कथा सेठ जगडूशा
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🌹🌹🌹सेठ जगडूशा 🌹🌹🌹
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अहिंसा का पालन और करोड़ों की संपत्ति का दान यह जगडूशा की विशेषता थी । एक समय सौराष्ट्र के दक्षिण किनारे कोयला पहाड़ी के निकट उनका जहाज रुक गया । ऐसा कहा जाता था कि मध्याहृन के समय देवी कि दृष्टि जिस वाहन पर पड़े वह भस्मीभूत हो जाये । यह किवदंती सुनकर जगडूशा देवी के मंदिर में आये । आसनस्थ होकर तीन उपवास किये । देवी प्रसन्न होते ही यह संहार बंद करने की जगडूशा ने प्रार्थना की । कथा यह कहती है कि देवी ने कहा कि मंदिर की 108 सीढ़ियों पर एक-एक भैंसे को बलिरुप में रखा जाये । जगडूशा ने 106 भैंसे मँगवाये । दूसरी सीढ़ी पर अपने दत्तक पुत्र को खड़ा रखा और प्रथम सीढ़ी पर स्वयं खड़े रहे । पशुओं के संहार की अपेक्षा पहले अपनी बलि चढ़ाने के लिए अपनी गरदन पर तलवार चलाने गये , तभी किसी अदृश्य शक्ति ने उनका हाथ पकड़ लिया । जगडूशा की जीवदया और साहस की भावना देखकर देवी प्रसन्न हुई । देवी ने कहा कि मेरे दक्षिण दिशा की ओर के मंदिर को उत्तर दिशा की तरफ का बनवा दो , जिससे कोई संहार न हो । आज शताब्दियों के पश्चात् भी कोयला पहाड़ी की यात्रा में देवी के दर्शन करने के बाद जगडूशा एवं उनके पुत्र की आरती उतारी जाती हैं ।
कच्छ कंथकोट से जगडूशा के पिता सोळशाह भद्रेश्वर आकर बस गयें । जगडूशा की माता लक्ष्मीबाई दया की साक्षात मूर्ति थी । जगडूशा के पिता का देश-विदेश में व्यापार चलता होने से उनके वहाँ आते हुए असंख्य आढ़तियों से समुद्री सफर की रोमांचक गाथाएँ सुनी थी । उस समय बालक जगडू यों कहता कि मैं बड़ा होऊँगा , तब सौ जहाज लेकर निकलूँगा और तुम्हारें मुल्क में अपना व्यापार जमाऊँगा ।
पिता का अवसान होते ही जगडूशा ने व्यापार सँभाला । उस समय भद्रेश्वर गुजरात के अधीन था और महाराज भीमदेव का शासन कमजोर हो गया था । इस अवसर का लाभ उठाकर थरपारकर के अभिमानी राजा पीठदेव भद्रेश्वर पर चढ़ आया और उसके दुर्ग को तोड़ डाला । इसके फलस्वरुप भद्रेश्वर पर प्रत्येक क्षण भय छाया रहता था , तब जगडूशा ने दुर्ग बाँधनें का विचार किया । अभिमानी पीठदेव ने धमकी दी , परंतु इससे तनिक भी विचलित हुए बिना छः महीनों में दुर्ग तैयार कर दिया । जगडूशा ने शत्रुंजय और गिरनार के भव्य संघ निकालकर यात्रा की । कई मंदिर बँधवाये । विदेशों से आते हुए मुसलमान व्यापारियों को नमाज पढ़ने के वास्ते खीमली मस्जिद भी बनवा दी ।
विक्रम संवत् 1311 में जगडूशा एक समय परमदेवसूरि आचार्य का व्याख्यान सुनने गये , तब दान सम्बन्धी व्याख्यान देने के बाद गुरुदेव ने जगडूशा को एकांत में बुलाकर कहा , " तुम्हारी लक्ष्मी के सद्व्यय का सही प्रसंग आ रहा हैं । अब तीन वर्ष लगातार एक के बाद एक अकाल आयेगा । इसलिए हो सके उतना धान्य इकट्ठा कर रखना । उस धान्य से दुर्भिक्ष में सबको जिलाइए । मानवसेवा का ऐसा महान अवसर फिर मिलना मुश्किल हैं । "
इस समय जगडूशा की दुकानें उत्तर में गजनी-कंदहार तक , पूर्व में बंगाल तलक , दक्षिण में रामेश्वर तक और समुद्र के उस पार के देशों में भी थीं । सर्वत्र अनाज की खरीदी शुरु हुई । धन -धान्य के भंडारों पर जगडूशा ने एक ताम्रपत्र लिखवाया उसमें केवल इतने ही शब्द लिखें -
" यह कण गरीबों के लिए हैं । "
- जगडूशा
विक्रम संवत् 1313, 1314 और 1315 के वर्षो में लगातार तीन दुष्काल आये । इन दुष्कालों में जगडूशा ने गुजरात , सिंध , मेवाड़ , मालवा , काशी , दिल्ली और कंदहार तक राजाओं को अनाज दिया । एक सौ पन्द्रह जितनी भोजनशालाएँ खोलीं जिन में प्रतिदिन पाँच लाख लोगों को भोजन दिया जाता था । इस अकाल में चार करोडॠ निन्नानवे लाख पचास हजार मन अनाज गरीबों को बिनामूल्य बाँटा गया और नगद साढ़े चार करोड़ रुपये खर्च किये । राजा-महाराजाओं ने उन्हें जगत के पालनहार का बिरुद दिया । आज भी महान दानेश्वरी को जगडूशा की उपमा दी जाती हैं , वह इसलिए ही ।
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साभार : जिनशासन की कीर्तिगाथा
🌹🌹🌹सेठ जगडूशा 🌹🌹🌹
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अहिंसा का पालन और करोड़ों की संपत्ति का दान यह जगडूशा की विशेषता थी । एक समय सौराष्ट्र के दक्षिण किनारे कोयला पहाड़ी के निकट उनका जहाज रुक गया । ऐसा कहा जाता था कि मध्याहृन के समय देवी कि दृष्टि जिस वाहन पर पड़े वह भस्मीभूत हो जाये । यह किवदंती सुनकर जगडूशा देवी के मंदिर में आये । आसनस्थ होकर तीन उपवास किये । देवी प्रसन्न होते ही यह संहार बंद करने की जगडूशा ने प्रार्थना की । कथा यह कहती है कि देवी ने कहा कि मंदिर की 108 सीढ़ियों पर एक-एक भैंसे को बलिरुप में रखा जाये । जगडूशा ने 106 भैंसे मँगवाये । दूसरी सीढ़ी पर अपने दत्तक पुत्र को खड़ा रखा और प्रथम सीढ़ी पर स्वयं खड़े रहे । पशुओं के संहार की अपेक्षा पहले अपनी बलि चढ़ाने के लिए अपनी गरदन पर तलवार चलाने गये , तभी किसी अदृश्य शक्ति ने उनका हाथ पकड़ लिया । जगडूशा की जीवदया और साहस की भावना देखकर देवी प्रसन्न हुई । देवी ने कहा कि मेरे दक्षिण दिशा की ओर के मंदिर को उत्तर दिशा की तरफ का बनवा दो , जिससे कोई संहार न हो । आज शताब्दियों के पश्चात् भी कोयला पहाड़ी की यात्रा में देवी के दर्शन करने के बाद जगडूशा एवं उनके पुत्र की आरती उतारी जाती हैं ।
कच्छ कंथकोट से जगडूशा के पिता सोळशाह भद्रेश्वर आकर बस गयें । जगडूशा की माता लक्ष्मीबाई दया की साक्षात मूर्ति थी । जगडूशा के पिता का देश-विदेश में व्यापार चलता होने से उनके वहाँ आते हुए असंख्य आढ़तियों से समुद्री सफर की रोमांचक गाथाएँ सुनी थी । उस समय बालक जगडू यों कहता कि मैं बड़ा होऊँगा , तब सौ जहाज लेकर निकलूँगा और तुम्हारें मुल्क में अपना व्यापार जमाऊँगा ।
पिता का अवसान होते ही जगडूशा ने व्यापार सँभाला । उस समय भद्रेश्वर गुजरात के अधीन था और महाराज भीमदेव का शासन कमजोर हो गया था । इस अवसर का लाभ उठाकर थरपारकर के अभिमानी राजा पीठदेव भद्रेश्वर पर चढ़ आया और उसके दुर्ग को तोड़ डाला । इसके फलस्वरुप भद्रेश्वर पर प्रत्येक क्षण भय छाया रहता था , तब जगडूशा ने दुर्ग बाँधनें का विचार किया । अभिमानी पीठदेव ने धमकी दी , परंतु इससे तनिक भी विचलित हुए बिना छः महीनों में दुर्ग तैयार कर दिया । जगडूशा ने शत्रुंजय और गिरनार के भव्य संघ निकालकर यात्रा की । कई मंदिर बँधवाये । विदेशों से आते हुए मुसलमान व्यापारियों को नमाज पढ़ने के वास्ते खीमली मस्जिद भी बनवा दी ।
विक्रम संवत् 1311 में जगडूशा एक समय परमदेवसूरि आचार्य का व्याख्यान सुनने गये , तब दान सम्बन्धी व्याख्यान देने के बाद गुरुदेव ने जगडूशा को एकांत में बुलाकर कहा , " तुम्हारी लक्ष्मी के सद्व्यय का सही प्रसंग आ रहा हैं । अब तीन वर्ष लगातार एक के बाद एक अकाल आयेगा । इसलिए हो सके उतना धान्य इकट्ठा कर रखना । उस धान्य से दुर्भिक्ष में सबको जिलाइए । मानवसेवा का ऐसा महान अवसर फिर मिलना मुश्किल हैं । "
इस समय जगडूशा की दुकानें उत्तर में गजनी-कंदहार तक , पूर्व में बंगाल तलक , दक्षिण में रामेश्वर तक और समुद्र के उस पार के देशों में भी थीं । सर्वत्र अनाज की खरीदी शुरु हुई । धन -धान्य के भंडारों पर जगडूशा ने एक ताम्रपत्र लिखवाया उसमें केवल इतने ही शब्द लिखें -
" यह कण गरीबों के लिए हैं । "
- जगडूशा
विक्रम संवत् 1313, 1314 और 1315 के वर्षो में लगातार तीन दुष्काल आये । इन दुष्कालों में जगडूशा ने गुजरात , सिंध , मेवाड़ , मालवा , काशी , दिल्ली और कंदहार तक राजाओं को अनाज दिया । एक सौ पन्द्रह जितनी भोजनशालाएँ खोलीं जिन में प्रतिदिन पाँच लाख लोगों को भोजन दिया जाता था । इस अकाल में चार करोडॠ निन्नानवे लाख पचास हजार मन अनाज गरीबों को बिनामूल्य बाँटा गया और नगद साढ़े चार करोड़ रुपये खर्च किये । राजा-महाराजाओं ने उन्हें जगत के पालनहार का बिरुद दिया । आज भी महान दानेश्वरी को जगडूशा की उपमा दी जाती हैं , वह इसलिए ही ।
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साभार : जिनशासन की कीर्तिगाथा
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