नमुत्थुणं (25 बोल ) क्लास का7
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*अध्याय*,
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*देव गति*
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**9:6:21*
*आहार*
देवता वैक्रिय पुद् गलों का आहार करते हैं,देवताओं के रोम आहार होता है। मनुष्य की तरह वे मुख से भोजन नहीं करते । भोजन का भी उनका अपना एक क्रम है। उसके अनुसार ही वे भोजनार्थ पुद्गल खींचते हैं। इनके आहार को
रोमाहार/लोमाहार कहते है।
*एक झलक ऊर्ध्वलोक की*
समतल भूमि के ऊपर 900 योजन से प्रारम्भ होकर लोक के अग्र भाग तक *ऊर्ध्वलोक* है।इसकी लम्बाई 7रज्जू प्रमाण है।
*उर्ध्वलोक में क्या क्या है?*
12 देवलोक है।
3 किल्विषक है।
9 लौकांतिक है।
5 अनुत्तर विमान है।
सिद्धशिला और सिद्धक्षेत्र है।
*समतल भूमि से 900 योजन ऊपर तक मेरुपर्वत का हिस्सा है।*
*उर्ध्वलोक में मुख्यतया वैमानिक देव रहते हैं।* विमान में रहने के कारण इन देवों को वैमानिक देव कहते हैं।
*7 रज्जू के उर्ध्वलोक को*
*समतल भूमि से क्रमशःइस प्रकार समझ सकते हैं–*
*डेढ़ रज्जू ऊपर*---पहला-दूसरा देवलोक है।
*अढा़ई रज्जू ऊपर*---तीसरा-चौथा देवलोक है।
*सवा तीन रज्जू ऊपर*---पाँचवाँ देवलोक है।
*साढ़े तीन रज्जू ऊपर*---छठवाँ देवलोक है।
*पौने चार रज्जू ऊपर*---सातवाँ देवलोक है।
*चार रज्जू ऊपर*---आठवाँ देवलोक है।
*साढेचार रज्जू ऊपर*---नवमाँ-दसवाँ देवलोक है।
*पाँच रज्जू ऊपर*/--ग्यारहवाँ-बारहवाँ देवलोक विद्यमान है।
*अर्थात् समतल भूमि से पाँच रज्जू ऊपर तक प्रथम देवलोक से बारहवां देवलोक विद्यमान है।*
*क्रमशः*
: *25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*अध्याय*,
*10:6:21*
आइये अब हम देव औऱ देव लोक के बारे मे जाने
देव चार प्रकार के होते हैं -- 1,भवनपति, 2व्यन्तर, 3ज्योतिष्क और4 वैमानिक।
(पहले दो प्रकार का वर्णन नरक के वर्णन के साथ ही हो गया था
कारण दोनों प्रकार के देव अधोलोक में ही रहते हैं।)
यहां बाकि दो का वर्णन जानेंगे
देवों का शरीर वैक्रिय होता है। वह उत्तम परमाणुओं द्वारा निर्मित होता है। उसमें हाड़, मास, रक्त आदि नहीं होते हैं। मरने के बाद यह शरीर कपूर की भांति उड़ जाता है। देवों के उत्पन्न होने का एक नियत स्थान देवशय्या होता है। देव और नारक का जन्म उपपात कहलाता है। देवता में पांच पर्याप्तियां पाई जाती है। देवता का भाषा और मन एक ही होता है। वैसे उध्वलोक के देवो को देखे तो दो भेद है
1कल्पोपन्न औऱ2कल्पातीत
*जो कल्पों में उत्पन्न होते हैं वे कल्पोपपन्न कहलाते हैं* 2कल्पातीत:-
*और जो कल्पों के परे हैं वे कल्पातीत कहलाते हैं।*
कल्पोपपन्न
देवों के 3 भेद होते हैं ?
. प्रमुख तीन भेद होते हैं-
1) बारह देवलोक
2) नवलोकान्तिक
3) तीन किल्बिषिक।
कल्पातीत देवों के
प्रमुख रूप से दो भेद होते हैं-१) नवग्रैवेयक
2) पांच अनुत्तर।
💫: बारह देवलोक कौन कौन से है आइये जानते हैं
१. सौधर्म।
२. ईशान
३. सनत्कुमार
४. महेन्द्र
५. ब्रह्म
६ लान्तक
७ शुक्र
८.सहस्रार
9 आनन्त,
१०. प्राणत
11आरण,
12 अच्युत
नौ ग्रैवेयक
१. सुदर्शन
2,सुप्रतिबद्ध
3 मनोरम।
४. सर्वतोभद्र
5सुविशाल
6 सुमन रस
७. सौमनस
8प्रियंकर
9 नन्दीकर
पांच अनुत्तर
1 विजय
2 वैजयन्त
3 जयंत सुविशाल
4 . अपराजित
५. सर्वार्थसिद्ध
अब इनके बारे में विस्तार से कल जानेगे
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*अध्याय*,
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*देव गति*
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**11:6:21*
*11:6:21*
*इन बारह देवलोक के 10 ,इन्द्र होते है , 9वे10 के 1 संयुक्त होता हैं औऱ 11 वे 12 के 1 संयुक्त इन्द्र होते हैं ।*
**प्रथम. सौधर्म*
*२. ईशान देवलोक का वर्णन*⤵️
शनैश्चर के विमान की ध्वजा से १ रज्जु ऊपर १९॥ रज्जु घनाकार विस्तार में घनोदधि
(जमे हुए पानी) के आधार पर, लगडाकार, जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत से दक्षिण दिशा में पहला सौधर्म देवलोक (स्वर्ग) है सौधर्म देवलोक का आकार
अर्ध चन्द्रमा के आकार का है
और उत्तर दिशा में दूसरा ईशान देवलोक है। इन दोनों देवलोकों में तेरह-तेरह प्रत्तर हैं।
प्रतर किसे कहते हैं:-जैसे मकान में मंजिल होती है, उसी प्रकार देवलोकों में प्रतर होते हैं। जैसे मंजिल में कमरे होते उसी प्रकार प्रतरों में विमान होते हैं।
इन प्रतरों में पांच-पांच सौ योजन ऊंचे और सत्ताईस सत्ताईस सौ योजना की नींव वाले विमान हैं।
सौधर्म और ईशान के विमान काले, नीले, लाल, पीले और सफेद
पहले देवलोक के इन्द्र का नाम शक्रेन्द्र है। शक्रेन्द्र की आठ अग्रमहिषियां (इन्द्रानियां) हैं।
शकेंद्र का विमान अंतिम तेरहवे प्रतर में है।शकेंद्र का विमान का नाम दिव्ययान है
यान विमान से आगे महेन्द्र ध्वज।चलता है?
महेन्द्र ध्वज एक हजार योजन प्रमाण ।विस्तीर्ण है।
सौधर्म कल्प के इंद्र के तीन परिषदाए है ;-
*1आभ्यंतर*, -12 हज़ार देव होते हैं
*2मध्य* - 16 हज़ार देव होते है
*और 3बाह्य* 14 हज़ारदेव होते है
सौधर्म देवलोक के देवो मेंएक
तेजो लेश्या होती हैं
सौधर्म कल्प के देवो में 9 उपयोग पाये जाते है
पहले देवलोक में ३२००००० विमान हैं ।सौधर्म देवलोक के विमान के मध्य में 5 अवतंसक है ।सौधर्म कल्प के विमान सर्व रत्नमय से निर्मित है
*क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*अध्याय*,
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*देव गति*
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**12:6:21*
गंताक़ से आगे
और दूसरे देवलोक में २८००००० विमान हैं।
दुसरे देवलोक के इन्द्र कानाम है
ईशानेन्द्र ।
ईशानेन्द्र के दूसरे नाम
शूलपाणि, वृषभवाहन, सुरेन्द्र, उत्तरार्ध लोकाधिपति आदि ।
ईशानेन्द्र के दिव्य यान विमान का नाम पुष्पक हैं
पुष्पक यान विमान का निर्माण
पुष्पक अभियोगिक देव ने किया।ईशानेन्द्र का यान विमान
एक लाख योजन विस्तीर्ण।
ईशानेन्द्र आकाश जैसे निर्मल
से वस्त्र धारण करते है
लघुपराक्रम-- देवईशानेन्द्र की पैदल सेना का अधिपति =सेनापति देव,लघुपराक्रम देव कहते हैं
ईशानेन्द्र कीभी आठ अग्रमहिषियां (इन्द्रानियां) हैं। प्रत्येक इन्द्रानी का सोलह-सोलह हजार देवियों का परिवार है।
सौधर्म कल्प में दो
प्रकार की देवियां होती हैं-
*1परिग्रहिता देवी* -जघन्य एक पाल्योपम उत्कृष्ट सात पल्योपम की स्थिति होती हैं
और *2अपरिग्रहिता देवी*-
जघन्य एक पल्योपम उत्कृष्ट पचास पल्योपम
पहले देवलोक के देवों की आयु जघन्य एक पल्योपम की और उत्कृष्ट दो सागरोपम कीहै। दूसरे देवलोक के देवों की आयु जघन्य एक पल्योपम से कुछ अधिक और उत्कृष्ट दो सागरोपम से कुछ अधिक है। इनकी परिगृहीता देवियों की आयु जघन्य एक पल्योपम से कुछ अधिक और उत्कृष्ट नौ पल्योपम की है। दूसरे देवलोक से आगे देवियों की नहीं होती।
भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी और पहले, दूसरे देवलोक के देव मनुष्यों की तरह काया से कामभोग भोगते हैं।
पहले सौधर्म देवलोक में अपरिगृहीता (वेश्या जैसी) देवियों के छह लाख विमान हैं। इनमें रहने वाली देवियों की आयु जघन्य एक पल्योपम की और उत्कृष्ट पचास पल्योपम की है। इनमें से एक पल्योपम की आयु वाली ही देवी, पहले देवलोक के देवों के परिभाग में आती हैं।
*क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*अध्याय*,
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*देव गति*
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सौधर्म देवलोक में देव असंज्ञीकल्पोपन्न देवों के
. प्रमुख तीन भेद होते हैं-
1) बारह देवलोक
2) नवलोकान्तिक
3) तीन किल्बिषिक। जीवो को छोड़ कर शेष संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच व मनुष्य में से
से आकर उत्पन्न होते है
एक समय में जघन्य 1,2,3, संख्यात उत्कृष्ट असंख्यात देव उत्पन्न होते है।
*सौधर्म देव लोक में*
इनके सामनिक देव है- 84000
आत्म रक्षक देव-336000
आभ्यंतर परिषद के देव- 12000
मध्यम परिषद के देव-14000
बाह्य परिषद के देव -16000
चिन्ह-मर्ग
देहमान- 7 हाथ
अवधि ज्ञान नरक के नीचे तक
दूसरा ईशान देवलोक*
इनके
सामनिक देव है-80000
आत्म रक्षक देव-320000
आभ्यंतर परिषद केदेव- 10000
मध्यम परिषद के देव-12000
बाह्य परिषद के देव -14000
चिन्ह-महिष
देहमान-7 हाथ
अवधि ज्ञान नरक के नीचे तक सभी 12 देवलोक में समान ही होता हैं
सौधर्मइन्द्र का वाहन का नाम ऐरावत है
*एक संक्षिप्त कहानी सौधर्मइन्द्र औऱ उनके वाहन ऐरावत की*
२०वें तीर्थंकर मुनीसुव्रतस्वामी के समय एक बड़ा सेठ था जिसका नाम था " कार्तिक सेठ "एक बार वहां के राजा के गुरु(तापस) शहर में आये |पर कार्तिक सेठ " नहीं गया क्योंकि
कार्तिक सेठ शुद्ध देव-गुरु-धर्म के प्रति अनन्य आस्थाशील थे |
कार्तिक सेठ " के किसी शत्रु ने गुरु के कान भर दिए कि " कार्तिक सेठ " ने आपके दर्शन नहीं किये।तबगुरु ने राजा को कहा यदि " कार्तिक सेठ " की पीठ पर थाल रखकर भोजन कराओ, तभी मैं भोजन करूँगा अन्यथा नहीं |
कार्तिक सेठ " को उसी ढंग से बिठाया गया, ताकि थाल आसानी से उसकी पीठ पर रखा जा सके । गर्म-गर्म खीर से भरकर थाल सेठ की पीठ पर रखा गया । सेठ की पीठ जल रही थी, गुरु का अहं पूरा हो रहा था |घर आकर सीधा मुनि बने।
संयम और तप के प्रभाव से कार्तिक सेठ प्रथम स्वर्ग का इन्द्र ( शक्रेन्द्र ) बना । उधर वह साधू भी शक्रेन्द्र के आज्ञाधीन ऐरावत हाथी के रूप में पैदा हुआ |
हम भी सोचें कि मनोरंजन के लिए हाथी, ऊँट, घोड़े आदि निरीह प्राणी की सवारी करते हैं, कौन से कर्म बाँध रहे।
*क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*अध्याय*,
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*देव गति*
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**15:6:21*
सबसे कल्याण कार्य सौधर्मेन्द्र जी ही करते है।
*सबसे ज्यादाकल्याणकारी*
*कार्य* ⤵️
*तीर्थंकर जी के च्यवन से लेकर मोक्ष तक के पांचों कल्याणको*
*में अपनी पूर्ण भागीदारी निभाना*⤵️
यह भी उल्लेखनीय है कि प्रत्येक तीर्थंकर के कल्याणक पर शक्रेन्द्र तीर्थंकर परमात्मा को वन्दन करके "शक्रस्तव' से स्तवना करते है, जिसे आज लौकिक भाषा में 'नमोत्थुणं' कहा जाता है। यूँ तो जब तक केवलज्ञान नहीं हो जाता, वे तीर्थंकर नहीं होते लेकिन द्रव्य निक्षेप के आश्रयसे वे गर्भ में ही तीर्थंकर होते है,
*द्रव्य निक्षेप*- जाने द्रव्य निक्षेप क्या है
कोई व्यक्ति जीव विषयक अथवा अन्य किसी वस्तु का ज्ञाता है किन्तु वर्तमान में उस उपयोग से रहित है उसे आगमत: द्रव्य निक्षेप कहा जाता है।
जब भगवान के कोई भी कल्याणक होते हैं तब
सौधर्मेन्द्र तो नाटकादि देखने में व्यस्त होते हैं। तीर्थंकर का जब च्यवन, जन्म, दीक्षा आदि कोई भी कल्याणक प्रसंग होते हैं तो उनके पुण्य से अपने आप ही इन्द्र के आधारभूत स्थान कम्पायमान चलायमान होते हैं। यानी सिंहासन अथवा शय्या अथवा भूमि (जिस अवस्था में इन्द्र हो) जब आसन हिलता है। तब उस समय सौधर्मेन्द्र क्रोधित हो उठता है। उसे लगता है कि न जाने किस शक्तिमान् शत्रु ने देवलोक पर आक्रमण कर दिया। तब वह अवधिज्ञान का प्रयोग करते है एवं जानते है कि पृथ्वी पर तीर्थंकर का कल्याणक सम्पन्न हुआ। सौधर्मेन्द्र अपने क्रोध पर शर्मिन्दा सा होते है एवं इस शुभसूचक घटना को जानकर प्रसन्नता से तीर्थंकर के कल्याणक पर वंदन-गुणकीर्तन करने जाते है।
दिक्कुमारियों का महोत्सव होने के पश्चात् चौंसठ इन्द्रों के आसन चलायमान होते हैं। अवधिज्ञान से तीर्थंकर प्रभु का जन्म जानकर सौधर्मेन्द्र हरिणैगमेषी देव (पदाति सेनाप्रमुख) को बुलाकर उसे 12 योजन चौड़ा, 6 योजन ऊँचा तथा एक (चार) योजन नाल वाला 'सुघोषा' नामक घण्टा बजाने का आदेश देते हैं। पाँच सौ देवों के साथ मिलकर घंटा बजाया जाता है, जिसकी ध्वनि से
देवलोक के 32 लाख विमानों के सभी घंटे बजते हैं। तत्पश्चात्, ईशानेन्द्र लघुपराक्रम नामक देवता से सुघोषा घंटा बजवाता है।
*क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*अध्याय*,
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*देव गति*
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**16:6:21*
शेष इन्द्र भी ऐसा ही करते हैं। इसी प्रकार शंखनाद से भवनपति देव, पटहनाद सुन व्यंतर वाणव्यंतर देव तथा सीयनाद से ज्योतिष देव सावधान हो जाते हैं एवं इन्द्र के पास पहुँचते हैं। (एक योजन लगभग 12 कि.मी.)
इसके बाद पालक देव द्वारा निर्मित पालक विमान में सौधर्मेन्द्र इत्यादि सम्पूर्ण देव परिवार विराजमान होता है तथा नन्दीश्वर द्वीप जाते हैं। उस लक्षयोजन जितने विस्तृत विमान को संकुचित कर भरत, ऐरावत या महाविदेह क्षेत्र में जिनेश्वर देव के जन्मगृह में पहुँचते हैं। फिर सौधर्मेन्द्र भगवान के जन्म घर में जाकर तीर्थंकर तथा तीर्थंकर की माता को नमस्कार कर तीन प्रदक्षिणा देता है। प्रभु के सम्मुख 7-8 कदम जाकर जसका शक्रस्तव से स्तवना करते है। उसके बाद भगवान की माता से कहता है- हे रत्नकुक्षिधारिणी! हे रत्नगर्भे! हे रत्नदीपिके ! आपने त्रिभुवन धर्ममार्गप्रकाशक,
शुभ लक्षणयुक्त जिनेश्वर को जन्म देकर हम पर उपकार किया है। मैं प्रथम देवलोक का इन्द्र हूँ इनका जन्मोत्सव करने आया हूं। फिरअवस्वापिनी निद्रा
निद्रा में डालकर, भगवान के समान प्रतिबिम्ब बनाकर माता के पास रख देते है।
मेरु पर्वत पर 4 अलग -अलग दिशा में अलग- अलग नाम की
शिलाए होती है
*1. पूर्व दिशा में पांडुकम्बला* शिला है। इस पर दो सिंहासन हैं। पूर्व विदेह के तीर्थंकर अभिषेक यहाँ पर होता है।
*2. पश्चिम दिशा में रक्तकंबला* शिला है। इस पर दो सिंहासन हैं। पश्चिम विदेह के तीर्थंकर का अभिषेक यहाँ होता है।
*3 उत्तर दिशा में अतिरक्तकंबला शिला है*। इस पर एक सिंहासन है। ऐरावत क्षेत्र के तीर्थंक का अभिषेक यहाँ पर होता है।
*4. दक्षिण दिशा में अतिपांडुकंबला शिला है।* इस पर एक सिंहासन है। भरत क्षेत्र के तीर्थंकर का अभिषेक यहाँ होता है।
*क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*अध्याय*,
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*देव गति*
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**17:6:21*
इस प्रकार सौधर्मेन्द्र उचित शिला पर जाता है। जैसे वर्तमान चौबीसी के ऋषभ, अजित, पार्श्व, महावीर इत्यादि का अभिषेक अतिपांडुकंबला शिला पर हुआ।
मेरु पर्वत की उचित शिला पर पहुँचने के पश्चात् सब इन्द्र अपने सेवक देवताओं से दर्पण, रलकरंडक, थाल, पात्रिका, पुष्पचंगेरी इत्यादि पूजा के उपकरण, चुल्लहिमवन्त, भद्रशाल, वैताढ्य, देवकुरु, उत्तरकुरु, वक्षस्कार आदि के फल, प्रधान गंध, सर्व औषधिप्रमुख वस्तुएँ मंगवाते हैं। किन्तु सर्वमुस्य मागध, वरदाम आदि तीर्थों के पद्म द्रह के जल से, गंगाप्रमुख नदियों के जल से एव क्षीरसमुद्र आदि समुद्रों के जल से कलश भरकर लाने की आज्ञा देते हैं।
एक कलश पच्चीस (25) योजन ऊँचा,
बारह (12) योजन चौड़ा
तथा एक (1) योजन नाल वाला होता है।
कलशों की आठ जातियाँ होती हैं
1. सुवर्णमय (सोने का)
2. रौप्यमय (रूपे का)
3. रत्नमय (रत्नों का)
4. सुवर्णरौप्यमय (सोने रूपे का)
5. सुवर्णरत्नमय (सोने-रत्न का)
6. रौप्यरत्नमय (रूपे रत्न का)
7. सुवर्णरोप्यरत्नमय (सोना, रूपा
8. मृत्तिकामय (मिट्टी का)
ये सब
प्रत्येक जाति के 8हजार कलश
अर्थातकुल 64,000 कलश।
व रत्न का)
इस प्रकार एक अभिषेक में 64,000 कलशों का अधिकार होता है। अच्युतेन्द्र के आदेश पर
अभिषेक शुरू होते हैं। सभी देव-देवियों के मिलाकर कुल 250 अभिषेक होते हैं।
अर्थात् 250 अभिषेक x 64,000 कलश = 1,60,00,000 कलश (एक करोड़ साठ लाख कलश) से अभिषेक होता है।
*क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*अध्याय*,
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*देव गति*
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**18:6:21*
18:6:21
(यह पहले छूट गया था
तीर्थंकर की माता को शक्रेन्द्र जी ही अवस्वापिनी निद्रा में सुला देते है। निद्रा में सुलाने पर शक्रेन्द्र तीर्थकर सदृशय शिशु की विकुर्वणा करते हैं ।
शक्रेन्द्र अपने 5 रूपो की विकुर्वणा करते है
एक रुप से - भगवान कों हाथों द्वारा उठाते है ,दूसरा रुप-पीछे छत्र लेकर चलते है,तीसरे व चौथे रुप से दोनों ओर चंवर डुलाते है,पाँचवा रुप-हाथ में वज्र लेकर आगे चलते हैं।)
सर्वप्रथम बारहवें देवलोक के अच्युतेन्द्र ने अभिषेक प्रारम्भ किया। शिशु रूप तीर्थंकर सौधर्मेन्द्र की गोद में बैठते हैं। उसके बाद अनुक्रम से 10वें-9वें, 8वें इत्यादि देवलोक के इन्द्र अभिषेक करते हैं। अन्त में सूर्य चन्द्र अभिषेक करते हैं।
गर्भ से ही वे द्रव्य तीर्थंकर होते हैं। अतः इन्द्र भी द्रव्य तीर्थंकर के रूप मेंप्रभुकी भक्ति करता
249 अभिषेक हो जाने के बाद ईशानेन्द्र सौधर्मेन्द्र से कहतेहै कि क्षण भर के लिए प्रभु जी को मुझे दो। उस समय ईशानेन्द्र की गोद में बैठाकर सौधर्मेन्द्र चार धवल बैलों (चतुर्वृषभ) का रूप बनाकर 8 सींगों से क्षीरसमुद्र के जल की धारा से 250 वाँ अभिषेक करता है। ऋद्धियाँ होते हुए भी सौधर्मेन्द्र स्वयं को तीर्थंकर के आगे पशु तुल्य बताते है।
धूप, जल, नैवेद्य से विविध प्रकारी पूजा की जाती है। यह करके तीर्थंकर के सम्मुख अष्टमंगल- श्रीवत्स, मत्स्य युगल, दर्पण, कुंभ, स्वस्तिक, नन्दावर्त, भद्रासन और संपुट ये अष्टमंगल रौप्य के अक्षत से आलेखित करते हैं। फिर आरती, गीतगान और नृत्य कर के बाजे बजाते हैं। ढोल, मृदंग, संतूर, गोलथम, तुमक, शुषिर इत्यादि वाद्य बजाते हुए जय-जयकार करते हुए 108 काव्यों की रचना कर भावपूजा करते हैं।
इसके बाद शिशु को ले जाकर वापिस माता के पास रख देते हैं। प्रतिबिम्ब हटाकर माता
को अवस्वापिनी निद्रा से दूर करते हैं। ताकि माता को दिक्कुमारिकाओं तथा इन्द्रों की स्मृति न रहे। तत्पश्चात् 32 करोड़ सुवर्णमुद्राओं की वर्षा कर पाँच इन्द्राणियों को धाय माताओं के रूप में स्थापित करते हैं।
*क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*अध्याय*,
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*देव गति*
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**19:6:21*
19:6
देवताओं के जन्म के समय पलंग पर बिछा हुआ कपड़ा पृथ्वी काय का बना होता है।
देवों के वैक्रिय द्वारा बनाए वस्त्र व अलंकार 15 दिन तक रहते हैं।सौधर्मेन्द्र भक्तिवश प्रभु के अंगूठे में अमृत का संचार करते हैं औऱ इसप्रकार धूम धाम से,
जन्मोत्सव सम्पन्न कर
हर्ष के अतिरेक में वे सभी इन्द्र नंदीश्वर द्वीप में जाकर अट्ठाई महोत्सव करते है। औऱ फिर
अपने अपने स्थान पर चले जाते हैं। जब -जब भी तीर्थंकर भगवान को उनकी जरूरत होती है ,उनकी रक्षार्थ बने रहते हैं, और मुख्य - मुख्य कार्यक्रम में तो वे तत्परता से अपनी अहम भूमिका निभाते ही है।
जैसे ⤵️
*दीक्षा के पश्चात वर्षी दान में इन देवो का सहयोग*
दीक्षा महोत्सव के समय वर्षीदान देने की परंपरा पहले तीर्थकर भगवान आदिनाथ के समय से चली आ रही है। भगवान महावीर स्वामी की दीक्षा के समय जो महोत्सव हुआ उसका कल्पसूत्र में बहुत ही सुंदर वर्णन है। प्रभुजी का दीक्षा से पहले वरघोड़ा निकाला जिसमें प्रभु ने दोनों हाथों से खूब दान दिया
अब देखे इस वर्षी दान को देव कैसे आलोकिकता प्रदान करते हैं⤵️
तीर्थंकर के वर्षी दान में सौधर्मेन्द्र जी दिव्य शक्ति प्रदान करते हैं जिससे तीर्थंकर प्रभु दान देते हुए थके नहीं ,
ईशानेंद्र रत्न जड़ित स्वर्ण छड़ी लेकर प्रभु के पास खड़े रहते हैं और नसीब के अनुसार याचक से याचना करवाते है तथा सामान्य देवों को दान लेने से रोकते है।
जो भी यह दान लेता है 12 वर्षो तक निरोगी रहता है , भंडार भरपूर लेता है , वह मोक्ष जाने वाली आत्मा होती है।
ईशान्द्रे देव
तीर्थंकर के भंडार में स्वर्ण मोहरे भरते हैं।
वे श्रमण देव को बुलाते हैं और तीर्थंकर का भंडार भरने को कहते हैं (कहते हैं कि चोरी किए बिना डाका डाले बिना सात पीढ़ी तक जिस धन का कोई वारिस ना हो ऐसा धन तीर्थकर के भंडार में भरो)16 मांसा की
स्वर्ण मोहरे बनाई जाती है
जृभ्भक देव से कहते हैं कि सारा सोना पिघलाकर उसमें से 16,16 मांसा की स्वर्ण मोरे बनाओ)
फिर ज्योतिषी देवों के द्वारा वैताढ्य पर्वत से उद्घोषणा करवाते हैंकल से तीर्थंकर महाराज वर्षी दान देंगे।
सूर्योदय से सवा प्रहर तक तीर्थंकर महाराज दिन में वर्षी दान देते हैं।
दिन में प्रभु 900 मन ( around 1 करोड़ 8 लाख स्वर्ण मुद्राएं दान देते हैं
प्रतिदिन 10800000 स्वर्ण मुद्राएं )का दान दिया जाता है
360 दिन (1 बरस) दान देते हैं
एक वर्ष में 32,40,000 मन ( 3 अरब 88 करोड़ 80 लाख स्वर्ण मुद्राएं ) दान देते हैं
हर मोहर पर तीर्थंकर का नाम माता पिता और नगरी का नाम लिखा होता है।
बड़े उत्साह और उमंग से
चक्रवर्ती बलदेव वर्षी दान लेने जाते हैंवासुदेव मांडलिक राजा सेठ सेनापति आदि भी वर्षी दान लेने जाते हैं।भव्य आत्मा ही दान ले सकते है।
*क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*अध्याय*,
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*देव गति*
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**21:6:21*
*अभिनिष्क्रमण की दीक्षा पालकी को शकेन्द्र जी दाहिनी और की आगे की बांह से उठाते है औऱ ईशानेन्द्र जी बाँयी ओर की बाँह
से उठाते है। तीर्थंकर जी को दीक्षा के समय सौधर्मेन्द्र जी ही देवदुष्य वस्त्र प्रदान करते हैं
पालकी से वन में आते ही तीर्थंकर जी , अपने वस्त्रो - बालों का भी त्याग कर देते हैं।
और देवताओं में प्रभु के अंतिम बालों को लेकर उन्हें अपने पास संजोने की होड़ लगी हुई है।
प्रभु एक एक कर सभी वस्त्रो का त्याग कर रहे हैं । तभी इंद्र जी एक थाल से उठाकर प्रभु को एक वस्त्र देता है। ओह ! वह वस्त्र कौनसा ? देवदूष्य वस्त्र । प्रभु को नग्न देखकर कोई उपहास न करे , सर्दी गर्मी में प्रभु को कष्ट न हो , इस भाव से इंद्र ने एक कपडा प्रभु को दिया है
इन्द्रादि देव दीक्षा के बाद
नन्दीश्वर द्वीप जाकर अट्ठाइ का
महोत्सव मानते है।
देवता धर्म आराधना के लिये द्वीप पर नंदीश्वर द्वीप जाते हैं
तीर्थंकर प्रभु को केवलज्ञान प्राप्त होते ही तीर्थंकर नामकर्म के उदय से आठ प्रातिहार्य देवताओं की भक्ति के निमित्त से उत्पन्न होते हैं। शक्रेन्द्र प्रभु को शक्रस्तव (णमोत्थुणं) से वंदन करते है एवं तत्पश्चात् देवता उल्लास उमंग से आकर प्रभु की भक्ति स्वरूप अष्ट प्रातिहार्य प्रकट करते हैं।
प्रातिहार्य शब्द 'प्रतिहार' शब्द से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ है :-सेवक/द्वारपाल/अंगरक्षक। -
केवलज्ञान के बाद ये सदा तीर्थंकर प्रभु के सेवक की तरह साथ रहते हैं, इसीलिए इन्हें प्रातिहार्य कहा है - *"प्रतिहारा इव प्रातिहाराः सुरपति नियुक्ता देवास्तेषां कर्माणि कृत्यानि प्रातिहार्यणि”।*
आज तक जितने भी तीर्थंकर हुए है, उन सभी को ही ये 8 महाप्रातिहार्य थे।
ये 8 प्रातिहार्य हैं;-
1,अशोक वृक्ष 2सुर पुष्प वृष्टि3दिव्यध्वनि4चामर5, सिंहासन6, भामण्डल 7, देवदुन्दुभी, औऱ 8 छत्र त्रय
जब प्रभु विहार करते है तो यह 5 प्रातिहार्य रहते हैं
दिव्यध्वनि,चामर, सिंहासन, भामण्डल , देवदुन्दुभी, औऱ छत्र त्रय
तीर्थंकर जी के समवशरण की रचना चार निकाय के देव करते हैं
अलग-अलग इन्द्रों द्वारा रचे गए समवसरण का स्थिरता काल भी अलग-अलग होता है। जैसे
सौधर्मेन्द्र का आठ दिन तक ● अच्युतेन्द्र का दस दिन तक। ● ईशानेन्द्र का 15 दिन तक • सनत्कुमार का एक महीने (30 दिन) तक • माहेन्द्र का 2 मास तक • ब्रह्मेन्द्र देव का 4 मास तक समवसरण रहता है।
*क्रमशः*
*22:6:21*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*अध्ययन*
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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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देव गति
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तीर्थंकर का निर्वाण होते ही देवराज शक्र का आसन चलित होता है।
अतः अतीत वर्तमान, अनागत शक्रेन्द्रों का यह जीताचार (व्यवहारिकता, औपचारिक)है कि वे निर्वाण क्रिया संपन्न कर महोत्सव मनाएँ। अत: मैं भी तीर्थंकर भगवान् का परिनिर्वाण महोत्सव आयोजित करने जाऊँ । यों सोचकर देवेन्द्र सामानिक त्रायस्त्रिंशक, आत्मरक्षक आदि संपूर्ण देव-परिवार के साथ प्रभु के निर्वाण स्थल पर पहुँचते है। जहाँ तीर्थंकर का शरीर होता है, वह वहाँ जाते है एवं आनन्दरहित, अश्रुपूर्ण नेत्रों से प्रदक्षिणा करते है।
तदनन्तर - सभी इन्द्र स्वपरिवार सहित पहुँच जाते हैं। सौधर्मेन्द्र की आज्ञा से भवनपति, वाणव्यंतर एवं ज्योतिष्क देव नन्दनवन से स्निग्ध उत्तम गोशीर्ष चन्दन-काष्ठ लाते हैं एवं तीन चिताओं की रचना करते हैं- तीर्थंकर के लिए, गणधरों के लिए एवं बाकी अणगारों के लिए। फिर आभियौगिक देवगणं क्षीरोदक समुद्र से क्षीरोदक लाते हैं। फिर सौधर्मेन्द्र। निम्न 4 कार्य करते हैं ⤵️
1. तीर्थंकर के शरीर को क्षीरोदक से स्नान कराते है।
2. सरस, उत्तम गोशीर्ष चन्दन से अनुलिप्त करते हैं।
3. हंस सदृश श्वेत देवदूष्य वस्त्र पहनाते हैं।
4. सब प्रकार के आभूषणों से, अलंकारों से विभूषित करते हैं।
तत्पश्चात् शक्रेन्द्र की आज्ञानुसार भवनपति, वैमानिक आदि देव, मृग, वृषभ, तुरंग, इत्यादि चित्रों से अंकित तीन शिविकाओं की विकुर्वणा (देवता द्वारानिर्माण) करते हैं- तीर्थंकर के लिए, गणधरों के लिए, अन्य अणगारों के लिए। उदास एवं खिन्न सौधर्मेन्द्र तीर्थंकर के देह को चिता पर रखते हैं। अन्य देव गणधर एवं साधुओं के शरीर शिविका पर आरूढ़ करके चिता पर रखते हैं।
(इंद्र जी की आँखों में आँसू
जब तीर्थकर का निर्वाण
होता तब आते हैं)
खिन्न सौधर्मेन्द्र तीर्थंकर के देह को चिता पर रखते हैं। अन्य देव गणधर एवं साधुओं के शरीर शिविका पर आरूढ़ करके चिता पर रखते हैं। कई
देव पुष्प बरसाते हैं, कई रुदन करते हैं। तीर्थंकर की शिष्य संपदा भी उदास होती है। फिर इन्द्रकी आज्ञा से
अग्निकुमार देव चिताओं में अश्रुपूरित नेत्रों से अग्निकाय की विकुर्वणा करते हैं अर्थात् अग्नि की चिंगारी छोड़ते हैं।
वायुकुमार देव शोकान्वित मन से वायुकाय की विकुर्वणा करते हैं अर्थात् उस अग्नि को प्रज्वलित करते हैं एवं देह को स्थापित करते हैं।
भवनपति तथा वैमानिक देव विमनस्क मन से चिताओं में परिमाणमय अगर, तुरुष्क, कपूर घी एवं शहद डालते हैं।
वायुकुमार देव (अग्नि संस्कार पूर्ण होने पर) चिताओं को क्षीरोदक से निर्वापित करते हैं अर्थात् वर्षा कराते हैं।
तदनन्तर, शक्रेन्द्र तीर्थकर के ऊपर की दाहिनी दाढ़ लेते है। चमरेन्द्र नीचे की दाहिनी दाढ़ लेते है। ईशानेन्द्र ऊपर की बायीं दाढ़ लेते है ।
*क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*अध्ययन*
*देव गति*
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*23:6:21*
आगे
वैरोचनेन्द्र बली जी नीचे की बायी दाढ़ लेते है। अन्य देव भी रत्नकरंडक (वज्रमय समुद्गक) में रखकर पूजन हेतु अस्थियाँ (हड्डियाँ) लेते हैं।
रत्नकरंडक का एक अर्थ यह भी होता है
रत्नकरंडक कहते है⤵️जिस तरह राख में छिपा अंगार तेजस्वीहोता है उसी प्रकार देहधारी
सम्यक दृष्टी धर्मात्मा उस देह में भी सम्यक दर्शन रूपी रत्नोंके तेज से दैदीप्यमान रहता है।
इसी नाम से
*रत्नकरंडश्रावकाचार* नामक ग्रंथ है
| लेखक/रचियता है:आचार्य समन्तभद्र जी
ज्ञाताधर्मकथांग की वृत्ति में लिखा है कि देवतागण सुधर्म सभा (देवलोक) के चैत्य स्तम्भ में लटकती रत्नजड़ित डब्बियों में दाढ़ाओं में पधराते हैं एवं निरन्तर आराधना करते हैं तथा परमात्मा की आशातना नाहो इस हेतु से वहाँ काम-क्रीड़ा भी नहीं करते। उसी स्थान पर तीन रत्नमय विशाल स्तूप का निर्माण होता है- तीर्थंकर की चिता पर, गणधरों की चिता पर, अन्य अणगारों की
का निर्माण होता है- तीर्थंकर की चिता पर, गणधरों की चिता पर, अन्य अणगारों की चिता पर
गणधर भगवन्तों के लिए दक्षिण दिशा में त्रिकोणी (त्रिभुजाकार) चिता
और साधु भगवन्त हेतु पश्चिम दिशा में चौखुनी (वर्गाकार) चिता का निर्माण देवता करते हैं। गणधरो जी औऱ साधु भगवंतो की क्रिया सामान्य देवतागण करते हैं। यह ध्यान होना चाहिए कि महावीर स्वामी का निर्वाण एकाकी हुआ, तो सर्वत्र एक स्तूप, चिता पालकी आदि समझनी चाहिए।
इस प्रकार क्रिया सम्पन्न करके इन्द्रादि देव नन्दीश्वर द्वीप पर जाकर अष्टदिवसीय परिनिर्वाण महोत्सव मनाते हैं।
इस प्रकार के सभी कल्याण कारी कार्य ये दोनों प्रकार के देव बड़ी तत्परता से सम्पन्न करते हैं।ज़्यादा विस्तार से तो नही बता पाई बस एक छोटा सा परिचय ही दे पाई
विशेष बात
आभियोग्य जाति के देव
ऐरावत हाथी बनते है।
कल से तीसरे - चौथे देवलोक की सैर करेंगे
*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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**क्रमशः*
*24:6:21*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*अध्ययन*
*देव गति*
*24:6:21*
*तीसरा देवलोकऔऱ चौथा देव लोक*
ज्योतिष्चक्र से असंख्यात योजन ऊपर सौधर्म और ईशान कल्प है, उनके बहुत उपर समश्रेणी में सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प है।
उक्त दोनों देवलोकों की सीमा के ऊपर, १६ ॥ रज्जु घनाकार विस्तार में, घनवात (जमी) हुई हवा) के आधार पर, दक्षिण दिशा में तीसरा सनत्कुमार नामक देवलोक है, इनके इन्द्र
का नाम सनत्कुमारेंद्र है
और तीसरे देवलोक में १२००००० विमान हैं। तीसरे देवलोक के देवों की जघन्य दो सागरोपम और उत्कृष्ट सात सागरोपम की आयु है।
सनत्कुमार कल्प में घण्टा वादक हरिणगमैषी देव है
हरिणगमैषी देवपदाति सेना का सेनापति देव है।सनत्कुमारेन्द्र के यात्रा विमान का नाम सौमनस यान विमान । है
सनत्कुमारेन्द्र के लिए यात्रा विमान की विकुर्वणा सौमनस देव करते हैं। यह विमान
एक लाख योजन प्रमाण है
सन्त्कुमारेन्द्र के यात्रा विमान को संकुचित दक्षिण-पुर्व (आग्नेयकोण)वर्ती रतिकर पर्वत पर आकर किया ।
सनत्कुमारेन्द्र ने भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन सर्वप्रथम पाडुं कंबल शिला के अभिषेक सिंहासन पर किये ।
उत्तर दिशा में चौथा माहेन्द्र नामक देवलोक है।
इनके इंद्र का नाम महेंद्रन्द्र है दोनों में (3-4देवलोक में)बारह बारह प्रतर हैं। इन प्रतरों में छह-छह सौ योजन ऊंचे और छब्बीस-छब्बीस सौ योजन की नींव वाले विमान हैं।
चौथे देवलोक में ८००००० विमान हैं।
चौथे देवलोक के देवों की जघन्य
दो सागरोपम से कुछ अधिक और उत्कृष्ट सात सागरोपम से कुछ अधिक आयु है।
चौथे देवलोक में महाघोषा घण्टा है। यहां घण्टावादक पदाति सेनापति लघु पराक्रम देव है ।माहेन्द्र इन्द्र के यात्रा विमान का निर्माण श्रीवत्स देव
करते है। यह विमान एक लाख योजन प्रमाण विस्तृत ।
माहेन्द्र इन्द्र के यात्रा विमान का संकोचन उत्तर पूर्ववती (वायव्य कोण) रतिकर पर्वत पर आकर
किया जाता है।
माहेन्द्र इन्द्र भगवान के दर्शन प्रत्यक्ष रुप पाण्डु कंबल शिला के अभिषेक सिंहासन पर करते है।
*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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**क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*अध्ययन*
*देव गति*
*25:6:21*
*सनन्त कुमार देवलोक में*
इनके सामनिक देव है- 75000
आत्म रक्षक देव-30000
आभ्यंतर परिषद के देव- 8000
मध्यम परिषद के देव-10000
बाह्य परिषद के देव -12000
चिन्ह- वराह
देहमान- 6 हाथ
अवधि ज्ञान नरक के नीचे तक
*4 माहेन्द्र देव लोक*
इनके सामनिक देव है- 60000
आत्म रक्षक देव-280000
आभ्यंतर परिषद के देव- 6000
मध्यम परिषद के देव-8000
बाह्य परिषद के देव -10000
चिन्ह- सिंह
देहमान- 6 हाथ
अवधि ज्ञान नरक के नीचे तक
एक पल्योपम से एक समय
अधिक से दस पल्योपम तक की आयु वाली देवियां तीसरे देवलोक के देवों के भोग में आती हैं।
एक पल्योपम अधिक से एक समय और पन्द्रह पल्योपम तक की आयु वाली देवियां चौथे देवलोक के देवों के भोग में आती हैं,तीसरे चौथे देवलोक में देवी के स्पर्श मात्र से तृप्ति हो जाती है।
*पांचवा देवलोक*
इन दोनों देवलोकों की सीमा से आधा रज्जु ऊपर १८३ / ४ रज्जु घनाकार विस्तार में, मेरुपर्वत पर बराबर मध्य में घनवात के आधार पर पांचवां ब्रह्म नामक देवलोक है। इसमें छह प्रतर हैं, जिसमें सात सौ योजन ऊंचे और २५०० योजन अंगनाई (नींव) वाले ४००००० विमान हैं। वहां के देवों की आयु जघन्य सात सागरोपम और उत्कृष्ट दस सागरोपम की है।
*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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**क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*अध्ययन*
*देव गति*
*26:6:21*
देवलोक में सर्वश्रेष्ठ .देव लोक.
.ब्रह्मलोक है।
.पाँचवे देवलोक के इन्द्र का नामब्रह्मदेवलोकेन्द्र है
पांचवे देवलोक सुघोषा घण्टा है
औऱ उसे बजाने वाले हरिणगमैषी देव है जंहा वह पदाति सेना का सेनापति होते हैं।ब्रह्मलोकेन्द्र के दिव्य यान विमान एक लाख योजन विस्तृत हैं।
दक्षिणपूर्व वर्ती रतिकर पर्वत पर ।इस विमान को संकुचित किया जाता है
पांचवें देवलोक के तीसरे प्रतर का नामअरिष्ट है उस अरिष्ट नामक प्रतर के पास, दक्षिण दिशा में, त्रसनाड़ी के
भीतर, पृथ्वी परिणाम रूप, कृष्ण वर्ण की, मुर्गे के पींजरे के आकार की, परस्पर मिली हुई आठ कृष्ण राजियां हैं। चार चारों दिशाओं में और चार चारों विदिशाओं में हैं। इन आठों के आठ अन्तरों में आठ विमान हैं और आठों के मध्य में भी एक विमान है। इस प्रकार कुल नौ विमान हैं, इनमें लौकान्तिक जाति के देवों का निवास है।
ब्रह्म लोक ,पांचवे स्वर्ग के निवासी देव लौकांतिक देव कहलाते है !
*लौकांतिक देव* ये कई तरह से परिभाषित है
संधिविच्छेद
-ब्रह्म+लोक+आलया+ लौकान्तिका:
अर्थात जिनका बह्म लोक के अंत मेंआलय हो
आलय अर्थात
जिसमें लय को प्राप्त होते हैं, वह आलय या आवास कहलाता है। ब्रह्मलोक जिनका घर है वे ब्रह्मलोक में रहने वाले लौकांतिक देव जानने चाहिए।...लौकांतिक शब्द में जो लोक शब्द है उससे ब्रह्म लोकके लिए लिया है और उसका अंत अर्थात् प्रांत भाग लोकांत कहलाता है। वहाँ जो होते हैं वे लौकांतिक कहलाते हैं।
जन्म जरा और मरण से व्याप्त संसार लोक कहलाता है और उसका अंत लोकांत कहलाता है। इस प्रकार संसार के अंत में जो हैं वे लौकांतिक हैं
ये सर्व देव स्वतंत्र हैं, क्योंकि हीनाधिकता का अभाव है। लौकांतिक देव विषय-रति से रहित होने के कारण उन्हें देव ऋषि भी कहते हैं। दूसरे देव इनकी अर्चा करते हैं।
*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*अध्ययन*
*देव गति*
*28:6:21*
लोकान्तिक देव
चौदह पूर्वों के ज्ञाता हैं।उनके विशेष गुण है- सतत् ज्ञान भावना में निरत मन, संसार से उद्विग्न, अनित्यादि भावनाओं के भाने वाले, अति विशुद्ध सम्यग्दृष्टि होते हैं। राजवार्तिकका अर्थ वार्तिक का अर्थ है- किसी ग्रंथ की टीका ,या व्याख्या करना, *एक शब्द में कहें तो* *व्याख्यात्मक*,
ये इस दृष्टि कोण से भी लोकान्तिक देव राजवार्तिक होते है , एक जानकारी देती चलूँ
औऱ वह यह कि दिगम्बर जैन धर्म मे बहुत मान्यता वाला एक
*राजवार्तिक* नामक एक ग्रंथ भी है
आचार्य. अकलंक भट्ट (ई. 620-680) द्वारा
सर्वार्थसिद्धि पर की गयी विस्तृत संस्कृत वृत्ति है। इसमें सर्वार्थसिद्धि के वाक्यों को वार्तिक रूप से ग्रहण करके उनकी टीका की गयी है।
राज का अर्थ मेरे ख्याल से यहां देव लोक से है और वार्तिक का
दूसरा अर्थ है ,संदेशलानेवाला । दूत , तो यहां इस से ये प्रयोजन भी निकलता है कि-⤵️
वैराग्य कल्याणक के समय तीर्थंकरों को संबोधन करने में तत्पर हैं औऱ तब ये सभी लौकांतिक देव भगवानको
दीक्षा लेनेकी विनती करते है की प्रभु आप थोड़े समयमे मोक्ष प्राप्त करनेवाले हो,आप शीध्र ही दीक्षा ग्रहण करो और तीर्थ प्रव्रतावो।
ये केवल तीर्थंकर के दीक्षा कल्याणकों में दीक्षा की अनुमोदना के लिए दीक्षा स्थल पर जाते है
लौकांतिक देव देवऋषि कहलाते है!लौकांतिक देवों में वे ही मनुष्य आयु पूर्ण कर उत्पन्न होते है जो
निर्ग्रन्थ, शरीर से नि:स्पृह, मुनि उत्पन्न होते है जो मनुष्य भव में सर्वपरिग्रहों के त्यागी और घोर तपश्चरण द्वारा सुख दुःख,मित्रता शत्रुता आदि में संमभावी होते है !
ये लौकांतिक देव ब्रह्म स्वर्ग के अंत के दिशा और विदिशाओं के विमानों में रहते है!
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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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**क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*अध्ययन*
*देव गति*
*29:6:21*
दस पल्योपम से एक समय अधिक से बीस पल्योपम तक आयु वाली देवियां पांचवें देवलोक के देवों के भोग में आती हैं।
पाँचवे-छठे देवलोक में देवी केपांचवें और छठे देवलोक के देव, देवियों के विषयजनक शब्द सुनने मात्र से तृप्त हो जाते हैं। औऱ कंही ये भी वर्णन है स्पर्श मात्र से तृप्त हो जाते है
प्रथम ओर दूसरे देवलोक की देवी,,,ऊपर के देवलोक के देवोकि इच्छासे ऊपर आठमें देवलोक तक जाती है,,,अपनी इच्छासे नहीजाती,,,
देवों की इच्छा से
राजी,==शिला,/रेखा,
भगवतिसूत्र,शतक,६,उदेशा,५.
पाँचवे ब्रह्नलोक देवलोक के तीसरे रिस्ट प्रतर मे
असंख्यात योजन लम्बी नव कृष्ण पृथ्वी शिला है।
रिष्ट प्रतरके पूर्वमे दो,पश्चिम मे दो,उत्तरमे दो,दक्षिणमे दो,इस तरह चार दिशामे आठ
कृष्णराजी सम चोरस अखँडा के आकारमें है।
दो कृष्णराजी षटकोंन(६,corner) है।उत्तर और दक्षिणकी दो,कृष्णराजी त्रिकोणआकरकी है।
पूर्व,दक्षिण,पूर्व,पश्चिम की ये चार अभ्यन्तर
चोख़ूणी, (चतुष्ट कोणीय) है।
ये कृष्णराजीके बीचमे
नव लौकांतिक देव के विमान है।
ये कृष्णराजी इतनी बड़ी है कि , कि मान लो एक समय में
२१,बार जो जम्बूद्वीप
प्रदक्षिणा करता है, पर
१५,दिन में एक कृष्णराजी कि प्रदक्षिणा पूरी नही कर सकता इतनी बड़ी ये है।
ये कृष्णराजी में गाज,,बारिश भी होती है
लेकिन वो वैमानिक देव करते है।
ये कृष्णराजी में बादर पृथ्वी काय जीव है दूसरे कोई जीव नही है,सर्व,जीव अनेकबार
अथवा यूँ कहे अनंतिबार वहां बादर पृथ्वी में उत्पन्न हुए है।
ये कृष्णराजिका इतना भयंकर काला वर्ण
है कि उसे देखकर देव भी भय से भयभीत होते है।
इस ही कृष्णराजी के बीचमे ९,लौकांतिक विमान है।
*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*अध्ययन*
*देव गति*
*30:6:21*
*नव लोकान्तिक विमान*
इन विमानों और उनमें रहने वाले देवों के नाम इस प्रकार है:
(१) ईशान कोण में अर्चि नामक विमान है। उसमें 'सारस्वत' देव रहते हैं। इनके 700 विमान हैजो चौदह पूर्व के ज्ञाता होते हैं वे सारस्वत कहलाते हैं ।
(२) पूर्व दिशा में अर्चिमाली नामक विमान है, उसमें 'आदित्य' देव रहते हैं।
देवमाता अदिति की संतान को आदित्य कहते हैं।
(३) आग्नेय कोण में वैरोचन विमान है और उसमें 'वह्नि' देव रहते हैं। अग्नि के समान दैदीप्यवान हैं वे वह्मि कहलाते हैं ।
(४) दक्षिण दिशा में प्रभंकर विमान है, जिसमें 'वरुण' देव रहते हैं। इन दोनों का १४००० देवों का परिवार है। जिनके मुख से शब्द जल के प्रवाह की तरह निकले वे हैं।
(५) नैऋत्य कोण में चन्द्राभ विमान है, जिसमें 'गर्दतोय' देव रहते हैं।
(६) पश्चिम में सूर्याभ विमान है, जिसमें 'तुषित' देव रहते हैं। इन का ७००० देवों का परिवार है। उदीयमान सूर्य के समान जिनकी कांति हो वे सूर्याभ कहलाते हैं
(७) वायुकोण में शक्राभ विमान है, जिसमें 'अव्याबाध' देव रहते हैं।
(८) उत्तर दिशा में सुप्रतिष्ठित विमान है, जिसमें 'अग्नि' देव रहते हैं।
(९) सब के मध्य में अरिष्टाभ विमान है, जिसमें अरिष्ट' देव रहते हैं। इन तीनों
९०० देवों का परिवार है।
अपने नियोग के अनुसार तीर्थंकरों के वैराग्य की प्रशंसा करने वाले और थोड़े जन्मों में मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता वाले होते हैं। यह देवलोक इतना कल्याणकारी है कि
इस देवलोक के पश्चात दो तीन भव के पश्चात व्यक्ति मोक्ष जा सकता है।
*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*अध्ययन*
*देव गति*
*1:7:21*
नव लोकांतिक देवों का मान
सन्मान बहुत अच्छा है ,क्योंकि लोकान्तिक देव प्रायः समकित सत्य को , अंगीकार करने वाले होते हैं।यह त्रस नाल के किनारे पर रहने होते है
भगवान महावीर भी चौथे भव में
ब्रह्म लोक में उत्पन्न हुए 10 सागरोपम आयु वाले
*पाँचवां देवलोक
*( ब्रह्म देवलोक )*
आभ्यंतर परिषद के देव- 4000
मध्यम परिषद के देव-6000
बाह्य परिषद के देव -8000
अवधि ज्ञान नरक के नीचे तक
*घनवात के आधार पर*
*विमान*--------- 4 लाख है।
*विमान का वर्ण*-- सफेद, पीला, लाल।
*विमान का चिन्ह*-- बकरा है।
*सामानिक देव*-- 60,000 है।
*आत्मरक्षक देव*-- 2,40,000 है।
*पाँचवे देवलोक के देवताओं की आयु*
*जघन्य*--- सात सागरोपम
*उत्कृष्ट*--- दस सागरोपम
●इस देवलोक के देवों में *पद्म लेश्या होती है*
●इन देवों का शरीर *पाँच हाथ परिमाण होता है।*
*छठा लान्तक देवलोक*।
उक्त पांचवें देवलोक की सीमा से आधा रज्जु ऊपर और १८ ।। रज्जु घनाकार विस्तार में,
मेरुपर्वत के बराबर मध्य में, घनवात और घनोदधि के आधार पर छठा लान्तक देवलोक है।
*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*अध्ययन*
*देव गति*
*2:7:21*
कल विस्मृत हो गया था।
पांचवें देव लोक में ही बलदेव श्री कृष्ण के भाई गये थे।
*चलते -चलते*
*स्वर्गों में हीनाधिकता*
स्वर्ग के देवों में सुख, कांति, लेश्याविशुद्धि व इन्द्रियों के विषय और अवधि ज्ञान का विषय नीचे वाले देवों से ऊपर के देवों में अधिक होता है और गति, शरीर और परिग्रह अभिमान में ऊपर – ऊपर हीनता(कमी) होती हैं।
*छठा लांतक लोक* छठा लांतक लोक
के इन्द्र का नाम लान्तकेन्द्र हैं
इसमें पांच प्रतर हैं, जिनमें ७०० योजन ऊंचे और २५०० योजन की अंगनाई वाले ५००००
विमान हैं। यहां के देवों की आयु जघन्य १० सागरोपम की और उत्कृष्ट १४ सागरोपम की है। उक्त छठे देवलोक की सीमा पर पाव रज्जु ऊपर और ७ रज्जु घनाकार विस्तार में मेरुपर्वत के बराबर मध्य में, घनवात और घनोदधि के आधार पर है।
छठे देवलोक में महाघोषा घण्टा हैं जिसे बजाने वाला लघुपराक्रम देव हैं।जो पदातिसेना के सेनापति पद पर है।
लान्तकेन्द्र के दिव्य यान का नाम कामगम दिव्य यान विमान हैं।
विमान को बनानेवाला कामगम देव है।
लान्तक केन्द्र भगवान के साक्षात दर्शन
अभिषेक शिला पर करते है।
पन्द्रह पल्योपम से समयाधिक और पच्चीस पल्योपम तक की आयु वाली देवियां छठे देवलोक के देवों के भोग में आती हैं।
*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*अध्ययन*
*देव गति*
3:7:21
जमालीजी (जो महावीर स्वामी के जंवाई थे,) ने कई वर्षों तक श्रमण पर्याय का पालन किया फिर अंतिम समय निकट जानकर जमाली जी ने अनशन किया और 15 दिन का अनशन पालकर बिना आलोचना किए ही जमाली जी मर कर लातंक देवलोक में 13 सागरोपम की स्थिति वाला किल्विषी चांडाल के समान अछूत घृणित देव हुए|
जमाली अनगार अरस- निरस -तुच्च एवं रुक्ष आहार करने वालेऔर उपशांत जीवन वाले थे। परंतु आचार्यदि का विरोधी द्वेषी, निंदक एवं मिथ्या प्ररूपक था |इससे जमाली जी निम्न कोटि का देव हुए अब वह तिर्यंच मनुष्य और देव आदि के भव करके सम्यक्त्व सहितज् चारित्र पाल कर मुक्त हो जाएगा |
लान्तक देवलोक )*
*घनोदधि और घनवात के आधार पर*
*विमान*--------50 हजार है।
*विमान का वर्ण*-- सफेद, पीला, लाल।
*विमान का चिन्ह*-- मेंढक(दादुर) है।
*सामानिक देव*-- 50,000 है।
*आत्मरक्षक देव*-- 2,00,000 है।
*छठे देवलोक के देवताओं की आयु*
*जघन्य*--- दस सागरोपम
*उत्कृष्ट*--- 14 सागरोपम
●इस देवलोक के देवों में *शुक्ल लेश्या होती है।*
●इन देवों का शरीर *पाँच हाथ परिमाण होता है।*
आभ्यंतर परिषद केदेव-2000
मध्यम परिषद के देव-4000
बाह्य परिषद के देव -6000
हनुमान जी पूर्व भव में
श्रीविमलनाथ भगवान् के तीर्थ के समय श्री लक्ष्मीधर मुनि के पास सर्व - विरतिं
स्वीकार की और तप-संयम का निष्ठापूर्वक पालन कर के लांतक देवलोक में देव हुए और
वहां का आयु पूर्ण कर वह जीव, इस अंजनासुन्दरी के गर्भ में आया है वीर हनुमान | यह जीव गुणोंका भंडार, महापराक्रमी, विद्याधरों का अधिपति, चरमशरीरी और स्वच्छ हृदयी होगा ।"
*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*अध्ययन*
*देव गति*
*5:7:21*
उक्त छठे देवलोक की सीमा पर पाव रज्जु ऊपर और ७ रज्जु घनाकार विस्तार में मेरुपर्वत के बराबर मध्य में, घनवात और घनोदधि के आधार पर सातवां 'महाशुक्र' देवलोकहै। इसमें चार प्रतर हैं, जिनमें ८०० योजन ऊंचे और २४०० योजन की अंगनाई वाले ४००००
विमान हैं। यहां के देवों की आयु जघन्य १४ सागरोपम और उत्कृष्ट १७ सागरोपम की है।
सातवें देवलोक के इन्द्र का नाम
महाशुक्रेन्द है।
सातवे देवलोक में 40हजार विमान है?
सातवें देवलोक मे सुघोषा घण्टा घण्टा है
सातवें देवलोक मे घण्टा वादन
हरिणगमैषी देव करते है।
हरिणगमैषी देव वहां
पैदल सेना के सेनापति पद परहै।
सातवें देवलोक में दिव्यमान बनाने वाला प्रीतिगम देव है ।
बीस पल्योपम। से एक समय अधिक से ३० पल्योपम तक की आयु वाली देवियां सातवें देवलोक के देवों के भोग में आती हैं।
सातवां देवलोक
*( महाशुक्र देवलोक )*
*घनोदधि और घनवात के आधार पर*
आभ्यंतर परिषद के देव- 1000
मध्यम परिषद के देव-2000
बाह्य परिषद के देव -3000
अवधि ज्ञान नरक के नीचे तक
*विमान का वर्ण*-- सफेद, पीला।
*विमान का चिन्ह*-- अश्व है।
*सामानिक देव*-- 40,000 है।
*आत्मरक्षक देव*-- 1,60,000 है।
●इस देवलोक के देवों में *शुक्ल लेश्या होती है।*
●इन देवों का शरीर *चार हाथ परिमाण होता है।*
*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*अध्ययन*
*देव गति*
*6:7:21*
*आठवां देव लोक*
सातवें देवलोक की सीमा से पाव रज्जु ऊपर और ७ । रज्जु घनाकार विस्तार में मेरु पर्वत के बराबर मध्य में, घनवात और घनोदधि के आधार से, आठवां 'सहस्रार' देवलोक है।इनके इन्द्र का नाम सहस्रारेंद्र है
इस8 वे देव लोक में चार प्रतर हैं। इन प्रतरों में ८०० योजन ऊंचे और २४०० योजन की अंगनाई वाले ६००० विमान हैं। यहां देवों की आयु जघन्य १७ सागरोपम की और उत्कृष्ट १८ सागरोपम की है।
आठवें देवलोक में . महाघोषा घण्टा से होता है।
आठवे देवलोक में घंटा बजाने वाला. लघुपराक्रम देव। है ।
पच्चीस पल्योपम से समयाधिक और ३५ पल्योपम तक की आयु वाली देवियां आठवें देवलोक के देवों के भोग में आती हैं।
सातवें-आठवें देवलोक में देवी के शब्द श्रवण मात्र से तृप्ति हो जाती हैं
*आठवां देवलोक*
*( सहस्रार देवलोक )*
आभ्यंतर परिषद के देव- 500
मध्यम परिषद के देव-1000
बाह्य परिषद के देव -2000
अवधि ज्ञान नरक के नीचे तक
*घनोदधि और घनवात के आधार पर टिका हुआ*
*
*विमान का वर्ण*-- सफेद,पीला
*विमान का चिन्ह*-- हाथी है।
*सामानिक देव*--- 30,000 है।
*आत्मरक्षक देव*-- 1,20,000 है।
*आठवें देवलोक के देवताओं की आयु*
*जघन्य*--- 17 सागरोपम
*उत्कृष्ट*--- 18 सागरोपम
●इन देवताओं का शरीर *चार हाथ परिमाण होता है।
●इस देवलोक के देवताओं में *शुक्ल लेश्या होती है।*
*नवमा - दसवां देवलोक*
आठवें देवलोक की सीमा से पाव रज्जु ऊपर, १२॥ रज्जु घनाकार विस्तार में मेरु से दक्षिण दिशा में नौवां 'आनत' देवलोक और उत्तरदिशा में दसवां 'प्राणत' देवलोक है। दोनों लगडाकार हैं। दोनों में चार-चार प्रतर हैं। इन प्रतरों में ९०० योजन ऊंचे और २३०० योजन की अंगनाई वाले, दोनों आनत -प्राणत के मिलाकर ४०० विमान हैं। नौवें देवलोक के देवों की आयु जघन्य १८ सागरोपम और उत्कृष्ट १९ सागरोपम की है। दसवें देवलोक के देवों की आयु जघन्य १९ सागरोपम और उत्कृष्ट २० सागरोपम की है।
*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*अध्ययन*
*देव गति*
*7:7:21*
*नवां-दसवां-देवलोक*
आभ्यंतर परिषद के देव- 250
मध्यम परिषद के देव-500
बाह्य परिषद के देव -1000
अवधि ज्ञान नरक के नीचे तक
*( आनत-प्राणत देवलोक *
*आकाश के आधार पर टिके हुए*
*इन्द्र का नाम*-- प्राणतेन्द्र है। दोनों के एक ही इन्द्र होता हैं।
*विमान*-- दोनों के कुल 400 है।
*विमान का वर्ण*-- सफेद।
*विमान का चिन्ह*--सर्प है।
*सामानिक देव*-- 20-20 हजार है।
*आत्मरक्षक देव*-- 80-80 हजार है।
●इस देवलोक के देवताओं में *शुक्ल लेश्या होती है।*
●इन देवताओं का शरीर *तीन हाथ परिमाण होता है
तीस पल्योपम से एक समय अधिक से चालीस पल्योपम तक की आयु वाली देवियां नौवें-दसवें देवलोक के देवों के भोग में आती हैं।
नौवें और दसवें देवलोक की सीमा से आधा रज्जु ऊपर, १० ।। रज्जु घनाकार विस्तार में, मेरु से दक्षिण दिशा में, ग्यारहवां 'आरण' देवलोक है और उत्तर दिशा में बारहवां 'अच्युत' देवलोक है। इन दोनों में भी चार-चार प्रतर हैं, जिनमें १००० योजन ऊंचे और २२०० योजन की अंगनाई नाप वाले दोनों देवलोकों के मिलकर ३०० विमान हैं।।
ग्यारहवें देवलोक के देवों की आयु जघन्य २० सागरोपम और उत्कृष्ट २१ सागरोपम की है। बारहवें देवलोक के देवों की आयु जघन्य २१ सागरोपम और उत्कृष्ट २२ सागरोपम की है
*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*अध्ययन*
*देव गति*
*8:7:21*
चलते चलते जो छूट गया-
नवमें -दसवें देवलोक में
सुघोषा घण्टा है ।
नवमें-दसवें देवलोक में घण्टा वादक -हरिणगमैषी देव।
नवमें -दसवें देवलोक यान-विमान विमल देव।
बनाते है
नवमें -दसवें देवलोक के यान -विमान का नाम -विमल यान विमान है ।
नवमें-दसवें देवलोक के यान -विमान का विस्तार -एक लाख योजन हैं।
नवमें-दसवें देवलोक के यान-विमान को इन्द्र
दक्षिण-पूर्ववर्ती रतिकर पर्वत पर संकुचितकरते है।
प्राणतेन्द्र भगवान के सर्वप्रथम साक्षात दर्शन अभिषेक शिला पर आकर करते है
*🔸11वां-12वां देवलोक🔸*
ग्यारहवें देवलोक का
नाम आरणहैं
बारहवें देवलोक का नाम अच्युत है
इन दोनो कल्पों पर आधिपत्य
अच्युतेन्द्र करते है
प्राणतेन्द्र भगवान के सर्वप्रथम साक्षात दर्शन अभिषेक शिला पर आकर करते है
अच्युत कल्प में महाघोषा घण्टा है।
अच्युतेन्द्र के घण्टावादक लघुपराक्रम देव जो
सेनापति का पद पर होतेहैं (पैदल सेना )
अच्युतेन्द्र के लिये दिव्ययान सर्वतोभद्र देव बनाते है
अच्युतेन्द्र के लिए बनाया दिव्ययान एक लाख योजन प्रमाण विस्तृत होता है
अच्युतेन्द्र दिव्ययान विमानउत्तरपूर्व रतिकर पर्वत ।
को संकुचित करते है
अच्युतेन्द्र को सर्वप्रथम भगवान के दर्शन अभिषेक शिला पर होते है।
वैमानिक देंवों के
नव इन्द्र (ईशानेन्द्र से अच्युतेन्द्र तक )
इन्द्र ,भगवान के जन्मोत्सव शुरु होने से पूर्व जन्म स्थल पर आते है?
सबसे पहले भगवान काअभिषेक अच्युतेन्द्र जी करते है
अच्युतेन्द्र जब भगवान का अभिषेक करते हैं तब अन्य देव
4 प्रकार के - तत, वितत, घन,शुषिर , के वाद्य बजाते है।
अभिषेक के समय
4प्रकार की - उत्क्षिप्त, पादात, मंदाय, रोचितावसानकी संगीतमय रचनाएँ गाते है।
देवता के 4प्रकारके - अंचित, द्रुत, आरभट, भसोल।
नृत्य करते है
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*अध्ययन*
*देव गति*
*9:7:21*
देवता
के अभिनय 4 प्रकार का -दार्ष्टान्तिक, प्रातिश्रुतिक, सामन्यतोविनिपातिक, लोकमध्यावसानिक ।
करते है
देवता 32 प्रकार के नाटक करते है।
अच्युतेन्द्र भगवान को दो दिव्य वस्त्र स्वर्णमय तारों सें रचित पहनाता है
अच्युतेन्द्र भगवान को वस्त्र पहनाकर फिर
रजतमय चावलों के द्वारा
भगवान के आगे 8 मंगल बनाते है
अच्युतेन्द्र भगवान की 108 महिमामय कविताओं द्वारा स्तुति करता काव्यों-महाचरित्रों द्वारा स्तुति करता है
अच्युतेन्द्र द्वारा भगवान का अभिषेक कर लिये जाने पर फिर अभिषेक
प्राणतेन्द्र,महाशुक्रेन्द,लान्तकेन्द्र ,यावत् , ईशानेन्द्र करते है।
वैमानिदक देवों द्वारा अभिषेक होने पर फिर
भवनपति,व्यन्तर एंव ज्योतिषी के इन्द्र देवता
अपने -अपने परिवार सहित क्रमश: अभिषेक करते है।
देव सभा
देव कर कर्त्तव्य बताते है वह स्थान को कहा जाता हैं...व्यवहार सभा
देव के न्यायालय को कहते हैं... सुधर्मा सभा
*(आरण और अच्युत देवलोक)*
*इन्द्र का नाम*--- अच्युतेन्द्र है।
*विमान*-- दोनों के कुल 300 है।
*विमान का वर्ण*-- सफेद।
*विमान का चिन्ह*-- वृषभ है।
*सामानिक देव*--10-10 हजार है।
*आत्मरक्षक देव*-- 40-40 हजार है।
●11वें और 12वें देवलोक के देवताओं में *शुक्ल लेश्या होती है।*
●इन देवताओं का शरीर *तीन हाथ परिमाण होता है।
आभ्यंतर परिषद के देव- 12000
मध्यम परिषद के देव-14000
बाह्य परिषद के देव -16000
अवधि ज्ञान नरक के नीचे तक
*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*अध्ययन*
*देव गति*
*10:7:21*
*"कल्पोपन्न देव" इसलिये भी कहलाते हैं।* क्योंकि इनमें छोटे-बड़े का भेद होता है, स्वामी-सेवक का सम्बन्ध होता है।इन स्वर्ग के देवों में दश प्रकार के कल्प अर्थात भेद होते हैं, जिनका वर्णन आगे ⤵️
*★ इन्द्र*-- जैसे मनुष्य लोक में राजा होते हैं, वैसे देवलोक में इन्द्र होते हैं।जिस प्रकार मनुष्य लोक में राजा सबसे बड़ा होता है उसी प्रकार इन्द्रसभा में सबसे ऊँचे आसन पर बैठने वाला इन्द्र होता है, सब देव जिसकी आज्ञा मानते हैं वह इन्द्र कहलाता है। जो राजा के समान सुख भोगता है, जिसकी आज्ञा देवगण मानते हैं तथा जो अन्य देवों में असाधारण अणिमादि गुणों के संबंध से शोभते हैं, वें इन्द्र कहलाते हैं।
*★सामानिक देव*--
जो इन्द्र के समान होता है, माता – पिता के समान जिनका आदर होता है वें देव सामानिक देव कहलाते हैं।
।आज्ञा और ऐश्वर्य के सिवा जो आयु भोग, वीर्य, परिवार और उपभोग में समान है सामानिक देव कहलाते हैं।
*★आत्मरक्षक देव*--राजाओं के अंगरक्षकों की तरह इन्द्रों के भी अंगरक्षक देव होते हैं।
*अभियोगिक देव*-नौकर जैसे देव को बोलते है..जो दास के समान वाहन आदि कर्म में प्रवृत्त होते हैं, वें आभियोग्य कहलाते हैं।
*प्रकीर्णक देव*-प्रजा जैसे देव को बोलते है.जो गाँव और शहरों में रहने वालों के समान हैं, उन्हें प्रकीर्णक कहते हैं।
*त्रायस्त्रिंशत् देब*-जो पिता, गुरु और उपाध्याय के समान सबसे बड़े हैं, जो मंत्री और पुरोहित हैं, वे त्रायस्तिंश कहलाते हैं। यें तेंतीस ही होते हैं इसीलिए वें त्रायस्त्रिंश कहलाते हैं।
*आत्मरक्षक देव*-अंगरक्षक देव को बोलते है।तनुरक्षक देव
भी कहते हैं
*परिषदय*-जो सभा में मित्र और प्रेमीजनों के समान होते हैं परिषद कहलाते हैं
इन्द्रसभा के सभासद देवों को बोलते है..
*चारों लोकपाल*-कोतवाल के समान देव या जो लोक का पालन करते हैं, वें लोकपाल कहलाते हैं।
*अनीक देव*- सेना के तुल्य
जैसे यहाँ सेना है उसी प्रकार सात प्रकार के पदाति आदि अनीक कहलाते हैं।
*किल्बिषिक देव*- चंडाल जैसे देव को क्या बोलते है।
चाण्डाल की तरह के देव किल्विषक कहलाते हैं। जो सीमा के पास रहने वालों के समान हैं, वें किल्विषक कहलाते हैं। किल्विष पाप को कहते हैं। इसकी जिनके बहुलता होती हैं, वें किल्विषक कहलाते हैं।
इस प्रकार देवों के दश भेद होते हैं, स्वर्ग से ऊपर ग्रैवियक आदि में सब देव समान होते हैं उनमें कोई भेद नही होता है, इसलिए वें अहमिन्द्र कहलाते हैं।
*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*अध्ययन*
*देव गति*
*12:7:21*
सलाहकार मंत्री के समान इन्द्र की आभ्यन्तर परिषद के ( पारिषद्य) देव होते हैं। वे इन्द्र के बुलाने पर ही आते है। कामदारों के समान श्रेष्ठ काम करने वाले मध्यम परिषद के देव होते हैं। यह देव बुलाने से भी आते हैं और बिना बुलाए भी आते हैं। किंकरों के समान सब काम करने वाले बाह्य परिषद के देव होते हैं। ये देव बिना बुलाए आते हैं और अपने-अपने काम में तत्पर रहते हैं। द्वारपाल के समान चार लोकपाल देव होते हैं। सेना के समान सात प्रकार के अनीक देव होते हैं। वे अपने-अपने पद के अनुसार अश्व, गज, रथ, बैल, पैदल आदि का रूप बनाकर, यथोचित रीति से इन्द्र के काम आते हैं।
गंधर्वों की अनीक के देव मधुर गान तान करते हैं। नाटक-अनीक के देव बत्तीस प्रकार का मनोरम नाट्य आदि करते हैं।
जैसे मनुष्य जाति में चाण्डाल आदि नीच जाति के मनुष्य होते हैं, वैसे ही सब की घृणा के पात्र, कुरूप, अशुभ विक्रिया करने वाले, मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी किल्विषिक देव तीन प्रकार के होते हैं— पहले दूसरे देवलोक तक तीन पल्योपम की आयु वाले देव हैं, जिन्हें 'तीन पल्या' कहते हैं। (२) चौथे देवलोक तक तीन सागरोपम की आयु वाले देव हैं, जिन्हें 'तीन सागरया' कहते हैं । (३) छठे देवलोक तक ऐसे देव, जो १३ सागरोपम की आयु वाले हैं वे 'तेरह सागरया' कहलाते हैं। देव, गुरु, धर्म की निन्दा करने वाले और तप-संयम की चोरी करने वाले मर कर किल्विषी देव होते हैं।
जैसे नागर बेल के पान हजारों कोस दूर जाने पर भी वहां उसकी बेल को कुछ नुकसान पहुंचने से, वहां सैकड़ों कोस के अन्तर पर दूर रहा हुआ पान खराब हो जाता है। वैसे ही बारहवें देवलोक के देव, दूर रहते हुए भी दूसरे देवलोक की देवी के साथ मानसिक भोग विचार मात्र (By Thought Power) से कर सकते हैं।
ग्यारहवें बारहवें देवलोक की सीमा से दो रज्जु ऊपर आठ रज्जु घनाकार विस्तार में, गागर ,
एक दूसरे ऊपर, आकाश के आधार से बेवड़े के आकार
नव ग्रैवेयक देवलोक हैं।
इनके तीन त्रिक में नौ प्रतर हैं! पहले त्रिक (तीन के समूह) में (१) भद्र, (२) सुभद्र और (३) सुजात नामक तीन ग्रैवेयक हैं। इन तीनों में १११ विमान हैं। दूसरे त्रिक में (४) सुमानस (५) सुदर्शन और, (६) प्रियदर्शन नामक तीन ग्रैवेयक हैं। इन तीनों में १०७ विमान है। तीसरे त्रिक में, (७) अमोह, (८) सुप्रतिभद्र और, (९) यशोधर नामक तीन ग्रैवेयक हैं। इन तीनों में १०० विमान हैं। यह सब एक हजार योजन ऊंचे और २२०० योजन की अंगनाई वाले हैं। सबमिलाकर 3 त्रिक के विमान मिलाकर
318 है
ग्रैवेयक के देवों का शरीर दो हाथ की अवगाहना वाला है।
*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*अध्ययन*
*देव गति*
*13:7:21*
आयु इस प्रकार है
9 ग्रैवेयक की जघन्य,
पहला ग्रैवेयक जघन्य२२ सागरोपम।उत्कृष्ट 23सागरोपम
दूसरा ग्रैवेयक जघन्य 23सागरोपम ,उत्कृष्ट 24सागरोपम
तीसरा ग्रैवेयक जघन्य 24सागरोपमउत्कृष्ट 25सागरोपम
चौथा ग्रैवेयक जघन्य25सागरोपम उत्कृष्ट 26सागरोपम
पांचवां।ग्रैवेयक जघन्य26सागरोपम उत्कृष्ट 27सागरोपम
छठा।ग्रैवेयक जघन्य27सागरोपम उत्कृष्ट 28सागरोपम
सातवां।ग्रैवेयक जघन्य 28सागरोपम उत्कृष्ट 29सागरोपम
आठवां। ग्रैवेयकजघन्य 29सागरोपमउत्कृष्ट 30सागरोपम
नौंवाग्रैवेयक जघन्य 30सागरोपमउत्कृष्ट 31सागरोपम
ग्रैवेयक की सीमा से एक रज्जु ऊपर, ६ ।। रज्जु घनाकार विस्तार में चारों दिशाओं में चार विमान हैं। वे ११०० योजन ऊंचे और २१०० योजन की अंगनाई वाले तथा असंख्यात
योजन लम्बे-चौड़े हैं। इन चारों विमानों के मध्य में १००००० योजन लम्बा चौड़ा और गोलाकार पांचवां विमान है। इन पांचों विमानों के नाम इस प्रकार हैं: (१) पूर्व में विजय, (२) दक्षिण में वैजयंत, (३) पश्चिम में जयन्त, (४) उत्तर में अपराजित और, (५) मध्य में सर्वार्थसिद्ध विमान है ।
इन पांचों विमानों में रहने वाले देवों के शरीर का मान एक हाथ का है। आयु चार विमानों के देवों की जघन्य ३१ सागरोपम और उत्कृष्ट ३३ सागरोपम की है। सर्वार्थसिद्ध विमान वासी देवों की आयु ३३ सागरोपम है। इसमें जघन्य और उत्कृष्ट का भेद नहीं है। सब देवों की आयु बराबर है।
यह पांचों विमान सब विमानों में उत्कृष्ट और सबसे ऊपर होने के कारण अनुत्तरविमान कहलाते हैं। सर्वार्थसिद्ध विमान के मध्य छत में एक चन्द्रवा २५३ मोतियों का है। उन सबके बीच का एक मोती ६४ मन का है। उसके चारों तरफ चार मोती ३२-३२ मन के हैं।
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*अध्ययन*
*देव गति*
*14:7:21*
सर्वार्थसिद्धि का अर्थ है सर्व अर्थो की सिद्धि होना।
सम भूभाग से अनुत्तर विमान सात राजू से कुछ कम ऊपर है
अनुत्तर विमानों के प्रतर का नाम अनुत्तर प्रतर है अनुत्तर प्रतर सिद्धि रूपी के लिये शोभित है।
अनुत्तर प्रतर पादपिठ के रुप में शोभित है।
अनुत्तर विमानवासी देवों का वैमानिक देवों का सबसे अंतिम प्रतर है
5,अनुत्तर विमानों के आकार
अनुत्तर विमानों
में त्रिकोण विमानवास 4 है।
एक गोल विमानवास है
अनुत्तर विमानों में चौकोण विमानवास
एक भी नहीं है।
सर्वोत्कृष्ट सुख व सबसे ऊपर होने के कारण इन पाँच विमानों को अनुत्तर विमान कहा जाता है ।
अनुत्तर विमान में इंद्रक विमान का नाम सवार्थ सिद्धि है
सर्वार्थ सिद्ध विमान एक लाख योजन लम्बा चौड़ा है
शेष चारों अनुत्तर विमान असंख्यात योजन लम्बे चौड़े है।
सर्वार्थसिद्ध विमानवासी देव
16.5 महीने से ( 33 पक्ष )समय में श्वासोशवास लेते है ।
33000 वर्षों के पश्चात सर्वार्थ सिद्ध विमनवासी देवों में आहारेच्छा होती है
अनुत्तर विमानवासी देवों में कोई भी ( देवी रहित ) । परिचारणा नही होती है ।
सर्वार्थसिद्ध विमान की प्रत्येक शय्या मोतियों से सुशोभित है ।
सर्वार्थसिद्ध विमानवासी देव शय्या से नीचे संशय उत्पन्न होने पर उतरते है ।
कुमारिका ( कन्या के ) कंचुक के समान अनुत्तर विमानवासी देवो के अवधि ज्ञान का आकार
होता है सर्वार्थसिद्ध विमान में कौन मरकर जा सकते है
सम्यक्दृष्टि , शुक्ल लेश्या वाली , वज्रऋषभनाराच संहनन वाली , उज्जवल संयम की आराधना करने वाली , अल्पभवी जा सकते है,
*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
💫💫💫💫💫💫
*,
💫💫💫💫💫💫💫
🌷🌹🌷🌹🌷🌹🌷
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
💫💫💫💫💫💫💫
*अध्ययन*
*देव गति*
*15:7:21*
सवार्थ सिद्धि विमान में इनके पास आठ मोती १६ १६ मन के हैं। सोलह मोती आठ-आठ मन के हैं। बत्तीस मोती चार-चार मन के हैं। ६४ मोती दो-दो मन के हैं और इनके पास १२८ मोती एक-एक मन के हैं। यह मोती हवा से आपस में टकराते हैं तो उनमे से छह राग और छत्तीस रागनियां निकलती हैं। जैसे मध्याह्न का सूर्य सभी को अपने-अपने सिर पर दिखलाई देता है, उसी प्रकार जो चन्द्रवा है वह भी सर्वार्थसिद्ध निवासी सभी देवों को अपने-अपने सिर पर मालूम पड़ता है। इन पांचों विमानों में शुद्ध संयम का पालन करने वाले, चौदह पूर्व के पाठी साधु उत्पन्न होते हैं। वे वहां सदैव ज्ञान-ध्यान में निमग्न रहते हैं।
सभी अपनी ऋधि के स्वामी है ।
जब देवों को किसी प्रकार का संशय उत्पन्न होता है तब वे शय्या से नीचे उतर कर, यहां जो तीर्थंकर भगवान् विराजमान होते हैं, उन्हें नमस्कार करके प्रश्न पूछते हैं। भगवान् उस प्रश्न के उत्तर को मनोमय पुद्गलों में परिणत करते हैं। देव अवधिज्ञान से उसे ग्रहण करते हैं और उनका समाधान हो जाता है। पांचों अनुत्तर विमानवासी देव एकान्त सम्यग्दृष्टि हैं। चार अनुत्तर विमानों के देव संख्यात (कतिपय ) भव करके और सर्वार्थसिद्ध विमान के देव एक ही भव करके अर्थात्
मनुष्य होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं। यहां के देव सर्वाधिक सुख के भोक्ता हैं। वारहवें देवलोक से ऊपर अर्थात् नौ ग्रैवेयक और पांच अनुत्तर विमानों में इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिश, आत्मरक्षक आदि छोटे-बड़े का भेद नहीं है। सभी देव एक सरीखी ऋद्धि के धारक हैं। इस कारण ये सभी अहमिन्द्र' कहलाते हैं।
*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*अध्ययन*
*देव गति*
*16:7:21*
उक्त १२ स्वर्ग, ९ ग्रैवेयक और ५ अनुत्तरविमान सब २६ स्वर्गों के सब ६२ प्रतर और ८४९७०२३ विमान हैं।
*सभी विमानों की विशेषता*
विमान रत्नमय हैं। वे सब अनेक स्तंभों से परिमण्डित,हैं भांति-भांति के चित्रों से चित्रित, अनेक खूंटियों और लीलायुक्त पुतलियों से सुशोभित, सूर्य के समान जगमगाते हुए और सुगन्ध से मघमघायमान हैं।
प्रत्येक विमान के चारों ओर बगीचे हैं, जिनमें रत्नमय बावड़ियां,हैं, जिसमे रत्नमय निर्मल जल और कमलों से मनोहर प्रतीत होती हैं । रत्नों के सुन्दर वृक्ष,हैं बेलें, गुच्छे, गुल्म और तृण वायु से हिलते हैं। जब वे आपस में टक उन में से छह राग छत्तीस रागनियां निकलती हैं। वहां सोने-चांदी की रेत बिछी है और तरह-तरहके आसन पड़े हैं। अति सुन्दर, सदैव नवयौवन से ललित, दिव्य तेज वाले, समचतुरस्त्र संस्थान के धारक, अति उत्तम मणि रत्नों के वस्त्रों के धारक, दिव्य अलंकृत देव इच्छित क्रीड़ा करते हुए, इच्छित भोग भोगते हुए पूर्वापार्जित पुण्य के फल को भोगते हैं।
जिस देव की जितने सागरोपम की आयु है, वे उतने ही पक्ष में श्वासोच्छ्वास लेते हैं और उतने ही हजार वर्षों में उन्हें आहार करने की इच्छा होती है। जैसे सर्वार्थसिद्ध विमान के देवों की आयु तेतीस सागरोपम की है, तो वे तेतीस पक्ष में अर्थात् १६॥ महीनों में एक बार श्वासोच्छ्वास लेते हैं और तेतीस हजार वर्षों के बाद आहार ग्रहण किया करते हैं। देव रोमाहार करते हैं। अर्थात् जब उन्हें आहार की इच्छा होती है। तब रत्नों के शुभ पुद्गलों को रोमों द्वारा खींचकर तृप्त हो जाते हैं। सर्वार्थसिद्ध विमान से १२ योजन ऊपर, ११ रज्जू घनाकार विस्तार में बाकी सारा लोक है।
*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*अध्ययन*
*देव गति*
*17:7:21*
*17:7:21*
सर्वार्थसिद्ध विमान से १२ योजन ऊपर ४५००००० योजन की लम्बी-चौड़ी गोलाकार सिद्धशिला है।
वह मध्य में आठ योजन मोटी और चारों तरफ क्रम से घटती-घटती किनारे पर मक्खी के पंख से भी अधिक पतली हो गई है। सिद्ध सिला की परिधि (घेरा) १४२३०२४९योजन की है।
वह अर्जुन (श्वेत सुवर्ण) मय है। छत्र तथा तल से परिपूर्ण दीपक के समान है। उस सिद्धशिला के बारह नाम हैं – (१) ईषत्, (२) ईषत प्रागभार, (३) तनु, (४)सिद्धि, (६) सिद्धालय, (७) मुक्ति, (८) मुक्तालय, (९) लोकाग्र, (१०) लोकाग्रस्तूपिका,(११) लोकाग्र बुध्यमान, (१२) सर्व प्राण-भूत-जीव-सत्वसुखावहा । इस सिद्धशिला के एकयोजन ऊपर, ऊपर के एक कोष के छठवें भाग में मनुष्य लोक के बराबर ऊपर अग्रभाग में ४५००००० योजन लम्बे-चौड़े और ३३३ धनुष और ३२ अंगुल जितने ऊंचे क्षेत्र में अनन्त सिद्ध भगवान् विराजमान हैं। यहीं लोक का अन्त हो जाता है।
लोक के चारों ओर अनन्त और असीम अलोकाकाश है अलोकाकाश में आकाश द्रव्य के अतिरिक्त और कोई द्रव्य नहीं होता। खाली आकाश ही आकाश है।
*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*अध्ययन*
*देव गति*
*19:7:21*
आइए अब अप ने दूसरे देवी
देवता कहां रहते हैं उनके बारे में जानकारी हासिल करते हैं ।
कुछ जाने कुछ अनजाने पहलु
*अन्य देवी देवता के निवास क्षेत्र*
पृथ्वी से दस योजन की ऊंचाई पर वैताढ्य पर्वत पर १० योजन चौड़ी और वैताढ्य पर्वत के बराबर लम्बी दो विद्याधर श्रेणियां हैं। दक्षिण की श्रेणी में गगनवल्लभ आदि ५० नगर हैं और उत्तर श्रेणी में रधानुपुर चक्रवाल आदि ६० नगर हैं। इनमें रोहिणी, प्रज्ञप्ति, गगनगामिनी आदि हजारों विद्याओं के धारक विद्याधर (मनुष्य) रहते हैं। वहां से १० योजन ऊपर इसी प्रकार की दो श्रेणियां (. पर्वत पर फिरने योग्य खुली जगह हो श्रेणी कहते हैं।)
और हैं। वे आभियोग्य देवों की हैं। वहां प्रथम देवलोक के इन्द्र शकेन्द्र जी के द्वारपाल–(१) पूर्व दिशा के स्वामी सोम महाराज (२) दक्षिण दिशा के स्वामी यम महाराज (३) पश्चिम दिशा के स्वामी वरुण महाराज और (४) उत्तर दिशा के स्वामी वैश्रमण महाराज के आज्ञापालक और 10, प्रकार के जृम्भक देव
(१) अन्न के रक्षक अन्नजृम्भक (२) पानी के रक्षक पानजृम्मक (३) सुवर्ण आदि धातुओं के रक्षक लयनजृम्भक (४) मकान के रक्षक शयनजृम्भक (५) वस्त्र के रक्षक वस्त्रजृम्भक (६) फलों के रक्षक फलजृम्भक (७) फूलों के रक्षक फूलजृम्भक (८) साथ रहे हुए फलों और फूलों के रक्षक फल-फूलजृम्भक (९) पत्र- भाजी के रक्षक अविपतजृम्भक और (१०) बीज-धान्य के रक्षक बीजजृम्भक इन दस प्रकार के देवों के आवास हैं। ये देव अपने-अपने नाम के अनुसार
यह दस ही सर्वजगत की रखवाली करते हैं जो जृम्भक देव
नहीं होवे तो *वाणव्यंतर देवता वस्तुओं का हरण कर लेवे।
वाण-व्यन्तर देवों से अन्न पानी आदि उक्त वस्तुओं की रक्षा करने के लिए प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल फेरी लगाने निकलते हैं।यानी चौकीदारी करते हैं।और नीचे भी आते रहते है । ये जिस मानव पर प्रसन्न हो जाय तो उसे धन माल आदि से भरपूर कर देते है और जिस पर रुष्ट हो जाय तो उसे कई प्रकार से हानि पहुँचाते है ।
*यह जृम्भक अपनी फेरी के समय कोई वस्तु ठिकाने नहीं पावे तो वे अवधिज्ञान से देखते हैं , कि अमुक ( फलां ) देवता ने इस वस्तु का हरण किया है , ऐसा जानकर उस चोर देवता को पकड़ कर इन्द्र के पास ले जाते हैं। तब इन्द्र उस चोर देवता को वज्र से प्रहार करते हैं । वह देवता उस प्रहार से मरता तो नहीं , किन्तु १२ वर्ष तक हाय त्राहिकर कष्ट पाता है और विशेष अपराधी को देश निकाला आदि की सजा देते हैं। *जिससे वो देवता १२ वर्ष तक इस पृथ्वी पर किसी शून्य मकान , वृक्ष आदि में निवास करता है। यह चोर देवता जहां निवास करता है उस जगह के मनुष्य आदि को अपने दुष्ट स्वभाव का परिचय देने के लिये लोगों को भयंकर रूप आदि करके हीन मनोबल वालों को भयभीत करते हैं । इनका विशेष प्रभाव शीलभ्रष्ट नर - नारियों पर पड़ता है । शीलवन्त और संयमी मनुष्यों से तो उलटा वे डरते हैं और नमन आदि स्तुति सेवा करते हैं।*
*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*अध्ययन*
*देव गति*
*20:7:21*
उक्त अभियोग्य श्रेणी से ५ योजन ऊपर, १० योजन चौड़ा और पर्वत के बराबर लम्बा वैताढ्य पर्वत का शिखर है। यहां ६ योजन ऊंचे अलग-अलग नौ कूट (डूंगरी) हैं। यहां महान् ऋद्धि के धारक और वैताढ्य पर्वत के स्वामी वैताढ्य गिरिकुमार रहते हैं।
जम्बूद्वीप के पूर्व दिशा के विजय द्वार के नीचे के नाले से लवणसमुद्र का पानी भरतक्षेत्र में आता है। इस कारण नौ योजन विस्तार वाली खाड़ी है। उसके तट पर तीन देवस्थान हैं – (१) पूर्व में मागध, (२) मध्य में वरदाम और, (३) दक्षिण में प्रभास तीर पर होने से इन्हें तीर्थ कहते हैं।
जम्बूद्वीप के अन्तर्गत उत्तरार्ध भरतक्षेत्र में ऋषभकूट नामक पर्वत कहाँ है ?
गौतम ! हिमवान् पर्वत के जिस स्थान से गंगा महानदी निकलती है, उसके पश्चिम में, जिस स्थान से सिन्धु महानदी निकलती है, उसके पूर्व में, चुल्लहिमवंत वर्षधर पर्वत के दक्षिणी नितम्ब-मेखला - सन्निकटस्थ प्रदेश में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत उत्तरार्ध भरतक्षेत्र में ऋषभकूट नामक पर्वत है। वह आठ योजन ऊँचा, दो योजन गहरा, मूल में आठ योजन चौड़ा, बीच में छह योजन चौड़ा तथा ऊपर चार योजन चौड़ा है। मूल में कुछ अधिक पच्चीस योजन परिधियुक्त, मध्य में कुछ अधिक अठारह योजन परिधियुक्त तथा ऊपर कुछ अधिक बारह योजन परिधि युक्त है। मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त-संकडा तथा ऊपर तनुक पतला है। वह गोपुच्छ-संस्थान संस्थित -ऋषभकूट आकार में गाय की पूँछ जैसा है, सम्पूर्णत: जम्बूनद स्वर्णमय हैजम्बूनद जातीय स्वर्ण से निर्मित है, स्वच्छ सुकोमल एवं सुन्दर है। वह एक पद्मवरवेदिका (तथा एक) वनखण्ड द्वारा चारों ओर से परिवेष्टित है। ऋषभकूट के ऊपर एक बहुत समतल रमणीय भूमिभाग है। वह मुरज के ऊपरी भाग जैसा समतल है। वहाँ वाणव्यन्तर देव और देवियाँ विहार करते हैं। ऋषभकूट के उस बहुत समतल तथा रमणीय भूमिभाग के ठीक बीच में एक विशाल भवन है)। वह भवन एक कोस लम्बा, आधा कोस चौड़ा, कुछ कम एक कोस ऊँचा है। वहाँ उत्पल, पद्म (सहस्रपत्र, शत- सहस्रपत्र आदि हैं)। ऋषभकूट के अनुरूप उनकी अपनी प्रभा है, उनके वर्ण हैं। ऋषभकूट में
समृद्धिशाली ऋषभ नामक देव का निवास है, उसकी राजधानी है, जब चक्रवर्ती महाराज भरत क्षेत्र के छहों खण्डों पर विजय प्राप्त करने के लिए निकलते हैं, तब इस पर्वत पर वे अपना नाम अंकित कर देते हैं।
मेरुपर्वत से दक्षिण में, भरतक्षेत्र की सीमा पर १०० योजन ऊंचा, २५ योजन जमीन में गहरा, २४९२५ योजन लम्बा १०५२१२/२६ योजन (१६ कला) चौड़ा पीत स्वर्ण वर्ण का चुल्ल हेमवन्त नामक पर्वत है। इसके ऊपर ११ कूट हैं। प्रत्येक कूट पांच-पांच सौ योजन ऊंचे हैं। पर्वत के मध्य में १००० योजन लम्बा ५०० योजन चौड़ा और १० योजन गहरा पद्मद्रह (कुण्ड) है। इस कुण्ड में रत्नमय कमल है, जिस पर श्रीदेवी सपरिवार रहती है। इस पद्मद्रह से तीन नदियां निकली हैं।
*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*अध्ययन*
*देव गति*
*21:7:21*
मेरुपर्वत से दक्षिण में, हैमवत क्षेत्र है, उसके पास उत्तर दिशा में २०० योजन ऊंचा ५० योजन जमीन में गहरा, पूर्व पश्चिम में ५४९२९१६/१९ (१६ कला) लम्बा, उत्तर दक्षिण में ४२१०१०/१९ योजन (१० कला) चौड़ा, 'महाहिमवान्' पर्वत पीला स्वर्णमय है। महाहिमवान्' पर्वत पर पांच-पांच सौ योजन के आठ कूट हैं। इसके मध्य में २००० योजन लम्बा, १००० योजन चौड़ा, १० योजन गहरा 'महापद्म द्रह है- इसमें रत्नमय कमलों पर ह्री देवी सपरिवार रहती है। इस महापद्म
द्रह में से दो नदियां निकलती हैं।1रोहित नदी2हरिकान्ता नदी
वणसंडावि पउमवरवेइयासमगा आयामेणं, वण्णओ ।
समयक्षेत्रवर्ती जो भी पर्वत हैं, मेरु के अतिरिक्त उन सबकी जमीन में गहराई अपनी ऊंचाई से चतुर्थांश है।
२. देखें सूत्र संख्या ४
वैताढ्य पर्वत के पूर्व पश्चिम में दो गुफाएं कही गई हैं। वे उत्तर दक्षिण लम्बी हैं तथा - पूर्व पश्चिम चौड़ी हैं। उनकी लम्बाई पचास योजन, चौड़ाई बारह योजन तथा ऊँचाई आठ योजन है। उन गुफाओं के वज्ररत्नमय हीरकमय कपाट हैं, दो-दो भागों के रूप में निर्मित, समस्थित कपाट इतने सघन निश्छिद्र या - - निविड हैं, जिससे गुफाओं में प्रवेश करना दुःशक्य है। उन दोनों गुफाओं में सदा अंधेरा रहता है। वे ग्रह, चन्द्र, सूर्य तथा नक्षत्रों के प्रकाश से रहित हैं, अभिरूप एवं प्रतिरूप हैं। उन गुफाओं के नाम तमिस्रगुफा तथा खंडप्रपातगुफा हैं ।
वैताढ्य पर्वत की विशेषता:-
महाहिमवान् पर्वत के सदृश महत्ता,
महाहिमवान् पर्वत के सदृश महत्ता,
तथामलय, मेरु एवं महेन्द्र संज्ञक पर्वतों के सदृश प्रधानता या विशिष्टता लिये हुए हैं।
वैताढ्य पर्वतपर
वहाँ के मनुष्यों का संहनन, संस्थान, ऊँचाई एवं आयुष्य बहुत प्रकार का है। (वे बहुत वर्षों का आयुष्य भोगते हैं। उनमें कई नरकगति में कई तिर्यंञ्चगति में, कई मनुष्यगति में तथा कई देवगति में जाते हैं। कई सिद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं परिनिर्वृत होते हैं,) सब दुःखों का अंत करते हैं।
*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*अध्ययन*
*देव गति*
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उन विद्याधर श्रेणियों के भूमिभाग से वैताढ्य पर्वत के दोनों और दश दश योजन ऊपर दो आभियोग्य श्रेणियां है अभियोगिक देवों-शक्र, लोकपाल आदि के आज्ञापालक देवों-व्यन्तर देवविशेषों की आवास पंक्तियां हैं। वे आभियोग्य श्रेणियां
पूर्व-पश्चिम में
लम्बी तथा उत्तर दक्षिण दिशा मेंचौड़ी हैं। उनकी चौड़ाई दस दस योजन तथा लम्बाई पर्वत जितनी है। वे दोनों श्रेणियां अपने दोनों ओर दो-दो पद्मवरवेदिकाओं एवं दो-दो वनखंड़ों से परिवेष्टितहैं। लम्बाई में दोनों पर्वत जितनी हैं। वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए।
उनका बड़ा समतल, रमणीय भूमिभाग है। मणियों एवं तृणों से उपशोभित है। मणियों के वर्ण, तृणों के शब्द आदि अन्यत्र विस्तार से वर्णित हैं।
वहाँ बहुत से देव, देवियां आश्रय लेते हैं, औऱदेव, देवियां
कई क्रिया करते हैं जैसे:-
शयन करते हैं,
(खड़े होते हैं, बैठते हैं, त्वग्वर्तन करते हैं - देह को दायें बायें घुमाते हैं, मोड़ते हैं, रमण करते हैं, मनोरंजन करते हैं, क्रीड़ा करते हैं, सुरत क्रिया करते हैं। यों वे अपने पूर्व-आचरित शुभ, कल्याणकर पुण्यात्मक कर्मों केफलस्वरूप) विशेष सुखों का उपयोग करते हैं।
मलय, मेरु एवं महेन्द्र संज्ञक पर्वतों के सदृश प्रधानता या विशिष्टता लिये हुए हैं।
उन अभियोग्य श्रेणियों में देवराज, देवेन्द्र शक्र के अनेक देवों के- सोम-पूर्व दिक्पाल, यम-दक्षिण दिक्पाल, वरुण बहुत से भवन हैं।
पश्चिम दिकपाल और वैश्रमण उत्तर दिकपाल आदि आरोपी देवताओं के भवन बाहर से गोल तथा भीतर से चौरस हैं। । ' वहाँ देवराज, देवेन्द्र शक्र के अत्यन्त ऋद्धिसम्पन्न द्युतिमान् (बलवान, यशस्वी) तथा सौख्यम्पन्न सोम, यम, वरुण एवं वैश्रमण संज्ञक आभियोगिक देव निवास करते हैं।
उन आभियोग श्रेणियों के अति समतल, रमणीय भूमिभाग से वैताढ्य पर्वत के दोनों पार्श्व में दोनों ओर पाँच-पाँच योजन ऊँचे जाने पर वैताढ्य पर्वत का शिखर तल है। वह पूर्व-पश्चिम लम्बा तथा उत्तर दक्षिण चौड़ा है। उसकी चौड़ाई दस योजन है, लम्बाई पर्वत जितनी है।वैताढ्य पर्वत का शिखर तल एक पद्मवरवेदिका से तथा एक वनखंड से चारों ओर परिवेष्टित है। ।वैताढ्य पर्वत का शिखर तल का
भूमिभाग बहुत समतल तथा रमणीय है। वह मृदंग के ऊपर के भाग जैसा समतलहै, वैताढ्य पर्वत का शिखर तल का भूमिभाग
बहुविध पंचरंगी मणियों से उपशोभित है। वहाँस्थान-स्थान पर बावड़ियाँ एवं सरोवर हैं। वहाँ अनेक वाणव्यन्तर देव, देवियां निवास करते हैं, पूर्व-आचीर्ण पुण्यों का फलभोग करते हैं।
*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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उन विद्याधर श्रेणियों के भूमिभाग से वैताढ्य पर्वत के दोनों और दश दश योजन ऊपर दो आभियोग्य श्रेणियां है अभियोगिक देवों-शक्र, लोकपाल आदि के आज्ञापालक देवों-व्यन्तर देवविशेषों की आवास पंक्तियां हैं। वे आभियोग्य श्रेणियां
पूर्व-पश्चिम में
लम्बी तथा उत्तर दक्षिण दिशा मेंचौड़ी हैं। उनकी चौड़ाई दस दस योजन तथा लम्बाई पर्वत जितनी है। वे दोनों श्रेणियां अपने दोनों ओर दो-दो पद्मवरवेदिकाओं एवं दो-दो वनखंड़ों से परिवेष्टितहैं। लम्बाई में दोनों पर्वत जितनी हैं। वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए।
उनका बड़ा समतल, रमणीय भूमिभाग है। मणियों एवं तृणों से उपशोभित है। मणियों के वर्ण, तृणों के शब्द आदि अन्यत्र विस्तार से वर्णित हैं।
वहाँ बहुत से देव, देवियां आश्रय लेते हैं, औऱदेव, देवियां
कई क्रिया करते हैं जैसे:-
शयन करते हैं,
(खड़े होते हैं, बैठते हैं, त्वग्वर्तन करते हैं - देह को दायें बायें घुमाते हैं, मोड़ते हैं, रमण करते हैं, मनोरंजन करते हैं, क्रीड़ा करते हैं, सुरत क्रिया करते हैं। यों वे अपने पूर्व-आचरित शुभ, कल्याणकर पुण्यात्मक कर्मों केफलस्वरूप) विशेष सुखों का उपयोग करते हैं।
मलय, मेरु एवं महेन्द्र संज्ञक पर्वतों के सदृश प्रधानता या विशिष्टता लिये हुए हैं।
उन अभियोग्य श्रेणियों में देवराज, देवेन्द्र शक्र के अनेक देवों के- सोम-पूर्व दिक्पाल, यम-दक्षिण दिक्पाल, वरुण बहुत से भवन हैं।
पश्चिम दिकपाल और वैश्रमण उत्तर दिकपाल आदि आरोपी देवताओं के भवन बाहर से गोल तथा भीतर से चौरस हैं। । ' वहाँ देवराज, देवेन्द्र शक्र के अत्यन्त ऋद्धिसम्पन्न द्युतिमान् (बलवान, यशस्वी) तथा सौख्यम्पन्न सोम, यम, वरुण एवं वैश्रमण संज्ञक आभियोगिक देव निवास करते हैं।
उन आभियोग श्रेणियों के अति समतल, रमणीय भूमिभाग से वैताढ्य पर्वत के दोनों पार्श्व में दोनों ओर पाँच-पाँच योजन ऊँचे जाने पर वैताढ्य पर्वत का शिखर तल है। वह पूर्व-पश्चिम लम्बा तथा उत्तर दक्षिण चौड़ा है। उसकी चौड़ाई दस योजन है, लम्बाई पर्वत जितनी है।वैताढ्य पर्वत का शिखर तल एक पद्मवरवेदिका से तथा एक वनखंड से चारों ओर परिवेष्टित है। ।वैताढ्य पर्वत का शिखर तल का
भूमिभाग बहुत समतल तथा रमणीय है। वह मृदंग के ऊपर के भाग जैसा समतलहै, वैताढ्य पर्वत का शिखर तल का भूमिभाग
बहुविध पंचरंगी मणियों से उपशोभित है। वहाँस्थान-स्थान पर बावड़ियाँ एवं सरोवर हैं। वहाँ अनेक वाणव्यन्तर देव, देवियां निवास करते हैं, पूर्व-आचीर्ण पुण्यों का फलभोग करते हैं।
*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*अध्ययन*
*देव गति*
*23:7:21*
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दक्षिणार्ध भरतकूट पर जो देव है अत्यन्त ऋद्धिशाली, (द्युतिमान्, बलवान्, यशस्वी, सुखसम्पन्न एवंसौभाग्यशाली) एक पल्योपमस्थितिक देव रहता है। उन देवो केचार हजार सामानिक देव, अपने परिवार से परिवृत चार अग्रमहिषियाँ, तीन परिषद्, सात सेनाएं, सात सेनापति तथा सोलह हजार आत्मरक्षक देव हैं
दक्षिणार्ध भरतकूट की दक्षिणार्धा नामक राजधानी है, जहाँ वह अपने इस देव परिवार का तथा बहुत से अन्य देवों और देवियों का आधिपत्य करता हुआ सुखपूर्वक निवास करता है, विहार करता है सुख भोगता है। गौतम-
भगवन् ! दक्षिणार्ध भरतकूट नामक देव की दक्षिणार्धा नामक राजधानी कहाँ है ? गौतम ! मन्दर पर्वत के दक्षिण में तिरछे असंख्यात द्वीप और समुद्र लाँघकर जाने पर अन्य जम्बूद्वीप है। जम्बूद्वीप से
दक्षिण दिशा में बारह हजार योजन नीचे जाने पर दक्षिणार्ध भरतकूट देव की दक्षिणार्ध भरता नामक राजधानी है। दक्षिणार्ध
उसका वर्णन विजयदेव की राजधानी के सदृश जानना चाहिए। (दक्षिणार्धभरतकूट, खंडप्रपातकूट,मणिभद्रकूट, वैताध्याकूट, पूर्णभद्रकूट, तिमिसागुहकूट, उत्तरार्द्धभारतकूट,)सिद्धायतन जैसा है। ये क्रमशः पूर्व से पश्चिम की ओर हैं। इनके वर्णन की एक गाथा है
वैताढ्य पर्वत के मध्य में तीन कूट स्वर्णमय हैं, बाकी के सभी पर्वतकूट रत्नमय हैं।
वैताढ्य पर्वत भरत क्षेत्र को दक्षिणार्ध भरत तथा उत्तरार्ध भरत नामक दो भागों में विभक्त करता हुआ स्थित है। उस पर वैताढ्य पर्वत पर
वैताढ्यगिरिकुमार नामक परम ऋद्धिशाली, एक देव हैं वैताढ्यगिरिकुमार पल्योपमस्थितिक देव निवास करता है। इन कारणों से वह वैताढ्य पर्वत कहा जाता है।
*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*अध्ययन*
*देव गति*
*24:7:21*
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! इसके अतिरिक्त वैताढ्य पर्वत का नाम शाश्वत है। यह नाम कभी नहीं था, ऐसा नहीं है, यह कभी नहीं है, ऐसा भी नहीं और यह भी नहीं होगा, ऐसा भी नहीं है। यह था, यह है, यह होगा यह ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित एवं नित्य है ।
( ये सब शाश्वत के ही पर्यायवाची है )
मेरु पर्वत से उत्तर में एरण्यवत क्षेत्र के पास, महा हिमवन्त पर्वत जैसा ही रुक्मी रूपी पर्वत है, इसके मध्य में महापद्म द्रह जैसा ही 'महापुण्डरीक' द्रह है। इसमें रत्नमय कमल बुद्धि' देवी सपरिवार रहती है। इसमें से दो नदियां निकली हैं– (१) रूप्यकूला नदी,(२) 'नरकांता'
मेरुपर्वत से दक्षिण दिशा में महाहिमवान् पर्वत के पास, उत्तर दिशा में पूर्व पश्चिम ७३९०११७/ योजन (१७ कला), उत्तर दक्षिण में ८४२११/१९ योजन (१ कला) हरिवास क्षेत्र है। इसमें रहने वाले युगलियों का शरीर पन्ना के समान हरा है। यहां दूसरे आरे के समान रचना (हालत-अवस्था) सदैव रहती है। इसके मध्य 'विकटपाती' नामक वृत्त वैताढ्य पर्वत है।
मेरु के दक्षिण में, हरिवास क्षेत्र के निकट उत्तर में पृथ्वी से ४०० योजन ऊंचा, १०० योजन जमीन में गहरा, पूर्व-पश्चिम में ९४१५६२/१९ योजन (२ कला) लम्बा, उत्तर–दक्षिण में १६८४२ योजन चौड़ा माणिक के समान रक्तवर्ण वाला, 'निषध' पर्वत है। इसके ऊपर नौ कूट हैं और मध्य में ४००० योजन लम्बा, २००० योजन चौड़ा और १० योजन गहरा 'तिगिंछ' नामक द्रह है। इसके मध्य रत्नमय कमलों पर धृतिदेवी सपरिवार रहती है उस द्रह से दो नदियां निकलती हैं-हरिसलीला और सीतोदा
हरिसलीला और सीतोदा
की उत्तर दिशा में रम्यकवास क्षेत्र के पास, दक्षिण में बतलाए हुए निषेध पर्वत जितना, नीलम के समान वर्ण वाला नीलवन्त पर्वत है। इसके मध्य में तिगिंछ द्रह के बराबर केसरिद्रह है। उसमें रत्नमय कमलों पर कीर्त्तिदेवी सपरिवार निवास करती है। इस द्रह में से दो नदियां निकली हैं- नारीकान्ता और सीता ।
*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*अध्ययन*
*देव गति*
*26:7:21*
द्रहों के मध्य में रहने वाली भवनपति देवियों की आयु एक पल्योपम की है।
उन देवियों के अधीनस्थ देव⤵️
४००० सामानिक देव हैं, १६००० आत्मरक्षक देव हैं, ८००० आभ्यन्तर परिषद् के देव हैं,
१०००० मध्य परिषद् के देव हैं, १२००० बाह्य परिषद् के देव हैं, ७ अनीकनायक देव हैं,
४ महत्तरी देवियां हैं, १२०००००० आभियोग्य देव हैं।
इन देवो के सब सबके रहने के लिए अलग-अलग रत्नमय कमल हैं और १०८ भूषण रखने के कमल हैं। इस प्रकार सब १२०५०१२० कमल हैं जिन पर रत्नमय भवन हैं।
मेरुपर्वत के दक्षिण में, निषध पर्वत हैं उसके पास उत्तर में विद्युत्प्रभ और सीमनस गजदन्त पर्वत के मध्य में, १९८४२२/१८ योजन (२ कला) चौड़ा, ५३००० योजन लम्बा, अर्धचन्द्राकार देवकुरु क्षेत्र है। इसमें सदैव पहले आरे जैसी रचना रहती है। देवकुरु क्षेत्र में ८॥ योजन ऊंचा रत्नमय शाल्मली वृक्ष है। उसका अधिष्ठाता गरुड़ वेणुदेव है।
मेरुपर्वत के उत्तर में, नीलवन्त पर्वत के पास दक्षिण में, दोनों गजदन्त पर्वतों के बीच में, देवकुरु क्षेत्र के समान ही 'उत्तरकुरु' क्षेत्र है। वहां शाल्मलि वृक्ष के समान ही जम्बू-वृक्ष है। इस पर जंबूद्वीप का अधिष्ठाता महाऋद्धि का धारक अणढ़ी नामक देव रहता है।?"
जम्बूद्वीप के चारों द्वारों से पंचानवे-पंचानवे हजार योजन की दूरी पर लवणसमुद्र के भीतर वज्ररत्न के चार पाताल-कलश हैं। वे एक लाख योजन गहरे हैं। पचास हजार योजन बीच में चौड़े हैं, एक हजार योजन तलभाग में चौड़े हैं और एक हजार योजन मुखभाग में चौड़े हैं। उनका १०० योजन मोटा दल (ठीकरी) है। *कलश के नाम इस प्रकार हैं* ⤵️
(१) पूर्व में वलयमुख,
(२) दक्षिण में केतु,
(३) पश्चिम में यूप और
(४) उत्तर में ईश्वर,
प्रत्येक कलश के तीन-तीन काण्ड हैं।
*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*अध्ययन*
*देव गति*
*27:7:21*
प्रथम काण्ड में ३३३३३१/ योजन में वायु भरा है, दूसरे ३३३३३९१/३ योजन के काण्ड में वायु और पानी मिले हुए भरे हैं और तीसरे ३३३३३१/ योजन के काण्ड में सिर्फ पानी भरा है। इन चारों कलशों के मध्य चारों अन्तरों में वज्ररत्नमय छोटे कलशों की नौ-नौ पंक्तियां बनी हैं। । ये छोटे कलश १००० योजन गहरे, बीच में १००० योजन चौड़े, कलश तलभाग में तथा मुखभाग में १०० योजन चौड़े हैं। इनका दल १० योजन मोटा है। इन सब कलशों के भी तीन-तीन काण्ड हैं। । छोटे-बड़े सब कलश ७८८८ होते हैं। इन कलशों के नीचे के काण्ड की वायु जब गुंजायमान होती है, तब ऊपर के काण्ड से पानी उछलकर नीचे लिखी दकमाला से दो कोस ऊपर चढ़ जाता है। अष्टमी और पक्खी के दिन पानी ज्यादा उछलता है, जिससे समुद्र में भरती आती है। प्रत्येक बड़े कलश पर १७४००० नागकुमार जाति के देव ।
सोने के कुड़छे से पानी को दबाते हैं। इसलिए वे वेलंधर देव कहलाते हैं।
नागकुमार देव
इनके दबाने पर भी पानी रुकता नहीं है। उससे १६००० योजन ऊंची और १०००० योजन चौड़ी समुद्र के मध्य में दकमाला (पानी की दीवाल) है।
*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*अध्ययन*
*देव गति*
*28:7:21*
जम्बूद्वीप और धातकीखण्ड में स्थित तीर्थंकर, साधु, साध्वी श्रावक, श्राविका, सम्यग्दृष्टि आदि उत्तम पुरुषों के तप, संयम, धर्म, पुण्य के अतिशय से समुद्र का पानी कभी भी झड़क नहीं डालता है।जम्बूद्वीप के चारों द्वारों से दिशाओं और विदिशाओं में,आठ पर्वत है जो
बयालीस बयालीस हजार योजन पर १७२१ योजन ऊंचे, नीचे के भाग में १०२२ योजन चौड़े, ऊपर ४२४ योजन चौड़े हैं। इन 8,पर्वतों पर वेलंधर देवों के आवास है, जिनमें वे सपरिवार रहते हैं। इसी जगह १२५०० योजन का गौतम द्वीप है, जिसमें लवण-समुद्र का स्वामी सुस्थितदेव सपरिवार रहता है। इस गौतम द्वीप के चारों और ८८|| योजन से कुछ अधिक ऊँचे चन्द्र-सूर्य के द्वीप हैं। वहां ज्योतिषी देव क्रीड़ा करते हैं।
धातकीखण्ड द्वीप को चारों ओर से घेरे हुए, वलय के आकार का ८००००० योजन का चौड़ा, इस तीर से उस तीर तक एक सरीखा १००० योजन गहरा कालोदधि समुद्र है।
इसके पानी का स्वाद साधारण पानी जैसा है। धातकीखण्ड द्वीप दो गौतम द्वीप और १०८ चन्द्रमा सूर्य के द्वीप हैं ।
कुचसमुद्र इस प्रकार अगला- अगला, पूर्व-पूर्व वाले द्वीपसमुद्र को घेरे हुए असंख्यात द्वीप हैं और असंख्यात समुद्र हैं। सबका विस्तार दुगुना-दुगुना होता गया है। इन सबके अन्त में आधा रज्जु चौड़ा स्वयंभूरमण समुद्र है। उससे १२ योजन दूर चारों ओर अलोक है। ऊपर ज्योतिषचक्र से १९९१ योजन दूरी पर अलोक है।
*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*अध्ययन*
*देव गति*
*29:7:21*
*ज्योतिषचक्र*
जम्बूद्वीप के सुदर्शन मेरु के समीप की समतल भूमि से ७९० योजन ऊपर तारामण्डल है। आधा कोस लम्बे-चौड़े और पाव कोस ऊंचे तारा के विमान हैं।सबसे प्रथम ताराओं के विमान हैं, जो सबसे छोटे १/४ कोस (२५० मी.) प्रमाण हैं।
इन सभी विमानों की मोटाई अपने-अपने विमानों से आधी-आधी है।
तारादेव की जघन्य स्थिति पल्योपम का आठवां भाग एवं उत्कृष्ट पाव पल्योपम की है। तारादेवियों की स्थिति जघन्य पल्य के आठवें भाग और उत्कृष्ट पल्योपम के आठवें भाग से कुछ अधिक है। तारा के विमान को २००० देव उठाते हैं।
तारामण्डल से १० योजन ऊपर, एक योजन के ६१ भाग में से ४८ भाग लम्बा चौड़ा और २४ भाग ऊंचा, अंक रत्नमय सूर्यदेव का विमान है। सूर्य विमानवासी देवों की आयु जघन्य पाव पल्योपम की और उत्कृष्ट एक पल्योपम तथा एक हजार वर्ष की है। इनकी देवियों की आयु जघन्य पाव पल्योपम और उत्कृष्ट आधा पल्योपम एवं ५०० वर्ष की है। सूर्य के विमान को १६००० देव उठाते हैं।
सूर्यदेव के विमान से ८० योजन ऊपर एक योजन के ६१ भाग में से ५६ भाग लम्बा चौड़ा और २८ भाग ऊंचा, स्फटिक रत्नमय चन्द्रमा का विमान है।
इन सूर्य, चन्द्र के प्रत्येक विमानों को आभियोग्य जाति के देव अनेक रूप बनाकर खींचते है ,जो निम्नलिखित है⤵️
४००० देव विमान को
के पूर्व में सिंह के आकार को धारण कर,।
दक्षिण में ४००० देव हाथी के आकार को,
पश्चिम में ४००० देव बैल के आकार को
एवं उत्तर में ४००० देव घोड़े के आकार को धारण कर ऐसे १६००० देव सतत खींचते रहते हैं,
इसी प्रकार ग्रहों के ८०००, नक्षत्रों के ४००० एवं ताराओं के २००० वाहनजाति के देव होते हैं
२. चन्द्र, सूर्य आदि ज्योतिष्क देवों के वर्णन में योजन तथा कोस शाश्वत समझना चाहिए। ४००० अशाश्वत कोस का एक शाश्वत योजन होता है।
३. सूर्य विमान से एक योजन नीचे केतु का विमान है और चन्द्र विमान से एक योजन नीचे राहु का विमान है। ऐसा दिगम्बर सम्प्रदाय के चर्चाशतक ग्रंथ में उल्लेख है।
*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*अध्ययन*
*देव गति*
*30:7:21*
प्रकाश करने का ही स्वभाव होने से इन देवों की ज्योतिषी देव यह संज्ञा सार्थक है।
प्रकाशमान विमानों में रहने के कारण यह देव ज्योतिष कहलाते हैं। हमें जो सूर्य-चंद्र दिखते हैं, वे ज्योतिष्क देव नहीं, वे तो उनके विमान हैं। इन पर वे कभी-कभी क्रीडा करने आते हैं। उनका शाश्वतिक निवास पृथ्वी पर होता है। मनुष्य लोक में जो ज्योतिष्क है वे सदा भ्रमण किया करते हैं।
*वे पांच प्रकार के हैं-*
सूर्य, चंद्र, ग्रह, नक्षत्र और तारा।
दिगम्बर आम्नाय के मिथ्याखण्डनसूत्र में लिखा है-- चन्द्रमा का विमान सामान्यतः १८०० कोस चौड़ा है। सूर्य का विमान १६०० कोस चौड़ा है और ग्रह एवं नक्षत्रों के विमान जघन्य १२५ कोस और उत्कृष्ट ५०० कोस के चौड़े हैं। इसी प्रकार समतल भूमि से १६००००० कोस सूर्य का विमान और १७६००००
कोस चन्द्रमा का विमान है।इनकी
चन्द्र विमान को भी १६००० देव उठाते हैं।
चन्द्रविमान से ४ योजन ऊपर नक्षत्रमाला है। इनके विमान पांचों वर्णों के रत्नमय हैं। एक एक कोस के लम्बे-चौड़े और आधे कोस के ऊंचे हैं। नक्षत्र विमानों में रहने वाले देवों की आयु जघन्य पाव पल्योपम की तथा उत्कृष्ट आधे पल्योपम की है। इनकी देवियों की आयु जघन्य पाव पल्योपम की और उत्कृष्ट पाव पल्योपम से कुछ अधिक की है। नक्षत्र विमान को ४००० देव उठाते हैं।
नक्षत्रमाला से ४ योजन ऊपर ग्रहमाला है। ग्रहों के विमान भी पांचों वर्गों के रत्नमय हैं। ग्रह विमान दो कोस लम्बे-चौड़े और एक कोस ऊंचे हैं। ग्रह विमानवासी देवों की आयु पाव पल्योपम की और उत्कृष्ट एक पल्योपम की है। इनकी देवियों की जघन्य आयु पाव पल्योपम की और उत्कृष्ट आयु आधे पल्योपम की है। ग्रह के विमान को ८००० देव उठाते
*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*अध्ययन*
*देव गति*
*31:7:21*
राहु के विमान चन्द्र के नीचे एवं केतु के विमान सूर्य के नीचे रहते हैं उनसे ४ प्रमाणांगुल (२००० उत्सेधांगुल) प्रमाण ऊपर चन्द्र-सूर्य के विमान स्थित होकर गमन करते हैं। ये राहु-केतु के विमान ६-६ महीने में पूर्णिमा एवं अमावस्या को क्रम से चन्द्र एवं सूर्य के विमानों को ढँक देते हैं, इसे ही ग्रहण कहते हैं। गमन में चन्द्रमा सबसे मंद है। सूर्य उसकी अपेक्षा तीव्रगामी है ,औऱ सूर्य से शीघ्रतर ग्रह, इनसे शीघ्रतर नक्षत्र एवं नक्षत्रों से भी शीघ्रतर गति वाले तारागण हैं।
*सूर्यादि की किरणें*
ये विमान पृथ्वीकायिक (चमकीली धातु) से बने हुए अकृत्रिम हैं। सूर्य के बिम्ब में स्थित पृथ्वीकायिक जीव के आतप नामकर्म का उदय होने से उसकी किरणें उष्ण हैं। चन्द्र के बिम्ब में स्थित पृथ्वीकायिक के उद्योत नामकर्म का उदय होने से उनके मूल में शीतलता है और किरणें भी शीतल हैं, ऐसे ही तारा आदि के समझना चाहिए।
*विमान और जिनमंदिरों का प्रमाण*
सभी ज्योतिर्वासी देवों के विमानों के बीचों-बीच में एक-एक जिनमंदिर है और चारों ओर देवों के निवास स्थान बने हुए हैं। ये विमान एक राजु प्रमाण चौड़े इस मध्यलोक तक हैं अत: असंख्यात हैं, इसी निमित्त से जिनमंदिर भी असंख्यात ही हो जाते हैं। उनमें स्थित १०८-१०८ प्रतिमाओं को मेरा नमस्कार होवे।
*सूर्य का गमन क्षेत्र*-सूर्य का गमन क्षेत्र जम्बूद्वीप के भीतर १०८ योजन एवं लवण समुद्र में ३३० ४८/८१ योजन है अर्थात् समस्त गमन क्षेत्र ५१० ४८/८१ योजन (२०४३१४७ १३/६१) मील है। इतने प्रमाण में १८४ गलियाँ हैं। इन गलियों में दो सूर्य क्रमश: एक-एक गली में संचार करते हैं।
सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारा। इनके विमान चमकीले होने से इन्हें ज्योतिष्क देव कहते हैं, ये सभी विमान अर्धगोलक सदृश हैं। ये सभी देव मेरुपर्वत को ११२१ योजन (४४,८४००० मी.) छोड़कर नित्य ही प्रदक्षिणा के क्रम से भ्रमण करते हैं। इनमें चन्द्र, सूर्य और ग्रह ५१० ४८/८१ योजन प्रमाण गमन क्षेत्र में स्थित परिधियों के क्रम से पृथक्-पृथक् गमन करते हैं परन्तु नक्षत्र और तारे अपनी-अपनी परिधिरूप मार्ग में ही गमन करते हैं।
*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*अध्ययन*
*देव गति*
*2:8:21*
दक्षिणायन
उत्तरायण-जब सूर्य प्रथम गली में रहता है, तब श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन दक्षिणायन प्रारंभ होता है और जब वह अंतिम गली में पहुँचता है, तब उत्तरायण प्रारंभ होता है।
*एक मिनट में सूर्य का गमन*-एक मिनट में सूर्य का गमन ४४७६२३ ११/१८ मील प्रमाण है।
*चक्रवर्ती द्वारा सूर्य के जिनबिम्ब का दर्शन*-जब सूर्य पहली गली में आता है, तब अयोध्या नगरी के भीतर अपने भवन के ऊपर स्थित चक्रवर्ती सूर्य विमान में स्थित जिनबिम्ब का दर्शन कर लेते हैं। चक्रवर्ती की दृष्टि का विषय ४७२६३ ७/२० योजन (१८९०५३४००० मील) प्रमाण है।
*चन्द्र का गमन क्षेत्र*-सूर्य के इसी गमन क्षेत्र में चन्द्र की १५ गलियाँ हैं। इनमें वह प्रतिदिन एक-एक गली में गमन करता है।
*एक मिनट में चन्द्र का गमन*-एक मिनट में चन्द्रमा ४२२७९६ ३१/१६४७ मील तक गमन करता है।
*कृष्णपक्ष-शुक्लपक्ष*
जब चन्द्रबिम्ब पूर्ण दिखता है, तब पूर्णिमा होती है। राहु विमान चन्द्रविमान के नीचे गमन करता है।
राहु प्रतिदिन एक-एक मार्ग में चन्द्रबिम्ब की एक-एक कला को ढँकते हुए १५ दिन तक १५ कलाओं को ढँक लेता है, तब अंतिम दिन की १६ कला में १ कला शेष रह जाती है, उसी का नाम अमावस्या है। फिर वह राहु प्रतिपदा के दिन में प्रत्येक गली में १-१ कला को छोड़ते हुए पूर्णिमा को १५ कलाओं को छोड़ देते हैं, तब पूर्णिमा हो जाती है। इस प्रकार कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष का विभाग हो जाता है। एक चन्द्र का परिवार-इन ज्योतिषी देवों में चन्द्रमा इन्द्र है तथा सूर्य प्रतीन्द्र है अत: एक चन्द्रमा इन्द्र के एक सूर्य प्रतीन्द्र,
८८ ग्रह,
२८ नक्षत्र,
६६ हजार ९७५ कोड़ा-कोड़ी तारे ये सब परिवार देव हैं। जम्बूद्वीप में दो चन्द्रमा और दो सूर्य हैं।
दिन-रात्रि का विभाग-सूर्य के गमन से ही दिन-रात्रि का विभाग होता है। मानुषोत्तर पर्वत के अन्दर के ही सूर्य आदि ज्योतिषी देव गमन करते हैं। आगे के सभी ज्योतिष विमान स्थिर हैं
*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*अध्ययन*
*देव गति*
*3:8:21*
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चंद्र देवविमान के लिये कहा हैं*
जितनी रिद्धि अधिक उतनी गति(चाल) धीमी।*
नीचे से ऊपर देव की रिद्धि बढ़ती जाती है। भवनपति ,व्यंतर देवों से ज्योतिषी देवों की रिद्धि अधिक होती है।
ज्योतिषी में भी सबसे कम रिद्धि तारा देवों की, सर्वाधिक चंद्र देव की होती है,लेकिन चंद्र विमान की गति ज्योतिषी देवों में सबसे धीमी होती है और तारा देवों की अधिक।
इसीलिए ज्योतिषी देवों के लिए कहा गया है कि जिसकी रिद्धि अधिक उसकी गति धीमी।
अनुत्तर विमान और ग्रैवेयक की रिद्धि/गति/अवधि ज्ञान अधिक है लेकिन इनके विमान भी स्थिर है और ये देव गमना गमन नही करते हैं, क्योंकि गमन योग्य इन्हें कोई प्रयोजन नही होता है। तत्व विचारणा के समय कोई जिज्ञासा, शंका होने पर मनोवर्गणा के पुद्गल द्वारा तीर्थंकर जी प्रश्न पूछकर वही रहते हुए समाधान पा लेते हैं।
उपलब्ध ग्रन्थों के अनुसार संक्षेप में ज्योतिर्ष लोक का वर्णन करते हैं।
*सूर्य चन्द्रमा के विमान*
सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और तारे-ये सब ज्योतिष निकाय के देव हैं। आकाश में दिखने वाले सूर्य चन्द्रमा आदि इन्ही देवों के विमान है।
इन विमानों का आकार अर्द्ध गोलाकार होता है। अर्थात् जिस प्रकार गोले के दो खण्ड करके उन्हें उधर्वमुख रखा जावें, तो चौड़ाई का भाग ऊपर एवं गोलाई वाला भाग नीचे रहता है। इसी प्रकार उध्र्वमुख अर्धगोले के सदृश ज्योतिष देवों के विमान है। इन विमानों के नीचे का गोलाकार भाग ही हमारे द्वारा देखा जाता है विमानों में भी उद्योत नामकर्म का उदय जानना चाहिए।
*सूर्य चन्द्र की गणना*
सूर्य चन्द्र आदि एक - दो नहीं किन्तु असंख्यात (जिन्हे गिना न जा सके) हैं। एक राजू प्रमाण लम्बे और एक राजू प्रमाण चौड़े मध्यलोक में पूर्व पश्चिम धनोदधि वातवलय पर्यन्त सूर्यादि के विमान फैले हुए हैं।
लवण समुद्र में चार चन्द्रमा अपने परिवार विमानों सहित है। धातकी खण्ड में बारह (12) चन्द्रमा कालोदधि समुद्र में ब्यालीस चन्द्रमा अपने सूर्यादि के विमानों के परिवार सहित होते हैं। इसके आगे मानुषोत्तर पर्वत के परभाग वाले पुष्करार्ध द्वीप के प्रथम वलय में एक सौ चौबालीस (144) चन्द्रमा परिवार सहित है एवं इस द्वीप में अंतिम वलय में इनकी संख्या (288) दो सौ अट्ठासी हो जाती है। आगे इनकी संख्या बढ़ते-बढ़ते अन्तिम स्वयम्भू रमण समुद्र तक असंख्यात हो जाती है।
*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*सूर्य चन्द्रमा आदि का अवस्थान*
पृथ्वी तल से सात सौ नब्बे (790) योजन की ऊँचाई से लेकर नौ सौ (900) योजन तक की ऊँचाई में ज्योतिष मण्डल अवस्थित है। भूमि के समतल भाग से सात सौ नब्बे (790) योजन ऊपर, सबसे नीचे तारागण हैं, उनसे दस योजन ऊपर प्रतीन्द्र सूर्य और सूर्य से अस्सी योजन ऊपर इन्द्र चन्द्रमा भ्रमण करते हैं। चन्द्रमा से तीन योजन ऊपर नक्षत्र और नक्षत्र से तीन योजन ऊपर बुध के विमान स्थित हैं। बुध ग्रह से तीन योजन ऊपर शुक्र, शुक्र से तीन योजन ऊपर बृहस्पति, उससे चार योजन ऊपर मंगल एवं मंगल से चार योजन ऊपर शनि ग्रह भ्रमण करता है। इस प्रकार सम्पूर्ण ज्योतिष मण्डल एक सौ दस (110) योजन नभस्थल में स्थित है।
*सूर्य चन्द्रमा का गमन*
ढाई द्वीप और दो समुद्र सम्बन्धी ज्योतिषी देव (विमान) मेरू पर्वत से ग्यारह सौ इक्कीस (1121) योजन छोड़कर मेरू पर्वत की प्रदक्षिणा करते हुए निरन्तर गमन करते हैं। इनसे बाहय क्षेत्र के ज्योतिषी देव अवस्थित हैं।
1,चण्डकौशिक का जीव
ज्योतिष देव के भव से काल कर वह साधु का जीव कनखल आश्रम के कुलपति के पुत्र बने।
2) समवसरण में सुवर्णमय दूसरे गढ की रचना ज्योतिष देव करते हैं, जिसमें 5000 सीढियाँ होती हैं।
*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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