बड़ी साधुवंदना 9
बड़ी साधुवंदना - 81
वली ढ़ंढण मुनिवर, कृष्ण राय ना नंद।
शुद्ध अभिग्रह पाली, टाल दियो भव फंद। 94।
अहो एक गाथा के इस कथानक में कितने संदेश ।
दृढ़ वैराग्य, निमित्त पाते ही चिंतन को उर्ध्वगामी बनाना, अंतराय कर्म की उग्रता तथा यह समझ आते ही उसे तोड़ने की उग्र आराधना करने का दृढ़ निर्णय।
द्वारिका नगरी के राजा श्रीकृष्ण वासुदेव की ढंढणा रानी का पुत्र ढ़ंढण कुमार । बालवय से ही तेजस्वी। कलाचार्य के पास अभ्यास किया। युवा अवस्था मे आते आते पुरुषों की 72 कलाओं में प्रवीण बने।
एकबार नेमप्रभु विचरण करते हुए द्वारिका नगरी पधारे। उनकी देशना सुनकर कुमार के मन मे दबा वैराग्य का बीज अंकुरित हुआ। प्रभुसे दीक्षा की आज्ञा मांगी। राजमहल आकर पिता कृष्ण वासुदेव से संयम ग्रहण की अनुमति मांगी।
दीक्षा की आज्ञा मिलना सहज नही है। यहां उद्देश्य सिर्फ परीक्षा का था। श्री कृष्ण ने उनके वैराग्य की कठिन परीक्षा ली। अनेक प्रलोभन दिए। तीन खण्ड के अधिपति बनाने का वचन दिया। पर अब ढंढण मुनि वैराग्य के पक्के रंग में रंग चुके थे।
आख़िर कृष्ण वासुदेव ने भव्य दीक्षा महोत्सव कर ढँढ़ण मुनि को संयम पथ पर जाने की अनुमति दी।
दीक्षा के समय उन्हें अट्ठम तप था। पारणे के दिन प्रातः आवश्यकी क्रिया बाद वे प्रभु आज्ञा लेकर गोचरी निकले। पर कहीं भी सूझती निर्दोष गोचरी का लाभ नही मिला। कहीं आंगन में पानी गिरा तो कहीं सचेत सब्जियों से लगा आहार। ऐसी कई अंतराय आई। आखिर उन्होंने प्रभुके पास आकर पुनः आहार के त्याग कर दिए। यानी चौथा उपवास ग्रहण कर लिया।
दूसरे दिन फिर जब गोचरी निकले तब भी यही हुआ। पुनः उपवास। ऐसे करते जब बहुत दिन हो गये पर उन्हें निर्दोष आहार नही मिला।
तब प्रभु ने उन्होंने बहुत भवो पहले बांधे अत्यंत तीव्र अंतराय कर्म अभी उदय में आया हुआ है यह कथा बताई।
हजारों भव पहले जब उनके अधीनस्थ 500 किसान खेत मे काम कर रहे थे। कठिन परिषह करने के बाद दोपहर में बैलों को आहार के लिए छोड़कर जब वे किसान खाना खाने बैठे तब जुल्मी मालिक ने आकर बिना खाये ही फिर काम पर लगने की आज्ञा दी। बैलों व किसानों को पुनः आहार से वंचित होना पड़ा। इस कृत्य का अफसोस की जगह आनन्द किया। और गाढ़ा अंतराय कर्म बन्ध किया।
जो इस भव उदय में आया।
प्रभु के मुख से अपने कर्म सुनकर मुनिवर ने उस कर्म को तोड़ने के लिए दृढ़ अभिग्रह लिया। अब जब तक अपनी लब्धि से आहार नही मिलेगा तब तक मैं अविरत तप करूँगा।
अब मुनिवर नगर जाते, खाली हाथ स्वस्थता से लौटकर पुनः तप में स्थिर हो जाते। ऐसे करते हुए 6 माह बीत चुके थे। मुनि का देह उग्र तप से अत्यंत कृश हो गया था ।अब उस कर्म का काल भी समाप्त होने आया था।
एकबार प्रभुने कृष्ण वासुदेव
से वहां उपस्थित सभी मुनियों में ढ़ंढण मुनि के उग्र तप की प्रशंसा की। फिर कृष्ण वासुदेव जब नगर में लौट रहे थे तब गोचरी हेतु गवेषणा कर रहे ढँढ़ण मुनि देखे। तब हाथी से नीचे उतरकर उन उग्र तपस्वी को वन्दन किया।
राजमार्ग पर कृष्ण को एक मुनि वन्दन करते हुए देख वहां उपस्थित एक हलवाई ने सोचा कि कृष्ण जिन्हें वन्दन कर रहे है वह मुनि अवश्य महात्मा होंगे। लाओ मैं उन्हें आहार बहोराउ। मुनि को दुकान पर लाकर निर्दोष लड्डू बहोराये।
ढंढण मुनि ने आहार लेकर अपनी विनय बताते हुए प्रभु को बताया।
उनके अभिग्रह से ज्ञात प्रभुने कहा - यह आहार आपकी लब्धि का नही, परन्तु कृष्ण वासुदेव ने तुम्हे वन्दन किया वह देखकर तुम्हे कोई महामुनि जानकर हलवाई ने आहार बहोराया है।
अपनी लब्धि का आहार नही यह जानकर प्रभु से आज्ञा ले कर लड्डू परठने निर्दोष स्थान पर आए। लड्डू का चूरा करते करते उनका चिंतन उर्ध्वगामी बना। धर्म शुक्ल ध्यान में प्रवेश किया और केवलज्ञान प्राप्त कर लिया।
कई वर्षो तक प्रभुके साथ केवली पने में विचरण किया। अंत में सिद्ध बुद्ध मुक्त बन गए।
#बड़ीसाधुवंदना - 83
वली स्कन्धक ऋषि ना, हुआ पांच सौ शिष्य ।
घाणी माँ पिल्या, मुक्ति गया तजी रिश ।96।
वैर का दुर्विपाक हमे कितने निर्दयी, कितने धृणित काम करने की और ले जाता है। तो इस गाथा से दूसरी बात यह भी देखने मिलेगी की कठोरतम उपसर्ग में भी समभाव रखकर हम मुक्ति मंजिल पा सकते है।
भगवान मुनिसुव्रत स्वामी के शासन की यह घटना है। श्रावस्ती नगरी के राजा जितशत्रु रानी धारिणी के एक पुत्र व एक पुत्री थी। पुत्री का नाम पुरंदर यशा था। जिसे कुंभकारट नगर के राजा दंडक के साथ ब्याही गई थी। राजकुमार स्कन्धक जैन धर्मानुरागी व विरक्त स्वभाव के थे।
एकबार दंडक राजा का मंत्री पालक किसी राजकीय वजह से श्रावस्ती नगरी के राज दरबार मे आया। पालक था तो ब्राह्मण कुल का, पर अत्यंत निर्दयी, जैन धर्म का विद्वैषी , मिथ्यामती था। राजदरबार में उस समय धर्म चर्चा चल रही थी। जैन तत्त्व के, जिनशासन की गुणगाथा गाई जा रही थी। तब पालक ने विक्षेप कर जिन विरोधी बाते करने लगा। राजकुमार स्कन्धक ने उसे तर्क संगत बातो से चुप करा दिया। स्कन्धक के मन मे कोई द्वेष नही था, पर पालक ने इसे अपना भीषण अपमान समझा। अवसर देखकर इस अपमान का अवश्य बदला लूंगा यह निर्णय कर लिया।
कुछ समय बीता । राजकुमार ने भगवान मुनिसुव्रतजी के पास संयम स्वीकार कर उत्कृष्ट आराधन करने लगे। उनके साथ उनके 500 मित्रो ने भी संयम लिया। सभी संयम में दृढ़ बने। उन 500 मुनियों की भी आराधना तीनो योग से चल रही थी। भगवान की निश्रा में रहकर विपुल कर्मो की निर्जरा करने लगे।
कुछ समय बीता, एकबार स्कन्धक मुनि ने भगवान से कुंभकारट नगर जाकर बहन बहनोई को प्रतिबोध देने की भावना व्यक्त की।
केवली सर्वज्ञ प्रभु ने भविष्य देखते हुए कहा : - वहां नारकीय वेदना का अनुभव होगा। तब मुनि ने पूछा - भगवान, हम आराधक बनेंगे या विराधक?
तब प्रभु ने फरमाया : - वे 500 मुनि आराधक और तुम विराधक बनोगे।
उन 500 मुनियों के लिए हर्ष व्यक्त कर स्कन्धक मुनि 500 शिष्यों के साथ कुंभकारट नगर आये । एक उद्यान में रहकर आराधना करने लगे। मुनि के आगमन का समाचार प्राप्त कर बहन मलय सुंदरी तथा बहनोई दंडक राजा अति प्रसन्न हुए। और मुनि के दर्शन करने आये।
प्रभु ने जो भविष्य बताया वह क्या होगा ?
आगे....
#बड़ीसाधुवंदना - 84
वली स्कन्धक ऋषि ना, हुआ पांच सौ शिष्य ।
घाणी माँ पिल्या, मुक्ति गया तजी रिश ।96।
पर विद्वेषी मंत्री पालक यह सुनकर वैर की आग से जल उठा। उसने पुराने वैर का बदला लेने के लिए एक षड्यंत्र रचा। बहुत सारे अस्त्र शस्त्र ले जाकर उस उद्यान में जमीन में गढ़वा दिए। और दंडक राजा के मन मे स्कन्धक मुनि के विरुद्ध विष भर दिया।
यह मुनि 500 शिष्यों के साथ आपका सिँहासन हड़पने आये है। राजा को उद्यान में अपने ही गाढ़े हुए शस्त्रादि निकालकर बताये। कच्चे कान का राजा उसकी बातों में आ गया। और पालक जो सजा उन मुनि के लिए निश्चित करे वह उन्हें देने की छूट दे दी।
अब पालक को मौका मिल गया।
उद्यान में जाकर स्कन्धक ऋषि व 500 शिष्यों को राजाज्ञा सुनाई, अपने अपमान की बात याद दिलाई।
तब मुनि ने कहा - हे पालक, उस दिन भी तुम पर कोई द्वेषभाव नही था, अभी भी नही। तुम जो चाहे हमारे साथ करो। हम अपने कर्मो का चूरा ही करेंगे।
पालक ने उद्यान में ही बड़ी घाणी ( तेल निकालने का यंत्र ) लगवाई।
स्कन्धक मुनि ने अपने 500 शिष्यों को आनेवाले उपसर्ग की सूचना दे दी। और इस उपसर्ग को मुक्ति मंजिल पाने का अवसर बनाने की प्रेरणा दी। 500 वीर मुनि ने गुरु आज्ञा स्वीकार की , समझा व उपसर्ग के लिए तैयार बने।
स्कन्धक मुनि ने कहा : - तुम्हारा वैर मुझ से है। पहले मुझे घाणी में डालना । तब नीच पालक ने कहा : - मैं तुम्हे मृत्यु से पहले वेदना दूंगा। तुम्हारे सामने तुम्हारे शिष्यों को पीला जाएगा। ताकि तुम दु:ख महसूस करो।
अहो दृढ़ता ।!!!
यह लिखते समय हाथ कांप रहे, आंखों से अश्रु बह रहे !,
कितना मजबूत होगा उनका मन
कितनी दृढ़ होगी जिनशासन पर , जिनवाणी पर उनकी श्रद्धा!
पालक ने यंत्र चालू करवाया।
एक एक मुनि को यंत्र में फेंकता गया। स्कन्धक मुनि सब मुनिविरो को मंगलपाठ सुना रहे है। कोई किसी पर राग न करे ना किसी पर द्वेष करे।
वातावरण करुण होते हुए भी जैसे वीरता का संग्राम बन गया। जहां एक घातकी पालक मंत्री, प्रतिकार तक नही कर रहे नि:शस्त्र मुनियों पर नारकीय वेदना दे रहा है। पर मुनि सब दृढ़ थे। ज्यो ज्यो मुनि को घाणी में डालते गये, वह मुनि शुक्लध्यान में प्रविष्ट होकर आठो कर्मो को खपाकर मोक्ष प्राप्त करने लगे। स्कन्धक मुनि भी अपने मित्र, शिष्य मुनि को घाणी में पिलाते देख हो रही वेदना को भीतर दबाकर समभाव रख रहे है। यह देखकर पालक को संतुष्टि नही हुई। वह स्कन्धक मुनि को लाचार, रोते, गिड़गिड़ाते हुए देखना चाह रहा था। उसके वैर को तभी आनन्द मिलता। पर यहां तो वातावरण विपरीत हो गया था। लाचारी, भय का नामोनिशान नही था। वह अपनी दृष्टता बढ़ाता गया। पर मुनि गण अपनी क्षमता बढ़ाता गया।
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बड़ी साधुवंदना - 85
वली स्कन्धक ऋषि ना, हुआ पांच सौ शिष्य ।
घाणी माँ पिल्या, मुक्ति गया तजी रिश ।96।
एक एक कर 499 शिष्य ने घाणी में अपने कर्मो को पीस कर मोक्ष प्राप्त कर लिया। अंत मे एक बाल मुनि व स्कन्धक मुनि शेष रहे। स्कन्धक मुनि ने कहा : - तुमने अपनी इच्छा पूरी की अब इस बाल मुनि को पिलाते, वेदनाग्रस्त होते मैं देख नही पाऊंगा। तुम मुझे पहले घाणी में डलवा दो। घातकी पालक कहां मानने वाला था।
उसने बाल मुनि को उठवाया और घाणी में फेंक दिया।
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न भूतों न भविष्यति
ऐसा बीभत्स करुण दृश्य कभी किसी ने देखा न होगा। बाल मुनि अपने भाव मे दृढ़ बने। वेदना में भी समभाव रखकर वे शुक्लध्यान में आरूढ़ हुए। सर्व कर्म खपाकर सिद्ध बुद्ध मुक्त बन गए।
पर हाय रे हमारी कषायाग्नि । अंतिम बाल मुनि के समय स्कन्धकमुनि की वेदना ने कषाय का स्वरूप ले लिए। पालक की नीचता की पराकाष्ठा ने प्रभाव दिखा दिया। मुनि क्रोधित हुए। उन्हें घाणी में डाला गया । मुनि ने वेदना से नही घबराये पर पालक की नृशंसता से नही बचे। उन्होंने अंतिम समय आलोचना की जगह निदान कर लिया। अपने सर्व तप के फल स्वरूप पालक व पूर्ण नगर को जलाने का निदान कर लिया।
विराधक भाव मे काल कर मोक्ष या उच्च देवलोक की जगह अग्निकुमार जाती के देव बने।
तुरन्त अवधिज्ञान में अपना पिछला भव देखकर कुंभकारट नगर आये।
मलयसुन्दरी को जब इस घटना का पता चला तब वह दुखी हुई पर इस दुख ने उसे विरक्ति जगाई ओर देवी सहायता से भगवान के पास पहुंचकर संयम स्वीकार कर लिया। दंडक राजा को भी अपनी भूल का पश्चाताप हुआ। पर अब सब व्यर्थ था।
देव बने स्कन्धक ने नगर पर तीव्र अग्नि वृष्टि की। सारा नगर , प्रजा सहित कुछ ही समय मे भस्मीभूत बन गया।
एक छोटे से प्रसंग में अपना अपमान समझ कर पालक ने कितना बड़ा नरसंहार करवा दिया।
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इस घटनाक्रम को शब्दों में उतारते समय जो अनुभूति हुई उसका वर्णन असंभव है। जिनशासन के इन शूरवीरों के प्रति हृदय सदा नतमस्तक रहेगा।
बड़ी साधुवंदना - 86
संभुत्ति विजय - शिष्य , भद्रबाहू मुनिराय ।
चौदह पूर्व धारी, चन्द्र गुप्त आण्यो ठाय ।97।
आचार्य भद्रबाहूजी,
आचार्य यानी 8 संपदा से युक्त, तीर्थंकर भगवान के निर्वाण बाद जिनशासन के नायक, समस्त संघ को जिनेश्वर प्रारूपित मार्ग पर लाने, बढ़ाने व दृढ़ करने वाले महान उपकारी । जिन्हें हम नवकार महामंत्र में तीसरे पद में वन्दन करते है।
वर्तमान जिनशासन के प्रथम युगप्रधान आचार्य सुधर्मास्वामी के बाद जंबूस्वामी, प्रभवजी, आर्य शय्यंभव, पांचवे पट्टधर आचार्य आर्य यशोभद्र हुए। यहां तक सभी आचार्य ने अपने कालधर्म से पहले एक उत्तराधिकारी घोषित किया ।
वीर निर्वाण के 148 वे वर्ष में अपने अंतिम समय को जानकर आर्य यशोभद्र ने अपने 2 मुख्य शिष्यों को उत्तराधिकारी बनाया। आर्य संभुत विजयजी तथा आर्य भद्रबाहूजी।
नही, यह जैन संघ का विभाजन कतई नही था। जैन संघ के विभाजन के लिए इन महामुनि को कारणभूत मानना उनके प्रति अन्याय होगा।
विभाजन की शुरुआत इस समय के कई वर्षों बाद काल के प्रभाव से हुई।
आर्य भद्रबाहूजी का विनय और शासन के प्रति पूर्ण श्रद्धा व अहोभाव ही था, जो उत्तराधिकारी बनने के बाद भी अपने बड़े गुरूभ्राता संभुतिविजय जी की निश्रा में ही रहकर 8 वर्ष तक संघ की उत्कृष्ट सेवा करते रहे। आर्य संभुत्ति के बाद वीर निर्वाण संवत 156 में जैन संघ की बागडोर उन्होंने संभाल ली। आजकल छोटे से पद की सत्ता के लोलुप हम मनुष्यो के लिए यह प्रेरणाजनक।
वीरशासन के भव्य इतिहास में आर्य भद्रबाहूजी का नाम उल्लेख बड़े अदब, बड़े मान से लिया जाता है। जिनशासन के लिए इनका समर्पण अतुल्य रहा।
प्रतिष्ठानपुर के ब्राह्मण परिवार में जन्मे भद्रबाहूजी ने 45 वर्ष की उम्र में वीर निर्वाण संवत 139 में आर्य यशोभद्र जी से संयम स्वीकार किया।
इन्होंने ज्ञान की उत्कृष्ट आराधना की। आचारांग आदि 10 आगम की निर्यूक्तियाँ, 4 छेद सूत्र की रचना, उपसर्गहर स्तोत्र ( उवसग्गहरं ), भद्रबाहु संहिता, वसुदेव चरित्र आदी उत्कृष्ट आगम व ग्रन्थ की रचना की।
उवसग्गहरम की रचना की पोस्ट आगे हम पढ़ चुके है।
इन्ही आचार्य ने स्थूलभद्रजी को दो वस्तु कम दस पूर्वो का संपूर्ण तथा अंतिम 4 पूर्व की मूल की वांचना का ज्ञानदान दिया था। इस तरह पूर्व का ज्ञान विनष्ट होने से बचाया।
12 वर्ष तक महाप्राण - ध्यान के रूप में उत्कट योग की साधना भी की। वीर निर्वाण संवत 156 से 170 तक देश के विभिन्न भागों में विचरण कर जिनशासन का उत्कर्ष किया।
वराह मिहिर इनके ही भाई थे।
आचार्य भद्रबाहूजी का जीवन विशाल कथानकों से भरा है। इन पांचवे श्रुत केवली ( 12 अंग 14 पूर्व के संपूर्ण ज्ञाता को केवली जैसा यानी श्रुत केवली कहा जाता है। ) की संघ के लिए ज्ञान प्रदान की उच्च महिमा कई ज्ञानियों ने गाई है।
आर्य भद्रबाहूजी नाम के आचार्य एक से ज्यादा होने तथा उस समय का पूर्ण वर्णन नही मिल पाने से ऊनसे जुड़े कथानकों में मतभेद मिलता है।
पर एक बात सर्वमान्य है कि आर्य भद्रबाहूजी जैन संघ के एक महान आचार्य हुए।
आर्य भद्रबाहूजी एकबार विहार करते हुए उज्जयनी नगर पधारे। तब वहां के शासक सम्राट चन्द्रगुप्त मुनि के दर्शन करने आये।
अवसर देखकर उन्हें हाल ही में देखे 16 स्वप्नों का अर्थ पूछा।
भद्रबाहूजी से उन स्वप्नों के स्पष्ट उत्तर पाकर चन्द्रगुप्त राजा विरक्त हुए। व उन्होंने संयम अंगीकार किया।
उन 16 स्वप्न में क्या है .....?
#बड़ीसाधुवंदना - 87
संभुत्ति विजय - शिष्य , भद्रबाहू मुनिराय ।
चौदह पूर्व धारी, चन्द्र गुप्त आण्यो ठाय ।97।
चन्द्र गुप्त राजा को आये 16 स्वप्न में क्या है तथा आर्य भद्रबाहूजी ने उसका क्या अर्थ बताया यह आज हम देखते है। एक एक स्वप्न से अब इस क्षेत्र का भविष्य क्या होगा यह बतलाया गया है।
आनेवाले काल का भविष्य इन स्वप्नों में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। उनके ज्ञान की सच्चाई आज के परिप्रेक्ष्य में हम महसूस कर सकते है।
1 - अस्त होता सूर्य : श्रुत ज्ञान बहुत कम हो जाएगा।
2 - कल्पवृक्ष की भग्न शाखा : अब कोई राजा दीक्षा नही लेगा ।
3 - छलनी जैसा छिद्र युक्त चन्द्र : जैन धर्म मे अनेक मतों का उदभव होगा।
4 - बारह फन वाला सर्प : बारह वर्ष का भीषण दुष्काल ।
5 - उल्टे लौटते देवविमान : इस काल मे वैमानिक देव, विद्याधर, चारण मुनि भरत क्षेत्र में नही आएंगे।
6 - अशुचि युक्त स्थान में उगा कमल : उत्तम कुलोत्पन्न की जगह हीन कुल जाति के लोग जैन धर्म के अनुयायी होंगे।
7 - भूतों का नृत्य : अब मनुष्यो में अधोजाति के देवो के प्रति श्रद्धा ज्यादा हॉगी।
8 - खद्योत का उद्योत : जैनागमो के उपदेश देनेवालों में भी मिथ्यात्व रहेगा, जैन धर्म कहीँ कहीँ ही होगा।
9 - बीच मे सूखा, किनारों पर छिछरा जल वाला सरोवर : जिन पवित्र स्थानों में तीर्थंकरों के पंच कल्याणक हुए वह स्थान में जैन धर्म विनष्ट होगा और दूर के क्षेत्रों में जैन धर्म थोड़ा थोड़ा होगा।
10 - कुत्ते का स्वर्ण थाली में खीर खाना : लक्ष्मी का उपयोग प्रायः नीच पुरुषों करेंगे। कुलीन लोगो को लक्ष्मी दुर्लभ बनेगी।
11 - हाथी पर बैठा बंदर : अनार्य लोग राजा बनेंगे व क्षत्रिय राजरहित होंगे।
12 - समुद्र का सीमा उल्लंघन : राजा न्याय का उल्लंघन करने वाले, प्रजा की लक्ष्मी को लूटने वाले होंगे।
13 - बछड़ों द्वारा वहन किया जा रहा अतिभारयुक्त रथ : ज्यादातर लोग युवावस्था में संयम ग्रहण करेंगे और वृद्धावस्था में दीक्षा कम हॉगी।
14 - ऊंट पर बैठा राजकुमार : राजा निर्मल सत्य धर्म त्याग कर हिंसात्मक मार्ग अपनायेंगे।
15 - धुली से आच्छादित रत्न राशि : भविष्य में निर्ग्रन्थ मुनि भी एक दूसरे की निंदा करेंगे।
16 - 2 काले हाथियों का लड़ना : बादल व मनुष्यो का सूचक यानी बादल मनुष्यो की इच्छा अनुसार नही बरसेंगे।
इनमें से बहुत सी वाणी आज सत्य होते दिखाई दे रही है। जो भद्रबाहूजी का उच्च नैमित्तिक ज्ञान बता रहा है।
धन्य जिनशासन।
बड़ी साधुवंदना - 88
वली आर्द्रकुमार मुनि , स्थूलभद्र नंदिषेण ।
अरणक अइमुत्तो मुनीश्वरो नी श्रेण ।98।
इस गाथा में 5 मुनियों के नाम वर्णित है। हम क्रमशः इनकी कथा देखेंगे।
आर्द्र कुमार - 1
पिछली पोस्ट में भरत क्षेत्र से 10 विलुप्त चीजों का हमने पढा।
कुछ ने जिज्ञासा व्यक्त की : - यदि इस भव यहां से मोक्ष मिल ही नही सकता तो अभी धर्म और धर्म क्रिया क्यों करना ?
इसका जवाब हमें इसी साधुवन्दना की इन गाथा में मिल जाता है।
धर्म एक सीढ़ी है, जिससे हमें मुक्ति मंजिल को प्राप्त करना है।
ऐसा नहीं की सब जीव एक ही भव में यह सीढ़ी पूरी चढ़ जाए।
कई भवों की यह साधना होती है। उस भव में सम्यक ज्ञान के साथ की गई धर्म क्रिया हमें उस सीढ़ी पर ऊपर ही ले जाएगी। जिससे अगले भवो में हमें शीघ्र मुक्ति सुलभ होगी। और एक लाभ तो अभी भी है ही : - धर्म युक्त व्यक्ति दुर्गति में नही जाएगा। जहाँ आर्त रौद्र ध्यान से हम कर्म बंधन बढ़ाये।
धर्म हमें इस लोक के साथ ही अगले भवो की भी सुरक्षितता प्रदान करता है।
धर्म के संस्कार यदि एक बार दृढ़ बना लिए है तो अगले भव में भी या अनार्य क्षेत्र में जन्म लेकर भी हम मुक्ति मंजिल प्राप्त कर सकते हैं । इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है अनार्य क्षेत्र में जन्मे आर्द्र कुमार।
पूर्व भव में आर्द्र कुमार के जीव ने संयम स्वीकार किया, पर कुछ समय बाद योग ऐसा बना की साथ ही साध्वी बनी पूर्व पत्नी को देखकर पुरानी वासना जाग्रत हुई।
धर्म में दृढ़ साध्वीजी ने अपने तथा पूर्व पति के संयम को बचाने के लिए संथारा लेकर समाधिमरण को चुन लिया। इससे मुनि को आघात लगा और वे भी काल कर गए।
काल कर मुनि एक अनार्य देश आर्द्रक देश जो कि समुद्र में एक द्वीप था उसके राजा आर्द्रक के यहां राजकुमार बने। अनार्य देश : - जहां के लोगो को धर्म की समझ नही होती। मोक्ष आदि तत्त्वों की श्रद्धा तो दूर, समझ तक नही होती। राजकुमार आर्द्र बड़े हुए।
मगधराज श्रेणिक के मित्र आर्द्रक राजा के यहां श्रेणिक के कुछ दूत आये । राजदरबार में मगध देश की बाते हुई। राजकुमार अभयकुमार की अदभुत बुद्धि की बात हुई । वहां राजकुमार आर्द्र भी थे। जब दूत वापिस जाने लगे तब राजा ने श्रेणिक राजा के लिए कुछ भेंट दी। राजकुमार आर्द्र ने भी अभयकुमार के लिए मित्र बनाने के उद्देश्य से कुछ वस्तुए भेंटस्वरूप पहुंचाई।
यह भेंट जब मगध में राजा व अभयकुमार के पास पहुंची तब अभयकुमार को अनायास लगा कि अवश्य यह कोई भव्य जीव है। अभयकुमार जिनधर्मानुरागी जीव थे ही। उन्होंने अनार्य देश मे जन्मे राजकुमार के उत्थान समझकर, उन्हें प्रेरणा देने के लिए धार्मिक उपकरणों की भेंट भेजी।
आर्द्र कुमार धार्मिक उपकरणों को देख, उसमे रहे रजोहरण, मुखवस्त्रिका आदि देखकर स्तंभित और फिर मूर्छित हो जाते है। पुनः शुद्धि पर उन्हें जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त होता है। पूर्व भव में पाले संयम, पत्नी साध्वी जी को देखकर पतन आदि सब वृत्तांत याद आ जाता है।
अब वे क्या करेंगे?
आगे ...
बड़ी साधुवंदना - 90
वली आर्द्र कुमार मुनि , स्थूलभद्र नंदिषेण ।
अरणक अइमुत्तो मुनीश्वरो नी श्रेण ।98।
स्थूलभद्रजी - 1
मंगलम भगवान विरो, मंगलम गौतम प्रभु ।
मंगलम स्थूलीभद्राद्याम, जैन धर्मोस्तु मंगलम।
इस गाथा में हर मंगल प्रसंग में वीर प्रभु, गौतम स्वामी के साथ हम जिन्हें याद करते है ऐसे : स्थूलभद्रजी ।
जिनशासन का एक और अदभुत उच्च कोटि के संयमधारी महापात्र
कहते हैं , काजल की कोठरी में रहकर कौन बिना दाग लगाए निकल सकता है। पर कामविजेता स्थूलिभद्र जी ने यह कर दिखाया था। कामविजेता का यह बिरुद उन्हें कैसे दिया गया, जिनशासन के ज्ञान भंडार को उन्होंने कैसे आगे बढ़ाया, यह हम आगे देखते है।
पर एक बात निश्चित है , जैन इतिहास में स्थूलभद्रजी का नाम एक महान मुनि के रूप में अमर हो गया।
इनके जीवनचरित्र में इतने चढ़ाव उतार है, कि उसे लेखन करे तो एक बड़ा पुस्तक बन सकता है। हम अति संक्षिप्त में उनकी जीवनी देखते है।
श्रेणिक के पिता प्रसन्न चन्द्र ने मगध की नई राजधानी के रूप में राजगृही को बसाया, कोणिक ने चंपानगरी और कोणिक पुत्र उदायी ने मगध की राजधानी के लिए पाटलिपुत्र नगर बसाया।
उदायी की मृत्यु के बाद मगध का शासन नंद वंश के पास आया। उसी नन्द वंश के एक राजा के यहां ब्राह्मण कुल के , पर दृढ़ जिनधर्मानुरागी ऐसे शकडाल जी महामंत्री का पद शोभीत कर रहे थे।
शकडाल मंत्री बाहोश व कुशल राज नीतिज्ञ थे। राज्य में उनका वचन राजा के समकक्ष माना जाता था। राजदरबार उन दिनों सत्ता के लिए षड्यंत्रों से उलझा हुआ था, पर महामंत्री शकडाल के कार्यो से सब कुशल चल रहा था।
शकडाल मंत्री के परिवार में 2 पुत्र स्थूलभद्र व श्रीयकजी तथा 7 पुत्रियां थी। यक्षा, यक्ष दिन्ना, भूता, भूतदिन्ना, सैना, वेणा, रेणा। स्थूलिभद्र बचपन से वैरागी भाव के थे परन्तु युवा होते नगर की रूपसुन्दरी नर्तकी कोशा के संपर्क में आने के बाद जीवन की दिशा भूलकर कोशा के यही रहने लगे थे। छोटा पुत्र श्रीयक आज्ञाकारी था , वे अब युवा बन पिता के साथ राजदरबार में जाने लगे थे।
अपार बुद्धिमत्ता, अदभुत स्मरण शक्ति शकडाल जी की 7 पुत्रियों की विलक्षणता थी । यक्षा जी कोई भी सूत्र स्तोत्र एक बार सुनने पर ही कंठस्थ कर लेते थे यक्षदिन्ना 2 बार, ऐसे क्रमश: सभी बहनें 3, 4, 5, 6 व 7 बार सुनने पर कोई भी स्तोत्र याद कर लेते थे।
राजदरबार में राजकीय खटपटों के माहौल में वररुचि नाम का एक लोभी ब्राह्मण राजनिष्ठ शकडाल का वैरी बना हुआ था।
वह रोज एक नया स्तोत्र बनाकर राजा की उदारता का लाभ उठाकर 108 स्वर्णमुद्रा प्राप्त करता था। राजकोष की चिंता में शकडाल ने कुछ दिन तो उसे माफ किया, पर जब लोभ बढ़ने लगा, तब अपनी 7 पुत्रियों को राजदरबार में ले गए। और राजा से कहा कि वररुचि पुराने सुने सुनाये स्तोत्र आपको सुना रहे है। ये स्तोत्र तो बच्चे भी जानते है। तब राजा ने वररुचि की परीक्षा ली। वररुचिने राजदरबार में अपना नया स्तोत्र सुनाया। एक बार सुनकर याद कर लेने वाली यक्षा ने वह स्तोत्र सुनाया। फिर क्रमशः सभी लड़कियों ने सुनाया तब राजा को शकडाल पर विश्चास हो गया और वररुचि को इनाम देना बंद कर दिया। वररुचि अब शकडाल का पक्का वैरी बन गया।
इस तरह वररुचि के अन्य षड्यंत्रों को शकडाल ने विफल किया।
पर एक बार वररुचि ने अपनी धूर्तता से शकडाल को आपत्ति में डाल ही दिया !
क्या हुआ था ....?
बड़ी साधुवंदना - 91
वली आर्द्र कुमार मुनि , स्थूलभद्र नंदिषेण ।
अरणक अइमुत्तो मुनीश्वरो नी श्रेण ।98।
स्थूलभद्रजी - 2
एक प्रसंग में वररुचि ने नंद राजा को भ्रमित कर दिया। शकडाल के यहां एक शुभ प्रसंग पर उन्होंने अपने सभी रिश्तेदारों को आमंत्रित किया। उन्हें भेंट देने के लिए शस्त्र आदि बनवाये। यह मौका वररुचि कैसे छोड़ता। बहुत शातिरता से उसने राजा का मन शकडाल की ओर से दूषित कर दिया।
तब राजा के क्रोध से अपने परिवार की सुरक्षा करने का लक्ष्य रखकर श्रीयक को शकडाल ने आदेश दिया कि भरी सभा में तुम मुझे तलवार से मार देना। भारी मन से श्रीयक ने पिता की आज्ञा का पालन किया।
राजा को विश्वास हुआ। शकडाल कि मृत्यु के बाद मंत्री पद संभालने के लिए गणिका कोशा के यहां रह रहे स्थूलभद्रजी को बुलाया गया। पर पिता की इस अकाल मृत्यु ने स्थूलभद्रजी को अत्यंत स्तब्ध कर दिया था । उनकी सोच बदल गई। यह भोग सुख, यह राजनीति यह वैभव सब परवशता को उत्पन्न करने वाले साबित हुए। उनका चिंतन पूरा बदलकर आत्मलक्ष्य की ओर मूड गया। अब संसार से उदासीन व संयम लेनेको उत्सुक हो गये।
सोचिए जरा : - जब हमें छोटा सा कोई लौकिक लाभ हो रहा हो तब हम क्या धर्म का सोचते है? स्थूलभद्रजी ने इतने बड़े पद की प्राप्ति पर भी संयम ग्रहण का निर्णय लेते है।!!
अदभुत चिंतन।
उन्होंने सब वैभव सुख, अपनी स्नेही कोशा नर्तकी को छोड़कर आचार्य संभुतिविजय के पास श्रमण दीक्षा अंगीकार कर ली।
संयम चर्या के संपूर्ण व निर्दोष पालन के साथ ही गुरु सेवा, अन्य स्थविरो की वैयावृत्य के साथ ही मुनि स्थूलिभद्र जी आगम अध्ययन करने लगे।
इस प्रसंग में कोशा के लिए भी मन में कोई अविचार न करना। गणिका होना यह उसके माता द्वारा दिया गया व्यवसाय था, परन्तु उसने स्थूलिभद्र में ही अपना स्नेह सीमित कर लिया था। उसका हृदय भोगविलासिता में पली बढ़ी होते हुए भी अंतर में वफादारी का दृढ़ गुण उपस्थित था। स्थूलिभद्र जी की दीक्षा उनके लिए आघात जनक थी। उस बुरे समय मे उदार स्वभावी श्रीयक ने आश्वासन देते हुए उन्हें संभाल लिया था।
स्थूलिभद्र जी की दीक्षा के बाद श्रीयक का मन भी विरक्ति में ही डूबा था ,परन्तु राजा का आग्रह आदि देख वे दीक्षा नही ले पाए। राज्यकार्य में प्रवीणता से राजा नंद के विश्वासु व सन्माननीय बन गए। अपनी कपटलीला पूरी हुई देख वररुचि मदमस्त हो गया। गलत राहों पर चलकर मद्यपान, वेश्यासंसर्ग आदि में डूब गया। अपकीर्ति का हकदार बनकर कुछ समय में ही बुरी तरह काल को प्राप्त हुआ।
कुछ वर्षों में ही पहले 7 बहनों ने फिर श्रीयक ने भी दीक्षा अंगीकार कर ली।
यक्षा जी आदि की उत्कृष्ट संयम निष्ठा, क्रिया भी इतिहास में सुवर्णाक्षरो में उल्लेखित है।
स्थूलिभद्र जी की कथा आगे बढाने से पहले उन महासतीजी के लिए प्रसिद्ध एक किवदन्ति समझते है।
श्रीयक जी ने संयम अंगीकार किया। सभी क्रिया वे उत्कटता से पालते थे, परन्तु किसी अंतराय कर्म के उदय से वह कुछ भी तप नही कर पाते थे।
एक संवत्सरी के दिन यक्षा जी महासतीजी ने उन्हें एकासन के लिए प्रेरणा दी। श्रीयक मुनि ने साहस कर एकासन किया। दोपहर तक उन्हें अनुकूल लगा तब महासतीजी ने उपवास की प्रेरणा दी। परन्तु रात पूरी होते होते वे कालधर्म को प्राप्त हो गए। सुबह जब पता चला ,
यह आघात यक्षा जी के लिए दुष्कर हो गया। मेरी वजह से भाई मुनि की मृत्यु हुई इस संताप से वे पीड़ित हो गये।
उन्होंने अन्न जल का त्याग कर दिया। पूरे संघ ने उन्हें निर्दोष मानकर, बहुत समझाया पर यक्षा जी संतुष्ट नही हुई। आख़िरकार संघ ने शासनदेवी की आराधना की। देव प्रकट हुआ और उनकी सहायता से यक्षा साध्वी जी महाविदेह में स्थित सीमंधर स्वामी के पास पहुंची। उन्होंने यक्षा जी को निर्दोष बताया। तब उन्हें तसल्ली हुई। प्रभुने 4 अध्ययन उन्हें दिए। यक्षा जी महाविदेह क्षेत्र से वापिस आये। वे 4 अध्ययन आज चूलिका के रूप में स्थापित है।
स्थूलभद्रजी व यक्षा जी का एक और प्रसंग आगे आएगा।
बड़ी साधुवंदना - 92
वली आर्द्र कुमार मुनि , स्थूलभद्र नंदिषेण ।
अरणक अइमुत्तो मुनीश्वरो नी श्रेण ।98।
स्थूलिभद्र जी - 3
संयम अंगीकार करने के बाद पूर्ण भाव से स्थूलिभद्र जी आराधना करने लगे अविरत श्रम के बाद उन्होंने 11 अंग में निष्णातता प्राप्त कर ली।
साधु जी के 10 कल्प में एक कल्प है चातुर्मास। एक साल में 8 महीने विहाररत साधु जी जीव दया के लिए 4 माह वर्षाकाल में एक स्थान में रुककर विशेष आराधना करते है।
एकदा संभुतिविजय जी के 3 शिष्यों ने इन 4 माह के उपवास के व उत्कट अभिग्रह के साथ चातुर्मास बिताने की आज्ञा मांगी। प्रथम मुनि ने सिंह की गुफा के आगे, दूसरे मुनि ने दृष्टिविष सर्प के बिल के पास, तीसरे मुनि ने कुएं के पास स्थित रहकर उपवास के साथ चातुर्मास बिताने का अभिग्रह लिया। गुरु ने आज्ञा दी। तब स्थूलिभद्र जी ने भी गुरु को शीश झुकाते हुए वन्दन किया। स्वयं के लिए कोशा नर्तकी के घर में , कामोद्दीपक वातावरण, उत्तेजित करने वाली चित्रशाला में रहकर सभी रसों के युक्त भोजन करते हुए चातुर्मास बिताते हुए विकारों से दूर रहने की साधना करने की अनुमति मांगी। स्थूलिभद्र जी का साधना का एक उत्कृष्ट अभिग्रह था। काजल की कोठरी से कालांश लिए बिना बाहर निकलना असंभव था। गुरु ने उन्हें योग्य समझ कर आज्ञा दी।
गुर्वाज्ञा प्राप्त कर चारो अपने स्थान के लिए अग्रसर हुए।
मुनि स्थूलिभद्र जी पुरानी प्रेमिका नर्तकी कोशा के घर आकर विषयिक कामभोगो के चित्रों से भरी हुई चित्रशाला में आकर चातुर्मास बिताने की आज्ञा मांगी।
नर्तकी कोशा तो उनमे अनुरक्त थी ही, अब प्यासे को कुआँ ही मिल गया। उसने सहर्ष आज्ञा दी।
कोशा के मन मे रहे मोह ने अब कोशा को प्रियतम को पाने के लिए उत्सुक किया। 4 मास में कोशा ने स्थूलिभद्र जी को पुनः कामभोगो की ओर मोड़ने के भरपूर प्रयत्न किए। कभी पाश तो कभी विकारी नृत्य, कभी दुख जताकर कभी पुरानी कामलीलाओ का स्मरण दिलवाकर, भोजन में विकारी भोजन देकर तो कभी अन्य प्रयास किये। पर स्थूलिभद्र जी अपनी साधना में अडिग रहे। अपने लक्ष्य को ध्यान में रखकर उत्कट धर्माराधना करते रहे। सभी उपसर्गो को जीतकर आखिरकार चातुर्मास पूर्ण किया।
कोशाने विनयपूर्वक पश्चाताप व्यक्त किया। अपनी सभी करतूतों के लिए क्षमा मांगी। स्थूलभद्रजी से उपदेश पाकर वह श्राविका बनी।
चातुर्मास पूर्ण होने पर चारो अभिग्रह धारी मुनि गुरु के पास लौटे । आचार्य संभुतिजी ने ऊपर के वर्णित तीनों मुनियों की साधना को दुष्कर बताकर उनका अभिवादन कर स्वागत किया । पर जब अंत मे स्थूलिभद्र को अति दुष्कर साधना के सफल आराधक बताया तब तीनो मुनियों के मन मे थोड़ा ईर्ष्याभाव आया। एक गणिका के घर, आराम से रहे, रोज सब रसों का भोजन करने वाले की साधना हम से दुष्कर कैसे।
इस ईर्ष्याभाव के चलते सिंह गुफा वासी मुनिने अगले चातुर्मास आने पर गुरुदेव से कोशा के यहां चातुर्मास बिताने की आज्ञा मांगी।
गुरु समझ गए कि योग्यता न होने पर भी मात्र ईर्ष्याभाव से यह मुनि स्थूलभद्रजी की स्पर्धा करना चाहते है। गुरु ने उन्हें समझाया कि यह साधना सिंह की गुफा के आगे 4 माह के उपवासी रहने से भी अति दुष्कर है।
बहुत समझाने पर भी वे मुनि अपनी इच्छा पर अड़े रहे। गुरु ने साफ मना किया तब उनकी अनुमति बिना हीं वे कोशा के यहां पहुंचे।
स्थूलिभद्र जी की साधना देख कोशा ने सहर्ष उन्हें अनुमति दी।
आगे क्या होगा???
#बड़ीसाधुवंदना - 93
वली आर्द्र कुमार मुनि , स्थूलभद्र नंदिषेण ।
अरणक अइमुत्तो मुनीश्वरो नी श्रेण ।98।
स्थूलिभद्र जी - 4
कोशा ने पूर्व में सिंह की गुफा के पास सफलतम चातुर्मास कर चुके मुनि को चित्रशाला में रुकने की अनुमति दी।
मुनि की परीक्षा हेतु कोशा ने सुंदर विकार वर्धक भोजन करवाया। उस विषयी चित्रशाला में सजधज कर आकर्षक वेशभूषा में कोशा आई।
बस इतना ही पर्याप्त था , मुनि के पतन के लिए। कोशा को देखकर ही मुनि विषयाक्त हो गये और भोग की कामना की।
तब स्तब्ध कोशा ने उन्हें सही मार्ग पर लाने के लिए एक उपाय किया। उसने मुनि से कहा कि वह स्वयं वारांगना है, धन के बिना कुछ नही देती। यदि उसे कोशा से भोग चाहिए तो धन लाना होगा। और उसका उपाय भी बताया, कि नेपाल के क्षितपाल राजा नये साधुओको रत्नकंबल देते है, तुम मुझे वह लाकर दे दो।
मुनि विषय मे भान भूले। वासना में अंध बनकर संयम की चर्या भूल गये। चातुर्मास में निषेधित विहार कर अत्यंत कठिनाई से नेपाल पहुंचे। रत्नकंबल लेकर पुनः पाटलिपुत्र पहुचे। यह उनकी यात्रा अत्यंत कठिन, रानी पशुओं, लुटेरों, दुर्गम वनों की तकलीफों से युक्त थी।
एकबार तो रास्ते में लुटेरे कंबल लूट लेते हैं । दूसरी बार जाते हैं अब राजा बोलता है कि पहले दी थी ना लेकिन अनुनय करके दूसरी बार प्राप्त करते हैं, और लाठी में छिपाकर बचते बचाते ले आते हैं । ऐसे सभी संकटो से बचते बचाते वे पाटलिपुत्र आये।
ललचाई आंखों से लाख रुपये का रत्नमूल्य कोशा को दे दिया। कोशा ने तत्क्षण उस रत्नकंबल से पांव पोंछकर फेक दिए। अपनी इतनी कठिनाइयों के बाद प्राप्त रत्नकंबल को फेंकते देख मुनि विस्मित हो गये। उन्होंने कोशा को डांटा।
तब कोशा ने उन्हें उपदेश दिया। रत्नकंबल से भी अतिशय मूल्यवान संयम रूपी रत्न को आप ने कचरे में फेंक दिया है। और पतन की खाई में धँसते जा रहे हो।
कोशा के उपदेश से मुनि को आघात लगा और वे अपने पतन को पहचान गये । कोशा से माफी मांगकर उसका धन्यवाद कर गुरु के पास आये। स्थूलभद्रजी की साधना को सच मे अति दुष्कर बताकर , अपने पतन की गाथा सुनाकर उनसे माफी मांगी व प्रायश्चित ग्रहण कर शुद्ध बने।
ऐसे ही कोशा ने अपने मे अनुरक्त एक और रथीक का भी उद्धार किया।
#बड़ीसाधुवंदना - 94
वली आर्द्र कुमार मुनि , स्थूलभद्र नंदिषेण ।
अरणक अइमुत्तो मुनीश्वरो नी श्रेण ।98।
स्थूलिभद्र जी - 5
पाटलिपुत्र की प्रथम आगमवांचना (वीर निर्वाण संवत 160)
आर्य संभुतिविजय जी के अंतिम समय मे ही मध्य देश मे अति भीषण दुष्काल पड़ा। उसकी भयानकता शब्दो मे अवर्णनीय है। इस दुष्कर काल मे जैन धर्म को अत्यंत हानि हुई। कई सन्तो ने संयम विराधना न हो इस लिए समाधि मरण का मार्ग चुन कर संलेखना सहित देहत्याग किया। कुछ मुनिराज ने अपने संयम रक्षा हेतु दूरवर्ती क्षेत्रो में विहार कर दिया।
पुनः जब सुभिक्ष यानी सुकाल हुआ तब विभिन्न क्षेत्रो में गये मुनिगण वापिस पाटलिपुत्र लौटे। कुछ समय मे सबको एहसास हुआ कि मरणान्तिक संकटो के वजह से , परावर्तन न हो पाने की वजह से दुर्लभ आगमज्ञान विस्मृत हो गया। अतः संघ ने जिन्हें जितनी वांचना हृदयस्थ थी उन सबको संकलित कर पुनः द्वादशांगी को सुनियोजित करने का निर्णय किया ।
स्थूलभद्रजी की निश्रा में पाटलिपुत्र में प्रथम आगमवांचना हुई। और सभी मुनियों के प्रयास से ग्यारह अंगों की वांचना संपन्न की। एकदशांगी की गंगा पुनः बहने लगी सब आनंदित हो गये।
पर एक विकट समस्या सामने भी आई।
इन मुनिगणो मे किसी को भी दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग का ज्ञाता कोई भी श्रमण नही था। एक मात्र ज्ञाता भद्रबाहूजी उस समय नेपाल में महाप्राण नामक ध्यान की योग साधना कर रहे थे। उनके पास अनुकूलता नही थी कि दुष्कर अंग दृष्टिवाद की लंबे समय तक गहन वांचना दे सके। उसका गूढ़ अध्ययन काफी श्रम व समय मांग लेता था।
पर संघ के दबाव में आकर वह वांचना देने के लिए तत्पर हुए। स्थूलिभद्र जी के साथ 500 मुनि नेपाल पधारे व अभ्यास चालू किया। पर अनथक गूढ़ कठिन अंग की वांचना लेने में वे सभी असमर्थ हुए। एकमात्र स्थूलिभद्र जी ने अध्ययन चालू रक्खा। अन्य सभी 500 मुनि हतोत्साह होकर लौट आये। गूढ़ ज्ञान के धनी स्थूलिभद्र जी दृष्टिवाद के तीसरे भाग में रहे 10 पूर्व ( 2 वत्थु कम ) तक पहुंच गए। अभी तो बहुत हिस्सा बाकी था। अब वे भी थोड़ा थकने लगे थे।
इस दौरान महाप्राण ध्यान की साधना पूर्ण होने पर भद्रबाहूजी के साथ मुनि स्थूलभद्रजी विहार करते हुए पाटलिपुत्र आये।
भाई मुनि का आगमन सुनकर यक्षा जी आदि साध्वी दर्शन करने मुनि जहाँ रुके थे उस उद्यान में आये। भद्रबाहूजी के दर्शन वन्दन बाद भाईमुनि के दर्शन की आज्ञा मांगी। भद्राबाहूजी ने कहा कि वे इस उद्यान के अमुक भाग में है वहा जाकर दर्शन कर लीजिए।
साध्विजीया वहां पहुंची।
यक्षा जी के आगमन की सूचना स्थूलिभद्र जी को मिल चुकी थी। मैंने कितना ज्ञान प्राप्त कर लिया है यह बहनों को भी दिखाऊ। यह भाव उनके मन मे जाग्रत हो गया।
प्राप्त ज्ञान की विद्या से उन्होंने रूप परावर्तन कर सिंह का रूप धारण कर बहनों को डरा दिया।
जब यह बात गुरु भद्रबाहू जी ने अपने ज्ञान से जानी तब उन्हें बड़ा दुख हुआ। अभी तक विद्या प्राप्ति का काम पूरा नही हुआ और मद ? आगम का ज्ञान कषाय घटाने को है, बढ़ाने को नही। स्थूलिभद्र जी अत्यंत गुणवान, ज्ञानी होते हुए भी आगामी काल व आने वाले साधु जी को पूर्वज्ञान के लिए अपात्र जानकर उन्होंने ज्ञान वांचना देना बंद किया। फिर संघ के आग्रह पर सिर्फ मूल आगमका ज्ञान दिया अर्थ नही।
स्थूलिभद्र जी अपनी भूल को समझे और क्षमायाचना की। पर अब वह व्यर्थ था। आगमज्ञान वहीँ रुक गया।😢 स्थूलभद्रजी को बहुत दुख हुआ।
भद्रबाहूजी के कालधर्म बाद स्थूलभद्रजी जी आचार्य बने। बहुत से लोगो को जिनधर्म में दृढ़ किया। 45 वर्ष तक आचार्य पद में विचरते हुए जिनशासन की महत्ती सेवा की।
#बड़ीसाधुवंदना - 95
वली आर्द्र कुमार मुनि , स्थूलभद्र नंदिषेण ।
अरणक अइमुत्तो मुनीश्वरो नी श्रेण ।98।
नंदिषेण मुनि
राजगृही के राजा श्रेणिक के राजकुमार नंदिषेण बलशाली व्यक्तित्व । इन्होंने एक मदमस्त हाथी सेंचनक (इस हाथी की भी लंबी एक कथा है) को वश में किया था।
वीर प्रभुकी देशना सुनने के बाद उन्होंने श्रेणिक राजा की आज्ञा लेकर दीक्षित हुए थे। दीक्षा से पहले एक देववाणी हुई , की अभी आपके भोगावली कर्म बाकी है , अभी संयम न ले। परन्तु अब उनका मन संसार से उठ ही चुका था।
संयम लेकर उग्रतप आराधन करने लगे।
तप के प्रभाव से कई लब्धियाँ उन्हें प्राप्त हुई। पर वे उसका प्रयोग नही करते थे।
एकबार वे गोचरी हेतु किसी गणिका के घर गए, और धर्मलाभ कहा । तब वहां गणीका ने परिहास किया - मुनिवर, यहां धर्म नही धनलाभ चाहिए। बिना पैसे यहां कुछ नही मिलता। मुनि के भोगावली कर्म उदय में आ रहा था। परिहास से खिन्न मुनि ने अपनी लब्धि से वहां धन की वर्षा कर दी।
बहुत धन देखकर गणिका पिघल गई। उसने मुनिराज को वहीं रोकने के प्रयास किया। कर्मोदय की भवितव्यता , मुनि रुककर संसारी बन गए। गणिका के साथ भोग को तैयार हो गये। पर भीतर संयम जाग्रत था। उन्होंने प्रण लिया: - जब तक मैं रोज 10 व्यक्तियों को धर्म की प्राप्ति नही करवाऊंगा तब तक भोजन नही करूँगा।
यह सिलसिला करीब 12 वर्ष तक अविरत चला। हजारों व्यक्तियों ने उनसे बोध पाकर संयम ग्रहण किया ।
एक दिन 9 आदमी तैयार हो गए पर दसवां कोई तैयार नही था। तब गणिका ने फिर परिहास किया : - दसवें तुम।
अहो!!!!
दसवां में?
बस आतमराम जाग गया। पुनः संयम की राह पकड़कर प्रायश्चित लिया। शुद्ध होकर आराधना में जुड़ गए। काल कर देवलोक पहुँचे ।
#बड़ीसाधुवंदना - 96
वली आर्द्र कुमार मुनि , स्थूलभद्र नंदिषेण ।
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नन्दीषेण - 2
कल हमने श्रेणिक पुत्र नन्दीषेण मुनि की कथा पढ़ी । जिनशासन के इतिहास में एक अन्य नन्दीषेण मुनि हो गये, गुरु की वैयावृत्य में जिनका नाम अमर हो गया। आज हम उनका थोड़ा वृत्तान्त देखते है।
भरतक्षेत्र की सौरिपुर नगरी के राजा अन्धकवृष्णि (नेमिनाथ प्रभु जी व कृष्ण जी के दादा जी) व रानी सुभद्रा । इनके दस वीर पुत्र दशार्ह के नाम से प्रसिद्ध हुए। प्रथम पुत्र समुद्रविजय जी (नेमिनाथ प्रभु जी के पिता) तथा अंतिम पुत्र का नाम था वसुदेव (कृष्ण वासुदेव के पिता।)
वसुदेव का रूप अत्यंत आकर्षक व दैदीप्यमान था । एकबार सुप्रतिष्ठ नामक केवली वहां पधारे, राजा ने उनसे वसुदेव का इतने रमणीय होने का कारण पूछा। तब केवली भगवान ने उसका पूर्वभव का वृत्तान्त सुनाया।
एक समय मगध देश के नंदीग्राम में एक नन्दीषेण नामक गरीब अनाथ बालक रहता था। मामा के यहां पल बढ़ रहा था पर वह भी एक बोझ के समान। दिखने में अत्यंत विरूप, किन्ही रोग से बढे हुए उदर वाला, चेहरा भी अत्यंत कुरूप वह नन्दीषेण मामा के यहां अत्यंत मेहनत करता रहा। मामा ने उसे लालच दिया था कि यदि वह उसके काम से खुश रहा तो अपनी 7 पुत्रियों में से एक का ब्याह उससे करवा दूंगा। बस इसी लालच में
नन्दीषेण मामा के यहा सभी काम करता रहा।
जब पुत्रियां विवाह योग्य हुई तब एक-एक करके सातो पुत्रियों ने उस कुरूप नन्दीषेण से विवाह करने से स्पष्ट इन्कार कर दिया।
बचपन से पाले भ्रम टूटने से नन्दीषेण बड़ा दुखी हुआ। वह एक निर्जन वन में जाकर आत्मघात (आत्महत्या) करने की तैयारी करने लगा। तब वहाँ एक निर्ग्रन्थ मुनि को देख सोचा : - मृत्यु से पहले इन्हें वन्दन कर लूं।
मुनि ने उसकी दशा देखकर उसे असरकारक शब्दो मे प्रतिबोधित किया। ( यह बोध संक्षिप्त में हम सबको समझकर आनेवाली विपत्तियों में समभाव रखना चाहिए। )
हे आत्मन !
अभी जो जो वेदना तुम भुगत रहे हो, सभी तुम्हारे पूर्वगत किये गए अत्यंत विपुल मात्रा में किये गये पापकर्मो का ही परिणाम है। यदि तुम इसे समभाव से सहन कर लेते हो तो यह अभी झड़ जाएंगे। पर इन कर्मो के उदय में आर्त रौद्र ध्यान से, आत्मघात जैसे कृत्य से तुम आनेवाले भवो के लिए भी दुष्कर्म बांध रहे हो। अगले भव में तुम्हे फिर दुख प्राप्त होगा। यह विषचक्र चलता ही रहेगा। इस मनुष्य भव का अनमोल अवसर पाकर उसका सदुपयोग साधना करके करोगे, तो आनेवाले भव भी सुधर जाएंगे व भवसागर से मुक्ति भी संभव है।
मुनि के वचन से प्रतिबोधित हुए नन्दीषेण ने संयम अंगीकार किया।
उत्कृष्ट तप करते हुए उन्होंने सभी निर्ग्रंथो की वैयावृत्य का अभिग्रह भी लिया।
संघ में जो भी बाल,वृद्ध, रोगी मुनि हो, वे अग्लान भाव से उनकी सेवा करने लगे। तप व ज्ञानार्जन भी चालू ही था परंतु मुख्य लक्ष्य वैयावृत्य था।
आगे....
#बड़ीसाधुवंदना - 97
वली आर्द्र कुमार मुनि , स्थूलभद्र नंदिषेण ।
अरणक अइमुत्तो मुनीश्वरो नी श्रेण ।98।
नन्दीषेण - 3
इस वैयावृत्य तप से नन्दीसेन मुनि की कीर्ति चारो और फैल गई ।इस से उन्हें कुछ लब्धियाँ भी प्राप्त हुई । एकबार देवलोक की सभा मे इनकी अविरत वैयावृत्य की प्रसंशा हुई। तब एक देव ने उनकी परीक्षा लेने का मन बनाया।
नन्दीषेण मुनि एक स्थान पर पारणा करने बैठे। तब एक मुनि का रूप बनाकर उनके पास वह देव आया : - अरे ओ वैयावृत्य तप धारी, बड़े ढोंगी हो, वहां वन में एक असाध्य रोग से पीड़ित एक साधु तुम्हे पुकार रहा है और तुम यहाँ खाने बैठे हो!!!!
हाथ मे लिया प्रथम ग्रास वापिस पात्रे में रखकर मुनि उस रोगी मुनि को ढूंढने निकले। वह देव एक वृद्ध बीमार साधु का रूप लेकर वन में बैठ गये थे।
नन्दीषेण मुनि अत्यंत कठिनाई से मिले प्रासुक जल लेकर वहां पहुंचे । मुनि को देखते ही वे वृद्ध मुनि नन्दीषेण मुनि को अनर्गल शब्दो मे डांटने लगे। शांतभाव से मुनि ने उन्हें जल पिलाया। और उनकी चिकित्सा करने के लिए उन्हें साथ चलने को कहा। तब उग्रता से मुनि बोले :- मैं जीर्ण व बीमार शरीर लेकर कैसे चलूं, तब नन्दीषेण मुनि ने उनको उठा कर कंधे पर बैठाकर चल दिये।
ऊबड़खाबड़ राह में आये विघ्नों से नन्दीषेण मुनि तो शांतभाव से चल रहे थे पर वृद्ध मुनि तो उन्हें कोपायमान करने के प्रयास में ही लगे थे। क्रोध में आकर वे अभी भी उनकी सेवा कर रहे मुनि को निंदित कर रहे थे। नंदीषेण मुनि को समभाव में देख वृद्ध मुनि ने अपनी बाजी पलटी व कंधे पर ही विष्ठा कर दी। नन्दीषेण मुनि का सारा देह दुर्गंधमय विष्ठा से युक्त होगया। पर नन्दीषेण मुनि तो क्रोधित होने की जगह यह सोच रहे थे, की मैं कैसे इन मुनि का दुख दूर करू।
उनका यह समभाव देखकर, उनकी वैयावृत्य की उत्कृष्ट भावना देखकर आखिर देव ने हार मान ली। अपनी लीला समेट ली। अपना परिचय देकर उनकी स्तुति की। व देवलोक लौट गये।
ऐसे सेवाभावी मुनि नन्दीषेण बारह हजार वर्ष तक उत्कृष्ट संयम पालन करते रहे। अंत मे संलेखना ग्रहण की। पर हाय रे यह कषाय!😢
संलेखना में अपने पुराने दिन, मामा की 7 पुत्रियों के धुत्कार, कुरूपता से सर्वत्र मिला तिरस्कार का स्मरण हो आया। और मुनि ने निदान कर लिया। मेरे तप संयम का फल में मुझे अगले मनुष्यभव में अत्यंत सुंदर रूप मिले, मैं स्त्रीवल्लभ बनूं ।
जो मार्ग, जो साधना भवसागर से पार उतरने के लिए की थी, या कर सकते थे उसे नश्वर भोग के बदले दे दी। जैसे एक अमूल्य हीरा देकर सस्ता कांच के टुकड़ा खरीद लिया।
महात्माओं का कथन है कि हम जो भी साधना करे व सिद्धगति के लक्ष्य को लेकर हो, संसारिक सुखों के बदले हमारी अमूल्य साधना का सौदा हम कभी न करे।
संलेखना में नन्दीषेण मुनि काल कर महाशुक्र देव बने। वहां से काल कर अन्धकवृष्णि राजा के दसवें पुत्र वसुदेव बने। निदान स्वरूप वे अत्यंत मोहक व स्त्रीवल्लभ बने।
केवली मुनि से यह सब सुनकर अंधकवृष्णि राजा ने बड़े पुत्र समुद्रविजय जी को राज्य सौंपकर संयम अंगीकार किया।
वसुदेव बड़े होते गए तब उनका रूप और निखरता गया। नगर में जब वे फिरते तब स्त्रियां उनसे आकर्षित होकर अपनी नैतिक मर्यादा छोड़कर उनके पीछे खिंची चली आती जैसे किसी ने मन्त्र से वशीभूत कर दिया हो।
राजा ने अपनी प्रजा में नैतिकता बनी रहे, मर्यादा बनी रहे इस हेतु से उन्हें महल में ही नजरबंद कर दिया था। यानी राजमहल से उनका बाहर निकलना बंद।
आख़िर एकबार वे वहाँ से भाग निकले। इत्यादि उनकी कथा बहुत विस्तृत है। उनकी देवकी, विजय, गन्धर्वसेना, रोहिणी आदि 72000 रानियां थी। उनके मित्र कंस ने छल कर वचन ले लिया था कि वसुदेव देवकी द्वारा हुए 7 पुत्रो को उसे सौंप देंगे। जिनमे से सातवे पुत्र कृष्ण वासुदेव ने कंस का वध किया।
कंस की पत्नी जीवयशा ने पिता जरासंध को बदला लेने के लिए उत्तेजित किया। वर्षो तक यादवों से जरासंध का वैर चलता रहा। अंत मे पुनः जीवयशा की जबरदस्त आग्रह से उत्तेजित जरासंध व यादवों के बीच महाभीषण महाभारत का विश्व प्रसिद्ध संग्राम हुआ। जिसमें कौरवों ने जरासंध का , तथा पांडवों ने कृष्ण का साथ दिया।
यह विस्तृत कथा हम महाभारत के नाम से जानते है।
इसी कुल में वसुदेव के बड़े भाई समुद्रविजय राजा व महारानी शिवादेवी के पुत्र नेमकुमार हुए, जो 22 वे जिनेश्वर नेमिनाथ भगवान बने।
#बड़ीसाधुवंदना - 98
वली आर्द्र कुमार मुनि , स्थूलभद्र नंदिषेण ।
अरणक अइमुत्तो मुनीश्वरो नी श्रेण ।98।
अरणक मुनि : - नगर के धनाढ्य श्रेष्ठी दत्त व माता भद्रा के नन्हे पुत्र अरणक जी की कथा। एकबार दत्त के पड़ौसी के यहां हृदय द्रावक घटना बनी। उनका नन्हा पुत्र अचानक काल कवलित हो गया। यह देख दत्त सेठ का मन विरक्त हो गया। आज इस पड़ौसी के साथ अनहोनी हुई, कब किस समय मृत्यु मुझे जकड़ लेगी निश्चित नही। अब समय रहते मुझे सचेत हो जाना चाहिये, ताकि इस मानव भव का सदुपयोग कर जन्म मृत्यु के चक्कर से शीघ्र छूट सकुं ।
उन्होंने भद्रा से दीक्षा की अनुमति मांगी। भद्रा सही अर्थ में सहधर्मचारिणी थी। पति की विरक्ति भरी वाणी सुनकर आर्त ध्यान नही किया। उसने सहर्ष अनुमति दी और कहा : - आप सच मे महान है, आप के साथ-साथ मैं भी संसार के कीचड़ से निकलना चाहती हूँ, पर मुझे अब चिंता है तो इस बालक की।
माता के गर्भ के प्रभाव से पूर्व के कोई संस्कार होंगे जो नन्हा करीब 8 वर्ष उपरांत का बालक बोल उठा, हे अंबतात ! यदि संसार एक दलदल है तो मुझे आप दोनों इस दलदल में क्यों रखना चाहते हो? मैं आपके संयमग्रहण में अंतराय क्यों बनूं । मैं भी आपके साथ दीक्षा लूंगा।
दत्त व भद्रा माता अत्यंत हर्षित हो गये।
कुछ समय मे नगर में एक आचार्य पधारे। तीनो ने संयम अंगीकार किया। संयम व शिक्षा की आराधना शुरू हुई। पिता पुत्र मुनि साथ ही थे। माता साध्विजियो के संघ में थे।
पिता का पुत्र मुनि का मोह अभी खत्म नही हुआ था। गोचरी आदि सभी काम पिता ही करते थे। समय बीत रहा था। संयम आराधन चल रहा था। अचानक एक दिन दत्त मुनि कालधर्म को प्राप्त हुए। अन्य मुनियों ने अरणक मुनि को आश्वस्त किया।
कुछ समय बाद एकबार अरणक मुनि को प्रथम बार गोचरी जाने का अवसर आया। दिन का तीसरा प्रहर, आसमान से बरसती आग, मुंडित शरीर, नग्न पांव , गर्म तपी हुई राह। ऐसे में गोचरी हेतु निकले मुनि कुछ ही समय मे घबरा गए। सोचा कहीं छाव हो तो खड़ा रहकर विश्राम कर लु। ऐसे में एक बड़े भवन के वृक्ष नीचे खड़े रहे। तब उस गृह की मालकिन नगर वधु (गणिका ) ने उन्हें देखा। नवयुवान राजकुमार सा देह, ब्रह्मचर्य की आभा से चमकता ललाट, सुगठित देह , नगरवधू आकर्षित होकर भान भूली। मुनि को आराम व गोचरी का निमंत्रण दिया। मुनि को गणिका की मन:स्थिति पता नहीं चली लेकिन सहजता से गोचरी व विश्राम मिल रहा था । शायद उनका भोगावली कर्म का उदय था।
नगरवधू ने भी संयम की कठिनता बताकर, सुखकर भोगमय जीवन की लालच दिखाई। मुनि उस नाजुक पल में विवेक शून्य बन गये। नगरवधू का आमंत्रण स्वीकार कर वहीँ रह गए। भोग-विलास में डूब गए। कुछ समय बाद जब वे गुरु के पास नही पहुंचे तब उन्हें अन्य मुनि नगर में ढूंढने निकले। पर मुनि अब कहाँ मिलते। वह तो संसार मे खो चुके थे।
माता भद्रा साध्वीजी को यह सूचना मिली। अहो, मेरा पुत्र संयम से पतित तो नही हो गया होगा? या कोई अनहोनी तो नही हुई हॉगी? वे नगर में अरनक मुनि को ढूंढने निकली। विक्षिप्त जैसी अवस्था मे नगर में हर गली गली में जाकर जोर जोर से चिल्लाकर पुत्र मुनि को आवाज़ देने लगी।
भद्रा साध्वीजी गणिका के आवास से गुजरी। माता की आवाज़ सुनकर अरनक जाग उठे। नीचे आकर माता को देखा। मेरे जैसे पुत्र के लिए विक्षिप्त जैसी बनी हुई माता, उसका तमाशा देख रहे नगरजनो का समूह। और स्तब्ध हो गए। अहो मेरे पतन ने मेरे साथ मेरी माता साध्वी का भी बुरा हाल कर दिया। वे मोह नींद से जाग उठे। माता के चरणों के समीप जा गिरे । माता से माफी मांगी।
वहां से दोनो गुरु के पास आये। अरणक मुनि ने प्रायश्चित लेकर शुद्धि की। भद्रा माता पुत्र गुरु को सौंपकर साध्वी संघ में चले गये। अगर अरणक जी माता के चरणों में जा गिरते तो साध्वी जी को भी प्रायश्चित लेना था ।
बहुत वर्षो तक निरतिचार संयम पालन करते हुए अंत मे अरणक मुनि देवलोक के अधिकारी बने। बाद के अगले भवों में महाविदेह से सिद्ध बुद्ध मुक्त बनेंगे।
इस गाथा के 4 कथानक में एक समानता।
स्थूलभद्रजी दीक्षा से पहले व अन्य 3 दीक्षा के बाद में पतित हुए परन्तु मन मे संयम को मृत नही होने दिया। जरा सा निमित्त पाकर भी सावधान हो गये व पुनः संयम पर आरूढ़ हो गये।
धन्य उन मुनिविरो को।
#अतिमुक्तअणगार
एक बाल अतिमुक्त मुनि का कथानक हमने पढा , अन्य एक अतिमुक्त मुनि कंस के भाई थे। जब कंस ने मथुरा की सत्ता पाने के लिए उग्रसेनजी को बंदी बनाया तब इन्होंने विरक्त होकर दीक्षा ग्रहण की थी। गजसुकुमाल के वर्णन में हमने पढा की इन्होंने जीवयशा के अभद्र व्यवहार पर कंस की मृत्यु की भविष्यवाणी की थी।
पर बाद में इस गलती को समझकर उन्होंने पश्चाताप कर आलोचना ली। ये नेमप्रभु की दीक्षा से बहुत पहले की बात है। इनका ज्यादा वर्णन कहीँ पढ़ने में नही आया। कभी कहीँ मिला तो अवश्य पोस्ट करूँगा।
#बड़ीसाधुवंदना - 99
चोबीसे जिन ना मुनिवर , संख्या अठ्ठावीस लाख ।
ऊपर सहस अड़तालीस, सूत्र परंपरा भाख ।99।
कोई उत्तम वांचो, मोढे जयणा राख ।
उघाड़े मुख बोल्यां, पाप लागे इम भाख ।100 ।
धन्य मरुदेवी माता, ध्यायो निर्मल ध्यान ।
गज - होदे पायो, निर्मल केवलज्ञान।101 ।
इस अवसर्पिणी काल के तीसरे व चौथे आरे में भरत क्षेत्र में 24 तीर्थंकर हुए। उन सभी तीर्थंकर भगवंतों की निश्रा में रहनेवाले सन्तो की कुल संख्या इस गाथा में बतलाई गई है।
28, 48,000
जैसे हमारे शासन नायक के 14000 मुनिराज थे।
इन साधु संतों की यशोगाथा हम इस बड़ी साधुवन्दना में पढ़ रहे है। यहां जीवदया हेतु एक आगमोक्त सूचना दी गई है। हम जब भी कुछ क्रिया करे, वह अन्य जीवों को तकलीफ न हो उस तरह करे। जैसे बोलते समय वायुकाय के जीवों की रक्षा हेतु बोलते समय मुखवस्त्रिका का उपयोग करे। सामान्यतः रोज हर समय न करो तो जब कभी भी आगमवांचना, स्वाध्याय, सामायिक या इस स्तोत्र को हम पढ़े, वायुकाय के जीवों की दया पालने के लिए मुखवस्त्रिका का उपयोग अवश्य करे। हमारे जीवन में सबसे ज्यादा हम वायुकायिक जीवो को ज्यादा तकलीफ पहुचाते है। जयमलजी महाराज साहेब करुंणा दृष्टि - की हम भी पाप से बचे व वे जीव हत्या के पाप से बचे रहे। सामायिक व कम से कम कोई भी धार्मिक स्तोत्र आदि के पठन के समय हम मुँह पर मुँहपत्ति अवश्य रक्खे।
मरूदेवा माँ व प्रथम महासतीजी ब्राह्मी व सुंदरी
इस काल के हमारे प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की माता, अंतिम कुलकर नाभिराजा की पत्नी, भरत चक्रवर्ती की दादी।
रुषभदेव ने दीक्षा ले ली तब से माता उनके वियोग से दुखी थे। पर जब पुरीमताल नगर में शकट मुख उद्यान में ऋषभदेव को केवलज्ञान प्राप्त हुआ, तब भरत ने यह समाचार माता मरूदेवा को दिया । पुत्र के समाचार पाकर माता अत्यंत हर्षित हुई। पुत्र मुनि के दर्शन करने के लिए उत्सुक होकर वे राजमहल से निकले। वहां देवो द्वारा प्रथम देशना के लिए समोवसरण की रचना की थी।
समोवसरण क्या : -
तीर्थंकर प्रभु के केवल्यप्राप्ति के बाद प्रभु नियमा देशना देते है। उनकी प्रथम देशना में नियम से देवो द्वारा एक विशिष्ट, अति रमणीय, सुवर्ण - रजत तथा रत्नों से युक्त , ऊंचे सभास्थान की रचना करते है। जहाँ मध्य में प्रभुकी ऊंचाई से बारह गुना ऊंचे अशोक वृक्ष को केंद्र में रखकर तीन गोलाकार प्रकोष्ठ होते है। मध्यवर्ती प्रथम प्रकोष्ठ में देवता व मनुष्य की कुल 12 परिषदा के बैठने की व्यवस्था होती है। मध्य में रत्नमय पीठ पर देव छंदक में विराजमान , देशना दे रहे प्रभु का मुख सभी को अपनी और दिखाई दे ऐसी दैवी विशिष्ट रचना होती है।
दूसरे प्रकोष्ठ में तिर्यंच की तथा तीसरे प्रकोष्ठ में देवो के विमान, राजाओंके रथ आदि की व्यवस्था होती है। समोवसरण यह विशिष्ट स्थान है जहां जीव अपने जातिगत वैर को भूलकर प्रभु की अदभुत वाणी का श्रवण कर धन्य बनते है। तीनो प्रकोष्ठ की कुल ऊंचाई करीब अढाई कोस होती है। चार दिशाओं के द्वार पर 20,000 - 20,000 सोपान ( सीढियां ) होते है। इतनी सीढियां चढ़ने के बाद भी किसी को थकान नही लगती। कुछ हीं समय में बिना परिश्रम के (आज के समय में माॅल आदि जगह पर लगे Escalator की तरह) यह सब तीर्थंकर प्रभु का अतिशय की वजह से होता है।
अन्य समय भी जब देशना सुनने वालों का बहुत्व हो या अन्य किसी विशिष्ट प्रसंग पर देव समोवसरण की रचना करते है।
माता मरूदेवा हाथी पर बैठकर ऋषभदेव प्रभुके दर्शन के लिए समोवसरण में आते है। क्या होता है यह आगे....
#बड़ीसाधुवंदना - 100
धन्य मरुदेवी माता, ध्यायो निर्मल ध्यान ।
गज - होदे पायो, निर्मल केवलज्ञान।101 ।
धन्य आदिश्वर नी पुत्री ब्राह्मी सुंदरी दोय।
चारित्र लइ ने , मुक्ति गई सिद्ध होय। 102।
माता मरूदेवा हाथी पर बैठकर ऋषभदेव प्रभुके दर्शन के लिए समोवसरण में आते है। क्या होता है यह आगे....
हाथी पर बैठी माता दूर से समोवसरण में बिराजित प्रभु को देखते है। मुख पर अनेरी प्रभा थी। देखते ही माता को अत्यंत हर्ष हुआ। वे सोच रहे थे पुत्र कष्ट में है, पर यह तो एक अलग ही आनंद में है। माता को लगा था पुत्र मुझे देखकर अत्यंत हर्षित हो उठेगा। पर यह क्या, पुत्र ने तो एक सरसरी निगाह देखकर वापिस अन्यत्र देखने लगा। मैं इसके मोह में , वियोग से दुखी हो रही हूं पर यह तो वास्तव में निर्मोही बनकर बैठा है।
क्या मेरा उस पर प्रेम गलत है? अयोग्य है? यह चिंतन बढ़ता गया, सोचने की दिशा उर्ध्वगामी बनी। सच मे पुत्र तो निर्मोही बनकर संसार से परे हट गया। तो मैं क्यों राग में फंसकर भवभ्रमण बढाऊँ, इस संसार मे कोई किसी का नही, कुछ शाश्वत नही , तो अपना कल्याण क्यों न करे। उर्ध्वगामी बने चिंतन से माता धीरे धीरे शुक्लध्यान में प्रविष्ट बने। 4 घातिकर्म नाश कर केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। अन्य 4 कर्म भी क्षय हुए व माता मरूदेवा इस अवसर्पिणी काल मे इस भरत क्षेत्र से प्रथम मोक्ष पहुंचे ।
ब्राह्मी जी सुंदरी जी
प्रभु आदिश्वर की 2 पुत्री रत्ना।
ब्राह्मी जी ऋषभदेव तथा सुमंगला जी की पुत्री। जिन्हें सर्व प्रथम ब्राह्मी आदि 18 प्रकार की लिपियों का ज्ञान दिया । उसके बाद यह लिपिया सर्व जनों को उपयोगी बनी।
प्रभुके केवल्यप्राप्ति बाद प्रथम समोवसरण में ब्राह्मी ने संयम अंगीकार कर प्रभुकी प्रथम शिष्या बनी। उत्कृष्ट संयम पालन कर सिद्ध बुद्ध मुक्त हुई ।
सुंदरी जी
ऋषभदेव तथा सुनन्दा जी की पुत्री। जिन्हें सर्व प्रथम प्रभुने गणित का ज्ञान कराया। प्रभुके केवल्यप्राप्ति बाद इन्होंने भी विरक्त होकर भरत राजा से दीक्षा की अनुमति मांगी। पर मोहवश भरत ने उन्हें संयमाज्ञा नही दी। और भरत जी 6 खण्ड जीतने निकल गए।
सुन्दरीजी का संयम लेने का उत्कृष्ट मन था।पर भरत ने मोह वश आज्ञा नही दी तब भी वे निराश नही हुई। मोह के कारण रूप इस देह को ही में अरमणीय कर दु। उन्होंने भरत के वापस आने तक यानी 60,000 वर्ष तक आयंबिल की उग्राराधना की। तप से देह को अत्यंत कृश कर दिया। 6 खण्ड साधने के बाद जब भरतेश्वर ने वापिस आकर सुन्दरीजी का तप देखा समझा तब उन्हें संयम की आज्ञा दी। दीक्षा लेकर सुन्दरीजी भी संयम आराधना में लग गये।
सुन्दरीजी ने संयम ग्रहण कर तप आदि की उत्कृष्ट आराधना कर अंत मे सिद्ध बुद्ध मुक्त हुई।
#वीरा म्हारा गज थकी , नीचे उतरो
इन दोनों साध्वियुगल के संयमकाल की एक घटना यहां उल्लेखनीय है।
भाई भरत चक्रवर्ती से युद्ध के प्रसंग बाद बाहुबली जी ने उस समय ऋषभदेव प्रभु बिराजमान होते हुए भी स्वयं संयम ग्रहण कर लिया। उन्हें लगा कि यदि ऋषभदेव के पास गए तो पहले से दीक्षित होने से छोटे 98 भाई मुनि को मुझे वन्दन करना पड़ेगा। ( दीक्षा के बाद यह एक नियम है कि यहां संसारी जीवन की उम्र नही गिनी जाती। ज्येष्ठ वही , जिसने पहले संयम लिया। तो 98 भाई ने पहले दीक्षा ले ली थी। तो छोटे होते हुए भी संयम पर्याय में बड़े होने से वन्दन करना पड़ेगा। ) उनका यह अहंकार उन्हें प्रभुके पास जाने में रुकावट बना हुआ था। जब काफी महीने बीत गए तब ऋषभदेव ने ब्राह्मी सुंदरी आर्या को भेजकर बाहुबलीजी को प्रतिबोध दिया।
दोनो साध्वियुगल ने आकर बाहुबली मुनि को अहंकार रूप हाथी से नीचे उतरकर संयम में स्थिर होने का सुंदर उपदेश दिया। बाहुबली समझ गए। उन्हें अपनी भूल का एहसास हुआ। ध्यान शुद्ध से शुक्ल , परम शुक्ल बनता गया। और जैसे ही अहंकार का त्याग कर प्रभुके पास जाने के लिए कदम उठाया, उसी समय केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। बहन साध्विजीयो का सहयोग पाकर वे केवली बन ग
वली ढ़ंढण मुनिवर, कृष्ण राय ना नंद।
शुद्ध अभिग्रह पाली, टाल दियो भव फंद। 94।
अहो एक गाथा के इस कथानक में कितने संदेश ।
दृढ़ वैराग्य, निमित्त पाते ही चिंतन को उर्ध्वगामी बनाना, अंतराय कर्म की उग्रता तथा यह समझ आते ही उसे तोड़ने की उग्र आराधना करने का दृढ़ निर्णय।
द्वारिका नगरी के राजा श्रीकृष्ण वासुदेव की ढंढणा रानी का पुत्र ढ़ंढण कुमार । बालवय से ही तेजस्वी। कलाचार्य के पास अभ्यास किया। युवा अवस्था मे आते आते पुरुषों की 72 कलाओं में प्रवीण बने।
एकबार नेमप्रभु विचरण करते हुए द्वारिका नगरी पधारे। उनकी देशना सुनकर कुमार के मन मे दबा वैराग्य का बीज अंकुरित हुआ। प्रभुसे दीक्षा की आज्ञा मांगी। राजमहल आकर पिता कृष्ण वासुदेव से संयम ग्रहण की अनुमति मांगी।
दीक्षा की आज्ञा मिलना सहज नही है। यहां उद्देश्य सिर्फ परीक्षा का था। श्री कृष्ण ने उनके वैराग्य की कठिन परीक्षा ली। अनेक प्रलोभन दिए। तीन खण्ड के अधिपति बनाने का वचन दिया। पर अब ढंढण मुनि वैराग्य के पक्के रंग में रंग चुके थे।
आख़िर कृष्ण वासुदेव ने भव्य दीक्षा महोत्सव कर ढँढ़ण मुनि को संयम पथ पर जाने की अनुमति दी।
दीक्षा के समय उन्हें अट्ठम तप था। पारणे के दिन प्रातः आवश्यकी क्रिया बाद वे प्रभु आज्ञा लेकर गोचरी निकले। पर कहीं भी सूझती निर्दोष गोचरी का लाभ नही मिला। कहीं आंगन में पानी गिरा तो कहीं सचेत सब्जियों से लगा आहार। ऐसी कई अंतराय आई। आखिर उन्होंने प्रभुके पास आकर पुनः आहार के त्याग कर दिए। यानी चौथा उपवास ग्रहण कर लिया।
दूसरे दिन फिर जब गोचरी निकले तब भी यही हुआ। पुनः उपवास। ऐसे करते जब बहुत दिन हो गये पर उन्हें निर्दोष आहार नही मिला।
तब प्रभु ने उन्होंने बहुत भवो पहले बांधे अत्यंत तीव्र अंतराय कर्म अभी उदय में आया हुआ है यह कथा बताई।
हजारों भव पहले जब उनके अधीनस्थ 500 किसान खेत मे काम कर रहे थे। कठिन परिषह करने के बाद दोपहर में बैलों को आहार के लिए छोड़कर जब वे किसान खाना खाने बैठे तब जुल्मी मालिक ने आकर बिना खाये ही फिर काम पर लगने की आज्ञा दी। बैलों व किसानों को पुनः आहार से वंचित होना पड़ा। इस कृत्य का अफसोस की जगह आनन्द किया। और गाढ़ा अंतराय कर्म बन्ध किया।
जो इस भव उदय में आया।
प्रभु के मुख से अपने कर्म सुनकर मुनिवर ने उस कर्म को तोड़ने के लिए दृढ़ अभिग्रह लिया। अब जब तक अपनी लब्धि से आहार नही मिलेगा तब तक मैं अविरत तप करूँगा।
अब मुनिवर नगर जाते, खाली हाथ स्वस्थता से लौटकर पुनः तप में स्थिर हो जाते। ऐसे करते हुए 6 माह बीत चुके थे। मुनि का देह उग्र तप से अत्यंत कृश हो गया था ।अब उस कर्म का काल भी समाप्त होने आया था।
एकबार प्रभुने कृष्ण वासुदेव
से वहां उपस्थित सभी मुनियों में ढ़ंढण मुनि के उग्र तप की प्रशंसा की। फिर कृष्ण वासुदेव जब नगर में लौट रहे थे तब गोचरी हेतु गवेषणा कर रहे ढँढ़ण मुनि देखे। तब हाथी से नीचे उतरकर उन उग्र तपस्वी को वन्दन किया।
राजमार्ग पर कृष्ण को एक मुनि वन्दन करते हुए देख वहां उपस्थित एक हलवाई ने सोचा कि कृष्ण जिन्हें वन्दन कर रहे है वह मुनि अवश्य महात्मा होंगे। लाओ मैं उन्हें आहार बहोराउ। मुनि को दुकान पर लाकर निर्दोष लड्डू बहोराये।
ढंढण मुनि ने आहार लेकर अपनी विनय बताते हुए प्रभु को बताया।
उनके अभिग्रह से ज्ञात प्रभुने कहा - यह आहार आपकी लब्धि का नही, परन्तु कृष्ण वासुदेव ने तुम्हे वन्दन किया वह देखकर तुम्हे कोई महामुनि जानकर हलवाई ने आहार बहोराया है।
अपनी लब्धि का आहार नही यह जानकर प्रभु से आज्ञा ले कर लड्डू परठने निर्दोष स्थान पर आए। लड्डू का चूरा करते करते उनका चिंतन उर्ध्वगामी बना। धर्म शुक्ल ध्यान में प्रवेश किया और केवलज्ञान प्राप्त कर लिया।
कई वर्षो तक प्रभुके साथ केवली पने में विचरण किया। अंत में सिद्ध बुद्ध मुक्त बन गए।
#बड़ीसाधुवंदना - 83
वली स्कन्धक ऋषि ना, हुआ पांच सौ शिष्य ।
घाणी माँ पिल्या, मुक्ति गया तजी रिश ।96।
वैर का दुर्विपाक हमे कितने निर्दयी, कितने धृणित काम करने की और ले जाता है। तो इस गाथा से दूसरी बात यह भी देखने मिलेगी की कठोरतम उपसर्ग में भी समभाव रखकर हम मुक्ति मंजिल पा सकते है।
भगवान मुनिसुव्रत स्वामी के शासन की यह घटना है। श्रावस्ती नगरी के राजा जितशत्रु रानी धारिणी के एक पुत्र व एक पुत्री थी। पुत्री का नाम पुरंदर यशा था। जिसे कुंभकारट नगर के राजा दंडक के साथ ब्याही गई थी। राजकुमार स्कन्धक जैन धर्मानुरागी व विरक्त स्वभाव के थे।
एकबार दंडक राजा का मंत्री पालक किसी राजकीय वजह से श्रावस्ती नगरी के राज दरबार मे आया। पालक था तो ब्राह्मण कुल का, पर अत्यंत निर्दयी, जैन धर्म का विद्वैषी , मिथ्यामती था। राजदरबार में उस समय धर्म चर्चा चल रही थी। जैन तत्त्व के, जिनशासन की गुणगाथा गाई जा रही थी। तब पालक ने विक्षेप कर जिन विरोधी बाते करने लगा। राजकुमार स्कन्धक ने उसे तर्क संगत बातो से चुप करा दिया। स्कन्धक के मन मे कोई द्वेष नही था, पर पालक ने इसे अपना भीषण अपमान समझा। अवसर देखकर इस अपमान का अवश्य बदला लूंगा यह निर्णय कर लिया।
कुछ समय बीता । राजकुमार ने भगवान मुनिसुव्रतजी के पास संयम स्वीकार कर उत्कृष्ट आराधन करने लगे। उनके साथ उनके 500 मित्रो ने भी संयम लिया। सभी संयम में दृढ़ बने। उन 500 मुनियों की भी आराधना तीनो योग से चल रही थी। भगवान की निश्रा में रहकर विपुल कर्मो की निर्जरा करने लगे।
कुछ समय बीता, एकबार स्कन्धक मुनि ने भगवान से कुंभकारट नगर जाकर बहन बहनोई को प्रतिबोध देने की भावना व्यक्त की।
केवली सर्वज्ञ प्रभु ने भविष्य देखते हुए कहा : - वहां नारकीय वेदना का अनुभव होगा। तब मुनि ने पूछा - भगवान, हम आराधक बनेंगे या विराधक?
तब प्रभु ने फरमाया : - वे 500 मुनि आराधक और तुम विराधक बनोगे।
उन 500 मुनियों के लिए हर्ष व्यक्त कर स्कन्धक मुनि 500 शिष्यों के साथ कुंभकारट नगर आये । एक उद्यान में रहकर आराधना करने लगे। मुनि के आगमन का समाचार प्राप्त कर बहन मलय सुंदरी तथा बहनोई दंडक राजा अति प्रसन्न हुए। और मुनि के दर्शन करने आये।
प्रभु ने जो भविष्य बताया वह क्या होगा ?
आगे....
#बड़ीसाधुवंदना - 84
वली स्कन्धक ऋषि ना, हुआ पांच सौ शिष्य ।
घाणी माँ पिल्या, मुक्ति गया तजी रिश ।96।
पर विद्वेषी मंत्री पालक यह सुनकर वैर की आग से जल उठा। उसने पुराने वैर का बदला लेने के लिए एक षड्यंत्र रचा। बहुत सारे अस्त्र शस्त्र ले जाकर उस उद्यान में जमीन में गढ़वा दिए। और दंडक राजा के मन मे स्कन्धक मुनि के विरुद्ध विष भर दिया।
यह मुनि 500 शिष्यों के साथ आपका सिँहासन हड़पने आये है। राजा को उद्यान में अपने ही गाढ़े हुए शस्त्रादि निकालकर बताये। कच्चे कान का राजा उसकी बातों में आ गया। और पालक जो सजा उन मुनि के लिए निश्चित करे वह उन्हें देने की छूट दे दी।
अब पालक को मौका मिल गया।
उद्यान में जाकर स्कन्धक ऋषि व 500 शिष्यों को राजाज्ञा सुनाई, अपने अपमान की बात याद दिलाई।
तब मुनि ने कहा - हे पालक, उस दिन भी तुम पर कोई द्वेषभाव नही था, अभी भी नही। तुम जो चाहे हमारे साथ करो। हम अपने कर्मो का चूरा ही करेंगे।
पालक ने उद्यान में ही बड़ी घाणी ( तेल निकालने का यंत्र ) लगवाई।
स्कन्धक मुनि ने अपने 500 शिष्यों को आनेवाले उपसर्ग की सूचना दे दी। और इस उपसर्ग को मुक्ति मंजिल पाने का अवसर बनाने की प्रेरणा दी। 500 वीर मुनि ने गुरु आज्ञा स्वीकार की , समझा व उपसर्ग के लिए तैयार बने।
स्कन्धक मुनि ने कहा : - तुम्हारा वैर मुझ से है। पहले मुझे घाणी में डालना । तब नीच पालक ने कहा : - मैं तुम्हे मृत्यु से पहले वेदना दूंगा। तुम्हारे सामने तुम्हारे शिष्यों को पीला जाएगा। ताकि तुम दु:ख महसूस करो।
अहो दृढ़ता ।!!!
यह लिखते समय हाथ कांप रहे, आंखों से अश्रु बह रहे !,
कितना मजबूत होगा उनका मन
कितनी दृढ़ होगी जिनशासन पर , जिनवाणी पर उनकी श्रद्धा!
पालक ने यंत्र चालू करवाया।
एक एक मुनि को यंत्र में फेंकता गया। स्कन्धक मुनि सब मुनिविरो को मंगलपाठ सुना रहे है। कोई किसी पर राग न करे ना किसी पर द्वेष करे।
वातावरण करुण होते हुए भी जैसे वीरता का संग्राम बन गया। जहां एक घातकी पालक मंत्री, प्रतिकार तक नही कर रहे नि:शस्त्र मुनियों पर नारकीय वेदना दे रहा है। पर मुनि सब दृढ़ थे। ज्यो ज्यो मुनि को घाणी में डालते गये, वह मुनि शुक्लध्यान में प्रविष्ट होकर आठो कर्मो को खपाकर मोक्ष प्राप्त करने लगे। स्कन्धक मुनि भी अपने मित्र, शिष्य मुनि को घाणी में पिलाते देख हो रही वेदना को भीतर दबाकर समभाव रख रहे है। यह देखकर पालक को संतुष्टि नही हुई। वह स्कन्धक मुनि को लाचार, रोते, गिड़गिड़ाते हुए देखना चाह रहा था। उसके वैर को तभी आनन्द मिलता। पर यहां तो वातावरण विपरीत हो गया था। लाचारी, भय का नामोनिशान नही था। वह अपनी दृष्टता बढ़ाता गया। पर मुनि गण अपनी क्षमता बढ़ाता गया।
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बड़ी साधुवंदना - 85
वली स्कन्धक ऋषि ना, हुआ पांच सौ शिष्य ।
घाणी माँ पिल्या, मुक्ति गया तजी रिश ।96।
एक एक कर 499 शिष्य ने घाणी में अपने कर्मो को पीस कर मोक्ष प्राप्त कर लिया। अंत मे एक बाल मुनि व स्कन्धक मुनि शेष रहे। स्कन्धक मुनि ने कहा : - तुमने अपनी इच्छा पूरी की अब इस बाल मुनि को पिलाते, वेदनाग्रस्त होते मैं देख नही पाऊंगा। तुम मुझे पहले घाणी में डलवा दो। घातकी पालक कहां मानने वाला था।
उसने बाल मुनि को उठवाया और घाणी में फेंक दिया।
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न भूतों न भविष्यति
ऐसा बीभत्स करुण दृश्य कभी किसी ने देखा न होगा। बाल मुनि अपने भाव मे दृढ़ बने। वेदना में भी समभाव रखकर वे शुक्लध्यान में आरूढ़ हुए। सर्व कर्म खपाकर सिद्ध बुद्ध मुक्त बन गए।
पर हाय रे हमारी कषायाग्नि । अंतिम बाल मुनि के समय स्कन्धकमुनि की वेदना ने कषाय का स्वरूप ले लिए। पालक की नीचता की पराकाष्ठा ने प्रभाव दिखा दिया। मुनि क्रोधित हुए। उन्हें घाणी में डाला गया । मुनि ने वेदना से नही घबराये पर पालक की नृशंसता से नही बचे। उन्होंने अंतिम समय आलोचना की जगह निदान कर लिया। अपने सर्व तप के फल स्वरूप पालक व पूर्ण नगर को जलाने का निदान कर लिया।
विराधक भाव मे काल कर मोक्ष या उच्च देवलोक की जगह अग्निकुमार जाती के देव बने।
तुरन्त अवधिज्ञान में अपना पिछला भव देखकर कुंभकारट नगर आये।
मलयसुन्दरी को जब इस घटना का पता चला तब वह दुखी हुई पर इस दुख ने उसे विरक्ति जगाई ओर देवी सहायता से भगवान के पास पहुंचकर संयम स्वीकार कर लिया। दंडक राजा को भी अपनी भूल का पश्चाताप हुआ। पर अब सब व्यर्थ था।
देव बने स्कन्धक ने नगर पर तीव्र अग्नि वृष्टि की। सारा नगर , प्रजा सहित कुछ ही समय मे भस्मीभूत बन गया।
एक छोटे से प्रसंग में अपना अपमान समझ कर पालक ने कितना बड़ा नरसंहार करवा दिया।
😢😢😢
इस घटनाक्रम को शब्दों में उतारते समय जो अनुभूति हुई उसका वर्णन असंभव है। जिनशासन के इन शूरवीरों के प्रति हृदय सदा नतमस्तक रहेगा।
बड़ी साधुवंदना - 86
संभुत्ति विजय - शिष्य , भद्रबाहू मुनिराय ।
चौदह पूर्व धारी, चन्द्र गुप्त आण्यो ठाय ।97।
आचार्य भद्रबाहूजी,
आचार्य यानी 8 संपदा से युक्त, तीर्थंकर भगवान के निर्वाण बाद जिनशासन के नायक, समस्त संघ को जिनेश्वर प्रारूपित मार्ग पर लाने, बढ़ाने व दृढ़ करने वाले महान उपकारी । जिन्हें हम नवकार महामंत्र में तीसरे पद में वन्दन करते है।
वर्तमान जिनशासन के प्रथम युगप्रधान आचार्य सुधर्मास्वामी के बाद जंबूस्वामी, प्रभवजी, आर्य शय्यंभव, पांचवे पट्टधर आचार्य आर्य यशोभद्र हुए। यहां तक सभी आचार्य ने अपने कालधर्म से पहले एक उत्तराधिकारी घोषित किया ।
वीर निर्वाण के 148 वे वर्ष में अपने अंतिम समय को जानकर आर्य यशोभद्र ने अपने 2 मुख्य शिष्यों को उत्तराधिकारी बनाया। आर्य संभुत विजयजी तथा आर्य भद्रबाहूजी।
नही, यह जैन संघ का विभाजन कतई नही था। जैन संघ के विभाजन के लिए इन महामुनि को कारणभूत मानना उनके प्रति अन्याय होगा।
विभाजन की शुरुआत इस समय के कई वर्षों बाद काल के प्रभाव से हुई।
आर्य भद्रबाहूजी का विनय और शासन के प्रति पूर्ण श्रद्धा व अहोभाव ही था, जो उत्तराधिकारी बनने के बाद भी अपने बड़े गुरूभ्राता संभुतिविजय जी की निश्रा में ही रहकर 8 वर्ष तक संघ की उत्कृष्ट सेवा करते रहे। आर्य संभुत्ति के बाद वीर निर्वाण संवत 156 में जैन संघ की बागडोर उन्होंने संभाल ली। आजकल छोटे से पद की सत्ता के लोलुप हम मनुष्यो के लिए यह प्रेरणाजनक।
वीरशासन के भव्य इतिहास में आर्य भद्रबाहूजी का नाम उल्लेख बड़े अदब, बड़े मान से लिया जाता है। जिनशासन के लिए इनका समर्पण अतुल्य रहा।
प्रतिष्ठानपुर के ब्राह्मण परिवार में जन्मे भद्रबाहूजी ने 45 वर्ष की उम्र में वीर निर्वाण संवत 139 में आर्य यशोभद्र जी से संयम स्वीकार किया।
इन्होंने ज्ञान की उत्कृष्ट आराधना की। आचारांग आदि 10 आगम की निर्यूक्तियाँ, 4 छेद सूत्र की रचना, उपसर्गहर स्तोत्र ( उवसग्गहरं ), भद्रबाहु संहिता, वसुदेव चरित्र आदी उत्कृष्ट आगम व ग्रन्थ की रचना की।
उवसग्गहरम की रचना की पोस्ट आगे हम पढ़ चुके है।
इन्ही आचार्य ने स्थूलभद्रजी को दो वस्तु कम दस पूर्वो का संपूर्ण तथा अंतिम 4 पूर्व की मूल की वांचना का ज्ञानदान दिया था। इस तरह पूर्व का ज्ञान विनष्ट होने से बचाया।
12 वर्ष तक महाप्राण - ध्यान के रूप में उत्कट योग की साधना भी की। वीर निर्वाण संवत 156 से 170 तक देश के विभिन्न भागों में विचरण कर जिनशासन का उत्कर्ष किया।
वराह मिहिर इनके ही भाई थे।
आचार्य भद्रबाहूजी का जीवन विशाल कथानकों से भरा है। इन पांचवे श्रुत केवली ( 12 अंग 14 पूर्व के संपूर्ण ज्ञाता को केवली जैसा यानी श्रुत केवली कहा जाता है। ) की संघ के लिए ज्ञान प्रदान की उच्च महिमा कई ज्ञानियों ने गाई है।
आर्य भद्रबाहूजी नाम के आचार्य एक से ज्यादा होने तथा उस समय का पूर्ण वर्णन नही मिल पाने से ऊनसे जुड़े कथानकों में मतभेद मिलता है।
पर एक बात सर्वमान्य है कि आर्य भद्रबाहूजी जैन संघ के एक महान आचार्य हुए।
आर्य भद्रबाहूजी एकबार विहार करते हुए उज्जयनी नगर पधारे। तब वहां के शासक सम्राट चन्द्रगुप्त मुनि के दर्शन करने आये।
अवसर देखकर उन्हें हाल ही में देखे 16 स्वप्नों का अर्थ पूछा।
भद्रबाहूजी से उन स्वप्नों के स्पष्ट उत्तर पाकर चन्द्रगुप्त राजा विरक्त हुए। व उन्होंने संयम अंगीकार किया।
उन 16 स्वप्न में क्या है .....?
#बड़ीसाधुवंदना - 87
संभुत्ति विजय - शिष्य , भद्रबाहू मुनिराय ।
चौदह पूर्व धारी, चन्द्र गुप्त आण्यो ठाय ।97।
चन्द्र गुप्त राजा को आये 16 स्वप्न में क्या है तथा आर्य भद्रबाहूजी ने उसका क्या अर्थ बताया यह आज हम देखते है। एक एक स्वप्न से अब इस क्षेत्र का भविष्य क्या होगा यह बतलाया गया है।
आनेवाले काल का भविष्य इन स्वप्नों में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। उनके ज्ञान की सच्चाई आज के परिप्रेक्ष्य में हम महसूस कर सकते है।
1 - अस्त होता सूर्य : श्रुत ज्ञान बहुत कम हो जाएगा।
2 - कल्पवृक्ष की भग्न शाखा : अब कोई राजा दीक्षा नही लेगा ।
3 - छलनी जैसा छिद्र युक्त चन्द्र : जैन धर्म मे अनेक मतों का उदभव होगा।
4 - बारह फन वाला सर्प : बारह वर्ष का भीषण दुष्काल ।
5 - उल्टे लौटते देवविमान : इस काल मे वैमानिक देव, विद्याधर, चारण मुनि भरत क्षेत्र में नही आएंगे।
6 - अशुचि युक्त स्थान में उगा कमल : उत्तम कुलोत्पन्न की जगह हीन कुल जाति के लोग जैन धर्म के अनुयायी होंगे।
7 - भूतों का नृत्य : अब मनुष्यो में अधोजाति के देवो के प्रति श्रद्धा ज्यादा हॉगी।
8 - खद्योत का उद्योत : जैनागमो के उपदेश देनेवालों में भी मिथ्यात्व रहेगा, जैन धर्म कहीँ कहीँ ही होगा।
9 - बीच मे सूखा, किनारों पर छिछरा जल वाला सरोवर : जिन पवित्र स्थानों में तीर्थंकरों के पंच कल्याणक हुए वह स्थान में जैन धर्म विनष्ट होगा और दूर के क्षेत्रों में जैन धर्म थोड़ा थोड़ा होगा।
10 - कुत्ते का स्वर्ण थाली में खीर खाना : लक्ष्मी का उपयोग प्रायः नीच पुरुषों करेंगे। कुलीन लोगो को लक्ष्मी दुर्लभ बनेगी।
11 - हाथी पर बैठा बंदर : अनार्य लोग राजा बनेंगे व क्षत्रिय राजरहित होंगे।
12 - समुद्र का सीमा उल्लंघन : राजा न्याय का उल्लंघन करने वाले, प्रजा की लक्ष्मी को लूटने वाले होंगे।
13 - बछड़ों द्वारा वहन किया जा रहा अतिभारयुक्त रथ : ज्यादातर लोग युवावस्था में संयम ग्रहण करेंगे और वृद्धावस्था में दीक्षा कम हॉगी।
14 - ऊंट पर बैठा राजकुमार : राजा निर्मल सत्य धर्म त्याग कर हिंसात्मक मार्ग अपनायेंगे।
15 - धुली से आच्छादित रत्न राशि : भविष्य में निर्ग्रन्थ मुनि भी एक दूसरे की निंदा करेंगे।
16 - 2 काले हाथियों का लड़ना : बादल व मनुष्यो का सूचक यानी बादल मनुष्यो की इच्छा अनुसार नही बरसेंगे।
इनमें से बहुत सी वाणी आज सत्य होते दिखाई दे रही है। जो भद्रबाहूजी का उच्च नैमित्तिक ज्ञान बता रहा है।
धन्य जिनशासन।
बड़ी साधुवंदना - 88
वली आर्द्रकुमार मुनि , स्थूलभद्र नंदिषेण ।
अरणक अइमुत्तो मुनीश्वरो नी श्रेण ।98।
इस गाथा में 5 मुनियों के नाम वर्णित है। हम क्रमशः इनकी कथा देखेंगे।
आर्द्र कुमार - 1
पिछली पोस्ट में भरत क्षेत्र से 10 विलुप्त चीजों का हमने पढा।
कुछ ने जिज्ञासा व्यक्त की : - यदि इस भव यहां से मोक्ष मिल ही नही सकता तो अभी धर्म और धर्म क्रिया क्यों करना ?
इसका जवाब हमें इसी साधुवन्दना की इन गाथा में मिल जाता है।
धर्म एक सीढ़ी है, जिससे हमें मुक्ति मंजिल को प्राप्त करना है।
ऐसा नहीं की सब जीव एक ही भव में यह सीढ़ी पूरी चढ़ जाए।
कई भवों की यह साधना होती है। उस भव में सम्यक ज्ञान के साथ की गई धर्म क्रिया हमें उस सीढ़ी पर ऊपर ही ले जाएगी। जिससे अगले भवो में हमें शीघ्र मुक्ति सुलभ होगी। और एक लाभ तो अभी भी है ही : - धर्म युक्त व्यक्ति दुर्गति में नही जाएगा। जहाँ आर्त रौद्र ध्यान से हम कर्म बंधन बढ़ाये।
धर्म हमें इस लोक के साथ ही अगले भवो की भी सुरक्षितता प्रदान करता है।
धर्म के संस्कार यदि एक बार दृढ़ बना लिए है तो अगले भव में भी या अनार्य क्षेत्र में जन्म लेकर भी हम मुक्ति मंजिल प्राप्त कर सकते हैं । इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है अनार्य क्षेत्र में जन्मे आर्द्र कुमार।
पूर्व भव में आर्द्र कुमार के जीव ने संयम स्वीकार किया, पर कुछ समय बाद योग ऐसा बना की साथ ही साध्वी बनी पूर्व पत्नी को देखकर पुरानी वासना जाग्रत हुई।
धर्म में दृढ़ साध्वीजी ने अपने तथा पूर्व पति के संयम को बचाने के लिए संथारा लेकर समाधिमरण को चुन लिया। इससे मुनि को आघात लगा और वे भी काल कर गए।
काल कर मुनि एक अनार्य देश आर्द्रक देश जो कि समुद्र में एक द्वीप था उसके राजा आर्द्रक के यहां राजकुमार बने। अनार्य देश : - जहां के लोगो को धर्म की समझ नही होती। मोक्ष आदि तत्त्वों की श्रद्धा तो दूर, समझ तक नही होती। राजकुमार आर्द्र बड़े हुए।
मगधराज श्रेणिक के मित्र आर्द्रक राजा के यहां श्रेणिक के कुछ दूत आये । राजदरबार में मगध देश की बाते हुई। राजकुमार अभयकुमार की अदभुत बुद्धि की बात हुई । वहां राजकुमार आर्द्र भी थे। जब दूत वापिस जाने लगे तब राजा ने श्रेणिक राजा के लिए कुछ भेंट दी। राजकुमार आर्द्र ने भी अभयकुमार के लिए मित्र बनाने के उद्देश्य से कुछ वस्तुए भेंटस्वरूप पहुंचाई।
यह भेंट जब मगध में राजा व अभयकुमार के पास पहुंची तब अभयकुमार को अनायास लगा कि अवश्य यह कोई भव्य जीव है। अभयकुमार जिनधर्मानुरागी जीव थे ही। उन्होंने अनार्य देश मे जन्मे राजकुमार के उत्थान समझकर, उन्हें प्रेरणा देने के लिए धार्मिक उपकरणों की भेंट भेजी।
आर्द्र कुमार धार्मिक उपकरणों को देख, उसमे रहे रजोहरण, मुखवस्त्रिका आदि देखकर स्तंभित और फिर मूर्छित हो जाते है। पुनः शुद्धि पर उन्हें जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त होता है। पूर्व भव में पाले संयम, पत्नी साध्वी जी को देखकर पतन आदि सब वृत्तांत याद आ जाता है।
अब वे क्या करेंगे?
आगे ...
बड़ी साधुवंदना - 90
वली आर्द्र कुमार मुनि , स्थूलभद्र नंदिषेण ।
अरणक अइमुत्तो मुनीश्वरो नी श्रेण ।98।
स्थूलभद्रजी - 1
मंगलम भगवान विरो, मंगलम गौतम प्रभु ।
मंगलम स्थूलीभद्राद्याम, जैन धर्मोस्तु मंगलम।
इस गाथा में हर मंगल प्रसंग में वीर प्रभु, गौतम स्वामी के साथ हम जिन्हें याद करते है ऐसे : स्थूलभद्रजी ।
जिनशासन का एक और अदभुत उच्च कोटि के संयमधारी महापात्र
कहते हैं , काजल की कोठरी में रहकर कौन बिना दाग लगाए निकल सकता है। पर कामविजेता स्थूलिभद्र जी ने यह कर दिखाया था। कामविजेता का यह बिरुद उन्हें कैसे दिया गया, जिनशासन के ज्ञान भंडार को उन्होंने कैसे आगे बढ़ाया, यह हम आगे देखते है।
पर एक बात निश्चित है , जैन इतिहास में स्थूलभद्रजी का नाम एक महान मुनि के रूप में अमर हो गया।
इनके जीवनचरित्र में इतने चढ़ाव उतार है, कि उसे लेखन करे तो एक बड़ा पुस्तक बन सकता है। हम अति संक्षिप्त में उनकी जीवनी देखते है।
श्रेणिक के पिता प्रसन्न चन्द्र ने मगध की नई राजधानी के रूप में राजगृही को बसाया, कोणिक ने चंपानगरी और कोणिक पुत्र उदायी ने मगध की राजधानी के लिए पाटलिपुत्र नगर बसाया।
उदायी की मृत्यु के बाद मगध का शासन नंद वंश के पास आया। उसी नन्द वंश के एक राजा के यहां ब्राह्मण कुल के , पर दृढ़ जिनधर्मानुरागी ऐसे शकडाल जी महामंत्री का पद शोभीत कर रहे थे।
शकडाल मंत्री बाहोश व कुशल राज नीतिज्ञ थे। राज्य में उनका वचन राजा के समकक्ष माना जाता था। राजदरबार उन दिनों सत्ता के लिए षड्यंत्रों से उलझा हुआ था, पर महामंत्री शकडाल के कार्यो से सब कुशल चल रहा था।
शकडाल मंत्री के परिवार में 2 पुत्र स्थूलभद्र व श्रीयकजी तथा 7 पुत्रियां थी। यक्षा, यक्ष दिन्ना, भूता, भूतदिन्ना, सैना, वेणा, रेणा। स्थूलिभद्र बचपन से वैरागी भाव के थे परन्तु युवा होते नगर की रूपसुन्दरी नर्तकी कोशा के संपर्क में आने के बाद जीवन की दिशा भूलकर कोशा के यही रहने लगे थे। छोटा पुत्र श्रीयक आज्ञाकारी था , वे अब युवा बन पिता के साथ राजदरबार में जाने लगे थे।
अपार बुद्धिमत्ता, अदभुत स्मरण शक्ति शकडाल जी की 7 पुत्रियों की विलक्षणता थी । यक्षा जी कोई भी सूत्र स्तोत्र एक बार सुनने पर ही कंठस्थ कर लेते थे यक्षदिन्ना 2 बार, ऐसे क्रमश: सभी बहनें 3, 4, 5, 6 व 7 बार सुनने पर कोई भी स्तोत्र याद कर लेते थे।
राजदरबार में राजकीय खटपटों के माहौल में वररुचि नाम का एक लोभी ब्राह्मण राजनिष्ठ शकडाल का वैरी बना हुआ था।
वह रोज एक नया स्तोत्र बनाकर राजा की उदारता का लाभ उठाकर 108 स्वर्णमुद्रा प्राप्त करता था। राजकोष की चिंता में शकडाल ने कुछ दिन तो उसे माफ किया, पर जब लोभ बढ़ने लगा, तब अपनी 7 पुत्रियों को राजदरबार में ले गए। और राजा से कहा कि वररुचि पुराने सुने सुनाये स्तोत्र आपको सुना रहे है। ये स्तोत्र तो बच्चे भी जानते है। तब राजा ने वररुचि की परीक्षा ली। वररुचिने राजदरबार में अपना नया स्तोत्र सुनाया। एक बार सुनकर याद कर लेने वाली यक्षा ने वह स्तोत्र सुनाया। फिर क्रमशः सभी लड़कियों ने सुनाया तब राजा को शकडाल पर विश्चास हो गया और वररुचि को इनाम देना बंद कर दिया। वररुचि अब शकडाल का पक्का वैरी बन गया।
इस तरह वररुचि के अन्य षड्यंत्रों को शकडाल ने विफल किया।
पर एक बार वररुचि ने अपनी धूर्तता से शकडाल को आपत्ति में डाल ही दिया !
क्या हुआ था ....?
बड़ी साधुवंदना - 91
वली आर्द्र कुमार मुनि , स्थूलभद्र नंदिषेण ।
अरणक अइमुत्तो मुनीश्वरो नी श्रेण ।98।
स्थूलभद्रजी - 2
एक प्रसंग में वररुचि ने नंद राजा को भ्रमित कर दिया। शकडाल के यहां एक शुभ प्रसंग पर उन्होंने अपने सभी रिश्तेदारों को आमंत्रित किया। उन्हें भेंट देने के लिए शस्त्र आदि बनवाये। यह मौका वररुचि कैसे छोड़ता। बहुत शातिरता से उसने राजा का मन शकडाल की ओर से दूषित कर दिया।
तब राजा के क्रोध से अपने परिवार की सुरक्षा करने का लक्ष्य रखकर श्रीयक को शकडाल ने आदेश दिया कि भरी सभा में तुम मुझे तलवार से मार देना। भारी मन से श्रीयक ने पिता की आज्ञा का पालन किया।
राजा को विश्वास हुआ। शकडाल कि मृत्यु के बाद मंत्री पद संभालने के लिए गणिका कोशा के यहां रह रहे स्थूलभद्रजी को बुलाया गया। पर पिता की इस अकाल मृत्यु ने स्थूलभद्रजी को अत्यंत स्तब्ध कर दिया था । उनकी सोच बदल गई। यह भोग सुख, यह राजनीति यह वैभव सब परवशता को उत्पन्न करने वाले साबित हुए। उनका चिंतन पूरा बदलकर आत्मलक्ष्य की ओर मूड गया। अब संसार से उदासीन व संयम लेनेको उत्सुक हो गये।
सोचिए जरा : - जब हमें छोटा सा कोई लौकिक लाभ हो रहा हो तब हम क्या धर्म का सोचते है? स्थूलभद्रजी ने इतने बड़े पद की प्राप्ति पर भी संयम ग्रहण का निर्णय लेते है।!!
अदभुत चिंतन।
उन्होंने सब वैभव सुख, अपनी स्नेही कोशा नर्तकी को छोड़कर आचार्य संभुतिविजय के पास श्रमण दीक्षा अंगीकार कर ली।
संयम चर्या के संपूर्ण व निर्दोष पालन के साथ ही गुरु सेवा, अन्य स्थविरो की वैयावृत्य के साथ ही मुनि स्थूलिभद्र जी आगम अध्ययन करने लगे।
इस प्रसंग में कोशा के लिए भी मन में कोई अविचार न करना। गणिका होना यह उसके माता द्वारा दिया गया व्यवसाय था, परन्तु उसने स्थूलिभद्र में ही अपना स्नेह सीमित कर लिया था। उसका हृदय भोगविलासिता में पली बढ़ी होते हुए भी अंतर में वफादारी का दृढ़ गुण उपस्थित था। स्थूलिभद्र जी की दीक्षा उनके लिए आघात जनक थी। उस बुरे समय मे उदार स्वभावी श्रीयक ने आश्वासन देते हुए उन्हें संभाल लिया था।
स्थूलिभद्र जी की दीक्षा के बाद श्रीयक का मन भी विरक्ति में ही डूबा था ,परन्तु राजा का आग्रह आदि देख वे दीक्षा नही ले पाए। राज्यकार्य में प्रवीणता से राजा नंद के विश्वासु व सन्माननीय बन गए। अपनी कपटलीला पूरी हुई देख वररुचि मदमस्त हो गया। गलत राहों पर चलकर मद्यपान, वेश्यासंसर्ग आदि में डूब गया। अपकीर्ति का हकदार बनकर कुछ समय में ही बुरी तरह काल को प्राप्त हुआ।
कुछ वर्षों में ही पहले 7 बहनों ने फिर श्रीयक ने भी दीक्षा अंगीकार कर ली।
यक्षा जी आदि की उत्कृष्ट संयम निष्ठा, क्रिया भी इतिहास में सुवर्णाक्षरो में उल्लेखित है।
स्थूलिभद्र जी की कथा आगे बढाने से पहले उन महासतीजी के लिए प्रसिद्ध एक किवदन्ति समझते है।
श्रीयक जी ने संयम अंगीकार किया। सभी क्रिया वे उत्कटता से पालते थे, परन्तु किसी अंतराय कर्म के उदय से वह कुछ भी तप नही कर पाते थे।
एक संवत्सरी के दिन यक्षा जी महासतीजी ने उन्हें एकासन के लिए प्रेरणा दी। श्रीयक मुनि ने साहस कर एकासन किया। दोपहर तक उन्हें अनुकूल लगा तब महासतीजी ने उपवास की प्रेरणा दी। परन्तु रात पूरी होते होते वे कालधर्म को प्राप्त हो गए। सुबह जब पता चला ,
यह आघात यक्षा जी के लिए दुष्कर हो गया। मेरी वजह से भाई मुनि की मृत्यु हुई इस संताप से वे पीड़ित हो गये।
उन्होंने अन्न जल का त्याग कर दिया। पूरे संघ ने उन्हें निर्दोष मानकर, बहुत समझाया पर यक्षा जी संतुष्ट नही हुई। आख़िरकार संघ ने शासनदेवी की आराधना की। देव प्रकट हुआ और उनकी सहायता से यक्षा साध्वी जी महाविदेह में स्थित सीमंधर स्वामी के पास पहुंची। उन्होंने यक्षा जी को निर्दोष बताया। तब उन्हें तसल्ली हुई। प्रभुने 4 अध्ययन उन्हें दिए। यक्षा जी महाविदेह क्षेत्र से वापिस आये। वे 4 अध्ययन आज चूलिका के रूप में स्थापित है।
स्थूलभद्रजी व यक्षा जी का एक और प्रसंग आगे आएगा।
बड़ी साधुवंदना - 92
वली आर्द्र कुमार मुनि , स्थूलभद्र नंदिषेण ।
अरणक अइमुत्तो मुनीश्वरो नी श्रेण ।98।
स्थूलिभद्र जी - 3
संयम अंगीकार करने के बाद पूर्ण भाव से स्थूलिभद्र जी आराधना करने लगे अविरत श्रम के बाद उन्होंने 11 अंग में निष्णातता प्राप्त कर ली।
साधु जी के 10 कल्प में एक कल्प है चातुर्मास। एक साल में 8 महीने विहाररत साधु जी जीव दया के लिए 4 माह वर्षाकाल में एक स्थान में रुककर विशेष आराधना करते है।
एकदा संभुतिविजय जी के 3 शिष्यों ने इन 4 माह के उपवास के व उत्कट अभिग्रह के साथ चातुर्मास बिताने की आज्ञा मांगी। प्रथम मुनि ने सिंह की गुफा के आगे, दूसरे मुनि ने दृष्टिविष सर्प के बिल के पास, तीसरे मुनि ने कुएं के पास स्थित रहकर उपवास के साथ चातुर्मास बिताने का अभिग्रह लिया। गुरु ने आज्ञा दी। तब स्थूलिभद्र जी ने भी गुरु को शीश झुकाते हुए वन्दन किया। स्वयं के लिए कोशा नर्तकी के घर में , कामोद्दीपक वातावरण, उत्तेजित करने वाली चित्रशाला में रहकर सभी रसों के युक्त भोजन करते हुए चातुर्मास बिताते हुए विकारों से दूर रहने की साधना करने की अनुमति मांगी। स्थूलिभद्र जी का साधना का एक उत्कृष्ट अभिग्रह था। काजल की कोठरी से कालांश लिए बिना बाहर निकलना असंभव था। गुरु ने उन्हें योग्य समझ कर आज्ञा दी।
गुर्वाज्ञा प्राप्त कर चारो अपने स्थान के लिए अग्रसर हुए।
मुनि स्थूलिभद्र जी पुरानी प्रेमिका नर्तकी कोशा के घर आकर विषयिक कामभोगो के चित्रों से भरी हुई चित्रशाला में आकर चातुर्मास बिताने की आज्ञा मांगी।
नर्तकी कोशा तो उनमे अनुरक्त थी ही, अब प्यासे को कुआँ ही मिल गया। उसने सहर्ष आज्ञा दी।
कोशा के मन मे रहे मोह ने अब कोशा को प्रियतम को पाने के लिए उत्सुक किया। 4 मास में कोशा ने स्थूलिभद्र जी को पुनः कामभोगो की ओर मोड़ने के भरपूर प्रयत्न किए। कभी पाश तो कभी विकारी नृत्य, कभी दुख जताकर कभी पुरानी कामलीलाओ का स्मरण दिलवाकर, भोजन में विकारी भोजन देकर तो कभी अन्य प्रयास किये। पर स्थूलिभद्र जी अपनी साधना में अडिग रहे। अपने लक्ष्य को ध्यान में रखकर उत्कट धर्माराधना करते रहे। सभी उपसर्गो को जीतकर आखिरकार चातुर्मास पूर्ण किया।
कोशाने विनयपूर्वक पश्चाताप व्यक्त किया। अपनी सभी करतूतों के लिए क्षमा मांगी। स्थूलभद्रजी से उपदेश पाकर वह श्राविका बनी।
चातुर्मास पूर्ण होने पर चारो अभिग्रह धारी मुनि गुरु के पास लौटे । आचार्य संभुतिजी ने ऊपर के वर्णित तीनों मुनियों की साधना को दुष्कर बताकर उनका अभिवादन कर स्वागत किया । पर जब अंत मे स्थूलिभद्र को अति दुष्कर साधना के सफल आराधक बताया तब तीनो मुनियों के मन मे थोड़ा ईर्ष्याभाव आया। एक गणिका के घर, आराम से रहे, रोज सब रसों का भोजन करने वाले की साधना हम से दुष्कर कैसे।
इस ईर्ष्याभाव के चलते सिंह गुफा वासी मुनिने अगले चातुर्मास आने पर गुरुदेव से कोशा के यहां चातुर्मास बिताने की आज्ञा मांगी।
गुरु समझ गए कि योग्यता न होने पर भी मात्र ईर्ष्याभाव से यह मुनि स्थूलभद्रजी की स्पर्धा करना चाहते है। गुरु ने उन्हें समझाया कि यह साधना सिंह की गुफा के आगे 4 माह के उपवासी रहने से भी अति दुष्कर है।
बहुत समझाने पर भी वे मुनि अपनी इच्छा पर अड़े रहे। गुरु ने साफ मना किया तब उनकी अनुमति बिना हीं वे कोशा के यहां पहुंचे।
स्थूलिभद्र जी की साधना देख कोशा ने सहर्ष उन्हें अनुमति दी।
आगे क्या होगा???
#बड़ीसाधुवंदना - 93
वली आर्द्र कुमार मुनि , स्थूलभद्र नंदिषेण ।
अरणक अइमुत्तो मुनीश्वरो नी श्रेण ।98।
स्थूलिभद्र जी - 4
कोशा ने पूर्व में सिंह की गुफा के पास सफलतम चातुर्मास कर चुके मुनि को चित्रशाला में रुकने की अनुमति दी।
मुनि की परीक्षा हेतु कोशा ने सुंदर विकार वर्धक भोजन करवाया। उस विषयी चित्रशाला में सजधज कर आकर्षक वेशभूषा में कोशा आई।
बस इतना ही पर्याप्त था , मुनि के पतन के लिए। कोशा को देखकर ही मुनि विषयाक्त हो गये और भोग की कामना की।
तब स्तब्ध कोशा ने उन्हें सही मार्ग पर लाने के लिए एक उपाय किया। उसने मुनि से कहा कि वह स्वयं वारांगना है, धन के बिना कुछ नही देती। यदि उसे कोशा से भोग चाहिए तो धन लाना होगा। और उसका उपाय भी बताया, कि नेपाल के क्षितपाल राजा नये साधुओको रत्नकंबल देते है, तुम मुझे वह लाकर दे दो।
मुनि विषय मे भान भूले। वासना में अंध बनकर संयम की चर्या भूल गये। चातुर्मास में निषेधित विहार कर अत्यंत कठिनाई से नेपाल पहुंचे। रत्नकंबल लेकर पुनः पाटलिपुत्र पहुचे। यह उनकी यात्रा अत्यंत कठिन, रानी पशुओं, लुटेरों, दुर्गम वनों की तकलीफों से युक्त थी।
एकबार तो रास्ते में लुटेरे कंबल लूट लेते हैं । दूसरी बार जाते हैं अब राजा बोलता है कि पहले दी थी ना लेकिन अनुनय करके दूसरी बार प्राप्त करते हैं, और लाठी में छिपाकर बचते बचाते ले आते हैं । ऐसे सभी संकटो से बचते बचाते वे पाटलिपुत्र आये।
ललचाई आंखों से लाख रुपये का रत्नमूल्य कोशा को दे दिया। कोशा ने तत्क्षण उस रत्नकंबल से पांव पोंछकर फेक दिए। अपनी इतनी कठिनाइयों के बाद प्राप्त रत्नकंबल को फेंकते देख मुनि विस्मित हो गये। उन्होंने कोशा को डांटा।
तब कोशा ने उन्हें उपदेश दिया। रत्नकंबल से भी अतिशय मूल्यवान संयम रूपी रत्न को आप ने कचरे में फेंक दिया है। और पतन की खाई में धँसते जा रहे हो।
कोशा के उपदेश से मुनि को आघात लगा और वे अपने पतन को पहचान गये । कोशा से माफी मांगकर उसका धन्यवाद कर गुरु के पास आये। स्थूलभद्रजी की साधना को सच मे अति दुष्कर बताकर , अपने पतन की गाथा सुनाकर उनसे माफी मांगी व प्रायश्चित ग्रहण कर शुद्ध बने।
ऐसे ही कोशा ने अपने मे अनुरक्त एक और रथीक का भी उद्धार किया।
#बड़ीसाधुवंदना - 94
वली आर्द्र कुमार मुनि , स्थूलभद्र नंदिषेण ।
अरणक अइमुत्तो मुनीश्वरो नी श्रेण ।98।
स्थूलिभद्र जी - 5
पाटलिपुत्र की प्रथम आगमवांचना (वीर निर्वाण संवत 160)
आर्य संभुतिविजय जी के अंतिम समय मे ही मध्य देश मे अति भीषण दुष्काल पड़ा। उसकी भयानकता शब्दो मे अवर्णनीय है। इस दुष्कर काल मे जैन धर्म को अत्यंत हानि हुई। कई सन्तो ने संयम विराधना न हो इस लिए समाधि मरण का मार्ग चुन कर संलेखना सहित देहत्याग किया। कुछ मुनिराज ने अपने संयम रक्षा हेतु दूरवर्ती क्षेत्रो में विहार कर दिया।
पुनः जब सुभिक्ष यानी सुकाल हुआ तब विभिन्न क्षेत्रो में गये मुनिगण वापिस पाटलिपुत्र लौटे। कुछ समय मे सबको एहसास हुआ कि मरणान्तिक संकटो के वजह से , परावर्तन न हो पाने की वजह से दुर्लभ आगमज्ञान विस्मृत हो गया। अतः संघ ने जिन्हें जितनी वांचना हृदयस्थ थी उन सबको संकलित कर पुनः द्वादशांगी को सुनियोजित करने का निर्णय किया ।
स्थूलभद्रजी की निश्रा में पाटलिपुत्र में प्रथम आगमवांचना हुई। और सभी मुनियों के प्रयास से ग्यारह अंगों की वांचना संपन्न की। एकदशांगी की गंगा पुनः बहने लगी सब आनंदित हो गये।
पर एक विकट समस्या सामने भी आई।
इन मुनिगणो मे किसी को भी दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग का ज्ञाता कोई भी श्रमण नही था। एक मात्र ज्ञाता भद्रबाहूजी उस समय नेपाल में महाप्राण नामक ध्यान की योग साधना कर रहे थे। उनके पास अनुकूलता नही थी कि दुष्कर अंग दृष्टिवाद की लंबे समय तक गहन वांचना दे सके। उसका गूढ़ अध्ययन काफी श्रम व समय मांग लेता था।
पर संघ के दबाव में आकर वह वांचना देने के लिए तत्पर हुए। स्थूलिभद्र जी के साथ 500 मुनि नेपाल पधारे व अभ्यास चालू किया। पर अनथक गूढ़ कठिन अंग की वांचना लेने में वे सभी असमर्थ हुए। एकमात्र स्थूलिभद्र जी ने अध्ययन चालू रक्खा। अन्य सभी 500 मुनि हतोत्साह होकर लौट आये। गूढ़ ज्ञान के धनी स्थूलिभद्र जी दृष्टिवाद के तीसरे भाग में रहे 10 पूर्व ( 2 वत्थु कम ) तक पहुंच गए। अभी तो बहुत हिस्सा बाकी था। अब वे भी थोड़ा थकने लगे थे।
इस दौरान महाप्राण ध्यान की साधना पूर्ण होने पर भद्रबाहूजी के साथ मुनि स्थूलभद्रजी विहार करते हुए पाटलिपुत्र आये।
भाई मुनि का आगमन सुनकर यक्षा जी आदि साध्वी दर्शन करने मुनि जहाँ रुके थे उस उद्यान में आये। भद्रबाहूजी के दर्शन वन्दन बाद भाईमुनि के दर्शन की आज्ञा मांगी। भद्राबाहूजी ने कहा कि वे इस उद्यान के अमुक भाग में है वहा जाकर दर्शन कर लीजिए।
साध्विजीया वहां पहुंची।
यक्षा जी के आगमन की सूचना स्थूलिभद्र जी को मिल चुकी थी। मैंने कितना ज्ञान प्राप्त कर लिया है यह बहनों को भी दिखाऊ। यह भाव उनके मन मे जाग्रत हो गया।
प्राप्त ज्ञान की विद्या से उन्होंने रूप परावर्तन कर सिंह का रूप धारण कर बहनों को डरा दिया।
जब यह बात गुरु भद्रबाहू जी ने अपने ज्ञान से जानी तब उन्हें बड़ा दुख हुआ। अभी तक विद्या प्राप्ति का काम पूरा नही हुआ और मद ? आगम का ज्ञान कषाय घटाने को है, बढ़ाने को नही। स्थूलिभद्र जी अत्यंत गुणवान, ज्ञानी होते हुए भी आगामी काल व आने वाले साधु जी को पूर्वज्ञान के लिए अपात्र जानकर उन्होंने ज्ञान वांचना देना बंद किया। फिर संघ के आग्रह पर सिर्फ मूल आगमका ज्ञान दिया अर्थ नही।
स्थूलिभद्र जी अपनी भूल को समझे और क्षमायाचना की। पर अब वह व्यर्थ था। आगमज्ञान वहीँ रुक गया।😢 स्थूलभद्रजी को बहुत दुख हुआ।
भद्रबाहूजी के कालधर्म बाद स्थूलभद्रजी जी आचार्य बने। बहुत से लोगो को जिनधर्म में दृढ़ किया। 45 वर्ष तक आचार्य पद में विचरते हुए जिनशासन की महत्ती सेवा की।
#बड़ीसाधुवंदना - 95
वली आर्द्र कुमार मुनि , स्थूलभद्र नंदिषेण ।
अरणक अइमुत्तो मुनीश्वरो नी श्रेण ।98।
नंदिषेण मुनि
राजगृही के राजा श्रेणिक के राजकुमार नंदिषेण बलशाली व्यक्तित्व । इन्होंने एक मदमस्त हाथी सेंचनक (इस हाथी की भी लंबी एक कथा है) को वश में किया था।
वीर प्रभुकी देशना सुनने के बाद उन्होंने श्रेणिक राजा की आज्ञा लेकर दीक्षित हुए थे। दीक्षा से पहले एक देववाणी हुई , की अभी आपके भोगावली कर्म बाकी है , अभी संयम न ले। परन्तु अब उनका मन संसार से उठ ही चुका था।
संयम लेकर उग्रतप आराधन करने लगे।
तप के प्रभाव से कई लब्धियाँ उन्हें प्राप्त हुई। पर वे उसका प्रयोग नही करते थे।
एकबार वे गोचरी हेतु किसी गणिका के घर गए, और धर्मलाभ कहा । तब वहां गणीका ने परिहास किया - मुनिवर, यहां धर्म नही धनलाभ चाहिए। बिना पैसे यहां कुछ नही मिलता। मुनि के भोगावली कर्म उदय में आ रहा था। परिहास से खिन्न मुनि ने अपनी लब्धि से वहां धन की वर्षा कर दी।
बहुत धन देखकर गणिका पिघल गई। उसने मुनिराज को वहीं रोकने के प्रयास किया। कर्मोदय की भवितव्यता , मुनि रुककर संसारी बन गए। गणिका के साथ भोग को तैयार हो गये। पर भीतर संयम जाग्रत था। उन्होंने प्रण लिया: - जब तक मैं रोज 10 व्यक्तियों को धर्म की प्राप्ति नही करवाऊंगा तब तक भोजन नही करूँगा।
यह सिलसिला करीब 12 वर्ष तक अविरत चला। हजारों व्यक्तियों ने उनसे बोध पाकर संयम ग्रहण किया ।
एक दिन 9 आदमी तैयार हो गए पर दसवां कोई तैयार नही था। तब गणिका ने फिर परिहास किया : - दसवें तुम।
अहो!!!!
दसवां में?
बस आतमराम जाग गया। पुनः संयम की राह पकड़कर प्रायश्चित लिया। शुद्ध होकर आराधना में जुड़ गए। काल कर देवलोक पहुँचे ।
#बड़ीसाधुवंदना - 96
वली आर्द्र कुमार मुनि , स्थूलभद्र नंदिषेण ।
अरणक अइमुत्तो मुनीश्वरो नी श्रेण ।98।
नन्दीषेण - 2
कल हमने श्रेणिक पुत्र नन्दीषेण मुनि की कथा पढ़ी । जिनशासन के इतिहास में एक अन्य नन्दीषेण मुनि हो गये, गुरु की वैयावृत्य में जिनका नाम अमर हो गया। आज हम उनका थोड़ा वृत्तान्त देखते है।
भरतक्षेत्र की सौरिपुर नगरी के राजा अन्धकवृष्णि (नेमिनाथ प्रभु जी व कृष्ण जी के दादा जी) व रानी सुभद्रा । इनके दस वीर पुत्र दशार्ह के नाम से प्रसिद्ध हुए। प्रथम पुत्र समुद्रविजय जी (नेमिनाथ प्रभु जी के पिता) तथा अंतिम पुत्र का नाम था वसुदेव (कृष्ण वासुदेव के पिता।)
वसुदेव का रूप अत्यंत आकर्षक व दैदीप्यमान था । एकबार सुप्रतिष्ठ नामक केवली वहां पधारे, राजा ने उनसे वसुदेव का इतने रमणीय होने का कारण पूछा। तब केवली भगवान ने उसका पूर्वभव का वृत्तान्त सुनाया।
एक समय मगध देश के नंदीग्राम में एक नन्दीषेण नामक गरीब अनाथ बालक रहता था। मामा के यहां पल बढ़ रहा था पर वह भी एक बोझ के समान। दिखने में अत्यंत विरूप, किन्ही रोग से बढे हुए उदर वाला, चेहरा भी अत्यंत कुरूप वह नन्दीषेण मामा के यहां अत्यंत मेहनत करता रहा। मामा ने उसे लालच दिया था कि यदि वह उसके काम से खुश रहा तो अपनी 7 पुत्रियों में से एक का ब्याह उससे करवा दूंगा। बस इसी लालच में
नन्दीषेण मामा के यहा सभी काम करता रहा।
जब पुत्रियां विवाह योग्य हुई तब एक-एक करके सातो पुत्रियों ने उस कुरूप नन्दीषेण से विवाह करने से स्पष्ट इन्कार कर दिया।
बचपन से पाले भ्रम टूटने से नन्दीषेण बड़ा दुखी हुआ। वह एक निर्जन वन में जाकर आत्मघात (आत्महत्या) करने की तैयारी करने लगा। तब वहाँ एक निर्ग्रन्थ मुनि को देख सोचा : - मृत्यु से पहले इन्हें वन्दन कर लूं।
मुनि ने उसकी दशा देखकर उसे असरकारक शब्दो मे प्रतिबोधित किया। ( यह बोध संक्षिप्त में हम सबको समझकर आनेवाली विपत्तियों में समभाव रखना चाहिए। )
हे आत्मन !
अभी जो जो वेदना तुम भुगत रहे हो, सभी तुम्हारे पूर्वगत किये गए अत्यंत विपुल मात्रा में किये गये पापकर्मो का ही परिणाम है। यदि तुम इसे समभाव से सहन कर लेते हो तो यह अभी झड़ जाएंगे। पर इन कर्मो के उदय में आर्त रौद्र ध्यान से, आत्मघात जैसे कृत्य से तुम आनेवाले भवो के लिए भी दुष्कर्म बांध रहे हो। अगले भव में तुम्हे फिर दुख प्राप्त होगा। यह विषचक्र चलता ही रहेगा। इस मनुष्य भव का अनमोल अवसर पाकर उसका सदुपयोग साधना करके करोगे, तो आनेवाले भव भी सुधर जाएंगे व भवसागर से मुक्ति भी संभव है।
मुनि के वचन से प्रतिबोधित हुए नन्दीषेण ने संयम अंगीकार किया।
उत्कृष्ट तप करते हुए उन्होंने सभी निर्ग्रंथो की वैयावृत्य का अभिग्रह भी लिया।
संघ में जो भी बाल,वृद्ध, रोगी मुनि हो, वे अग्लान भाव से उनकी सेवा करने लगे। तप व ज्ञानार्जन भी चालू ही था परंतु मुख्य लक्ष्य वैयावृत्य था।
आगे....
#बड़ीसाधुवंदना - 97
वली आर्द्र कुमार मुनि , स्थूलभद्र नंदिषेण ।
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नन्दीषेण - 3
इस वैयावृत्य तप से नन्दीसेन मुनि की कीर्ति चारो और फैल गई ।इस से उन्हें कुछ लब्धियाँ भी प्राप्त हुई । एकबार देवलोक की सभा मे इनकी अविरत वैयावृत्य की प्रसंशा हुई। तब एक देव ने उनकी परीक्षा लेने का मन बनाया।
नन्दीषेण मुनि एक स्थान पर पारणा करने बैठे। तब एक मुनि का रूप बनाकर उनके पास वह देव आया : - अरे ओ वैयावृत्य तप धारी, बड़े ढोंगी हो, वहां वन में एक असाध्य रोग से पीड़ित एक साधु तुम्हे पुकार रहा है और तुम यहाँ खाने बैठे हो!!!!
हाथ मे लिया प्रथम ग्रास वापिस पात्रे में रखकर मुनि उस रोगी मुनि को ढूंढने निकले। वह देव एक वृद्ध बीमार साधु का रूप लेकर वन में बैठ गये थे।
नन्दीषेण मुनि अत्यंत कठिनाई से मिले प्रासुक जल लेकर वहां पहुंचे । मुनि को देखते ही वे वृद्ध मुनि नन्दीषेण मुनि को अनर्गल शब्दो मे डांटने लगे। शांतभाव से मुनि ने उन्हें जल पिलाया। और उनकी चिकित्सा करने के लिए उन्हें साथ चलने को कहा। तब उग्रता से मुनि बोले :- मैं जीर्ण व बीमार शरीर लेकर कैसे चलूं, तब नन्दीषेण मुनि ने उनको उठा कर कंधे पर बैठाकर चल दिये।
ऊबड़खाबड़ राह में आये विघ्नों से नन्दीषेण मुनि तो शांतभाव से चल रहे थे पर वृद्ध मुनि तो उन्हें कोपायमान करने के प्रयास में ही लगे थे। क्रोध में आकर वे अभी भी उनकी सेवा कर रहे मुनि को निंदित कर रहे थे। नंदीषेण मुनि को समभाव में देख वृद्ध मुनि ने अपनी बाजी पलटी व कंधे पर ही विष्ठा कर दी। नन्दीषेण मुनि का सारा देह दुर्गंधमय विष्ठा से युक्त होगया। पर नन्दीषेण मुनि तो क्रोधित होने की जगह यह सोच रहे थे, की मैं कैसे इन मुनि का दुख दूर करू।
उनका यह समभाव देखकर, उनकी वैयावृत्य की उत्कृष्ट भावना देखकर आखिर देव ने हार मान ली। अपनी लीला समेट ली। अपना परिचय देकर उनकी स्तुति की। व देवलोक लौट गये।
ऐसे सेवाभावी मुनि नन्दीषेण बारह हजार वर्ष तक उत्कृष्ट संयम पालन करते रहे। अंत मे संलेखना ग्रहण की। पर हाय रे यह कषाय!😢
संलेखना में अपने पुराने दिन, मामा की 7 पुत्रियों के धुत्कार, कुरूपता से सर्वत्र मिला तिरस्कार का स्मरण हो आया। और मुनि ने निदान कर लिया। मेरे तप संयम का फल में मुझे अगले मनुष्यभव में अत्यंत सुंदर रूप मिले, मैं स्त्रीवल्लभ बनूं ।
जो मार्ग, जो साधना भवसागर से पार उतरने के लिए की थी, या कर सकते थे उसे नश्वर भोग के बदले दे दी। जैसे एक अमूल्य हीरा देकर सस्ता कांच के टुकड़ा खरीद लिया।
महात्माओं का कथन है कि हम जो भी साधना करे व सिद्धगति के लक्ष्य को लेकर हो, संसारिक सुखों के बदले हमारी अमूल्य साधना का सौदा हम कभी न करे।
संलेखना में नन्दीषेण मुनि काल कर महाशुक्र देव बने। वहां से काल कर अन्धकवृष्णि राजा के दसवें पुत्र वसुदेव बने। निदान स्वरूप वे अत्यंत मोहक व स्त्रीवल्लभ बने।
केवली मुनि से यह सब सुनकर अंधकवृष्णि राजा ने बड़े पुत्र समुद्रविजय जी को राज्य सौंपकर संयम अंगीकार किया।
वसुदेव बड़े होते गए तब उनका रूप और निखरता गया। नगर में जब वे फिरते तब स्त्रियां उनसे आकर्षित होकर अपनी नैतिक मर्यादा छोड़कर उनके पीछे खिंची चली आती जैसे किसी ने मन्त्र से वशीभूत कर दिया हो।
राजा ने अपनी प्रजा में नैतिकता बनी रहे, मर्यादा बनी रहे इस हेतु से उन्हें महल में ही नजरबंद कर दिया था। यानी राजमहल से उनका बाहर निकलना बंद।
आख़िर एकबार वे वहाँ से भाग निकले। इत्यादि उनकी कथा बहुत विस्तृत है। उनकी देवकी, विजय, गन्धर्वसेना, रोहिणी आदि 72000 रानियां थी। उनके मित्र कंस ने छल कर वचन ले लिया था कि वसुदेव देवकी द्वारा हुए 7 पुत्रो को उसे सौंप देंगे। जिनमे से सातवे पुत्र कृष्ण वासुदेव ने कंस का वध किया।
कंस की पत्नी जीवयशा ने पिता जरासंध को बदला लेने के लिए उत्तेजित किया। वर्षो तक यादवों से जरासंध का वैर चलता रहा। अंत मे पुनः जीवयशा की जबरदस्त आग्रह से उत्तेजित जरासंध व यादवों के बीच महाभीषण महाभारत का विश्व प्रसिद्ध संग्राम हुआ। जिसमें कौरवों ने जरासंध का , तथा पांडवों ने कृष्ण का साथ दिया।
यह विस्तृत कथा हम महाभारत के नाम से जानते है।
इसी कुल में वसुदेव के बड़े भाई समुद्रविजय राजा व महारानी शिवादेवी के पुत्र नेमकुमार हुए, जो 22 वे जिनेश्वर नेमिनाथ भगवान बने।
#बड़ीसाधुवंदना - 98
वली आर्द्र कुमार मुनि , स्थूलभद्र नंदिषेण ।
अरणक अइमुत्तो मुनीश्वरो नी श्रेण ।98।
अरणक मुनि : - नगर के धनाढ्य श्रेष्ठी दत्त व माता भद्रा के नन्हे पुत्र अरणक जी की कथा। एकबार दत्त के पड़ौसी के यहां हृदय द्रावक घटना बनी। उनका नन्हा पुत्र अचानक काल कवलित हो गया। यह देख दत्त सेठ का मन विरक्त हो गया। आज इस पड़ौसी के साथ अनहोनी हुई, कब किस समय मृत्यु मुझे जकड़ लेगी निश्चित नही। अब समय रहते मुझे सचेत हो जाना चाहिये, ताकि इस मानव भव का सदुपयोग कर जन्म मृत्यु के चक्कर से शीघ्र छूट सकुं ।
उन्होंने भद्रा से दीक्षा की अनुमति मांगी। भद्रा सही अर्थ में सहधर्मचारिणी थी। पति की विरक्ति भरी वाणी सुनकर आर्त ध्यान नही किया। उसने सहर्ष अनुमति दी और कहा : - आप सच मे महान है, आप के साथ-साथ मैं भी संसार के कीचड़ से निकलना चाहती हूँ, पर मुझे अब चिंता है तो इस बालक की।
माता के गर्भ के प्रभाव से पूर्व के कोई संस्कार होंगे जो नन्हा करीब 8 वर्ष उपरांत का बालक बोल उठा, हे अंबतात ! यदि संसार एक दलदल है तो मुझे आप दोनों इस दलदल में क्यों रखना चाहते हो? मैं आपके संयमग्रहण में अंतराय क्यों बनूं । मैं भी आपके साथ दीक्षा लूंगा।
दत्त व भद्रा माता अत्यंत हर्षित हो गये।
कुछ समय मे नगर में एक आचार्य पधारे। तीनो ने संयम अंगीकार किया। संयम व शिक्षा की आराधना शुरू हुई। पिता पुत्र मुनि साथ ही थे। माता साध्विजियो के संघ में थे।
पिता का पुत्र मुनि का मोह अभी खत्म नही हुआ था। गोचरी आदि सभी काम पिता ही करते थे। समय बीत रहा था। संयम आराधन चल रहा था। अचानक एक दिन दत्त मुनि कालधर्म को प्राप्त हुए। अन्य मुनियों ने अरणक मुनि को आश्वस्त किया।
कुछ समय बाद एकबार अरणक मुनि को प्रथम बार गोचरी जाने का अवसर आया। दिन का तीसरा प्रहर, आसमान से बरसती आग, मुंडित शरीर, नग्न पांव , गर्म तपी हुई राह। ऐसे में गोचरी हेतु निकले मुनि कुछ ही समय मे घबरा गए। सोचा कहीं छाव हो तो खड़ा रहकर विश्राम कर लु। ऐसे में एक बड़े भवन के वृक्ष नीचे खड़े रहे। तब उस गृह की मालकिन नगर वधु (गणिका ) ने उन्हें देखा। नवयुवान राजकुमार सा देह, ब्रह्मचर्य की आभा से चमकता ललाट, सुगठित देह , नगरवधू आकर्षित होकर भान भूली। मुनि को आराम व गोचरी का निमंत्रण दिया। मुनि को गणिका की मन:स्थिति पता नहीं चली लेकिन सहजता से गोचरी व विश्राम मिल रहा था । शायद उनका भोगावली कर्म का उदय था।
नगरवधू ने भी संयम की कठिनता बताकर, सुखकर भोगमय जीवन की लालच दिखाई। मुनि उस नाजुक पल में विवेक शून्य बन गये। नगरवधू का आमंत्रण स्वीकार कर वहीँ रह गए। भोग-विलास में डूब गए। कुछ समय बाद जब वे गुरु के पास नही पहुंचे तब उन्हें अन्य मुनि नगर में ढूंढने निकले। पर मुनि अब कहाँ मिलते। वह तो संसार मे खो चुके थे।
माता भद्रा साध्वीजी को यह सूचना मिली। अहो, मेरा पुत्र संयम से पतित तो नही हो गया होगा? या कोई अनहोनी तो नही हुई हॉगी? वे नगर में अरनक मुनि को ढूंढने निकली। विक्षिप्त जैसी अवस्था मे नगर में हर गली गली में जाकर जोर जोर से चिल्लाकर पुत्र मुनि को आवाज़ देने लगी।
भद्रा साध्वीजी गणिका के आवास से गुजरी। माता की आवाज़ सुनकर अरनक जाग उठे। नीचे आकर माता को देखा। मेरे जैसे पुत्र के लिए विक्षिप्त जैसी बनी हुई माता, उसका तमाशा देख रहे नगरजनो का समूह। और स्तब्ध हो गए। अहो मेरे पतन ने मेरे साथ मेरी माता साध्वी का भी बुरा हाल कर दिया। वे मोह नींद से जाग उठे। माता के चरणों के समीप जा गिरे । माता से माफी मांगी।
वहां से दोनो गुरु के पास आये। अरणक मुनि ने प्रायश्चित लेकर शुद्धि की। भद्रा माता पुत्र गुरु को सौंपकर साध्वी संघ में चले गये। अगर अरणक जी माता के चरणों में जा गिरते तो साध्वी जी को भी प्रायश्चित लेना था ।
बहुत वर्षो तक निरतिचार संयम पालन करते हुए अंत मे अरणक मुनि देवलोक के अधिकारी बने। बाद के अगले भवों में महाविदेह से सिद्ध बुद्ध मुक्त बनेंगे।
इस गाथा के 4 कथानक में एक समानता।
स्थूलभद्रजी दीक्षा से पहले व अन्य 3 दीक्षा के बाद में पतित हुए परन्तु मन मे संयम को मृत नही होने दिया। जरा सा निमित्त पाकर भी सावधान हो गये व पुनः संयम पर आरूढ़ हो गये।
धन्य उन मुनिविरो को।
#अतिमुक्तअणगार
एक बाल अतिमुक्त मुनि का कथानक हमने पढा , अन्य एक अतिमुक्त मुनि कंस के भाई थे। जब कंस ने मथुरा की सत्ता पाने के लिए उग्रसेनजी को बंदी बनाया तब इन्होंने विरक्त होकर दीक्षा ग्रहण की थी। गजसुकुमाल के वर्णन में हमने पढा की इन्होंने जीवयशा के अभद्र व्यवहार पर कंस की मृत्यु की भविष्यवाणी की थी।
पर बाद में इस गलती को समझकर उन्होंने पश्चाताप कर आलोचना ली। ये नेमप्रभु की दीक्षा से बहुत पहले की बात है। इनका ज्यादा वर्णन कहीँ पढ़ने में नही आया। कभी कहीँ मिला तो अवश्य पोस्ट करूँगा।
#बड़ीसाधुवंदना - 99
चोबीसे जिन ना मुनिवर , संख्या अठ्ठावीस लाख ।
ऊपर सहस अड़तालीस, सूत्र परंपरा भाख ।99।
कोई उत्तम वांचो, मोढे जयणा राख ।
उघाड़े मुख बोल्यां, पाप लागे इम भाख ।100 ।
धन्य मरुदेवी माता, ध्यायो निर्मल ध्यान ।
गज - होदे पायो, निर्मल केवलज्ञान।101 ।
इस अवसर्पिणी काल के तीसरे व चौथे आरे में भरत क्षेत्र में 24 तीर्थंकर हुए। उन सभी तीर्थंकर भगवंतों की निश्रा में रहनेवाले सन्तो की कुल संख्या इस गाथा में बतलाई गई है।
28, 48,000
जैसे हमारे शासन नायक के 14000 मुनिराज थे।
इन साधु संतों की यशोगाथा हम इस बड़ी साधुवन्दना में पढ़ रहे है। यहां जीवदया हेतु एक आगमोक्त सूचना दी गई है। हम जब भी कुछ क्रिया करे, वह अन्य जीवों को तकलीफ न हो उस तरह करे। जैसे बोलते समय वायुकाय के जीवों की रक्षा हेतु बोलते समय मुखवस्त्रिका का उपयोग करे। सामान्यतः रोज हर समय न करो तो जब कभी भी आगमवांचना, स्वाध्याय, सामायिक या इस स्तोत्र को हम पढ़े, वायुकाय के जीवों की दया पालने के लिए मुखवस्त्रिका का उपयोग अवश्य करे। हमारे जीवन में सबसे ज्यादा हम वायुकायिक जीवो को ज्यादा तकलीफ पहुचाते है। जयमलजी महाराज साहेब करुंणा दृष्टि - की हम भी पाप से बचे व वे जीव हत्या के पाप से बचे रहे। सामायिक व कम से कम कोई भी धार्मिक स्तोत्र आदि के पठन के समय हम मुँह पर मुँहपत्ति अवश्य रक्खे।
मरूदेवा माँ व प्रथम महासतीजी ब्राह्मी व सुंदरी
इस काल के हमारे प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की माता, अंतिम कुलकर नाभिराजा की पत्नी, भरत चक्रवर्ती की दादी।
रुषभदेव ने दीक्षा ले ली तब से माता उनके वियोग से दुखी थे। पर जब पुरीमताल नगर में शकट मुख उद्यान में ऋषभदेव को केवलज्ञान प्राप्त हुआ, तब भरत ने यह समाचार माता मरूदेवा को दिया । पुत्र के समाचार पाकर माता अत्यंत हर्षित हुई। पुत्र मुनि के दर्शन करने के लिए उत्सुक होकर वे राजमहल से निकले। वहां देवो द्वारा प्रथम देशना के लिए समोवसरण की रचना की थी।
समोवसरण क्या : -
तीर्थंकर प्रभु के केवल्यप्राप्ति के बाद प्रभु नियमा देशना देते है। उनकी प्रथम देशना में नियम से देवो द्वारा एक विशिष्ट, अति रमणीय, सुवर्ण - रजत तथा रत्नों से युक्त , ऊंचे सभास्थान की रचना करते है। जहाँ मध्य में प्रभुकी ऊंचाई से बारह गुना ऊंचे अशोक वृक्ष को केंद्र में रखकर तीन गोलाकार प्रकोष्ठ होते है। मध्यवर्ती प्रथम प्रकोष्ठ में देवता व मनुष्य की कुल 12 परिषदा के बैठने की व्यवस्था होती है। मध्य में रत्नमय पीठ पर देव छंदक में विराजमान , देशना दे रहे प्रभु का मुख सभी को अपनी और दिखाई दे ऐसी दैवी विशिष्ट रचना होती है।
दूसरे प्रकोष्ठ में तिर्यंच की तथा तीसरे प्रकोष्ठ में देवो के विमान, राजाओंके रथ आदि की व्यवस्था होती है। समोवसरण यह विशिष्ट स्थान है जहां जीव अपने जातिगत वैर को भूलकर प्रभु की अदभुत वाणी का श्रवण कर धन्य बनते है। तीनो प्रकोष्ठ की कुल ऊंचाई करीब अढाई कोस होती है। चार दिशाओं के द्वार पर 20,000 - 20,000 सोपान ( सीढियां ) होते है। इतनी सीढियां चढ़ने के बाद भी किसी को थकान नही लगती। कुछ हीं समय में बिना परिश्रम के (आज के समय में माॅल आदि जगह पर लगे Escalator की तरह) यह सब तीर्थंकर प्रभु का अतिशय की वजह से होता है।
अन्य समय भी जब देशना सुनने वालों का बहुत्व हो या अन्य किसी विशिष्ट प्रसंग पर देव समोवसरण की रचना करते है।
माता मरूदेवा हाथी पर बैठकर ऋषभदेव प्रभुके दर्शन के लिए समोवसरण में आते है। क्या होता है यह आगे....
#बड़ीसाधुवंदना - 100
धन्य मरुदेवी माता, ध्यायो निर्मल ध्यान ।
गज - होदे पायो, निर्मल केवलज्ञान।101 ।
धन्य आदिश्वर नी पुत्री ब्राह्मी सुंदरी दोय।
चारित्र लइ ने , मुक्ति गई सिद्ध होय। 102।
माता मरूदेवा हाथी पर बैठकर ऋषभदेव प्रभुके दर्शन के लिए समोवसरण में आते है। क्या होता है यह आगे....
हाथी पर बैठी माता दूर से समोवसरण में बिराजित प्रभु को देखते है। मुख पर अनेरी प्रभा थी। देखते ही माता को अत्यंत हर्ष हुआ। वे सोच रहे थे पुत्र कष्ट में है, पर यह तो एक अलग ही आनंद में है। माता को लगा था पुत्र मुझे देखकर अत्यंत हर्षित हो उठेगा। पर यह क्या, पुत्र ने तो एक सरसरी निगाह देखकर वापिस अन्यत्र देखने लगा। मैं इसके मोह में , वियोग से दुखी हो रही हूं पर यह तो वास्तव में निर्मोही बनकर बैठा है।
क्या मेरा उस पर प्रेम गलत है? अयोग्य है? यह चिंतन बढ़ता गया, सोचने की दिशा उर्ध्वगामी बनी। सच मे पुत्र तो निर्मोही बनकर संसार से परे हट गया। तो मैं क्यों राग में फंसकर भवभ्रमण बढाऊँ, इस संसार मे कोई किसी का नही, कुछ शाश्वत नही , तो अपना कल्याण क्यों न करे। उर्ध्वगामी बने चिंतन से माता धीरे धीरे शुक्लध्यान में प्रविष्ट बने। 4 घातिकर्म नाश कर केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। अन्य 4 कर्म भी क्षय हुए व माता मरूदेवा इस अवसर्पिणी काल मे इस भरत क्षेत्र से प्रथम मोक्ष पहुंचे ।
ब्राह्मी जी सुंदरी जी
प्रभु आदिश्वर की 2 पुत्री रत्ना।
ब्राह्मी जी ऋषभदेव तथा सुमंगला जी की पुत्री। जिन्हें सर्व प्रथम ब्राह्मी आदि 18 प्रकार की लिपियों का ज्ञान दिया । उसके बाद यह लिपिया सर्व जनों को उपयोगी बनी।
प्रभुके केवल्यप्राप्ति बाद प्रथम समोवसरण में ब्राह्मी ने संयम अंगीकार कर प्रभुकी प्रथम शिष्या बनी। उत्कृष्ट संयम पालन कर सिद्ध बुद्ध मुक्त हुई ।
सुंदरी जी
ऋषभदेव तथा सुनन्दा जी की पुत्री। जिन्हें सर्व प्रथम प्रभुने गणित का ज्ञान कराया। प्रभुके केवल्यप्राप्ति बाद इन्होंने भी विरक्त होकर भरत राजा से दीक्षा की अनुमति मांगी। पर मोहवश भरत ने उन्हें संयमाज्ञा नही दी। और भरत जी 6 खण्ड जीतने निकल गए।
सुन्दरीजी का संयम लेने का उत्कृष्ट मन था।पर भरत ने मोह वश आज्ञा नही दी तब भी वे निराश नही हुई। मोह के कारण रूप इस देह को ही में अरमणीय कर दु। उन्होंने भरत के वापस आने तक यानी 60,000 वर्ष तक आयंबिल की उग्राराधना की। तप से देह को अत्यंत कृश कर दिया। 6 खण्ड साधने के बाद जब भरतेश्वर ने वापिस आकर सुन्दरीजी का तप देखा समझा तब उन्हें संयम की आज्ञा दी। दीक्षा लेकर सुन्दरीजी भी संयम आराधना में लग गये।
सुन्दरीजी ने संयम ग्रहण कर तप आदि की उत्कृष्ट आराधना कर अंत मे सिद्ध बुद्ध मुक्त हुई।
#वीरा म्हारा गज थकी , नीचे उतरो
इन दोनों साध्वियुगल के संयमकाल की एक घटना यहां उल्लेखनीय है।
भाई भरत चक्रवर्ती से युद्ध के प्रसंग बाद बाहुबली जी ने उस समय ऋषभदेव प्रभु बिराजमान होते हुए भी स्वयं संयम ग्रहण कर लिया। उन्हें लगा कि यदि ऋषभदेव के पास गए तो पहले से दीक्षित होने से छोटे 98 भाई मुनि को मुझे वन्दन करना पड़ेगा। ( दीक्षा के बाद यह एक नियम है कि यहां संसारी जीवन की उम्र नही गिनी जाती। ज्येष्ठ वही , जिसने पहले संयम लिया। तो 98 भाई ने पहले दीक्षा ले ली थी। तो छोटे होते हुए भी संयम पर्याय में बड़े होने से वन्दन करना पड़ेगा। ) उनका यह अहंकार उन्हें प्रभुके पास जाने में रुकावट बना हुआ था। जब काफी महीने बीत गए तब ऋषभदेव ने ब्राह्मी सुंदरी आर्या को भेजकर बाहुबलीजी को प्रतिबोध दिया।
दोनो साध्वियुगल ने आकर बाहुबली मुनि को अहंकार रूप हाथी से नीचे उतरकर संयम में स्थिर होने का सुंदर उपदेश दिया। बाहुबली समझ गए। उन्हें अपनी भूल का एहसास हुआ। ध्यान शुद्ध से शुक्ल , परम शुक्ल बनता गया। और जैसे ही अहंकार का त्याग कर प्रभुके पास जाने के लिए कदम उठाया, उसी समय केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। बहन साध्विजीयो का सहयोग पाकर वे केवली बन ग
#बड़ीसाधुवंदना - 101
चौबीसे जिन नी , बड़ी शिष्यणी चौबीस।
सती मुक्ति पहोंच्या, पूरी मन जगीश ।103
चोबीसे जिन ना, सर्व साध्वी सार ।
अड़तालीस लाख ने , आठ से सित्तर हजार ।104।
चेडा नी पुत्री , राखी धर्म सु प्रीत।
राजेमती विजया, मृगावती सुविनित ।105।
जिनेश्वर प्ररूपित जिनशासन में सहस्त्रों महापुरुषों के संयम शौर्य, तपवीरता , धर्म के लिए दृढ़ श्रद्धा समर्पण के वर्णन के साथ ही हजारों नारियों के भी महिमा का वर्णन है। बिना लिंग भेदभाव के कोई भी जीव अपनी साधना से मोक्ष जा सकता है।
इस अवसर्पिणी काल मे भरतक्षेत्र में हुए 24 तीर्थंकरों के साध्वीसमुदाय की अग्रणी महान नारीरत्नो का उल्लेख मिलता है।
प्रभु ऋषभदेव की प्रथम साध्वी तथा 3,00,000 साध्वीयो के संघ की नायिका आर्या ब्राह्मी जी थे , तो अंतिम वीर शासन में 36000 साध्विजियो की नायिका आर्या चन्दनबाला जी । इन 24 तीर्थंकर प्रभु जी के साध्वी संघ की नायिकाओं के नाम नीचे कोष्ठक में दे रहा हूं। इन सभी ने प्रभुकी शरण मे संयम की उत्कृष्ट आराधना कर मुक्ति गति को प्राप्त किया।
चौबीसों प्रभुकी कुल साध्वीजीयो की संख्या 48, 70,800 । ( संख्या में कहीँ भिन्नता संभव )
वैशाली नगरी के विशाल साम्राज्य के दृढ़ जिनधर्मानुरागी राजा चेटक का जिनशासन में नाम अग्रगण्य है। इनकी 7 पुत्रियां थी। जिनमे कुछ के वर्णन हमने देखे है।
उन पुत्रियों में
1 - प्रभावतीजी के लग्न उदायन राजा से हुए
2 - पद्मावतीजी - दधिवाहन राजा
3 - मृगावतीजी - शतानीक राजा
4 - शिवादेवी - चण्डप्रद्योत राजा
5 - ज्येष्ठा जी - वीर प्रभुके भाई नंदिवर्धनजी
6 - सुज्येष्ठा जी संयम लिया
7 - चेलना - मगध नरेश श्रेणिकजी
इन सातों पुत्रियों के जीवन चरित्र में उत्कृष्ट धर्म श्रद्धा व त्याग की शूरवीरता प्रकट होती है।
इन 7 मे से 4 की गिनती जिनशासन की महान 16 सतियो में बड़े आदर के साथ की जाती है।
7 में से चेलना जी व ज्येष्ठा जी के अलावा पांचों ने संयमग्रहण कर धर्म की उत्कृष्ट आराधना की थी। चेलना जी की दीक्षा का उल्लेख नही मिला पर उनकी धर्म निष्ठा उच्च थी। श्रेणिक राजा को जिनधर्मानुरागी बनाने में इनका अतुल्य योगदान था।
आगे की गाथाओमे हम इन चेटकपुत्रियो का थोड़ा ज्यादा कथानक देखेंगे।
जिनशासन को गौरववन्ता बनाने वाले इन सतीरत्नो को हमारा भाव पूर्ण नमस्कार हो।
🙏🙏🙏🙏
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सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रंथो से
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।
#बड़ीसाधुवंदना - 102
चेडा नी पुत्री , राखी धर्म सु प्रीत।
राजेमती विजया, मृगावती सुविनित ।105।
हम बात कर रहे है जिनशासन के महान सतीरत्नो की।
राजेमतीजी : - 1
एक उज्वल रत्न ।
उग्रसेन राजा की पुत्री।
समुद्रविजय के पुत्र कुमार नेम तो तीर्थंकर की विरक्त आत्मा थे। जब उनके विवाह की बात चली तब नेम कुमार ने साफ मना कर दिया। पर श्री कृष्ण के अविरत आग्रह को देख अनमने से नेमकुमार विवाह के लिए तैयार हुए। उनका संबन्ध राजेमतीजी से तय हुआ। शादी की तैयारियां होने लगी।
नेम कुमार जैसा सुयोग्य वर प्राप्ति से राजेमतीजी प्रसन्न थे। नये विवाहित जीवन की स्वप्न मंजूषा से कई स्वप्न अब प्रकट होने लगे थे।
विवाह का दिन आ गया। नेम प्रभु की बारात राजेमतीजी को ब्याहने बड़े धूमधाम से निकली। बड़ा विस्तृत यादव परिवार सजधज के बारात में शामिल हुआ।
इधर कुछ ही पलों में नेमकुमार जी की विवाहिता बनने के स्वप्न सँजोती हुई राजेमतीजी भी सजधज कर बैठी थी।
पर अचानक यह विघ्न कैसा ?
😢
जैसे एक वज्राघात हुआ कोमलांगिनी राजेमतीजी के हृदय पर!
राजीमती जीको समाचार मिले, की नेमकुमार बारात मोड़कर वापिस चले गए?!
हुआ यह था, जब बारात विवाह स्थल के करीब पहुंची, तब नेमकुमार के कानों में शहनाइयों के सुर के बीच मे अचानक ढेरो पशुओं की चीत्कार की आवाज पड़ी। अहिंसक, व करूणता से भरे नेम कुमार के हृदय को अति वेदना हुई। उन्होंने सारथी द्वारा पता लगाया तब उन्हें ज्ञात हुआ कि विवाह में आये बारातियों की व्यवस्था हेतु बहुत सारे पशुओं को बंधक बनाया गया है।
नेमकुमार स्तब्ध हो गये।
अहो, एक मेरे विवाह निमित्त इतने सारे पशुओं को नारकीय वेदना!!!
नही नही! में उनकी इस वेदना का निमित्त नही बन सकता। ऐसे प्रारंभ से ही पग पग पर जहाँ हिंसा हो ऐसे विवाह बंधन में मुझे नही बंधना। मैं इस संसार का त्याग कर संयम अंगीकार करूँगा। और पशुओं को बाड़े से छुडा़कर वे बारात मोड़कर वापिस चले गए।
उन्हें समझाने का बहुत प्रयास किया गया पर अब नेमकुमार किसी पर राग द्वेष किये बिना संयमग्रहण के निर्णय पर बने रहे।
यह समाचार राजेमतीजी के लिए अत्यंत दुखदायी बने।
🙏🙏🙏🙏
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#बड़ीसाधुवंदना - 103
चेडा नी पुत्री , राखी धर्म सु प्रीत।
राजेमती विजया, मृगावती सुविनित ।105।
राजीमतीजी - 2
नेमकुमार की दीक्षा का निर्णय सुनकर राजीमती जी अत्यंत दुखी हो गये। अन्यत्र विवाह के लिए उन्होंने मातापिता को स्पष्ट मना कर दिया।
: - आर्य नारी एक बार मन से जिसे पति मान चुकी हो, अब वो भला दूसरे व्यक्ति से विवाह में कैसे बन्ध जाए?
नेमकुमार के वर्षिदान की परंपरा शुरू हुई। इस दौरान राजिमतीजी के सौंदर्य पर मुग्ध बने हुए रथनेमि जो कि नेमकुमार के सगे भाई थे। उन्होंने राजिमतीजी से विवाह करने के कई प्रयास किये। परन्तु राजिमतीजी अब मन से नेमकुमार को ही अपना पति मान चुकी थी। वे जो भी मार्ग चुने, उसका ही अनुसरण करने का दृढ़ मन बना चुकी थी।
राजीमती ने रथनेमि को कई दृष्टांत देकर समझाया। आख़िर जब वे नही माने तब एकबार एक युक्ति की।
उन्होंने रथनेमि जी आये तब बहुत सारा दूध पी लिया। फिर मदनफल ( जिसको सूंघने से पेट मे रहा सारा आहार वमन से बाहर आ जाता है। ) सूंघ कर रथनेमीजी के सामने ही कटोरे में वमन कर दिया। रथनेमि जी को कहा की उस दूध को पी लो। रथनेमीजी अवाक थे।
राजिमतीजी ने कहा : - जिस तरह वमन किया हुआ यह दूध आप पी नही सकते उसी तरह आपके भाई द्वारा त्यागी गयी मैं आपके लिए कैसे योग्य हो सकती हूं। संसार के भोग इसी वमन की तरह है। जिसे नेमकुमार ने त्याग दिया। अब मैं भी उनका ही अनुसरण करूंगी।
रथनेमि जी संभल गये। उन्होंने भी राजिमतीजी का आग्रह छोड़कर विरक्त बन गए।
इधर नेमकुमार ने दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा के 54 दिन बाद उन्हें केवल्यप्राप्ति हुई। नेमकुमार अब नेमप्रभु बन गए।प्रथम समोवसरण में उन्होंने साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका 4 संघ रूप तीर्थ की स्थापना की। राजिमतीजी ,रथनेमीजी आदी कई जनों ने दीक्षा ग्रहण की।
( उनकी दीक्षा के समय मे कुछ मान्यताभेद है। )।
एक बार फिर ऐसा अवसर आया कि रथनेमीजी काम कषाय में बहने लगे तब राजिमतीजी ने उन्हें पुनः समझाकर संयम में स्थिर किया। (आगे की गाथाओमे रथनेमीजी के वर्णन में हम यह पढ़ चुके है। )
इस तरह संयम की उत्कृष्ट आराधना करते हुए सतीरत्ना राजिमतीजी(राजुल ) अंत मे सिद्ध बुद्ध व मुक्त हुई।
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#बड़ीसाधुवंदना - 104
चेडा नी पुत्री , राखी धर्म सु प्रीत।
राजेमती विजया, मृगावती सुविनित ।105।
स्थूलभद्रजी, जंबूस्वामी आदि के काम कषाय पर विजय प्राप्ति की गाथा हमने पढ़ी। इसी श्रृंखला में जिनशासन में एक श्रावक श्राविका का नाम अविस्मरणीय है।
विजय - विजया जी
कौशांबी नगरी में अर्हद्दास नामक एक वैभवी श्रेष्ठि रहते थे। उनकी पत्नी का नाम था अर्हद्दासी । पुत्र विजय । पूरा परिवार अत्यंत वैभव में जीते हुए भी जैन मतावलंबी व धर्मनिष्ठ था। पुत्र विजय अन्य शिक्षाओं में प्रवीण बनने के साथ परिवार व माता के संस्कारो से धर्म मे भी अनुराग रखने वाला था। एकदा ऐसे ही किन्हीं श्रमण के दर्शन वन्दन करने गए तब उन मुनिके प्रभावी वाणी में ब्रह्मचर्य का वर्णन सुना। संस्कारी, जैन मुनिवचनो में दृढ़ निष्ठावान विजय ने मुनि के वचनों से प्रेरित होकर ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार करने का निर्णय लिया। पर थे तो गृहस्थी। भविष्य में ब्याह होगा। पत्नी भी आएगी। संसार धर्म भी निभाना होगा यह सोचकर मुनि से आंशिक ब्रह्मचर्य स्वीकार किया। इसमें हर माह के शुक्ल पक्ष के दिनों में ब्रह्मचर्य का संपूर्ण पालन। मुनि से प्रत्याख्यान लेकर आनन्दित होते हुए घर आये।
कुछ दिनों में एक श्रेष्ठी पुत्री सुंदर कन्या विजया से उनका विवाह भी संपन्न हुआ। शुक्ल पक्ष के वे दिन चल रहे थे।
विवाह पश्चात मधुरमिलन की प्रथम रात्री। कई स्वप्नों से सजी हुई रात को जंबूस्वामी की तरह विजय विजया ने भी धन्यातिधन्य बना दिया। कैसे : - जब विजय ने अपनी नवविवाहिता से अपने शुक्ल पक्ष के ब्रह्मचर्य के प्रत्याख्यान की बात सुनाई तब विजया ने एक नई बात उन्हें बताई। एक साध्वीजी से उन्होंने भी हर माह के कृष्ण पक्ष को ब्रह्मचर्य पालन के प्रत्याख्यान ले लिए थे।
एक के प्रत्याख्यान शुक्लपक्ष के, तो दूसरे के प्रत्याख्यान कृष्ण पक्ष के । यानी अब प्रत्याख्यान रहते दोनों का दैहिक मिलन असंभव।
अहो! अहो! अहो आश्चर्यम!
दोनो परस्पर के प्रत्याख्यान सुनकर खेदित नही हुए अपितु धन्यता व हर्ष की अनुभूति करने लगे। वीरांगना विजया के सहकार से अब आजीवन ब्रह्मचर्य पालने की अनुकूलता हो गई, यह सोचकर विजय व ऐसी ही सोच से विजया अत्यंत हर्षित हुए। पर विजया ने भावी चिंता व्यक्त की , जब इस घर - कुल का वारिस के लिए??
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सन्दर्भ : - डॉ पद्ममुनि के ग्रन्थ से
इस कथानक को उपरोक्त ग्रन्थ से लिया है, किन्ही आगममे से नही। तत्त्व केवली गम्यं ।
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।
#बड़ीसाधुवंदना - 105
चेडा नी पुत्री , राखी धर्म सु प्रीत।
राजेमती विजया, मृगावती सुविनित ।105।
विजय सेठ - विजया सेठानी जी - 2
उदार विजया ने विजय को शुक्ल पक्ष का ब्रह्मचर्य पालन भी हो, और इस घर को वारिस भी मिल जाये इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए विजय को दूसरा विवाह करने की विनती की। पर अब विजय सहज आ मिले त्याग के इस अवसर को खोना नही चाहते थे। विजय ने विजया की उदारता की सराहना करते हुए उसके प्रस्ताव का अस्वीकार किया। उन दोनों ने ब्रह्मचर्य व्रत को आजीवन पालने का दृढ़ निर्णय बना लिया।
पर यह बात गुप्त रहेगी। जब भी यह निर्णय सब को पता चलेगा, हम दोनों संयम अंगीकार करेंगे ।
इस निश्चय के साथ दोनों अपना जीवन धर्ममय मार्ग से जीने लगे। दिन बीते, सुहानी राते, फिर मादक वर्षा, वसंत आदि ऋतुएं, बरसो बीतने लगे। पर उनके व्रत को कोई भी समय डिगा न पाया। न किसी को पता चला। दोनो के खंड ब्रह्मचर्य व्रत को अखंड बनाकर पालन करते रहे। (एक कक्ष में अलग शय्या पर रहकर जीना-निद्रा लेना)
पर एक दिन अचानक!!!!!
अंगदेश में एक जिनदास नामक दृढ़ धर्मी, परम क्रियावान श्रावक रहता था। उसने प्रातःकाल में एक अजीब स्वप्न देखा। वे एकसाथ 84000 तपस्वी मुनियों को पारणा करवा रहे है। वे इस स्वप्न का अर्थ समझें नही।
ऐसे में एक केवली भगवन्त वहां पधारे। उन्होंने जिनदासको स्वप्नों के अर्थ बताते हुए कहा - की एक अखंड ब्रह्मचारी जोड़े को पारणा करवाने से 84000 तपस्वी साधु को पारणा करवाने जितना लाभ मिल सकता है।
जिनदास ने ऐसा जोडा कहा मिलेगा यह प्रतिप्रश्न किया। तब केवली प्रभुने कौशांबी के विजय विजया सेठानी का नाम दिया।
जिनदास जी कौशांबी आये। अर्हद्दास के घर आकर सभी नगरजनो के समक्ष उन दोनों की स्तुति करते हुए दोनो का व्रत सभी के सामने उजागर किया। सब स्तब्ध रह गए। लोगो ने इस त्यागी दंपत्ति की खूब अनुमोदना की।
अपने निर्णय अनुसार उनके व्रत का सभी को पता लग जाने के बाद संयम ग्रहण किया। स्व पर कल्याण करते हुए कई वर्षों तक विचरते रहे। अंत मे देह त्याग 8 कर्मोंका क्षय कर दोनो सिद्ध बुद्ध मुक्त बने।
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सन्दर्भ : - डॉ पद्ममुनि के ग्रन्थ से
इस कथानक को उपरोक्त ग्रन्थ से लिया है, किन्ही आगममे से नही। तत्त्व केवली गम्यं ।
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।
#बड़ीसाधुवंदना - 106
चेडा नी पुत्री , राखी धर्म सु प्रीत।
राजेमती विजया, मृगावती सुविनित ।105।
मृगावतीजी - 1 : -
जिनशासन के वीर व धर्मनिष्ठ पात्र राजा चेटक की सात पुत्रियों के नाम हमने पढ़े, उनमे से एक नाम है मृगावतीजी। सुंदर, धर्म निष्ठ, कर्तव्य परायण मृगावतीजी का विवाह कौशांबी नरेश शतानीक के साथ हुआ था।
सुखमय दिन बीत रहे थे। राजमहल में मृगावती के पुत्र उदयन अभी छोटा ही था, इधर एक दु:खद घटना घटी। उस घटना के बीज कुछ इस तरह अनजाने बोये गये।
कौशांबी में एक निपुण चित्रकार रहता था। उसकी अविरत चित्र साधना से उसे एक अदभुत कला हस्तगत हो गई थी। वह किसी व्यक्ति का पांव का अंगूठा मात्र देख लेता तो वह उसका पूरा हूबहू चित्र बना सकता था।
उस कला के प्रदर्शन के लिए एकबार उसे राजमहल में बुलाया गया। महारानी मृगावती का पांव का अंगूठा देखकर उसने उनका चित्र बनाना शुरू किया। अदभुत कलाकारी। उसने सिर्फ अंगूठा देखा था पर महारानी का हूबहू चित्र बन रहा था। पर यह क्या? चित्र बनाते समय काले रंग का एक बूंद चित्र में महारानी की जंघा पर गिर गया। गलती हुई मॉनकर चित्रकार ने उस काली बून्द को साफ कर दिया। पर अहो आश्चर्यम ! दूसरी, तीसरी बार उसके हाथों से एक काले रंग की बूंद उसी जगह गिरी। तब चित्रकार ने उसे रहने दिया। वह बून्द जंघा पर स्थित एक तिल जैसे लग रही थी।
चित्र पूरा हुआ। राजा ने देखा वह भी इस कला से प्रसन्न हुआ पर जब उसकी नजर जंघा के तिल पर गई तब उसे संदेह हुआ : - इस चित्रकार को जंघा के तिल का कैसे पता? हो न हो उस ने गलत तरीके से कभी देखा होगा या रानी के साथ कभी गलत संबन्ध रहा होगा।
शंका के इस विष ने राजा शतानीक की मति भ्रमित कर दी।
जिस चित्रकार को पुरस्कृत करना चाहिए था उसे दण्ड स्वरूप दाहिने हाथ का अंगूठा कटवाकर देशनिकाला दे दिया।
वह चित्रकार अपने आप को अपमानित हुआ देखकर, राजा से बदला लेने का सोचा। उसने अपनी कला फिर आजमाई । बिना अंगूठे के ही , रानी मृगावती का सुंदर चित्र बनाकर , अवन्तिनरेश , स्त्री की सुंदरता जिसकी कमजोरी थी, ऐसे लंपट व कामी चण्ड प्रद्योत को दिखाया। और यही नही उसकी सुंदरता की स्तुति कर चण्डप्रद्योत को मृगावती को पाने के लिए लालायित कर दिया।
कामी नरेश चण्डप्रद्योत ने मृगावतीजी को प्राप्त करने के मोह में सार असार का विवेक छोड़कर कौशांबी पर अचानक आक्रमण कर दिया। सहसा हुए इस हमले से स्तब्ध शतानीक नरेश ने प्राण त्याग दिए।
अब राजमहल में लाचार असहाय नारी मृगावती , अपने नन्हे पुत्र के साथ । पर नही, वे एक वीर नारी थी। नगर के बाहर खुद को प्राप्त करने के लिए विशाल सेना लेकर बैठा शत्रु, सेना से भयभीत खुद की नगरी, महल में पति का देहांत इन विपरीत परिस्थिति में कुछ ही समय मे मृगावती ने अपने आप को संभाल लिया। खुद के शील की, नगरजनो की सुरक्षा, पुत्र उदायन का राज्य सिँहासन की सुरक्षा के लिए यह वीर रानी कटिबद्ध हुई।
उसने युक्ति आजमाई । नगरी के बाहर बैठे शत्रु को कहलवाया : - मैं अपने आपको समर्पण करने को तैयार हूं, पर अभी मेरे पति का देहांत हुआ है, 6 माह तक मुझे पति शोक से बाहर आने का समय दीजिये।
चण्डप्रद्योत भी मान कर नगरी में आक्रमण करने से रूक गया। वह 6 माह का समय देकर अवंति लौट गया। रानी ने तब तक अपनी नगरी की सुरक्षा के सघन प्रयास कर लिए।
6 माह बाद चण्डप्रद्योत ने अपने दूत भेजकर अपना वचन याद दिलवाया। तब सिंह समान चरित्र वाली महासती ने अपने चारित्र से डिगने का स्पष्ट इन्कार कर दिया। मैं राजा शतानीक की विधवा हूं, प्राण त्याग दूंगी परन्तु अपने शील को पतित नही होने दूंगी। किसी भी कीमत पर मैं चण्डप्रद्योत की रानी बनना स्वीकार नही करूंगी।
यह सुनकर आवेश में आया चण्डप्रद्योत ने पुनः कौशांबी पर आक्रमण कर दिया।
इसी दौरान वीरप्रभु का कौशांबी में पदार्पण हुआ। प्रभुकी देशना सुनने सभी पधारे। मृगावती भी उदयन के साथ थी। वहीँ चण्डप्रद्योत भी था। प्रभुकी देशना सुनकर मृगावती विरक्त हो गई। उसने वहीँ चण्डप्रद्योत से दीक्षा की आज्ञा मांगी।
जिस मृगावतीजी को पाने के लिए चण्डप्रद्योत 6 माह से उतावला हो रहा था, जिसके लिए विशाल सेना लेकर नगरी के बाहर बैठा था, क्या उसे वह दीक्षित होने के आज्ञा वह देगा??
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#बड़ीसाधुवंदना - 107
चेडा नी पुत्री , राखी धर्म सु प्रीत।
राजेमती विजया, मृगावती सुविनित ।105।
मृगावतीजी - 2 : -
प्रभुकी देशना का प्रभाव , जहां जीव अपने जातिगत वैर भी भूल जाते है , उस प्रभुके अतिशय का ही चमत्कार था , कि चण्डप्रद्योत भी मान गया। उसने आक्रमण का विचार छोड़ उदयन को राजा बनाकर मृगावतीजी का दीक्षा समारोह किया।
मृगावतीजी चन्दनबाला जी आर्या की शिष्या बनी।
दीक्षित होकर संयम की उत्कृष्ट आराधना करने लगे।
एकबार आर्या मृगावती जी वीर प्रभुके समोवसरण में गुरुणी चन्दनबाला जी के साथ प्रभुकी दिव्य देशना सुन रही थी। उस समोवसरण मे सूर्य व चन्द्र आदि देव भी उपस्थित थे। यह भी एक आश्चर्य ही था कि ज्योतिष देव अपने मूल देह व विमान के साथ समोवसरण में उपस्थित थे।
देशना के बाद समय सूर्यास्त तक पहुंच गया। तेजस्वी देह व विमानों की वजह से समोवसरण में दिन जैसा ही उजाला था। आर्या चन्दनबाला जी अन्य संकेतो से दिन का अस्त हुआ समझकर अपनी साध्वी मर्यादा समझकर वँहा से उठकर चले गए। परन्तु वहां चल रही धर्मचर्चा में तल्लीन आर्या मृगावतीजी को सूर्यास्त के ध्यान कुछ देर बाद आया। वे तत्काल गुरुणी के पास आ गये।
गुरुणी जी ने एक हल्का उपालंभ व साध्वी आचार को समझने का, ऐसे व्यवहार रखने का सूचन किया।
मृगावतीजी को अपनी गलती का बेहद पश्चाताप हो रहा था। उस पश्चाताप में गुरुणी के लिए द्वेष नही, पर खुद की गलती का अफसोस था। उस गलती को भविष्य में न दोहराने का, संयम में उत्कृष्ट आराधना करने का चिंतन करने लगे। उनका चिंतन क्रमशः उर्ध्वगामी बनता गया। धीरे धीरे शुक्लध्यान में प्रविष्ट हो गए। और उसी रात उन्हें केवल्यप्राप्ति हो गई। लोकालोक की तीनो काल की समग्र वस्तु बिना किसी इन्द्रिय या मन की सहायता से प्रत्यक्ष दिखने लगी।
काजलसी काली रात में उन्होंने ज्ञान का प्रकाशपुंज प्राप्त कर लिया। कितना अदभुत वह चिंतन होगा!!!
गुरुणी चन्दनबाला जी वहीं निंद्रा में थे। उनके पास के संथारे ( सोने की जगह ) पर आर्या मृगावतीजी थे। अचानक उस अंधेरी रात में भी ज्ञान के प्रकाश में उन्होंने एक काले विषधर नाग को गुरुणी की शय्या के पास देखा। गुरुणी का हाथ उस विषधर के मार्ग में आनेवाला था। मृगावतीजी ने गुरुणी का हाथ हल्के से उठाकर दूसरी तरफ कर दिया। सांप चला गया। पर हाथ के स्पर्श से गुरुणी जी जाग गये। उन्होंने पूछा कि क्या हुआ, तब मृगावतीजी ने वहां से गुजरे सर्प की बात बताई।
चन्दनबाला जी आश्चर्यचकित हो गये, इतने अंधेरे में आपको काला सर्प कैसे दिखाई दिया? क्या कोई विशेष ज्ञान प्राप्त हुआ। तब आर्या मृगावतीजी ने कहा : - हां, आपकी कृपा से केवल्यप्राप्ति हुई है। यह केवली का भी गुरु के प्रति विनय देखने जैसा है।
गुरुणी को बहुत हर्ष हुआ, पर अचानक उन्हें शाम में दिए उपालंभ याद आया! अहो, मैने केवली को डांटा, उनकी आशातना की। इस दु:ख में वे विलाप करने लगे। उनसे ऐसी गलती कैसे हो गई, वह उनके रुदन की वजह बन गई। यह विलाप शुभत्त्व की ओर बढ़ा। धीरे-धीरे विलाप के स्थान पर शुक्लध्यान में प्रवेश किया। उर्ध्वचिन्तन की श्रृंखला में बढ़ते हुए उन्होंने भी उसी रात केवलज्ञान प्राप्त कर लिया।
अहो, अदभुत अदभुत था गुरु शिष्या का संयम, उनकी धर्म निष्ठा व संयम में सजगता, अपने दोषों के प्रति जागरूकता। जिससे उन्होंने केवल्यप्राप्ति तक हो गई।
मृगावतीजी ने केवलिपने में विचरते हुए अपना आयु पूर्ण कर अंत मे सिद्ध बुद्ध व मुक्त बने।
धन्य धन्य जिनशासनम !!!
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संकलन सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रन्थ से
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।
#बड़ीसाधुवंदना - 108
पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।
इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।
जिनशासन को हम कितना महान देखे, जाने समझे!!
इतने सारे महान पात्र यहां हो गये जिनकी गाथा का वर्णन भी हम अपनी मर्यादा से पूरा नही कर पाते। तो उनका चारित्र उन महान हस्तियों ने कैसे जिया व निभाया होगा।?
आचार्य जयमलजी महाराजसाहेब का हमपर यह अनहद या अतुल्य उपकार है , जो इस स्तुति में इतने नामो को उजागर किया, उनकी जीवन चरित्र पढ़कर हम हमारे धर्म मार्ग में आगे बढ़ सके। उस स्तुति के माध्यम से रोजाना हम इनके गुणो को वन्दन नमन कर सके।
ऊपर की गाथा में उन महान सतीरत्नो के उत्कट चारित्र्य गुणो को नमन है जिनका वर्णन सिर्फ जैनागमों में ही नही पर वैदिक शास्त्रों में भी अत्यंत सन्मान के साथ किया गया है।बस
एक ही शब्द नीकलता है हृदय की गहराई से,
अहो, अहो, धन्य है जिनशासन !
पद्मावतीजी : - 1
चेटकराजा की द्वीतीय पुत्री पद्मावतीजी । इनका विवाह चंपानगरी के राजा दधिवाहन से हुआ था। ये वही दधिवाहन राजा है , जिनकी एक रानी अभया ने सुदर्शन श्रावक पर शीलभंग का मिथ्या आरोप लगाया था और सुदर्शन श्रावक के शील के प्रभाव से उन्हें जिस शूली पर चढ़ाया जा रहा था वह सिंहासन में परिवर्तित हो गई थी।
चंपानगरी के इसी राजा दधिवाहन की एक रानी धारिणी ने शत्रु आक्रमण के समय रथीक से अपने शील की रक्षा व अपनी पुत्री वसुमतीजी को शीलभंग से बचने की शिक्षा देते हुए अपनी जिव्हा काटकर अपने प्राण त्याग दिए थे। वही बालिका राजकुमारी ने आगे चलकर वीरप्रभु की प्रथम शिष्या व 36000 साध्वियों के गण प्रमुखा आर्या चन्दनबाला जी बनी।
उन्हीं दधिवाहन की रानी पद्मावतीजी। विवाह पश्चात रानी गर्भवती बनी। गर्भावस्था में रानी को एक दोहद उत्पन्न हुआ।
दोहद : - गर्भावस्था में स्त्री को जो अलग अलग इच्छा होती है उन्हें दोहद कहा जाता है। यह गर्भका भी प्रभाव भी हो सकता है। जैन इतिहास में इसका वर्णन बहुत सुनने पढ़ने में आता है। उन दोहद को पूरा करने की कोशिश भी पूर्णतः की जाती है। ताकि गर्भिणी स्त्री को आनन्द प्राप्त हो और स्वस्थ पुत्र को जन्म दे सके । जैसे श्रेणिक राजा का पूर्वभव के वैरी सेनक तापस का जीव श्रेणिक की ही रानी चेलना के गर्भ में आया , तब चेलना को श्रेणिक राजा के कलेजे का मांस खाने का दोहद हुआ था। जैन धर्मानुरागी, पति परायणा, अहिंसक जैन धर्म मे अनुरक्त चेलना को ऐसे घातक दोहद के होने से उसी समय पता चल गया था कि गर्भ में वैरी पुत्र , पिता का घातक बनेगा। इसी लिए चेलना ने दोहद की बात किसी को बताई नही ।पर किसी तरह श्रेणिक को यह पता चल ही गया। अभयकुमार ने अपनी तीक्ष्ण बुद्धि से श्रेणिक को नुकसान पहुंचाए बिना चेलना रानी का दोहद पूर्ण करवाया था। चेलना ने अमंगल समझकर पुत्र कोणिक के जन्म के समय ही उसका त्याग कर दिया था। पर श्रेणिक की उदारता थी कि वह कोणिक को वापिस ले आया।
रानी पद्मावतीजी को भी कुछ विचित्र दोहद उत्पन्न हुआ। राजा का वेश पहनकर, राजा के सभी चिह्न धारण कर हाथी पर बैठकर वह नगर में घूमते हुए वन में क्रीड़ा करने जाए। राजा स्वयं उनके चामर ढोले। ऐसे अजीब दोहद को रानी राजा को बता न पाए। पर मन की दुविधा, दोहद की अपूर्ति से वह खिन्न रहने लगी। उन्हें अस्वस्थ देखकर राजा ने अति आग्रह से पूछा तो रानी को उस दोहद की बात बतानी पड़ी।
अब राजा क्या करेगा?
ऐसा दोहद पूरा करेंगे ?
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संकलन सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रन्थ से
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।
#बड़ीसाधुवंदना - 109
पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।
इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।
अब राजा क्या करेगा?
ऐसा दोहद पूरा करेंगे ?
#पद्मावतीजी 2
राजा ने बड़ी उदारता के साथ इस दोहद को पूर्ण करवाने का मन बनाया। तैयारियां की गई। बिल्कुल रानी की इच्छा की तरह रानी राजा के वेश व राजचिह्न धारण कर हाथी पर बैठी। राजा साथ बैठे हुए चामर ढोल रहे थे। चारो ओर सैनिक थे। यह सवारी नगर में घूमने लगी। नगर में पहले ही सूचना कर दी गई थी। प्रजा इस अनोखी सवारी व राजा की उदारता देखकर हर्षित हुई। रानी अपने दोहद की पूर्ति से संतुष्ट थी। नगर से होते हुए यह सवारी भृमण के लिए वन में निकली।
कुछ दूर वन में जाते ही अचानक हाथी को जाने क्या हुआ वह मदोन्मत्त बन गया। सूंढ़ ऊँचीकर जोर से चिंघाड़ की। और तीव्र गति से भागने लगा। महावत को भी गिरा दिया। सब सैनिकों को पीछे छोड़कर वह हाथी वन में भागने लगा। अचानक आई विपत्ति को देखकर हाथी पर बैठे हुए राजारानी स्तब्ध रह गए। राजा तुरन्त संभल गये वह अकेले होते तो कूदकर प्राण बचा लेते।पर साथ ही गर्भवती रानी भी थी। उनके प्राणों की रक्षा भी जरूरी थी। हाथी के मार्ग में आनेवाले वटवृक्षो को देखकर राजा ने जल्दी से उपाय ढूंढ लिया। रानी को कहा : - याबा जैसे ही कोई विशाल वटवृक्ष की लंबी शाखा दिखे तो हम उसे पकड़कर अपने प्राण बचा लेंगे। रानी भी श्रम गई थी। उसने राजा को अनुमति दी। जैसे एक अच्छा वृक्ष दिखा रानी ने राजा ने रानी को वह वृक्ष की शाखा पकड लेने को कहा। वृक्ष नजदीक आया , राजा ने वृक्ष की शाखा पकड़ ली। और शाखा पकड़कर नीचे उतर गए। पर रानी शाखा नही पकड़ पाई। राजा भी अब पीछे छूट गए । हाथी अभी भी भाग रहा था। मन मे अरिहंतो का , नवकार महामंत्र का स्मरण करती रानी हाथी के ऊपर रही इस विपत्ति से बचने की प्रार्थना करने लगी।
काफी लंबे समय तक हाथी अनजान वन में भागता रहा। रात्री भी होकर पूर्ण होने आए। अब हाथी थक चुका था। एक जलाशय देखकर पानी पीने रणक गया। तब रानी नीचे उतर गई।
अब वन में भयभीत हिरनी की माफिक वह घूमन लगी। अनजान मार्ग में वह जाए भी तो कहां!!
घूमते घूमते एक ग्राम में पहुंची। वहां कुछ साध्विजियो का संघ भी था। उन्होंने रानी को आश्वासन व आश्रय दिया। कुछ समय उनके साथ रहने , उनकी वाणी सुनकर अब वह विरक्त हुई। अभी तक गुरुणी जी को उनके गर्भावस्था या मूल परिचय नही बताया था। उसने गुरुणी से संयम ग्रहण किया। व आराधना में लग गई। कुछ समय पश्चात जब गर्भावस्था के लक्षण दिखे तब गुरुणी ने ऊनसे सच जानकर संघ वरिष्ठों की मदद से साध्वी पद्मावतीजी का गुप्त प्रसव करवाया। बालक को एक निसंतान चंडाल के श्मशान में छोड़ दिया। उस पुत्र को चंडाल ने अपना पुत्र बना लिया।
साध्वीजी पुनः अपने संघ में लौट आई। और आराधना में लगी।
चंडाल ने उस पुत्र का नाम करकण्डु रक्खा। विधि की विचित्रता देखे, तो आगे कुछ ऐसे घटनाक्रम बनता है कि करकण्डु अपने बाहुबल से एक बड़ा राजा बनते है। राजा बनने के बाद एक बार युद्ध मे अपने ही पिता से युद्धभूमि में टकराने के अवसर आता है। यह समाचार साध्वी पद्मावतीजी को मिलता है तब वे युद्धभूमि में जाकर पिता पुत्र का युद्ध रोकते है। एक दूसरे का परिचय देते है। युद्धभूमि में पिता पुत्र का मिलन देख साध्वीजी पुनः अपनी साधना में लग जाते है। उत्कृष्ट आराधना से अपना मार्ग प्रशस्त करते है।
धन्य धन्य जिनशासन
हमने प्रत्येक बुद्ध करकण्डुजी का चरित्र आगे की गाथाओमे देखा था ।
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जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।
#बड़ीसाधुवंदना - 110
पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।
इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।
#मयणरेहा - 1
पिछली गाथाओमे हमने 4 प्रत्येक बुद्ध की कथा पढ़ी थी उन्हीं 4 में से एक नमिराजा की महासती माता मयणरेहा यानी मदनरेखा का जीवन चारित्र भी अति प्रेरक है।
सुदर्शनपुर के नरेश थे मणिरथ। उनके लघुभ्राता युगबाहु युवराज पद पर थे। दोनो भ्राता में अत्यंत अनुराग था। पर वह अनुराग विषय की आग में झुलस गया।
क्या हुआ?
युगबाहु की पत्नी का नाम था मदनरेखा व उसके एक छोटा पुत्र था चन्द्र यश । मदनरेखा ने दूसरा गर्भ धारण किया। एक बार बड़े भाई मणिरथ की विषयी दृष्टि मदनरेखा पर पड़ी। और कामी मन उस पर आसक्त हो गया। मदनरेखा के साथ भोग भोगने के लिए वह लालायित हो उठा। उस वासना के चलते सही गलत का सब विवेक वह भूल बैठा। समाज , भाई के रिश्ते, नैतिकता की सभी मर्यादा उसने दासी द्वारा उपहार भेज कर मदनरेखा से प्रणय निवेदन किया।
मदनरेखा दृढ़ धर्मी, पति परायण नारी थी। उसने दासी को धुत्कार कर मणिरथ का प्रणय निवेदन ठुकरा दिया।
इस इन्कार ने मणिरथ को और पागल बना दिया। उसने येनकेन प्रकारेण मदनरेखा को प्राप्त करने का जाल बिछाया। सरहद पर युद्ध का बहाना कर के युगबाहु को नगर से बाहर भेज दिया। भाई पर पूर्ण विश्वास करने व युद्ध मे अपना शौर्य दिखाने बहादुर युगबाहु सरहद पर चला गया।
इधर रात के सन्नाटे में मणीरथ मदनरेखा के महल में आया। मदनरेखा को मणिरथ के षड्यंत्र की शंका तो थी ही । वह शील के लिए सजग नारी गुप्त द्वार से महल छोड़कर युगबाहु की माता के महल चली गई। मणिरथ हाथ मलता रह गया। कुछ दिनों में ही सरहद के युद्ध में विजय प्राप्त कर युगबाहु लौट रहे है यह समाचार आया।
मणिरथ को यह अच्छा नही लगा। काश किसी तरह युगबाहु मृत्यु को प्राप्त हो जाये तो मैं मदनरेखा को प्राप्त कर सकूंगा। कुछ ऐसे ही सोचकर युगबाहु को सन्देश पहुँचाया की आप नगरी के बाहर रुके। दूसरे दिन भव्य स्वागत के साथ विजय जुलुस निकालते हुए तुम नगरप्रवेश करना।
युगबाहु नगर के बाहर छावनी में रुक गया। मदनरेखा को फिर अनिष्ट की आशंका हुई। रात में ही वह छावनी में पति के पास पहुंची। मणिरथ भी रात के अंधेरे का लाभ उठाकर छावनी में आ गया। उसे पहचानने वाले सैनिकों ने भी उसे रोका नही।
वह नंगी तलवार लेकर युगबाहु व मदनरेखा के तंबू में पहुंचा। मदनरेखा युगबाहु को सावधान करे उससे पूर्व ही मणिरथ ने तलवार का एक प्राणघातक वार युगबाहु पर कर दिया। और वहां से भाग गया।
युगबाहु अंतिम सांसे गिनने लगा था। तब महासती मदनरेखा ने विलाप या आर्तध्यान की जगह बहादुरी से काम लिया। पति युगबाहु आर्त रौद्र ध्यान में कहीं अपना अगला भव न बिगाड़ ले यह अब मदनरेखा का लक्ष्य था। उसने युगबाहु को अंतिम साधना करवाई। जगत के सभी जीवों के प्रति राग द्वेष खत्म करवाने का बोध दिया। भाई मणिरथ पर भी लेशमात्र द्वेष या क्रोध न करने को समझाया। सब कर्मो के अधीन होता है तो अब कोई कर्म ऐसे न बांधे की वैर की परंपरा आगे चले। मदनरेखा का श्रम रंग लाया। युगबाहु ने आलोचना ली। सभी से रागद्वेष त्याग कर खमतखामना किया व काल कर देव बने।
अब सती मदनरेखा क्या करे?
राजमहल में पुत्र चन्द्र यश था। उदर में पल रहे गर्भ की चिंता, पति का वियोग व अब मणिरथ का मार्ग भी निष्कंटक हो गया तो उससे अपने शील की रक्षा!!!
देखते हैं आगे
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जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।
#बड़ीसाधुवंदना - 111
पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।
इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।
#मयणरेहा - 2
मदनरेखा बहादुर धर्मनिष्ठ नारी थी। घबराकर आर्तध्यान की जगह उसने सब संयोगों का विचार किया। व अंत मे छावनी से महल जाने की जगह रात के अंधेरे में ही नगर का त्याग कर दिया। अरिहंत का शरण लेकर वह नगर से दूर निकल गई। सुबह होते होते वह नगर से काफी दूर एक वनके जलाशय के पास पहुंच गई। वँहा उसे प्रसव वेदना हुई। बहादुर नारी ने अकेले ही जंगल मे सुंदर पुत्र को जन्म दिया। पुत्र की शुद्धि कर उसे अपनी निशानी पहनाई, वृक्ष की शाखा पर झोली में बांधकर वह स्वयं शुद्धि के लिए जलाशय में उतरी।
पर हाय रे कर्म का विपाक!
वहां से ऊपर विमान से गुजर रहे एक विद्याधर ने उसे देखा, उसके सौंदर्य पर मोहित होकर उसने मदनरेखा को उठा कर विमान में ले लिया। प्रसव वेदना से थकी मदनरेखा इस आक्रमण से बेहोश हो गई।
जब होंश आया तब वह अपने आप को अपहृत हुआ समझ कर , पुत्र को याद कर रोने लगी। विद्याधर ने उससे प्रणय निवेदन किया। मदनरेखा ने उसे दुत्कार दिया।
उस विद्याधर के पिता केवलज्ञान प्राप्त मुनि थे। मार्ग में ही होने से वह विद्याधर पिता मुनि के दर्शन करने रुका। मदनरेखा ने भी हर्षित होकर दर्शन करने आने की इच्छा व्यक्त की। मदनरेखा को विश्वास था, केवली भगवंत मेरी वेदना को समझेंगे व पुत्र को प्रतिबोध देकर मुझे इस आपत्ति से बचा लेंगे।
और हुआ भी वैसा ही। केवली भगवन्त ज्ञान से पुत्र के अधम कृत्य को जान चुके थे। उन्होंने पुत्र को प्रतिबोधित किया। विद्याधर को भी अपनी गलती का एहसास हुआ। मदनरेखा ने उसके नवजात पुत्र के बारे मे पुछा , तब विद्याधर ने उसे आश्वस्त किया कि उस पुत्र को मिथिला नरेश ले गए है और अपने पुत्र की तरह उसे स्वीकार किया है।
विद्याधर ने मदनरेखा को मुक्त किया। इन सब प्रपंचलीला से गुजर कर मदनरेखा विरक्त हो चुकी थी। साध्वीसमुदाय में आकर उसने संयम ग्रहण किया।
और मोक्षमार्ग की उत्कृष्ट साधना करने लगी।
समय बीतता गया। इधर उसके दोनो पुत्र बड़े हुए। चन्द्रयश मणिरथ के काल बाद सुदर्शनपुर का राजा बना। छोटा राजकुमार जिसका नाम नमीकुमार रखा गया था वह मिथिला का सम्राट बन गया।
एक बार चन्द्रयश राजा का एक उत्तम श्वेत हस्ति मदमस्त होकर मिथिला की सीमा में घुस आया। नमिराजा ने उसे पकड़वाकर उत्तम हस्ति रत्न जानकर अपने पास रख लिया ।
चन्द्रयश ने वह हाथी वापिस मांगा। नमिराजा ने इनकार कर दिया। दोनो भाई अपने संबन्ध से अनजान एक हाथी के लिए युद्ध करने को तैयार हो गये।
दोनो सेनाएं आमनेसामने आ गई।
यह समाचार साध्वी मदनरेखा को मिले। दोनो सगे भाई में युद्ध का अनर्थ!?? गुरुणी की आज्ञा लेकर महासतीजी रण मैदान में आये। दोनो राजाओको परिचय दिया। उनदोनो का परस्पर संबन्ध बताया तब दोनो को सुखद आश्चर्य हुआ। युद्ध छोड़ दोनो भाई गले मिल गये।
आर्या मदनरेखा जी ने दोनो भाई का मिलन करवाकर वापिस साध्विसंघ में आ गए। अपनी आराधना से उन्होंने आठो कर्मो का चूरा कर सिद्ध गति को प्राप्त किया।
इधर चन्द्रयश ने भी विरक्त होकर अपना राज्य नमिराजा को दे दिया और स्वयं दीक्षा अंगीकार की। कुछ समय बाद नमिराजा को हुए शिरोवेदना में एक कंगन के निमित्त से वैराग्य पाकर संयम लिया । (यह कथानक हम प्रत्येक बुद्ध की गाथा में पढ़ चुके है। ये वही नमिराजा है जो प्रत्येक बुद्ध हुए । )
महान सतीरत्नो को हमारा त्रिकाल वन्दन हो।
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जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।
#बड़ीसाधुवंदना - 112
पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।
इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।
#द्रौपदी : -
एक बहुप्रसिद्ध पात्र।
जिसके पूर्व भव का वर्णन हम गाथा 51 में तथा उनके संयम ग्रहण की घटना गाथा 49 के विवेचन में पढ़ चुके है। यह सती रत्न का जीवनचरित्र इतनी सारी महान उपलब्धियों , इतनी विपत्तियों में रही वीरता के प्रसंगों से भरा हुआ है कि उनसे एक विशाल किताब तैयार हो सके।
हम संक्षिप्त में देखते है।
धर्मरूचि अनगार को कड़वा तुंबा व्होराकर उनकी मृत्यु के बाद सब से तिरस्कृत होती हुई नागश्री वन में अत्यंत वेदना के बाद काल कर नरक,तिर्यंच आदि कई भव करने के बाद सुकुमालिका बनी। उस भव में दीक्षा लेने के बाद एक दिन भोग विलास वाला दृश्य देखकर उसी तरह के भोग की कामना कर बैठी और निदान कर लिया जिसका प्रायश्चित भी नहीं किया तब आगामी भव में उसे पांच पति प्राप्त हुए । सुकुमालिका साध्वी से काल कर देव बनी वँहा से आयुष्य पूरा कर कंपिलपुर नरेश द्रुपद राजा की पुत्री बनी द्रौपदी। धर्मानुरागी , सुंदर सुशील द्रौपदी विवाह योग्य हुई। तब एक स्वयंवर में भवितव्यता अनुसार वह पांच पांडवो की पत्नी बनी।
हस्तिनापुर की रानी बनने के बाद दुर्योधन के कई षड़यंत्रो से त्रस्त पांडवों के साथ वह भी कर्म के फल को समभाव से सहती रही। दुर्योधन की नीचता की पराकाष्ठा थी, एक षड्यंत्र में उसने पांडवों को जुए के लिए आमंत्रित कर उन्हें छल से हराया।
युधिष्ठिर आदि भाइयों को भी जुए में जीतकर दुर्योधन ने दांव पर द्रोपदी को लगवाकर उसे भी जीत लिया। अधमता की सभी सीमाएं त्यागकर द्रौपदी को सभा मे घसीटकर लाया गया। उसके वस्त्र निकालने की घृणित चेष्टा की। द्रोपदी ने तब धर्म का शरण लिया। ढ़ेरों वस्त्र निकल जाने पर भी धर्म के पुण्य प्रभाव से द्रौपदी से वस्त्र लिपटा ही रहा। इतना घृणित कार्य इतिहास में न कभी हुआ न होगा। जिसे सुनकर ही हृदय व्यथा से भर जाता है।
इस घटना के बाद जुए में सर्वस्व हारे पांडवों को वनवास मिला। द्रोपदी ने इतना सब कुछ सहते हुए भी पिता के घर जाने की बजाय अपना पत्नीधर्म निभाते हुए वह हरदम पांडवों के साथ रही। एक राजकुमारी, एक साम्राज्ञी वन वन भटकी। वन में भी दुर्योधन की ईर्ष्या उन्हें जलाती रही। कुछ न कुछ तकलीफें दुर्योधन देता रहा। वन में कई बार अपने सतिधर्म का प्रभाव बताती द्रौपदी संकटो से लड़ती, बचती व परिवार को बचाती रही। इस परिवार ने इतने संकटो में भी धर्म की शरण नही छोड़ी।
वनवास के बाद शर्त अनुसार अज्ञातवास में वे विराट नगर में गुप्त रूप से रहे। वहां कीचक ने सैरंध्री बनी द्रौपदी पर कामी दृष्टि डाली। तब भीम ने उसका वध किया।
ऐसे विपत्तियों से जूझते हुए समय निकला।
महाभारत के संग्राम में विजय वरमाला पहनने के पश्चात एक मान्यतानुसार दुष्ट अश्वत्थामा ने द्रौपदी के पांच-पांच पुत्रो की सोते हुए नींद में हत्या कर दी। जब पांडव व कृष्ण वासुदेव द्वारा अश्वत्थामा पकड़ा गया तब महासती द्रौपदी ने अदभुत वीरता बताते हुए उसे माफ कर दिया।
अभी युद्ध विजय के पश्चात भी द्रौपदी की मुश्किलें खत्म नही हुई थी।
एकबार नारद को अन्यमती मानकर द्रोपदी ने उनका स्वागत नही किया तब नारद ने कपटलीला कर के घातकीखण्ड के पदम् राजा से द्रोपदी का अपहरण करवाया। श्रीकृष्ण की सहायता से पांडव द्रोपदी जी को वापिस लाये। उस घटना में पांडवों ने श्रीकृष्ण की थोड़ी मस्करी की तब कृष्ण ने उन्हें नगरी से निकाल दिया।
फिर पांडवों ने पांडव मथुरा बसाई और वहां राज्य करने लगे।
जराकुमार के द्वारा कृष्ण की मृत्यु के समाचार सुनकर पांचों पांडव व द्रोपदी ने संयम स्वीकार किया। उत्कृष्ट आराधना कर अंत मे पांचों पांडव मोक्ष व द्रौपदी देवलोक गये। अगले भव में महाविदेह से वे भी सिद्ध बुद्ध मुक्त बनेंगे।
महान सतीरत्नो को हमारा त्रिकाल वन्दन हो।
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#बड़ीसाधुवंदना - 113
पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।
इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।
#दमयंतीजी - 1 : -
जिनशासन का एक और अनूठा पात्र, एक महान स्त्री साधक ।
कुंडिलपुर के राजा भीम की पुत्री थी दमयंती। सर्वांग सुंदर, धर्मनिष्ठ कन्या। विवाह योग्य होने पर पिता ने उनके लिए स्वयंवर का आयोजन किया। उसमे दमयंतीजी ने पूर्वभव के स्नेही निषध नरेश के पुत्र नलकुमार को पति रूप में चुन लिया। यह वँहा उपस्थित कृष्ण राजकुमार को पसन्द नही आया। उसने नलकुमार को युद्ध के लिए ललकारा। नलकुमार भी वीर योद्धा थे। चुनोती स्वीकार की। कुछ ही समय मे दोनो की विशाल सेनाएं युद्ध के लिए आमनेसामने तत्पर हो गई।
यह देख दमयंती ने सोचा : -
अहो! एक मेरे कारण इतने सारे मनुष्यो को क्लेश, व युद्ध की स्थिति? दमयंती को अत्यंत परिताप हुआ। उसने धर्म की शरण ली। उनके प्रभाव से अचानक कृष्ण कुमार का हृदय परिवर्तन हुआ। नलकुमार से माफी मांगकर वह चला गया।
दमयंती से ब्याह कर नलकुमार राजधानी लौटे। दोनो सुखरूप, धर्ममय जीवन जीने लगे। निषध नरेश ने नलकुमार को राज्य सिँहासन व छोटे पुत्र कुबेर को युवराज पद पर आसीन कर अपनी साधना हेतु संयम स्वीकार किया।
समय बीतता गया। नलकुमार का छोटा भाई युवराज कुबेर कुलांगार साबित हुआ। उसे राज्यका लोभ जागा। उसने भाई के जुए का शौक जानकर उसे जुए में हराकर सारा राज्य हड़प लिया।
पांडवों के समान नलकुमार को भी वनवास भोगना था। दमयंती को अपने पीहर चले जाने का कहा गया।
महासतीजी में सुख में साथ देकर दुख में अकेले छोड़ने वाली कहां होती है।
सीता, द्रोपदी की तरह दमयंतीजी ने भी पति का अनुसरण करने का निश्चय किया। नलकुमार को यह अत्यंत अफसोस था कि उसकी जुए की लत के कारण आज दमयंतीजी को वन के कष्टों को सहना पड़ेगा।
एक कुव्यसन का कितना घातक परिणाम। युधिष्ठिर व नलकुमार जैसे महापुरुषों का जीवन व्यसन से बचने की हमें कितनी स्पष्ट प्रेरणा देते है।
दमयंतीजी के साथ नलकुमार एक वन में आये। रात्रि का समय था। पति के साथ के विश्वास से निश्चिन्त दमयंतीजी निंद्राधीन हो गई। परन्तु उसके कष्ट देखकर नलकुमार की निंद्रा गायब थी।
नलकुमार ने सोचा जब में ही इसके साथ नही रहूंगा तब यह पीहर चली जायेगी व सुख से दिन गुजार सकेगी। यह सोचकर उसकी साड़ी पर पीहर चले जाने का संदेश लिख कर रात्रि में ही नलकुमार उसे त्यागकर चले गये।
अब वन में लाचार , निराधार दमयंतीजी क्या करेगी???
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जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।
#बड़ीसाधुवंदना - 114
पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।
इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।
#दमयंतीजी - 2 : -
वन में सोयी हुयी दमयंती जी को छोड़कर नलकुमार वहां से चले गए। राह में संयमग्रहण के बाद देव बने नलकुमार के पिता ने उन्हें रूप परावर्तनी गुटिका ( या विद्या ) दी। संकट समय मे अपना रूप बदल लो, ताकि नलकुमार को संकट न आये।
कई दिनों के सफर के बाद वे सुंसुमार नगर पहुंचे। वहां एक हाथी मदोन्मत्त होकर सबको नुकसान पहुंचा रहा था। उस हाथी को नलकुमार ने वश में कर लिया। राजा अति प्रसन्न हुआ। उसने जब परिचय पूछा तब नलकुमार ने अपनी असलियत छुपाकर स्वयं को निषध नरेश नल का रसोइया बताया। वह सूर्य से भोजन बनाने की कला जानता है यह भी बोला। तब राजा ने उसे रसोईघर में काम पर रख लिया।
कुछ ही समय मे यह रसोइया राजा का खास आदमी बन गया।
इधर दमयंतीजी जब जागी तब स्वयं को अकेला पाकर घबरा गई। फिर नलकुमार का संदेश पढ़कर अत्यंत दुखी हुई। पर थी तो वो महान नारी रत्न। उसने कुछ ही समय मे अपने आपको संभाल लिया।
वन में से गुज़र रहे एक सार्थवाह के साथ चलने का निर्णय लिया। गई। सार्थवाह एक डाकुओं के दल से घिर गया तब दमयंतीजी ने अपने धर्म प्रभाव से उनकी रक्षा की। इसी तरह कई संकटो का सामना करते, दासी का काम करते हुए, तपस्या आदि करते हुए वह पिता के आग्रह से पीहर पहुंची। उसका मन अफसोस युक्त था कि पति दरबदर की ठोकर खा रहा होगा और वह राजकुमारी बनकर पीहर में रह रही है। भीम ने भी दामाद नलकुमार की खोज करवाई। पर कोई जानकारी प्राप्त नही हो रही थी। दमयंतीजी पति की याद से संतप्त हो रही थी। वहां भी उसने धर्मध्यान तपस्या का क्रम चालू रक्खा था।
कुंडिलपुर में एकबार किसी ने समाचार दिए कि दूर देश मे स्थित सुंसुमार पुर में राजा का एक रसोइया बहुत निपुण है। वह सूर्य से रसोई बनाता है, हाथी को भी वश में कर लेता है आदि। यह सब सुनकर राजा भीम व दमयंतीजी को विश्वास हो गया कि यह रसोइया ही नलकुमार है।
भीम राजा ने एक युक्ति की। एक दूत को सुंसुमार पुर भेज कर वहां के राजा को दमयंतीजी के स्वयंवर में आमंत्रण दिया।
दूत को खास सूचना दी, की स्वयंवर के निश्चित दिन से मात्र एक दिन पूर्व ही यह संदेश देना। नलकुमार अश्व विद्या का जानकार था। वही एक रात में लंबी दूरी तय करके कुंडिलपुर पहुंच सकेगा।
यहां राजा को दमयंतीजी के स्वयंवर का आमंत्रण मिला, पर एक दिन में इतनी लंबी दूरी तय करना असंभव जानकर निराश हो गया। रसोइया बने नलकुमार ने जब यह संदेश जाना तब उसने राजा को वहां पहुंचाने का आश्वासन दिया।
नलकुमार ने उत्तम जाती के अश्व पसन्द किये और शीघ्रतापूर्वक राजा को कुंडिलपुर ले आया।
वहां सभा मे अपना पुराना रूप वापिस धारण किया। और दमयंतीजी का पुनः स्वीकार किया। रसोइए को राजा के रूप में देखकर सुंसुमार पुर के राजा ने उससे क्षमा मांगी।
दमयंतीजी व नलकुमार का पुनः मिलन हुआ। कुछ दिनों में कुबेर को पता लगा तो उसने भी आकर क्षमा मांगी व राज्य लौटा दिया।
कई वर्षो तक राज्य का संचालन करने के बाद पुत्र पुष्कर को सिँहासन देकर दोनो दीक्षित हुए। आत्मसाधना में आगे बढ़े।
🙏🙏🙏🙏
Fb ग्रुप जैनिज़्म
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जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।
#बड़ीसाधुवंदना - 115
पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।
इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।
#सीताजी - 1 : -
इन महासतीजी की महागाथा कहा से शुरु करे और कहां पूरी करे यह भी गूढ़ रहस्य माफिक है।
इनका जीवन बहुत उतार-चढ़ाव से भरा रहा। राजकुमारी से रानी, फिर वनवासी फिर साम्राज्ञी फिर पति का त्याग , फिर अग्नि परीक्षा फिर संयम ग्रहण.... आने वाले भवो में भी यही मायाजाल!!!!!!
वैदिक मान्यता में भी जिन्हें लक्ष्मी का एक रूप या महादेवी के रूप में पूजा जाता है उन महासती सीता के अदभुत जीवनकथा के वर्णन का प्रयास भी मेरे सामर्थ्य से बाहर का विषय। फिर भी नन्हे बाल की तरह एक प्रयास अवश्य करूँगा।
मिथिलानरेश जनक की रानी विदेहा । उनके एक युगल पुत्र पुत्री का जन्म हुआ। पर पूर्वभव का कुछ वैर का दुर्भाव उदय में आया। सद्य जन्मा राजकुमार के पूर्वभव के वैरी प्रथम देवलोक के एक देव ने उस राजकुमार की हत्या करने के लिए अपहरण कर लिया।
उसका वध करने की सोच ही रहा था कि उसके मन मे शुभभाव जन्मे। वैर पर अनुकंपा ने विजय पाई। बालक को मारने की जगह विद्याधर नरेश चन्द्रगति के उपवन में छोड़ दिया। निसंतान चन्द्रगति राजा ने उसे पुत्र रूप में स्वीकार किया।
राजा जनक व विदेहा रानी पुत्र के अपहरण से अत्यंत दुखी हुए पर कर्म विपाक समझकर पुत्री सीता में ही अपना वात्सल्य न्यौछावर करने लगे। बालिका सीता रूप, गुण व उम्र में बढ़ने लगी। यौवन आते आते उसके सौंदर्य में अदभुत निखार आया।
विवाह योग्य होने पर जनक राजा आसपास के राजकुमारो में सीता योग्य वर खोजने लगे , पर किसी पर उनकी दृष्टि नही जमी।
इधर जनक पुत्र विद्याधर राजा चन्द्रगति के यहां भामण्डल नाम से पल बढ़ कर युवान हो रहा था।
एकबार जनक नरेश की सीमा पर म्लेच्छ राजा आतरंग का उपद्रव बढ़ने लगा। राजा जनक ने अपने पुराने मित्र अयोध्या के राजा दशरथ से सहाय मांगी। मित्र की सहाय करने राजा दशरथ स्वयं सज्ज होते हुए सेना तैयार की। राजा दशरथ के 4 पुत्र थे । राम, लक्ष्मण ,भरत, शत्रुघ्न।
यह राम इस अवसर्पिणी काल के आठवें बलदेव व लक्ष्मण आठवें वासुदेव थे। दोनो रूप, वीरता , शौर्य, धर्म आदि में अत्यंत गुणीयल थे। उन्होंने अपने होते हुए पिता को युद्ध मे जाते देख स्वयं जाने की विनती की। भारी मन से दशरथ ने नवयुवान राजकुमारो को युद्ध के लिए भेजा।
राम लक्ष्मण ने अपना पराक्रम दिखाते हुए मलेच्छ राजा को मार भगाया। राजा जनक व मिथिला की प्रजा अत्यंत हर्षित हुई। राजा जनक राम को सीता के लिए उपयुक्त वर समझने लगे थे कि अचानक एक घटना घटी।
नारद जी जनक के राजमहल आये। तब उनका थोड़ा अजीब देखाव कृशकाय शरीर, देह पर लंगोट, हाथ मे दण्ड, छत्र देखकर नादान सीता डर गई । सीता को डरा हुआ देख सैनिकों ने नारद जी को तिरस्कार पूर्वक वहां से भगा दिया। नारद इस अपमान से क्रोधित हुए। उन्होंने निर्दोष सीता से बदला लेने के लिए एक युक्ति की।
उन्होंने सीता का एक सुंदर चित्र बनाया व चन्द्रगति नरेश के पुत्र भामण्डल को दिखाया। सीता के गुणों की स्तुति कर भामण्डल के मन मे सीता के प्रति आसक्ति जगाई। अब सीता का सगा भाई पर रिश्तों से अनजान भामण्डल बहन पर मुग्ध होकर क्या करेगा??
महान सतीरत्नो को हमारा त्रिकाल वन्दन हो।
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संकलन सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रन्थ से
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।
#बड़ीसाधुवंदना - 116
पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।
इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।
#सीताजी 2 : -
अनजाने ही बहन सीता पर मोहित हुआ भामण्डल। जब चन्द्रगति नरेश को यह पता चला तब पुत्र के सुख के लिए उसने जनक राजा से बात करने के लिए उनका अपहरण करवाकर अपनी नगरी में बुलाया। और पुत्र भामण्डल के लिए सीता का हाथ मांगा। पर जनक तो राम को सीता के लिए चुन चुके थे। उन्होंने असमर्थता दिखलाई।
तब चन्द्रगति नरेश ने एक युक्ति बताई। उनके पास 2 रत्नमय, दिव्य, दृढ़, भारी, प्रभावयुक्त धनुष थे। वज्रावर्त और वरुणावर्त । जिन्हें चलाना तो दूर, उठाना भी सामान्य मनुष्यो के सामर्थ्य से बाहर था। उन्होंने सुझाव दिया कि आप एक स्वयंवर रचाइये। इसमे जो राजकुमार वह धनुष्य उठाकर उसकी प्रत्यंचा चढ़ा दें, उसे अपनी पुत्री का वाग्दान कर दीजियेगा।
राजा जनक ने बात मान ली। उन्हें राम के बल पर विश्वास हो चुका था। चन्द्रगति को विश्वास था कि भामण्डल के सिवा यह कार्य कोई मनुष्य नही कर पायेगा।
अंततः स्वयंवर की घोषणा की गई। राम लक्ष्मण मिथिला में ही थे। चन्द्रगति नरेश भी पुत्र भामण्डल के साथ आ गए। अन्य कई देशों के राजा व राजकुमार आये।
पर स्वयंवर में आये कोई राजकुमार , कोई राजा उन धनुष्यों को हिला तक नही पाये।भामण्डल पिता के कहे अनुसार अंत मे उठानेवाला था। अब बस राम लक्ष्मण बाकी थे। लक्ष्मण की विनती पर राम उठे, उस दैवी धनुष्य वज्रावर्त को फूल की तरह उठा लिया, उसे झुकाकर प्रत्यंचा भी चढ़ा दी। और प्रत्यंचा को कान तक खींच कर धनुष्य से ऐसे छोड़ा, की एक भयंकर गर्जना हुई। राजा जनक व सभी प्रजाजन अत्यंत हर्षित हुए। फिर लक्ष्मण ने वरुणावर्त धनुष्य को उठाकर प्रत्यंचा चढ़ा दी। भामण्डल व चन्द्रगति राजा निराश होकर चले गए।
सीता का विवाह राम से हुआ। जनक राजा के भाई कनक की पुत्री सुभद्रा का विवाह लक्ष्मण के साथ हुआ। वहां उपस्थित राजा व विद्याधरों में से 18 जनों ने अपनी पुत्री का विवाह वासुदेव लक्ष्मण के साथ किया।
अयोध्या नगरी में सभी का स्वागत हुआ। पूरी नगरी ने आनंदित होकर विवाहोत्सव मनाया।
एक दिन एक कंचुकी (दास, नोकर) की अत्यंत वृद्धावस्था देखकर राजा दशरथ संसार से विरक्त बने। यह वृद्धावस्था मुझे कमजोर करे उससे पहले में राम को राज्य देकर अपनी परलोक की आराधना कर लु। यह सोचने लगे।
वहां उस समय एक केवलीभगवन्त पधारे। राजा दशरथ परिवार समेत दर्शन वन्दन के लिए पधारे।
इधर निराश भामण्डल को लेकर आकाशमार्ग से भ्रमण पर निकले चन्द्रगति नरेश भी उन केवलीमुनि के दर्शन करने नीचे उतरे। दर्शन वन्दन पश्चात चन्द्रगति ने भामण्डल के लिए उन केवलिभगवन्त से जिज्ञासा व्यक्त की। तब उन केवलीभगवन्त ने बताया कि जो हुआ वह अच्छा ही हुआ। उन्होंने भामण्डल के वास्तविक मातापिता जनक - विदेहा का परिचय दिया। अपना असली परिचय सुनकर भामण्डल मूर्छित होकर गिर पड़ा। उसे जातिस्मरण ज्ञान हुआ। उसे अपने कृत्य पर बहुत पश्चाताप हुआ। वहां उपस्थित बहन सीता व बहनोई राम को प्रणाम किया। और माफी मांगी। सीता भी खोए भाई को पाकर हर्षित हुई। जनकराजा व विदेहा रानी को बुलाया गया। पुनः परिवार मिलन से सब हर्षित हुए। चन्द्रगति नरेश ने भामण्डल को राज्य सौंपकर संयम ग्रहण किया।
राजा दशरथ भी विरक्त बन चुके थे। राम का राज्याभिषेक करवाकर संयम ग्रहण करने का निश्चय किया।
राम के राज्याभिषेक की घोषणा की गई। सब तैयारियां होने लगी,
पर अचानक.....
न जाना जानकी नाथ ने कल सुबह क्या होना है।
तैयारी थी राज्याभिषेक की या वनगमन को जाना है ?
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#बड़ीसाधुवंदना - 118
पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।
इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।
#सीताजी 4 : -
महान वीर योद्धा रावण भवितव्यता वश महासती सीता को छल से उठा कर ले आया।
इसके आगे का कथानक काफी विस्तृत है। राम का सीता के वियोग में अत्यंत विलाप, सुग्रीव, हनुमान जी, नल नील आदि का राम से मिलन, रावण के प्रणय निवेदन का सीता जी द्वारा अस्वीकार, मंदोदरी का सीता को मनाने का निष्फल प्रयास, विभीषण का रावण को सीता को लौटाने का निष्फल उपदेश, सुग्रीव आदि द्वारा सीता की खोज, रत्न जटी द्वारा सीता के समाचार, हनुमान का लंका गमन, , फिर हनुमानजी का सीता से मिलन, अपहृत होने से अब तक तप कर रहे महासतीजी का पारणा, राम लक्ष्मण का रावण से युद्ध, विभीषण का राम की शरण मे आना, लक्ष्मण का बेहोश होना, विशल्या नामक सती के स्नानोदक से लक्ष्मण का उपचार, अंत मे रावण की मृत्यु व विभीषण का राज्याभिषेक। इसके बाद सीता को लेकर अयोध्या प्रवेश।
यह विस्तृत गाथा स्थान समय अनुसार यहां पूर्णतया वर्णन करना थोड़ा कठिन।
फिर भी इन सभी वर्णन में तथा अभी आगे और आनेवाले कथानक में सीता महासती का शील - चारित्र का उत्कट पालन , उनकी धर्मनिष्ठा, उनका पतिव्रत पालन व श्रद्धा अजोड़ उभरकर आता है। महासतीजी के चारित्र का संक्षिप्त में वर्णन करना मुश्किल होते हुए, उनके गुणों का अंशमात्र आच्छादन न हो ऐसे लिख पाना कठिन होते हुए भी एक प्रयास किया है। फिर भी संकलन में कहीं कोई त्रुटि कोई अशातना हुई हो तो में खमाता हूं।
जिज्ञासुओं को इस कथानक का विस्तृत पठन के लिए तीर्थंकर चरित्र भाग 2 पढ़ने का सूचन अवश्य करूँगा।
अयोध्या प्रवेश के बाद राम भरत आदि का मिलन हुआ। भरतजी विरक्त ही थे। उन्होंने संयम आज्ञा मांगी। उन्होंने संयम ग्रहण कर मुक्ति की राह पकड़ ली।
राम की आज्ञा से उनका बलदेव व लक्ष्मण का वासुदेव पद पर अभिषेक हुआ। अब सुखभरे दिन बीत रहे थे। वनभ्रमन दौरान विवाहित लक्ष्मण की सारी पत्नियां अब अयोध्या आ चुकी थी। उनकी अब कुल 16000 रानियां थी। राम चारो पत्नियों (सीता, प्रभावतीजी, रतिनिभा व श्रीदामा ) के साथ न्यायोचित राजगद्दी संभाल रहे थे। इन दिनों रानी सीता गर्भवती हुई। सारा परिवार हर्षित हुआ जैसे सारे दुख के बादल छट गये व सुख की बारिश हो रही। पर नही 😢
महासती के जीवन या किसी भी संसारी मनुष्य को शाश्वत सुख कहां?
अब क्या दुख आया???
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संकलन सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र
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#बड़ीसाधुवंदना - 119
पद्मावती मयणरेहा , द्रौपदी दमयंती सीत ।
इत्यादिक सतियाँ, गईं जन्मारो जीत ।। 106 ।।
#सीताजी 5 : -
गर्भवती बनने के बाद सीता के लिए पति का स्नेह बहुत बढ़ जाएगा यह सोचकर राम की अन्य 3 पत्नियों के मन मे अशांति रहने लगी।
उन्होंने सीता के लिए एक षड्यंत्र की रचना की। राम के मन मे सीता के लंका निवास दौरान सीता के शील के लिए राम को शंकित कर दिया। यही नही, अपने गुप्तचरों द्वारा सीता के लिए प्रजा में भी जहर फैलाना शुरू किया।
यह कलंक कथा जब बहुत बढ़ गई तब अयोध्या सम्राट राम ने कुल की प्रतिष्ठा हेतु बहुत भारी मन से सीता के त्याग का निर्णय लिया।
राजा की प्रतिष्ठा, कुल मर्यादा के लिए सत्त्य को दब गया व गर्भवती सीता को वन भेज दिया गया।
वन में रानी सीता को पुंडरिकपुर नगर के राजा वज्रजंघ से मिलन हुआ। उसने सीता को भगिनी बनाकर आश्वस्त किया। राजा वज्रजंघ बहन सीता को अपने नगर में ले आया। यहां भी सीता का मन पति राम में ही लगा रहा। गर्भकाल पूरा होते सीता ने युगल पुत्रो को जन्म दिया। जिनके नाम अनंग लवण व मदनांकुश रखे गए।
यह दोनो राजकुमार बड़े होते गए। रूप, वीरता, मातृभक्ति आदि गुणों में श्रेष्ठ बने। युवान होते एक बार नारद जी द्वारा उन्हें अपने मुख्य कुल, पिता राम द्वारा माता सीता का त्याग आदि घटना की जानकारी मिली तब वे अयोध्या जाकर पिता से माता को किये अन्याय का प्रति उत्तर लेने को व्याकुल हो उठे।
दोनो वीर सेना लेकर पुंडरिकपुर से अयोध्या चले। राह में आते राज्यो को अपना पराक्रम दिखाकर, उन्हें झुकाकर वे अयोध्या पहुंचे। और रामराज्य को युद्ध के लिए ललकार की।
रण मैदान में जब नारद द्वारा सत्य का पता चला तब राम भाव विभोर हो उठे। प्रिया सीता व पुत्र मिलन के हर्ष आवेग से वे मूर्छित हो गये।
वहाँ आकाशमार्ग से सीता को भी बुला लिया गया। परन्तु अभी लोकापवाद का कंटक था ही। राम ने उसके लिए सीता पर उनके दृढ़ विश्वास को समझकर समस्त नगरजनो के सामने दिव्य ( परीक्षा) का प्रस्ताव रखा। राम को विश्वास था सीता के सतीत्व पर। वह विश्वास जनता को भी हो उसके लिए यह आवश्यक था।
सीता आई। नगरजनो की चीक्कार भीड़ के सामने सीता ने अपने निष्कलंक चारित्र को साबित करने हेतु 5 दिव्य में से कोई भी करने को ततपर हो गई। 5 दिव्य यानी 5 परीक्षा - अग्नि प्रवेश, मंत्रित तन्दुल खाना, विषपान, उबलते सीसे का पान , जीभ से तीक्ष्ण शस्त्र उठाना ।
राम ने अग्निप्रवेश की तैयारी करने की आज्ञा दी। एक कुंड बनाया गया। उसे चंदन की लकड़ियों से भरकर उसमे आग लगाई गई। महासतीजी ने अग्निज्वाला से धधकते कुंड में प्रवेश किया। नवकार मन्त्र के स्मरण व पति परायण धर्म के बल पर वह अग्निकुंड जलकुंड में परिवर्तित हो गया।
समग्र जनता ने सीता के शील का चमत्कार देख हर्ष व्यक्त किया। सीता के दिव्य के बाद राम सीता के स्वीकार हेतु उसके पास आये।
पर यह क्या?
सीता के मुख पर तो कोई अलग ही भाव थे। सीता अब संसार से विरक्त बन चुकी थी। इस अग्निपरीक्षा के बाद उनका वैराग्य दृढ़ बन चुका। उन्हें न राम से कोई ग्लानि थी , न नगरजनो के लिए कोई द्वेष। सभी दुख मात्र स्वयं के कर्म का फल समझकर अब उन्हें संसार की जड़े ही काटने का मन था।
वहीं जनमेदनी के सामने सीता ने अपने बालों का लोच किया। वहीं विराजमान एक केवलिभगवन्त के पास आकर विधिवत प्रवज्या स्वीकार की।
राम स्तब्ध रह गए। पर अब कुछ कहना सुनना व्यर्थ था। सीता जी ने संयम की उत्कृष्ट आराधना की। काल कर देवलोक में इंद्र बने। वहां से कुछ भव में वे भी मोक्ष प्राप्त करेंगे।
इस महागाथा का वर्णन मुझ से योग्य नही हुआ हो, महासतीजी के जीवन चरित्र वर्णन में कोई महत्त्व का हिस्सा बताना छूट गया हो, तो मुझ अल्पज्ञानी बाल जीव को क्षमा करें।
Fb ग्रुप जैनिज़्म
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संकलन सन्दर्भ : - तीर्थंकर चरित्र
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।
#बड़ीसाधुवंदना - 120
चोबीसे जिन ना , साधु साध्वी सार।
गया मोक्ष देवलोके, हृदय राखो धार। 107।
इण अढी द्वीप मा , घणा तपसी बाल।
शुद्ध पंच महाव्रत धारी, नमो नमो तिहूं काल ।108।
इण यतियों सतियो ना, लीजे नित प्रति नाम ।
शुद्ध मनथी ध्यावो, एह तिरण नो ठाम। 109 ।
प्रस्तुत गाथाओ में पूज्य जयमलजी महाराज साहेब अतीत में हो चुके इस अवसर्पिणी काल के चौबीसों प्रभुजी के शासन में हुए सभी महाव्रत धारी संत सतीजीयो की महिमा बता रहे है। उन महान आत्माओंने उत्कृष्ट संयम की आराधना कर मोक्ष या देवलोक की प्राप्ति की।
इन सन्तो को किया गया वन्दन, उनका नाम स्मरण, उनके गुणों की स्तुति हमारे लिए इस भवसागर से पार उतरने के लिए एक मजबूत सुरक्षित नाव जैसे है। उन सभी का महान त्याग, उपसर्ग में स्थिरता, दृढ़ श्रद्धा, उत्कृष्ट संयम पालन, धीरज, तपोमय जीवन व मूल विनय को सीखने के लिए प्रेरणाजनक है।
तीर्थंकर नाम कर्म बन्ध के 20 बोल में भी उत्कृष्ट संयम धारी की भक्ति करने को कहा गया है।
यहां एक गाथा में अढी द्वीप शब्द आया है। यह क्या है।
तो सबसे पहले हम लोक को थोड़ा समझते है।
हमारा लोक 14 रज्जू ऊंचा व 343 घनाकार रज्जू विस्तृत है। रज्जू मतलब जैसे किलोमीटर, माइल अंतर - दूरी नापने की इकाई है वैसे ही रज्जू भी अंतर की ही एक इकाई या यूनिट है। जो बहुत बहुत बड़ा होता है, हम साधारण मनुष्य इसकी सही तरह कल्पना भी नही कर सकते उतना बड़ा ।
उस 343 घनाकार लोक में ही जीव रहते है। इससे बाहर का क्षेत्र अलोक कहते है वहा जीव नही है । इस 343 घनाकार रज्जू के लोक के मध्य में भी 1 रज्जू चौड़ाई वाली नली समान त्रसनाल है। जँहा सभी तरह के जीव रहते हैं । विशेषकर त्रस जीव , त्रस जीव यानि जिनमें हलन-चलन होता हो वे जीव । इस त्रस नाल के बाहर नहीं पाये जाते । इस त्रसनाल के बाहर के लोक में सिर्फ सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव ही रहते है।
अब लोक के 3 भाग किये गए है, सबसे नीचे अधोलोक है जो करीब 7 रज्जू यहां से नीचे तक है। जँहा 7 नरक है जिसमे जीव अपने पाप कर्मों को भोगता है। इसके अलावा कुछ देव, तिर्यंच व कुछ मनुष्य भी रहते है।
सबसे ऊपर करीब 7 रज्जू ऊंचा ऊर्ध्वलोक है। वहां सिर्फ तिर्यंच व देवताओं का निवास है।
ऊर्ध्वलोक व अधोलोक के मध्य में इन दोनों की अपेक्षा अत्यंत छोटा भाग जो कि सिर्फ 1800 योजन ऊंचा है, (योजन भी अंतर नापने की एक इकाई है, एक योजन मतलब #अभी 13- 14 किलोमीटर )वह मध्यलोक कहलाता है। जँहा मुख्यतया मनुष्य व तिर्यंच औऱ फिर कुछ प्रकार के देव रहते है। यह सभी त्रसनाल के भीतर ही है।
मध्यलोक में सबसे केंद्र में एक लाख योजन ऊंचा व 10, 000 योजन करीब चौड़ा मेरु पर्वत है । इस से लग कर क्रम से एक द्वीप, एक समुद्र, एक द्वीप एक समुद्र ऐसे लगातार लोक के अंत तक है। सबसे अंत मे स्वयंभू रमण समुद्र है। मेरु पर्वत के सटकर जो द्वीप है वह एक लाख योजन चौड़ा थाली आकार का है, उसके बाद सभी द्वीप समुद्र एक दूसरे से दुगुने नाप वाले व चूड़ी आकार के है।
जंबुद्वीप के बाद लवण समुद्र फिर घातकीखण्ड, फिर कालोदधि समुद्र, फिर पुष्कर द्वीप है।
इस पुष्कर द्वीप के आधे हिस्से तक ही मनुष्य रहते है। यानी जंबुद्वीप, घातकीखण्ड व आधा पुष्कर द्वीप। ये कुल अढाई द्वीप में ही मनुष्य रहते है इस के आगे मनुष्य होते नही। यह अढाई द्वीप को मनुष्यक्षेत्र भी कहते है। अब साधु संत सिर्फ मनुष्य बनते है। तो अढाई द्वीप में ही साधु संत है।
ऊपर की गाथाओमे इन सभी साधुभगवन्तो को नित्य वन्दन , नाम स्मरण करने का सूचन किया गया है। जो कि हमारे लिए, भवसागर तैरने के लिए अत्यंत उपयोगी है।
एक और शब्द
पंच महाव्रत यानी साधुजी संयम ग्रहण के समय 5 मुख्य पापो का सर्वथा त्याग करते है। स्पष्टतः। वीर प्रभु के पहले के यानी दूसरे प्रभुसे 23 वे प्रभु तक के सन्तो को चतुर्याम धर्म था। यानी चार व्रत। इसमे ब्रह्मचर्य व्रत को परिग्रह व्रत में निहित कर लिया जाता था। पर काल अनुसार शिष्यों की मति बदलते अंतिम तीर्थंकर के शासन में पांच महाव्रतों की प्ररूपणा की गई।
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संकलन सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रन्थ से।
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।
लोक की थोड़ी औऱ जानकारी मेरी वाल पर 4 माह पूर्व की पोस्ट्स में है।
#बड़ीसाधुवंदना - 121
इण यतियों सतियों सु, राखो उज्जवल भाव।
इम कहे ऋषि जयमल , एह तिरण नो दाव ।110।
संवत अट्ठारह ने, वर्ष साते सिरदार ।
गढ़ जालौर माँहि, एह कह्यो अधिकार। 111।
इस महा स्तोत्र की अंतिम 2 गाथा का अर्थ विस्तार : -
साधुभगवन्तो को किया गया वन्दन हमे जन्ममृत्यु के विषचक्र से बाहर ले जाता है। यह पूज्य जयमलजी महाराज साहेब बता रहे है। इस स्तोत्र की रचना कर हमें अथाह ज्ञान सागर की सैर करवाने वाले , हमारे उपकारी #जयमलजी महाराजसाहेब का परिचय : -
राजस्थान की मरुधरा, संत व शूरवीरों की भूमि। विकट जीवन होते हुए भी जीवन की सही तह तक जाने वाले अनेक महान विभूतियों की जन्म भूमि राजस्थान के जैतारण प्रांत के लांबिया ग्राम में एक परिवार रहता था। मोहनलाल जी, पत्नी महिमा देवी व बड़ापुत्र रिड़मल जी। एक सुखी परिवार के मुखिया मोहनलाल जी साथ साथ एक वीर योद्धा भी थे।
एकबार उनकी पत्नी ने स्वप्न में एक विकराल सिंह को अपने मुंह मे प्रवेश करते देखा। शुभ स्वप्न देखकर माता हर्षित हुई। उन्हीं दिनोंमें उन्होंने गर्भ धारण किया। समय बीता । प्रसव का समय आ गया। एक कक्ष के भीतर प्रसव की तैयारी चल रही थी और बाहर उत्कंठा से मोहनलाल जी घूम रहे थे। इतने में ग्राम में डाकुओं का हमला हुआ । मोहनलाल जी दुविधा में फंस गये । प्रसव के समय पत्नी के पास रुके या ग्राम के गोधन को डाकुओं से बचाने डाकू दल से युद्ध करे। पर अंदर रही वीर पत्नी ने यह जानकर उन्हें रणभूमि में जाने की सलाह दी।
पत्नी से निश्चिन्त होकर मोहनलाल जी तलवार लेकर प्रसन्न मन से डाकू दल से भिड़ने चले गये। वहां उनको पुत्र प्रसव के समाचार मिले। तब उनका जोश बढ़ गया। और उनके नेतृत्व में सब ने डाकुओं को मार भगाया।
यह समय था विक्रम संवत 1765, भाद्रपद शुक्ला त्रयोदशी। दिल्ली में उस समय मुग़ल शासन चल रहा था। जैन समाज मे भी समय थोड़ा कठिन था। उच्च माने जा रहे चंद सन्तो में भी शिथिलाचार प्रवेश कर चुका था।
ऐसे समय मे हमारे कथानायक जयमलजी का जन्म हुआ।
पुत्र जन्म के समय ही डाकुओं पर जय प्राप्त की तो उसका नाम जयमल जी रखा। जिन्होंने आगे जाकर कर्म रूपी मल का काफी हद तक नाश किया। कर्म मल पर भी अंशतः जय प्राप्त की। धीरे धीरे शिशु जयमल बढ़ने लगा।
बचपन से ही जयमल जी विचक्षण बुद्धि के धनी थे। युवा होते होते जयमल जी मे आ रही संसार के प्रति विरक्ति को देखकर पिता मोहनलाल जी चिंतित हुए। वह जैन धर्म को समझते नही थे। न कोई उन्हें ज्यादा साधुभगवन्तो का परिचय था।
जयमल जी की व्यवहार कुशलता , प्रभावी व्यक्तित्त्व , विचक्षण बुद्धि देखकर उनके युवा होते होते एक रिश्ता आया। तब हर्षित पिता ने बावीस वर्ष की उम्र में ही उनका विवाह लक्ष्मीबाई नामक कन्या से करवा दिया। अभी तो पत्नी का गौना ( विवाह बाद पत्नी को अपने घर लाना ) भी नही हुआ था।
ऐसे में एक दिन व्यापारिक काम से जयमलजी मेड़ता नगर में आये। वँहा संयोग से पूज्य संत श्री भूधर जी के दर्शन हुए।
प्रथम दर्शन, प्रथम व्याख्यान श्रवण में ही भव्यात्मा जाग उठी। व्याख्यान में दधिवाहन राजा की अभया रानी व सुदर्शन श्रावक की कथा चल रही थी। भूधर जी का प्रभावी प्रवचन सुनकर पूर्वसंस्कार पुनः जागृत हो उठे।
संयम ग्रहण का दृढ़ निश्चय कर लिया। वहीं खड़े खड़े मात्र एक प्रहर में ( 3 घण्टे ) पूरा प्रतिक्रमण कंठस्थ कर लिया। उनके संयम ग्रहण का निर्णय सुनकर परिवार दौड़ा आया। अनेक प्रलोभन, अनेक अवरोध , विघ्न डालकर उन्हें रोकने का परिवार ने प्रयास किया। पर जयमलजी के दृढ़ निश्चय के आगे अंत मे सब सहयोगी बने।
विक्रम संवत 1788 मार्गशीर्ष वद दूज को उन्होंने परम मोक्ष प्रदायिनी प्रवज्या अंगीकार कर ली।
संयम यानी कर्म निर्जरा का मार्ग। जितने भी संभव हो यथा शीघ्र कर्म मल का नाश करना उनका लक्ष्य बना । दीक्षा के बाद समय समय पर इस निर्जरा के लिए कठिन यानी भीष्म प्रतिज्ञा ली। दीक्षा के दिन ही उन्होंने एकान्तर तप की प्रतिज्ञा की। जो करीब 16 वर्ष तक निभाई।
उनकी आगे की भीष्म प्रतिज्ञाएँ क्या क्या थी??
आगे....
Fb ग्रुप जैनिज़्म
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संकलन सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रन्थ से।
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।
#बड़ीसाधुवंदना - 122
इण यतियों सतियों सु, राखो उज्जवल भाव।
इम कहे ऋषि जयमल , एह तिरण नो दाव ।110।
संवत अट्ठारह ने, वर्ष साते सिरदार ।
गढ़ जालौर माँहि, एह कह्यो अधिकार। 111।
जयमलजी 2
संयम ग्रहण से ही उनका तप प्रारंभ हो चुका था। उनका सभी तरह का तप इतना उत्कृष्ट था कि उन सभी का हम विस्तृत वर्णन तक नही कर पाएंगे। वह तप सिर्फ अनशन आदि तक सीमित नही था अपितु ज्ञान की उत्कृष्ट साधना, गुरुदेव का विनय, अन्योन्य साधुसंतों की अग्लान भाव से अविरत वैयावृत्य, समय समय पर विगयो का त्याग कर रसनेन्द्रिय पर विजय, ध्यान , अविरत स्वाध्याय , धर्म प्रेरणा हेतु कई आत्माओंके लिए प्रेरणा देना, कई सेंकडो मुमुक्षु आत्माओंको सदगुरु की शरण देना। जब गुरुदेव भूधर जी का देहावसान हुआ तब उन्होंने एक भीष्म प्रतिज्ञा और ली। आजीवन आड़ा आसन कर के सोना नही। यानी लेट कर नींद नही लेना । यह कठिन तप उनके जीवनभर चला।
हम इनके सभी तपो को क्रम से जान ने का सिर्फ प्रयास कर सकते है।
द्वी मासखमण 10
मासखमण 20
8 उपवास - 40 बार
5 बड़ी तिथियों पर 5 विगय त्याग
अभिग्रह तप - 90 दिन
एकान्तर उपवास - 16 वर्ष
बेले बेले पारणा - 16 वर्ष
तेले तेले पारणा - 2 वर्ष
3 वर्ष पंचोले
5 आगम पूर्ण कंठस्थ - दीक्षा के प्रथम वर्ष में ही।
अन्य 27 आगम का पूर्ण कंठस्थ करना- प्रथम 3 वर्ष में ही .
आचार्य पद ग्रहण - वैशाख शुक्ला तृतीया, विक्रम संवत 1805
उनके द्वारा प्रदत्त दीक्षाये - 700
उनके द्वारा प्रतिबोधित आत्माएं-
कई राजा , कई ठाकोर, मुग़ल सम्राट।
बीकानेर विस्तार में उस समय यतियों का वर्चस्व था। ( मेरी समझ से यति मतलब शिथिलाचारी जैन साधुजी ) जयमलजी आदि सन्तो के लिए वहां प्रवेश तक कठिन था। तब जयमलजी ने उनका उपसर्ग सहकर करीब 8 दिन निराहार रहकर भी बीकानेर क्षेत्र सभी सन्तो के विचरण योग्य बनाया।
आज भी उनका गण उत्कृष्ट संयम पालन करता हुआ विद्यमान है।
विक्रम संवत 1807 में राजस्थान के जालौर नगर में अनेक शास्त्रो का दोहन कर के बड़ी साधुवन्दना जैसे महान स्तोत्र की उन्होंने रचना की। बाद में जिन शांति वन्दन स्तोत्र आदि कई उत्कृष्ट साहित्य रचना की।
अंतिम समय जानकर नागौर में विक्रम संवत 1853 में उन्होंने अंतिम आराधना संलेखना संथारा ग्रहण किया। कुल 31 दिन का संथारा आया। एक किवदंती अनुसार उनके संथारे के दरमियान उन्हीं के पूर्व शिष्य जो काल कर देव बने थे , उन देव ने आकर उनकी वन्दना की। तथा उन महान आत्मा को एकाभवतारी बताया। सौधर्म विमान में उनका आगामी निवास बताया।
पूरा जीवन तप, संयम, ज्ञान के उत्कृष्ट आराधक , आज भी कई भव्यजनो के प्रेरणा स्त्रोत इन महान विभूति को हमारा सदाकाल वन्दन हो, वन्दन हो , वन्दन हो।
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संकलन सन्दर्भ : - विभिन्न ग्रन्थ से।
जिनवाणी विपरीत अंशमात्र लिखा हो, जाने अनजाने तथ्यों को गलत बताया, छुपाया हो तो मिच्छामि दुक्कडम।
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