प्रभु महावीर का जीवन चरित्र
प्रभु महावीर का जीवन चरित्र
।। जन्म कल्याणक ।।
84 लाख योनियों में भव भ्रमण करते हुए जब तीर्थांकर प्रभु की आत्मा अपने आखरी पड़ाव यानी की मोक्ष मार्ग के आखरी भव में जन्म लेती है तब उसे जन्म कल्याणक कहा जाता है । इस लोक में जब धर्म शनै शनै न्यून होते जाता है तब इसकी पुनःस्थापन करके मोक्षगति को प्राप्त करती है।
एक ऐसा दिन जब हमारे प्रभु इस लोक में अवतरित होते है । हम जैसे पामर मनुष्य जीवों पर एक बहोत बड़ा उपकार करते है। वे इस लोक में आकर हम सबको धर्म समझाते है। स्वयं धर्म के मार्ग पर चलते है तथा हमें भी उसी रास्ते पर चलने की प्रेरणा देते है । इस भव में जन्म लेकर तीर्थंकर परमात्मा समस्त राजलोक में यह बता देते है की अगर किसी आत्मा को भव सागर पार उतरना है तो इसका एक मात्र रास्ता इस एक गति से ही मुमकिन है।
देवगति की आत्मा शारीरक रूप से कितनी की उत्कृष्ट हो पर मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकती । चाहकर कर भी धर्म से जुड़ नहीं सकती। प्रभु के निकट रह नहीं सकती। प्रभु का सतत सानिध्य प्राप्त नहीं कर सकती।
यह सब विशेषता सिर्फ और सिर्फ मनुष्य गति की आत्मा को प्राप्त है। तो हे मानव अपने आप को किसी भी आत्मा श्रेणि से कम मत मान क्योंकि जो तुझे प्राप्त है उसके सपने तो स्वयं देवता देखते है।
हे वीर ,
मैं " वीर ", हर " वीर " को " वीर " के मार्ग से जोड़ सकु यही आपसे प्रार्थना ।।।
अणु-परमाणु शिव बानी जाओ
सगळा जीवो मोक्षे जावो ।।
इसी भाव के साथ हम आज प्रभु के भव सफ़र में उनके साथ चलते हुए अपने आत्मा को " वीर " बनाने की कोशिश करेंगे।
1. भव -नयसार
2. भव-सौधर्मेंद्र देव एक पल्योपम आयुष्य वाला देव बने।
3. भव-भरत चक्रवती के पुत्र मरीचि हुए।
4. भव-पांचवे ब्रह्मदेवलोक में 10 सागरोपम आयुष्य वाले देव बने।
5.भव-कोल्लक नाम गांव में 80 लाख पूर्व आयु वाले कौशिक नाम के ब्राह्मण बने।
6. भव-पुष्पमित्र नामक ब्राह्मण बने।
7. भव-सौधर्म देवलोक में मध्य स्थिति वाले देव बने।
8.भव-चैत्य नामक गाँव में 64 लाख पूर्व आयु वाला अग्निद्योत नाम का ब्राह्मण हुआ।
9. भव-ईशान देवलोक में मध्यम आयुष्य वाला देव हुआ।
10.भव-मंदिर नाम के सनिवेश में 56 लाख पूर्व आयुष्य वाला अग्निभूति नाम का ब्राह्मण हुआ।
11.भव-सनत्कुमार देवलोक में मध्यम आयुष्य वाला देव हुआ।
12.भव-श्वेताम्बरि नगरी में 44 लाख पूर्व आयु वाला भारद्वाज नाम का ब्राह्मण हुआ।
13.भव-माहेन्द्र देवलोक में मध्यम स्थिति वाला देव बना।
14.भव-राजगृह नगर में स्थावर नाम का ब्राह्मण बने।
15.भव-ब्रह्म लोक में मध्यम आयुष्य वाला देव बना।
16.राजगृही नगरी में विशाखाभूति का विश्वभूति नामक पुत्र हुआ।
17.वहाँ से मरकर महाशुक्रदेवलोक में उत्कृष्ट आयुष्य वाले देव हुए।
18.देवायु पूर्ण करके सोलवे भव में प्रजापति राजा के पुत्र त्रिपुष्ठ वासुदेव के रुप मे अवतरित हुये।
19.वासुदेव की आयुष्य पूर्ण करके वहा से सातवी नरक में गये।
यह थी प्रभु वीर के महावीर बन ने से पहले के भवो की संक्षिप्त जानकारी ।
अब इससे आगे वीर प्रभु के 27 वे भाव यानी की मुख्य भाव की जानकारी आएगी ।
20. ३३ सागरोपम की नरक की आयुष्य पूर्ण करके तिर्यंच गति में केशरी सिंह हुए।
21. वहाँ से चौथी नरक में नारकी रूप उत्पन हुए।
22. वहा से आयुष्य पूर्ण करके रथपुर नगर में विमल नाम के राजा हुयें।
23.वहा से आयुष्य पूर्ण कर महाविदेह क्षेत्र में मूका नाम की नगरी में चक्रवति बने।
24.वहा से काल करके महाशुक्र देवलोक में ७० सागरोपम आयुष्य वाले देव हुये।
25. वहा से काल करके प्राणात नामकें दशवें देवलोक में २० सागरोपम आयुष्य वाले देव हुये।
।। भगवान् महावीर - २७ वाँ भव ।।
दसवे देवलोक का अपना आयुष्य पूर्ण कर प्रभु की आत्मा कुण्डलपुर के ब्राह्मण ऋषभदत्त के देवानंदा की कुक्षी को पवित्र करते हुए ८२ रात्रि के पश्चात माँ त्रिशला की कुक्षी में अवतरित हुई ।
प्रभु की आत्मा के प्रवेश के साथ ही माँ ने १४ मंगल स्वप्न देखे ।
१ चार दांत वाला ऐरावत हाथी
२ उन्नत स्कंधों वाला ऋषभ ( बैल )
३ पराक्रमी केसरी सिंह
४ कमल विराजित लक्ष्मी
५ सुवासित पुष्पों की माला
६ पूर्ण चन्द्रमा
७ असीम तेजस्वी सुरी
८ धर्म - ध्वजा
९ मंगलमयी कलश
१० पद्मसरोवर
११ क्षीर सागर
१२ देव विमान
१३ रत्न राशि
१४ निर्धुम अग्नि
सुबह स्वप्न फल से पता चला की यह आत्मा सारे संसार का मंगल और उद्धार करने वाली है।
जबसे कुक्षी में आई तब से प्रगति और प्रसन्नता के समाचार चारों दिशाओं से आने लगे थे।
कुण्डलपुर प्रतिपल समृद्ध होने लगा था। सो " जैसा नाम वैसा गुण ' के सिद्धांत पर सिद्धार्थ राजा ने " वर्धमान " नाम रखने का निश्चय किया।
भूल सुधार :-
25. जितशत्रु राजा के पुत्र नंदनमुनि के र्रूप में 25 लाख वर्ष की आयु थी।
26. वहा से काल करके प्राणात नामकें दशवें देवलोक में २० सागरोपम आयुष्य वाले देव हुये।
।। भगवान् महावीर - २७ वाँ भव ।।
।। जन्म ।।
तीर्थंकर प्रभु की आत्मा को मती, श्रुत और अवधि ज्ञान गर्भकाल से ही होता है। गर्भ में हलन चलन के कारण माता को हुई पीड़ा का ध्यान आते ही प्रभु ने हिलने की क्रिया बंद कर दी। इस पर माँ अनिष्ट की आशंका से पीड़ित हो उठी।
अपने अवधिज्ञान से माता की पीड़ा को देखते हुए प्रभु ने यहाँ निर्णय लिया की जब तक माता - पिता जीवित है, मैं दीक्षा नहीं लूँगा।
चैत्र शुक्ल १३ को माता ने प्रभु को जन्म दिया । तीनो लोक में एक अलौकिक प्रकाश छा गया। एक क्षण के लिए नारकी के जीवों को भी सुख की अनुभूति हुई।
जन्म होते ही शकेंद्र ने अपने ५ रूप बनाये। एक से प्रभु को ग्रहण करके, एक से छात्र धारण, दो र्रूप से चामर डुलाते हुए व् एक से वज्र धारण कर प्रभु के अंगरक्षक बन कर मेरु पर्वत पर जन्म कल्याणक मनाने ले जाते है।
मेरु पर्वत पर स्नान कराते शकेंद्र के मन में शंका हुई की कही यह जलधारा बालक को बहा के ना ले जाए । शकेंद्र की शंका के निवारण हेतु प्रभु ने अपने बाए पैर के अंगूठे से सिंहासन को दबाया तो सिंहासन, शिलापट एवं सारा मेरु पर्वत कंपायमान हो गया। शकेंद्र को अपनी भूल का ज्ञात हुआ और उन्होंने मन ही मन प्रभु से क्षमा मांगी ।
आनंदपूर्वक जन्म कल्याणक मना कर प्रभु को वापस माता त्रिशला से पास रखकर देवतागण अष्ठांहिका महोत्सव हेतु नंदीश्वर द्वीप की ओर चले गए।
।। भगवान् महावीर - २७ वाँ भव ।।
।। महाविरत्व का उपहार ।।
भगवान् महावीर के बाल्यकाल के अनेक प्रसंग उनकी विलक्षण तेजस्विता को सिद्ध करते है। एक बार देव वर्धमान की परीक्षा लेने के लिए काले नाग ला भयंकर रूप बनाया और फुंकारता हुआ जैसे ही वर्धमान पर झपटा, वर्धमान ने निर्भयतापूर्वक उसका फन पकड़कर उसे दूर कर दिया।
फिर उस देव ने बालक बनकर वर्धमान को अपने कंधे पर बिठा लिया। देखते ही देखते उसने ऊँचा और विकराल रूप धारण कर लिया । पर वर्धमान ने उसके कंधे पर एक मुक्का मारा तो वह असली रूप में आ कर भक्तिपूर्वक चरणों में झुक गया। और प्रभु को " महावीर " नाम दिया ।
।। भगवान् महावीर - २७ वाँ भव ।।
।। जन्मगत ज्ञानेश्वर ।।
पाठशाला में शकेंद्र ने ब्राह्मण का रूप धारण कर वर्धमान से धर्म, दर्शन, न्याय, व्याकरण, और साहित्य संबंधी कई जटिल प्रश्न पूछे।
वर्धमान के तर्कयुक्त उत्तर सुनकर अध्यापक, उनके माता - पिता,परिजन, एवं समस्त जनता का मन आनंद से प्रमुदित हो उठा।
वर्धमान जितने शक्तिशाली थे उतने ही ज्ञानी भी थे ।
।। भगवान् महावीर - २७ वाँ भव ।।
।। अनासक्त यौवन ।।
माता पिता दुखी ना हो इसलिए विवाह प्रस्ताव आने पर वर्धमान मौन रहे, जिसे सबने उनकी स्वीकृति मान लिया। और उनका विवाह राजा समरवीर की धर्मपरायण कन्या यशोदा से कर दिया गया। समय बीतते एक पुत्री का जन्म हुआ जिसका नाम प्रियदर्शना रखा गया।
( दिगंबर परम्परा अनुसार कुमार वर्धमान ने विवाह प्रस्ताव ठुकरा दिया था । )
२८ वर्ष की आयु में माता त्रिशला और पिता सिद्धार्थ १५ दिन का अनशन कर पंडित मरण को प्राप्त हुए। अब वे अपनी प्रतिज्ञा से मुक्त थे।
दीक्षा की आज्ञा लेने हेतु जब भाई नन्दिवर्धन के समक्ष गए तो भाई ने स्नेहविह्वाल होकर कहा की २ वर्ष तक रुक जाओ।
२९ वा वर्ष पूर्ण होते ही वर्धमान ने प्रातः एक प्रहर तक १ करोड़ ८ लाख स्वर्ण मुद्राओं का दान करने लगे।
एक वर्ष में ३ अरब ८८ करोड़ ८० लक्ज मुद्राए दान में दी।
३० वर्ष पूर्ण होते ही नन्दिवर्धन को वर्धमान के दीक्षा की तयारी करनी पड़ी। दीक्षा लेने से पहले दिन प्रभु उपवासी रहे और आज दीक्षा के दिन भी उपवासी थे।
मार्गशीर्ष कृष्णा १० का चौथा प्रहार था। प्रभु ज्ञातखंड वन में पहनकर अपने हाथों से समस्त आभूषण व् वस्त्र उतार देते है।
अशोक वृक्ष के निचे पूर्वाभिमुख होकर प्रभु पंचमुष्टि लोच करते है और ' णमो सिद्धाणं ' कहत हुए समभाव साधना की कठोर प्रतिज्ञा ग्रहण करते है।
सबके हाथ स्वतः जुड़ गए और मस्तक प्रभु के चरणों में झुक गए।
दीक्षा ग्रहण करते ही प्रभु वर्धमान को मनःपर्याय ज्ञान प्राप्त हो गया। सभी के मन की परिस्तिथि को बिना कहे जान लेना मनःपर्याय ज्ञान है । किन्तु जब तक केवलज्ञान ना हो तब तक सारे ज्ञान अधूरे है।
।। भगवान् महावीर - २७ वाँ भव ।।
।। साधना का प्रथम वर्ष ।।
शक्रेन्द्र ने श्रमण महावीर को वंदन किया और अपनी श्रद्धा और भक्ति के प्रतिक स्वरुप एक देवदुष्य वस्त्र उनके कंधे पर डाल दिया।
सूर्य जब अपने दैनिक यात्रा के अंतिम पड़ाव पर पहुँच रहा था तो श्रमण महावीर की यात्रा का प्रथम पड़ाव प्रारम्भ हुआ।
एक दरिद्र ब्राह्मण के याचना करने पर श्रमण ने देवदुष्य वस्त्र का एक पट उतारकर दे दिया। किन्तु वह लोभी ब्राह्मण श्रमण के पीछे १३ महीने तक घूमता रहा। एक बार जैसे ही वह वस्त्र प्रभु के कंधे से गिरा ब्राह्मण ने उठा लिया। उसे रफू करके नंदिवर्धन को लाख दिनार में बेच दिया।
इसी बिच एक ग्वाला अपने बैलो के साथ लौट रहा था। प्रभु को जंगल में खड़े देखा तो बोला मेरे बैलो का ध्यान रखना। श्रमण महावीर साधना में लीन थे और भूखे बैल इधर उधर चले गए।
ग्वाले ने वापस आकर देखा तो अपने बैलो को वहा नहीं पाया। वह खोज बिन करके जब जंगल नें भटककर वापस आया तो देखा की बैल वापस आकर श्रमण के पास बैठ गए है। उसे शंका हुई की श्रमण की नियत ठीक नहीं है ,यह मेरे बैल चुराना चाहता है।
तभी वहा शक्रेंद्र आये और ग्वाले से बोले की यह श्रमण महावीर है कोई चोर नहीं। और फिर श्रमण से कहा की मुझे आपकी सेवा में रहने दे। ना जाने और कितने अज्ञानी आपकी साधना को नहीं समझ पाएंगे। तब श्रमण ने कहा की हे शक्रेंद्र ऐसा कभी नहीं हो सकता की कर्म-मुक्ति की साधना करने वाला पथिक दूसरे की सहायता से साधना करे।
कूर्मार ग्राम से विहार कर कोल्लाकग्राम में बहुल ब्राह्मण के घर पर खीर द्वारा प्रभु ने प्रथम पारणा किया। कोल्लाक से विहार कर मोराक ग्राम में एक तापस की कुतिया में साधनारत हो गए। गाय आदि पशु उस कुतिया की घास खा जाते पर श्रमण अपनी साधना में लीन रहते।
एक दिन तापसों की शिकायत पर कुलपति ने उन्हें अपनी कुतिया के रक्षा करने को कहा। तब श्रमण ने की अगर मेरी साधना किसी की असमाधि का कारण बनती हो तो मुझे वहा नहीं रहना चाहिए। उन्होंने कुलपति से अनुमति लेकर वहा से विहार कर लिया।
।। भगवान् महावीर - २७ वाँ भव ।।
।। साधना के वर्ष दरम्यान हुई महत्वपूर्ण घटनाएं ।।
1. शूलपाणि के उपसर्ग
2. संगम देव के उपसर्ग
3. कटपुतना का उपसर्ग
4.चंदकौशिक को प्रतिबोध
5. ग्वाले का उपसर्ग
6. चंदनबाला का उद्धार
।। भगवान् महावीर - २७ वाँ भव ।।
१२.५ साल साधना काल के बाद प्रभु को वैशाख सूद १० को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई।
केवलज्ञान प्राप्त होते ही प्रभु ने पहली देशना दी जो निष्फल गयी।
दूसरी देशना वैशाख सूद ११ को हुई। जिसे हम शाशन स्थापना दिवस के रूप में मनाते है।
उसी समवसरण में प्रभु ने तीर्थ की स्थापना की। प्रथम साधू और गांधार इंद्रभूति बने जिन्हें हम गुरु गौतम स्वामी के नाम से जानते है । और प्रथम साध्वी चंदनबाला बनी।
३० साल के केवलज्ञान काल में प्रभु को गौशालक के उपसर्ग सहन करने पड़े थे।
।। भगवान् महावीर - २७ वाँ भव ।।
।।। केवलज्ञान ।।।
वैशाख सूद १०
कम से कम २ उपवास ( छठ ) से लेकर ६ मॉस तक की उपवास आदि की महान तपस्या करते हुए उद्यान, वन, निर्जन स्थान वगेरे स्थानों पर ध्यानस्थ रहकर , देव-मनुष्य आदि के उपसर्ग समता पूर्वक स्वेच्छा से सहते हुए १२.५ साल के साधना काल के अंत में प्रभु धर्म-ध्यान की पराकाष्ठा पर पहुँच गए थे। उसके बाद झुम्बिक गाम के बाहर बहती ऋजुवालीका नदी के किनारे खेत में प्रवेश किया तब प्रभु का दूसरा उपवास था।
विश्व के प्राणिमात्र के यथार्थ कल्याण करना हो उसे विश्व के तमाम पदार्थो, उनकी त्रैकालिक अवस्था अउर उनके गूढ़ रहस्यों का संपूर्ण ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। उसके लिए केवलज्ञान का महा प्रकाश का प्राप्त होना अति आवश्यक है। यह प्राप्त लड़ने के लिए आत्मिक गुणों के विकास के बाधक कर्मो का क्षय करना पड़ता है। यह करने के लिए अहिंसा, संयम और तप की महासधना करनी पड़ती है । भगवान् १२.५ साल तक इस साधना के मार्ग पर चलते रहे थे।
और उनकी इस साधना मई सफ़र की आखरी मंज़िल यानई केवलज्ञान की घडी नज़दीक आ रही थी तब प्रभु ने शालवृक्ष के निचे सूर्य के आतपमें गोदोहिकासन में शुक्ल ध्यान में प्रवेश किया तब वे मोहनिय, ज्ञानावर्णीय, दर्शनावर्णीय तथा अंतराय इन् चरों घाती कर्मों का क्षय किया और केवलज्ञान तथा केवलदर्शन प्रकट हुए।
भगवान् के सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होने से उन्हें संपूर्ण लोकालोक विश्व के तीनों काल के सूक्षम या स्थूल, गुप्त या प्रकट, ऐसे समस्त जड़, चेतन पदार्थों तथा पर्यायों को प्रत्यक्ष देखने तथा जान ने वाले हो गए थे। तभी १८ दोष रहित अरिहंत बने और तीनों लोक के आराध्य, वंदनीय और पूजनीय बने।
।। भगवान् महावीर - २७ वाँ भव ।।
।। संघ स्थापना ।।
समवसरण में असंख्य डिवॉन और मनुष्यों के बीच ३४ अतिशयो और ३५ गुणों से अलंकृत वाणी में प्रभु ने अद्भुत प्रवचन दिया। हज़ारो ह्रदय धर्म भाव से भर गए। दूसरी ओर इसी नगर में एक महायज्ञ शुरू था। उसके लिए अनेक विद्वान ब्राह्मण आये हुए थे। उनमे ११ ब्राह्मण महाविद्वान थे। वह सब अपने आपको सर्वज्ञ मानते थे। उनमे प्रमुख गौतम गोत्रीय इंद्रभूति थे। उन्होंने लोगों से सुना के लोग सर्वज्ञ बने महावीर को वंदन करके आ रहे है। तब इंद्रभूति की ईर्ष्या अग्नि प्रजवल्लित हो गयी।
मेरे सिवाय जगत में सवज्ञा है ही कौन ? यह कोई महा धूर्त लगता है। अभी जाता हूँ और उसे शास्त्रार्थ द्वारा चुप करा देता हूँ। इंद्रभूति ५०० शिष्यों सहित समवसरण में पहोंचे। पर दूरसे प्रभु को देखते ही स्तब्ध रह गए। जब नाज़दीक गए वैसे ही प्रभु ने नाम-गोत्र के उच्छरपूर्वक उन्हें बुलाया। और उनके मन में दबी शंका " आत्मा जैसा स्वतंत्र द्रव्य है या नहीं ? " बताते ही इंद्रभूति का गर्व चूर चूर हो गया और यह एहसास हो गया की महावीर ही सच्चे सर्वज्ञ है। प्रभु ने तुरंत युक्तियुक्त गंभीर अर्थवाली वाणी में उनकी शंका का समाधान कर दिया। शंका का समाधान होते ही इंद्रभूति ने अपने ५०० शिष्यों सहित प्रभु के पास दीक्षा ग्रहण की।
यह बात पता चलते हो बाकी के १० विद्वान अपने शिष्यों सहित वहा आ पहुंचे। उनकी गूढ़ शंकाओं का समाधान होते ही हज़ारों (४४००) शिष्यों सहित दीक्षा ग्रहण की। इंद्रभूति मुख्या शिष्य बने। फिर प्रभु ने इंद्रा के हाथ में रहे हुए थाल से वसक्षेप लेकर सबके सर पर डाला और आशीर्वाद देकर उन्हें गणधर पद पर स्थापित किया। प्रभु ने सबको त्रिपदी दी। जिसके आधार पर अर्थ में सामान पर शब्द से भिन्न द्वादशांगशास्त्रों की प्राकृत भाषा में रचना की और साधू, साध्वी, श्रावक व श्राविका रूपी श्रीसंघ की स्थापना की।
।। भगवान् महावीर - २७ वाँ भव ।।
।। समवसरण में प्रभु और गणधर ।।
उपरोक्त चित्र में ३ प्रसंग बताये गए है।
प्रथम चित्र में सिंहासन पर बैठने से पूर्व जिस वृक्ष के निचे केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था उसे आदर करते हुए प्रदक्षिणा देते है। प्रभु को ऐसे देखना भी अपने आप में अलौकिक है। प्रदक्षिणा देने के पश्चात प्रवचन देने से पहले प्रभु कृतकृत्य होते हुए भी स्वयं स्थापित तीर्थ का अअदर करते हुए २ हाथ जोड़कर " णमो तित्थस्स " बोलते हुए श्रीसंघ-तीर्थ को नमस्कार करते है।
।। भगवान् महावीर - २७ वाँ भव ।।
।। अंतिम देशना ।।
प्रभुने अनेक देश में विहार किया। उन्हीने उपदेश के शरणे बहा दिए। जिसमे गरीब, अमीर, श्रमजीवी और श्रीमंतों, राजकुमारों, रानियों, राज भी थे ऐसे हज़ारों जीवों को दीक्षा प्रदान की और लाखों लोगों को धार्मिक बनाया।
केवली पर्याय के ३० वे वर्ष में, दीक्षा के ४२ वे वर्ष में और जन्म के ७२ वे वर्ष में अंतिम चातुर्मास और जीवन का अंतिम वर्ष पूर्ण करने प्रभु अपापापुरी ( पावापुरी ) पधारे। वहा वे हस्तिपाल राजा के कारकुनों के सभा खंड में रहे। चातुर्मास के चौथे महीने आसोज वाद अमावस्या को निर्वाण होने का जानते हुए चौदस और अमावस्या के २ निर्जल उपवास किये।
जगत के कल्याण के लिए स्वर्णकमल पर पद्मासन बैठ कर अंतिम देशना प्रारम्भ की। सभा में चतुर्विध श्रीसंघ, काशी- कौशल देश आदि के १८ गणतंत्र राजा, तथा अन्य प्रतिष्ठित वर्ग एवं सामान्य जनता भी उपस्थित थी।
प्रवचन में प्रभु ने पुण्य-पाप फल विषयक अध्ययन समझाए। अमावस्या की पिछली रातकी चार घडी बाकी रही उस वक़्त १६ प्रहर - ४८ घंटे अविरत देशना पूरी होते ही प्रभु की आत्मा शरीर का त्याग कर, वेदनियादि ४ अघाती कर्मों का क्षय होते ही, आठों कर्मोम का संपूर्ण क्षय करके ७२ साल का आयुष्य पूर्ण कर, स्वाति नक्षत्रमें उर्ध्वाकाश में असंख्य योजन दूर मुक्ति स्थान पर एक समय ( एक सेकंड का असंख्यात वा भाग ) पहोंच कर ज्योति में ज्योतिरूप में समा गयी। अब वे जन्म मरण से मुक्त हो गए थे । तमाम बंधनों, दुखों से रहित बनकर सर्वसुख के भोक्ता बने।
इस महान आत्मा ने गाठ जन्म में की हुई साधना और अंतिम जन्म नें की हुई महासाधना के फल स्वरुप परमोच्च सिद्धिपद प्राप्त किया।
।। भगवान् महावीर - २७ वाँ भव ।।
।। प्रभु का निर्वाण ।।
निर्वाण के समय काशी-कौशल के १८ गणतंत्र राजा उपस्थित थे। उन्होंने भाव ( ज्ञान ) प्रकाश के अस्त होते ही, द्रव्य प्रकाश करने के लिए हर ओर दिये और दीप मलिकाएं प्रगटाई। तब से यह दिन दीपोत्सव के नाम से प्रसीद्ध हुआ और थोड़े ही समय में देशभर में दीवाली पर्व मनाया जाने लगा।
इन्द्रादिक देव ज्ञान से निर्वाण जान कर पांचवा कल्याणक मनाने आ गए। अंत्येष्ठि कर्म करने के लिए शक ने विविध डिवॉन द्वारा तुरंत ही गोशीर्ष चन्दन आदि के लकड़े (काष्ठ) आदि सामग्री मंगवाकर चिता तैयार करवाई। फिर अभियोगिक देवो के पास क्षीरसमुद्र का जल मंगवाकर अनंत उपकारी भगवान् के अति पवित्र शरीर को स्नान करवाया। फिर चन्दन से लेप किया। रेशमी वस्त्र पहनाये गए। मुकुट आदि स्वर्ण रत्नों के अलंकार पहनाये। फिर प्रभु के देह को देवनिर्मितं भव्य शिबिका में रखा गया। इस निर्वाण यात्रा में असंख्य देव और लाखों प्रजा जनों ने भाग लिया। हर किसी की आँखें अश्रु से सरोबार थी। हर चेहरे पर दुःख और शोक प्रकट हो रहा था। देवों ने शिबिका उठाई, बाजते गाजत जय नाद की प्रचंड घोषणा के साथ निर्वाण यात्रा चिता स्थान तक आयी। चिता के ऊपर शिबिका को समर्पित कर स्तुति प्रार्थना करते हुए देवोंने अग्नि प्रज्वल्लित की।
देह-पुद्गल के नष्ट होते सुगन्धित जल से चिता हो शीतल किया गया।
इस प्रकार निर्वाणोत्सव परन कर प्रभु की अस्थियां देव अपने साथ देवलोक ले गए। अग्निसंस्कार के स्थान पर भव्य स्तूप की स्थापना की गयी।
निर्वाण से पहले प्रभु ने अपना केवलज्ञानी, अवधिज्ञानि, मनःपर्यायज्ञानी, वादी, महातपस्वी, अद्भुत सिद्धियों से अलंकृत लाखों साधू-साधविजिओं के साथ करोडो श्रावक-श्राविकाओं का संघ पाँचबे शिष्य सुधर्मास्वामी को सौप दिया।
इसी के साथ प्रभु वीर का जीवन चरित्र यहाँ समाप्त होता है।
जिन आज्ञा विरुद्ध कुछ भी लिखा गया हो तो सर्व प्रथम " वीर " से और फिर आप सब से मिच्छामी दुक्कडम!
।। जन्म कल्याणक ।।
84 लाख योनियों में भव भ्रमण करते हुए जब तीर्थांकर प्रभु की आत्मा अपने आखरी पड़ाव यानी की मोक्ष मार्ग के आखरी भव में जन्म लेती है तब उसे जन्म कल्याणक कहा जाता है । इस लोक में जब धर्म शनै शनै न्यून होते जाता है तब इसकी पुनःस्थापन करके मोक्षगति को प्राप्त करती है।
एक ऐसा दिन जब हमारे प्रभु इस लोक में अवतरित होते है । हम जैसे पामर मनुष्य जीवों पर एक बहोत बड़ा उपकार करते है। वे इस लोक में आकर हम सबको धर्म समझाते है। स्वयं धर्म के मार्ग पर चलते है तथा हमें भी उसी रास्ते पर चलने की प्रेरणा देते है । इस भव में जन्म लेकर तीर्थंकर परमात्मा समस्त राजलोक में यह बता देते है की अगर किसी आत्मा को भव सागर पार उतरना है तो इसका एक मात्र रास्ता इस एक गति से ही मुमकिन है।
देवगति की आत्मा शारीरक रूप से कितनी की उत्कृष्ट हो पर मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकती । चाहकर कर भी धर्म से जुड़ नहीं सकती। प्रभु के निकट रह नहीं सकती। प्रभु का सतत सानिध्य प्राप्त नहीं कर सकती।
यह सब विशेषता सिर्फ और सिर्फ मनुष्य गति की आत्मा को प्राप्त है। तो हे मानव अपने आप को किसी भी आत्मा श्रेणि से कम मत मान क्योंकि जो तुझे प्राप्त है उसके सपने तो स्वयं देवता देखते है।
हे वीर ,
मैं " वीर ", हर " वीर " को " वीर " के मार्ग से जोड़ सकु यही आपसे प्रार्थना ।।।
अणु-परमाणु शिव बानी जाओ
सगळा जीवो मोक्षे जावो ।।
इसी भाव के साथ हम आज प्रभु के भव सफ़र में उनके साथ चलते हुए अपने आत्मा को " वीर " बनाने की कोशिश करेंगे।
1. भव -नयसार
2. भव-सौधर्मेंद्र देव एक पल्योपम आयुष्य वाला देव बने।
3. भव-भरत चक्रवती के पुत्र मरीचि हुए।
4. भव-पांचवे ब्रह्मदेवलोक में 10 सागरोपम आयुष्य वाले देव बने।
5.भव-कोल्लक नाम गांव में 80 लाख पूर्व आयु वाले कौशिक नाम के ब्राह्मण बने।
6. भव-पुष्पमित्र नामक ब्राह्मण बने।
7. भव-सौधर्म देवलोक में मध्य स्थिति वाले देव बने।
8.भव-चैत्य नामक गाँव में 64 लाख पूर्व आयु वाला अग्निद्योत नाम का ब्राह्मण हुआ।
9. भव-ईशान देवलोक में मध्यम आयुष्य वाला देव हुआ।
10.भव-मंदिर नाम के सनिवेश में 56 लाख पूर्व आयुष्य वाला अग्निभूति नाम का ब्राह्मण हुआ।
11.भव-सनत्कुमार देवलोक में मध्यम आयुष्य वाला देव हुआ।
12.भव-श्वेताम्बरि नगरी में 44 लाख पूर्व आयु वाला भारद्वाज नाम का ब्राह्मण हुआ।
13.भव-माहेन्द्र देवलोक में मध्यम स्थिति वाला देव बना।
14.भव-राजगृह नगर में स्थावर नाम का ब्राह्मण बने।
15.भव-ब्रह्म लोक में मध्यम आयुष्य वाला देव बना।
16.राजगृही नगरी में विशाखाभूति का विश्वभूति नामक पुत्र हुआ।
17.वहाँ से मरकर महाशुक्रदेवलोक में उत्कृष्ट आयुष्य वाले देव हुए।
18.देवायु पूर्ण करके सोलवे भव में प्रजापति राजा के पुत्र त्रिपुष्ठ वासुदेव के रुप मे अवतरित हुये।
19.वासुदेव की आयुष्य पूर्ण करके वहा से सातवी नरक में गये।
यह थी प्रभु वीर के महावीर बन ने से पहले के भवो की संक्षिप्त जानकारी ।
अब इससे आगे वीर प्रभु के 27 वे भाव यानी की मुख्य भाव की जानकारी आएगी ।
20. ३३ सागरोपम की नरक की आयुष्य पूर्ण करके तिर्यंच गति में केशरी सिंह हुए।
21. वहाँ से चौथी नरक में नारकी रूप उत्पन हुए।
22. वहा से आयुष्य पूर्ण करके रथपुर नगर में विमल नाम के राजा हुयें।
23.वहा से आयुष्य पूर्ण कर महाविदेह क्षेत्र में मूका नाम की नगरी में चक्रवति बने।
24.वहा से काल करके महाशुक्र देवलोक में ७० सागरोपम आयुष्य वाले देव हुये।
25. वहा से काल करके प्राणात नामकें दशवें देवलोक में २० सागरोपम आयुष्य वाले देव हुये।
।। भगवान् महावीर - २७ वाँ भव ।।
दसवे देवलोक का अपना आयुष्य पूर्ण कर प्रभु की आत्मा कुण्डलपुर के ब्राह्मण ऋषभदत्त के देवानंदा की कुक्षी को पवित्र करते हुए ८२ रात्रि के पश्चात माँ त्रिशला की कुक्षी में अवतरित हुई ।
प्रभु की आत्मा के प्रवेश के साथ ही माँ ने १४ मंगल स्वप्न देखे ।
१ चार दांत वाला ऐरावत हाथी
२ उन्नत स्कंधों वाला ऋषभ ( बैल )
३ पराक्रमी केसरी सिंह
४ कमल विराजित लक्ष्मी
५ सुवासित पुष्पों की माला
६ पूर्ण चन्द्रमा
७ असीम तेजस्वी सुरी
८ धर्म - ध्वजा
९ मंगलमयी कलश
१० पद्मसरोवर
११ क्षीर सागर
१२ देव विमान
१३ रत्न राशि
१४ निर्धुम अग्नि
सुबह स्वप्न फल से पता चला की यह आत्मा सारे संसार का मंगल और उद्धार करने वाली है।
जबसे कुक्षी में आई तब से प्रगति और प्रसन्नता के समाचार चारों दिशाओं से आने लगे थे।
कुण्डलपुर प्रतिपल समृद्ध होने लगा था। सो " जैसा नाम वैसा गुण ' के सिद्धांत पर सिद्धार्थ राजा ने " वर्धमान " नाम रखने का निश्चय किया।
भूल सुधार :-
25. जितशत्रु राजा के पुत्र नंदनमुनि के र्रूप में 25 लाख वर्ष की आयु थी।
26. वहा से काल करके प्राणात नामकें दशवें देवलोक में २० सागरोपम आयुष्य वाले देव हुये।
।। भगवान् महावीर - २७ वाँ भव ।।
।। जन्म ।।
तीर्थंकर प्रभु की आत्मा को मती, श्रुत और अवधि ज्ञान गर्भकाल से ही होता है। गर्भ में हलन चलन के कारण माता को हुई पीड़ा का ध्यान आते ही प्रभु ने हिलने की क्रिया बंद कर दी। इस पर माँ अनिष्ट की आशंका से पीड़ित हो उठी।
अपने अवधिज्ञान से माता की पीड़ा को देखते हुए प्रभु ने यहाँ निर्णय लिया की जब तक माता - पिता जीवित है, मैं दीक्षा नहीं लूँगा।
चैत्र शुक्ल १३ को माता ने प्रभु को जन्म दिया । तीनो लोक में एक अलौकिक प्रकाश छा गया। एक क्षण के लिए नारकी के जीवों को भी सुख की अनुभूति हुई।
जन्म होते ही शकेंद्र ने अपने ५ रूप बनाये। एक से प्रभु को ग्रहण करके, एक से छात्र धारण, दो र्रूप से चामर डुलाते हुए व् एक से वज्र धारण कर प्रभु के अंगरक्षक बन कर मेरु पर्वत पर जन्म कल्याणक मनाने ले जाते है।
मेरु पर्वत पर स्नान कराते शकेंद्र के मन में शंका हुई की कही यह जलधारा बालक को बहा के ना ले जाए । शकेंद्र की शंका के निवारण हेतु प्रभु ने अपने बाए पैर के अंगूठे से सिंहासन को दबाया तो सिंहासन, शिलापट एवं सारा मेरु पर्वत कंपायमान हो गया। शकेंद्र को अपनी भूल का ज्ञात हुआ और उन्होंने मन ही मन प्रभु से क्षमा मांगी ।
आनंदपूर्वक जन्म कल्याणक मना कर प्रभु को वापस माता त्रिशला से पास रखकर देवतागण अष्ठांहिका महोत्सव हेतु नंदीश्वर द्वीप की ओर चले गए।
।। भगवान् महावीर - २७ वाँ भव ।।
।। महाविरत्व का उपहार ।।
भगवान् महावीर के बाल्यकाल के अनेक प्रसंग उनकी विलक्षण तेजस्विता को सिद्ध करते है। एक बार देव वर्धमान की परीक्षा लेने के लिए काले नाग ला भयंकर रूप बनाया और फुंकारता हुआ जैसे ही वर्धमान पर झपटा, वर्धमान ने निर्भयतापूर्वक उसका फन पकड़कर उसे दूर कर दिया।
फिर उस देव ने बालक बनकर वर्धमान को अपने कंधे पर बिठा लिया। देखते ही देखते उसने ऊँचा और विकराल रूप धारण कर लिया । पर वर्धमान ने उसके कंधे पर एक मुक्का मारा तो वह असली रूप में आ कर भक्तिपूर्वक चरणों में झुक गया। और प्रभु को " महावीर " नाम दिया ।
।। भगवान् महावीर - २७ वाँ भव ।।
।। जन्मगत ज्ञानेश्वर ।।
पाठशाला में शकेंद्र ने ब्राह्मण का रूप धारण कर वर्धमान से धर्म, दर्शन, न्याय, व्याकरण, और साहित्य संबंधी कई जटिल प्रश्न पूछे।
वर्धमान के तर्कयुक्त उत्तर सुनकर अध्यापक, उनके माता - पिता,परिजन, एवं समस्त जनता का मन आनंद से प्रमुदित हो उठा।
वर्धमान जितने शक्तिशाली थे उतने ही ज्ञानी भी थे ।
।। भगवान् महावीर - २७ वाँ भव ।।
।। अनासक्त यौवन ।।
माता पिता दुखी ना हो इसलिए विवाह प्रस्ताव आने पर वर्धमान मौन रहे, जिसे सबने उनकी स्वीकृति मान लिया। और उनका विवाह राजा समरवीर की धर्मपरायण कन्या यशोदा से कर दिया गया। समय बीतते एक पुत्री का जन्म हुआ जिसका नाम प्रियदर्शना रखा गया।
( दिगंबर परम्परा अनुसार कुमार वर्धमान ने विवाह प्रस्ताव ठुकरा दिया था । )
२८ वर्ष की आयु में माता त्रिशला और पिता सिद्धार्थ १५ दिन का अनशन कर पंडित मरण को प्राप्त हुए। अब वे अपनी प्रतिज्ञा से मुक्त थे।
दीक्षा की आज्ञा लेने हेतु जब भाई नन्दिवर्धन के समक्ष गए तो भाई ने स्नेहविह्वाल होकर कहा की २ वर्ष तक रुक जाओ।
२९ वा वर्ष पूर्ण होते ही वर्धमान ने प्रातः एक प्रहर तक १ करोड़ ८ लाख स्वर्ण मुद्राओं का दान करने लगे।
एक वर्ष में ३ अरब ८८ करोड़ ८० लक्ज मुद्राए दान में दी।
३० वर्ष पूर्ण होते ही नन्दिवर्धन को वर्धमान के दीक्षा की तयारी करनी पड़ी। दीक्षा लेने से पहले दिन प्रभु उपवासी रहे और आज दीक्षा के दिन भी उपवासी थे।
मार्गशीर्ष कृष्णा १० का चौथा प्रहार था। प्रभु ज्ञातखंड वन में पहनकर अपने हाथों से समस्त आभूषण व् वस्त्र उतार देते है।
अशोक वृक्ष के निचे पूर्वाभिमुख होकर प्रभु पंचमुष्टि लोच करते है और ' णमो सिद्धाणं ' कहत हुए समभाव साधना की कठोर प्रतिज्ञा ग्रहण करते है।
सबके हाथ स्वतः जुड़ गए और मस्तक प्रभु के चरणों में झुक गए।
दीक्षा ग्रहण करते ही प्रभु वर्धमान को मनःपर्याय ज्ञान प्राप्त हो गया। सभी के मन की परिस्तिथि को बिना कहे जान लेना मनःपर्याय ज्ञान है । किन्तु जब तक केवलज्ञान ना हो तब तक सारे ज्ञान अधूरे है।
।। भगवान् महावीर - २७ वाँ भव ।।
।। साधना का प्रथम वर्ष ।।
शक्रेन्द्र ने श्रमण महावीर को वंदन किया और अपनी श्रद्धा और भक्ति के प्रतिक स्वरुप एक देवदुष्य वस्त्र उनके कंधे पर डाल दिया।
सूर्य जब अपने दैनिक यात्रा के अंतिम पड़ाव पर पहुँच रहा था तो श्रमण महावीर की यात्रा का प्रथम पड़ाव प्रारम्भ हुआ।
एक दरिद्र ब्राह्मण के याचना करने पर श्रमण ने देवदुष्य वस्त्र का एक पट उतारकर दे दिया। किन्तु वह लोभी ब्राह्मण श्रमण के पीछे १३ महीने तक घूमता रहा। एक बार जैसे ही वह वस्त्र प्रभु के कंधे से गिरा ब्राह्मण ने उठा लिया। उसे रफू करके नंदिवर्धन को लाख दिनार में बेच दिया।
इसी बिच एक ग्वाला अपने बैलो के साथ लौट रहा था। प्रभु को जंगल में खड़े देखा तो बोला मेरे बैलो का ध्यान रखना। श्रमण महावीर साधना में लीन थे और भूखे बैल इधर उधर चले गए।
ग्वाले ने वापस आकर देखा तो अपने बैलो को वहा नहीं पाया। वह खोज बिन करके जब जंगल नें भटककर वापस आया तो देखा की बैल वापस आकर श्रमण के पास बैठ गए है। उसे शंका हुई की श्रमण की नियत ठीक नहीं है ,यह मेरे बैल चुराना चाहता है।
तभी वहा शक्रेंद्र आये और ग्वाले से बोले की यह श्रमण महावीर है कोई चोर नहीं। और फिर श्रमण से कहा की मुझे आपकी सेवा में रहने दे। ना जाने और कितने अज्ञानी आपकी साधना को नहीं समझ पाएंगे। तब श्रमण ने कहा की हे शक्रेंद्र ऐसा कभी नहीं हो सकता की कर्म-मुक्ति की साधना करने वाला पथिक दूसरे की सहायता से साधना करे।
कूर्मार ग्राम से विहार कर कोल्लाकग्राम में बहुल ब्राह्मण के घर पर खीर द्वारा प्रभु ने प्रथम पारणा किया। कोल्लाक से विहार कर मोराक ग्राम में एक तापस की कुतिया में साधनारत हो गए। गाय आदि पशु उस कुतिया की घास खा जाते पर श्रमण अपनी साधना में लीन रहते।
एक दिन तापसों की शिकायत पर कुलपति ने उन्हें अपनी कुतिया के रक्षा करने को कहा। तब श्रमण ने की अगर मेरी साधना किसी की असमाधि का कारण बनती हो तो मुझे वहा नहीं रहना चाहिए। उन्होंने कुलपति से अनुमति लेकर वहा से विहार कर लिया।
।। भगवान् महावीर - २७ वाँ भव ।।
।। साधना के वर्ष दरम्यान हुई महत्वपूर्ण घटनाएं ।।
1. शूलपाणि के उपसर्ग
2. संगम देव के उपसर्ग
3. कटपुतना का उपसर्ग
4.चंदकौशिक को प्रतिबोध
5. ग्वाले का उपसर्ग
6. चंदनबाला का उद्धार
।। भगवान् महावीर - २७ वाँ भव ।।
१२.५ साल साधना काल के बाद प्रभु को वैशाख सूद १० को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई।
केवलज्ञान प्राप्त होते ही प्रभु ने पहली देशना दी जो निष्फल गयी।
दूसरी देशना वैशाख सूद ११ को हुई। जिसे हम शाशन स्थापना दिवस के रूप में मनाते है।
उसी समवसरण में प्रभु ने तीर्थ की स्थापना की। प्रथम साधू और गांधार इंद्रभूति बने जिन्हें हम गुरु गौतम स्वामी के नाम से जानते है । और प्रथम साध्वी चंदनबाला बनी।
३० साल के केवलज्ञान काल में प्रभु को गौशालक के उपसर्ग सहन करने पड़े थे।
।। भगवान् महावीर - २७ वाँ भव ।।
।।। केवलज्ञान ।।।
वैशाख सूद १०
कम से कम २ उपवास ( छठ ) से लेकर ६ मॉस तक की उपवास आदि की महान तपस्या करते हुए उद्यान, वन, निर्जन स्थान वगेरे स्थानों पर ध्यानस्थ रहकर , देव-मनुष्य आदि के उपसर्ग समता पूर्वक स्वेच्छा से सहते हुए १२.५ साल के साधना काल के अंत में प्रभु धर्म-ध्यान की पराकाष्ठा पर पहुँच गए थे। उसके बाद झुम्बिक गाम के बाहर बहती ऋजुवालीका नदी के किनारे खेत में प्रवेश किया तब प्रभु का दूसरा उपवास था।
विश्व के प्राणिमात्र के यथार्थ कल्याण करना हो उसे विश्व के तमाम पदार्थो, उनकी त्रैकालिक अवस्था अउर उनके गूढ़ रहस्यों का संपूर्ण ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। उसके लिए केवलज्ञान का महा प्रकाश का प्राप्त होना अति आवश्यक है। यह प्राप्त लड़ने के लिए आत्मिक गुणों के विकास के बाधक कर्मो का क्षय करना पड़ता है। यह करने के लिए अहिंसा, संयम और तप की महासधना करनी पड़ती है । भगवान् १२.५ साल तक इस साधना के मार्ग पर चलते रहे थे।
और उनकी इस साधना मई सफ़र की आखरी मंज़िल यानई केवलज्ञान की घडी नज़दीक आ रही थी तब प्रभु ने शालवृक्ष के निचे सूर्य के आतपमें गोदोहिकासन में शुक्ल ध्यान में प्रवेश किया तब वे मोहनिय, ज्ञानावर्णीय, दर्शनावर्णीय तथा अंतराय इन् चरों घाती कर्मों का क्षय किया और केवलज्ञान तथा केवलदर्शन प्रकट हुए।
भगवान् के सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होने से उन्हें संपूर्ण लोकालोक विश्व के तीनों काल के सूक्षम या स्थूल, गुप्त या प्रकट, ऐसे समस्त जड़, चेतन पदार्थों तथा पर्यायों को प्रत्यक्ष देखने तथा जान ने वाले हो गए थे। तभी १८ दोष रहित अरिहंत बने और तीनों लोक के आराध्य, वंदनीय और पूजनीय बने।
।। भगवान् महावीर - २७ वाँ भव ।।
।। संघ स्थापना ।।
समवसरण में असंख्य डिवॉन और मनुष्यों के बीच ३४ अतिशयो और ३५ गुणों से अलंकृत वाणी में प्रभु ने अद्भुत प्रवचन दिया। हज़ारो ह्रदय धर्म भाव से भर गए। दूसरी ओर इसी नगर में एक महायज्ञ शुरू था। उसके लिए अनेक विद्वान ब्राह्मण आये हुए थे। उनमे ११ ब्राह्मण महाविद्वान थे। वह सब अपने आपको सर्वज्ञ मानते थे। उनमे प्रमुख गौतम गोत्रीय इंद्रभूति थे। उन्होंने लोगों से सुना के लोग सर्वज्ञ बने महावीर को वंदन करके आ रहे है। तब इंद्रभूति की ईर्ष्या अग्नि प्रजवल्लित हो गयी।
मेरे सिवाय जगत में सवज्ञा है ही कौन ? यह कोई महा धूर्त लगता है। अभी जाता हूँ और उसे शास्त्रार्थ द्वारा चुप करा देता हूँ। इंद्रभूति ५०० शिष्यों सहित समवसरण में पहोंचे। पर दूरसे प्रभु को देखते ही स्तब्ध रह गए। जब नाज़दीक गए वैसे ही प्रभु ने नाम-गोत्र के उच्छरपूर्वक उन्हें बुलाया। और उनके मन में दबी शंका " आत्मा जैसा स्वतंत्र द्रव्य है या नहीं ? " बताते ही इंद्रभूति का गर्व चूर चूर हो गया और यह एहसास हो गया की महावीर ही सच्चे सर्वज्ञ है। प्रभु ने तुरंत युक्तियुक्त गंभीर अर्थवाली वाणी में उनकी शंका का समाधान कर दिया। शंका का समाधान होते ही इंद्रभूति ने अपने ५०० शिष्यों सहित प्रभु के पास दीक्षा ग्रहण की।
यह बात पता चलते हो बाकी के १० विद्वान अपने शिष्यों सहित वहा आ पहुंचे। उनकी गूढ़ शंकाओं का समाधान होते ही हज़ारों (४४००) शिष्यों सहित दीक्षा ग्रहण की। इंद्रभूति मुख्या शिष्य बने। फिर प्रभु ने इंद्रा के हाथ में रहे हुए थाल से वसक्षेप लेकर सबके सर पर डाला और आशीर्वाद देकर उन्हें गणधर पद पर स्थापित किया। प्रभु ने सबको त्रिपदी दी। जिसके आधार पर अर्थ में सामान पर शब्द से भिन्न द्वादशांगशास्त्रों की प्राकृत भाषा में रचना की और साधू, साध्वी, श्रावक व श्राविका रूपी श्रीसंघ की स्थापना की।
।। भगवान् महावीर - २७ वाँ भव ।।
।। समवसरण में प्रभु और गणधर ।।
उपरोक्त चित्र में ३ प्रसंग बताये गए है।
प्रथम चित्र में सिंहासन पर बैठने से पूर्व जिस वृक्ष के निचे केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था उसे आदर करते हुए प्रदक्षिणा देते है। प्रभु को ऐसे देखना भी अपने आप में अलौकिक है। प्रदक्षिणा देने के पश्चात प्रवचन देने से पहले प्रभु कृतकृत्य होते हुए भी स्वयं स्थापित तीर्थ का अअदर करते हुए २ हाथ जोड़कर " णमो तित्थस्स " बोलते हुए श्रीसंघ-तीर्थ को नमस्कार करते है।
।। भगवान् महावीर - २७ वाँ भव ।।
।। अंतिम देशना ।।
प्रभुने अनेक देश में विहार किया। उन्हीने उपदेश के शरणे बहा दिए। जिसमे गरीब, अमीर, श्रमजीवी और श्रीमंतों, राजकुमारों, रानियों, राज भी थे ऐसे हज़ारों जीवों को दीक्षा प्रदान की और लाखों लोगों को धार्मिक बनाया।
केवली पर्याय के ३० वे वर्ष में, दीक्षा के ४२ वे वर्ष में और जन्म के ७२ वे वर्ष में अंतिम चातुर्मास और जीवन का अंतिम वर्ष पूर्ण करने प्रभु अपापापुरी ( पावापुरी ) पधारे। वहा वे हस्तिपाल राजा के कारकुनों के सभा खंड में रहे। चातुर्मास के चौथे महीने आसोज वाद अमावस्या को निर्वाण होने का जानते हुए चौदस और अमावस्या के २ निर्जल उपवास किये।
जगत के कल्याण के लिए स्वर्णकमल पर पद्मासन बैठ कर अंतिम देशना प्रारम्भ की। सभा में चतुर्विध श्रीसंघ, काशी- कौशल देश आदि के १८ गणतंत्र राजा, तथा अन्य प्रतिष्ठित वर्ग एवं सामान्य जनता भी उपस्थित थी।
प्रवचन में प्रभु ने पुण्य-पाप फल विषयक अध्ययन समझाए। अमावस्या की पिछली रातकी चार घडी बाकी रही उस वक़्त १६ प्रहर - ४८ घंटे अविरत देशना पूरी होते ही प्रभु की आत्मा शरीर का त्याग कर, वेदनियादि ४ अघाती कर्मों का क्षय होते ही, आठों कर्मोम का संपूर्ण क्षय करके ७२ साल का आयुष्य पूर्ण कर, स्वाति नक्षत्रमें उर्ध्वाकाश में असंख्य योजन दूर मुक्ति स्थान पर एक समय ( एक सेकंड का असंख्यात वा भाग ) पहोंच कर ज्योति में ज्योतिरूप में समा गयी। अब वे जन्म मरण से मुक्त हो गए थे । तमाम बंधनों, दुखों से रहित बनकर सर्वसुख के भोक्ता बने।
इस महान आत्मा ने गाठ जन्म में की हुई साधना और अंतिम जन्म नें की हुई महासाधना के फल स्वरुप परमोच्च सिद्धिपद प्राप्त किया।
।। भगवान् महावीर - २७ वाँ भव ।।
।। प्रभु का निर्वाण ।।
निर्वाण के समय काशी-कौशल के १८ गणतंत्र राजा उपस्थित थे। उन्होंने भाव ( ज्ञान ) प्रकाश के अस्त होते ही, द्रव्य प्रकाश करने के लिए हर ओर दिये और दीप मलिकाएं प्रगटाई। तब से यह दिन दीपोत्सव के नाम से प्रसीद्ध हुआ और थोड़े ही समय में देशभर में दीवाली पर्व मनाया जाने लगा।
इन्द्रादिक देव ज्ञान से निर्वाण जान कर पांचवा कल्याणक मनाने आ गए। अंत्येष्ठि कर्म करने के लिए शक ने विविध डिवॉन द्वारा तुरंत ही गोशीर्ष चन्दन आदि के लकड़े (काष्ठ) आदि सामग्री मंगवाकर चिता तैयार करवाई। फिर अभियोगिक देवो के पास क्षीरसमुद्र का जल मंगवाकर अनंत उपकारी भगवान् के अति पवित्र शरीर को स्नान करवाया। फिर चन्दन से लेप किया। रेशमी वस्त्र पहनाये गए। मुकुट आदि स्वर्ण रत्नों के अलंकार पहनाये। फिर प्रभु के देह को देवनिर्मितं भव्य शिबिका में रखा गया। इस निर्वाण यात्रा में असंख्य देव और लाखों प्रजा जनों ने भाग लिया। हर किसी की आँखें अश्रु से सरोबार थी। हर चेहरे पर दुःख और शोक प्रकट हो रहा था। देवों ने शिबिका उठाई, बाजते गाजत जय नाद की प्रचंड घोषणा के साथ निर्वाण यात्रा चिता स्थान तक आयी। चिता के ऊपर शिबिका को समर्पित कर स्तुति प्रार्थना करते हुए देवोंने अग्नि प्रज्वल्लित की।
देह-पुद्गल के नष्ट होते सुगन्धित जल से चिता हो शीतल किया गया।
इस प्रकार निर्वाणोत्सव परन कर प्रभु की अस्थियां देव अपने साथ देवलोक ले गए। अग्निसंस्कार के स्थान पर भव्य स्तूप की स्थापना की गयी।
निर्वाण से पहले प्रभु ने अपना केवलज्ञानी, अवधिज्ञानि, मनःपर्यायज्ञानी, वादी, महातपस्वी, अद्भुत सिद्धियों से अलंकृत लाखों साधू-साधविजिओं के साथ करोडो श्रावक-श्राविकाओं का संघ पाँचबे शिष्य सुधर्मास्वामी को सौप दिया।
इसी के साथ प्रभु वीर का जीवन चरित्र यहाँ समाप्त होता है।
जिन आज्ञा विरुद्ध कुछ भी लिखा गया हो तो सर्व प्रथम " वीर " से और फिर आप सब से मिच्छामी दुक्कडम!
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