कथाएं

संघर्ष और सफलता*

पिकासो (Picasso) स्पेन में जन्मे एक अति प्रसिद्ध चित्रकार थे। उनकी पेंटिंग्स दुनिया भर में करोड़ों और अरबों रुपयों में बिका करती थीं...!!

एक दिन रास्ते से गुजरते समय एक महिला की नजर पिकासो पर पड़ी और संयोग से उस महिला ने उन्हें पहचान लिया। वह दौड़ी हुई उनके पास आयी और बोली, 'सर, मैं आपकी बहुत बड़ी फैन हूँ। आपकी पेंटिंग्स मुझे बहुत ज्यादा पसंद हैं। क्या आप मेरे लिए भी एक पेंटिंग बनायेंगे...!!?'

पिकासो हँसते हुए बोले, 'मैं यहाँ खाली हाथ हूँ। मेरे पास कुछ भी नहीं है। मैं फिर कभी आपके लिए एक पेंटिंग बना दूंगा..!!'

लेकिन उस महिला ने भी जिद पकड़ ली, 'मुझे अभी एक पेंटिंग बना दीजिये, बाद में पता नहीं मैं आपसे मिल पाऊँगी या नहीं।'

पिकासो ने जेब से एक छोटा सा कागज निकाला और अपने पेन से उसपर कुछ बनाने लगे। करीब 10 सेकेण्ड के अंदर पिकासो ने पेंटिंग बनायीं और कहा, 'यह लो, यह मिलियन डॉलर की पेंटिंग है।'

महिला को बड़ा अजीब लगा कि पिकासो ने बस 10 सेकेण्ड में जल्दी से एक काम चलाऊ पेंटिंग बना दी है और बोल रहे हैं कि मिलियन डॉलर की पेंटिग है। उसने वह पेंटिंग ली और बिना कुछ बोले अपने घर आ गयी..!!

उसे लगा पिकासो उसको पागल बना रहा है। वह बाजार गयी और उस पेंटिंग की कीमत पता की। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि वह पेंटिंग वास्तव में मिलियन डॉलर की थी...!!

वह भागी-भागी एक बार फिर पिकासो के पास आयी और बोली, 'सर आपने बिलकुल सही कहा था। यह तो मिलियन डॉलर की ही पेंटिंग है।'

पिकासो ने हँसते हुए कहा,'मैंने तो आपसे पहले ही कहा था।'

वह महिला बोली, 'सर, आप मुझे अपनी स्टूडेंट बना लीजिये और मुझे भी पेंटिंग बनानी सिखा दीजिये। जैसे आपने 10 सेकेण्ड में मिलियन डॉलर की पेंटिंग बना दी, वैसे ही मैं भी 10 सेकेण्ड में न सही, 10 मिनट में ही अच्छी पेंटिंग बना सकूँ, मुझे ऐसा बना दीजिये।'

पिकासो ने हँसते हुए कहा, 'यह पेंटिंग, जो मैंने 10 सेकेण्ड में बनायी है...
इसे सीखने में मुझे 30 साल का समय लगा है। मैंने अपने जीवन के 30 साल सीखने में दिए हैं..!! तुम भी दो, सीख जाओगी..!!

वह महिला अवाक् और निःशब्द होकर पिकासो को देखती रह गयी...!!

दोस्तो, जब हम दूसरों को सफल होता देखते हैं, तो हमें यह सब बड़ा आसान लगता है...!!

हम कहते हैं, यार, यह इंसान तो बड़ी जल्दी और बड़ी आसानी से सफल हो गया....!!!

लेकिन मेरे दोस्त,
उस एक सफलता के पीछे कितने वर्षों की मेहनत छिपी है, यह कोई नहीं देख पाता....!!!

सफलता तो बड़ी आसानी से मिल जाती है, शर्त यह है कि सफलता की तैयारी में अपना जीवन कुर्बान करना होता है...!!

जो खुद को तपा कर, संघर्ष कर अनुभव हासिल करता है, वह कामयाब हो जाता है लेकिन दूसरों को लगता है कि वह कितनी आसानी से सफल हो गया...!!

मेरे दोस्त, परीक्षा तो केवल 3 घंटे की होती है,

लेकिन उन 3 घण्टों के लिए पूरे साल तैयारी करनी पड़ती है तो फिर आप रातों-रात सफल होने का सपना कैसे देख सकते हो...!!?

सफलता अनुभव और संघर्ष मांगती है और, अगर आप देने को तैयार हैं, तो आपको आगे जाने से कोई नहीं रोक सकता....!!!

चलता रह पथ पर,
चलने में माहिर बन जा...!!
या तो मंजिल मिल जाएगी,
या
अच्छा मुसाफ़िर बन जाएगा....!!!



*कहानी*

बहुत ही प्रेरणाप्रद कथा...
एक दरिद्र ब्राह्मण यात्रा करते-करते किसी नगर से गुजरा। बड़े-बड़े महल एवं अट्टालिकाओं को देखकर ब्राह्मण भिक्षा माँगने गया किन्तु किसी ने भी उसे दो मुट्ठी अन्न नहीं दिया। आखिर दोपहर हो गयी ब्राह्मण दुःखी होकर अपने भाग्य को कोसता हुआ जा रहा था, “कैसा मेरा दुर्भाग्य है इतने बड़े नगर में मुझे खाने के लिए दो मुट्ठी अन्न तक न मिला ? रोटी बना कर खाने के लिए दो मुट्ठी आटा तक न मिला ?
इतने में एक सिद्ध संत की निगाह उस पर पड़ी उन्होंने ब्राह्मण की बड़बड़ाहट सुन ली वे बड़े पहुँचे हुए संत थे उन्होंने कहाः “हे दरिद्र ब्राह्मण तुम मनुष्य से भिक्षा माँगो, पशु क्या जानें भिक्षा देना ?”
ब्राह्मण दंग रह गया और कहने लगाः “हे महात्मन् आप क्या कह रहे हैं ? बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं में रहने वाले मनुष्यों से ही मैंने भिक्षा माँगी है”
महात्मा बोले, “नहीं ब्राह्मण मनुष्य शरीर में दिखने वाले वे लोग भीतर से मनुष्य नहीं हैं अभी भी वे पिछले जन्म के हिसाब ही जी रहे हैं। कोई शेर की योनी से आया है तो कोई कुत्ते की योनी से आया है, कोई हिरण की योनी से आया है तो कोई गाय या भैंस की योनी से आया है उन की आकृति मानव-शरीर की जरूर है किन्तु अभी तक उन में मनुष्यत्व निखरा नहीं है और जब तक मनुष्यत्व नहीं निखरता, तब तक दूसरे मनुष्य की पीड़ा का पता नहीं चलता। "दूसरे में भी मेरा प्रभु ही है" यह ज्ञान नहीं होता। तुम ने मनुष्यों से नहीं, पशुओं से भिक्षा माँगी है”
ब्राह्मण का चेहरा दुःख व निराशा से भरा था। सिद्धपुरुष तो दूरदृष्टि के धनी होते हैं उन्होंने कहाः “देख ब्राह्मण, मैं तुझे यह चश्मा देता हूँ इस चश्मे को पहन कर जा और कोई भी मनुष्य दिखे, उस से भिक्षा माँग फिर देख, क्या होता है”
वह दरिद्र ब्राह्मण जहाँ पहले गया था, वहीं पुनः गया और योगसिद्ध कला वाला चश्मा पहनकर गौर से देखाः ‘ओहोऽऽऽऽ….वाकई कोई कुत्ता है कोई बिल्ली है तो कोई बघेरा है। आकृति तो मनुष्य की है लेकिन संस्कार पशुओं के हैं मनुष्य होने पर भी मनुष्यत्व के संस्कार नहीं हैं’। घूमते-घूमते वह ब्राह्मण थोड़ा सा आगे गया तो देखा कि एक मोची जूते सिल रहा है ब्राह्मण ने उसे गौर से देखा तो उस में मनुष्यत्व का निखार पाया।
ब्राह्मण ने उस के पास जाकर कहाः “भाई तेरा धंधा तो बहुत हल्का है औऱ मैं हूँ ब्राह्मण रीति रिवाज एवं कर्मकाण्ड को बड़ी चुस्ती से पालता हूँ मुझे बड़ी भूख लगी है इसीलिए मैं तुझसे माँगता हूँ क्योंकि मुझे तुझमें मनुष्यत्व दिखा है” उस मोची की आँखों से टप-टप आँसू बरसने लगे वह बोलाः “हे प्रभु, आप भूखे हैं ? हे मेरे भग्वन आप भूखे हैं ? इतनी देर आप कहाँ थे ?”
यह कहकर मोची उठा एवं जूते सिलकर टका, आना-दो आना वगैरह जो इकट्ठे किये थे, उस चिल्लर (रेज़गारी) को लेकर हलवाई की दुकान पर पहुँचा और बोलाः “हलवाई भाई, मेरे इन भूखे भगवान की सेवा कर लो ये चिल्लर यहाँ रखता हूँ जो कुछ भी सब्जी-पराँठे-पूरी आदि दे सकते हो, वह इन्हें दे दो मैं अभी जाता हूँ”
यह कहकर मोची भागा, घर जाकर अपने हाथ से बनाई हुई एक जोड़ी जूती ले आया एवं चौराहे पर उसे बेचने के लिए खड़ा हो गया। उस राज्य का राजा जूतियों का बड़ा शौकीन था उस दिन भी उस ने कई तरह की जूतियाँ पहनीं किंतु किसी की बनावट उसे पसंद नहीं आयी तो किसी का नाप नहीं आया दो-पाँच बार प्रयत्न करने पर भी राजा को कोई पसंद नहीं आयी तो मंत्री से क्रुद्ध होकर बोलाः “अगर इस बार ढंग की जूती लाया तो जूती वाले को इनाम दूँगा और ठीक नहीं लाया तो मंत्री के बच्चे तेरी खबर ले लूँगा।”
दैव योग से मंत्री की नज़र इस मोची के रूप में खड़े असली मानव पर पड़ गयी जिस में मानवता खिली थी, जिस की आँखों में कुछ प्रेम के भाव थे, चित्त में दया-करूणा थी,  ब्राह्मण के संग का थोड़ा रंग लगा था। मंत्री ने मोची से जूती ले ली एवं राजा के पास ले गया। राजा को वह जूती एकदम ‘फिट’ आ गयी, मानो वह जूती राजा के नाप की ही बनी थी। राजा ने कहाः “ऐसी जूती तो मैंने पहली बार ही पहन रहा हूँ किस मोची ने बनाई है यह जूती ?”
मंत्री बोला  “हुजूर  यह मोची बाहर ही खड़ा है”
मोची को बुलाया गया। उस को देखकर राजा की भी मानवता थोड़ी खिली। राजा ने कहाः “जूती के तो पाँच रूपये होते हैं किन्तु यह पाँच रूपयों वाली नहीं, पाँच सौ रूपयों वाली जूती है। जूती बनाने वाले को पाँच सौ और जूती के पाँच सौ, कुल एक हजार रूपये इसको दे दो!”
मोची बोलाः “राजा जी, तनिक ठहरिये यह जूती मेरी नहीं है, जिसकी है उसे मैं अभी ले आता हूँ”मोची जाकर विनयपूर्वक उस ब्राह्मण को राजा के पास ले आया एवं राजा से बोलाः “राजा जी, यह जूती इन्हीं की है।”राजा को आश्चर्य हुआ वह बोलाः “यह तो ब्राह्मण है इस की जूती कैसे ?”राजा ने ब्राह्मण से पूछा तो ब्राह्मण ने कहा मैं तो ब्राह्मण हूँ, यात्रा करने निकला हूँ” राजाः “मोची जूती तो तुम बेच रहे थे इस ब्राह्मण ने जूती कब खरीदी और बेची ?”
मोची ने कहाः “राजन्  मैंने मन में ही संकल्प कर लिया था कि जूती की जो रकम आयेगी वह इन ब्राह्मणदेव की होगी। जब रकम इन की है तो मैं इन रूपयों को कैसे ले सकता हूँ ? इसीलिए मैं इन्हें ले आया हूँ। न जाने किसी जन्म में मैंने दान करने का संकल्प किया होगा और मुकर गया होऊँगा तभी तो यह मोची का चोला मिला है अब भी यदि मुकर जाऊँ तो तो न जाने मेरी कैसी दुर्गति हो ? इसीलिए राजन् ये रूपये मेरे नहीं हुए। मेरे मन में आ गया था कि इस जूती की रकम इनके लिए होगी फिर पाँच रूपये मिलते तो भी इनके होते और एक हजार मिल रहे हैं तो भी इनके ही हैं। हो सकता है मेरा मन बेईमान हो जाता इसीलिए मैंने रूपयों को नहीं छुआ और असली अधिकारी को ले आया!”
राजा ने आश्चर्य चकित होकर ब्राह्मण से पूछाः “ब्राह्मण मोची से तुम्हारा परिचय कैसे हुआ ?”ब्राह्मण ने सारी आपबीती सुनाते हुए सिद्ध पुरुष के चश्मे वाली बात बताई और कहा कि राजन्, आप के राज्य में पशुओं के दर्शन तो बहुत हुए लेकिन मनुष्यत्व का अंश इन मोची भाई में ही नज़र आया।”राजा ने कौतूहलवश कहाः “लाओ, वह चश्मा जरा हम भी देखें।”राजा ने चश्मा लगाकर देखा तो दरबारियों में उसे भी कोई सियार दिखा तो कोई हिरण, कोई बंदर दिखा तो कोई रीछ। राजा दंग रह गया कि यह तो पशुओं का दरबार भरा पड़ा है  उसे हुआ कि ये सब पशु हैं तो मैं कौन हूँ ? उस ने आईना मँगवाया एवं उसमें अपना चेहरा देखा तो शेर! उस के आश्चर्य की सीमा न रही, ‘ये सारे जंगल के प्राणी और मैं जंगल का राजा शेर यहाँ भी इनका राजा बना बैठा हूँ।’ राजा ने कहाः “ब्राह्मणदेव योगी महाराज का यह चश्मा तो बड़ा गज़ब का है, वे योगी महाराज कहाँ होंगे ?”
ब्राह्मणः “वे तो कहीं चले गये ऐसे महापुरुष कभी-कभी ही और बड़ी कठिनाई से मिलते हैं।”श्रद्धावान ही ऐसे महापुरुषों से लाभ उठा पाते हैं, बाकी तो जो मनुष्य के चोले में पशु के समान हैं वे महापुरुष के निकट रहकर भी अपनी पशुता नहीं छोड़ पाते। ब्राह्मण ने आगे कहाः "राजन्  अब तो बिना चश्मे के भी मनुष्यत्व को परखा जा सकता है। व्यक्ति के व्यवहार को देखकर ही पता चल सकता है कि वह किस योनि से आया है। एक मेहनत करे और दूसरा उस पर हक जताये तो समझ लो कि वह सर्प योनि से आया है क्योंकि बिल खोदने की मेहनत तो चूहा करता है लेकिन सर्प उस को मारकर बल पर अपना अधिकार जमा बैठता है।”अब इस चश्मे के बिना भी विवेक का चश्मा काम कर सकता है और दूसरे को देखें उसकी अपेक्षा स्वयं को ही देखें कि हम सर्पयोनि से आये हैं कि शेर की योनि से आये हैं या सचमुच में हममें मनुष्यता खिली है ? यदि पशुता बाकी है तो वह भी मनुष्यता में बदल सकती है कैसे ?
गोस्वामी तुलसीदाज जी ने कहा हैः
बिगड़ी जनम अनेक की, सुधरे अब और आजु।तुलसी होई राम को, रामभजि तजि कुसमाजु।।
कुसंस्कारों को छोड़ दें… बस अपने कुसंस्कार आप निकालेंगे तो ही निकलेंगे। अपने भीतर छिपे हुए पशुत्व को आप निकालेंगे तो ही निकलेगा। यह भी तब संभव होगा जब आप अपने समय की कीमत समझेंगे मनुष्यत्व आये तो एक-एक पल को सार्थक किये बिना आप चुप नहीं बैठेंगे। पशु अपना समय ऐसे ही गँवाता है। पशुत्व के संस्कार पड़े रहेंगे तो आपका समय बिगड़ेगा अतः पशुत्व के संस्कारों को आप बाहर निकालिये एवं मनुष्यत्व के संस्कारों को उभारिये फिर सिद्धपुरुष का चश्मा नहीं, वरन् अपने विवेक का चश्मा ही कार्य करेगा और इस विवेक के चश्मे को पाने की युक्ति मिलती है हरि नाम संकीर्तन व सत्संग से!तो हे आत्म जनों, मानवता से जो पूर्ण हो, वही मनुष्य कहलाता है।बिन मानवता के मानव भी, पशुतुल्य रह  जाता है।

**************************************************
*कहानी*

*भगवान पर सच्चा विश्वास*

एक अत्यंत गरीब महिला थी जो ईश्वरीय शक्ति पर बेइंतहा विश्वास करती थी। एक बार अत्यंत ही विकट स्थिति में आ गई, कई दिनों से खाने के लिए पुरे परिवार को कुछ नहीं मिला।

एक दिन उसने रेडियो के माध्यम से ईश्वर को अपना सन्देश भेजा कि वह उसकी मदद करे। यह प्रसारण एक नास्तिक ,घमण्डी और अहंकारी उद्योगपति ने सुना और उसने सोचा कि क्यों न इस महिला के साथ कुछ ऐसा मजाक किया जाये कि उसकी ईश्वर के प्रति आस्था डिग जाय।

उसने आपने सेक्रेटरी को कहा कि वह ढेर सारा खाना और महीने भर का राशन उसके घर पर देकर आ जाये, और जब वह महिला पूछे किसने भेजा है तो कह देना कि ” शैतान” ने भेजा है।

जैसे ही महिला के पास सामान पंहुचा पहले तो उसके परिवार ने तृप्त होकर भोजन किया, फिर वह सारा राशन अलमारी में रखने लगी।

जब महिला ने पूछा नहीं कि यह सब किसने भेजा है तो सेक्रेटरी से रहा नहीं गया और पूछा- आपको क्या जिज्ञासा नही होती कि यह सब किसने भेजा है।

*उस महिला ने बेहतरीन जवाब दिया- मैं इतना क्यों सोंचू या पूंछू, मुझे भगवान पर पूरा भरोसा है, मेरा भगवान जब आदेश देते है तो शैतानों को भी उस आदेश का पालन करना पड़ता है..!!*
  **************************************************
*कहानी*

*ईश्वर में दृढ विश्वास रखो, इस बच्चे की तरह*
8 साल का एक बच्चा 1 रूपये का सिक्का मुट्ठी में लेकर एक दुकान पर जाकर कहा,
--क्या आपके दुकान में ईश्वर मिलेंगे?

दुकानदार ने यह बात सुनकर सिक्का नीचे फेंक दिया और बच्चे को निकाल दिया।

बच्चा पास की दुकान में जाकर 1 रूपये का सिक्का लेकर चुपचाप खड़ा रहा!

-- ए लड़के.. 1 रूपये में तुम क्या चाहते हो?
-- मुझे ईश्वर चाहिए। आपके दुकान में है?

दूसरे दुकानदार ने भी भगा दिया।

लेकिन, उस अबोध बालक ने हार नहीं मानी। एक दुकान से दूसरी दुकान, दूसरी से तीसरी, ऐसा करते करते कुल चालीस दुकानों के चक्कर काटने के बाद एक बूढ़े दुकानदार के पास पहुंचा। उस बूढ़े दुकानदार ने पूछा,

-- तुम ईश्वर को क्यों खरीदना चाहते हो? क्या करोगे ईश्वर  लेकर?

पहली बार एक दुकानदार के मुंह से यह प्रश्न सुनकर बच्चे के चेहरे पर आशा की किरणें लहराईं৷ लगता है इसी दुकान पर ही ईश्वर मिलेंगे !
 बच्चे ने बड़े उत्साह से उत्तर दिया,

----इस दुनिया में माँ के अलावा मेरा और कोई नहीं है। मेरी माँ दिनभर काम करके मेरे लिए खाना लाती है। मेरी माँ अब अस्पताल में हैं। अगर मेरी माँ मर गई तो मुझे कौन खिलाएगा ? डाक्टर ने कहा है कि अब सिर्फ ईश्वर ही तुम्हारी माँ को बचा सकते हैं। क्या आपके दुकान में ईश्वर मिलेंगे?

-- हां, मिलेंगे...! कितने पैसे हैं तुम्हारे पास?

-- सिर्फ एक रूपए।

-- कोई दिक्कत नहीं है। एक रूपए में ही ईश्वर मिल सकते हैं।

दुकानदार बच्चे के हाथ से एक रूपए लेकर उसने पाया कि एक रूपए में एक गिलास पानी के अलावा बेचने के लिए और कुछ भी नहीं है। इसलिए उस बच्चे को फिल्टर से एक गिलास पानी भरकर दिया और कहा, यह पानी पिलाने से ही तुम्हारी माँ ठीक हो जाएगी।

अगले दिन कुछ मेडिकल स्पेशलिस्ट उस अस्पताल में गए। बच्चे की माँ का अॉप्रेशन हुआ। और बहुत जल्द ही वह स्वस्थ हो उठीं।

डिस्चार्ज के कागज़ पर अस्पताल का बिल देखकर उस महिला के होश उड़ गए। डॉक्टर ने उन्हें आश्वासन देकर कहा, "टेंशन की कोई बात नहीं है। एक वृद्ध सज्जन ने आपके सारे बिल चुका दिए हैं। साथ में एक चिट्ठी भी दी है"।

महिला चिट्ठी खोलकर पढ़ने लगी, उसमें लिखा था-
"मुझे धन्यवाद देने की कोई आवश्यकता नहीं है। आपको तो स्वयं ईश्वर ने ही बचाया है ...  मैं तो सिर्फ एक ज़रिया हूं। यदि आप धन्यवाद देना ही चाहती हैं तो अपने अबोध बच्चे को दिजिए जो सिर्फ एक रूपए लेकर नासमझों की तरह ईश्वर को ढूंढने निकल पड़ा। *उसके मन में यह दृढ़ विश्वास था कि एकमात्र ईश्वर ही आपको बचा सकते है*। विश्वास इसी को ही कहते हैं। ईश्वर को ढूंढने के लिए करोड़ों रुपए दान करने की ज़रूरत नहीं होती, यदि मन में अटूट विश्वास हो तो वे एक रूपए में भी मिल सकते हैं।"
**************************************************



卐卐卐卐प्रभु卐卐卐卐

*एक सब्ज़ी वाला था, सब्ज़ी की पूरी दुकान साइकल पर लगा कर घूमता रहता था ।"प्रभु" उसका तकिया कलाम था । कोई पूछता  आलू कैसे दिये,   10 रुपये प्रभु । हरी धनीया है  क्या ? बिलकुल ताज़ा है प्रभु। वह सबको प्रभु कहता था । लोग भी उसको प्रभु कहकर पुकारने लगे।*
 *एक दिन उससे किसी ने  पूछा तुम सबको प्रभु-प्रभु क्यों कहते हो, यहाँ तक तुझे भी लोग इसी उपाधि से बुलाते हैं और  तुम्हारा कोई असली नाम है भी या नहीं  *?*

*सब्जी वाले ने कहा है न प्रभु , मेरा नाम  भैयालाल  है*।

*प्रभु, मैं शुरू से अनपढ़ गँवार हूँ। गॉव में मज़दूरी करता था, एक बार गाँव में एक नामी सन्त विद्या सागर जी के प्रवचन हुए । प्रवचन मेरे पल्ले नहीं पड़े, लेकिन एक लाइन मेरे दिमाग़ में आकर फँस गई , उन संत ने कहा हर इन्सान में प्रभु का वास हैं -तलाशने की कोशिश तो करो पता नहीं किस इन्सान में मिल जाय और तुम्हारा उद्धार कर जाये, बस उस दिन से मैने हर मिलने वाले को प्रभु की नज़र से देखना और पुकारना शुरू कर दिया  वाकई चमत्त्कार हो गया दुनिया के लिए शैतान आदमी भी मेरे लिये प्रभु रूप हो गया ।  ऐसे दिन फिरें कि मज़दूर से व्यापारी हो गया सुख समृद्धि के सारे साधन जुड़ते गये मेरे लिये तो सारी दुनिया ही प्रभु रूप बन गईं।*🙏
       *लाख टके की बात*
*जीवन एक प्रतिध्वनि है आप जिस लहजे में आवाज़ देंगे पलटकर आपको उसी लहजे में सुनाईं देंगीं। न जाने किस रूप में प्रभुमिल जाये*   *

👉 *समस्या*

*एक राजा ने बहुत ही सुंदर ''महल'' बनावाया और महल के मुख्य द्वार पर एक ''गणित का सूत्र'' लिखवाया.. और एक घोषणा की कि इस सूत्र से यह 'द्वार खुल जाएगा और जो भी इस ''सूत्र'' को ''हल'' कर के ''द्वार'' खोलेगा में उसे अपना उत्तराधीकारी घोषित कर दूंगा!*

राज्य के बड़े बड़े गणितज्ञ आये और 'सूत्र देखकर लोट गए, किसी को कुछ समझ नहीं आया! आख़री दिन आ चुका था उस दिन 3 लोग आये और कहने लगे हम इस सूत्र को हल कर देंगे।

*उसमे 2 तो दूसरे राज्य के बड़े गणितज्ञ अपने साथ बहुत से पुराने गणित के सूत्रो की पुस्तकों सहित आये! लेकिन एक व्यक्ति जो ''साधक'' की तरह नजर आ रहा था सीधा साधा कुछ भी साथ नहीं लाया था!*

उसने कहा मै यहां बैठा हूँ पहले इन्हें मौक़ा दिया जाए! दोनों गहराई से सूत्र हल करने में लग गए लेकिन द्वार नहीं खोल पाये और अपनी हार मान ली। अंत में उस साधक को बुलाया गया और कहा कि आप सूत्र हल करिये समय शुरू हो चुका है।

*साधक ने आँख खोली और सहज मुस्कान के साथ 'द्वार' की ओर गया! साधक ने धीरे से द्वार को धकेला और यह क्या? द्वार खुल गया.. राजा ने साधक से पूछा -- आप ने ऐसा क्या किया?*

साधक ने बताया जब में 'ध्यान' में बैठा तो सबसे पहले अंतर्मन से आवाज आई, कि पहले ये जाँच तो कर ले कि सूत्र है भी या नहीं.. इसके बाद इसे हल ''करने की सोचना'' और मैंने वही किया!

*कई बार जिंदगी में कोई ''समस्या'' होती ही नहीं और हम ''विचारो'' में उसे बड़ा बना लेते है।*

मित्रों, हर समस्या का उचित इलाज आपकी ''आत्मा'' की आवाज है!
*मतलब दरवाजा बंद ही नही था*




नाम की कमाई
        एक गांव में एक नौजवान को सत्संग सुनने का बड़ा शौक था परम संत तुलसी साहब का सत्संग..
        किसी से पता चला कि गांव के बाहर नदी के उस पार परम संत ने डेरा लगाया हुआ है और आज उनका शाम को 5:00 बजे का सत्संग का प्रोग्राम है..
        वह नदी पार करके नौका के द्वारा सत्संग में पहुंच गया! प्रेमी था बड़े प्यार से सत्संग सुना और बड़ा आनंद माना!
         जब जाने लगा थोड़ा अंधेरा हो गया।देखा तूफान बहुत ज्यादा था और बारिश के कारण नदी बड़े तूफान पर चल रही थी..
     अब जितनी नौका वाले मल्हाह थे,सब डेरे में रुक गए!कोई नौका आने जाने का साधन नहीं है
         संत के पास पहुंचा और बोला-महाराज मेरी नई नई शादी हुई है,मेरी पत्नी भी इस गांव में अनजान है, हर इंसान से और घर में मेरे कोई नहीं है
        मेरे पास गहना वगैरा बहुत है,नकदी भी है और हमारा गांव है,उसमें चोर लुटेरे भी बहुत हैं,तो किसी भी हालत में मुझे वहां जाना ही पड़ेगा नहीं तो पता नहीं क्या हो जाएगा..??
       तुलसी साहब ने एक कागज पर कलम से कुछ लिखा और बिना बताए उस पेपर को फोल्ड किया और उसके हाथ में पकड़ा दिया और कहा,इसको खोलकर मत देखना कि इसमें क्या लिखा है।जब नदी के पास पहुंचो तो नदी को मेरा संदेश देना।
         जब नदी के किनारे पहुंचा देखा तूफान बड़े जोरों का है। इसने चिट्ठी नदी की ओर दिखाते हुए कहा यह तुलसी साहब ने तुम्हारे लिए भेजी है।
         इतना सुनते ही नदी बीच में से अलग हो गई और ज़मीन दिखने लगी। पैदल चलने के लिए।यह बड़ा हैरान हुआ!
        इसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ, इसने आंखें मलीं,सोचा कहीं मैं सपना तो नहीं देख रहा हूं? फिर पैदल नदी पार करने लगा..!!
         मन में जिज्ञासा उठी, देखूं तो सही इस चिट्ठी में लिखा कया है ?जब उसने चिट्ठी खोली तो उसमें लिखा था "राम"
     बड़ा हैरान हुआ,इतने में नदी वापस भर गई और रास्ता बंद हो गया और यह दौड़कर फिर वापस किनारे पर आ गया..!!
       उसी समय तुलसी साहिब के पास पहुंचा और तुलसी साहब को सारी बात कहकर सुनाई, तो तुलसी साहिब ने कहा-भाई मैंने पहले ही कहा था,कि चिट्ठी खोलना नहीं,खैर उसी समय दूसरी चिट्ठी दी और कहा इस चिट्ठी को खोलना नहीं और वैसे ही करना..!!
       यह बड़ा हैरान था। तुलसी साहिब से पूछा महाराज चिट्ठी पर तो राम लिखा था,तो इसमें अलग क्या है?
         राम तो हर कोई लिखता है,पढ़ता है।तो संत ने फरमाया एक राम वो है,जो लोग पढ़ते हैं,सुनते हैं, लिखते हैं,और यह मेरा अपना राम है..!!


एक जैन मंदिर की बगल मे एक नाई की दुकान थी।
जहां वह रहता भी था।

जैन मंदिर पुजारी और नाई दोनों मित्र बन गये थे |
नाई हमेशा ही जैन मंदिर पुजारी से कहता,

ईश्वर ऐसा क्यों करता है,
वैसा क्यों करता है ?
यहाँ बाढ़ आ गई,
वहाँ सूखा हो गया,
यहाँ एक्सीडेंट हुआ,
यहाँ भुखमरी चल रही है
नौकरी नहीं मिल रहीं हमेशा लोगों को
ऐसी बहुत सारी परेशानियां देता रहता है |

 एक दिन उस जैन मंदिर पुजारी ने मित्र नाई को
सामने सडक पर बैठै एक इंसान से मिलाया,
जो भिखारी था,
बाल बहुत बढ़े थे,
दाढ़ी भी बहुत बढ़ी थी।

मित्र नाई को कहा:-
देखो इस इंसान को जिसके बाल बढ़े हुए हैं,
दाढ़ी भी बहुत बढ़ी हुई है |
तुम्हारे होतें हुए ऐसा क्यों है ?
नाई बोला:- अरे! उसने मेरे से कभी संपर्क ही नहीं किया

जैन मंदिर पुजारी ने तब समझाया यही तो  सारी बात है |

जो लोग ईश्वर से संपर्क करते रहते हैं
उनका दुःख स्वत:ही खत्म हो जाता है

जो लोग संपर्क ही नहीं करतें और कहतें हैं हम दुःखी है
वो सब अपने अपने कर्म काट रहै होते हैं। |

 💐 !!जयजिनेन्द्र🙏🙏

*दादाजी का हीरा*

विशाल की शादी अभी अभी कुछ ही दिन पहले संध्या से हुई थी । संध्या एक बड़बोली महिला थी । उसे अपनी और अपने मायके की तारीफ करने में बहुत आनंद आता था । यद्यपि संध्या की शिक्षा 10 वीं कक्षा से अधिक नहीं थी । फिर वह कुछ ऐसी बनती थी कि लोग उसे पोस्ट ग्रेजुएट समझते थे ।

एक दिन विशाल और संध्या दोनों बैठे-बैठे आपस में बातचीत कर रहे थे और अपने-अपने दादाजी की प्रशंसा करने में लगे थे । विशाल को छोटी बात बड़ी बनाने की आदत नहीं थी, लेकिन संध्या तो इस कला में निपुण थी । अपनी बात बड़ी तरजीह से रखती थी और सामने वाले में विश्वास पैदा कर लेती थी । बातों ही बातों में संध्या ने विशाल से कहा कि - "मेरे दादाजी के पास एक बहुत चमकता हुआ हीरा है । उस हीरे को दादाजी ऐसा छुप्कर रखते हैं कि कोई देख भी नहीं पाता है । मैंने एक दिन दादाजी से खूब आग्रह किया तब उन्होंने बमुश्किल वह हीरा दिखाया ।" विशाल ने कहा - "मैंने आज तक हीरा नहीं देखा । चलो अच्छा है, रक्षाबंधन पर तेरे घर जाएँगे और दादाजी से हीरा दिखाने के लिए कहेंगे ।"

संध्या बोली - "ऐसे थोड़े ही दिखायेंगे । कई बहाने बनाकर टाल भी देते हैं ।" विशाल बोला - "प्रयास करने में तो  अपना कुछ बिगड़ेगा नहीं । तुम भी मेरा सहयोग करना, मुझे हीरा जरूर देखना है ।"

विशाल अपने कार्यक्रम के अनुसार संध्या के घर रक्षाबंधन को पहुँचा । दादाजी के पास बैठकर काफी कुछ बातें की और आखिर में हीरे की बात धीरे से कह डाली । दादाजी ने कहा - "हमारे पास तो कोई हीरा है ही नहीं और चार पीढ़ी से तो हीरा हमारे घर में रहा ही नहीं ।" तब विशाल ने कहा - "आपने संध्या को तो हीरा दिखाया तो फिर मुझे क्यों नहीं दिखा रहे ?" यह बात सुनते ही दादाजी तैश में आ गए और उन्होंने कहा - "बुलाओ संध्या को । उसे मैंने हीरा कब दिखाया ?" संध्या दादाजी के सामने जाने से कतराती रही, परन्तु दादाजी की आँखें और डाँट दोनों को सहन नहीं कर सकी और अंत में वह यह कह बैठी कि - "मैं तो झूठ बोली थी ।" बहुत शर्मिंदा हुई और भविष्य में ऐसी झूठ न बोलने का दादाजी और विशाल से वादा किया ।

*शिक्षा - झूठ का भांडा फूटने पर हम सबकी नजरों से तो गिरते ही हैं, स्वयं जीवन भर ग्लानि भाव से दुःखी भी रहते हैं । अतः झूठ बोलने से सदैव बचना चाहिए ।*

*पुस्तक - सन्मति सन्देश बोध कथाएँ*
*संकलन-सम्पादन - ब्र. डाॅ. मनोजकुमार जैन, जबलपुर*






*कहानी (1)*
*ये कथा रात को सोने से पहले घर मे सबको सुनायें*
एक बार की बात है कि श्री कृष्ण और अर्जुन कहीं जा रहे थे।
रास्ते में अर्जुन ने श्री कृष्ण से पूछा कि प्रभु – एक जिज्ञासा है  मेरे मन में, अगर आज्ञा हो तो पूछूँ ?
श्री कृष्ण ने कहा – अर्जन, तुम मुझसे बिना किसी हिचक, कुछ भी पूछ सकते हो।
तब अर्जुन ने कहा कि मुझे आज तक यह बात समझ नहीं आई है कि दान तो मै भी बहुत करता हूँ परंतु सभी लोग कर्ण को ही सबसे बड़ा दानी क्यों कहते हैं ?
यह प्रश्न सुन श्री कृष्ण मुस्कुराये और बोले कि आज मैं तुम्हारी यह जिज्ञासा अवश्य शांत करूंगा।
🌤श्री कृष्ण ने पास में ही स्थित दो पहाड़ियों को सोने का बना दिया।
इसके बाद वह अर्जुन से बोले कि हे अर्जुन इन दोनों सोने की पहाड़ियों को तुम आस पास के गाँव वालों में बांट दो।
अर्जुन प्रभु से आज्ञा ले कर तुरंत ही यह काम करने के लिए चल दिया।
उसने सभी गाँव वालों को बुलाया।
उनसे कहा कि वह लोग पंक्ति बना लें अब मैं आपको सोना बाटूंगा और सोना बांटना शुरू कर दिया।
गाँव वालों ने अर्जुन की खूब जय जयकार करनी शुरू कर दी।
अर्जुन सोना पहाड़ी में से तोड़ते गए और गाँव वालों को देते गए।
लगातार दो दिन और दो रातों तक अर्जुन सोना बांटते रहे।
उनमे अब तक अहंकार आ चुका था।
गाँव के लोग वापस आ कर दोबारा से लाईन में लगने लगे थे।
इतने समय पश्चात अर्जुन काफी थक चुके थे।
जिन सोने की पहाड़ियों से अर्जुन सोना तोड़ रहे थे, उन दोनों पहाड़ियों के आकार में जरा भी कमी नहीं आई थी।
उन्होंने श्री कृष्ण जी से कहा कि अब  मुझसे यह काम और न हो सकेगा। मुझे थोड़ा विश्राम चाहिए।
प्रभु ने कहा कि ठीक है तुम अब विश्राम करो और उन्होंने कर्ण बुला लिया।
उन्होंने कर्ण से कहा कि इन दोनों पहाड़ियों का सोना इन गांव वालों में बांट दो।
कर्ण तुरंत सोना बांटने चल दिये।
उन्होंने गाँव वालों को बुलाया और उनसे कहा – यह सोना आप लोगों का है , जिसको जितना सोना चाहिए वह यहां से ले जाये।
ऐसा कह कर कर्ण वहां से चले गए।
यह देख कर अर्जुन ने कहा कि ऐसा करने का विचार मेरे मन में क्यों नही आया?
श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को शिक्षा
इस पर श्री कृष्ण ने जवाब दिया कि तुम्हे सोने से मोह हो गया था।
तुम खुद यह निर्णय कर रहे थे कि किस गाँव वाले की कितनी जरूरत है।
उतना ही सोना तुम पहाड़ी में से खोद कर उन्हे दे रहे थे।
तुम में दाता होने का भाव आ गया था।
दूसरी तरफ कर्ण ने ऐसा नहीं किया। वह सारा सोना गाँव वालों को देकर वहां से चले गए। वह नहीं चाहते थे कि उनके सामने कोई उनकी जय जयकार करे या प्रशंसा करे। उनके पीठ पीछे भी लोग क्या कहते हैं उस से उनको कोई फर्क नहीं पड़ता।
यह उस आदमी की निशानी है जिसे आत्मज्ञान हांसिल हो चुका है।
इस तरह श्री कृष्ण ने खूबसूरत तरीके से अर्जुन के प्रश्न का उत्तर दिया, अर्जुन को भी अब अपने प्रश्न का उत्तर मिल चुका था।
💥 *कथासार* 💥
*दान देने के बदले में धन्यवाद या बधाई की उम्मीद करना भी उपहार नहीं सौदा कहलाता है।*
यदि हम किसी को कुछ दान या सहयोग करना चाहते हैं तो हमे यह बिना किसी उम्मीद या आशा के करना चाहिए, ताकि यह हमारा सत्कर्म हो, न कि हमारा अहंकार ।
*****************************
*कहानी (2)*
*संन्यासी की दृष्टि*
एक चोर भूल से एक आश्रम में चला गया। कुटिया में एक संन्यासी बैठा था। संन्यासी जाग रहा था। चोर ने सोचा—गलत स्थान पर आ गया, मैंने समझा था कुछ और, आ गया कहीं और। चोर ने संन्यासी को प्रणाम किया। संन्यासी ने पूछा—भाई! तुम कौन हो? चोर ने सोचा—यहां क्यों झूठ बोलूं? उसने कहा—महाराज! मैं चोर हूं, चोरी करने आया हूं। संन्यासी बोला—यहां क्या मिलेगा तुम्हें? पर आ गए हो, तो निराश नहीं लौटने दूंगा। संन्यासी खड़ा हुआ, उसने देखा—एक कम्बल टंगा हुआ है। उसने कम्बल उतारा और कहा—सर्दी का मौसम है, ठिठुरते जाओगे। यह कम्बल साथ ले जाओ, काम आएगा। चोर कम्बल लेकर चला गया। संयोग ऎसा मिला—पुलिस ने चोर को पकड़ लिया। चोरी का सामान बरामद कर लिया। घोष्ाणा हो गई—जिनका सामान हो, वे आकर ले जाएं। संन्यासी को पता चला, संन्यासी भी गया। संन्यासी ने कहा यह कम्बल मेरा है।'क्या आपका है?''पहले था, पर अब मेरा नहीं है।''इस चोर ने चुरा लिया?' 'यह चोर नहीं है। यह आदमी मेरी कुटिया में आकर खाली जा रहा था। मैंने कहा—भाई! खाली क्यों जाते हो। मैंने यह दान दिया है, इसने चोरी नहीं की है, इसलिए मैं वापस ले नहीं सकता चोर ने संन्यासी के पैर पकड़ लिए। उसने गद्गद् स्वर में कहा 'एक तुम ही मुनि हो, जो भला आदमी कहते हो, दूसरा कोई मुझे भला कहने वाला नहीं है। क्या चोर भला आदमी है? सबकी दृष्टि में बुरा और संन्यासी की दृष्टि में भला यह अपना-अपना दृष्टिकोण है। कोई भी आदमी नितान्त बुरा नहीं होता और कोई भी आदमी नितान्त भला नहीं होता।
***************************
*कहानी (3)*
                 *ग़लती*
*एक बार एक राजा भोजन कर रहा था, अचानक खाना परोस रहे सेवक के हाथ से थोड़ी सी सब्जी राजा के कपड़ों पर छलक गई। राजा की त्यौरियां चढ़ गयीं।_*
*_जब सेवक ने यह देखा तो वह थोड़ा घबराया, लेकिन कुछ सोचकर उसने प्याले की बची सारी सब्जी भी राजा के कपड़ों पर उड़ेल दी। अब तो राजा के क्रोध की सीमा न रही। उसने सेवक से पूछा, 'तुमने ऐसा करने का दुस्साहस कैसे किया?'*_
_*सेवक ने अत्यंत शांत भाव से उत्तर दिया, महाराज ! पहले आपका गुस्सा देखकर मैनें समझ लिया था कि अब जान नहीं बचेगी। लेकिन फिर सोचा कि लोग कहेंगे की राजा ने छोटी सी गलती पर एक बेगुनाह को मौत की सजा दी। ऐसे में आपकी बदनामी होती। तब मैनें सोचा कि सारी सब्जी ही उड़ेल दूं। ताकि दुनिया आपको बदनाम न करे। और मुझे ही अपराधी समझे।*
*_राजा को उसके जबाव में एक गंभीर संदेश के दर्शन हुए और पता चला कि सेवक भाव कितना कठिन है। जो समर्पित भाव से सेवा करता है उससे कभी गलती भी हो सकती है फिर चाहे वह सेवक हो, मित्र हो, या परिवार का कोई सदस्य, ऐसे समर्पित लोगों की गलतियों पर नाराज न होकर उनके प्रेम व समर्पण का सम्मान करना चाहिए।*
****************************
*मंगलसूत्र का सौभाग्य*
अणहिलपुर (पाटण) नामक प्राचीन नगरी में सेठ जगडू शाह कोट्रयाधीश रहते थे । उन दिनों लगातार पाँच वर्ष तक अकाल पड़ा था । सेठ जगडू ने करोड़ों मुद्राएँ खर्च करके देशभर में अनाज खरीदकर दानशालायें एवं भोजनशालायें खुलवा दीं । इस प्रकार चार वर्ष तक दानशालायें सतत चलती रहीं । पाँचवें वर्ष सेठ के पास धन समाप्त हो गया, तब दानशालायें चलना भी असंभव-सा हो गया । सेठ उदास बैठे हुए सोच रहे थे कि - "अब दानशालायें कैसे चलेंगी ?" इतने में सेठानी आ गई ।
उन्होंने उदासी का कारण पूछा - "सेठ जी ने कहा - "कुछ नहीं, यही सोच रहा हूँ कि अब दानशाला कैसे चालू रखी जाये ?" सेठानी ने कहा - "कई लाख रुपये की कीमत का मेरा मंगलसूत्र बेचकर दानशाला शुरू कीजिए ।" सेठ जी ने कहा - "तुम्हारे सौभाग्य का चिह्न मंगलसूत्र कैसे बेच दूँ ?" सेठानी ने उत्तर दिया - "हजारों भूखे प्राणियों के पेट में अन्न पहुँचेगा, इससे बड़ा मेरा और सौभाग्य क्या हो सकता है ?" सेठ जी ने मंगलसूत्र बेचकर दानशाला चालू रखी ।
*शिक्षा - धन वही सौभाग्य देता है, जो परोपकार में खर्च हो । धन का सर्वश्रेष्ठ उपयोग तो दान देने में ही है, जिससे पुण्य का संचय होता है । धन यदि अपने भोग के लिए खर्च किया जावे तो पाप बंध का ही कारण है तथा यदि केवल संचय ही किया जावे तो वह नाश को प्राप्त हो जाता है । अतः पुण्योदय से प्राप्त धन को दानादिक परोपकार के कार्यों में लगाना ही उसका सबसे अच्छा उपयोग है ।*

*पुस्तक - सन्मति सन्देश बोध कथाएँ*
*संकलन-सम्पादन - ब्र. डाॅ. मनोजकुमार जैन, जबलपुर*

😴 😴 👉 *रात्रि कहानी* 👈 😴 😴
               🙏 *सच्ची सेवा भाव* 🙏
✍ *एक बार एक राजा भोजन कर रहा था, अचानक खाना परोस रहे सेवक के हाथ से थोड़ी सी सब्जी राजा के कपड़ों पर छलक गई। राजा की त्यौरियां चढ़ गयीं।* 😡
*जब सेवक ने यह देखा तो वह थोड़ा घबराया, लेकिन कुछ सोचकर उसने प्याले की बची सारी सब्जी भी राजा के कपड़ों पर उड़ेल दी।*
*अब तो राजा के क्रोध की सीमा न रही। उसने सेवक से पूछा, 'तुमने ऐसा करने का दुस्साहस कैसे किया ?*
😌 *सेवक ने अत्यंत शांत भाव से उत्तर दिया, महाराज ! पहले आपका गुस्सा देखकर मैनें समझ लिया था कि अब जान नहीं बचेगी। लेकिन फिर सोचा कि लोग कहेंगे की राजा ने छोटी सी गलती पर एक बेगुनाह को मौत की सजा दी। ऐसे में आपकी बदनामी होती। तब मैनें सोचा कि सारी सब्जी ही उड़ेल दूं। ताकि दुनिया आपको बदनाम न करे। और मुझे ही अपराधी समझे।*
*राजा को उसके जबाव में एक गंभीर संदेश के दर्शन हुए और पता चला कि सेवक भाव कितना कठिन है।*
*जो समर्पित भाव से सेवा करता है उससे कभी गलती भी हो सकती है फिर चाहे वह सेवक हो, मित्र हो, या परिवार का कोई सदस्य, ऐसे समर्पित लोगों की गलतियों पर नाराज न होकर उनके प्रेम व समर्पण का सम्मान करना चाहिए।*
😴😴😴😴😴😴😴😴😴😴😴


🏮🧶🏮🧶🏮🧶🏮🧶
*🕉णमो उवज्झायाणम्🕉*
÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷
÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷
*🏮आओ कहानी सुनें🏮*
*🔥प्रतिस्पर्धा🔥*
÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷
÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷

*राजा ने मंत्री से कहा- मेरा मन प्रजाजनों में से जो वरिष्ठ हैं उन्हें कुछ बड़ा उपहार देने का हैं। बताओ ऐसे अधिकारी व्यक्ति कहाँ से और किस प्रकार ढूंढ़ें जाय?*

*मंत्री ने कहा - सत्पात्रों की तो कोई कमी नहीं, पर उनमें एक ही कमी है कि परस्पर सहयोग करने की अपेक्षा वे एक दूसरे की टाँग पकड़कर खींचते हैं। न खुद कुछ पाते हैं और न दूसरों को कुछ हाथ लगने देते हैं। ऐसी दशा में आपकी उदारता को फलित होने का अवसर ही न मिलेगा।*

*राजा के गले वह उत्तर उतरा नहीं। बोले! तुम्हारी मान्यता सच है यह कैसे माना जाय? यदि कुछ प्रमाण प्रस्तुत कर सकते हो तो करो।*

*मंत्री ने बात स्वीकार करली और प्रत्यक्ष कर दिखाने की एक योजना बना ली। उसे कार्यान्वित करने की स्वीकृति भी मिल गई।*

*एक छः फुट गहरा गड्ढा बनाया गया। उसमें बीस व्यक्तियों के खड़े होने की जगह थी। घोषणा की गई कि जो इस गड्ढे से ऊपर चढ़ आवेगा उसे आधा राज्य पुरस्कार में मिलेगा।*

*बीसों प्रथम चढ़ने का प्रयत्न करने लगे। जो थोड़ा सफल होता दीखता उसकी टाँगें पकड़कर शेष उन्नीस नीचे घसीट लेते। वह औंधे मुँह गिर पड़ता। इसी प्रकार सबेरे आरम्भ की गई प्रतियोगिता शाम को समाप्त हो गयी। बीसों को असफल ही किया गया और रात्रि होते-होते उन्हें सीढ़ी लगाकर ऊपर खींच लिया गया। पुरस्कार किसी को भी नहीं मिला।*

*मंत्री ने अपने मत को प्रकट करते हुए कहा - यदि यह एकता कर लेते तो सहारा देकर किसी एक को ऊपर चढ़ा सकते थे। पर वे ईर्ष्यावश वैसा नहीं कर सकें। एक दूसरे की टाँग खींचते रहे और सभी खाली हाथ रहे।*

*संसार में प्रतिभावानों के बीच भी ऐसी ही प्रतिस्पर्धा चलती हैं और वे खींचतान में ही सारी शक्ति गँवा देते है। अस्तु उन्हें निराश हाथ मलते ही रहना पड़ता है।*   

〰〰🔺〰〰🧶〰〰
👧🏻आजकी कहानी
😷 मुनि निंदा का फल

  अयोध्या का राजा सूरत महाप्रतापी सम्राट था उसके 500 रानियों में 'सती' नाम की पटरानी थी। जिसे वह बहुत प्रेम करता था। 

जब राजा रानिवास में होता तो बाकी सब कार्य छोड़ देता था। लेकिन राजा को रानी से भी अधिक प्रिय मुनिराजों को आहार देना सुपात्र दान करना अच्छा लगता था, कितनी भी विपरीत परिस्थिति हो अगर उसके यहाँ मुनिराज पधारे तो वह सब कार्य यहाँ तक की रानी को भी छोड़कर पहले आहार देता था। 

एक दिन राजा रानिवास में था प्रातःकाल जब वह पटरानी सती के कपाल पर तिलक कर ही रहा था की तुरन्त समाचार मिलता है कि मुनिराज  आहारार्थ पधारे है उसने तिलकपात्र को एक तरफ रखा व बिना तिलक किए ही मुनिदान को चला गया।

 ऐसा देखकर रानी बहुत रुष्ट हुई उसने दासियों,सखियो,नौकरों के समक्ष मुनिराज को अपशब्द कहे। कुछ ही क्षण बाद मुनि निंदा से रानी को गलित कुष्ठ हो गया। जब राजा मुनिकर्म से निवृत्त हो रानिवास लौटा तो रानी की दशा देखकर उसे भव-तन-भोगो से वैराग्य हो गया और तुरन्त वापस मुनिराज के सम्मुख जा जैनेश्वरी दीक्षा ले ली।
 ईधर रानी  मुनिनिंदा के फल में गलित कुष्ठ को भोगती हुई मरकर नरक में गई।
  कुछ क्षण के आवेश ने रानी की भावी पर्याय को बिगाड़ दिया।

    🙏प्रणाम🙏


✍🏻 आजकी कहानी
🙌 गुरुकृपा ही परमकृपा


*एक बार स्वामी विवेकानंद जी किसी स्थान पर प्रवचन दे रहे थे । श्रोताओ के बीच एक मंजा हुआ चित्रकार भी बैठा था । उसे व्याख्यान देते स्वामी जी अत्यंत ओजस्वी लगे । इतने कि वह अपनी डायरी के एक पृष्ठ पर उनका रेखाचित्र बनाने लगा।*

*प्रवचन समाप्त होते ही उसने वह चित्र स्वामी विवेकानंद जी को दिखाया । चित्र देखते ही, स्वामी जी हतप्रभ रह गए । पूछ बैठे - यह मंच पर ठीक मेरे सिर के पीछे तुमने जो चेहरा बनाया है , जानते हो यह किसका है ? चित्रकार बोला - नहीं तो .... पर पूरे व्याख्यान के दौरान मुझे यह चेहरा ठीक आपके पीछे झिलमिलाता दिखाई देता रहा।*

*यह सुनते ही विवेकानंद जी भावुक हो उठे । रुंधे कंठ से बोले - " धन्य है तुम्हारी आँखे ! तुमने आज साक्षात मेरे गुरुदेव श्री रामकृष्ण परमहंस जी के दर्शन किए ! यह चेहरा मेरे गुरुदेव का ही है, जो हमेशा दिव्य रूप में, हर प्रवचन में, मेरे अंग संग रहते है ।*

*मैं नहीं बोलता, ये ही बोलते है । मेरी क्या हस्ती, जो कुछ कह-सुना पाऊं !  वैसे भी देखो न, माइक आगे होता है और मुख पीछे। ठीक यही अलौकिक दृश्य इस चित्र में है। मैं आगे हूँ और वास्तविक वक्ता - मेरे गुरुदेव पीछे !"*

*"गुरु शिष्यों में युगों युगों से यही रहस्यमयी लीला होती आ रही है ।"*

*"अपने गुरु पर पूर्ण विश्वास रखे क्योंकि वह सदैव हमारे साथ हैं.!!"*




👉 *_सुंदर सीख_* 👈

*एक दिन स्कूल में छुट्टी की घोषणा होने के कारण, एक दर्जी का बेटा, अपने पापा की दुकान पर चला गया ।
वहाँ जाकर वह बड़े ध्यान से अपने पापा को काम करते हुए देखने लगा । उसने देखा कि उसके पापा कैंची से कपड़े को काटते हैं और कैंची को पैर के पास टांग से दबा कर रख देते हैं । 
फिर सुई से उसको सिलते हैं और सिलने के बाद सुई को अपनी टोपी पर लगा लेते हैं । जब उसने इसी क्रिया को चार-पाँच बार देखा तो उससे रहा नहीं गया, तो उसने पापा से कहा कि वह एक बात उनसे पूछना चाहता है ?*
*पापा ने कहा- बेटा बोलो, क्या पूछना चाहते हो ???? 
 बेटा बोला- पापा, आप जब भी कपड़ा काटते हैं, उसके बाद कैंची को पैर के नीचे दबा देते हैं, और सुई से कपड़ा सिलने के बाद, सुई को टोपी पर लगा लेते हैं, ऐसा क्यों ? ??? 
इसका जो उत्तर पापा ने दिया- उन दो पंक्तियाँ में मानों उसने ज़िन्दगी का सार समझा दिया।*
*उत्तर था- ” बेटा, कैंची काटने का काम करती है, इसलिए पैरों में पड़ी रहती है, काटने वाले को पैरो में दबाकर रखना ही ठीक है 
और सुई जोड़ने का काम करती है,इसलिए जोड़ने वाले की जगह हमेशा ऊपर होती है ।

*_इस लिये अगर जीवन में ऊँचाइयों को छुना हो तो, जोड़ने वाले बने, तोड़ने वाले नहीं।_*
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏



टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

भगवान पार्श्वनाथ प्रश्नोत्तरी

जैन प्रश्नोत्तरी

सतियाँ जी 16