क्या रावण अहिंसक था ?

क्या रावण अहिंसक था ?

शुभचंद्र- गुरूजी ! क्या रावण अहिंसा धर्म को मानने वाला था ?

गुरूजी- हाँ,बरत ! वह अहिसा धर्म का प्रेमी था | जीवों कि हिंसा में प्रवृत्त हुए मिथ्याद्रष्टियों का बलपूर्वक निग्रह करता था | इसी सन्दर्भ में एक घटना पद्मपुराण में आई है | उसे तुम सुनो-
जब रावण दिग्विजय करता हुआ इस पृथ्वी पर अपनी सेना के साथ विचरण कर रहा था उस समय वह बड़े-बड़े मानी राजाओं को चरणों में नम्र करते हुए चक्रवर्ती के सामान सुशोभित हो रहा था |वह जगह-जगह जीर्ण मंदिरों का जीर्णोध्दार कराता जाता था और देवाधिदेव जिनेन्द्रदेव कि बड़े भाव से पूजा करता रहता था | धर्म से द्वेष रखने वाले को नष्ट करता था और दरिद्र मनुष्यों को धन से परिपूर्ण कर देता था | सम्यग्दर्शन से सुध जनों की बड़े स्नेह से पूजा करता था और जो वेषमात्र से दिगंबर मुद्रा के धारक थे ऐसे मुनियों को भी भक्तिपूर्वक नमस्कार करता था | इस प्रकार से वह उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान करता हुआ राजपुर नामक नगर के समीप पहुँचा और वहाँ के राजा मरुत्वान् के पास अपना दूत भेज दिया |

उधर राजा मरुत्वान् नगर के बाहर यज्ञशाला में बैठा हुआ था |
हिंसा धर्म में प्रवीण संवर्त नाम का एक प्रसिद्ध याजक राजा के लिए हिंसा यज्ञ का उपदेश दे रहा था | उस समय हिंसा यज्ञ के प्रेमी बहुत से ब्राह्मण उस यज्ञ-विधि में निमंत्रित किये गये थे जो कि लाभ के वशीभूत हो अपने स्त्री पुरुषों सहित वहाँ आ चुके थे | बहुत से पंडित वेदों की ऋचाओं का मंगल पाठ कर रहे थे सैकड़ों हीन-दीन पशु भी वहाँ लाकर बांधे गये थे भय से उन पशुओं के पेट दुःख कि साँसे भर रहे थे |
उस समय अपनी इच्छा से आकाश में भ्रमण करते हुए नारद ने वहाँ पर बहुत बड़ी भीड़ देखी | उसे देख आश्चर्यचकित हो सोचने लगे- “यह उत्तम नगर कौन है ? ये सेना किसकी है ? यह प्रजासमूह भी यहाँ यहाँ क्यों ठहरा हुआ है ?’
ऐसा विचार करता हुआ नारद कौतुहलवश निचे उतारकर यज्ञशाला के समीप पहुँचा | वहाँ पर बांधे हुए पशुओं को देखकर दया से युक्त होकर राजा मरुत्वान के निकट पहुँच गया और कहने लगा- “हे राजन ! तुमने यह क्या प्रारंभ कर रखा है ? यह प्राणियों कि हिंसा नरक का द्वार है |”
तब राजा ने कहा- हे ऋषे! इस यज्ञ से मुझे जो फल प्राप्त होने वाला है वह समस्त शास्त्रों का ज्ञाता यह याजक पुरोहित ही तुम्हे बताएगा |”
तब नारद पुरोहित से कहने लगा-“अरे मुढ़! तूने यह हिंसा यज्ञ का आडम्बर क्यों फैलाया है ? सर्वज्ञ भगवान के वचनानुसार तेरा यह कार्य धर्म नहीं है, प्रत्युत महानिंद्य है और नरक-निगोदों का कारण है|”

यह सुनकर वह संवर्त पुरोहित
क्रोध के आवेश में आकर बकने लगा- “अहो! तू बड़ा ढीठ मालूम पड़ रहा है, जो बिना बुलाए ही यहाँ आ पहुँचा है और बिना कुछ पूछे ही शिक्षा दे रहा है |अतिन्द्रिय पदार्थों के देखने वाले सर्वज्ञ कोई हो सकते हैं क्या ? जिन्होंने धर्म को बतलाया हो | अरे! वेदी के मध्य जो पशु होम जाते हैं और होम को करने-कराने वाले भी स्वर्ग को प्राप्त कर लेते हैं | ब्रह्मा ने यज्ञों के लिए ही पशुओं का निर्माण किया है | यह वेद का सूत्र है-'यज्ञार्थ पशवः स्रष्टाः' हमारे यहाँ जो अपौरुषेय वेड मने गये हैं, वे ही प्रमाण हैं, न कि तेरे यहाँ सर्वज्ञ के द्वारा कथित आगम |"
इतना सुनते ही नारद वाद-विवाद के लिए तैयार हो गये और कहने लगे-"अरे पुरोहित! तू कह रहा है कि सर्वज्ञ कोई नहीं है किन्तु ऐसा तूने कैसे निर्णय किया?" देख! यदि तीनों लोकों में देखकर आया है कि कोई सर्वज्ञ नहीं है तभी तो तू कह सकता है अन्यथा कैसे कह सकता है और यदि तूने सरे विश्व को देख लिया है तब तो तू स्वयं ही सर्वज्ञ बन गया है | क्योंकि "सर्वं जानातीति सर्वज्ञः" जो सभी को जानता है वाही सर्वज्ञ है | और यदि तूने तीनों लोकों को नहीं देखा है तो तू कैसे कह रहा है कि कोई सर्वज्ञ नहीं है? जा तू स्वयं अल्पज्ञ है तब तुझे ऐसा कहने का भी कोई अधिकार नहीं है | इसलिए कर्ममल कलंक को नष्ट करने वाले सर्वज्ञ-सर्वदर्शी भगवान है और वे अतीन्द्रिय पदार्थों के ज्ञाता-द्रष्टा हैं, इसमें संदाह नहीं करना चाहिये |

जो तू कह रहा है कि वेदी के मध्य पशुओं का होम करने से पाप नहीं होता है, प्रत्युत् वे पशु स्वर्ग चले जाते हैं, तो मूढ़! तू अपने ही परिवार को पहले स्वर्ग क्यों नहीं भेज देता है? देख बेचारे ये पशु कैसे बिलबिला रहे हैं? कैसे तड़प रहे हैं? और कैसे दीन कातर हो रहे हैं?
यदि होम में हिंसा करने वाले याजक और यजमान स्वर्ग को प्राप्त कर लेते हैं, तो पुनः धीवर, खटीक और बधीक हत्यारों को भी स्वर्ग मिलना चाहिये और फिर भला नरक में कौन जायेंगे? हाँ, यदि होम में मारे गये प्राणी हँसतें हुए सुखी दिखने लगे तब तो फिर भी उनकी सुगति होगी, ऐसा कोई मान ले किन्तु देख! यह होम में डाले जा रहे पशु कैसी चीत्कार कर रहें है | इनका रोना, चिल्लाना तू कैसे देख रहा है? अरे निर्दयी! तू कितना निष्ठुर और क्रूरकर्मा है!

जो तू कह रहा है 'ब्रह्मा ने पशुओं की स्रष्टि होम के लिये ही की है' सो वह सर्वथा असंगत ही है | पहली बात तो जो ब्रह्मा परमपिता परमेश्वर है, क्रत्क्रत्य है तो वह स्रष्टि रचने के प्रपंच में क्यों पड़ता है? और यदि स्रष्टि का निर्माण भी मान लो तो यदि वह करुणासागर है, तो ऐसे पापी, दुव्र्यसनी,पार्टी,हिंसक,चोर,डाकुओं को क्या बनाता है? यदि कहो कि इन पापकर्मा को नरक में दुःख मिलेगा तो उसने नरक की व्यवस्था भी क्यों बनाई? परमकारुणिक परमपिता को तो अच्छे-अच्छे मनुष्यों का स्वर्गादि शुभ स्थानों का ही निर्माण करना चाहिये तथा ऐसे पशुओं का निर्माण ही क्यों करता है जिससे उन्हें अग्नि के कुण्ड में झोंका जाये? अरे भले मानुष! सच तो यह है कि धुप,कर्पूर,कचहरी आदि सुगन्धित पदार्थों और पुराने धनों से ही होम किया जाना शास्त्र में लिखा है |

जो तू वेड का अपौरुषेय कह रहा है,वह भी गलत है |
वेड तो ऋषियों द्वारा रचे गये हैं | हाँ, जो मांसाहार के समर्थक थे, उन्होंने ही उन वेदों में हिंसा का विधा कर दिया है | सच्चे वेड तो जिनेंद्रदेव के द्वारा कहे हुए चार अनुयोग ही हैं जिनमे सर्वत्र अहिंसा धर्म का ही कथन है |"

इस प्रकार समझाते हुए नारद को उन क्रूरकर्मा याजकों कि आगया से कर्मचारियों ने घेर लिया और हाथों से मुक्कों से मारने लगा | इसी बीच रावण का दूत उधर आ पहुँचा और उसने नारद कि यह दुर्दशा देखि और जल्दी से जाकर रावण को सूचना दे दी |

रावण उसी समय वेगशाली वाहन पर सवार होकर उस यज्ञभूमि में आ पहुँचा | रावण के साथ ही वहां आ गये | उन लोगों ने पल भर में नारद को उन दुष्टों के घेरे से मुक्त कर दिया | यज्ञ के खम्बे तोड़ डाले, क्रूरकर्मा ब्राह्मणों को पीटना शुरु कर दिया और पशुओं को बंधन से मुक्त कर दिया | बेचारे दीन-हीन पशुओं अपने प्राणों को पाकर जंगल में भाग गये | रावण के कर्मचारियों ने उन निर्दयी यज्ञ करने वालो को इतना पीटा कि वे सब त्राहि-त्राहि करने लग गये | तब दयालू रावण ने उनसे कहा कि-"अरे धूर्तों! जैसे तुम्हे दुःख अप्रिय | तीनों लोकों में जितने भी प्राणी हैं सभी सुख चाहते हैं और दुःख से डरते हैं | सभी को अपना जीवन प्रिय है |"

इतना सुनते ही वे ब्राह्मण कहने लगे-"अब हमें छोड़ दो,मत मरो | अब हम लोग ऐसा हिंसा यज्ञ कभी भी नहीं करेंगे | हे राजन!आप हमारी रक्षा करो | हे नारद ऋषे! तुम तो बड़े दयालु हो, अब मुझे जीवन दान दिलाओ | हाय!हाय! घोर अनर्थ हो गया | अब हम लोग सदा ही अहिंसा धर्म की शरण में रहेंगे | हमारी रक्षा करो, रक्षा करो |"

इस प्रकार उन सबका रोना चिल्लाना सुनकर नारद का ह्रदय करुणा से आर्द्र हो गया | उसने रावण से कहा-"हे राजन! अब इन बेचारों को छोड़ दो अब इनकी बुद्धि ठिकाने आ गई है |"

रावण का संकेत पाते ही कर्मचारियों ने उन सबको छोड़ दिया | राजा मरुत्वान भी दुष्ट अभिप्राय छोड़कर नारद के समीप आया और उन्होंने साष्टांग प्रमाण कर रावण के निकट पहुंचकर उन्हें प्रणाम किया |इसी बीच रावण ने कहा-"हे ऋषे! आप आज्ञा दें तो मैं इन दुष्ट प्रकृतियों के पुरोहितों को निर्मूल समाप्त कर दूँ जिससे फिर कभी हिंसायज्ञ कि परंपरा न चल सके |"

तब नारद कहते हैं-"हे राजन! एक बार जो कुत्सित परंपरा चल जाती उसका निर्मूल विनाश असंभव है | इस पृथ्वी पर चक्रवर्ती सुभौम ने इक्कीस बार इन ब्राह्मणों का सर्वनाश किया था फिर भी ये अत्यन्ताभाव को प्राप्त नहीं हो सके अर्थात इनका सर्वथा अभाव नहीं हो सका |
हे दशानन! जब सर्वज्ञ जिनेन्द्र देव भी इस संसार को कुमार्ग से रहित नहीं कर सके तब फिर हमारे जैसे लोग कैसे कर सकते हैं?
अतः हे सत्पुरुष! अब तुम इन मुढ़ों कि हिंसा से विरत हो जाओ |"

इतना सब सुनकर मरुत्वान् ने अर्धचक्री रावण को बार-बार प्रणाम कर क्षमायाचना करते हुए प्रसन्न किया और अपनी कनकप्रभा पुत्री का पाणिग्रहण रावण के साथ कर दिया | रावण ने भी हिन्सयाग्य का विध्वंस करके पुरोहितों को अहिंसा धर्म का उपदेश दिया, नारद की भक्ति की | मरुत्वान राजा को अपने अनुकूल करके उसकी पुत्री के साथ मनचाहे भोगों का अनुभव करता हुआ, आगे के देशों पर विजय प्राप्त करने की आशा से वहाँ से प्रस्थान कर गया |

शुभचंद्र- गुरूजी! इस कथानक से स्पष्ट है कि रावण राछसी प्रवृत्ति का नहीं था प्रत्युत्त् बड़ा दयालु था |

गुरूजी- हाँ शुभचंद्र! इसने अपने जीवन में एक सीता अपहरण के कलंक से अपना अपयश चिरस्थायी कर लिया है अन्यथा इसने अपने जीवन में कई बहुत अच्छे-अच्छे कार्य हैं |

शुभचंद्र- इससे यह भी शिक्षा मिलती है परस्त्री सेवन से बढकर संस्सर में कोई दुसरा पाप नहीं है | मात्र परस्त्री सेवन कि अभिलाषा से ही बेचारा रावण आगल-गोपाल में नींध गिना जाता है और अभी तक भी नरक में दुःख भोग रहा है |

गुरूजी- इसलिए तो पुराण चित्रों को पड़ने का उपदेश साधू लोग देते रहते हैं | उनका आदर्श जीवन अपने को वैसा बन्ने की प्रेरणा देता है और अपने को पापों से बचाता रहता है |

शुभचंद्र- सच है गुरूजी! अब मैं पद्मपुराण का स्वाध्याय जरूर करूँगा

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