बड़ी साधुवंदना -8

बड़ी साधुवंदना - 71

धन्ना ने शालीभद्र , मुनीश्वरो नी जोड़।
नारी ना बंधन, तत्क्षण नाख़्या तोड़।90।
घर कुटुंब कबीलों, धन कंचन नी क्रोड़।
मास मास खमण तप, टालशे भव नी खोड़। 91।

भद्रा माता की राज निष्ठा तथा
शालीभद्र जी की विरक्ति।

राजगृही नगरी में एक बार एक रत्नकंबल का व्यापारी आया। उसके पास अति मूल्यवान 16 रत्नकंबल थे। राजगृही नगरी में उसने कंबल बेचने का प्रयास किया। यहां तक कि राजमहल के चक्कर भी लगाये। पर एक लाख सुवर्णमुद्रा का एक कंबल खरीदने को कोई तैयार नही था। श्रेणिक का राजकोष संपन्न था, परन्तु श्रेणिक उस धन को प्रजा की संपत्ति मानता था। प्रजा की संपत्ति को इस तरह खर्च करना गवाँरा नही था।

वह व्यापारी निराश हो गया, राजगृही जैसी श्रीमंतो की नगरी होते हुए कोई  उसके 1 कंबल तक खरीद नही पाया। तो राजगृही श्रीमंत कैसे हुई? उस निराशा को शब्दों में अभिव्यक्त करता हुआ राजमार्ग से होते हुए भद्रा माता के महल से गुजरा।

उसके वचन माता भद्रा ने सुने, राजगृही से कोई निराश जाए, अन्य राज्यो में जाकर राजगृही के राजा व राज्य की निंदा करेगा यह भद्रमाता को असह्य लगा। उसने व्यापारी को बुलाया। सत्कार करने कर बाद,  जहां कोई एक कंबल खरीदने को तैयार नही था वहाँ भद्रा ने अपनी 32 पुत्रवधुओं के लिए 32 कंबल मांगे। पर उस व्यापारी के पास 16 थे। भद्रा ने 16 ही कंबल खरीद लिए। और उसी व्यापारी के सामने उस 16 कंबल के 2 - 2 टुकड़े कर अपनी पुत्रवधुओं को पहुंचा दिए। यह देख व्यापारी चकित हो गया। राजगृही की श्रीमंताई, वैभव के लिए बोले उसके शब्दों की माफी मांग कर चला गया।
पुत्रवधुओं ने वे कंबल के टुकड़े को वापरकर दूसरे दिन निकाल दिए। यह बात दासियों द्वारा राजमहल में पहुंची। राजा श्रेणिक इस लखलूट, अमाप वैभव को जानकर, भद्रमाता की राजनिष्ठा को देख सुनकर उस वैभव के मालिक शालीभद्र जी से मिलने आये।

माता भद्रा ने उनका आदर सत्कार किया। तब शालीभद्र अपने महल के सातवी मंजिल पर थे। श्रेणिक ने शालीभद्र से मिलने की इच्छा की। माता ने श्रेणिका सन्देश पहुँचाया - की हमारे नाथ  आये है । ( कुछ गर्न्थो में शालीभद्र जी का जवाब इस तरह है : - माता, में क्यों आऊ, नाथ को अभी गोदाम में रखवा दीजिये। यह उनकी सुकुमालिता, उनके व्यवहारिक नादानी को दर्शाता है। 2/3 बार सन्देश पहुचाने के बाद ) शालीभद्र जी आये, श्रेणिक से मिले। पर उनके जाने के बाद माता से नाथ शब्द का अर्थ पूछा - माता ने बताया : - नाथ मतलब मालिक, स्वामी । राजा हमारे मालिक होते है।

बस चिनगारी लग गई।
कैसे ? यह आगे देखेंगे....




बड़ी साधुवंदना - 72

धन्नो ने शालीभद्र , मुनीश्वरो नी जोड़।
नारी ना बंधन, तत्क्षण नाख़्या तोड़।90।
घर कुटुंब कबीलों, धन कंचन नी क्रोड़।
मास मास खमण तप, टालशे भव नी खोड़। 91।

श्रेणिक राजा,
हमारे नाथ है, मालिक है।
यह शब्द शालीभद्र जी को चुभ गया। अहो, इतना वैभव, इतनी समृद्धि, मेरा इतना सुख होते हुए भी मुझ पर कोई नाथ है? मेरा कोई मालिक है?
चिंतन बढ़ता गया। वैराग्य के बीज को नाथ शब्द का निमित्त मिलते ही वह पनप कर वृक्ष बन गया।
अब मुझे ऐसा सुख पाना है,  जहां कोई मेरा नाथ नही।और सिद्धत्त्व का वह सुख पाने के लिए एक ही मार्ग है संयम ग्रहण। निर्णय ले लिया अब संयम ग्रहण ही एक उपाय, इस दासत्व से मुक्ति पाने का।
माता भद्रा से आज्ञा मांगी। माता पर तो जैसे वज्रपात हुआ। बहुत प्रलोभन दिए, कई तरह से समझाया गया। कई तरह संबंधो की दुहाई दी। पर शालीभद्र जी अब दृढ़ थे।
आखिर माता ने उनका निर्णय स्वीकार किया। पर उन्होंने शर्त रखी। तेरी साधुजीवन की आदत नही। अचानक संयम की दुष्कर साधना तुम सह नही पाओगे। ऐसे करो धीरे धीरे सुख वैभव छोड़ते जाओ। जैसे32 पत्नियों को एक साथ छोड़ना कठिन है। उन्हें एक एक कर छोड़ते जाओ।

माता की आज्ञा स्वीकार की। रोज धीरे धीरे सुख सुविधाओं के त्याग के साथ 1- 1 पत्नियों के त्याग प्रारंभ किया।
इतने बड़े श्रेष्ठी के संयम ग्रहण की बात नगर में फैल गई। उसी नगर में भद्रमाताकी पुत्री सुभद्रा का विवाह धन्ना नामक सेठ से हुई थी। धन्ना सेठ के अन्य 7 पत्नियां भी थी।  सुभद्रा को जब यह बात पता चली तो उसकी आँखों से आंसू बह निकले। धन्ना सेठ ने वजह पूछी तो सुभद्रा ने शालीभद्र जी की दीक्षा का सब बताया।
धन्ना सेठ ने कहा - यदि  शालीभद्र कायर है, यदि वीर होता तो एक साथ 32 पत्नियां क्यों नही छोड़ता।
सुभद्राजी भाई के वियोग से संतप्त थी, सहसा उसके मुख से निकल गया : - यह मुख से कहना सहज है, करना सरल नही। इतनी सुख साहबी छोड़ना आसान नही।
यह धन्ना सेठ को व्यंग्य लग गया। और उसी क्षण सब त्याग करने का निर्णय बता दिया। सुभद्रा आदि 8 पत्नियों ने बहुत समझाया, माफी मांगी पर धन्ना सेठ अब दृढ़ थे ।
घर से निकलकर शालीभद्र जी के यहां आए। और उन्हें समझाया।
दोनो ने तत्काल दीक्षा लेने का निर्णय ले लिया।
अब आगे...



बड़ी साधुवंदना - 73

धन्ना ने शालीभद्र , मुनीश्वरो नी जोड़।
नारी ना बंधन, तत्क्षण नाख़्या तोड़।90।
घर कुटुंब कबीलों, धन कंचन नी क्रोड़।
मास मास खमण तप, टालशे भव नी खोड़। 91।

पत्नी के वचन से जाग्रत हुए धन्ना जी ने शालीभद्र जी को भी जगाया। दोनो ने वीर प्रभु के पास जाकर संयम ग्रहण किया। उत्कृष्ट तप व संयम आराधना करते हुए प्रभुके साथ विचरते रहे।
बारह वर्ष बाद पुनः एकबार वीर प्रभुके साथ राजगृही नगरी पधारे। उद्यान में रहकर साधना करने लगे।दोनो मुनि को मासखमण तप का पारणा था। गोचरी हेतु प्रभुके पास आज्ञा लेने आये। तब प्रभुने संकेत दिया आज मासखमण का पारणा आपकी माता के दी गोचरी से होगा। दोनो मुनि नगर में आये। प्रभु की वाणी थी तो दोनो मुनि सीधे भद्रा माता के घर आये।
इधर प्रभु व धन्ना शालीभद्र मुनि के नगर पदार्पण की सूचना भद्रमाता को मिली। पुत्र व दामाद मुनि के दर्शन को अत्यंत उत्सुक बन गए। माता ने सभी पुत्रवधुओं को तैयार होने की आज्ञा दी व स्वयं भी प्रभुदर्शन करने जाने की तैयारी में लग गए। घर मे जैसे उत्सव छा गया था।

मुनि द्वय भद्रामाता के घर आये, बारह वर्ष में मुनियों ने तप से अपने शरीर अत्यंत क्षीण कर दिए थे। उनके देह की आकृति बदल गई थी। बदला देह व मुनि वेशमें घर मे किसी ने पहचाना नही। मुनि युगल गोचरी लिए बिना ही लौट गए। रास्ते मे धन्या नामकी एक ग्वालिन ने बड़े भाव से दही बहोराया। मुनि युगल ने आकर प्रभु को गोचरी बतलाई।
और कहा कि भद्रमाता से गोचरी नही मिली। पर एक ग्वालिन से मिली। तब केवलज्ञानी प्रभु ने शालीभद्र जी को उनके पूर्वभव की कथा सुनाई व वह धन्या माता आपकी पूर्वभव की माता है यह बताया।

कर्मो का विपाक जान मुनियुगल ने अब अंतिम आराधना करने का सोच लिया। प्रभु आज्ञा लेकर वैभार गिरी पर्वत पर आकर अंतिम संलेखना कर पादपोप गमन संथारा स्वीकार किया।
भद्रामाता व सभी पुत्रवधु प्रभु के दर्शन करने आये। दर्शन वन्दन पश्चात उन दो मुनियों के विषय मे पूछा- तब प्रभु ने बताया कि वे आपके घर गोचरी आए थे पर आप ने उन्हें पहचाना नही। यह सुनकर माता अत्यंत व्यथित हुई। प्रभु से उनकी साधना स्थल जान कर पश्चाताप के भाव लिए सब वैभारगिरी आये।

मुनिद्वय तो ध्यान में थे। पश्चाताप व पुत्र मोह से माता आदि ने दर्शन के लिए , आंखे खोलने के लिए कई मिन्नतें की। धन्ना मुनि इन सब से ऊपर अपनी साधना में दृढ़ हो चुके थे। पर शालीभद्र मुनि ने माता के वचनों से द्रवित होकर एक पल के लिए आंखे खोली और पुनः ध्यान में लीन हो गये।
यह क्षणमात्र का मोह उनके मोक्ष को एक भव दूर लर गया। धन्ना मुनि निर्वाण प्राप्त कर सिद्ध बुद्ध मुक्त बने व शालीभद्र मुनि काल कर सर्वार्थसिद्धि विमान में उत्पन्न हुये। वहां से काल कर अगले भव मोक्ष जाएंगे।

धन्य है जिनशासन
हम प्रभु से  शालीभद्र जी की रिद्धि वैभव मांगते है,
कभी शालीभद्र जी का त्याग मांगा है??
सोचिएगा।


बड़ी साधुवंदना - 74

श्री सुधर्मा ना शिष्य, धन धन जंबूस्वाम।
तजी आठ अंतेउरी, मात पिता धन धाम । 92।
प्रभवादिक तारी,  पहोंच्या शिवपुर ठाम।
सूत्र प्रवर्तावी, जग मां राख्यु नाम ।93।

यह गाथा के कथानक नंदी सूत्र से।

तीर्थंकरों के बाद हमारे उपकारी गणधर भगवंत, जिन्होंने प्रभुकी वाणी को हमारे लिए गुंफित किया। हम पर अत्यंत अनहद उपकार किया। ऐसे पांचवे गणधर श्री सुधर्मास्वामी तथा उनके पट्ट शिष्य, इस भरत के इस काल के अंतिम केवली जंबूस्वामी की गाथा यह।

सुधर्मास्वामी
कोल्लाग सन्निवेश के अग्नि वेश्यायन गोत्र के धम्मिल ब्राह्मण व उनकी पत्नी भद्दीला के पुत्र। वेद , यज्ञादि में पारंगत पंडित। जिनके पास 500 शिष्य वेद आदि का ज्ञानार्जन कर रहै थे।  भगवान ने शासन स्थापना की उस दिन ये सोमिल ब्राह्मण के यहां आयोजित विशाल यज्ञ में आमंत्रित थे। जब गौतमजी आदि अपनी शंका निवारण कर प्रभु के शिष्य बन गए तब उन्होंने भी बरसो से दबी जिज्ञासाओं को प्रभुसे शांत कर संयम अंगीकार कर लिया। 500 शिष्यों के साथ ही। उस समय उनकी उम्र 50 वर्ष थी।
उनके विशिष्ट ज्ञान को देखते उन्हें गणधर बनाया गया। उस दिन कहते है,  वीर प्रभु ने गणधर पद के साथ ही उन्हें भावी के जिनशासन के सुकानी जानकर 2 बार वासक्षेप डाला।
उत्कृष्ट संयम आराधना करते हुए विरप्रभु के साथ विचरण करते रहे। गौतमस्वामी के सिवा सभी गणधरों ने उन्हें दीर्घ जीवी जानकर वीर प्रभु निर्वाण के पहले ही अपने अपने गण उन्हें सम्हला दिए थे। वीर प्रभु निर्वाण के समय गौतमस्वामी को कैवल्यज्ञान प्राप्त हुआ। और संघ का नेतृत्व सुधर्मास्वामी को सौंपा गया।
इस तरह श्री सुधर्मास्वामी हमारे प्रथम युगप्रधान आचार्य बने। उन्होंने जिनशासन की महत्ती सेवा की। आज हमारे पास जिनवाणी के जो भी आगम है वह सब सुधर्मास्वामी ने जंबूस्वामी को दी हुई वांचना के स्वरूप में है। इस अपेक्षा इनका हम पर अतुल्य उपकार है।
 92 वर्ष की उम्र में उन्हें कैवलज्ञान प्राप्त हुआ। 8 वर्ष केवली पने में विचरते हुए 100 वर्ष की उम्र में जंबूस्वामी को जिनशासन की बागडौर सौंपकर राजगृही से वे सिद्ध बुद्ध मुक्त हुए।

जंबूस्वामी : - के भाव आगे....



बड़ी साधुवंदना - 75

श्री सुधर्मा ना शिष्य, धन धन जंबूस्वाम।
तजी आठ अंतेउरी, मात पिता धन धाम । 92।
प्रभवादिक तारी,  पहोंच्या शिवपुर ठाम।
सूत्र प्रवर्तावी, जग मां राख्यु नाम ।93।

जंबूस्वामी : - यह जिनशासन का एक महत्त्वपूर्ण नाम नही , पर एक अध्याय है। वीर प्रभु के शासन में हुए अंतिम केवली। इनकी गाथा भवोभव की उत्कृष्ट साधना, तप व त्याग बतलाती है।

वीर प्रभुकी केवलीचर्या का करीब मध्यम समय था वह। राजगृही में पधारे हुए प्रभुकी देशना सुनने के लिए देवताओं ने समोवसरण की रचना की।
समोवसरण क्या है? तीर्थंकर प्रभु के केवलज्ञानके बाद प्रथम देशना के लिए तथा बाद में
जब जिस क्षेत्र में तीर्थंकर प्रभु की देशना सुनने वालों की संख्या बहुतायत में हो, तब देवता उस देशना के लिए भव्यातिभव्य एक सभास्थल या देशना स्थल की रचना करते है। यानी व्याख्यान सुनने की जगह ,जैसे आज महान सन्तो के व्याख्यान मंडप होते है। उसका पूरा विवरण फिर कभी अवसर पर। अभी यह जान ले उस सुवर्णमय, रत्नोसे जड़ित अति ऊंचे भव्यातिभव्य रचना यानी समोवसरण में 3 गति के जीव अपना जातिगत वैर भूलकर देशना सुनते है।

राजगृही में रचे गए समोवसरण में अनेक देवता प्रभुकी देशना सुनने आये। राजा श्रेणिकजी भी उपस्थित थे। उन देवो में एक अत्यंत तेजस्वी कांतिमान देव को देखा । उन्होंने देशना के बाद  प्रभु से उस देव के विषय मे जिज्ञासा व्यक्त की। तब केवलज्ञानी प्रभुने उस विद्युन्माली देव के भूतकाल, वर्तमान व भविष्यकाल - तीनो की जानकारी श्रेणिकजी को दी।
राजा यह सुनकर अत्यंत धन्यता का अनुभव करने लगे।
क्या थी वह कथा।

जंबूस्वामी के पूर्वभव - कई समय पहले मगध में सुग्राम नामक ग्राम में दो ब्राह्मण भाई रहते थे। नाम बड़े भाई भवदत्त तथा छोटे भवदेव । युवावस्था में आये भवदत्त ने आचार्य सुस्थित की वाणी से विरक्त होकर संयम अंगीकार किया। और गुरु के साथ विचरने लगे। वर्षो बाद एक बार फिर अपने गांव पधारे। परिवार को धर्म सन्देश देने वह छोटे भाई भवदेव के यहां गये। उसका हाल ही में ब्याह हुआ था। सभी परिवार जनों को धर्म बोध देकर जब मुनि निकले तब छोटे भाई भवदेव भी उन्हें उनके स्थान तक  पहुँचाने आये।
भवदत्त मुनि ने गुरु को भाई को दीक्षित करने का कहा।
भवदेव संकोच में पड़ गया। अरे  मैं तो  अभी-अभी विवाहित हुआ हूं, पत्नी नागिला के साथ अभी तो संसार का सुख भोगना बाकी है , ठीक से नागिला को देखा तक नही, अभी से दीक्षा कैसे ले लूँ ?
पर भाई मुनि का अनादर कैसे  करुँ । संकोचवश वह मौन रहे। उनके मौन को सन्मति समझकर उन्हें दीक्षित किया गया। और मुनियों के साथ विहार कर दिया ।

आगे....





बड़ी साधुवंदना - 76

श्री सुधर्मा ना शिष्य, धन धन जंबूस्वाम।
तजी आठ अंतेउरी, मात पिता धन धाम । 92।
प्रभवादिक तारी,  पहोंच्या शिवपुर ठाम।
सूत्र प्रवर्तावी, जग मां राख्यु नाम ।93।

भवदेव मुनि ने संयम ग्रहण कर वहां से विहार कर दिया। संयम आराधना कर तो रहे थे।
पर यह संयम वैराग्य जनित नही था। अभी भी संसार का मोह पूरी तरह छूटा नही था। नागिला के तरफ का मोह अभी क्षय हुआ नही था। पर भाई मुनि के आगे कुछ बोल नही सकते थे। संयम चर्या के साथ कभी कभी संसार का मोह कभी कभी जाग उठता था।
कुछ समय बाद भवदत्त मुनि अनशन संलेखना कर कालधर्म को प्राप्त हुए।
भाई मुनि के कालधर्म बाद भवदेव मुनि की संसारिक कामना फिर उद्वेग करने लगी। वर्षो बाद वे फिर सुग्राम आये।

गांव में प्रवेश करते हुए वहां कुएं पर पानी भर रही स्त्री को नागिला के विषय मे पूछा।
वह नारी सावध बनी। उसने मुनि को पहचान लिया।
नागिला के विषय मे उसने बताया कि भवदेव की दीक्षा के बाद वह कुछ दिन उदास रही पर, फिर एक साध्वी वृन्द से धर्म की समझ पाकर स्वस्थ हुई। श्राविका के बारह व्रतों का पालन करते हुए तप से देह को सुखाते हुए स्वस्थ रह रही है।
मुनि नागिला की सुंदरता पूछने लगे। अब वह नारी चोंक गई।
 क्यों कि वह स्वयं ही नागिला थी। उसने भवदेव यानी पूर्वपति को पहचान लिया था। उसे एहसास हो गया कि मुनि पत्नी के मोह में महामूल्य संयम से पतित हो रहे है। पर अब नागिला जैन धर्म मे दृढ़ थी। अपने निमित्त से मुनि अपने संयम धर्म से चलित हो यह मंजूर नही था। 
नागिला ने अपनी पहचान उजागर की। और अपनी बुद्धि, श्रद्धा से चलित हो रहे भवदेव मुनि को धर्म मे पुनः दृढ़ किया। भवदेव मुनि भी संभल गये। मूल्यवान संयम की महत्ता समझकर उस गांव से तत्काल विहार कर गए।गुरु के पास जाकर प्रायश्चित लेकर शुद्ध बने। 
 आयुष्य के शेष वर्ष में उत्कृष्ट संयम पालन कर देवलोक में उत्पन्न हुए। ऐसे भव करते हुए धर्म के प्रभाव से  शिवकुमार नाम के एक राजकुमार बने। फिर संयम का आकर्षण हुआ। एक मुनि से देशना सुनकर विरक्त हुए।
पर किन्हीं अंतराय से मातापिता ने संयम की अनुज्ञा नही दी। तब घर मे ही रहकर धर्म व तप का उत्कृष्ट आराधन किया। वह भी एक दो नही पूरे बारह वर्ष तक।  उसी के प्रभाव से शिवकुमार अत्यंत सुंदर, तेजस्वी यह विद्युन्माली देव बने।
वीर प्रभु विद्युन्माली की कथा सुनाते हुए श्रेणिक राजा से कह रहे है।
यह उनके पूर्व भव था। विद्युन्माली वर्तमान भव है।
आगामी भव में वे तुम्हारी ही नगरी में आज से सात दिनों बाद रुषभदत्त नामक श्रेष्ठी की धारिणी नामकी पत्नी की कुक्षी में आएंगे। जंबूस्वामी नामक यह मुनि इस भरत क्षेत्र के अंतिम केवली बनेंगे। इनके निर्वाण बाद इस क्षेत्र में दस वस्तुओं का विच्छेद हो जाएगा।


बड़ी साधुवंदना - 77

श्री सुधर्मा ना शिष्य, धन धन जंबूस्वाम।
तजी आठ अंतेउरी, मात पिता धन धाम । 92।
प्रभवादिक तारी,  पहोंच्या शिवपुर ठाम।
सूत्र प्रवर्तावी, जग मां राख्यु नाम ।93।

वीरप्रभु ने श्रेणिक राजा को विद्युन्माली देव के पूर्वभवो की व आगामी भव कहां होगा यह कथा सुनाई। उस समय वहां जंबुद्वीप अधिष्ठाता अनाधृत देव उपस्थित थे। उन्होंने अत्यंत हर्ष व्यक्त किया। तब श्रेणिक की जिज्ञासा पर प्रभुने बताया, यह देव पूर्वभव में रुषभदत्त के भाई थे। उनके परिवार में अंतिम केवली जन्म लेंगे यह सोचकर हर्षित हो रहे है।

राजगृही के रुषभदत्त - व धारिणी के यहां विवाह के काफी वर्षो बाद पुत्र का जन्म हुआ। गर्भधारण के समय देखे हुए जंबुवृक्ष की वजह से पुत्र का नाम जंबुकुमार रखा गया।  धनाढ्य श्रेष्ठी के यहां जंबुकुमार पले।
करीब 16 वर्ष के हुए। राजगृही की 8 सुंदर श्रेष्ठिकन्याओं के साथ पूर्व ऋणानुबन्ध से उनका विवाह करना निश्चय किया गया। उस दौरान वहां वीरप्रभु के प्रथम पट्टधर सुधर्मास्वामी का शिष्यों के साथ पदार्पण हुआ। धर्मानुरागी प्रजा दर्शन वन्दन करने आई। जंबुकुमार भी आये।

भव्य चरमशरीरी जीव तो थे ही । सुधर्मास्वामी की देशना का निमित्त व उपादान भी मिल गया। जिनवाणी सुनकर विरक्त हुए। और संयम दीक्षा मांगी। सुधर्मास्वामी ने मातापिता की अनुमति का कहा। तब वे अपने घर की तरफ आ रहे थे। मन में उत्साह था कि शीघ्र दीक्षा की आज्ञा लेकर संयम स्वीकार करूँगा।
नगर में प्रवेश करते ही एक ऊंची  जगह रखी हुई बड़ी पत्थर की शिला उनके रथ के आगे बड़े जोर से आ गिरी। रथ व जंबुकुमार जरा से स्थान फेर होने से बच गए।  भवि जीवो का चिंतन भी कैसा होता है यह देखो । उन्होंने सोचा, यदि इस शिला का मेरे ऊपर पात होता तो मैं बिना कोई भी व्रत ग्रहण किये ही काल को प्राप्त होता। मुझे अब विलंब नही करना है। वे पुनः लौटकर सुधर्मास्वामी के पास आये। ब्रह्मचर्य के व्रत ग्रहण किये फिर घर आकर मातापिता से संयम की आज्ञा मांगी।

मातापिता पर वज्रपात हुआ। धारिणी माता बेहोश होकर गिर पड़ी। होश में आये तब पुनः जंबुकुमार को समझाने लगे। प्रेम की दुहाई, विविध प्रलोभन, कई कर्तव्यों का स्मरण करवा कर उन्हें दीक्षा न लेने को समझाया गया...
आगे ...



बड़ी साधुवंदना - 78

श्री सुधर्मास्वामी ना शिष्य, धन धन जंबूस्वाम।
तजी आठ अंतेउरी, मात पिता धन धाम । 92।
प्रभवादिक तारी,  पहोंच्या शिवपुर ठाम।
सूत्र प्रवर्तावी, जग मां राख्यु नाम ।93।

जंबुकुमार मातापिता से दीक्षाकी अनुमति मांगते है। आख़िर बहुत जंबुकुमार के बहुत  समझाने के बाद रुषभदत्त व धारिणी एक शर्त रखते है। जिन 8 श्रेष्ठी कन्याओ के साथ तुम्हारा विवाह तय हुआ है उनके साथ विवाह कर लो। फिर तुम चाहो तो संयम अंगीकार कर लेना।
 अंदर से मातापिता को विश्वास था कि 8- 8 अनुपम सुंदरियों को पत्नी रूप में पाकर जंबुकुमार संयम की बात भूल जाएंगे। जंबुकुमार ने अनुमति दे दी।
यहां किसी के साथ छल का कोई उद्देश्य ही नही था। रुषभदत्त ने यह संवाद, यह समाचार उन 8 कन्याओं के मातापिता तक पहुँचाया। 8  कन्याएँ पूर्वभव की स्नेही थी तथा संस्कार भी उत्तम थे। उनका जवाब आ गया। अब हमने जब जंबुकुमार को मन से पति मान लिया है तब उनकी हर बात स्वीकार्य। हम उन्हीं से विवाह करेंगे। उनके मातापिता ने भी पुत्रियों के दृढ़ विश्वास को देखकर अनुमति दे दी। विवाह की तैयारी शुरु कर दी। सभी को यह लग रहा था कि जंबुकुमार विवाह बाद संयम की बात ही भूल जाएंगे।
आखिर विवाह का दिन आ गया। 8 - 8 सुंदर अप्सरा सी कन्याओं के साथ जंबुकुमार का विवाह हुआ। विपुल धनसामग्री प्रितिदान में आई। विवाह की प्रथम रात्री। सुंदर कक्ष सजाया गया। 8 कन्याएँ सज धज कर अपने पति का संयम आग्रह छुड़ाकर संसार के जीवन  में प्रवेश करने के लिए कटिबद्ध थी। बड़े से महल में जहां बाहर से पधारे अन्य रिश्तेदारों के कक्ष से अलग सजे धजे कक्ष में जंबुकुमार ने प्रवेश किया। 8 विवाहिताओं ने उनका स्वागत किया। एक आसन के चारो तरफ लगे  8 आसन पर सभी बिराजित हुए।

यह जो मिलन था, इतिहास में एक अनूठा मिलन था, जहां विवाह की प्रथम रात्री में  8 विवाहिताओं ने अपने वैरागी पति को संसार सुख की और मोड़ने का भरपूर प्रयास किया था पर,  अंत  में स्वयं उन्हीं का हृदय परिवर्तन होकर वे भी वीर मार्ग पर चल पड़ी थी।  आठों  कन्याओं ने विविध कथानकों के माध्यम से जंबुकुमार की विरक्ति को मोड़ने का प्रयास किया।

बड़ी साधुवंदना - 79

वैराग्यवासित हो उठा। उसने भी जंबुकुमार से संयम ग्रहण करने की इच्छा व्यक्त की। एक ही शब्द निकलता है अदभुत।श्री सुधर्मास्वामी ना शिष्य, धन धन जंबूस्वाम।
तजी आठ अंतेउरी, मात पिता धन धाम । 92।
प्रभवादिक तारी,  पहोंच्या शिवपुर ठाम।
सूत्र प्रवर्तावी, जग मां राख्यु नाम ।93।

जंबुकुमार व 8 पत्नियों के विवाह की प्रथम रात्री।

जंबुकुमार को वैराग्य से मोड़ने के लिए प्रयासरत आठो पत्नियों ने संसार का सुख, जीवन का आनंद उठाने की बोधरूप कथाएँ कही।
जंबुकुमार ने उन सभी को उन्हीं के कथानकों को एक अलग कथानक से प्रत्युत्तर देकर संसार की विषमता तथा संयम की श्रेष्ठता समझाई। राग के माहौल में उन्होंने वितरागीता को पूर्ण रूप से उजागर किया। ग्रन्थों में यह सब कथाएं उपलब्ध है। विषय की जगह  मिलन की पूरी रात त्याग की बातों में पूर्ण हुई।
और
अहो आश्चर्यम !
आठो पत्नियों ने जंबुकुमार की संयम की राह में पत्थर बनने की जगह उसी राह पर अनुगामी बनने का निश्चय कर लिया। यानी की 8 पत्नियों ने भी संयम स्वीकार करने का निश्चय कर लिया। अदभुत अदभुत!

चिंतन व स्वकल्याण की भावना कितनी अदभुत।
पर अभी एक और घटना बनी वहां
500 साथियों  के साथ एक प्रभव नामक लुटेरा विवाह में आये रिश्तेदारों व प्रितिदान में मिले धन को लूटने वहां आ पहुँचा था।
अब?
कौन था यह लुटेरा , प्रभव ?

विंध्याचल के एक राज्य का एक गलत राह पर चलकर बिगड़ा हुआ राजकुमार था वह। राजा ने अपने पुत्र को राज्य निष्कासित कर दिया तो वह जंगल मे जाकर रहा। अपने जैसे लोगो से मिलकर चोरियां करने लगे। धीरे धीरे यह चोर साथियों की संख्या 500 हो गई। समय बीतते प्रभव अत्यंत शक्तिशाली बन गया। उसके पास जगत के किसी भी तालों को खोलने की कला विद्या तालोदघाटिनी तथा सभी को गहरी नींद में सुलाने की विद्या अवस्वापिनी भी प्रभव को सिद्ध हो गई थी। अब उसका साहस भी बढ़ने लगा था। धनाढ्य जंबुकुमार के विवाह की बात जानकर बड़ी लूट के आशय से वह जंबुकुमार के घर आया था ।

 दोनो विद्याओं का प्रयोग कर उसने सबको सुला दिया था वह जंबुकुमार के कक्ष तक आ पहुंचा था। कक्ष में प्रवेश कर ही रहा था पर उसे जंबुकुमार व पत्नियों के बीच हो रहे संवाद को सुना।

उसे आश्चर्य था, मेरी अवस्वापिणी विद्या का जंबुकुमार आदि पर प्रभाव नही हुआ। यही नही उसके 500 शिष्य भी उसके कक्ष तक आकर स्तंभित हो गये। उसने कक्ष के बाहर से ही जंबुकुमार व पत्नियों के बीच का संवाद सुना, तब उसका आश्चर्य हजार गुना बढ़ गया। यह क्या? भोग के चरमसुख की यानी प्रथम विवाह रात्री पर वैराग्य की बाते? ज्यो ज्यो सुनता गया उसका चिंतन मुड़ता गया।

उसने कक्ष में प्रवेश कर जंबुकुमार से उनके पास रही स्तंभिनी विद्या सीखने की मांग की। बदले में अपनी दोनो विद्याएं जंबुकुमार को सिखलाने की तैयारी बतलाई। तब जंबुकुमार ने कहा  मैं वैरागी हुँ। मेरे पास न ऐसी कोई विद्या है न मुझे अब इन विद्याओं की आवश्यकता है।  मैं कल ही संयम अंगीकार करूँगा। यह सुनकर प्रभव ने उनसे ज्यादा संवाद किया। तब जंबुकुमार ने  प्रभव को संसार की नश्वरता व सिद्ध सुख की आवश्यकता समझाई। मनुष्यभव की सार्थकता किस में है यह समझाई।

अहो अहो आश्चर्यम।
एक खतरनाक लुटेरा, जो 500 चोरों का सरदार था, जिसका जीवन ही पापों में बीता था वह भी 

भोर हुई।

माता धारिणी यह समाचार सुनने को आतुर थी कि आठ पत्नियों ने जंबुकुमार की दीक्षा रोक दी। प्रभात के प्रारंभिक कार्य निपटाकर जंबुकुमार मातापिता से मिलने आये। आठो पत्नियों के मातापिता को भी आमंत्रित किया गया।



बड़ी साधुवंदना - 80

श्री सुधर्मास्वामी ना शिष्य, धन धन जंबूस्वाम।
तजी आठ अंतेउरी, मात पिता धन धाम । 92।
प्रभवादिक तारी,  पहोंच्या शिवपुर ठाम।
सूत्र प्रवर्तावी, जग मां राख्यु नाम ।93।

विवाह के दूसरे दिन जंबुकुमार ने धारिणी व रुषभदत्त के साथ 8 श्वसूर व सास को  एकत्र किया।
सभी के सामने जंबुकुमार ने अपने संयम ग्रहण का दृढ़ निर्णय दोहराया उसके साथ ही आठ पत्नियों ने भी अपने संयम स्वीकार करने का निर्णय बताया। सब स्तब्ध रह गए। कहां तो आशा यह थी कि जंबुकुमार अपना निर्णय बदल लेंगे, पर यहां तो आठो पत्नियां भी उनके साथ वीर मार्ग पर चलने को  तत्पर हो गई। रात को आया लुटेरा प्रभव भी उनके साथ दीक्षा लेगा!!!!
जंबुकुमार ने उन सभी  के आश्चर्य को सुंदर  शब्दों में शांत किया। उन्हें संयम के आगे संसार की भौतिक सुख सुविधा के दुख बताये। अब उनकी वाणी सुनकर  जंबुकुमार व आठ पत्नियों के माता पिता भी दीक्षा लेने को तैयार हो गए। 500 चोर भी उपस्थित थे। नेता का अनुसरण कर अणगार धर्म स्वीकार करने का उन्होंने भी निश्चय कर लिया। एक वैरागी ने कितनो का जीवन पलट दिया।

बड़े ठाटबाट से जंबुकुमार व 527  मनुष्यों की दीक्षा संपन्न हुई। सुधर्मास्वामी ने प्रभव आदि मुनियों को, जंबूस्वामी को  शिष्यरूप प्रदान किये। जंबूस्वामी की संयम व तप की उत्कृष्ट आराधना के साथ ही उनकी ज्ञान आराधना भी उच्च थी। उनकी जिज्ञासा, उनका विनय, ज्ञान पचाने की उनकी  विशेषताएँ देखकर सुधर्मास्वामी ने उन्हें  आगम की वांचना दी। आज जो आगम उपलब्ध है वह सब सुधर्मास्वामी की जंबूस्वामी को दी हुई वांचना का ही स्वरूप है। धन्य थे गुरु शिष्य दोनो। धन्य है उनका हम पर उपकार। यह जिनवाणी हम तक पहुंचाई।

वीर निर्वाण के 12 वर्ष बाद केवली गौतमस्वामी का कुल 92 वर्ष की उम्र में  निर्वाण हुआ। और उस समय 92 वर्ष की उम्र में सुधर्मास्वामी को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। 8 वर्ष तक और जंबूस्वामी केवली सुधर्मास्वामी के निश्रा में विचरते रहे। 100 वर्ष की उम्र में जंबूस्वामी को जिनशासन का उत्तराधिकारी बनाकर सुधर्मास्वामी निर्वाण को प्राप्त कर सिद्ध बुद्ध मुक्त बने।

एक योग्य आचार्य बनकर जिनशासन की महत्ती सेवा की। केवलज्ञान प्राप्त किया। अंत मे प्रभवस्वामी को जिनशासन की धुरा सौंपकर वे निर्वाण को प्राप्त हुए। लोकाग्र पर जाकर सिद्ध बुद्ध मुक्त बने। चौथे आरे में जन्मे पांचवे आरे में मोक्ष जाने वाले वह अंतिम जीव थे। उनके बाद इस भरत क्षेत्र से मोक्ष का द्वार बन्द हो गया जो अब आगामी उत्सर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर के शासन में ही खुलेगा। यहां द्वार का आशय सांकेतिक है। सिद्ध शिला का द्वार नही होता। पर इस काल में अब इस भरतक्षेत्र से कोई मोक्ष नही जा सकता ।इसलिए ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने द्वार  बन्द किये ऐसे बोला जाता है ।
सिर्फ मोक्ष ही नही , जंबूस्वामी के निर्वाण के बाद मोक्ष के साथ कुल 10 वस्तुओं का विच्छेद हुआ। यानी अब भरत क्षेत्र में ये 10  वस्तुयें हमें प्राप्त नही हो सकती।
वे दस  वस्तुएँ हैं ।

1  -केवलज्ञान,
2 - मनःपर्यव ज्ञान,
3 - परमावधि ज्ञान,
4 - परिहार विशुद्ध चारित्र
5 - सूक्ष्म संपराय चारित्र
6 - यथाख्यात चारित्र
7 - पुलाक लब्धि
8 - आहारक शरीर
9 - क्षायिक समकित
10 - जिनकल्पी मुनिपना

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