कथा सती मदनरेखा
सुदर्शनपुर के राजा मनिरथ तथा युवराज युगबाहू दोनों भाई थे| मनिरथ युगबाहु का पुत्र की तरह ध्यान रखता था तो युगबाहु अपने भाई को अपना पिता समझ कर उसकी हर आज्ञा का पालन करता था | दोनों भाइयों में बहुत स्नेह था | लोग उन्हें राम लक्ष्मण की जोड़ी कहते थे |
एक बार सावन के महीने में मनिरथ अपने भवन की छत से सूर्यास्त देख रहा था की तभी उसकी नज़र अपने भाई के भवन के बगीचे में पड़ी | उसने देखा की एक परम सुन्दर स्त्री झूला झूलते हुए अपनी सहेलियों के साथ खेल रही है, उसके रूप को देख कर मनिरथ अधीर हो उठा और अपने पास खड़ी दासी को पुछा की ये स्त्री कौन है | दासी बोली “ महाराज ये आपके छोटे भाई युवराज युगबाहु की पत्नी मदनरेखा है , आज पूरे राज्य में इनसे सुन्दर और कोई स्त्री नहीं है|” यह सुनकर मनिरथ के मन में पाप जाग गया और वो मदनरेखा को पाने का उपाय सोचने लगा |
अगले दिन मनिरथ राजभवन में उदास व चिंतित मुख लेकर गया, जिसे देख कर युगबाहु ने उसकी चिंता का कारण पुछा, तो मनिरथ बोला “कुछ नहीं भाई ! सूचना मिली है की अपने राज्य की सीमा पर कुछ शत्रु लगातार आक्रमण करके हमारे नागरिकों को लूट रहे हें, जिससे वहां के लोग बहुत दुखी हें| इसलिए में सोच रहा हूँ की वहां जाकर उन शत्रुओं को समाप्त कर दूं|”
यह सुन कर युगबाहु बोला “राजन ! आपके छोटे भाई के होते हुए आपको कष्ट उठाने की कोई आवश्य्कता नहीं है, मैं कल ही सेना लेकर निकल पड़ता हूँ और सभी शत्रुओं का नाश करके ही लौटूंगा|” मनिरथ तो यही चाहता था, मन ही मन खुश होते हुए उसने उदास चेहरा बनाते हुए अपने भाई को युद्ध में जाने की आज्ञा दे दी |
युगबाहु के जाते ही मनिरथ ने अपनी दासी रम्भा को बुलाया और उसे कहा की तुम ये उपहार लेकर जाओ और किसी तरह मदनरेखा के मन में उसके लिए प्यार जगाओ, अगर तुम इसमें सफल रही तो उपहारों से तुम्हारा घर भर दूंगा | मनिरथ को आश्वस्त कर रम्भा मदनरेखा के कक्ष में पंहुची |
उसने उपहारों से भरा थाल मदनरेखा को देते हुए बोली “प्रणाम युवरानी ! आज राजन आपसे अति प्रसन्न हैं तथा उन्होंने आपके लिए ये उपहार भेजे हें , आप इन्हें लेकर राजा का मान बढाएं |” मदनरेखा मनिरथ का अपने पिता की तरह सम्मान करती थी तो अपने पिता की तरफ से उपहार समझ कर भोले मन से उसने उपहार स्वीकार कर लिए | रम्भा ने इसका उल्टा मतलब निकाला और मन ही मन बहुत खुश हुई, वापस आकर उसने राजा से कहा “ चिड़िया ने दाना चुग लिया है, जल्दी ही वो आपके जाल में फंसने वाली है|” यह सुन राजा बहुत खुश हुआ|
कुछ दिन बाद राजा ने फिर से रम्भा के हाथों मदनरेखा के लिए उपहार भेजे | राजा द्वारा अपने पति की अनुपस्तिथि में बार बार उपहार भिजवाने पर मदनरेखा को शक हो गया और उसने उपहार स्वीकार करने से मना करते हुए रम्भा से उपहार वापस ले जाने को कहा | इस पर रम्भा बोली “युवरानी ! महाराज आपसे बहुत प्यार करने लगे हें | राजा का प्रेम मिलना तो बड़े सौभाग्य की बात होती है, वो आपको अपनाकर अपनी महारानी बना लेंगे, उनके दिए उपहार ठुकराकर महाराज को क्रोधित करने में कोई समझदारी नहीं है| अत: आप ये उपहार स्वीकार कर लें |” इतना सुनते ही मदनरेखा क्रोध से आग बबूला हो उठी और म्यान से तलवार निकाल कर रम्भा की गरदन पर रख दी | रम्भा बहुत डर गई और माफ़ी मांगने लगी, उसने कहा की वो ये सब कुछ राजा की आज्ञा से कर रही है| इस पर मदनरेखा बोली “ अगर इसके बाद तुमने इस प्रकार के शब्द बोले या इस तरह का विचार किया तो और कुछ बोलने के लिए जीवित नहीं रहोगी |”
रम्भा वहां से जान बचा कर राजा के पास पंहुची और बोली “महारज ! जिस स्त्री को हम दाना चुगने वाली चिड़िया समझ रहे थे वो तो शेरनी निकली , मैं किसी तरह से आज जान बचा कर वापस आई हूँ और अब मैं उसके पास वापस जाने का साहस नहीं कर सकती |” इतना कह कर वो चली गई |
अब राजा ने स्वयं जाकर मदनरेखा से मिलने की ठानी | एक रात मदनरेखा के कक्ष के बाहर पँहुच कर राजा ने द्वार खटखटाया| मदनरेखा ने अन्दर से पुछा “कौन है ?” तो महाराज बोले “मैं इस नगरी का राजा मनिरथ हूँ, मेरा भाई और तुम्हारा पति युगबाहु युद्ध में गया हुआ है तो मैंने सोचा तुम बहुत दुखी होगी, तो मैं तुम्हारा दुःख बांटने आया हूँ |”
मदनरेखा को राजा के इरादे समझते देर नहीं लगी| वो अपनी सास के पास पंहुची और उनके बेटे की करतूत उनको बता दी | राजा की माँ ने अन्दर से बोला “ पुत्र ! तुम शायद रास्ता भटक गए हो, ये तुम्हारा कक्ष नहीं है | जाओ अपने कक्ष में जाओ|” अपनी माँ की आवाज़ सुन कर राजा सकपका गया और अपने महल वापस आ गया| इसी बीच युगबाहू युद्ध जीत कर वापस आ गया, न चाहते हुए भी राजा ने उसका भव्य स्वागत किया| मदनरेखा ने जब यह सुना तो उसने चैन की सांस ली, लेकिन उसने अपने पति को मनिरथ की बात बताना उचित नहीं समझा| इसके बाद सब कुछ सामान्य चलने लगा लेकिन काम का काँटा राजा के दिल में चुभ चुका था जो उसे चैन से सोने नहीं देता था | राजा युगबाहू और मदनरेखा की जासूसी करवाने लगा|
एक दिन उसके जासूस ने उसे बताया की युगबाहू और मदनरेखा शहर के बाहर अपनी विश्राम आवास में गए हैं, वहां दो सैनिकों के अलावा और उनके पास और कोई सुरक्षा नहीं है| राजा इसको स्वर्णिम अवसर जान कर रात्रि में अकेला ही हाथ में तलवार लिए विश्राम आवास की और चल पड़ा |
विश्राम आवास के बाहर सैनिक ने डरते हुए राजा को रोका तो राजा ने कहा की जाओ और मेरे भाई को बाहर बुलाओ, मुझे उससे कुछ अति आवश्यक काम है| सैनिक ने यह सन्देश जब युगबाहू को दिया तो अपने भाई की आज्ञा समझ कर वह तुरंत बाहर जाने को हुआ की तभी सैनिक बोला “ क्षमा करें युवराज ! परन्तु राजन इस समय हाथ में तलवार लिए अकेले आए हैं, आपका इस समय उनसे मिलने जाना उचित नहीं है|”
यह सुनकर मदनरेखा को भी कुछ शंका हुई और उसने भी युगबाहू को जाने से मना किया, पर जब वो न माने तो मदनरेखा ने मनिरथ की पूरी बात युगबाहू को बता दी, जिसे सुनकर युग्बाहु को बहुत क्रोध आया और वो भी अपनी तलवार लेकर अपने भाई से लड़ने जाने की सोच ही रहा था की अचानक मनिरथ अन्दर आ गया और युग्बाहु पे हमला कर उसे लहुलुहान कर दिया और वहां से भाग गया | अपने पति का आखरी समय देख मदनरेखा ने उनका सर अपनी गोद में लिया और कहा “ स्वामी ! आपके जाने का समय आ गया है, आप शांत हो जाएं , अपने भाई को उसके किये अपराधों के लिए क्षमा कर दें, मेरी और अपने पुत्र की चिंता न करें, मन में कोई क्रोध, राग या द्वेष न रखें तथा नवकार मंत्र का स्मरण करें” अपनी पत्नी की बातों को सुनकर युगबाहू का क्रोध शांत हो गया, तथा शांति पूर्वक नवकार मंत्र का स्मरण करते हुए उसने अपनी आखरी सांस ली |
अपने पति की मृत्यु के समय मदनरेखा गर्भवती थी, तथा उसका पहला पुत्र सुदर्शन राज्य में ही था | उसने अपने चरित्र तथा अपने पेट में पल रहे बच्चे की सुरक्षा के लिए वहां से भाग कर जंगल में जाना उचित समझा | वो कई दिनों तक जंगल में भटकती रही |
भटकते भटकते उसे जंगल में एक सरोवर दिखाई दिया और उसने वहीं आराम करने की सोची| वहीँ एक पेड़ के नीचे उसने अपने बच्चे को जन्म दिया और अपनी साड़ी के एक टुकड़े में बाँध कर उसे पेड़ पे लटका कर स्वयं अपना शरीर साफ़ करने सरोवर में गई | वापस आते समय उसने देखा की हाथियों का एक झुण्ड तेज़ी से उसी तरफ आ रहा है, वो कुछ समझ पाती इससे पहले ही एक हाथी ने उसे अपनी सूंड में उठाया और हवा में उछाल दिया| वह हवा में एक गेंद की भांति उछल पड़ी | उसी समय आकाश में विद्याधर नामक एक देव अपने विमान में जा रहा था, और उसने आकाश में से गिरती हुई मदनरेखा को बचा लिया| मदनरेखा बेहोश हो चुकी थी| देव ने बेहोश मदनरेखा को देखा तो उसके रूप पे मोहित हो गया तथा अपना उड़ने वाला रथ वापस गुमा कर अपने महल की ओर ले चला|
मदनरेखा को जब होश आया तो उसने देखा की वो एक रथ में है तथा एक देव उसे प्रेमपूर्वक देख रहा है| उसे अपनी ओर इस तरह देख कर मदनरेखा डर गई और मन ही मन सोचने लगी की हाय री किस्मत, जिससे बचने के लिए वो इतने दिनों से जंगलों में भटक रही है उससे छुटकारा नहीं मिल पा रहा, ये सुन्दर रूप तो मेरे लिए एक शाप की तरह है |
वह उस पुरुष की तरफ देख कर बोली “ हे भाई ! आप कौन हैं तथा इस प्रकार मुझे लेकर कहाँ जा रहे हैं ? आपने मुझे मर क्यों नहीं जाने दिया ?”
वह देव बोला “ हे सुंदरी ! यह यौवन तथा सुन्दरता मर कर व्यर्थ करने के लिए नहीं है, मैं तुम्हें अपने महल ले जाऊंगा तथा अपनी रानी बनाऊंगा, तथा तुम हमेशा मेरे साथ ख़ुशी से रहोगी|”
यह सुनकर मदनरेखा क्रोधित हो गई और बोली “भाई ! तुमने पहले मेरी जान बचाई और अब वापस मेरी जान लेने की बात कर रहे हो | मैं अपने चरित्र की रक्षा के लिए अपने प्राण भी दे सकती हूँ |” इतना कहकर उसने अपनी जीभ पकड़ ली और उसे खींच कर अपने प्राण देने ही वाली थी की देव ने डरते हुए उसे रोक लिया और कहा की आप अपने प्राण न दें, आप जो कहोगी वो करने को मैं तैयार हूँ |
यह सुनकर मदनरेखा संतुष्ट हुई| उसने देव से पुछा की आप कौन हैं और कहाँ जा रहे थे ?
देव बोला “ मैं मणिप्रभ विद्याधर हूँ ,तथा मेरे पिता जो की एक मुनि हैं, उनके दर्शनों को जा रहा था | पर अब सोच रहा हूँ की पहले आपको अपने महल में छोड़ कर फिर उनके दर्शनों को जाऊंगा |”
मदनरेखा ने कहा “ नहीं नहीं ! मैं आपके शुभ काम में बाधक नहीं बनना चाहती| अगर हो सके तो मुझे भी उन मुनि के दर्शनों के लिए अपने साथ ले चलें|” देव मदनरेखा को अपने साथ लेकर मुनि के दर्शनों को चल पड़ा | वहां मदनरेखा व विद्याधर ने मुनि का प्रवचन सुना | प्रवचन सुनकर देव को अपने किये पर पश्चाताप होने लगा तथा उसने मदनरेखा से क्षमा मांगी |
इतने में आकाश से विमान उतरा और एक तेजस्वी देव उसमें से उतर कर मदनरेखा को हाथ जोड़ कर बोला “ देवी ! आप महान हें, आपकी ही उचित शिक्षा के कारण मैं आज देवलोक का देव बना हूँ | मैं आपका ऋणी हूँ |”
मदनरेखा बोली “हे देव ! आप कौन हें? मैंने आपको नहीं पहचाना, और मैंने किस प्रकार से आपकी सहायता की है ?”
तब वह देव बोला “ मैं युगबाहू हूँ , जब मेरी मृत्यु निकट थी तब तुमने मुझे सही ज्ञान दिया जिससे मेरे मन का राग द्वेष मिट गया था तथा नवकार मंत्र का जाप करते हुए मेरी मृत्यु हुई | उन्हीं कर्मों के कारण मैं आज देवलोक का देव बना हूँ और अब में तुम्हारे लिए कुछ करना चाहता हूँ”
यह सुनकर मदनरेखा बहुत प्रसन्न हुई | उसने कहा “मैंने तो केवल अपने कर्तव्य का पालन किया है | आज आपकी यह बात सुनकर मैं अपने पिछले सारे दुखों को भूल गई हूँ | मेरा जीवन सफल हुआ | मुझे और कुछ नहीं चाहिए , बस आप मुझे ये बता दीजिये की मेरा पुत्र जिसे में पेड़ पर लटका छोड़ आई थी, वह कैसा है ? तथा मेरा पहला पुत्र जो सुदर्शन राज्य में हैं वो कुशल से तो है ?”
देव बोला “ मिथिला के राजा पद्मार्थ अपनी सेना लेकर हाथियों को पकड़ने जंगल में आए थे, जिससे हाथियों में भगदड़ मच गई , और वे भागने लगे| उनमें से एक हाथी ने तुम्हें राजा का सैनिक समझ तुम पर हमला कर दिया| हाथियों का पीछा करते हुए जब राजा सरोवर के नज़दीक पंहुचा तो उसे कपड़े में लिपटा बालक दिखाई दिया | राजा निस्संतान था तो बालक को देख वह बहुत प्रसन्न हुआ और उसे अपने साथ अपने राज्य ले गया जहाँ वो और उसकी पत्नी उस बालक का बहुत प्रेम से लालन पालन कर रहे हैं | वह अब मिथिला का युवराज है तथा भविष्य में मिथिला नगरी का राजा बनेगा|”
फिर देव बोला “ अब तुम्हारे दुसरे पुत्र के बारे में सुनो| जब मेरा भाई मणिप्रभ मुझ पर हमला करके भाग रहा था तो जल्दबाज़ी में उसका पाँव एक सर्प पे पड़ गया और सर्प ने उसे डस लिया, जिससे उसकी वहीँ मृत्यु हो गई | हम दोनों की मृत्यु से राज्य का वारिस तुम्हारा पहला पुत्र हुआ तथा उसे सर्वसम्मति से सुदर्शन नगर का राजा घोषित कर दिया गया |”
इतना सुनकर मदनरेखा बहुत प्रसन्न हुई और बोली, मेरे पति व मेरे दोनों पुत्रों के बारे में इतना शुभ समाचार सुनने के बाद इस संसार में मेरे करने के लिए अब कुछ भी शेष नहीं है , अत: आप मुझे किसी साध्वी के पास पंहुचा दें जिससे में उनसे दीक्षा लेकर अपने जीवन का कल्याण करूँ| उसकी बात मान कर देव ने उसे एक साध्वी के पास पंहुचा दिया, जहाँ महासती मदनरेखा दीक्षा लेकर साध्वी सुव्रता बन गई| उसने अपना शेष जीवन धर्म ध्यान में लगा कर अपने कर्मों को नष्ट कर मोक्ष को प्राप्त किया |
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