जम्बूस्वामी चरित्र





*आज का विषय-*
*जम्बू स्वामी चारित्र*
🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏

🙏🏻 1   वीर निर्वाण के 20 वे वर्ष में धर्म संघ के आचार्य कौन बने
🅰1 जम्बू स्वामी

🌷2 भवदत्त के भव में जम्बू स्वामी ने किसके कहने से संयम ग्रहण किया❓
🅰2 भाई भवदेव
उनकी इच्छा नही थी,

🌷3 भवदेव मुनि के कालधर्म होने के बाद भवदत्त मुनि को वापस संयम में स्थिर किसने किया❓
🅰3 उनकी पत्नी नागिला

🌷4 राजमहल में रहकर 12 वर्ष तक घोर तपश्चरण किया❓
🅰4 शिवकुमार

🌷 5   वीर प्रभु की केवली चर्या के लगभग 14 वे वर्ष में जम्बू स्वामी का जिव किस रूप में प्रभु के पास आया❓
🅰5 विद्युन्माली देव

🌷6 उसी वक़्त और कौन सा देव वंहा उपस्थित था❓
🅰6 जम्बूद्वीप का अधिपति अनाधृत देव
जो की जम्बूस्वामी के पिता के भाई का जिव था।

🌷7 जम्बूस्वामी के माता पिता कौन❓
🅰7 धारिणी माता
रुषभदत्त पिता

🌷8 जम्बू स्वामी के साथ कितनी कन्या ओ का विवाह तय हुआ❓
🅰8 - 8

🌷9 धारिणी माता ने जम्बूस्वामी के गर्भ में आये तब कौन सा स्वप्न देखा❓
🅰9 जम्बू फल (एवं किशोर वय वाला मृगराज)

🌷10 जयपुर राज्य का कौन सा राजकुमार विवाहकी रात्रि जम्बूस्वामी के घर आया ❓
🅰10 प्रभवकुमार

🌷11 किस उद्देश्य से❓
🅰11 चोरी

🌷12 प्रभव के पास कौनसी दो विद्याए थी❓
🅰12 अवस्वापिणी और तालोद घाटिनी

🌷13 प्रभवकुमार ने जम्बू कुमार से कौनसी विद्या मांगी❓
🅰13 स्तम्भिनी और मोचिनी

🌷14 किसके प्रभाव से अवस्वपिंनी विद्या का प्रभाव जम्बुकुमार पर नही हुआ❓
🅰14 नमस्कार महामंत्र

🌷15 एक मान्यतनुसार प्रभवकुमार ने जम्बू कुमार के शयन कक्ष के बाहर चोरी से बाते सुनते हुए किसे देखा❓
🅰 15 जम्बुकुमार की माता को

🌷16अंत में दीक्षा के लिए जम्बू कुमार के साथ उन्हें गिनकर कुल कितने लोग तैयार हुए❓
🅰16 --528

जम्बुकुमार न 8 पत्नी  9
9 के मातापिता।      18
प्रभव न 500 शिष्य501

🌷17 जम्बुकुमारकी दीक्षा के वर्ष की दो बड़ी घटना कौनसी❓
🅰17 वीर प्रभु निर्वाण
          गौतम स्वामी केवल ज्ञान

🌷18 जम्बूस्वामी की दीक्षा के 12 वर्ष बाद किसका निर्वाण हुआ❓
🅰18 गौतम स्वामी


🌷19 जम्बूस्वामी की दीक्षा के कौन से वर्ष में सुधर्मा स्वामी का निर्वाण हुआ❓
🅰19   20

🌷20 उनकी कुल आयु कितनी रही

🅰20   80 वर्ष

🌷21 जम्बूस्वामी के बाद आचार्य पद पर कौन आया❓
🅰21 प्रभव स्वामी

🌷22 वीर निर्वाण के कौन से वर्ष में जम्बूद्वीप भरत क्षेत्र से मोक्ष का मार्ग बंध हुआ❓
🅰22    64 वे वर्ष

🌷23  जम्बूस्वामी के निर्वाण बाद कौन सा शरीर भी भरत क्षेत्र से विलुप्त हुआ❓
🅰23 आहारक शरीर

🌷24 जम्बूस्वामी की जन्म नगरी कौनसी थी❓
🅰24 राजगृही

🌷25 जम्बू स्वामी की दीक्षा के वक़्त मगध की राजधानी और राजा कौन था❓
🅰25 चम्पा नगरी
कोणिक राजा

27  वीर निर्वाण के कितने वर्ष बाद सुधर्मा स्वामी मोक्ष पधारे ?
27   20 वर्ष बाद

Jinagya virudh kuch bhi likha ho to michami dukadam🙏�🙏�






श्री जम्बूस्वामी चरित्र
इसी आर्यखंड के मगधेश के एक भाग में राजगृही नाम की नगरी है। वहाँ के राजा महाराज सामान्यिक प्रजा पर अनुशासन करते थे और उनकी रानी सम्यक्त्व आदि गुणों से सहित पतिधर्म-परायण चेलना नाम की थी। किसी समय वहाँ पर विपुलाचल पर्वत के मस्तक पर तीन जगत् के स्वामी श्री वर्धमान भगवान का समवसरण विराज था। उस समवसरण में जाकर जिनेन्द्र भगवान की वंदना के अनंतर मनुष्यों के कोठे मेें बैठकर राजा ऋषिक श्री गौतम स्वामी गणधर के प्रमुख कमल से सद्धर्म को सुन रहे थे। अकस्मात आकाशमार्ग से उतरता हुआ कोई तेजपुंज राजा को दृष्टिगोचर हुआ। आश्चर्यचकित होकर राजा ने श्री गौतम स्वामी से पूछा कि हे भगवन्! यह क्या दिख रहा है? गणधर देव ने कहा कि-यह महाऋद्धिधारी विद्युन्माली नाम का देव अपनी चार देवियों सहित परमधर्म के अनुराग से श्री जिनेन्द्र भगवान की वंदना के लिए आ रहा है। यह भुवनमा आज से सातवें दिन स्वर्ग से च्युत के समान नगर में मनुष्य जन्म में आवेगा और उसी भव से मोक्ष प्राप्त होगा।
                                   
जंबूकुमारिस जन्म वैराग्यं च (जंबूकुमार जन्म और वैराग्य)

जिनिक महाराज द्वारा मनीत राजगृह नगर में अर्हद्दास नाम के सेठ रहते थे। उनका धर्मपरायण जिनमती नाम की भार्या थे। किसी समय रात्रि के पिछले भाग में जिनमती सेठानी ने जेंट्सवृक्षादि पंच उत्तम-उत्तम स्वप्न देखा प्रात: काल अपने पतिदेव के साथ जिनमंदिर में जाकर तीन ज्ञानधारी मुनिराज के मुखार विंद से चरमारी पुत्र का आपको लाभ होगा, जिससे सुनकर दोनों जन बहुत ही संतुष्ट हुए। पूर्वोक्त विद्युन्माली नाम का अहमिन्द्रचर जीव स्वर्ग से च्युत होकर जिनमती के गर्भ में आये और नवमास के अनन्तर मनुष्य पर्याय को प्राप्त हुए।

फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा प्रात: काल पुत्र का जन्म होने पर उत्सव मनाया गया। दान, सन्मान, नृत्य लेखन आदि के द्वारा सर्वत्र हर्षोल्लास का वातावरण हो गया है। माता-पिता ने उस लड़के का जम्बूकुमार यह नामकरण किया। बचपन में वह कुमार सभी गुण और सभी कलाओं में विख्यात थे, पवित्रमूर्ति और पुण्यात्मा थे।

युवावस्था में प्रवेश करने पर उसी नगर के सागरदत्त आदि चार सेठों ने अपनी-अपनी बेटियों की जंबुकुमार के साथ ब्याह करने के लिए सगाई कर दी वे वेद्यों पद्मश्री, कनकश्री विनयश्री और रूपश्री नाम वाली बहुत ही सुंदर और नवयुवना थीं।

खंडित् बसन्त ऋतु की क्रीड़ा में जम्बू कुमार ने अपनी शक्ति के बल से एक मन्दोन्मत: हाथी को वश में कर लिया, जिससे सर्वत्र प्रशंसा को प्राप्त हुए।

किसी समय रत्नचूल नाम के विद्याधर को युद्ध में जीत कर मृगांक नामक राजा की विशालवती कन्या की रक्षा की और राजा धर्मिक के साथ उस कन्या का विवाह हो गया। अनन्तर युद्ध क्षेत्र को देखकर जंबूकुमार के मन में महती दया के साथ साथ ही वैराग्य उत्पन्न हो गए हैं।
                                       

जम्बूकुमारस्य जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहणं मुक्तिं च
जंबूकुमार का दीक्षा ग्रहण और मोक्ष गमन

राजगृही नगरी के उपवन में अपने पांच सौ शिष्यों से सहित श्री सुधर्माचार्य वरी पधारे। जंबूकुमार वहाँ पहुँचुँचे उन्हें नमस्कार कर स्तुति आदि के द्वारा उनकी रक्षा द्वारा और उन्हें पूर्व जन्म के वृत्तांत को सुनकर जैनेश्वरी दीक्षा की या साधना की। आचार्यश्री ने कहा कि आप घर में जाकर माता-पिता की आज्ञा लेकर क्षमा करें और क्षमा करें आवो तब मैं दीक्षा लेता हूँ। (क्यों यह सनातन परम्परा है) इस प्रकार गुरु के वचन के अनुरूप बिना इच्छा के ही कुमार ने घर जाकर माता-पिता से दीक्षा की बात कह दी। मोह के माहात्म्य से माता-पिता ने जिस तिस किसी प्रकार से उसी दिन ही जिन से सगाई हुई थी उन चारों कन्याओं के साथ ब्याह करा दिया और उसी रात्रि में एक कमरे में चारों ही नव विवाहित पत्नियों के साथ बैठे हुए थे। कुमार उन स्त्रियों से सचेत रहते हुए वैराग्य की बढ़ाने वाली कथाओं से रात्रि ठहराने लगे।

इसी तरह से अत्यंत अनुपस्थित हुए माता-पिता जिनमती बार-बार जंबूकुमार के कमरे के पास घूम रहे थे, कि कुमार इन स्त्रियों में आसुत होता है या नहीं? उसी समय विद्युच्चर नाम का चोर चोरी करने के लिए उस भवन में आया था। इस घटना को जानने वाले माता-पिता जिनमती के अनुरोध से वह बहुत प्रकार के उपायों से जंबुकुमार को घर में रहने के लिए आश्वस्त कर रहे हैं। किन्तु कुमार ने सभी उपेक्षा करके प्रात: काल ही गुरु के पास पहुँचकर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली, उस समय विद्युच्चर चोर भी अपने पाँच सौ सहयोगियों के साथ दीक्षित हो गए, पिता अर्हदास ने भी दीक्षा ले ली। माता जीमती ने भी अपनी चारों बहुओं के साथ सुप्रभा आर्यिका के समीप आर्यिका दीक्षा ले ली। जिस दिन सुधर्विध्य गुरु मुक्ति को प्राप्त हुए हैं, उसी दिन जेंट्सस्वामी को केवल ज्ञान प्रकटट हो गया, इसीलिए जम्बूद्वीप अनुष्ठ केवली कहलाये हैं। जेंट्सस्वामी के मोक्ष जाने पर उस दिन के केवली नहीं हुए हैं।

धन्य है ये जेंट्सस्वामी जिन्होंने पूर्व संभव में असिदेह व्रत का अनुष्ठान करके इस गर्व में तत्काल विग्रह हुआ नव पत्नियों में सर्वथा अनासक्त होते हुए अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करके मुक्ति लक्ष्मी - आसक्त हो गये, उन्हें मेरा बारम्बार नमस्कार होवे।
                                     
भवदेवब्राह्मणस्य दीक्षा ग्रहण (भवदेव ब्राह्मण का दीक्षा ग्रहण)

सचित्त विहार करते हुए अपने संघ सहित सौधर्स्थान्यवर्य भावदेव मुनि के साथ-साथ वही व्रधधमन नगर में पधारे। उस समय विशुद्ध बुद्धिजीवी भावदेव मुनि ने अपने छोटे भाई भवदेव का स्मरण किया। वह उस नगर में प्रसिद्ध था विषयासक्त, एकांत मतानुयायी अपने हित को नहीं जानता था। बहुतन्त करुणा से प्रेरित होकर भावदेव मुनि ने उसके संबोधन के लिए गुरु से आज्ञा ले ली और संघ से चलकर भवदेव के यहाँ आकर आहार ग्रहण किया। अनंतर धर्मरूपी अमृत का पान कराकर वे संघ में चल रहे, तब वह गर्वदेव भी विनयनात्मक से गुरु के साथ-साथ चलने लगा, मार्ग से वापस आना चाहते हुए वह बार-बार अपनी नव विवाहित स्त्री का स्मरण कर रही थी, उसके हाथ में विवाह था। का कंकण विवाह हुआ था, उसी दिन उसका विवाह हुआ था। किंतु भावदेव मुनि मौन से चले जा रहे थे उनकी आज्ञा न मिलने से मैं घर वापस कैसे जाऊँ? ऐसी सोचकर बस उन्हीं के साथ संघ तक आ गया। तब मुनियों ने कहा कि हे भावदेव मुनि! तुम धन्य हो जो भाई को साथ ले आये हो, भावदेव ने भी कहा कि हे भगवन्! यह मुमुक्षु है। उसे दीक्षा दे कृपया। भवदेव मन में सोच डाल कि मैं क्या करूं, अगर घर नहीं जाना नव विवाहित पत्नी का बलिदान करता हूं, तो मुझे आर्तध्यान बना रहेगा और यदि दीक्षा नहीं लेता हूं, तो भाई का गौरव घटेगा। कई प्रकार से ऊहापोह कर करके उसने दीक्षा ही ले ली। वह शल्य सहित होता हुआ काम अग्नि से जलता हुआ अपनी पत्नी का प्रतिदिन स्मरण करता रहता था। फिर भी साधुओं के साथ ध्यान अध्ययन तप व्रत आदि में भी संलग्न हो रहा था। तो भाई का गौरव घटेगा। कई प्रकार से ऊहापोह कर करके उसने दीक्षा ही ले ली। वह शल्य सहित होता हुआ काम अग्नि से जलता हुआ अपनी पत्नी का प्रतिदिन स्मरण करता रहता था। फिर भी साधुओं के साथ ध्यान अध्ययन तप व्रत आदि में भी संलग्न हो रहा था। तो भाई का गौरव घटेगा। कई प्रकार से ऊहापोह कर करके उसने दीक्षा ही ले ली। वह शल्य सहित होता हुआ काम अग्नि से जलता हुआ अपनी पत्नी का प्रतिदिन स्मरण करता रहता था। फिर भी साधुओं के साथ ध्यान अध्ययन तप व्रत आदि में भी संलग्न हो रहा था।
                                       
भवदेवमुने: पुनर्दीक्षा ग्रहणम् (भवदेव मुनि का पुन: दीक्षा ग्रहण)

अनंतर अर्यिका द्वारा सम्बोधन को प्राप्त हुए भवदेव मुनिराज ने अपने गुरु सौधर्म आचार्यवर्य के पास जाकर विनय सहित सर्व वृत्तांत (दोषों) की आलोचना की। उस समय गुरू ने भी अपने पूर्व की दीक्षा का छेद करके पुनरपि उन्हें संयम में स्थापित किया। अर्थात् पुनर्दिकी प्रदान की। तब से ये मुनिराज भावपूर्ण श्रमण बन गए और भावों की विशुद्धि से साक्षात् वैराग्यमूर्ति इंदिराण चले गए। ये धीर, वीर मुनिराज अपने शरीर में भी निस्पृह थे किन्तु मुक्ति लक्ष्मी के संगम में स्पृहावन-इच्छुक हैं। क्षुधा, पिपासा, शीत, स्वभाव आदि परीषहों को परम साम्य भाव से सहन करने वाले थे। सुख, दु: ख, शत्रु, मित्र, लाभ, अलाभ, जीवन, मरण और निंदा, स्तुति में समभाव धारण करते हुए निर्विकारी और बुद्धिमान हो गए थे। इस प्रकार तपश्चरण करते हुए बहुत से वर्षों में बिताकर अंत समय में भावदेव-गर्वदेव नाम के ये दोनों मुनिराज पंडित मरण से प्राणों का त्याग करके तीसरे सनत्कुमार स्वर्ग में देव हो गए हैं। वहाँ पर सम्यक्त्व और व्रतों के महात्म्य से चिरकाल तक दिव्य सुखों का अनुभव करते रहे हैं।
                                     
भवदेवमुने: वृतेषु स्थिरीकरणं (भवदेव मुनि का व्रत में स्थिरीकरण)

कुछ महीने निकल जाने के बाद वे ही सौधर्म आचार्य संघ सहित विहार करते हुए उसी वर्धमान नगर के बाहर बगीचे में रुक गए। कुछ मुनिगण ध्यान में लीन होकर तपश्चर्या करने लगे और कुछ मुनि अपने स्वाध्याय में देखो हो गए। उसी समय भवदेव मुनि आहार के बहाने नगर में घुसे। जाते हुए मार्ग में एक अतिनुन्नत भव्य जिनमंदिर देखा। तब मंदिर में जाकर तीन प्रदक्षिणा देकर भक्तिभावपूर्वक जिनेन्द्र प्रतिमा को नमस्कार किया। उसी चैत में में एक अर्यिका रहती थी वं उन्होंने आकर मुनिराज को नमस्कार करके रत्नत्रय की अनुकूल पूछी, मुनिराज भी अर्यिका की मित्रता पूछकर बोले कि हे आर्ये! इसी नगर में भावदेव भवदेव नाम के दो सगे भाई रहते हैं। उनमें से छोटे भाई की नव विवाहिता पत्नी कहाँ है? तुम्हें मालूम है क्या?

इतना सुनते ही वह आर्यिका समझ गई कि ये ही महादेव मुनि हैं, जो कि सखित होकर आ गए हैं। उस समय वह बहुत ही घबरा गई और सभी पूर्व वृत्तान्त को बतलाकर अनेकों दृष्टांतों से मुनि को संबोधित करते हुए उसका स्थितीकरण करके बोली हे मुनिराज! वह गर्वदेव की पत्नी मैं ही हूँ। भवदेव की मुनी दीक्षा के अनंतर अपने धन से इस जिनमंदिर का निर्माण कराके पंचकल्याणक रिटर्न कराकर मैंने संसार समुद्र से पार होने के लिए यह आर्यिका दीक्षा ले ली है।

इतना सुनकर भवदेव के मन में विषय भोगों के प्रति बहुत ही ग्लानी उत्पन्न हो गए हैं। उस आर्यिका की बार-बार स्तुति करते हुए वे मुनिराज वहाँ से चलकर वापस संघ में आ गए।
                                     
भावदेवब्रह्मणस्य दीक्षा ग्रहण (भावदेव ब्राह्मण का दीक्षा ग्रहण)

जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र के आर्यखंड में मगधेश में वर्धमान नाम का नगर है। वहाँ पर यज्ञ क्रियाओं में अनुकूल अनेकों ब्राह्मण रहते थे, उनमें आरतीसु नाम का एक ब्राह्मण रहता था, उसका सोमशर्मा नाम की भार्या थी जो कि साध्वी और पतिव्रता धर्म परायण थी। ये दोनों के भावदेव और भवदेव नाम के दो पुत्र थे। ये दोनों विद्या अभ्यास द्वारा वेदशास्त्र, व्याकरण, तर्क, वैद्यक, छंद, निमित्त, संगीत, काव्य और अलंकार आदिविषों में प्रवीणता को प्राप्त हो चुके थे और वादविवादों में भी दृढ़, यवन अवस्था को प्राप्त हो चुके थे।

पूर्वोपार्जित पापकर्म के उदय से उनके पिता आरतीसु ब्राह्मण महाकुष्ट रोग से पीड़ित हो गए, वे गलित कुष्ट की वेदना को सहन करने में असमर्थ होते हुए हमेशा मरण चाहने लगे। पति मृत्यु के बाद उनकी भार्या भी शोक से संतप्त होती हुई पति की चिता में ही जलकर मर गई। माता-पिता के वियोग से भावदेव-महादेव दोनों ही भाई अत्यन्त दु: ख का अनुभव करते हुए विलाप करने लगे। बंधु-बांधवों ने इनको समझा-बुझाकर जैसे-तैसे शांति प्राप्ति कराई, तब इन दोनों ने शोक को छोड़कर माता-पिता की मरण क्रिया को पूर्ण किया।

अनंतर उसी नगर में श्री सौधर्म नाम के आचार्य पधारे, वे संपूर्ण परिग्रह से रहित, जात-रूपधारी-दिगम्बर, गुप्ति, समिति और दस धर्मों से युक्त शास्त्रपद परमदयालु अपने आठ मुनियों के संघ सहित वहाँ ठहर गए। भावदेव ब्राह्मण भी उन गुरुओं के दर्शन को करके और उनके उपदेश को सुनकर अभिभ्रमण से भयभीत होता हुआ विरक्तमना होकर श्री सौधर्म आचार्य से प्रार्थना करने लगा कि हे स्वामिन्! संसार समुद्र में डूबते हुए मेरी रक्षा करो मुझे पवित्र करो और कृपा करके मुझे जैनेश्वरी दीक्षा प्रदान करो। भावदेव के वचन को सुनकर और 'यह विरक्त हो चुकी है' ऐसी समझकर सद्धर्मरूपी अमृत से उसे संतप्रित करके दीक्षा दे दी। ये भावदेव भी सर्वसाव्याविज्ञान-पापयोग से विरत होते हुए और अपने संयम का पालन करते हुए गुरुदेव के साथ विहार करने लगे, ये साधु तपस्वी, विनयी, तत्त्वों का अभ्यास करने वाले, स्वाध्याय के प्रेमी, अपनी शुद्धात्मा का ध्यान करते थे। वेस्कुट् यह सोचते थे कि '' मैं धन्य हो गया हूँ, कृतकृत्य हो गया हूँ, पुण्यली हो गया हूँ जिससे मैं अनादि काल से नहीं प्राप्त हुआ उत्तम जिनधर्म को प्राप्त करके संसार समुद्र को शीघ्र ही पार करूँगा। ' इस प्रकार से वे साधु परम संतोष को प्राप्त हो गए थे।
                                     
भावदेवदेहदेवयो: पुनर्मुष्यजन्मलाभ: (भावदेव और भवदेव को पुन: मनुष्य जन्म की प्राप्ति)

पुन: भावदेव-गर्वदेवचर उन दोनों देवों ने तृतीय स्वर्ग की सात सागर मंंत आयु को समाप्त कर दिया, उसमें जब षट्मासप्यंत आयु अवशिष्ट रह गए थे, तब कल्पवृक्ष की ज्योति मंद पड़ गई, आदि अनेकों ऋषि रिश्तों से स्वर्ग से अपना पतन होने का अत्यंत विलक्षण शोक है। लगे रहे। उस समय अन्य देवों ने आकर उन दोनों देवों को खूब ही धर्मोपदेशक रूप से निर्दिष्ट किया। तब धर्मबुद्धि से वे दोनों ही देव जिनमंदिर में चलते भावनिधि चमत्कारक जिनपूजा करते हुए वहीं ठहरे, अनंतर अंत समय को निकट जानकर कल्पवृक्ष के नीचे बैठकर समाधान चित्त हुए प्रतिमायोग को ग्रहण करके आत्मज्ञानन, लीन हो गये और महात्मा का बार-बार स्मरण करते हुए प्राणों का प्रण लेते हैं। त्याग करके मध्यलोक में आ गये।

जहाँ पर आये? -जम्बूद्वीप के महामेरू पर्वत के पूर्व विदेह क्षेत्र में सदा चतुर्थ काल ही रहता है, वहाँ शाश्वत कर्मभूमि की व्यवस्था है। उस पूर्व विदेह में पुस्कलावती नाम का एक देश है, उसमें पुंडरीकणी नाम की नगरी है, जो कि परकोटे आदि से सुशोभित है। उस विबे की नगरी में सदैव जिनधर्म का पालन करते हुए लोग श्रावक धर्म का पालन करके मुनि हो जाते हैं और कर्मों का नाश करके देहरहित विभव (सिद्ध) हो जाते हैं इसलिए उनका देह विभव ’यह नाम सार्थक ही है।

इस नगरी के व न्कादंत महाराज की रानी का नाम यशोधना था। भावदेव का जीव, देव स्वर्ग से च्युत होकर उन दोनों के सागरचन्द्र नाम का पुत्र हो गया।

उसी पुष्कलावती देश में वीतशो नाम की दूसरी नगरी है। उसके शासक महापद्मचक्रवर्ती थे, उनके छायनवे हजार रानियाँ थीं, उनमें से एक वनमाला रानी महापुण्यशालिनी थी। भवदेव का जीव देव स्वर्ग से च्युत होकर इस वनमाला के शिवकुमार नाम का पुत्र हो गया है। यह शिवकुमार माता-पिता के सुख को बढ़ाता हुआ स्वयं चन्द्रमा की कला के समान उगता हुआ शोभित हो रहा था। सभी जों का प्रिय यह बालक क्रम से अंत: पुर में खेलता हुआ शैशव अवस्था को समाप्त कर युवा हो गया है।
                                       
शिवकुमारस्यासिद्धि व्रतानुष्ठानं (शिवकुमार का असिदेह व्रत)

किसी समय राजभवन के करीबी किसी के घर में चारणऋद्धिधारी श्रुतकेवली ऐसे सागरचंद्र नाम के मुनिराज आहार के लिए पधारे। सेठ जी ने शुद्ध भाव से नवकोटी विशुद्ध प्रचारुक आहार मुनिराज को दिया। ऋद्धिधारी मुनिराज को दान देने के माहात्म्य से सेठ के आंगन में आकाश से रत्नों की वृष्टि आदि पंच आश्चर्य होने लगे। उस समय जयजयकर शब्दों के द्वारा कोलाहल के फैल जाने पर राजभवन में स्थित शिवकुमार ने कौतुक से बाहर जाकर पूछा। अहो! मैंने किसी गर्व में इन मुनिराज का दर्शन किया है, ऐसा लगता है कि उसके साथ ही संचित जाति स्मरण हो गया है। पूर्व भव के ये बड़े भाई हैं, ऐसा निश्चित करके वह मुनिराज के पास आया और स्नेह के अतिरेक से मूच्र्छित हो गया। इस वृत्तांत को सुनकर चक्रवर्ती स्वयं वहाँ आकर पुत्र के मोह से व्याकुल होते हुए अत्यधिक विलाप करने लगे पिता के इस प्रकार के शोक को देखकर अत्यर्थ विरक्त भी कुमार ने जैसे-तैसे घर में रहना स्वीकार कर लिया और उसी दिन से ब्रह्मचारी व्रत का पालन करते हैं। यह शुद्ध सम्यग्दृष्टि अपने मित्र दृढ़वर्मा के द्वारा भिक्षा से लाए गए कृतकारित आदि दोषों से रहित शुद्ध भोजन को कभी-कभी गृहण करता था। कहा भी है-

उसी दिन से कुमार ने निश्चित ही सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करके एक वस्त्रधारी, ब्रह्मचारी होता हुआ मुनि के समान घर में रहता था। बहुत प्रकार के पक्ष-मास उपवास आदि रूप से अनशन आदि तपों को करते हुए महावीरकृष्ण कुमार ने पाँच सौ स्त्रियों के बीच में रहते हुए असि भैरवरत का पालन किया था। इस प्रकार से चौंसठ हजार वर्ष तक असिध्वत का पालन करते हुए आयु के अंत में दिगम्बर मुनि से समाधिपूर्वक मरण द्वारा ब्रह्मल नामक छटे स्वर्ग में दश सागर की आयु को प्राप्त करने वाला विद्युन्माली नाम की महान इन्द्र हो गया है।

जैनम् जयतु रेगम्

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