कथा वृषभसेना की कथा

औषधिदान का महत्व

कावेरी नगरी में राजा उग्रसेन राज्य करते थे | उसी नगर में एक धनपति नाम सेठ रहता था जिसकी पत्नी का नाम धनश्री था। पूर्व पुण्य के उदय से धनश्री ने एक कन्या को जन्म दिया जिसका नाम वृषभसेना रखा गया। वृषभसेना को धाय रूपवती हमेशा नहलाया धुलाया करती थी। इसके नहाने का जल बह-बह कर एक गड्ढे में जमा होता रहता था।
एक दिन की बात है कि रूपवती वृषभसेना को नहला रही थी, उसी समय एक महारोगी कुत्ता उस गड्डे में गिर पड़ा। आश्चर्यजनक रूप से जब वह कुत्ता उस पानी से बाहर निकला तो बिलकुल निरोगी हो गया। यह देख रूपवती धाय को भी आश्चर्य हुआ और उसने सोचा कि मैं इस पानी की और परीक्षा करके देखूंगी तभी दृढ़ विश्वास हो सकेगा कि क्या यह जल सचमुच ही रोगनाशक है ? यह सोचकर रूपवती वृषभसेना के स्नान के जल को लेकर अपनी माँ के पास आई। उसकी माँ की आँखें बारह वर्षों से खराब थीं इससे वह बड़ी दुखी थी। माँ की आंखों को रूपवती ने इस जल से धोकर साफ किया और देखा तो उनका रोग बिलकुल समाप्त हो गया, वे पहले से भी अधिक सुन्दर हो गर्इं। पहले तो सेठ-सेठानी को इस घटना का पता ही नहीं लगा परन्तु इस रोगनाशक जल के प्रभाव से रूपवती चारों ओर बड़ी प्रसिद्ध हो गई। आंख, पेट, सिर, कोढ़ यहां तक कि जहर सम्बन्धी समस्त रोगों को रूपवती केवल इसी स्नानजल से ठीक करने लगी। एक दिन सेठजी के कानों तक भी रूपवती की महिमा सुनाई पड़ी तब सेठ ने अपनी धाय से इस बारे में पूछा। रूपवती धाय ने सारी सत्य घटना बता दी| सेठ और सेठानी पुत्री की विशेषता से परिचित होकर बहुत प्रसन्न हुए।
कावेरी नगरी के राजा उग्रसेन और मेघपिंगल राजा की पुरानी शत्रुता चली आ रही थी। एक बार दोनों राजाओं में युद्ध हुआ तब मेघपिंगल ने जहरीला शस्त्र उग्रसेन के ऊपर चला दिया जिससे उग्रसेन की तबियत काफी बिगड़ गई। जब किसी भी तरह उनकी हालत में सुधार नहीं हुआ तो रूपवती के जल की चर्चा सुनकर उग्रसेन ने अपने आदमियों को शीघ्र ही सेठ के यहां जल लाने भेजा। अपनी लड़की का स्नान जल लेने को राजा के आदमियों को आया देख सेठानी को कुछ संकोच हुआ कि मेरी लड़की के स्नान का जल राजा के मस्तक पर छिड़कना उचित नहीं जान पड़ता किन्तु सेठ ने कहा कि इसमें अपने बस की क्या बात है ? दोनों ने विचार कर वृषभसेना के स्नान का जल लेकर रूपवती को उग्रसेन के महल पर भेजा। रूपवती ने उस जल को राजा के सिर पर छिड़क दिया और उग्रसेन रोगमुक्त हो गये। रोगमुक्त होकर उग्रसेन ने रूपवती से जल का रहस्य पूछा तो रूपवती ने कोई बात न छिपाकर सच्ची बात राजा से कह दी। यह सुन राजा ने सेठजी को अपने पास बुलाकर वृषभसेना के साथ विवाह करने की इच्छा व्यक्त की। तब सेठ ने कहा—राजराजेश्वर! मुझे आपकी आज्ञा शिरोधार्य है किन्तु इसके साथ ही आपको आष्टाह्निक पूजा महान उत्सवपूर्वक करनी होगी और जो पशु-पक्षी पिंजरे में बन्द हैं उनको तथ समस्त कैदियों को मुक्त करना होगा, तब मैं अपनी पुत्री का विवाह आपके साथ कर सकता हूँ। राजा ने तुरन्त धनपति सेठ की सभी बातें स्वीकार कर लीं और उसी समय उन्हें कार्य रूप में परिणत कर दिया। शुभ मुहूर्त में वृषभसेना का विवाह हो गया। राजा की समस्त रानियों में पट्टरानी बनने का सौभाग्य उसे ही प्राप्त हुआ। राजा उग्रसेन उसके प्रेमपाश में इतना बंध गये कि राजकीय कार्यों में बहुत कम रूचि लेने लगे। परन्तु वृषभसेना उन स्वर्ग सरीखे सुखों को भोगते हुए भी अपना धर्म कर्म नहीं भूली ,वह प्रतिदिन प्रातःकाल आराधना करती ,चारों प्रकार के दान बाँटती, अपनी शक्ति के अनुसार व्रत,संयमादि का पालन करती और धर्मात्मा सत्पुरुषों की आदर-सत्कारपूर्वक वैयावृत्ति भी करती थी। इस प्रकार अपने गृहस्थोचित कर्तव्यों का पालन करती हुई वृषभसेना सुखपूर्वक जीवन यापन कर रही थी।
उग्रसेन ने विवाह के समय समस्त कैदियों को मुक्त कर दिया था किन्तु उनका एक शत्रु बनारस का राजा पृथ्वीचंद भी कैद था, वह अधिक दुष्ट था इसलिए उसे नहीं छोड़ा गया और वह अपने कर्मों का फल भोगता हुआ जेल में ही बन्द रहा| जब पृथ्वीचन्द्र की पत्नी नारायणदत्ता को ये सारा वृतांत ज्ञात हुआ तो उसने अपने मंत्रियों की सलाह से अपने पति को छुडवाने की युक्तियाँ प्रारम्भ कीं। सर्वप्रथम उसने बनारस में वृषभसेना के नाम से कई दानशालाएं खुलवार्इं। थोड़े ही दिनों में इन दानशालाओं की प्रसिद्धि चारों ओर फैल गई। जो इनमें एक बार भी भोजन कर जाता वह फिर इनकी तारीफ करने में कोई कमी नहीं रखता था। कावेरी के बहुत से ब्राह्मण भी यहां भोजन करने आते थे। उन लोगों ने कावेरी वापस जाकर उन दानशालाओं की बहुत प्रशंसा की। आखिर वृषभसेना की धाय रूपवती को कुछ ब्राह्मणों द्वारा ज्ञात हो गया कि बनारस नगरी में वृषभसेना के नाम की कई दानशालाएं चल रही हैं, तब उसे वृषभसेना के ऊपर बड़ा गुस्सा आया कि मुझसे बिना कुछ पूछे इसने बनारस में अपने नाम का प्रचार करना क्यों शुरू कर दिया ? उसने उसे उलाहना भी दिया। तब वृषभसेना ने कहा—माँ,मुझ पर तुम व्यर्थ ही नाराज होती हो। न तो मैंने कोई बनारस में दानशाला खुलवाई है और न मुझे उसका कुछ हाल मालूम है। माँ, इसका पता जरूर लगाना चाहिए कि यह सब षड्यंत्र किसके द्वारा रचा गया है ? रूपवती ने कुछ जासूसों को सच्ची हकीकत जानने के लिए बनारस भेजा तब इस बात का पता लगा कि वृषभसेना के विवाह के समय उग्रसेन ने सब कैदीयों को छोड़ने की प्रतिज्ञा की थी, लेकिन प्रतिज्ञा के अनुसार उन्होंने पृथ्वीचन्द्र को नहीं छोड़ा। रूपवती ने यह सारा हाल वृषभसेना को बताया। तब वृषभसेना ने उग्रसेन से प्रार्थना करके उसी समय पृथ्वीचन्द्र को छुड़वा दिया। पृथ्वीचन्द्र ने इस उपकार की कृतज्ञतावश उग्रसेन और वृषभसेना का एक बड़ा सुन्दर चित्र बनवाकर उनके चरणों में झुका हुआ स्वयं का चित्र बनवाया और वह चित्र उसने राजा उग्रसेन को भेंट किया अब पृथ्वीचन्द्र तो अपने बनारस नगर में सुखपूर्वक राज्य करने लगे। कावेरी और बनारस दोनों जगह अपूर्व शांति की स्थापना हो गई।
एक बार उग्रसेन ने अपने एक शत्रु मेघपिंगल पर चढ़ाई करने के लिये पृथ्वीचन्द्र को आज्ञा दी| पृथ्वीचंद्र का नाम सुनकर ही मेघपिंगल कांपने लगा और युद्ध का बिगुल बजने से पूर्व ही वह उग्रसेन की शरण में आकर क्षमायाचना करने लगा। उस समय उग्रसेन महाराज ने मेघपिंगल पर प्रसन्न होकर उसे अपना सामन्त राजा बना लिया।
एक दिन राजदरबार लगा हुआ था। उग्रसेन सिंहासन पर अधिष्ठित थे। उस समय उन्होंने एक प्रतिज्ञा की कि आज सामन्त राजाओं द्वारा जो भेंट आएगी वह आधी भेंट वृषभसेना को और आधी मेघपिंगल को दी जावेगी। उस दिन अधिक भेंट तो नहीं किन्तु दो बहुमूल्य सुन्दर रत्नकम्बल भेंट में आए। उग्रसेन ने अपनी प्रतिज्ञानुसार एक कम्बल मेघपिंगल को दे दिया और एक वृषभसेना के महल में भेज दिया। एक दिन मेघपिंगल की रानी उस कम्बल को ओढ़कर कुछ कार्यवश वृषभसेना के पास आई। संयोग की बात, वृषभसेना का कम्बल भी वहीं रखा था, वस्त्रों के उतारने, पहनने में कम्बल बदल गये और मेघपिंगल की रानी वृषभसेना का कम्बल ओढ़कर अपने घर आ गई । कुछ दिनों बाद मेघपिंगल उस कम्बल को ओढ़कर राजदरबार में चला गया। अब तो मानो तूफान आ गया। राजा उग्रसेन अपनी रानी का कम्बल मेघपिंगल के शरीर पर देखकर शंकित हो गये, उनके क्रोध का ठिकाना न रहा। देखो विजया! अकारण की राजा नाराज हो गए जबकि बेचारा मेघपिंगल इसका कोई कारण समझ न सका और राजा को क्रोधित देखकर उल्टे पैरों भागा। उसे भागते देखकर उग्रसेन का सन्देह और बढ़ता गया। उन्होंने एक ओर तो मेघपिंगल को पकड़ने आदमी भेजे और दूसरी ओर आवेश में भरे हुए महल में पहुंचे और उग्रसेन ने वृषभसेना को समुद्र में फिकवाने का हुक्म दे दिया। बेचारी वृषभसेना कुछ समझ न सकी, अपने पूर्वकृत कर्मों का फल समझकर अपने आत्मविश्वास के बल पर समुद्र में कूद गई। परन्तु उस सती के शील माहात्म्य से उसका बालबांका भी न हो सका बल्कि स्वर्ग से देवों ने आकर उसकी रक्षा की।
सत्य विदित होने पर उग्रसेन अपनी नासमझी पर बहुत पछताए और वृषभसेना से  महल वापस चलने के लिए बहुत प्रार्थना करने लगे। वृषभसेना ने यद्यपि पहले यह प्रतिज्ञा की थी कि इस कष्ट से छुटकारा पाते ही मैं दीक्षा ले लूंगी किन्तु राजा के अतीव आग्रह से उसने एक बार घर जाकर दो—चार दिन बाद पुनः दीक्षा लेने का निश्चय किया। दोनों राजमहल की ओर जा रहे थे कि रास्ते में गुणधर नामक एक अवधिज्ञानी मुनि मिल गये। राजा—रानी ने विनयपूर्वक उन्हें नमस्कार किया, फिर वृषभसेना मुनिराज से पुछा कि हे भगवन्! मैंने पूर्व जन्म में कौन सा पाप किया था जिसका फल मुझे भोगना पड़ा ? मुनि बोले—पुत्रि! सुन, तुझे तेरे पूर्व जन्म का हाल सुनाता हूँ। तू पिछले जन्म में एक ब्राह्मण की लड़की थी, तेरा नाम नागश्री था। इसी राजघराने में तू झाडू लगाया करती थी। एक दिन मुनिदत्त नाम के महामुनि उस महल के उद्यान में एक गड्ढे में बैठे ध्यान कर रहे थे। तूने झाडू लगाते समय कहा—ओ नंगे ढोंगी! यहां से उठ जा, मुझे सफाई करने दे, आज राजा साहब इधर आने वाले हैं। मुनि ध्यान में थे, कुछ नहीं बोले। तब तेरे को बड़ा गुस्सा आया, तूने सारे महल का कूड़ा, कचरा इकट्ठा करके मुनि के ऊपर डालकर ऊपर तक ढक दिया और महल में चली गई और मुनि आत्मध्यान करते हुए अडिग रहे। जब राजा उधर से निकले और उन्होंने कूड़े को हिलता हुआ जान कूड़ा हटवाकर देखा तो मुनि को देखकर पूरी सफाई की और उनकी पूजा आदि की। तूने ने जब यह सब देखा तो बहुत दुःखी हुई। मुनि के पास जाकर अपने अपराधों की क्षमायाचना करने लगी और तरह तरह की औषधि द्वारा मुनिराज का उपचार कर उन्हें स्वस्थ किया। उस सेवा के फल से नागश्री के पाप कर्म की स्थिति बहुत कम रह गई। कथा सुनाकर गणधर मुनिराज बोले—बेटी! मुनि के औषधिदान के फलस्वरूप ही तू इस जन्म में धनपति सेठ की पुत्री हुई है। तूने उस औषधिदान के प्रभाव से वह सर्वौषधि प्राप्त की है जो कि तेरे स्नान जल से अनेकों रोग क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं और मुनि को कचरे से ढककर जो उन पर घोर उपसर्ग किया था, उससे तुझे इस जन्म में अपने पति द्वारा झूठा कलंक लगा। यह सब सुनकर फिर वृषभसेना अपने महल भी नहीं गई। वहीं गुरू के चरणों में सब मोह, ममता छोड़कर गुणधर मुनि से आर्यिका दीक्षा धारण कर ली।
जिस प्रकार वृषभसेना ने औषधिदान देकर उसके फल को प्राप्त किया उसी प्रकार हम सभी को अपनी शक्ति के अनुसार साधुओं की वैयावृत्ति अवश्य करनी चाहिए एवं स्वप्न में भी कभी गुरुनिंदा या उनके ऊपर उपसर्ग नहीं करना चाहिए ।

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