चित्र में महारानी की जंघा पर गिर गया। गलती हुई मॉनकर चित्रकार ने उस काली बून्द को साफ कर दिया। पर अहो आश्चर्यम ! दूसरी, तीसरी बार उसके हाथों से एक काले रंग की बूंद उसी जगह गिरी। तब चित्रकार ने उसे रहने दिया। वह बून्द जंघा पर स्थित एक तिल जैसे लग रही थी।
चित्र पूरा हुआ। राजा ने देखा वह भी इस कला से प्रसन्न हुआ पर जब उसकी नजर जंघा के तिल पर गई तब उसे संदेह हुआ : - इस चित्रकार को जंघा के तिल का कैसे पता? हो न हो उस ने गलत तरीके से कभी देखा होगा या रानी के साथ कभी गलत संबन्ध रहा होगा।
शंका के इस विष ने राजा शतानीक की मति भ्रमित कर दी।
जिस चित्रकार को पुरस्कृत करना चाहिए था उसे दण्ड स्वरूप दाहिने हाथ का अंगूठा कटवाकर देशनिकाला दे दिया।
वह चित्रकार अपने आप को अपमानित हुआ देखकर, राजा से बदला लेने का सोचा। उसने अपनी कला फिर आजमाई । बिना अंगूठे के ही , रानी मृगावती का सुंदर चित्र बनाकर , अवन्तिनरेश , स्त्री की सुंदरता जिसकी कमजोरी थी, ऐसे लंपट व कामी चण्ड प्रद्योत को दिखाया। और यही नही उसकी सुंदरता की स्तुति कर चण्डप्रद्योत को मृगावती को पाने के लिए लालायित कर दिया।
कामी नरेश चण्डप्रद्योत ने मृगावतीजी को प्राप्त करने के मोह में सार असार का विवेक छोड़कर कौशांबी पर अचानक आक्रमण कर दिया। सहसा हुए इस हमले से स्तब्ध शतानीक नरेश ने प्राण त्याग दिए।
अब राजमहल में लाचार असहाय नारी मृगावती , अपने नन्हे पुत्र के साथ । पर नही, वे एक वीर नारी थी। नगर के बाहर खुद को प्राप्त करने के लिए विशाल सेना लेकर बैठा शत्रु, सेना से भयभीत खुद की नगरी, महल में पति का देहांत इन विपरीत परिस्थिति में कुछ ही समय मे मृगावती ने अपने आप को संभाल लिया। खुद के शील की, नगरजनो की सुरक्षा, पुत्र उदायन का राज्य सिँहासन की सुरक्षा के लिए यह वीर रानी कटिबद्ध हुई।
उसने युक्ति आजमाई । नगरी के बाहर बैठे शत्रु को कहलवाया : - मैं अपने आपको समर्पण करने को तैयार हूं, पर अभी मेरे पति का देहांत हुआ है, 6 माह तक मुझे पति शोक से बाहर आने का समय दीजिये।
चण्डप्रद्योत भी मान कर नगरी में आक्रमण करने से रूक गया। वह 6 माह का समय देकर अवंति लौट गया। रानी ने तब तक अपनी नगरी की सुरक्षा के सघन प्रयास कर लिए।
6 माह बाद चण्डप्रद्योत ने अपने दूत भेजकर अपना वचन याद दिलवाया। तब सिंह समान चरित्र वाली महासती ने अपने चारित्र से डिगने का स्पष्ट इन्कार कर दिया। मैं राजा शतानीक की विधवा हूं, प्राण त्याग दूंगी परन्तु अपने शील को पतित नही होने दूंगी। किसी भी कीमत पर मैं चण्डप्रद्योत की रानी बनना स्वीकार नही करूंगी।
यह सुनकर आवेश में आया चण्डप्रद्योत ने पुनः कौशांबी पर आक्रमण कर दिया।
इसी दौरान वीरप्रभु का कौशांबी में पदार्पण हुआ। प्रभुकी देशना सुनने सभी पधारे। मृगावती भी उदयन के साथ थी। वहीँ चण्डप्रद्योत भी था। प्रभुकी देशना सुनकर मृगावती विरक्त हो गई। उसने वहीँ चण्डप्रद्योत से दीक्षा की आज्ञा मांगी।
जिस मृगावतीजी को पाने के लिए चण्डप्रद्योत 6 माह से उतावला हो रहा था, जिसके लिए विशाल सेना लेकर नगरी के बाहर बैठा था, क्या उसे वह दीक्षित होने के आज्ञा वह देगा??
#बड़ीसाधुवंदना - 107
चेडा नी पुत्री , राखी धर्म सु प्रीत।
राजेमती विजया, मृगावती सुविनित ।105।
मृगावतीजी - 2 : -
प्रभुकी देशना का प्रभाव , जहां जीव अपने जातिगत वैर भी भूल जाते है , उस प्रभुके अतिशय का ही चमत्कार था , कि चण्डप्रद्योत भी मान गया। उसने आक्रमण का विचार छोड़ उदयन को राजा बनाकर मृगावतीजी का दीक्षा समारोह किया।
मृगावतीजी चन्दनबाला जी आर्या की शिष्या बनी।
दीक्षित होकर संयम की उत्कृष्ट आराधना करने लगे।
एकबार आर्या मृगावती जी वीर प्रभुके समोवसरण में गुरुणी चन्दनबाला जी के साथ प्रभुकी दिव्य देशना सुन रही थी। उस समोवसरण मे सूर्य व चन्द्र आदि देव भी उपस्थित थे। यह भी एक आश्चर्य ही था कि ज्योतिष देव अपने मूल देह व विमान के साथ समोवसरण में उपस्थित थे।
देशना के बाद समय सूर्यास्त तक पहुंच गया। तेजस्वी देह व विमानों की वजह से समोवसरण में दिन जैसा ही उजाला था। आर्या चन्दनबाला जी अन्य संकेतो से दिन का अस्त हुआ समझकर अपनी साध्वी मर्यादा समझकर वँहा से उठकर चले गए। परन्तु वहां चल रही धर्मचर्चा में तल्लीन आर्या मृगावतीजी को सूर्यास्त के ध्यान कुछ देर बाद आया। वे तत्काल गुरुणी के पास आ गये।
गुरुणी जी ने एक हल्का उपालंभ व साध्वी आचार को समझने का, ऐसे व्यवहार रखने का सूचन किया।
मृगावतीजी को अपनी गलती का बेहद पश्चाताप हो रहा था। उस पश्चाताप में गुरुणी के लिए द्वेष नही, पर खुद की गलती का अफसोस था। उस गलती को भविष्य में न दोहराने का, संयम में उत्कृष्ट आराधना करने का चिंतन करने लगे। उनका चिंतन क्रमशः उर्ध्वगामी बनता गया। धीरे धीरे शुक्लध्यान में प्रविष्ट हो गए। और उसी रात उन्हें केवल्यप्राप्ति हो गई। लोकालोक की तीनो काल की समग्र वस्तु बिना किसी इन्द्रिय या मन की सहायता से प्रत्यक्ष दिखने लगी।
काजलसी काली रात में उन्होंने ज्ञान का प्रकाशपुंज प्राप्त कर लिया। कितना अदभुत वह चिंतन होगा!!!
गुरुणी चन्दनबाला जी वहीं निंद्रा में थे। उनके पास के संथारे ( सोने की जगह ) पर आर्या मृगावतीजी थे। अचानक उस अंधेरी रात में भी ज्ञान के प्रकाश में उन्होंने एक काले विषधर नाग को गुरुणी की शय्या के पास देखा। गुरुणी का हाथ उस विषधर के मार्ग में आनेवाला था। मृगावतीजी ने गुरुणी का हाथ हल्के से उठाकर दूसरी तरफ कर दिया। सांप चला गया। पर हाथ के स्पर्श से गुरुणी जी जाग गये। उन्होंने पूछा कि क्या हुआ, तब मृगावतीजी ने वहां से गुजरे सर्प की बात बताई।
चन्दनबाला जी आश्चर्यचकित हो गये, इतने अंधेरे में आपको काला सर्प कैसे दिखाई दिया? क्या कोई विशेष ज्ञान प्राप्त हुआ। तब आर्या मृगावतीजी ने कहा : - हां, आपकी कृपा से केवल्यप्राप्ति हुई है। यह केवली का भी गुरु के प्रति विनय देखने जैसा है।
गुरुणी को बहुत हर्ष हुआ, पर अचानक उन्हें शाम में दिए उपालंभ याद आया! अहो, मैने केवली को डांटा, उनकी आशातना की। इस दु:ख में वे विलाप करने लगे। उनसे ऐसी गलती कैसे हो गई, वह उनके रुदन की वजह बन गई। यह विलाप शुभत्त्व की ओर बढ़ा। धीरे-धीरे विलाप के स्थान पर शुक्लध्यान में प्रवेश किया। उर्ध्वचिन्तन की श्रृंखला में बढ़ते हुए उन्होंने भी उसी रात केवलज्ञान प्राप्त कर लिया।
अहो, अदभुत अदभुत था गुरु शिष्या का संयम, उनकी धर्म निष्ठा व संयम में सजगता, अपने दोषों के प्रति जागरूकता। जिससे उन्होंने केवल्यप्राप्ति तक हो गई।
मृगावतीजी ने केवलिपने में विचरते हुए अपना आयु पूर्ण कर अंत मे सिद्ध बुद्ध व मुक्त बने।
धन्य धन्य जिनशासनम !!!
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संकलन सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रन्थ से
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।
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सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रन्थ से
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।
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सन्दर्भ : - डॉ पद्ममुनि के ग्रन्थ से
इस कथानक को उपरोक्त ग्रन्थ से लिया है, किन्ही आगममे से नही। तत्त्व केवली गम्यं ।
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।
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सन्दर्भ : - डॉ पद्ममुनि के ग्रन्थ से
इस कथानक को उपरोक्त ग्रन्थ से लिया है, किन्ही आगममे से नही। तत्त्व केवली गम्यं ।
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।
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