धर्म कथाए
दो पापी
मगध सम्राट महाराज श्रेणिक का दरबार भरा हुआ था। अत्यन्त प्रतिभाशाली राजकुमार अभयकुमार प्रधानमन्त्री के आसन पर विराजमान थे। बड़े-बड़े सामन्त तथा दरबारी अपने-अपने स्थान पर बैठे थे। प्रजा सम्बन्धी बातें होने लगीं। उसी सिलसिले में श्रेणिक ने पूछा, ‘‘अभयकुमार! क्या तुम यह बता सकते हो कि राजगृह में धर्मात्मा कितने हैं और पापी कितने हैं?’’
अभयकुमार ने उत्तर दिया, ‘‘महाराज! इसमें कौन-सी बड़ी बात है?’’
दूसरे दिन राजगृह में यह घोषणा हो गयी-‘‘महाराज श्रेणिक यह जानना चाहते हैं कि उनके नगर में धर्मात्मा कितने हैं और पापी कितने हैं? इसके लिए नगर के बाहर उद्यान में दो घेरे बनाये गये हैं। जो पापी हों, वे काले घेरे में चले जाएँ और जो धर्मात्मा हों वे सफेद घेरे में।’’
श्रेणिक की आज्ञा को कौन टाल सकता था? सभी नगरवासी घेरों में पहुँच गये। अभय कुमार ने देखा, सफेद घेरा खचाखच भरा हुआ है और काले घेरे में केवल दो व्यक्ति हैं। छानबीन शुरू हुई!
सफेद घेरे में घुसते ही एक वेश्या मिली। अभयकुमार ने पूछा, ‘‘देवि, तुम क्या करती हो? अपने को धर्मात्मा सिद्ध करने के लिए तुम्हारे पास क्या आधार है?’’
वेश्या ने उत्तर दिया, ‘‘मन्त्रिवर! मैं एक वेश्या हूँ। लोग अन्न और पानी देने वालों को तो धर्मात्मा कहते हैं और मुझे पापी। पता नहीं यह भेद-भाव क्यों किया जाता है? मेरी दृष्टि में यह सर्वथा अन्याय है। हमारे ही कारण आपके द्वारा बनायी गयी सारी मर्यादाएँ टिकी हुई हैं। सतीत्व या पतिव्रत नाम की जिस मर्यादा को आप लोग महत्त्व देते हैं वह हमसे ही टिकी हुई है। हम अपने ऊपर लांछन सहन करके भी दूसरों के धर्म की रक्षा करती हैं। हम स्वयं कलंकित होकर भी दूसरों को निष्कलंक रखती हैं। स्वयं विष पीकर दूसरों को अमृत बाँटती हैं। समाज हमें घृणित कहता है, पतित कहता है, नीच कहता है। शास्त्रों की मान्यताएँ भी हमारे विरुद्ध हैं। समाज हमें अपना अनावश्यक अंग मानता है और कोसता भी है। मन्त्रिराज, समाज की सारी भर्त्सनाएँ सहकर भी हम अपने धर्म पर स्थिर हैं।’’
अभयकुमार आगे बढ़ा, एक जुआरी सामने आया। उससे भी वही प्रश्न पूछा गया।
जुआरी बोला, ‘‘राजकुमार! मैं एक जुआरी हूँ। मेरा धन्धा सर्वथा निर्दोष तथा अहिंसापूर्ण है। मैं न किसी को मारता हूँ, न पीटता हूँ, न अन्य प्रकार का कष्ट देता हूँ। मुझे अपने धन्धे में किसी जीव पर हिंसा नहीं करनी पड़ती। हमारा धन के साथ कोई मोह नहीं होता। हजारों रुपये खेल-खेल में दे डालते हैं। दुनिया हमें बुरा कहती है, कहे किन्तु हमें अपना धन्धा सर्वथा निर्दोष प्रतीत होता है।’’
आगे बढ़ने पर शराबी मिला। उसने बताया, ‘‘मेरे पिता बहुत बड़े व्यापारी थे। मेरे लिए लाखों की सम्पत्ति छोड़ गये हैं। इसलिए अब कमाने की आवश्यकता नहीं है। मैंने सन्तोष धारण कर रखा है। धन के लिए मारामारी नहीं करना चाहता। जो सम्पत्ति उन्होंने संचित की थी उसे खर्च करना मेरा काम है। आप जानते हैं, सम्पत्ति का संचय करना और संचय रखना दोनों पाप हैं। मैं अब उस पाप का परिमार्जन कर रहा हूँ। आर्थिक दृष्टि से भी रुपया घूमता ही रहना चाहिए। उसका कहीं अटके रहना देश की आर्थिक उन्नति में बाधक है। मुझे इस बात का पूरा ध्यान है।
‘‘मन्त्रिवर! जब मैं शराब पी लेता हूँ तो अपना सारा सुख तथा दुख भूल जाता हूँ। मुझे न किसी से राग रहता है, ने द्वेष। शत्रु और मित्र बराबर हो जाते हैं। शराब पी लेने पर मनुष्य अपने संकुचित वातावरण को भूल जाता है। स्वार्थपूर्ति को छोड़ देता है। उस समय वह द्वन्द्वातीत अवस्था को पहुँच जाता है। राजकुमार, क्या यह अधर्म है? क्या यह पाप है?’’
आगे बढ़े! एक शिकारी मिला। अभयकुमार ने पूछा, ‘‘तुम पशुओं को मारते हो फिर भी इस घेरे में क्यों आये?’’
‘‘अमात्यवर! कौन किसको मारता है और कौन किसको उत्पन्न करता है।’’ शिकारी ने दार्शनिक बनते हुए कहा।
‘‘सभी जीव अपने-अपने किये हुए कर्मों के अनुसार भटक रहे हैं। अपना आयुष्य पूरा हुए बिना कोई नहीं मरता। मैं तो केवल निमित्त बना दिया जाता हूँ।
‘‘सिंह, व्याघ्र आदि हिंस्र पशु मार्ग में चलते हुए मनुष्यों को मार डालते हैं।
‘‘राजकुमार! खाना-पीना, उठना-बैठना, चलना-फिरना आदि हमारी प्रत्येक क्रिया में जीव-हिंसा तो होती ही रहती है। यदि थोड़ी-सी हिंसा से अधिक लोगों की भलाई हो तो वह पाप नहीं है।’’
शिकारी का उत्तर सुनकर अभयकुमार और आगे बढ़े। उसे कई और लम्पट मिले। चोर मिले, धूर्त मिले, लुटेरे मिले। सभी ने अपनी-अपनी सफाई पेश की। अभयकुमार सबकी बात सुनता हुआ आगे बढ़ता गया।
सफेद घेरे का चक्कर पूरा करके वह काले घेरे में पहुँचा। वहाँ केवल दो व्यक्ति थे। एक अधेड़ था, दूसरा युवक। दोनों नगर के प्रतिष्ठित धनवान थे। उदारता, ईमानदारी तथा सच्चाई आदि गुणों के लिए दूर-दूर तक प्रसिद्ध थे। उन्हें काले घेरे में देखकर अभयकुमार को आश्चर्य हुआ। उसने युवक की ओर लक्ष्य करके पूछा-
‘‘भद्रपुरुष! आप इस काले घेरे में क्या खड़े हैं। आपने कौन-सा पाप किया है?’’
युवक ने कहना प्रारम्भ किया - ‘‘मन्त्रिराज! मेरे पिता इसी नगर के महासम्पन्न व्यक्ति थे। घर में सब प्रकार का सुख था। एक बार हमारा बड़ा जहाज विक्रय वस्तुएँ भरकर विदेश के लिए रवाना हुआ। उसमें हीरे, माणिक्य आदि बहुमूल्य वस्तुएँ थीं। हमारे अतिरिक्त नगर के बड़े-बड़े व्यापारियों का माल लदा हुआ था। रास्ते में तूफान आया और जहाज एक चट्टान से टकराकर डूब गया। उसमें जिन व्यापारियों का माल था, मेरे पिता ने सबका पैसा-पैसा चुका दिया। उन्हीं दिनों इस प्रकार की दो घटनाएँ और हो गयीं। हमारे पास कुछ न बचा। मानसिक आघात और अथक परिश्रम के कारण पिताजी बीमार पड़ गये और फिर न उठे।
‘‘घर में मेरी माता थी, मैं था और दो बहनें थीं। वे विवाह योग्य हो गयी थीं। इधर हमारा निर्वाह भी कठिनाई से हो रहा था।
‘‘एक दिन मेरी माता ने कहा, बेटा! इस प्रकार कैसे काम चलेगा? गुजारा तो करना ही होगा। मैं एक उपाय बताती हूँ। सेठ जिनदास उपाश्रय में प्रतिदिन सामायिक करते हैं। उस समय वह अपना मोतियों का हार उतारकर रख देते हैं। तुम जाओ और उसे उठा लाओ।
‘‘मैं सुनकर चकित रह गया। लाखों की सम्पत्ति जिनके चरणों में लोटती थी उस माता के मुँह से ये शब्द! अभाव किस प्रकार नैतिक पतन का कारण बन जाता है, उसका यह ज्वलन्त उदाहरण था। चोरी और धर्म के स्थान में! मुझे चुप देखकर माँ ने फिर वही बात दोहरायी। यहाँ तक कह दिया, यदि तुम यह कार्य न करोगे तो मैं अनशन करके मर जाऊँगी।
‘‘मुझे तैयार होना पड़ा। उपाश्रय में पहुँचा। सेठजी सामायिक में बैठे थे। पास ही हार पड़ा था। मैं हिचकिचाया, किन्तु माँ की बात याद आते ही फिर आगे बढ़ा। मेरे सभी अंग काँप रहे थे, सुध-बुध खो बैठा था। किन्तु एक अज्ञात प्रेरणा मुझे उस बुराई की ओर बढ़ाये ले जा रही थी।
‘‘मैंने हार उठा लिया। वह कुछ न बोले। मैं घर चला आया और माँ के सामने हार रख दिया।
‘‘माँ ने फिर कहा, इसे उन्हीं सेठजी के पास गिरवी रखकर दस हजार रुपये उधार ले आओ।
‘‘मैं उलझन में पड़ गया। उनके देखते हुए चोरी की। अब उसी चोरी की हुई वस्तु को, जो उन्हीं की है, गिरवी रखकर उधार लेने जाऊँ। यह भी कोई बात है? वह क्यों देने लगे? हार रख लेंगे और मुझे पुलिस के हवाले कर देंगे। यदि दयालु हुए तो धक्के देकर निकाल देंगे। हार भी जाएगा और चोर के रूप में प्रसिद्ध भी हो जाऊँगा।
‘‘किन्तु माँ न मानी। मुझे जाना पड़ा। सेठ जी के यहाँ पहुँचा तो उन्होंने बिना कुछ पूछे दस हजार रुपये दे दिये।
‘‘मेरी आत्मा पर चोट-सी लगी। यदि मुझे पकड़वा देते या धक्के देकर निकाल देते, तो मैं समझता कि मेरे पाप का प्रायश्चित्त हो गया। उनकी सहानुभूति से वह पाप मेरी अन्तरात्मा के सामने प्रचण्ड रूप में चमकने लगा। मैं भारी पैरों के साथ रुपये लेकर घर चला आया।
‘‘हमने व्यापार किया। भाग्य ने पलटा खाया। अब अवस्था सुधर गयी है। सेठ जी के रुपये लौटा दिये हैं। हार भी उन्हीं के पास है। फिर भी कुमार! मेरे मन में रह-रहकर पश्चात्ताप हो रहा है। क्या हार उठाकर मैंने पाप नहीं किया? मैं अपने को पापी मानता हूँ और इसीलिए इस घेरे में खड़ा हूँ।’’
उसके बाद सेठ जिनदास से पूछा गया। सेठजी ने कहा, ‘‘कुमार! मैंने अपने जीवन में एक पाप किया है। उसका मुझे अभी तक पश्चात्ताप है। जब तक उसका प्रायश्चित्त न कर लूँ, मैं अपने को पापी मानता रहूँगा।’’
उसने युवक की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘इसके पिता से मेरी गहरी मित्रता थी। जब उसका देहान्त हुआ, मैं इनकी आर्थिक परिस्थिति से पूर्ण परिचित था। मेरे मन में कई बार आया कि इनको सहायता पहुँचाऊँ। किन्तु आज-कल करते-करते बात पुरानी पड़ गयी और मुझे ख्याल न रहा। मेरी आँखें उस दिन खुलीं जिस दिन यह हार उठाकर ले गया। मेरे मन में आया इसकी चोरी के लिए मैं उत्तरदायी हूँ। मेरा कर्तव्य था कि समय रहते इनकी सहायता करता और यह अवसर न आने देता। अमात्यवर! शक्ति रहते हुए किसी की सहायता न करना क्या पाप नहीं है? कोई बालक मेरा मकान गिरा रहा हो और हम नीचे खड़े देखते रहें, उसे मना न करें तो क्या यह पाप नहीं है?
‘‘राजकुमार! एक सत्यनिष्ठ, धर्मपरायण मित्र के पुत्र को यदि मैं चाहता तो गड्ढे में गिरने से बचा सकता था। मैं आलस्य में पड़ा रहा। मैंने स्थिति की गम्भीरता का अनुभव नहीं किया। इसी कारण तो मुझसे यह पाप हो गया।’’
अभयकुमार ने उत्तर दिया, ‘‘महाराज! इसमें कौन-सी बड़ी बात है?’’
दूसरे दिन राजगृह में यह घोषणा हो गयी-‘‘महाराज श्रेणिक यह जानना चाहते हैं कि उनके नगर में धर्मात्मा कितने हैं और पापी कितने हैं? इसके लिए नगर के बाहर उद्यान में दो घेरे बनाये गये हैं। जो पापी हों, वे काले घेरे में चले जाएँ और जो धर्मात्मा हों वे सफेद घेरे में।’’
श्रेणिक की आज्ञा को कौन टाल सकता था? सभी नगरवासी घेरों में पहुँच गये। अभय कुमार ने देखा, सफेद घेरा खचाखच भरा हुआ है और काले घेरे में केवल दो व्यक्ति हैं। छानबीन शुरू हुई!
सफेद घेरे में घुसते ही एक वेश्या मिली। अभयकुमार ने पूछा, ‘‘देवि, तुम क्या करती हो? अपने को धर्मात्मा सिद्ध करने के लिए तुम्हारे पास क्या आधार है?’’
वेश्या ने उत्तर दिया, ‘‘मन्त्रिवर! मैं एक वेश्या हूँ। लोग अन्न और पानी देने वालों को तो धर्मात्मा कहते हैं और मुझे पापी। पता नहीं यह भेद-भाव क्यों किया जाता है? मेरी दृष्टि में यह सर्वथा अन्याय है। हमारे ही कारण आपके द्वारा बनायी गयी सारी मर्यादाएँ टिकी हुई हैं। सतीत्व या पतिव्रत नाम की जिस मर्यादा को आप लोग महत्त्व देते हैं वह हमसे ही टिकी हुई है। हम अपने ऊपर लांछन सहन करके भी दूसरों के धर्म की रक्षा करती हैं। हम स्वयं कलंकित होकर भी दूसरों को निष्कलंक रखती हैं। स्वयं विष पीकर दूसरों को अमृत बाँटती हैं। समाज हमें घृणित कहता है, पतित कहता है, नीच कहता है। शास्त्रों की मान्यताएँ भी हमारे विरुद्ध हैं। समाज हमें अपना अनावश्यक अंग मानता है और कोसता भी है। मन्त्रिराज, समाज की सारी भर्त्सनाएँ सहकर भी हम अपने धर्म पर स्थिर हैं।’’
अभयकुमार आगे बढ़ा, एक जुआरी सामने आया। उससे भी वही प्रश्न पूछा गया।
जुआरी बोला, ‘‘राजकुमार! मैं एक जुआरी हूँ। मेरा धन्धा सर्वथा निर्दोष तथा अहिंसापूर्ण है। मैं न किसी को मारता हूँ, न पीटता हूँ, न अन्य प्रकार का कष्ट देता हूँ। मुझे अपने धन्धे में किसी जीव पर हिंसा नहीं करनी पड़ती। हमारा धन के साथ कोई मोह नहीं होता। हजारों रुपये खेल-खेल में दे डालते हैं। दुनिया हमें बुरा कहती है, कहे किन्तु हमें अपना धन्धा सर्वथा निर्दोष प्रतीत होता है।’’
आगे बढ़ने पर शराबी मिला। उसने बताया, ‘‘मेरे पिता बहुत बड़े व्यापारी थे। मेरे लिए लाखों की सम्पत्ति छोड़ गये हैं। इसलिए अब कमाने की आवश्यकता नहीं है। मैंने सन्तोष धारण कर रखा है। धन के लिए मारामारी नहीं करना चाहता। जो सम्पत्ति उन्होंने संचित की थी उसे खर्च करना मेरा काम है। आप जानते हैं, सम्पत्ति का संचय करना और संचय रखना दोनों पाप हैं। मैं अब उस पाप का परिमार्जन कर रहा हूँ। आर्थिक दृष्टि से भी रुपया घूमता ही रहना चाहिए। उसका कहीं अटके रहना देश की आर्थिक उन्नति में बाधक है। मुझे इस बात का पूरा ध्यान है।
‘‘मन्त्रिवर! जब मैं शराब पी लेता हूँ तो अपना सारा सुख तथा दुख भूल जाता हूँ। मुझे न किसी से राग रहता है, ने द्वेष। शत्रु और मित्र बराबर हो जाते हैं। शराब पी लेने पर मनुष्य अपने संकुचित वातावरण को भूल जाता है। स्वार्थपूर्ति को छोड़ देता है। उस समय वह द्वन्द्वातीत अवस्था को पहुँच जाता है। राजकुमार, क्या यह अधर्म है? क्या यह पाप है?’’
आगे बढ़े! एक शिकारी मिला। अभयकुमार ने पूछा, ‘‘तुम पशुओं को मारते हो फिर भी इस घेरे में क्यों आये?’’
‘‘अमात्यवर! कौन किसको मारता है और कौन किसको उत्पन्न करता है।’’ शिकारी ने दार्शनिक बनते हुए कहा।
‘‘सभी जीव अपने-अपने किये हुए कर्मों के अनुसार भटक रहे हैं। अपना आयुष्य पूरा हुए बिना कोई नहीं मरता। मैं तो केवल निमित्त बना दिया जाता हूँ।
‘‘सिंह, व्याघ्र आदि हिंस्र पशु मार्ग में चलते हुए मनुष्यों को मार डालते हैं।
‘‘राजकुमार! खाना-पीना, उठना-बैठना, चलना-फिरना आदि हमारी प्रत्येक क्रिया में जीव-हिंसा तो होती ही रहती है। यदि थोड़ी-सी हिंसा से अधिक लोगों की भलाई हो तो वह पाप नहीं है।’’
शिकारी का उत्तर सुनकर अभयकुमार और आगे बढ़े। उसे कई और लम्पट मिले। चोर मिले, धूर्त मिले, लुटेरे मिले। सभी ने अपनी-अपनी सफाई पेश की। अभयकुमार सबकी बात सुनता हुआ आगे बढ़ता गया।
सफेद घेरे का चक्कर पूरा करके वह काले घेरे में पहुँचा। वहाँ केवल दो व्यक्ति थे। एक अधेड़ था, दूसरा युवक। दोनों नगर के प्रतिष्ठित धनवान थे। उदारता, ईमानदारी तथा सच्चाई आदि गुणों के लिए दूर-दूर तक प्रसिद्ध थे। उन्हें काले घेरे में देखकर अभयकुमार को आश्चर्य हुआ। उसने युवक की ओर लक्ष्य करके पूछा-
‘‘भद्रपुरुष! आप इस काले घेरे में क्या खड़े हैं। आपने कौन-सा पाप किया है?’’
युवक ने कहना प्रारम्भ किया - ‘‘मन्त्रिराज! मेरे पिता इसी नगर के महासम्पन्न व्यक्ति थे। घर में सब प्रकार का सुख था। एक बार हमारा बड़ा जहाज विक्रय वस्तुएँ भरकर विदेश के लिए रवाना हुआ। उसमें हीरे, माणिक्य आदि बहुमूल्य वस्तुएँ थीं। हमारे अतिरिक्त नगर के बड़े-बड़े व्यापारियों का माल लदा हुआ था। रास्ते में तूफान आया और जहाज एक चट्टान से टकराकर डूब गया। उसमें जिन व्यापारियों का माल था, मेरे पिता ने सबका पैसा-पैसा चुका दिया। उन्हीं दिनों इस प्रकार की दो घटनाएँ और हो गयीं। हमारे पास कुछ न बचा। मानसिक आघात और अथक परिश्रम के कारण पिताजी बीमार पड़ गये और फिर न उठे।
‘‘घर में मेरी माता थी, मैं था और दो बहनें थीं। वे विवाह योग्य हो गयी थीं। इधर हमारा निर्वाह भी कठिनाई से हो रहा था।
‘‘एक दिन मेरी माता ने कहा, बेटा! इस प्रकार कैसे काम चलेगा? गुजारा तो करना ही होगा। मैं एक उपाय बताती हूँ। सेठ जिनदास उपाश्रय में प्रतिदिन सामायिक करते हैं। उस समय वह अपना मोतियों का हार उतारकर रख देते हैं। तुम जाओ और उसे उठा लाओ।
‘‘मैं सुनकर चकित रह गया। लाखों की सम्पत्ति जिनके चरणों में लोटती थी उस माता के मुँह से ये शब्द! अभाव किस प्रकार नैतिक पतन का कारण बन जाता है, उसका यह ज्वलन्त उदाहरण था। चोरी और धर्म के स्थान में! मुझे चुप देखकर माँ ने फिर वही बात दोहरायी। यहाँ तक कह दिया, यदि तुम यह कार्य न करोगे तो मैं अनशन करके मर जाऊँगी।
‘‘मुझे तैयार होना पड़ा। उपाश्रय में पहुँचा। सेठजी सामायिक में बैठे थे। पास ही हार पड़ा था। मैं हिचकिचाया, किन्तु माँ की बात याद आते ही फिर आगे बढ़ा। मेरे सभी अंग काँप रहे थे, सुध-बुध खो बैठा था। किन्तु एक अज्ञात प्रेरणा मुझे उस बुराई की ओर बढ़ाये ले जा रही थी।
‘‘मैंने हार उठा लिया। वह कुछ न बोले। मैं घर चला आया और माँ के सामने हार रख दिया।
‘‘माँ ने फिर कहा, इसे उन्हीं सेठजी के पास गिरवी रखकर दस हजार रुपये उधार ले आओ।
‘‘मैं उलझन में पड़ गया। उनके देखते हुए चोरी की। अब उसी चोरी की हुई वस्तु को, जो उन्हीं की है, गिरवी रखकर उधार लेने जाऊँ। यह भी कोई बात है? वह क्यों देने लगे? हार रख लेंगे और मुझे पुलिस के हवाले कर देंगे। यदि दयालु हुए तो धक्के देकर निकाल देंगे। हार भी जाएगा और चोर के रूप में प्रसिद्ध भी हो जाऊँगा।
‘‘किन्तु माँ न मानी। मुझे जाना पड़ा। सेठ जी के यहाँ पहुँचा तो उन्होंने बिना कुछ पूछे दस हजार रुपये दे दिये।
‘‘मेरी आत्मा पर चोट-सी लगी। यदि मुझे पकड़वा देते या धक्के देकर निकाल देते, तो मैं समझता कि मेरे पाप का प्रायश्चित्त हो गया। उनकी सहानुभूति से वह पाप मेरी अन्तरात्मा के सामने प्रचण्ड रूप में चमकने लगा। मैं भारी पैरों के साथ रुपये लेकर घर चला आया।
‘‘हमने व्यापार किया। भाग्य ने पलटा खाया। अब अवस्था सुधर गयी है। सेठ जी के रुपये लौटा दिये हैं। हार भी उन्हीं के पास है। फिर भी कुमार! मेरे मन में रह-रहकर पश्चात्ताप हो रहा है। क्या हार उठाकर मैंने पाप नहीं किया? मैं अपने को पापी मानता हूँ और इसीलिए इस घेरे में खड़ा हूँ।’’
उसके बाद सेठ जिनदास से पूछा गया। सेठजी ने कहा, ‘‘कुमार! मैंने अपने जीवन में एक पाप किया है। उसका मुझे अभी तक पश्चात्ताप है। जब तक उसका प्रायश्चित्त न कर लूँ, मैं अपने को पापी मानता रहूँगा।’’
उसने युवक की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘इसके पिता से मेरी गहरी मित्रता थी। जब उसका देहान्त हुआ, मैं इनकी आर्थिक परिस्थिति से पूर्ण परिचित था। मेरे मन में कई बार आया कि इनको सहायता पहुँचाऊँ। किन्तु आज-कल करते-करते बात पुरानी पड़ गयी और मुझे ख्याल न रहा। मेरी आँखें उस दिन खुलीं जिस दिन यह हार उठाकर ले गया। मेरे मन में आया इसकी चोरी के लिए मैं उत्तरदायी हूँ। मेरा कर्तव्य था कि समय रहते इनकी सहायता करता और यह अवसर न आने देता। अमात्यवर! शक्ति रहते हुए किसी की सहायता न करना क्या पाप नहीं है? कोई बालक मेरा मकान गिरा रहा हो और हम नीचे खड़े देखते रहें, उसे मना न करें तो क्या यह पाप नहीं है?
‘‘राजकुमार! एक सत्यनिष्ठ, धर्मपरायण मित्र के पुत्र को यदि मैं चाहता तो गड्ढे में गिरने से बचा सकता था। मैं आलस्य में पड़ा रहा। मैंने स्थिति की गम्भीरता का अनुभव नहीं किया। इसी कारण तो मुझसे यह पाप हो गया।’’
संसार कर्मों का लेखा जोखा है
बेटा बन कर, बेटी बनकर, दामाद बनकर, और बहु बनकर कौन आता है ? जिसका तुम्हारे साथ कर्मों का लेना देना होता है। लेना देना नहीं होगा तो नहीं आयेगा।
एक फौजी था। उसके मां नहीं बाप नहीं थे। शादी नहीं की,बच्चे नहीं ,भाई नहीं, बहन नहीं, अकेला ही कमा कमा के फौज में जमा करता जा रहा था। थोड़े दिन में एक सेठ जी जो फौज में माल सप्लाई करते थे उनसे उनका परिचय हो गया और दोस्ती हो गई ।
सेठ जी ने कहा जो तुम्हारे पास पैसा है वो उतने के उतने ही पड़ा हैं ।तुम मुझे दे दो मैं कारोबार में लगा दूं तो पैसे से पैसा बढ़ जायेगा इसलिए तुम मुझे दे दो।
फौजी ने सेठ जी को पैसा दे दिया। सेठ जी ने कारोबार में लगा दिया। कारोबार उनका चमक गया, खूब कमाई होने लगी कारोबार बढ़ गया। थोड़े ही दिन में लड़ाई छिड़ गई।
लड़ाई में फौजी घोड़ी पर चढ़कर लड़ने गया। घोड़ी इतनी बदतमीज थी कि जितनी ज़ोर- ज़ोर से लगाम खींचे उतनी ही तेज़ भागे।
खीेंचते खींचते उसके गल्फर तक कट गये लेकिन वो दौड़कर दुश्मनों के गोल घेरे में जाकर खड़ी हो गई। दुश्मनों ने एक ही वार किया,और फौजी मर गया
घोड़ी भी मर गई।
अब सेठ जी को मालूम हुआ कि फौजी मर गया, तो सेठ जी बहुत खुश हुए कि उसका कोई वारिस तो है नहीं अब ये पैसा किसीको नही देना पड़ेगा। अब मेरे पास पैसा भी हो गया कारोबार भी चमक गया लेने वाला भी नहीं रहा तो सेठ जी बहुत खुश हुए। तब तक कुछ ही दिन के बाद सेठ जी के घर में लड़का पैदा हो गया अब सेठ जी और खुश कि भगवान की बड़ी दया है। खूब पैसा भी हो गया कारोबार भी हो गया लड़का भी हो गया लेने वाला भी मर गया, सेठ जी बहुत खुश हुए। वो लड़का होशियार था पढ़ने में समझदार था। सेठ जी ने उसे पढ़ाया लिखाया जब वह पढ़ लिखकर बड़ा हो गया तो सोचा कि अब ये कारोबार सम्हाल लेगा चलो अब इसकी शादी कर दें।
शादी करते ही घर में बहुरानी आ गई। अब उसने सोचा कि चलो बच्चे की शादी हो गई अब कारोबार सम्हालेगा। लेकिन कुछ दिन में बच्चे की तबियत खराब हो गई।
अब सेठ जी डाॅक्टर के पास हकीम के पास वैद्य के पास दौड़ रहे हैं। वैद्य जी जो भी दवा खिला रहे हैं वह दवा असर नहीं कर रही ,बीमारी बढ़ती ही जा रही। पैसा बरबाद हो रहा है और बीमारी बढ़ती ही जा रही है रोग कट नहीं रहा पैसा खूब लग रहा है।
अन्त में डाॅक्टर ने कह दिया कि मर्ज़ लाइलाज हो गया।इसको अब असाध्य रोग हो गया ये बच्चा दो दिन में मर जायेगा। डाॅक्टरों के जवाब देने पर सेठ जी निराश होकर बच्चे को लेकर रोते हुए आ रहे थे रास्ते में एक आदमी मिला। कहा अरे सेठ जी क्या हुआ बहुत दुखी लग रहे हो
सेठ जी ने कहा ये बच्चा जवान था हमने सोचा बुढ़ापे में मदद करेगा। अब ये बीमार हो गया।बीमार होते ही हमने इसके इलाज के लिये खूब पैसा खर्च किया जिसने जितना मांगा उतना दिया
लेकिन आज डाॅक्टरों ने जवाब दे दिया अब ये बचेगा नहीं। असाध्य रोग हो गया लाइलाज मर्ज़ है। अब ले जाओ घर दो दिन में मर जायेगा।
आदमी ने कहा अरे सेठ जी तुम क्यों दिल छोटा कर रहे हो। मेरे पड़ोस में वैद्य जी दवा देते हैं। दो आने की पुड़िया खाकर मुर्दा भी उठकर खड़ा हो जाता है। जल्दी से तुम वैद्य जी की दवा ले आओ। सेठ जी दौड़कर गये दो आने की पुड़िया ले आये और पैसा दे दिया। दवाई की पुड़िया बच्चे को खिलाई बच्चा पुड़िया खाते ही मर गया।*
अब सेठ जी रो रहे हैं, सेठानी भी रो रही और घर में बहुरानी और पूरा गांव भी रो रहा । गांव में शोर मच गया कि बहुरानी की कमर जवानी में टूट गई सब लोग रो रहे हैं। तब तक एक महात्मा जी आ गये।*
उन्होनें कहा भाई ये रोना धोना क्यों हैं।
लोग बोले इस सेठ का एक ही जवान लड़का था वो भी मर गया, इसलिए सब लोग रो रहे हैं। सब दुखी हो रहे हैं।
महात्मा बोले सेठ जी रोना क्यों ?
सेठ : महाराज जिसका जवान बेटा मर जाये वो रोयेगा नहीं तो क्या करेगा। ?
महात्मा:- तो आपको क्यों रोना
सेठ:- मेरा बेटा मरा तो और किसको रोना।
महात्मा :- उस दिन तो आप बड़े खुश थे।
सेठ : किस दिन
महात्मा:- फौजी ने जिस दिन पैसा दिया था।सेठ : हाँ कारोबार के लिए पैसा मिला था तो खुशी तो थी।
महात्मा:- और उस दिन तो आपकी खुशी का ठिकाना ही नहीं था
सेठ : किस दिन ?
महात्मा : अरे जिस दिन फौजी मर गया
सोचा कि अब तो पैसा भी नहीं देना पड़ेगा। माल बहुत हो गया कारोबार खूब चमक गया अब देना भी नहीं पड़ेगा बहुत खुश थे।
सेठ : हां महाराज खुश तो था। महात्मा:- और उस दिन तो आपकी खुशी का ठिकाना ही न था पता नहीं कितनी मिठाईयां बँट गईं।
सेठ : किस दिन ?
महात्मा : अरे जिस दिन लड़का पैदा हुआ था।
सेठ : महाराज लड़का पैदा होता है तो सब खुश होते हैं मैं भी हो गया तो क्या बात। ?
महात्मा : उस दिन तो खुशी से आपके पैर ज़मीन पर नहीं पड़ते थे
सेठ : किस दिन ?
महात्मा : अरे जिस दिन बेटा ब्याहने जा रहे थे।
सेठ : महाराज बेटा ब्याहने जाता है तो हर आदमी खुश होता है तो मैं भी खुश हो गया।
महात्मा:- तो जब इतनी बार खुश हो गए तो ज़रा सी बात के लिए रो क्यों रहे हो। ?
सेठ : महाराज ये ज़रा सी बात है। जवान बेटा मर गया ये ज़रा सी बात है।
महात्मा : अरे सेठ जी वहीं फौजी पैसा लेने के लिए बेटा बन कर आ गया। पढ़ने में लिखने में खाने में पहनने में और शौक मेें श्रृंगार में जितना लगाना था लगाया। शादी ब्याह में सब लग गया। और ब्याज दर ब्याज लगाकर डाक्टरों को दिलवा दिया। अब जब दो आने पैसे बच गये वो भी वैद्य जी को दिलवा दिये और पुड़िया खाकर चल दिया। अब कर्मो का लेना देना पूरा हुआ।
सेठ जी ने कहा हमारे साथ तो कर्मो का लेन देन था। चलो हमारे साथ तो जो हुआ सो हुआ। लेकिन वो जवान बहुरानी घर में रो रही है जवानी में उसको धोखा देकर विधवा बनाकर चला गया उसका क्या जुर्म था कि उसके साथ ऐसा गुनाह किया। ?
महात्मा बोले यह वही घोड़ी है। जिसने जवानी में उसको धोखा दिया। इसने भी जवानी में उसको धोखा दे दिया।
यही कहानी हम सभी की है, जो हमने बोया था वही हमें मिल रहा है। इसलिए किसी को दोष मत देना, दोषी मत देखना, हमारा ही स्वयं का दोष है। इन्द्रियों की हर क्रिया मे और मन के विकल्पों के बहते प्रवाह के काल मे उसके मात्र ज्ञाता दृष्टा रहकर अपने स्वभाव मे रहने का पुरुषार्थ करना ही हमारा एकमात्र कर्तव्य है।आगम, वेद, शास्त्र व पुराणों के साथ साथ सभी साधु संतों का कहना है कि यह संसार कर्मों का लेखा जोखा है इसमें जो जीव चैतन्य (आत्मा) के, स्वयं के स्वरूप, स्वभाव को जान लेगा वो समझदारी से भव सागर पार हो जाएगा ।
आपके परिवार में सुख , शांति, शक्ति, सम्पति, स्वरुप, संयम, सादगी, सफलता, समृध्दि, साधना, संस्कार और स्वास्थ्य की वृद्धि हो ,और आप का दिन मंगलमय हो।
🙏 जय जिनेन्द्र🙏
🟢 ।।जय धर्म पार्श्व।।🟢🙏