कथा कपिल मुनि

कपिल के पिता काश्यप ब्राह्मण चौदह विद्याओं के ज्ञाता और कौशाम्बीनरेश जितशत्रु की राजसभा के एक रत्न थे| राजा उन्हें बहुत सम्मान देता था| बहुत ही ठाट बाट से वे राज सभा को जाते थे|
एक दिन काश्यप ब्राह्मण की मृत्यु हो गई| अचानक ही ब्राह्मण की मृत्यु हो जाने से उसकी पत्नी यशा और अल्पवयस्क पुत्र कपिल अनाथ हो गए| राज जितशत्रु ने उनके स्थान पर दुसरे विद्वान को नियुक्त कर दिया| अब वह ब्राह्मण ठाट बाट से राज्य सभा में जाने लगा| उस नए राजपंडित को देख कर यशा की आँखों से आंसू छलक आते|

एक बार कपिल ने माँ की आंसुओं का कारण पूछा तो माँ ने सब कुछ बताकर कहा, "पुत्र! जिस समय तुम्हारे पिता का स्वर्गवास हुआ, उस समय तुम अल्पवयस्क थे, इसलिए राजा ने किसी दुसरे ब्राह्मण को राजपंडित बना दिया, और वह सारा सम्मान तथा ऐश्वर्य जो तुम्हारे पिता को मिलता था अब उसे मिलता है, हमें तो अब भुला दिया गया है| परन्तु पुत्र! अब भी यदि तुम विद्या प्राप्त कर विद्वान बन जाओ तो तुम्हारे पिता का पद तुम्हें मिल सकता है|
यह सुनकर कपिल ने पढने की इच्छा प्रकट की तो माँ ने कहा, " पुत्र! यहाँ तो कोई पंडित तुम्हें नहीं पढ़ाएगा नहीं| पिता की विद्वता से सभी इर्ष्या करते थे| तुम श्रावस्ती चले जाओ| वहाँ तुम्हारे पिता के मित्र इन्द्रदत्त उपाध्याय हैं| वे तुम्हें विद्याओं में निष्णात बना देंगे|
माँ का आशीर्वाद प्राप्त कर कपिल श्रावस्ती पँहुचा| वहाँ वह इन्द्रदत्त उपाध्याय से मिला तथा अपना परिचय दिया| इन्द्रदत्त ने कपिल को पढ़ानें का आश्वासन दिया और उसके भोजन तथा निवास की व्यवस्था नगर जे धनी श्रेष्ठी शालिभद्र के यहाँ कर दी| श्रेष्ठी ने कपिल की सेवा के लिए एक दासी नियुक्त कर दी|
अब कपिल दिनभर इन्द्रदत्त उपध्याय के यहाँ रहकर अध्ययन करता और संध्या के समय श्रेष्ठी के यहाँ आ जाता और वहीँ विश्राम करता|
दासी और कपिल दोनों युवा थे, सुन्दर थे, हँसमुख थे| परस्पर आकर्षित हो गए| दासी कपिल के प्रति समर्पित हो गई| किन्तु दोनों धनहीन थे| दासी तो दासी ही थी और कपिल भी अध्ययन हेतु आया हुआ था, दूसरों की दया पर निर्भर था अत: धन होने का तो प्रश्न ही नहीं था|
एक बार श्रावस्ती में कोई विशाल जन महोत्सव होने वाला था| दासी की इच्छा भी उसमें सम्मिलित होने की थी, लेकिन महोत्सव के योग्य उसके पास वस्त्र भी नहीं थे| दासी ने अपनी इच्छा कपिल के समक्ष प्रकट की तो अपनी धनहीनता के कारण वह उदास हो गया|
दासी ने धनप्राप्ति का एक उपाय बताया| उसने कहा, " नगर में एक धन कुबेर श्रेष्ठी है, प्रात: जो ब्राह्मण उसे सबसे पहले आशीर्वाद देता है वह उसे दो माशा सोना देता है| तुम प्रात: सबसे पहले वहीँ चले जाना|" कपिल ने भी प्रात: वहाँ सबसे पहले पँहुचने की ठान ली|
दूसरा कोई ब्राह्मण आशीर्वाद देने पहले न पँहुच जाए, इस चिंता में कपिल को नींद ही नहीं आई, बार बार उसे लगता की दिन होने वाला है| यही सोचते हुए उसे भ्रम हुआ की सुबह होने वाली है और यह सोचकर वो आधी रात को ही उठकर सेठ के घर की ओर चल दिया| राज सेवकों ने उसे चोर समझ कर पकड़ लिया और सुबह होने पर उसे श्रावस्ती के राजा प्रसन्नजीत के सामने प्रस्तुत किया|
राजा के पूछने पर कपिल ने सब कुछ स्पष्ट बता दिया| उसकी सरलता और सत्यवादिता से प्रभावित होकर राजा ने मन इच्छित धन देने का वचन दिया| कपिल वहीँ खड़े खड़े सोचने लगा की कितना धन मांगू- सौ मुद्राएँ, नहीं ! इतने से क्या होगा ? तो दो सौ मांगू ? शादी करनी है घर भी बसाना है, यह भी कम हैं!  इस तरह उसकी इच्छा बढती गई| हजारों, लाखों स्वर्ण मुद्राओं तक पँहुच गई फिर भी उसकी तृष्णा शांत नहीं हुई, अंत में सोचने लगा की राजा ने तो वचन दिया है, क्यों ना इसका राज्य ही मांग लूँ|
तभी उसके चिंतन को गहरा झटका लगा| दो माशा स्वर्ण से पूर्ण होने वाला कार्य करोड़ स्वर्णमुद्राओं से भी नहीं हो रहा है| इन इच्छाओं के गढ्ढे को भरना तो असंभव है| कपिल का मन विरक्त हो गया|
इधर कपिल को काफी देर तक विचारों में खोया देख राजा ने उसे पूछा, "बोलो ब्राह्मण!  तुम्हें कितना धन चाहिए"
कपिल ने कहा, "हे राजन! अब मुझे किसी वस्तु की इच्छा नहीं है| जो मुझे पाना था वह मैं प् चूका हूँ|"
इतना कहकर कपिल राज्य सभा से निकल गए और निर्ग्रन्थ श्रमण बन गए| वे छह मास तक छाद्मस्त रहे और फिर केवली हो गए| 

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