महत्वकांक्षा
सोचती हूँ, सूरज ने भी एक दिन ऊँचाई की चाह में
महत्वकांक्षा की सीढियों चढ़ी होगी
ऊंचाई की चाह में कितनी बार गिरते हैं इंसान
फिर किस -किस पर पैर रख का ऊपर चढ़ते है
क्या वहां पहुँच कर ऊँचे बहुत ऊँचे
वह खुश रहे पाते होंगे
शायद ,बिलकुल तनहा रह जाते होंगे
क्योंकि
क्योंकि
सूरज के सामने सिर तो सब झुकाते हैं
पर करीब कोई नहीं जाता
क्योंकि उसकी महत्वकांक्षा की तपिश सबको झुलसा देती हैं
दोस्ती विश्वास सबको मुरझा देती हैं
बचना ऐ दोस्त ,ऐसी ऊँचाइयों से
जो तुम्हें तन्हा छोड़ दें ,
भरी भीड़ में
भरी भीड़ में
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें