मांस का मूल्य
मांस का मूल्य
मगध नरेश के प्रश्न पर सामंत गंभीर हो गए और मन ही मन विचार करने लगे, "अन्न सबके लिए सुलभ है, सस्ता भी है|
पर... पर कहाँ सस्ता और सुलभ है वह ? कृषक कितना कष्ट उठाकर एक एक दाना धरती के गर्भ से बीनता है ? खून पसीना एक कर देता है थोड़े से अन्न के लिए| फिर खेती तो पूरी तरह से कुदरत पर निर्भर है, कभी अतिवृष्टि, कभी अनावृष्टि! कीट, पतंग, रोग ! कितने दुश्मन है उनके? अनेक दुर्देवों से बचकर थोडा सा अन्न बेचारे किसानों के हाथ में पंहुचता है तो फिर सुलभ कैसे हुआ? अन्न क्रय करने के लिए तो धन भी चाहिए| अन्न से तो मांस सुलभ है| शिकार के लिए निकल जाए जंगल में, दो-चार हिरण, खरगोश आदि मार डाले की बहुत सा मांस मिल जाता है| शिकार का आनंद भी और भोजन के लिए मांस भी| एक पन्त दो काज| भोजन का इससे सस्ता और सुलभ साधन क्या हो सकता है| न प्रकृति की अधीनता और ना ही कोई ज्यादा श्रम| मनुष्य जब चाहे इसे प्राप्त कर सकता है|"
महाराज ने सामंतों को मौन देखकर अपना प्रश्न फिर से दोहराया| तभी एक सामंत ने अपने विचारों को स्पष्ट करते हुए कहा, " महाराज! सबसे सस्ती चीज़ मांस है, जिसे मनुष्य जब चाहे तब सहज भाव से प्राप्त करके अपना एवं अपने परिवार का गुज़ारा कर सकता है|"
शिकार के रसिक दुसरे सामंतों ने भी हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा, "हाँ महाराज! जंगल में पशु पक्षियों की क्या कमी है, धनुष बाण लिया और मार लिए दो चार पशु पक्षी| बन गया काम ! न कुछ मेहनत और ना कुछ खर्च| बिल्कुल ठीक बात है|"
कोई शिकार का रसिक था तो कोई मांसाहार का, सभी एक के बाद एक इसका समर्थन करते चले गए|
महाराज ने महामंत्री अभयकुमार की तरफ देखा जो अभी तक गंभीर चिंतन की मुद्रा में, विचारों की गहराई में बैठे थे| महाराज के उनसे वापिस पूछने पर उन्होंने कहा, "महाराज ! यह प्रश्न इतना सरल नहीं| मुझे सोचने के लिए आज रात का समय दीजिए| मैं आपको कल प्रात: इसका उत्तर देता हूँ|" और सभा विसर्जित हो गई|
"मनुष्य का मन कितना विचित्र है! अपने प्राण उन्हें प्रिय हैं, पर दुसरे के प्राणों का कोई मूल्य नहीं| क्या दुर्बल और निरीह प्राणियों का जन्म मानव के मनोरंजन के लिए हुआ है? क्या उसके अपने जीवन का कोई महत्व नहीं? असंख्य स्वर्ण मुद्राओं से भी अति दुर्लभ ये प्राण क्या किसी शिकार के आसक्त के एक बाण से अधिक सुलभ और सस्ते हैं? नहीं! यह तो अज्ञान है| जब तक अपने प्राणों के समान ही दुसरे के प्राणों का मूल्य नहीं समझा जाता, तब तक मनुष्य यों ही बहकता रहेगा| 'पर' के साथ 'स्व' के जुड़ने से ही करुणा का स्त्रोत बहेगा" अभयकुमार इन्हीं विचारों में डूबे हुए राजसभा से निकल गए| वह विचारों में इतना गहरा उतर गए की उन्हें पता ही नहीं चला की कब वह राजसभा से महाराज को प्रणाम कर निकले और अब अशोक वाटिका में बैठे बैठे उन्हें कितना समय हो गया है| अधिक समय क्या, अभी तो काफी रात हो चुकी है| चारों ओर अँधेरे की काली चादर संसार पर छा गई है और इधर सत्य के प्रकाश का प्रतिनिधित्व करते हुए महामंत्री अकेले चले जा रहे हैं, उस सर्व प्रथम उत्तर देने वाले सामंत के घर की ओर|
"आइए महामंत्री! कैसे कष्ट किया आपने|" सामंत ने अभयकुमार को गहरी अँधेरी रात में आया हुआ देखा तो उसका मन आशंकाओं से भर गया| दीपक की टिमटिमाती रोशनी में अभयकुमार के चेहरे पर उभरी गंभीर रेखाएं आसानी से देखी जा सकती है| अभयकुमार हाँफ रहे थे| उनकी भय और चिंता मिश्रित आवाज़ किसी महान संकट की सुचना दे रही थी| महामंत्री ने अपने आप को सँभालते हुए कहा, "सामंत !महाराज आकस्मिक भयंकर रोग के कारण मृत्यु शय्या पर पड़े हैं| कोई उपचार, औषधि नहीं काम आ रही है| वैधों का कहना है की किसी स्वस्थ व्यक्ति के ह्रदय का मांस मिल सके, तो सम्राट के प्राण बच सकेंगे अन्यथा नहीं| सिर्फ दो तोला ह्रदय का मांस चाहिए, औषधि के लिए| इसके बदले में तुम्हें लक्ष या कोटि जितनी भी स्वर्ण मुद्राएँ चाहिए सो मांग लो, कोई अधिकार या पद भी चाहिए तो वो भी मिल जाएगा| जो चाहोगे वही मिलेगा, सिर्फ दो तोला मांस चाहिए| महाराज के जीवन मरण का प्रश्न है, आज तुम्हारी स्वामी भक्ति की कसौटी है|"
सामंत का चेहरा पीला पड़ गया| "ह्रदय का मांस? जब प्राण ही नहीं बचेंगे तो यह धन, अधिकार किस काम आएँगे? प्राणों के साथ धन का सौदा?" सामंत ने अभयकुमार के चरणों में सर रख दिया, और गिड़गिड़ाते हुए बोला, "महामंत्री! कृपा कर मुझे जीवन दान दे दीजिए| आप मेरी ओर से ये एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ ले जाइये और किसी ऐसे व्यक्ति का मांस, जो लाख स्वर्ण मुद्रा लेकर देता हो, कृपया ले लीजिए|"
महामंत्री ने घम्भीर दृष्टि से सामंत के डरे हुए चेहरे को देखा| सामंत के बहुत अनुनय विनय करने के बाद अभयकुमार ने लाख स्वर्ण मुद्राएँ अपने महल में भिजवा दी और आगे चल पड़ा|
सभा में जिन जिन सामंतों ने इस सामंत की बात का समर्थन किया था, अभय उन सबके द्वार घूम आया| दो तोला मांस के बदले वे लोग लाखों करोड़ों स्वर्ण मुद्राएँ देते गए और अपने प्राणों की भिक्षा मांगते गए| पर कोई भी वो वीर नहीं मिला जो अपने ह्रदय का मांस देकर सम्राट के प्राण बचाने को प्रस्तुत हो|
प्रात:काल कार्य से निवृत हो महामंत्री अभयकुमार प्रश्न का उत्तर देने हँसते मुस्कुराते राजसभा में उपस्थित हुए| रात ही रात में ये चर्चा फ़ैल गई थी की प्रात: महामंत्री अपना उत्तर प्रस्तुत करेंगे, और इसीलिए राजसभा जनसमूह से भरी हुई थी| सारे सामंत भी राजा को सकुशल देखकर आश्चर्यचकित थे और निश्चिन्त भी की उनके प्राण बच गए|
महाराज से आज्ञा पाकर अभय ने अपने प्रमुख सेवक को संकेत दिया| कुछ ही देर में करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं का ढेर राजमहल में लग गया| महाराज आश्चर्य से देख रहे थे, उनकी समझ में नहीं आ रहा था की आखिर रहस्य क्या है|
अभयकुमार, महाराज के सामने हाथ जोड़कर खड़े हुए| महाराज का अभिवादन करने के बाद बोले, "महाराज! आपने पूछा की सबसे सस्ती चीज़ क्या है और हमारे वीर सामंतों ने उत्तर दिया था की 'मांस'| मैं रात को सभी सामंतों के द्वार पर भटक आया पर इन करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं के बदले मुझे दो तोला मांस नहीं मिल सका| फिर मांस सस्ता कैसे?" रात्रि की घटना को विस्तारपूर्वक बताते हुए अभय ने कहा, "महाराज! जब दो तोले मांस का मूल्य यह हो सकता है, तो जिसका सारा मांस निकाला जाता है उसके प्राणों का क्या मूल्य होगा? असंख्य स्वर्ण मुद्राएँ देकर भी क्या किसी के प्राणों का मूल्य चुकाया जा सकता है| हम जो मूल्य अपने प्राणों तथा मांस का आंकते हैं वह किसी दुसरे के प्राणों का क्यों नहीं आँकते| सिर्फ इसलिए की वो निरीह जीव हमारे बाणों से अपने प्राणों के रक्षा नहीं कर सकते या किसी से गुहार नहीं लगा सकते, इससे उनके प्राणों का मूल्य कम नहीं हो जाता|
मनुष्य जब किसी दुसरे के मांस को अपने मांस से तौलेगा तभी वह ठीक तरह से समझ सकेगा की मांस का क्या मूल्य हो सकता है|"
सभा में सन्नाटा छा गया| सामंतों की नज़रें ज़मीन में झुकी जा रही थी| विचारों की एक गहरी उथल पुथल थी| अभयकुमार ने रात के वृतांत का उदाहरण देते हुए बताया की एक मनुष्य तो क्या प्राणी मात्र में जीने की इच्छा कितनी प्रबल होती है? कोई प्राणी अपनी मृत्यु नहीं चाहता| फिर अपनी जिव्हा लोलुपता के कारण मनुष्य किसी के प्राणों को लुट कर उन्हें सस्ता कैसे कह सकता है|
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