सम्यक्त्व प्राप्ति

प्रश्न : क्या सम्यक्त्व प्राप्ति के बाद जीव का मोक्ष निश्चित्त है ? ऐसे जीव कितने है जो समकित प्राप्त कर लेने पर भी मिथ्यात्व में चले गए ?

*उत्तर : सम्यग्दृष्टि जीवों का मोक्ष में जाना निश्चित्त है, चाहे भव-भ्रमण करते हुए वे निगोद में ही क्यों न चले जाएँ | उन्होंने अपना संसार सिमित कर लिया होता है |*

*यदि सम्यग्दर्शन क्षायिक हो और उसकी साधना उत्कृष्ट रूप से हुई हो तो जीव का जघन्य तो उसी भव में मोक्ष हो जाता है, उत्कृष्ट रूप से तीन भव { दो भव मनुष्य के और बिच में एक वैमानिक देव का भव ) करके मोक्ष हो जाता है |*

*यदि सम्यग्दर्शन की साधना मध्यम रूप से हुई हो तो जीव जघन्य तीन भव ( दो भव मनुष्य के और बिच में एक भव वैमानिक देव का ) और उत्कृष्ट पाँच भव ( तीन भव मनुष्य के और बिच में दो भव वैमानिक देव के ) में मोक्ष चला जाता है |*

*यदि सम्यग्दर्शन की साधना जघन्य रूप में हुई हो तो जीव जघन्य पाँच भव ( तीन भव मनुष्य के और बिच में दो भव वैमानिक देव के ) और उत्कृष्ट पन्द्रह भव ( आठ भव मनुष्य के और बिच में सात भव वैमानिक देव के ) करके मोक्ष में चला जाता है | ध्यान रहे, क्षायिक सम्यग्दर्शन हुआ हो तो बिच के भव वैमानिक देव के ही होते है |*

*कभी - कभी सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्व में भी चले जाते है | उस स्थिति में भी अधिक से अधिक देशोन - अर्द्ध - पुदगल - परावर्तन के बाद तो उनका मोक्ष में जाना निश्चित्त ही होता है | दोनों स्थितियों में अंतर इतना ही है, सम्यग्दृष्टि के रहते हुए जीव अपनी मंजिल पर कम समय में पहुँच जाता है, वह इधर - उधर नहीं भटकता, जबकि मिथ्यात्व में जाने के पश्चात जीव भटकता हुआ अधिक से अधिक  देशोन - अर्द्ध - पुदगल - परावर्तन काल तक अपनी मंजिल तक पहुंचता है |*

*भगवान महावीर के जिन अंतिम सत्ताईस मुख्य भवों का वर्णन मिलता है, उनमें उनकी आत्मा को पहली बार नयसार के भव में सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हुई थी | उनका यह भव इस अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के समय से भी पहले था | भगवान ऋषभदेव के समय मरीचि के भव में भगवान महावीर की आत्मा कपिल को मिथ्या उपदेश देने के कारण सम्यक्त्व से मिथ्यात्व में गिर गई और उसने एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम का संसार बढ़ा लिया | चारों गतियों में भव-भ्रमण करती रही | सातवीं नरक में भी गई | प्रियमित्र चक्रवर्ती के भव में पुनः सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हुई और फिर अंततः महावीर के भव में मोक्ष प्राप्त किया |*

*पन्नवणा सूत्र में वर्णन आता है, जिन्हें सम्यग्दर्शन हुआ ही नहीं और होगा भी नहीं अर्थात जो अभवी जीव है, उनकी संख्या अनंत है | उनसे अनंतगुणा अधिक वे जीव है जो एक बार सम्यग्दर्शन प्राप्त करके मिथ्यात्व में चले गए है | उनसे भी सिद्ध अवस्था प्राप्त करने वाले जीव अनंतगुणा है |*



।सम्यक्त्व उत्पत्ति के कारण
अनादिकाल से यह प्राणी संसार में मिथ्यात्व के कारण चतुर्गति के दुःख उठा रहा है। जब पुण्य योग से उसे सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो जाती है तब संसार सीमित हो जाता है। एक बार जीव को सम्यग्दर्शन होने के बाद वह अधिक से अधिक उनंचास (४९) भव में और कम से कम २-३ भव में मोक्ष प्राप्त कर लेता है।

वह अमूल्य सम्यग्दर्शन क्या चीज है ? इस प्रश्न का उत्तर हमें जानना है। सरल भाषा में दर्शन का अर्थ है देखना और सम्यक का अर्थ है समीचीन रूप से अर्थात वस्तु के स्वरूप को ज्यों का त्यों श्रद्धान करना, उस पर विश्वास करना ही सम्यग्दर्शन है।

जैसे—दृष्टि (आंख) में कोई विकृति आ जाने पर औषधि आदि के द्वारा उसका इलाज किया जाता है और वह विकृति समाप्त होने पर आंखे स्वस्थ हो जाती हैं। उसी प्रकार से आत्मा के दर्शन गुण में अनादिकाल से व्याप्त विकृति को दूर कर देने से सम्यग्दर्शन प्रगट हो जाता है। सम्यग्दर्शन किसको होता है ? कब होता है ? कैसा होता है ? इस विषय से परिचित होना भी आवश्यक है।

वह सम्यग्दर्शन भव्य जीव को ही होता है, अभव्य को नहीं। काललब्धि आदि के मिलने पर ही होता है, उसके बिना नहीं और अन्तरंग-बहिरंग कारणों के मिलने पर ही होता है, बिना कारण के नहीं होता है।

हम और आप भव्य हैं या अभव्य ? काललब्धि आई है या नहीं ? इसका निर्णय तो सर्वज्ञ के सिवाय अन्य कोई कर नहीं सकता है क्योंकि कोई अभव्य जीव ग्यारह अंग का ज्ञानी और निर्दोष निरतिचार चारित्र का पालन करने वाला महातपस्वी मुनि होकर ही नवमें ग्रैवेयक में जा सकता है, हम और आप जैसे आज के साधारणजन नहीं। उसमें किस रूप से मिथ्यात्व रहता है उसका निर्णय साधारणजन नहीं कर सकते हैं, वह तो सर्वज्ञगम्य ही है।

सम्यग्दर्शन के भेद—
सम्यग्दर्शन मुख्य रूप से तीन प्रकार का होता है—औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक। औपशमिक सम्यग्दर्शन और उसकी उत्पत्ति के कारण ? अनादि मिथ्यादृष्टि को सबसे प्रथम बार जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है उसी को उपशम सम्यक्त्व कहते हैं। दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम करने वाले चारों गतियों के संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव उपशम सम्यक्त्व प्राप्त कर सकते हैं। प्रथम बार होने वाले उपशम सम्यक्त्व को प्रथमोपशम सम्यक्त्व कहते हैं। धवला ग्रन्थ में सम्यक्त्व के लिए पाँच प्रकार की लब्धियों का निरूपण किया गया है।

१. क्षयोपशम लब्धि

२. विशुद्धिलब्धि

३. देशनालब्धि

४. प्रायोग्यलब्धि

५. करण लब्धि।

ये पाँच लब्धियाँ सम्यक्त्व उत्पत्ति में मूल कारण मानी गई हैं। इनमें पहली चार तो सामान्य हैं अर्थात् भव्य और अभव्य दोनों प्रकार के जीवों को होती हैं किन्तु करण लब्धि भव्य जीव को सम्यक्त्व होने के समय ही होती है।

क्षयोपशम लब्धि—कर्मों के मैल रूप जो अशुभ ज्ञानावरणादि समूह है उनका अनुभाग जिस काल में समय-समय पर अनंतगुणा क्रम से घटता हुआ उदय को प्राप्त होता है उस काल में क्षयोपशम लब्धि होती है।

विशुद्धि लब्धि—क्षयोपशम लब्धि से उत्पन्न हुआ जो जीव के साता आदि शुभ प्रकृतियों के बंधने का कारणरूप शुभ परिणाम, उसकी जो प्राप्ति है वही विशुद्धि लब्धि है क्योंकि अशुभ कर्म का अनुभाग घटने से संक्लेश की हानि और विशुद्धि की वृद्धि होना स्वाभाविक है।

देशना लब्धि—छह द्रव्य और नव पदार्थों के उपदेश का नाम देशना है। उस देशना से परिणत आचार्य आदि की उपलब्धि को और उपदिष्ट अर्थ के ग्रहण, धारण तथा विचारण की शक्ति के समागम को देशना लब्धि कहते हैं।

प्रायोग्य लब्धि—सर्व कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभाग को घात करके अन्तः कोड़ाकोड़ी स्थिति में और द्विस्थानीय अनुभाग में अवस्थान करने को प्रायोग्यलब्धि कहते हैं क्योंकि इन अवस्थाओं के होने पर करणलब्धि के योग्य भाव पाये जाते हैं।

करण लब्धि—स्थिति और अनुभागों के कांडक घात को बहुत बार करके गुरु उपदेश के बल से अथवा उसके बिना भी अभव्य जीवों के योग्य विशुद्धियों को व्यतीत करके भव्य जीवों के योग्य अधःप्रवृत्तकरण संज्ञा वाली विशुद्धि में भव्य जीव परिणत होता है।


इस करण लब्धि के तीन भेद हैं—अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण। इन तीनों करणों का काल अन्तर्मुहूर्त है। अन्तिम अनिवृत्तिकरण काल के समाप्त होते ही अनादि मिथ्यादृष्टि के दर्शनमोहनीय की मिथ्यात्व प्रकृति और अनन्तानुबन्धी चतुष्क इन पाँच प्रकृतियों का उपशम होकर प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्रगट हो जाता है।

उपशम सम्यक्त्व का जघन्य व उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बाद समाप्त होकर पुनः संख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिया मनुष्य या तिर्यंचों में उसी भव में नहीं हो सकता है चूँकि इसका अन्तराल पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की उत्पत्ति के कारण ?

अनन्तानुबन्धी कषाय, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन छह प्रकृतियों के उदयाभावी क्षय और इन्हीं के सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से सम्यक्त्व प्रगट होता है उसे क्षायोपशमिक या वेदक सम्यक्त्व कहते हैं।

इसमें भी पूर्वोक्त पाँच लब्धियाँ तो कारण होती ही हैं किन्तु सम्यक्त्व प्रकृति का उदय होना यह मुख्य कारण है। यह सम्यक्त्व चारों गतियों के भव्य पंचेन्द्रिय, संज्ञी, पर्याप्तक जीवों के हो सकता है।

क्षायिक सम्यक्त्व के कारण—कर्मभूमि में उत्पन्न हुआ मनुष्य केवली, श्रुतकेवली या तीर्थंकर के पादमूल में दर्शनमोहनीय का क्षय करना प्रारम्भ करता है किन्तु उसकी पूर्ति चारों गतियों में से किसी में भी हो सकती है अर्थात् इनमें से किसी के पादमूल में मनुष्य क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकता है।

यह क्षायिक सम्यक्त्व देव, तिर्यंच, नारकी, भोगभूमिया मनुष्य तथा कर्मभूमि की महिलाओं को नहीं होता है क्योंकि इसकी योग्यता केवल कर्मभूमिया, द्रव्य पुरुषवेदी मनुष्य को ही प्राप्त है।

षट्खंडागम ग्रन्थ के प्रणेता श्री पुष्पदन्ताचार्य जी ने कहा है कि जातिस्मरण, जिनबिम्बदर्शन, धर्मश्रवण, जिनमहिमादर्शन, देवद्र्धिदर्शन और वेदनानुभव ये सम्यक्त्व की उत्पत्ति के बाह्य कारण हैं, जो चारों गतियों में योग्यतानुसार प्राप्त होते हैं।

जिनसूत्र और उसके जानने वाले मर्हिषगण भी सम्यक्त्व उत्पत्ति के बाह्य कारण हैं, ऐसा श्री कुन्दकुन्द देव ने कहा है। दर्शनमोहनीय और अनन्तानुबन्धी चतुष्क का उपशम, क्षयोपशम या क्षय होना अन्तरंग कारण है।

पाँच लब्धियों में से देशनालब्धि बाह्य कारण है और क्षयोपशम, विशुद्धि तथा प्रायोग्यलब्धि अन्तरंग कारण है फिर भी इन चार लब्धियों को तो सामान्य कारण माना गया है और अन्तिम करण लब्धि के होने पर नियम से सम्यक्त्व होता ही होता है और वह अन्तरंग कारण है।

आचार्य श्री उमास्वामी के अनुसार निसर्गज और अधिगमज के भेद से सम्यक्त्व दो प्रकार का भी माना गया है इनमें भी देशना लब्धि अवश्य पाई जाती है तथा अन्तरंग व बहिरंग कारण आज केवली और श्रुतकेवली नहीं हैं।

सम्यग्दर्शन की पहचान—
अन्तरंग और बहिरंग कारणों के मिल जाने पर जब सम्यग्दर्शन प्रगट हो जाता है तो उस प्राणी के परिणामों में स्वयमेव निर्मलता आती है और कषायपाहुड़सुत्त ग्रन्थ में श्रीगुणधर आचार्य ने सम्यग्दर्शन का लक्षण निम्न प्रकार से कहा है—

सम्माइट्ठी जीवो पवयणं णियमसा दु उवइट्ठं।
सद्दहदि असब्भावं अजाणमाणो गुरुणिओगा।।

अर्थात् सम्यग्दृष्टि जीव सर्वज्ञ के द्वारा उपदिष्ट प्रवचन का तो नियम से श्रद्धान करता ही है किन्तु कदाचित् अज्ञानवश सद्भूत अर्थ को स्वयं नहीं जानता हुआ गुरु के नियोग से असद्भूत अर्थ का भी श्रद्धान करता है।

भगवती आराधना, धवला की प्रथम पुस्तक तथा गोम्मटसार जीवकांड में यह गाथा ज्यों की त्यों अथवा किंचित् परिवर्तन के साथ दृष्टिगोचर होती है जिसका स्पष्ट अर्थ है कि शिष्य गुरू की असत्य बात पर भी यदि श्रद्धा करता है तो वह सम्यग्दृष्टि है, भले ही गुरु अज्ञानी होने से अथवा अल्पज्ञानी होने से मिथ्यादृष्टि होवें। पुनः उपर्युक्त गाथा का खुलासा करते हुए आचार्य श्रीशिवकोटि ने कहा है—

सुत्तादो तं सम्मं दरसिज्जन्तं जदा ण सद्दहदि।
सो चेव हवइ मिच्छाइट्ठी जीवो तदो पहुदी।।

इसका मतलब यह है कि पुनः कोई गुरु के द्वारा सूत्र से सम्यक्त्व अर्थ को दिखाने पर भी यदि श्रद्धा नहीं करता है तो वह उसी समय से मिथ्यादृष्टि हो जाता है। इन शब्दों से यह स्पष्ट हो जाता है कि पूर्वाचार्य द्वारा रचित जिनवाणी के सूत्र देखकर अपनी मिथ्या धारणाओं को बदल देना ही सम्यग्दृष्टि का कर्तव्य होता है।



ज्ञानी को सम्यक चारित्र की प्राप्ति भी सुलभ है और सम्यक चारित्र का निरतिचार पालन भी सुलभ है, इसीलिए हमारे यहां कहा गया है- ‘पढमं नाणं तओ दया।’ दया को पैदा करने में और दया के पालन में तत्त्वज्ञान बहुत सहायक होता है। ऐसा जानने पर भी, हममें तत्त्वों के स्वरूप को जानने की इच्छा कितनी है? क्या आप ऐसा कह सकते हैं कि ‘तत्त्वों के स्वरूप को जानने की हमने मेहनत की, परन्तु ज्ञानावरणीय कर्म के दोष से तत्त्वज्ञान न पा सके? समय आने पर जितनी समझने की शक्ति है, उतना समझने के लिए दिल खुला रखा है? या ‘जो हम करते हैं, वह ठीक है, ऐसा हृदय में ठसा रखा है? आप केवल अज्ञानी ही हैं या अज्ञानी के साथ आग्रही भी हैं? जीवादि तत्त्वों के स्वरूप को आप नहीं जानते, परन्तु जीवादि तत्त्वों के स्वरूप को कोई समझाए तो बुद्धि के अनुसार उसे समझने की आपकी तैयारी है या नहीं?’ अन्य कामों में रस आए और तत्त्व की बात में रस न आए तो ज्ञान-प्राप्ति के दरवाजे बंद हैं, ऐसा ही मानना पडेगा न?
वर्तमान समय में धर्म के विषय में ऐसा वातावरण बनता जा रहा है कि अज्ञान में सुख और ज्ञान के प्रति उपेक्षा। तत्त्व की बात में उतरना, कई लोगों को प्रपंच जैसा लगता है। धर्म की कोई बात निकले और स्वयं न जानता हो तो तनिक भी क्षोभ के बिना ऐसा कह दिया जाता है कि- “हमने तो दूर से ही नमस्कार कर रखा है, अतः खटपट नहीं। हम पूजा कर लेते हैं और कभी मन हो जाए तो जहां साधु-महाराज हो, वहां उपाश्रय में जा आते हैं और जो बनती है, वह क्रिया कर लते हैं। यदि इसमें गहरे उतरें तो हम अपना चैन ही गंवा बैठें।” सब पापों के मूल ‘मिथ्यात्व’ को टालने और सब धर्मों के आधारभूत ‘सम्यक्त्व’ को पाने के लिए शास्त्र कहते हैं कि ‘तत्त्वज्ञान प्राप्त करके, तत्त्वों के स्वरूप के विषय में सुनिश्चित मतिवाला बनना आवश्यक है’, जबकि आजकल के कतिपय मूर्ख लोग तत्त्वज्ञान की बात को समझने के प्रयास को अपना सर्वस्व खोने जैसा मानते हैं, यह कितना दुःखद है


तत्त्वों के स्वरूप का ज्ञान भी सम्यक्त्व-प्राप्ति का साधन है। आत्मा में मिथ्यात्व मोहनीय का क्षयोपशम अर्थात् सम्यग्दर्शन का गुण निसर्ग से भी प्रकट होता है और अधिगम से भी। मिथ्यात्व मोहनीय का क्षयोपशमादि यदि निसर्ग से हो तो यह बात अलग है, अन्यथा मिथ्यात्व मोहनीय का क्षयोपशमादि प्रयत्नसाध्य वस्तु भी है। जीवादि तत्त्वों के स्वरूप का सच्चा ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न, सम्यग्दर्शन गुण को प्रकट करने का साधन है। जिन्हें सम्यग्दर्शन गुण की प्राप्ति हुई है, वे भी तत्त्वज्ञान द्वारा अपने सम्यग्दर्शन गुण की निर्मलता प्राप्त कर सकते हैं। तत्त्वों के स्वरूप का सच्चा और निश्चयात्मक ज्ञान विरति के परिणामों को पैदा करने में भी बहुत सहायक सिद्ध होता है।
ज्ञानी को सम्यक चारित्र की प्राप्ति भी सुलभ है और सम्यक चारित्र का निरतिचार पालन भी सुलभ है, इसीलिए हमारे यहां कहा गया है- ‘पढमं नाणं तओ दया।’ दया को पैदा करने में और दया के पालन में तत्त्वज्ञान बहुत सहायक होता है। ऐसा जानने पर भी, हममें तत्त्वों के स्वरूप को जानने की इच्छा कितनी है? क्या आप ऐसा कह सकते हैं कि ‘तत्त्वों के स्वरूप को जानने की हमने मेहनत की, परन्तु ज्ञानावरणीय कर्म के दोष से तत्त्वज्ञान न पा सके? समय आने पर जितनी समझने की शक्ति है, उतना समझने के लिए दिल खुला रखा है? या ‘जो हम करते हैं, वह ठीक है, ऐसा हृदय में ठसा रखा है? आप केवल अज्ञानी ही हैं या अज्ञानी के साथ आग्रही भी हैं? जीवादि तत्त्वों के स्वरूप को आप नहीं जानते, परन्तु जीवादि तत्त्वों के स्वरूप को कोई समझाए तो बुद्धि के अनुसार उसे समझने की आपकी तैयारी है या नहीं?’ अन्य कामों में रस आए और तत्त्व की बात में रस न आए तो ज्ञान-प्राप्ति के दरवाजे बंद हैं, ऐसा ही मानना पडेगा न?
वर्तमान समय में धर्म के विषय में ऐसा वातावरण बनता जा रहा है कि अज्ञान में सुख और ज्ञान के प्रति उपेक्षा। तत्त्व की बात में उतरना, कई लोगों को प्रपंच जैसा लगता है। धर्म की कोई बात निकले और स्वयं न जानता हो तो तनिक भी क्षोभ के बिना ऐसा कह दिया जाता है कि- “हमने तो दूर से ही नमस्कार कर रखा है, अतः खटपट नहीं। हम पूजा कर लेते हैं और कभी मन हो जाए तो जहां साधु-महाराज हो, वहां उपाश्रय में जा आते हैं और जो बनती है, वह क्रिया कर लते हैं। यदि इसमें गहरे उतरें तो हम अपना चैन ही गंवा बैठें।” सब पापों के मूल ‘मिथ्यात्व’ को टालने और सब धर्मों के आधारभूत ‘सम्यक्त्व’ को पाने के लिए शास्त्र कहते हैं कि ‘तत्त्वज्ञान प्राप्त करके, तत्त्वों के स्वरूप के विषय में सुनिश्चित मतिवाला बनना आवश्यक है’, जबकि आजकल के कतिपय मूर्ख लोग तत्त्वज्ञान की बात को समझने के प्रयास को अपना सर्वस्व खोने जैसा मानते हैं, यह कितना दुःखद है! -आचार्य श्रीविजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा


जिस प्रकार नींव के बिना मकान का महेत्व नहीं, उसी प्रकार सम्यकदर्शन के बिना संसारी आत्माओं का महत्व नहीं। सम्यकदर्शन किसे कहते हैं, यह कितने प्रकार का होता है, इसके कितने दोष हैंआदि का वर्णन इस अध्याय में है।


1. सम्यकदर्शन किसे कहते हैं ?
सच्चे देव, शास्त्र और गुरु का तीन मूढ़ता रहित, आठ मद से रहित और आठ अंग सहित श्रद्धान करना सम्यकदर्शन है।


2. चार अनुयोगों में सम्यकदर्शन की क्या परिभाषा है ?

प्रथमानुयोग - सच्चे देव-शास्त्र-गुरु पर श्रद्धान करना। 
करणानुयोग - सात प्रकृतियों के उपशम, क्षय, क्षयोपशम से होने वाले श्रद्धा रूप परिणाम। 
चरणानुयोग - प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य का भाव होना। 
द्रव्यानुयोग - तत्वार्थ का श्रद्धान करना सम्यकदर्शन है। 


3. सम्यकदर्शन के कितने भेद हैं ?
सम्यकदर्शन के दो भेद हैं -
1. सराग सम्यकदर्शन 2. वीतराग सम्यकदर्शन। 
1. सराग सम्यकदर्शन

अ. धर्मानुराग सहित सम्यकदर्शन सराग सम्यकदर्शन है।

ब. प्रशम, संवेग, अनुकम्पा औरआस्तिक्य आदि की अभिव्यक्ति इसका मुख्य लक्षण है।(ध.पु. 1/152 )

प्रशम - रागादि की तीव्रता का न होना।
संवेग - संसार से भयभीत होना।
अनुकम्पा - प्राणी मात्र में मैत्रीभाव रखना।
आस्तिक्य - ‘जीवादि पदार्थ हैं” ऐसी बुद्धि का होना।
2. वीतराग सम्यकदर्शन - राग रहित सम्यकदर्शन वीतराग सम्यकदर्शन कहलाता है, यह वीतराग चारित्र का अविनाभावी है। यहाँ श्रद्धान और चारित्र में एकता होती है। उदाहरण-रामचन्द्रजी सम्यकद्रष्टि थे। एक तरफ जब सीताजी का हरण हुआ तो वह सीताजी को खोजते हैं, वृक्ष, नदी आदि से भी पूछते हैं कि मेरी सीता कहाँ है ? दूसरी तरफ जब रामचन्द्रजी मुनि अवस्था में शुद्धोपयोग में लीन हो जाते हैं और सीता जी का जीव विचार करता है कि इनके साथ हमारा अनेक भवों का साथ रहा है, यदि ये ऐसे ध्यान में लीन रहे तो मुझसे पहले मोक्ष चले जाएंगे। अत: सम्यकद्रष्टि सीताजी का जीव मुनि रामचन्द्रजी के ऊपर उपसर्ग करता है पर रामचन्द्रजी ध्यान से च्युत नहीं हुए। तो विचार कीजिए कि पहले भी रामचन्द्रजी सम्यकद्रष्टि थे और मुनि अवस्था में भी सम्यकद्रष्टि थे, फिर अन्तर क्या रहा तो पहले उनके सम्यक्त्व के साथ राग था आस्था और आचरण में भेद था, इसलिए सीताजी को खोज रहे थे। अत: सराग सम्यकदर्शन था। जब मुनि थे तो आस्था और आचरण में एकता आ गई थी, वीतराग सम्यकद्रष्टि बन गए। इससे सीताजी के जीव द्वारा किए गए उपसर्ग को भी सहन करते रहे और केवलज्ञान को प्राप्त किया।


4. व्यवहार सम्यकदर्शन और निश्चय सम्यकदर्शन किसे कहते हैं ? 
शुद्ध जीव आदि तत्वार्थों का श्रद्धानरूप सरागसम्यक्त्व व्यवहार सम्यक्त्व जानना चाहिए और वीतराग चारित्र के बिना नहीं होने वाला वीतराग सम्यक्त्व निश्चय सम्यक्त्व जानना चाहिए। 


5. सम्यकदर्शन के उत्पत्ति की अपेक्षा कितने भेद हैं ? 
सम्यकदर्शन की उत्पति की अपेक्षा दो भेद हैं - 

निसर्गज सम्यकदर्शन - जो पर के उपदेश के बिना जिनबिम्ब दर्शन, वेदना, जिनमहिमा दर्शन आदि से उत्पन्न होता है, उसे निसर्गज सम्यकदर्शन कहते हैं। 
अधिगमज सम्यकदर्शन - जो गुरु आदि पर के उपदेश से उत्पन्न होता है, वह अधिगमज सम्यकदर्शन है।


6. निसर्गज और अधिगमज में अंतरंग निमित्त क्या है ? 
दोनों ही सम्यक्त्व में मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्रप्रकृति और अनन्तानुबंधी चतुष्क इन सात प्रकृतियों का उपशम, क्षय व क्षयोपशम होना, अंतरंग निमित है। (तसू, 1/3)


7. अन्तरंग निमित्त की अपेक्षा से सम्यकदर्शन के कितने भेद हैं ? 
तीन भेद हैं- 1. उपशम सम्यकदर्शन 2. क्षयोपशम सम्यकदर्शन 3. क्षायिक सम्यकदर्शन। 


8. उपशम सम्यकदर्शन के कितने भेद हैं ? 
दो भेद हैं। 1. प्रथमोपशम सम्यकदर्शन 2. द्वितीयोपशम सम्यकदर्शन। 

प्रथमोपशमसम्यकदर्शन' - मिथ्यादूष्टि जीव को, जो दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृति अर्थात् मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्रप्रकृति एवं अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ इन सात प्रकृतियों के उपशम से जो सम्यकदर्शन होता है, उसे प्रथमोपशम सम्यकदर्शन कहते हैं। यह चारों गतियों के जीवों को हो सकता है। 
द्वितीयोपशम सम्यकदर्शन - क्षयोपशम सम्यकदर्शन के अनन्तर जो उपशम सम्यकदर्शन होता है, उसे द्वितीयोपशम सम्यकदर्शन कहते हैं। यह भी सात प्रकृतियों के उपशम से होता है। सप्तम गुणस्थानवर्ती मुनि यदि उपशम श्रेणी चढ़े तब उसको क्षायिक सम्यकदर्शन या द्वितीयोपशम सम्यकदर्शन आवश्यक होता है। 
विशेष - अन्य आचार्यों के मतानुसार द्वितीयोपशम सम्यकदर्शन चतुर्थ गुणस्थान से सप्तम गुणस्थानवर्ती क्षयोपशम सम्यकद्रष्टि प्राप्त करता है। (ध.पु., 1/211, का.अ.टी., 484, मूलाचार, 205 टीका) 


9. सर्वप्रथम जीव कौन-सा सम्यकदर्शन प्राप्त करता है ? 
सर्वप्रथम जीव प्रथमोपशम सम्यकदर्शन प्राप्त करता है।


10. प्रथमोपशम एवं द्वितीयोपशम सम्यकदर्शन प्राप्त करने के स्वामी कौन हैं ? 
प्रथमोपशम सम्यकदर्शन - संज्ञी, पञ्चेन्द्रिय, पर्याप्त, गर्भजन्म और उपपाद जन्म वाले मिथ्यादृष्टि ही प्राप्त करते हैं। संज्ञी पज्चेन्द्रिय सम्मूच्छन जन्म वाले प्राप्त नहीं कर सकते हैं।

द्वितीयोपशम सम्यकदर्शन - इसे क्षयोपशम सम्यकदर्शन वाले मुनि या 4 से 7 गुणस्थान वाले क्षयोपशम सम्यकद्रष्टि कर्मभूमि के मनुष्य ही प्राप्त कर सकते हैं। भोगभूमि के प्राप्त नहीं कर सकते।



11. प्रथमोपशम एवं द्वितीयोपशम सम्यकदर्शन में क्या अंतर है ?
निम्नलिखित अंतर हैं -

प्रथमोपशाम सम्यकदर्शन

द्वितीयोपशम सम्यकदर्शन

1. धर्म का प्रारम्भ इससे ही होता है।

1. यह धर्म प्रारम्भ होने के बाद ही होता है।

2. यह चारों गतियों के जीवों को होता है।

2.यह मात्र साधु को होता है या 4 से 7 वेंगुणस्थानवर्ती मनुष्यों को होता है।

3. इसमें गुणस्थान 4 से 7 तक होते हैं।

3. इसमें 4 से 11 गुणस्थान तक होते हैं।

4. किसी भी गति की अपर्याप्त अवस्था में नहीं रहता है।

4. मात्र देवगति की अपर्याप्त अवस्था में रह सकता है।

5. यह मिथ्यादृष्टि प्राप्त करता है।

5. यह क्षयोपशम सम्यकद्रष्टि प्राप्त करता है।

6. इसमें मरण नहीं होता है।

6. इसमें मरण हो सकता है।

7.यह अर्धपुद्गल परावर्तन काल में असंख्यात बार हो सकता है।

7.यह एक भव में दो बार तथा संसार चक्र में कुल चार बार हो सकता है।

8.एक बार प्रथमोपशम सम्यकदर्शन होने के बाद पुनः प्रथमोपशम सम्यकदर्शन असंख्यात वर्ष के बाद ही हो सकता है।

8. यह अन्तर्मुहूर्त बाद पुन: हो सकता है।

9. अन्तर्मुहूर्त होने पर भी इसका काल कम है।

9. इसका काल प्रथमोपशम सम्यकदर्शन के काल से संख्यात गुणा अधिक है।

10. इसमें त्रिकरण परिणामों की शुद्धि हीन है।

10. इसमें प्रथमोपशम सम्यकदर्शन की अपेक्षा त्रिकरण परिणामों की शुद्धि अनन्तगुणी
अधिक है। 


12. क्षयोपशम सम्यकदर्शन किसे कहते हैं ?
अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व व सम्यग्मिथ्यात्व इन 6 प्रकृतियों के उदयाभावी क्षय व उपशम से तथा सम्यक्रप्रकृति के उदय में जो सम्यकदर्शन होता है, उसे क्षयोपशम सम्यकदर्शन कहते हैं।


13. क्षयोपशम सम्यकदर्शन प्राप्त करने के स्वामी कौन-कौन हैं ? 
चारो गतियों वाले संज्ञी, पञ्चेन्द्रिय, पर्याप्त, गर्भजन्म, उपपाद जन्म एवं सम्मूर्च्छन जन्म वाले मिथ्यादृष्टि प्राप्त करते हैं। प्रथमोपशम, द्वितीयोपशम सम्यकद्रष्टि एवं सम्यग्मिथ्यादृष्टि भी प्राप्त करते हैं। 
विशेष : वर्तमान में प्रथमोपशम एवं क्षयोपशम सम्यकदर्शन होता है, या हो सकता है। 


14. क्षायिक सम्यकदर्शन किसे कहते हैं ? 
सात प्रकृतियों के क्षय (नाश) से जो सम्यकदर्शन होता है, उसे क्षायिक सम्यकदर्शन कहते हैं। 


15. क्षायिक सम्यकदर्शन प्राप्त कौन कर सकता है ? 
मात्र कर्मभूमि का मनुष्य क्षयोपशम सम्यकद्रष्टि केवली, श्रुतकेवली के पादमूल में प्राप्त करता है। 


16. यदि क्षायिक सम्यकदर्शन, मनुष्य प्राप्त करता है, तो चारों गतियों में क्षायिक सम्यकद्रष्टि कैसे पाए जाते हैं ? 
जिस मनुष्य ने पहले नरकायु, तिर्यच्चायु या मनुष्यायु का बंध कर लिया है और बाद में क्षायिकसम्यकदर्शन प्राप्त किया है, वह मरण कर प्रथम नरक में ही जाएगा, भोगभूमि का तिर्यच्च या मनुष्य होगा। जिसने देवायु का बंध किया है, या किसी भी आयु का बंध नहीं किया है, तो वह नियम से देवगति में ही जाएगा और वैमानिक ही होगा। इस प्रकार चारों गतियों में क्षायिक सम्यकद्रष्टि पाए जाते हैं। (र. क. श्रा, 35) 


17. क्षायिक सम्यकद्रष्टि अधिक-से-अधिक कितने भवों में मोक्ष जा सकता है ? 
चार भवों में। पहला मनुष्य (जिसमें प्राप्त किया था,) दूसरा भोगभूमि का तिर्यञ्च या मनुष्य, तीसरा देवगति, चौथा कर्मभूमि का मनुष्य होकर मोक्ष प्राप्त कर लेगा।


18. तीनों सम्यकदर्शनों का काल कितना है ? 

सम्यकदर्शन

जधान्यकाल

उत्कृष्टकाल

प्रथमोपशम

अन्तमुहूर्त

अन्तर्मुहूर्त

द्वितीयोपशम

अन्तर्मुहूर्त

अन्तर्मुहूर्त

क्षयोपशम

अन्तमुहूर्त

66 सागर

क्षायिक

हमेशा (सादि अनन्त)

(होने के बाद छूटता नहीं)

हमेशा (सादि अनन्त)

(होने के बाद छूटता नहीं)


19. तीन सम्यकदर्शन में कितने सराग एवं कितने वीतराग सम्यकदर्शन हैं ? 
क्षयोपशम सम्यकदर्शन तो सराग सम्यकदर्शन ही है, शेष दो सराग, वीतराग दोनों हैं। 

20. तीनों सम्यकदर्शनों में कितने निसर्गज एवं कितने अधिगमज हैं ? 
तीनों सम्यकदर्शन निसर्गज भी हैं एवं अधिगमज भी हैं। 


21. क्षायिक सम्यकदर्शन तो केवली, श्रुतकेवली के पादमूल में होता है, अत: अधिगमज हुआ। निसर्गज कैसे हुआ ? 
दूसरे और तीसरे नरक से आकर जो जीव तीर्थंकर होते हैं, उनके लिए क्षायिक सम्यकदर्शन की प्राप्ति में परोपदेश की आवश्यकता नहीं होती है, किन्तु परोपदेश के बिना ही उनके क्षायिक सम्यकदर्शन की प्राप्ति होती है, अत: यहाँ क्षायिक सम्यकदर्शन निसर्गज हुआ।


22. सम्यकदर्शन की प्राप्ति में अन्य हेतु क्या हैं ?

1.जाति स्मरण

पूर्व जन्मों की स्मृति।

2.धर्मश्रवण

धर्म उपदेश का सुनना।

3.जिन बिम्ब दर्शन

जिनबिम्ब दर्शन से। सम्मेदशिखरजी, ऊर्जयन्तजी, चम्पापुरजी, पावापुरजी एवं लब्धि सम्पन्न ऋषियों के दर्शन भी जिनबिम्ब दर्शन में ही गर्भित हैं।

4. वेदनानुभव

तीव्र वेदना होने से।

5. देवद्धि दर्शन

अपने से अधिक ऋद्धि अन्य देवों के पास देखकर के।

6.जिनमहिमा दर्शन

तीर्थङ्करों के पञ्चकल्याणक के दर्शन से।


23. उपरोक्त छ: हेतुओं में से किस गति में किन-किन हेतुओं से सम्यकदर्शन उत्पन्न होता है ? 
नरकगति में - जाति स्मरण, धर्मश्रवण (तीसरी पृथ्वी तक) और वेदनानुभव से। 
तिर्यञ्चगति व मनुष्यगति में - जाति स्मरण, धर्मश्रवण और जिनबिम्ब दर्शन से। 
विशेष - जिन बिम्ब दर्शन में जिनमहिमा भी गर्भित है। 
देवगति में - जाति स्मरण, देवद्धिदर्शन (12 वें स्वर्ग तक), धर्मश्रवण, जिनमहिमा दर्शन (16 वें स्वर्ग तक)। 
नवग्रैवेयक में - जाति स्मरण और धर्मश्रवण से। 
नवअनुदिश एवं पञ्च अनुतरों में - सम्यकद्रष्टि ही रहते हैं। (रावा, 2/3/2) 
भोगभूमि में - जाति स्मरण और धर्मश्रवण से। (देवों के द्वारा प्रतिबोधित करने से एवं चारण ऋद्धिधारी मुनि के उपदेश से)


24. दस प्रकार के सम्यकदर्शन कौन-कौन से होते हैं ?

आज्ञा सम्यकदर्शन - वीतराग भगवान् की आज्ञा से ही जो तत्व श्रद्धान होता है, वह आज्ञा सम्यकदर्शन है। 
मार्ग सम्यकदर्शन - ग्रन्थ श्रवण के बिना जो कल्याणकारी मोक्षमार्ग का श्रद्धान होता है, उसे मार्ग सम्यकदर्शन कहते हैं। 
उपदेश सम्यकदर्शन - 63 शलाका पुरुषों की जीवनी को सुनकर जो तत्व श्रद्धान उत्पन्न होता है, उसे उपदेश सम्यकदर्शन कहते हैं। 
सूत्र सम्यकदर्शन - मुनियों की चर्या को बताने वाले ग्रन्थों को सुनकर जो श्रद्धान होता है, उसे सूत्र सम्यकदर्शन कहते हैं।
बीज सम्यकदर्शन - बीज पदों के श्रवण से उत्पन्न श्रद्धान को बीज सम्यकदर्शन कहते हैं।
संक्षेप सम्यकदर्शन - जो जीवादि पदार्थों के स्वरूप को संक्षेप से ही जान कर तत्व श्रद्धान को प्राप्त हुआ है, उसे संक्षेप सम्यकदर्शन कहते हैं।
विस्तार सम्यकदर्शन - जो भव्य जीव 12 अंगो को सुनकर तत्व श्रद्धानी हो जाता है, उसे विस्तार सम्यकदर्शन कहते हैं।
अर्थ सम्यकदर्शन - वचन विस्तार के बिना केवल अर्थ ग्रहण से जिन्हें सम्यकदर्शन हुआ है, वह अर्थ सम्यकदर्शन है।
अवगाढ़ सम्यकदर्शन - श्रुतकेवली का सम्यकदर्शन अवगाढ़ सम्यकदर्शन कहलाता है।
परमावगाढ़सम्यकदर्शन - केवली का सम्यकदर्शन परमावगाढ़ सम्यकदर्शन कहलाता है। (रा. वा, 3/36)


25. सम्यकदर्शन के 25 दोष कौन-कौन से हैं ? 
3 मूढ़ता, 8 मद, 6 अनायतन और 8 शंकादि दोष (8 अंगो से उलटे दोष) ये 25 दोष सम्यकदर्शन के हैं। (द्र.सं.टी., 41)


26. मूढ़ता किसे कहते हैं एवं कौन-कौन सी होती हैं  ? 
सम्यक्त्व में दोष उत्पन्न करने वाले विवेक रहित कार्य को मूढ़ता कहते हैं। 

लोक मूढ़ता - धर्म बुद्धि से नदियों व समुद्रों में स्नान करना, बालू का ढेर लगाना, पर्वत से गिरना,अग्नि में जलना आदि लोक मूढ़ता है। 
देव मूढ़ता - आशा - तृष्णा के वशीभूत होकर वांछित फल की प्राप्ति की अभिलाषा से रागी - द्वेषी देवी - देवताओं की पूजा करना देव मूढ़ता है। 
गुरु मूढ़ता - आरम्भ, परिग्रह, हिंसा, भय से युक्त और संसार में डुबाने वाले कार्यों में लीन साधुओं की पूजा, सत्कार करना गुरु मूढ़ता है। 


27. मद किसे कहते हैं एवं कितने होते हैं ? 
अहंकार, गर्व, घमण्ड करने को मद कहते हैं। ये आठ प्रकार के होते हैं। 

ज्ञानमद - मुझे तो इतना ज्ञान है कि मैं बता सकता हूँ कि श्री धवला, श्री जयधवला जैसे महान् ग्रन्थों के कौन से पृष्ठ पर क्या लिखा है, किन्तु इनको तो ये भी नहीं मालूम कि एकेन्द्रिय जीव किस गति में आते हैं, ऐसा कहना ज्ञानमद है। 
पूजामद - मेरी पूजा, मेरा सम्मान तो प्रत्येक घर में होता है, यहाँ तक कि विदेशों में भी होता है एवं आपका सम्मान तो नगर क्या घर में भी नहीं होता है। ऐसा कहना पूजामद है। 
कुलमद - मेरा जन्म तो उस कुल में हुआ है, जहाँ अनेक मुनि हो गए, अनेक आर्यिकाएँ हो चुकी हैं, किन्तु तुम्हारे कुल में तो कोई रात्रिभोजन का भी त्यागी नहीं हुआ है, ऐसा कहना कुलमद है।
जातिमद - मेरी माता तो उस घर में जन्मी है, जहाँ सदाचार का सदैव पालन होता है, एवं तुम्हारी माता तो उस घर में जन्मी है, जहाँ सदाचार का थोड़ा भी पालन नहीं होता है, ऐसा कहना जातिमद है। 
बलमद - मेरे पास इतना बल है कि मैं सौ - सौ व्यक्तियों से युद्ध में जीत सकता हूँ एवं तुम्हारे पास तो इतना भी बल नहीं है कि तुम एक मक्खी से भी जीत सको, ऐसा कहना बलमद है। 
ऋद्धिमद - मेरे पास अनेक प्रकार की ऋद्धियाँ हैं, जहाँ - जहाँ मेरे चरण पड़ जाते हैं, वहाँ से रोग, दुर्भिक्ष, महामारी आदि भाग जाते हैं एवं आपके पास तो कोई भी ऋद्धि नहीं है, ऐसा कहना ऋद्धिमद है। धन मद भी ऋद्धिमद में गर्भित है। 
तपमद - मैं बहुत बड़ा तपस्वी हूँ हर माह में कम-से-कम दस उपवास कर लेता हूँ लेकिन आप रोज-रोज आहार करने जाते हैं, ऐसा कहना तपमद है। 
रूपमद - मैं बहुत रूपवान हूँ, सुंदर हूँ बिना क्रीम, पावडर के भी कामदेव के समान लगता हूँ एवं आप तो बिल्कुल अष्टावक्र एवं काले हैं, ऐसा कहना रूपमद है। 


28. अनायतन किसे कहते हैं ? 
आयतन का अर्थ होता है स्थान। यहाँ सम्यकदर्शन का प्रकरण होने से आयतन का अर्थ धर्म का स्थान। इससे विपरीत अधर्म के स्थान को अनायतन कहते हैं।
अनायतन छ: होते हैं। कुगुरु, कुगुरु सेवक, कुदेव, कुदेव सेवक, कुधर्म और कुधर्म सेवक। इनकी मन, वचन, काय से प्रशंसा, भक्ति, सेवा नहीं करना। यदि प्रशंसा, भक्ति, सेवा करते हैं तो यह सम्यकदर्शन में दोष है।


29. शंकादि आठ दोष कौन-कौन से हैं ?

शांका - जिनेन्द्र देव द्वारा कथित तत्वों में विश्वास नहीं करना। 
कांक्षा - धर्म के सेवन से, सांसारिक भोगों की वांछा करना। 
विचिकित्सा - रत्नत्रयधारी मुनियों के शरीर को देखकर ग्लानि करना। 
मूढ़दृष्टि - मिथ्यामार्ग और मिथ्यामार्गियों की मन से सहमति करना, वचन से प्रशंसा करना एवं काय से सेवा करना।
अनुपगूहन - धर्मात्माओं के दोषों को प्रकट करना। 
अस्थितिकरण - धर्म से चलायमान लोगों को पुन: धर्म में स्थित नहीं करना। 
अवात्सल्य - साधमीं भाइयों से प्रेम न कर उनकी निंदा करना।
अप्रभावना - अपने खोटे आचरण से जिनशासन की अप्रभावना करना। 
नोट - ये शंकादिसम्यकदर्शन के 8 दोष हैं, इसके विपरीत नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना, ये 30.सम्यकदर्शन के 8 अंग होते हैं।



30. सम्यकदर्शन के आठ गुण कौन-कौन से होते हैं ?
सम्यकदर्शन के आठ गुण इस प्रकार हैं

संवेग - संसार के दुखों से नित्य डरते रहना अथवा धर्म के प्रति अनुराग रखना । 
निवेग - भोगों में अनासति।
निंदा - अपने दोषों की निंदा करना।
गहा - गुरु के समीप अपने दोषों को प्रकट करना। 
उपशम - क्रोधादि विकारों को शांत करना।
भत्ति - पञ्च परमेष्ठी में अनुराग।
वात्सल्य - साधर्मियों के प्रति प्रीति भाव रखना।
अनुकम्पा - सभी प्राणियों पर दया भाव रखना। (चारित्रसार श्रावकाचार, 7) 
नोट - सम्यकद्रष्टि नारकी एवं तिर्यच्च भी होता है, जैसा कि प्रश्न 16 में कहा था। सम्यकद्रष्टि क्या-क्या प्राप्त करता है ? देवों में श्रेष्ठ पद इन्द्र, मनुष्यों में श्रेष्ठ पद चक्रवर्ती एवं तीर्थङ्कर के पद को भी प्राप्त करता है।


31. सम्यकद्रष्टि जीव कहाँ कहाँ उत्पन्न नहीं होते है ?
सम्यकद्रष्टि जीव नरक , तिर्यच्च , भावनत्रिक देव, नपुंसक , स्त्री, पर्याय ,निच्कुल विकलांग, अल्पायु एकेन्द्रिय, विकलचतुष्क और दरिद्रता को प्राप्त नहीं होता है।

नोट - सम्यकद्रष्टि नारकी एवं तिर्यच्च भी होता है, जैसा कि प्रश्न 16 में कहा था।


32. सम्यकद्रष्टि क्या-क्या प्राप्त करता है ?
 देवों में श्रेष्ठ पद इन्द्र, मनुष्यों में श्रेष्ठ पद चक्रवर्ती एवं तीर्थंकर के पद को भी प्राप्त करता है।


33. सम्यकद्रष्टि की क्या पहचान है ?
आचार्य नेमिचन्द्र जी जीवकाण्ड में कहते हैं

मिच्छंतं वेदंतो जीवो विवरीयदंसणो होदि॥ 
णय धम्मं। रोचेदि हु महुरं खुरसं जहाजरिदो॥ 

अर्थ - मिथ्यात्व का अनुभव करने वाला जीव विपरीत श्रद्धान वाला होता है। जैसे : -

पित्तज्वर से युक्त जीव को मधुर रस भी रुचिकर नहीं होता है वैसे ही मिथ्यादृष्टि जीव को यथार्थ धर्म रुचिकर नहीं होता है। अर्थात् इस गाथा से स्पष्ट हो जाता है कि धर्म जिसे अच्छा लग रहा है वह सम्यकद्रष्टि है क्योंकि मिथ्यात्व रूपी ज्वर से ग्रसित व्यक्ति के लिए धर्म अच्छा नहीं लगता है।
जो अपनी प्रशंसा के साथ दूसरे की निंदा नहीं करते हैं वे भी सम्यकद्रष्टि हैं क्योंकि जो अपनी प्रशंसा के साथ दूसरे की निंदा करते हैं तो नीच गोत्र का बंध होता है एवं नीच गोत्र का बंध दूसरे गुणस्थान तक ही होता है। अत: अपनी प्रशंसा के साथ पर की निंदा करने वाला सम्यकद्रष्टि नहीं हो सकता है।


34. कौन से सम्यकदर्शन से कौन-सा सम्यकदर्शन उत्पन्न होता है ?
प्रथमोपशम सम्यकदर्शन से क्षयोपशम सम्यकदर्शन। द्वितीयोपशम सम्यकदर्शन से क्षयोपशम सम्यकदर्शन। क्षयोपशम सम्यकदर्शन से द्वितीयोपशम सम्यकदर्शन एवं क्षायिक सम्यकदर्शन। क्षायिक सम्यकदर्शन से कोई भी सम्यकदर्शन नहीं होता है।


35. सम्यकदर्शन के पर्यायवाची नाम कौन-कौन से हैं ?
श्रद्धा, आस्था, रुचि, प्रतीति आदि।


सम्यक्त्व पराक्रम के कितने बोल है ?
🅰️73
औदयिक भाव के 33, औपशमिक भाव के 8, , क्षायोपशमिक भाव के 32 भेद किए जाते है।





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टिप्पणियाँ

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  2. गागर मे़ सागर भर दिया। मोक्षमार्गी को सम्यग्दर्शन का श्रद्धा सहित ज्ञान होना आवश्यक है। अभी तक मोक्ष प्राप्ति नहीं होने का यह प्रमुख कारण है और इसकी प्राप्ति के बिना धर्म में प्रवेश ही नहीं होता। यदि यह प्राप्त हो जाता है तो मोक्ष का बीमा हो जायेगा ।इसलिये इस मनुष्य भव का सदुपयोग सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हेतु ही होना चाहिये।धार्मिक पाठशाला और प्रवचनों में भी सिर्फ इसकी प्राप्ति हेतु ज्ञान मिलना चाहिये।

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