कथा साध्वी सुकुमालिका

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🌷🌷🌷 साध्वी सुकुमालिका 🌷🌷🌷
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राजकुमारी सुकुमालिका बहुत ही रुपवान थी । उसके दोनों भाईयों ने जैनाचार्यो से दीक्षा ग्रहण की थी । भाईयों के चेहरों पर साधुता का तेज चमकता था । उस पंथ पर प्रयाण करने का राजकुमारी का भी मन हुआ । संयम का पंथ कैसा महान ! कर्म के बंधन टूटे और मुक्ति का मार्ग प्राप्त हो । अपने दोनों भाईयों की धर्मभावना का प्रतिघोष बहन के हृदय में गुंजित हो उठा । राजकुमारी सुकुमालिका राजमहल का सुख छोड़कर त्याग की राह पर चल पड़ी । उसके अंतर में धर्मभावनाओं का सागर लहराता था ।

राजकुमारी सुकुमालिका साध्वी सुकुमालिका हुई , परंतु साध्वी के श्वेत वेश में भी उसका सौंदर्य छिपता नही था । उसके अद्वितीय रुप के कारण कामी पुरुषों की दृष्टि उस पर पड़ती थी । साध्वी सुकुमालिका ने सोचा कि सारी दुनिया बाहृ रुप के पीछे पागल बनी है । अपना यह रुप किसी व्यक्ति में कामना उत्पन्न करता है , तो किसी व्यक्ति में वासना बहकाता है ।

उसने अपनै बाहृ सौंदर्य को तप तथा त्याग द्वारा आंतरिक सौंदर्य में परिवर्तित करने का विचार किया । तप के मारे बाहृ रुप मुरझाये , परंतु भीतरी रुप पूर्णरुपेण विकसित हो उठे । तप तो आध्यात्मिक जीवन का बसंत है । ऐसा बसंत कि जहाँ फिर कभी पतझड़ नही आती । साध्वी सुकुमालिका अनशन करके कठोर तप करने लगी । उसके दोनों मुनिबंधु घोर तपश्चर्या करती हुई अपनी भगिनी की रक्षा के लिए चौकी-पहरा देने लगे ।

साध्वी सुकुमालिका की अनशनयुक्त तपोयात्रा अविरत रुप से चलने लगी । दोनों भाई उसकी देख-रेख रखते , ताकि साध्वी के तप में तनिक भी अवरोध न आये । कोई मलिन वृतिवाला व्यक्ति उसे परेशान न करें । सिंह -बाघ अथवा हिंसक पशु उसे कष्ट न पहुँचायें । निर्विघ्न चल रही इस तपयात्रा में उत्कृष्टता आयी और साध्वी सुकुमालिका तप के कारण धरती पर गिर पड़ी । दोनों भाईयों को ऐसा लगा कि अपनी बहन मर गई है , अतः वे उसके शरीर को वन में रखकर नगर में आ गये ।

कुछ देर बाद वन में शीतल वायु से सुकुमालिका जागी । मानों उसकी काया में प्राण पुनः संचारित हुए हो । वह उठ खड़ी हुई । आसपास देखा तो अपने मुनिबंधु कहीं भी नजर नही आये । वह भयभीत हो उठी । इस घोर वन में अपना क्या होगा ? इस समय इस वन से व्यापार की वस्तुओं से लदे बैलों के झुंडो के साथ एक सार्थवाह ( व्यापारी सौदागर ) गुजर रहा था । इस सार्थवाह ने जंगल में एक अकेली आक्रंद करती हुई साध्वी को देखा । उसके मन में दया जाग उठी । वह सुकुमालिका को अपने घर ले गया और निर्दोष भाव तथा निष्कपट स्नेह से उसकी सेवा करने लगा । अति परिचय हो जाने के कारण संयोग से दोनों के बीच अनुराग उत्पन्न हुआ । सुकुमालिका सार्थवाह की पत्नी बन गई और उसका संसार सम्हालने लगी । जीवन में पहाड़ों की ऊँची चढ़ाई हमेशा कठिन होती है । उध्वर्गमन या ऊँची चढ़ाई में एक-एक सोपान चढ़ने के लिए दृढ़ संकल्पशक्ति एवं प्रबल पुरुषार्थ चाहिए । परंतु पतन की घाटी में उतरने के लिए कोई सोपान नही होता । उसकी फिसलनवाली भूमि पर मानव फिसलता ही रहता है ।

एक समय इस नगर में दो मुनि आये और घूमते-घूमते गोचरी के लिए इस सार्थवाह के यहाँ आ पहुँचे । इन दोनों मुनियों ने संसारी बनी हुई सुकुमालिका को नही पहचाना , परंतु सुकुमालिका तुरंत ही अपने दोनों मुनि भाईयों को पहचान गई । दोनों भाईयों ने तो माना था कि साध्वी सुकुमालिका ने वन में प्राण त्याग दिये थे , परंतु यहाँ तो संसारी सुकुमालिका को दृष्टि समक्ष देखा । दोनों मुनियों ने सच्ची परिस्थिति और घटित घटनाएँ जानी । अपनी बहन को पुनः संसार में आई हुई देखकर मुनिराजों को गहरा सदमा पहुँचा ।

सुकुमालिका को भी अपने भव्य भूतकाल का स्मरण हुआ और त्याग के मार्ग में प्राप्त विरल आनंद याद आया । मन-ही-मन सोचने लगी कि सद्गति के पंथ के बदले में मैं कैसी दुर्गति के मार्ग पर मुड़ गई ! मुनियों ने सुकुमालिका को संसार की असारता और मुक्ति की महत्ता का उपदेश दिया । सुकुमालिका ने पुनः संयम अपनाकर वही तपश्चर्या का कठिन मार्ग ग्रहण किया । उसे अनशन किया । आत्मकल्याण प्राप्त किया और इस भव को सार्थक बनाया ।

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साभार: जिनशासन की कीर्तिगाथा

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