जितशत्रु राजा था| सुबुद्धि की कथा
चम्पा नगरी में जितशत्रु राजा था| सुबुद्धि नाम का उसका मंत्री बड़ा चतुर, विवेकशील और भगवान महावीर के तत्वज्ञान का गहरा जानकार था|
एक बार राजा जितशत्रु अपने मंत्रियों के साथ किसी प्रीतीभोज में सम्मिलित हुए| वहाँ पर महाराज ने भोजन की प्रशंसा की तथा अन्य सब लोगों ने भी महाराज की हाँ में हाँ मिलाते हुए भोजन की बहुत प्रशंसा की| किन्तु मंत्री सुबुद्धि शांत और घम्भीर बना रहा| यह देख राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ| उन्होंने मंत्री से पुछा " मन्त्रिवर! क्या बात है ? इतना स्वादिष्ट भोजन बना है, सभी लोग दिल खोलकर प्रशंसा कर रहे हैं और आप हैं की मौनव्रत लिए बैठे हैं|"
मंत्री ने तटस्थ भव से कहा "महाराज! पदार्थ परिवर्तनशील है| वस्तुओं के संयोग और परिस्तिथि के अनुसार वह कभी प्रिय और कभी अप्रिय लगते हैं| इसमें प्रशंसा और निंदा की क्या बात?"
अपनी बात कट जाने से राजा मन ही मन खिसिया उठा|
एक दिन राजा जितशत्रु दरबारियों के साथ घूमता हुआ नगर के बाहर गया| वहां उसे गंदे पानी का एक नाला दिखाई दिया, जिसमें मरे, सड़े हुए जानवरों जैसी भयंकर दुर्गन्ध आ रही थी| सब लोग नाक भौं सिकोड़ने लगे| राजा ने भी नाक सिकोड़ते हुए मंत्री से कहा " सुबुद्धि! यह पानी कितना गन्दा और बदबूदार है! इसकी भयंकर दुर्गन्ध से तो मेरा सिर फटने लग गया| छी! छि!"
मंत्री ने शांत और विनीत भाव से कहा "महाराज! इसमें घृणा की क्या बात है? पदार्थ का स्वरूप तो सदा बदलता रहता है| जो कभी स्वच्छ और निर्मल जल था, वही गन्दा बन गया| यही जल वापस स्वच्छ और निर्मल बन सकता है| फिर राग द्वेष क्यों?"
मंत्री का यह तत्वज्ञान राजा को रास नहीं आया| और उसने क्रोधित होते हुए कहा "नहीं मंत्री! तुम भ्रम में हो| गन्दी चीज़ कभी अच्छी नहीं बन सकती| और यह बात बात में क्या अपना तत्वज्ञान बघारते रहते हो? यह कोरा तत्वज्ञान तुम्हें कभी धोखा दे जाएगा|"
बात बढती देख मंत्री ने मौन साध लिया| उसका अपना बुद्धि सूत्र था - बोलना कम करना अधिक|
कई सप्ताह बीत गए| एक दिन सेवक ने राजा को भोजन के समय अत्यंत मधुर शीतल सुगन्धित जल दिया| जल पीकर राजा ने सेवक से पुछा "ऐसा मधुर शीतल जल हमने पहले कभी नहीं पीया| आज कहाँ से आया है?"
सेवक ने कहा "महाराज! यह जल सुबुद्धि मंत्री के घर से आपके लिए भेजा गया है|"
अगले दिन राजा ने मंत्री से विनोद के स्वर में पुछा "मंत्री! तुम अकेले ही इतना मधुर एवं शीतल जल पीते रहते हो? हमें तो कभी नहीं पिलाया| कहाँ से आता है ये जल?"
मंत्री ने कहा "महाराज! अपराध क्षमा हो| यह जल नगर के बाहर वाले गंदे नाले का है|"
राजा को मंत्री की बात पर विश्वास नहीं हुआ| उसने क्रोधित होकर कहा " मंत्री! हमसे मजाक मत करो| ठीक ठीक बताओ सच क्या है? उस गंदे नाले का जल ऐसा कैसे हो सकता है?"
मंत्री ने कहा "महाराज! असंभव कुछ भी नहीं हैं| यह सब हो सकता है और मैंने किया है| आप चाहें तो इसकी शोधन प्रक्रिया मेरे घर पधार कर देख सकते हैं"
राजा जितशत्रु मंत्री के घर पंहुचे| मंत्री ने राजा के समक्ष वही गन्दा जल मंगवाया और राजा को दिखाते हुए कहा " देखिये महाराज! यह वही गन्दा जल है| अब मैं आपके सामने इस जल को घड़े में डालूँगा| कोयला, कंकड़ तथा मिटटी आदि से छनकर यह जल छनकर शुद्ध हो जाएगा|"
मंत्री ने शोधन प्रक्रिया द्वारा शुद्ध हुए जल को चांदी के प्याले में भरा और उसमें सुगन्धित द्रव्य मिलकर राजा के सामने प्रस्तुत किया| जल पीकर राजा को मंत्री पुरानी बातें स्मरण हो आईं| उसने सोचा की वास्तव में सुबुधि सत्य कहता है की परिस्तिथि के अनुसार वस्तु का स्वरुप बदलता है, इसलिए किसी को एकदम बुरा मानकर उस पर द्वेष या घृणा करना ठीक नहीं है|
शिक्षा - पदार्थ स्वरुप का यह ज्ञान केवल पोथियों का नहीं जीवन जा विज्ञान है| पदार्थ का स्वाभाव परिवर्तनशील है उसके अच्छे बुरे स्वरुप को मन में लेकर राग द्वेष बढ़ाना व्यर्थ है| प्रत्येक परिस्तिथि में शांत और प्रसन्न रहना यही तत्वज्ञान का सार है|
एक बार राजा जितशत्रु अपने मंत्रियों के साथ किसी प्रीतीभोज में सम्मिलित हुए| वहाँ पर महाराज ने भोजन की प्रशंसा की तथा अन्य सब लोगों ने भी महाराज की हाँ में हाँ मिलाते हुए भोजन की बहुत प्रशंसा की| किन्तु मंत्री सुबुद्धि शांत और घम्भीर बना रहा| यह देख राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ| उन्होंने मंत्री से पुछा " मन्त्रिवर! क्या बात है ? इतना स्वादिष्ट भोजन बना है, सभी लोग दिल खोलकर प्रशंसा कर रहे हैं और आप हैं की मौनव्रत लिए बैठे हैं|"
मंत्री ने तटस्थ भव से कहा "महाराज! पदार्थ परिवर्तनशील है| वस्तुओं के संयोग और परिस्तिथि के अनुसार वह कभी प्रिय और कभी अप्रिय लगते हैं| इसमें प्रशंसा और निंदा की क्या बात?"
अपनी बात कट जाने से राजा मन ही मन खिसिया उठा|
एक दिन राजा जितशत्रु दरबारियों के साथ घूमता हुआ नगर के बाहर गया| वहां उसे गंदे पानी का एक नाला दिखाई दिया, जिसमें मरे, सड़े हुए जानवरों जैसी भयंकर दुर्गन्ध आ रही थी| सब लोग नाक भौं सिकोड़ने लगे| राजा ने भी नाक सिकोड़ते हुए मंत्री से कहा " सुबुद्धि! यह पानी कितना गन्दा और बदबूदार है! इसकी भयंकर दुर्गन्ध से तो मेरा सिर फटने लग गया| छी! छि!"
मंत्री ने शांत और विनीत भाव से कहा "महाराज! इसमें घृणा की क्या बात है? पदार्थ का स्वरूप तो सदा बदलता रहता है| जो कभी स्वच्छ और निर्मल जल था, वही गन्दा बन गया| यही जल वापस स्वच्छ और निर्मल बन सकता है| फिर राग द्वेष क्यों?"
मंत्री का यह तत्वज्ञान राजा को रास नहीं आया| और उसने क्रोधित होते हुए कहा "नहीं मंत्री! तुम भ्रम में हो| गन्दी चीज़ कभी अच्छी नहीं बन सकती| और यह बात बात में क्या अपना तत्वज्ञान बघारते रहते हो? यह कोरा तत्वज्ञान तुम्हें कभी धोखा दे जाएगा|"
बात बढती देख मंत्री ने मौन साध लिया| उसका अपना बुद्धि सूत्र था - बोलना कम करना अधिक|
कई सप्ताह बीत गए| एक दिन सेवक ने राजा को भोजन के समय अत्यंत मधुर शीतल सुगन्धित जल दिया| जल पीकर राजा ने सेवक से पुछा "ऐसा मधुर शीतल जल हमने पहले कभी नहीं पीया| आज कहाँ से आया है?"
सेवक ने कहा "महाराज! यह जल सुबुद्धि मंत्री के घर से आपके लिए भेजा गया है|"
अगले दिन राजा ने मंत्री से विनोद के स्वर में पुछा "मंत्री! तुम अकेले ही इतना मधुर एवं शीतल जल पीते रहते हो? हमें तो कभी नहीं पिलाया| कहाँ से आता है ये जल?"
मंत्री ने कहा "महाराज! अपराध क्षमा हो| यह जल नगर के बाहर वाले गंदे नाले का है|"
राजा को मंत्री की बात पर विश्वास नहीं हुआ| उसने क्रोधित होकर कहा " मंत्री! हमसे मजाक मत करो| ठीक ठीक बताओ सच क्या है? उस गंदे नाले का जल ऐसा कैसे हो सकता है?"
मंत्री ने कहा "महाराज! असंभव कुछ भी नहीं हैं| यह सब हो सकता है और मैंने किया है| आप चाहें तो इसकी शोधन प्रक्रिया मेरे घर पधार कर देख सकते हैं"
राजा जितशत्रु मंत्री के घर पंहुचे| मंत्री ने राजा के समक्ष वही गन्दा जल मंगवाया और राजा को दिखाते हुए कहा " देखिये महाराज! यह वही गन्दा जल है| अब मैं आपके सामने इस जल को घड़े में डालूँगा| कोयला, कंकड़ तथा मिटटी आदि से छनकर यह जल छनकर शुद्ध हो जाएगा|"
मंत्री ने शोधन प्रक्रिया द्वारा शुद्ध हुए जल को चांदी के प्याले में भरा और उसमें सुगन्धित द्रव्य मिलकर राजा के सामने प्रस्तुत किया| जल पीकर राजा को मंत्री पुरानी बातें स्मरण हो आईं| उसने सोचा की वास्तव में सुबुधि सत्य कहता है की परिस्तिथि के अनुसार वस्तु का स्वरुप बदलता है, इसलिए किसी को एकदम बुरा मानकर उस पर द्वेष या घृणा करना ठीक नहीं है|
शिक्षा - पदार्थ स्वरुप का यह ज्ञान केवल पोथियों का नहीं जीवन जा विज्ञान है| पदार्थ का स्वाभाव परिवर्तनशील है उसके अच्छे बुरे स्वरुप को मन में लेकर राग द्वेष बढ़ाना व्यर्थ है| प्रत्येक परिस्तिथि में शांत और प्रसन्न रहना यही तत्वज्ञान का सार है|
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