तिर्यंच पूरी

 *6:4:21*


*दूसरी गति*

*तिर्यंच*

जिन जीवों के शरीर की बनावट टेढ़ी-मेढ़ी हो, उन्हें तिर्यंच कहते है।

उपपाद जन्मवाले और मनुष्यों के सिवा शेष सब जीव तिर्यंचयोनि वाले हैं। औऱ 

जो मन, वचन और काय की कुटिलता को प्राप्त हैं, जिनकी आहारादि संज्ञाएँ सुव्यक्त हैं, जो निकृष्ट अज्ञानी हैं और जिनके अत्यधिक पाप की बहुलता पायी जाती हैं

तिरोभाव अर्थात् नीचे रहना-बोझा ढोने के लायक। कर्मोदय से जिनमें तिरोभाव प्राप्त हो वे तिर्यग्योनि हैं।


पशु, पक्षी, कीट, पतंग यहाँ तक कि वृक्ष, जल, पृथिवी, व निगोद जीव भी तिर्यंच कहलाते हैं। 

एकेंद्रिय से पंचेंद्रिय पर्यंत अनेक प्रकार के कुछ जलवासी कुछ थलवासी और कुछ आकाशचारी होते हैं। इनमें से असंज्ञी पर्यंत सब सम्मूर्छिम व मिथ्यादृष्टि होते हैं। परंतु संज्ञी तिर्यंच सम्यक्त्व व देशव्रत भी धारण कर सकते हैं।

अधिकतर तिर्यक्लोक ( मध्य लोक) में जो जीवन यापन करते हैं, उन्हें तिर्यंच कहते हैं। वैसे तिर्यंच गति के जीव पूरे लोक में व्याप्त हैं, किन्तु त्रस तिर्यंच अधिकतर तिर्यक्लोक में ही मिलते हैं।


*तिर्यंचों का निवास*

 तिर्यंचों का निवास मध्य लोक के सभी असंख्यात द्वीप समुद्रों में है। इतना विशेष है कि अढाई द्वीप से आगे के सभी समुद्रों में जल के अतिरिक्त अन्य कोई जीव नहीं पाये जाते और उन द्वीपों में विकलत्रय नहीं पाये जाते। अंतिम स्वयंभूरमण सागर में अवश्य संज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंच पाये जाते हैं। अत: यह सारा मध्यलोक तिर्यक लोक कहलाता है।

क्या ऊर्ध्व और अधःलोक में भी त्रस जीव (तिर्यंच) हैं?


: ऊर्ध्व व अधःलोक में त्रस जीव हैं। महाविदेह की दो विजय एक हजार योजन नीचे गई हुई हैं। वहां सभी तरह त्रस जीव हैं। ऊर्ध्व लोक में लवण समुद्र की बेल का पानी सोलह हजार योजन ऊपर तक जाता है। उसमें जलचर जीव होते है। नन्दनवन, पंडुक वन में पक्षी आदि त्रस जीव होते हैं।



जिन जीवों में तिर्यंच गति नाम कर्म का उदय होता है, वे तिर्यंच है। तिर्यंच आयु कर्म के उदय से ये तिर्यंच गति का आयुष्य भोगते हैं।



तिर्यंच गति में चारों ही गतियों के जीव आकर उत्पन्न हो सकते हैं और तिर्यंच  गति के जीव मरकर चारों गतियों में जा सकते हैं। जीव संख्या की दृष्टि से चारों ही गति में सबसे बड़ी गति तिर्यंच गति है। तिर्यंच गति के सूक्ष्म जीव समूचे लोक में व्याप्त है।


*तिर्यंच गति के भेद --* नौ भेद है -- 

पांच स्थावर-, तीन विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय।

*पांच स्थावर*, वे जीव, जो सुख-दुःख एवं अनुकुल-प्रतिकुल संयोगोमें इच्छानुसार एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं जा सकते हैं, वे स्थावर जीव कहलाते है ।


स्थावर जीवो के पांच भेद होते है ।

1. पृथ्वीकाय, 2. अप्काय, 3. तेउकाय, 4. वायुकाय, 5. वनस्पतिकाय ।

स्थावर जीवोका अपर नाम  

 एकेन्द्रिय हैं।

*तीन विकलेन्द्रिय*द्विन्द्रीय,  से लेकर चतुरिन्द्र तक के जीव।

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विस्तृत वर्णन करे  भेद के भेद करे तो

*तिर्यंच के ४८ भेद*

*इससे पहले कुछ  विशेष जानकारी*

किसे क्या कहते है

*सूक्ष्म जीव*

जिन जीवो का एक शरीर अथवा अनेक शरीर इकट्ठे होने पर भी चर्मचक्षु अथवा यंत्र के द्वारा दिखाई नहीं देते है, वे सूक्ष्म जीव कहलाते हैं । ये जीव संपूर्ण चौदह राजलोक में व्याप्त है । ये मनुष्य, तिर्यंच के हलन-चलन से, शस्त्र, अग्नि, जलादि से मृत्यु को प्राप्त नहीं होते हैं ।


*बादर जीव*

जिस एक जीव का एक शरीर हो अथवा अनेक जीवों के शरीर एकत्र हो, उन्हें चर्मचक्षुओं से अथवा किसी यंत्र के द्वारा देखा जा सके, वे बादर जीव कहलाते है। ये जीव शस्त्र से कट जाते हैं, इनका छेदन-भेदन होता है, अग्नि जला सकती है एवं पानी बहा सकता हैं । इनकी गति में रुकावट होती है और दूसरो की गति में रुकावट का कारण भी बनते हैं ।


*सांव्यवहारिक सूक्ष्म निगोद*


एक जीव जब समस्त कर्मों का क्षय करके मोक्ष को प्राप्त करता है तब एक जीव अव्यवहार राशि से व्यवहार राशि में आता हैं । वह जीव मृत्यु पाकर पुनः सूक्ष्म निगोद में उत्पन्न हो जाये तो वह सांव्यवहारिक जीव कहलाता है ।

*असांव्यहारिकसूक्ष्म निगोद*

वे जीव, जो अव्यवहार राशि से व्यवहार राशि में नहीं आये है, अनादिकाल से सूक्ष्म निगोद में ही हैं उन्हें असांव्यहारिक जीव कहते हैं ।

*पर्याप्ता जीव*

 जो जीव स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण कर चुका है, वह पर्याप्ता जीव कहलाता है । जैसे एकेन्द्रिय जीव चार पर्याप्तियाँ पूर्ण करने के पश्चात् पर्याप्ता कहलाता है ।

पर्याप्ता जीवोंकेदो भेदः- 1. करण पर्याप्ता -जिस जीवने स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण कर ली है, वह करण पर्याप्ता कहलाता

2. लब्धि पर्याप्ता-जिस जीवने स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण कर ली है या भविष्य में स्वयोग्य पर्याप्तियाँ अवश्यमेव पूर्ण करेगा, वह लब्धि पर्याप्ता कहलाता है ।


स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण करने से पूर्व जीव अपर्याप्ता कहलाता है । जैसे एकेन्द्रिय जीव चार पर्याप्तियाँ पूर्ण करने से पूर्व अपर्याप्ता कहलाता हैं ।

दो भेद

*1करण अपर्याप्ता*-जिस जीवने स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं की है, वह करण अपर्याप्ता कहलाता

*2लब्धि अपर्याप्ता*-जिस जीवने स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं की है और पूर्ण करने से पहले ही मर जायेगा, उसे लब्धि अपर्याप्ता कहते है ।


मन वाले जीव को *संज्ञी* कहते है । मन रहित जीव को *असंज्ञी* कहते है ।

*8:4:21*

जब कोइ तीर्थंकर भगवंत या केवली भगवंत समुद्घात् करते हैं तब उनके आत्म प्रदेश सम्पूर्ण चौदह राजलोक में व्याप्त हो जाते हैं । उस वक्त त्रस नाडी के बहार भी त्रस जीव की विद्यमानता होती हैं 


जिस त्रस जीवने त्रस नाडी के बाहर स्थावर नामकर्म का बंध कर लिया है, वह जीव जब मारणान्तिक समुद्घात करता है तब उसके आत्मप्रदेश त्रस नाडी के बाहर भी व्याप्त होने से त्रस नाडी के बाहर उसका अस्तित्व होता हैं


प्राण और पर्याप्ति में क्या अंतर है ?


जवाब-52 जिस शक्ति से जीव जीता है, उसे प्राण कहते है । जिस शक्ति से जीव आहार ग्रहण कर क्रमशः रस,शरीर और इन्द्रिय रुप में परिणत करता है एवं श्वासोच्छवास, भाषा, मन योग्य पुद्गल ग्रहण कर उन्हें उस रुप में परिवर्तित करता है, उसे पर्याप्ति कहते है ।




**48 भेद जाने*

(१) इंदी थावरकाय (पृथ्वीकाय) पृथ्वी आदि पांच एकेन्द्रिय (स्थावर काय) में जीवन है। यह जैन दर्शन की स्पष्ट अवधारणा है। इस क्षेत्र में विज्ञान शोध कर रहा है

जैन मतानुसार पृथ्वीकाय में निरंतर वृद्धि का क्रम चालू रहता है। यह अब विज्ञान से भी सिद्ध होता है। कई वैज्ञानिकों के प्रयोगों एवं मंतव्यों से यह बात प्रमाणित होती है। वैज्ञानिक एच.टी. वर्सटपिन के अनुसार न्युमिति के पर्वतों ने अभी अपनी शैशवावस्था ही पार की है। इंडोनेशिया के द्वीप समूह की भूमि ऊंची उठ रही है। शिशु के शरीर की भांति पर्वत भी धीरे-धीरे बढ़ रहे हैं । जैन दर्शन जहां इसके एक कण में असंख्य जीव मानता है वहां विज्ञान ने एक ग्राम मिट्टी के ढेले में कई लाख दर्जन सूक्ष्म जीवाणु माने हैं।


पर्याप्ता बादर पृथ्वीकाय आयु जघन्यअन्तर्मुहूर्त 

   उत्कृष्ट 22,000वर्ष

पृथ्वीकाय  के चार भेद

*(१) *सूक्ष्म,पृथ्वीकाय

 जो समस्त लोक काजल की कुप्पी के समान ठसाठस भरे हुए हैं, किन्तु अपनी दृष्टि के गोचर नहीं होते। 

 *2बादर पृथ्वीकाय,* जो लोक के देश-विभाग में रहते हैं, जिनमें से हम किसी किसी को देख सकते हैं और किसी-किसी को नहीं देख सकते। 

*इन दोनों के पर्याप्त एवं अपर्याप्त  से पृथ्वीकाय जीवों के चार भेद होते हैं।


इनमें से बादर पृथ्वीकाय के विशेष भेद इस प्रकार है:-

*(१) काली मिट्टी* की आयु 1,000 वर्ष

*(२) नीली मिट्टी*

*(३) लाल मिट्टी* की आयु 900 वर्ष

*(४) पीली मिट्टी* की आयु 600 वर्ष

*(५) सफेद मिट्टी*कीआयु 700 वर्ष

*(६) पाण्डु* और

*(७) गोपीचन्दन*

; इस तरह कोमल मिट्टी के सात प्रकार हैं।

9:4:21

औऱ२२ भेद कठिन पृथ्वी के हैं*

(१) खान की मिट्टी

(२) मुरड़

(३) रेत बालू

(४) पाषाण 19,000 वर्ष की आयु

(५) शिला

(६) नमक -नमक, खार (पापडखार, सोडा इ.) सचित्त क्षार हैं| कुंभार की या मिठाईवाले की भठ्ठी में पकाया हुआ नमक अचित्त बनता है और दीर्घकाल तक अचित्त रहता है| घर में कढ़ाई या तवेपर व्यवस्थित रीति से पूरा लाल होने तक सेंका हुआ नमक अचित्त बनता है, वह ७ दिनों तक अचित्त रहता है| १ कटोरी नमक २ कटोरी पानी डालकर पुनः नमक बनने तक उबालने से ६ मास तक अचित रहता है|
चूल्हे पर चड़ते हुए दाल-सब्जी में डाला हुआ नमक अचित हो जाता है, लेकिन अचार में, मसाले में, मुखवास में, या औषधादि में अगर चूल्हे पर संस्कार होनेवाला न हो तो अचित्त नमक का ही उपयोग करें|

3. श्रावक किसी भी खाद्य पदार्थ में भोजन करते समय उपर से (कच्चा) नमक न डालें| एकासना, बियासना, आयंबिल में सचित त्याग रहता है| अतः कच्चा नमक
12,000 वर्ष की आयु

(7) समुद्री क्षार 11,000 वर्ष की आयु

(८) लोहे की मिट्टी 14,000 वर्ष आयु

(९) तांबे की मिट्टी13,000 वर्ष आयु

(१०) तरुआ की मिट्टी

(११) शीशे की मिट्टी

(१२) चाँदी की मिट्टी 15,000 वर्ष आयु

(१३) सोने की मिट्टी16,000 वर्ष की आयु

(१४) वज्र हीरा 22,000 वर्ष की आयु

( १५) हलाल

(१६) हिंगलु

(१७) मैनसिल

(१८) रत्न

(१९) सुरमा

२०) प्रवालमूंगा

(२१)अभ्रक(भोडल)

और (२२) पारा।

ये २२ भेद कठिन पृथ्वी के हैं। ( *जिन हिताहित सोचने की विशेष संज्ञा नहीं होती वे असंज्ञी*

*और जिनमें वह संज्ञा होती* *है वे संज्ञी हैं*







*सब देव, सब नारी, गर्भज मनुष्य एवं तिर्यंच संज्ञी होते हैं। इनके सिवाय अन्य सब जीव असंज्ञी होते हैं।)*

इनमें से रत्न अठारह प्रकार के कहा हैं-

(१) गोमेद 

(२) रुचक

 ( ३) अंक 

( ४) स्फटिक

 (५) लोहिताक्ष 

(६) मरकत 

(७) मसलग 

(८) भुजमोचक 

(९) इन्द्रनील 

(१०)। चन्द्र नील 

(११) गेरुक 

(१२) हंसगर्भ 

(१३) श्लोक

 ( १४) चन्द्रप्रभ 

(१५) वेड़य 

(१६) जलकान्त 

(१७) सूर्यकान्त 

(१८) संबंधित रत्न। इस प्रकार पृथ्वीकाय के अनेक भेद जानने चाहिए।

मिट्टी, पत्थर, खनिज, धातुयें, रत्न इ. पृथ्वीकाय के शरीर हैं| गम- नागमन से, वाहन-व्यवहार से, अन्य शस्त्र संस्कार इत्यादि से पृथ्वीकाय अचित्त बनते हैं| जीवन व्यवहार में निरर्थक सचित्त पृथ्वीकाय की विराधना (हिंसा) न हो जाये उसकी सावधानी रखनी चाहिए

10:4:21


पृथ्वीकाय का स्वभाव कठोर है
पृथ्वीकाय का संस्थानचन्द्रमा या मसूर की दाल के आकार का है
पृथ्वीकाय की कुलकोड़ी  12 लाख की है
कुल कोड़ाकोड़ी किसे कहते हैं?
एक ही उत्पत्ति स्थान में अनेक प्रकार के जीवों के उत्पन्न होने को कुलकोड़ी कहते हैं।
जहाँ जीव उत्पन्न होता हैं , उसे जीवयोनी कहते हैं।
पृथ्वीकाय की जीवयोनी 
7लाख है


पृथ्वीकाय के जीवों की अवगाहनाअंगुल के असंख्यातवें भाग । होती हैं

पृथ्वीकाय के जीव
दक्षिण दिशा में (पोलार अधिक होने से )दिशा मे सबसे कम  है
पृथ्वीकाय के जीव  सबसे
पश्चिम दिशा में (गौतम द्वीप होने से )(बादर पृथ्वीकायिक जीवों की अपेक्षा से )अधिक हैं

पृथ्वीकाय के 
पृथ्वीकाय के 

पृथ्वीकायिक जीवों में 12 वा दण्डक पाया जाता हैं?

पृथ्वीकाय के जीव तीन आरो का स्पर्श करते हैं। जैसे
जिनकी 22,000 वर्ष की स्थिति हैं। जो जीव यदि चौथे आरे के अंत में जन्मा हो तो पूरा 5वाँ आरा 21,000 वर्ष की स्थिति का पूर्ण करे तो जीव तीन आरों का स्पर्श कर सकता हैं ।


सभी एकेन्द्रिय काय में ये विशेषता होती है

✳️इनजीवों में चार कषाय पाये जाते  हैं।

✳️ इनजीवों में  नपुंसक वेद पाया जाता हैं

✳️  यह जीव एक अन्तमुर्हत में जघन्य 1 बार उत्कृष्ट 12,824 बार  जीवन मरण कर सकते हैं

 ✳️इन जीवो में  4 लेश्याएँ पायी जाती हैं।
कृष्ण ,नील ,कापोत, तेजो )
 

 ✳️जीव उसी भव में मोक्ष नहीं जा सकता हैं।
 पर इन जीवों  में पर एक भवावतारी आत्माएं हो सकती हैं

   ✳️इन  जीवों में,3, औदारिक ,तैजस ,कार्मण ।  शरीर पाये जाते हैं?

✳️इन जीवों में  3 ( वेदनीय , कषाय , मारणान्तिक ) समुदघात पाये जाते हैं?

पृथ्वीकाय के जीवों में 

✳️4 ( आहार , शरीर , इन्द्रिय , श्वासोश्वास ) पर्याप्तियाँ पायी जाती हैं

✳️ इन जीवो मे मिथ्यादृष्टि  पायी जाती हैं?
पृथ्वीकाय के जीवो में अचक्षु दर्शन होता है। जो स्पर्श इन्द्रिय
से होता है


✳️इन जीव में 3- औदारिक , औदारिक मिश्र , कार्मण काय योग । पाये जाते हैं?

✳️इन जीव में3- मतिअज्ञान ,श्रुत अज्ञान , अचक्षु दर्शन   उपयोग पाये जाते हैं।
 ✳️ इनजीवों में 8 कर्म होते हैं औऱ
2 ध्यान - आर्त्तध्यान व रौद्रध्यान । होता हैं

✳️इन में 25 में से 24 ईर्यापथिकी को छोड़कर क्रियाएं पायी जा सकती हैं?
इन के जीव एक समय मेंजघन्य 1-2-3, उत्कृष्ट संख्याता , असंख्याता उत्पन्न हो सकते हैं। 

✳️इनका मिथ्यादृष्टि गुणस्थान हैं
✳️  इन मे जीवों चार प्राण । (स्पर्शनेन्द्रिय बल , काय बल प्राण , श्ववासोश्वास बल प्राण , आयुष्य बल प्राण ) प्राण पाये जाते हैं

ये अपनी जाति में असंख्यात बार उत्पन्न हो सकते हैं?

   जैसे पृथ्वीकाय के जीव मरकर पृथ्वीकाय में असंख्यात बार उत्पन्न हो सकते हैं?

✳️यह जीव कितने समय से आहार लेते है⤵️
 आभोग निवर्तित असंख्यात समय के अन्तमुर्हत से , आनाभोग निर्वर्तित  प्रतिसमय
✳️3-4-5-6 दिशा से 288 प्रकार का आहार लेते हैं ।

*✳️ इनमें आहार के 288 प्रकार  के आहार*
 द्रव्य से - अनन्तानन्त प्रदेशी स्कधों का । क्षेत्र से - असंख्यात आकाश प्रदेश अवगाढ़ का । काल से - एक समय ,दो समय ,तीन समय यावत् दस समय , संख्यात समय , असंख्यात समय की स्थिति का भाव से -वर्ण ,गंध,रस, स्पर्श वाले पुदगलों का आहार ग्रहण करते हैं । वर्ण की अपेक्षा -पांचो वर्ण वाले ,गंध की अपेक्षा -दो गंध वाले , रस की अपेक्षा पांचों रस वाले ,स्पर्श की अपेक्षा -आठों स्पर्श वाले पुदगलों का आहार ग्रहण करते हैं।
⚛  वर्ण से काले वर्ण के होते हैं तो एक गुण काले वर्ण के दो गुण काले वर्ण के , तीन गुण काले वर्ण के , यावत् 10 गुण काले वर्ण के ,संख्यात गुण काले वर्ण के , असंख्यात गुण काले वर्ण के और अंनतगुण काले वर्ण के पुदगलो का आहार करते हैं ।
⚛ काले वर्ण की तरह शेष चार वर्ण ,2 गंध ,5 रस ,8 स्पर्श के कहना ।इस तरह  वर्ण ,गंध रस और स्पर्श के (5+2+5+8=20 ) 20×13 =260 बोल हुए।
⚛ स्पृष्ट ,अवगाढ़ , अनन्तरावगाढ़ ,सुक्ष्म ,बादर , ऊँचे ,नीचे , तिरछे आदि मध्य , अंत , स्वविषयक (स्वोचित आहार योग्य ) आनुपुर्वी और नियम पूर्वक छह दिशा के ग्रहण करते हैं।
⚛ द्रव्य का -1 ,क्षेत्र का -1, काल के - 12 ,भाव के -260 और स्पृष्ट आदि 14 बोल । ये सब बोल मिलाकर (1+1+12+260+14 ) 288 प्रकार का आहार होता हैं

131(101 सम्मूच्छिम , अपर्याप्त मनुष्य ,30 पन्द्रह कर्मभुमि के पर्याप्त अपर्याप्त मनुष्य )।मनुष्यों के भेदवाले मनुष्य मरकर पृथ्वीकाय में उत्पन्न हो सकते हैं।

हैं?

✳️64 जाति के देवता ,25 भवनपति ,26 वाण्व्यन्तर , 10 ज्योतिषी , पहला -दूसरा देवलोक ,पहला किल्विषी ।तिर्यंच जाति में पैदा हो सकते हैं


✳️इन जीवो में समकित नहीं पायी जाती













*तिर्यंच*

2️⃣ बंभी थावरकाय (अप्काय) के चार भेद हैं-

(१) समस्त लोक में:

व्याप्त सूक्ष्म अपकाय 

(२) लोक के देश-विभाग में दृष्टिगोचर होने वाला बादर अप्काय; इन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से चार भेद होते हैं। बादर अप्काय के विशेष भेद ये हैं- 

(१) वर्षा का पानी

 (२) सदा रात्रि को बरसने वाला ढार का पानी 

(३) बारीक-बारीक बूंद बरसने वाला (मेघरवे का) पानी 

(४) धूमर (शबनम) का पानी (५) ओले 

(६) ओस

 (७) गर्म पानी (पृथ्वी से कई जगह गन्धक की खान आदि के प्रभाव से कुदरती गर्म पानी निकलता है, वह भी सचित्त होता है), 

(८) लवणसमुद्र का तथा कुंआ आदि का खारा पानी

 ( ९) खट्टा पानी 

(१०) दूध जैसा (क्षीर समुद्र का) पानी 

(११) वारुणी का मदिरा के समान पानी

 (१२) घी जैसा (घृतवर समुद्र का) पानी (१३) मीठा पानी (कालोदधि समुद्र का) , 

( १४) इक्षु सरीखा पानी (असंख्यात समुद्रों का पानी ऐसा होता है,) इत्यादि अनेक प्रकार का पानी है।

विशेष

केप्टन स्कोर्सबी   वैज्ञानिक ने पानी की एक बूंद में 36450 त्रस जीव यंत्र के द्वारा प्रामाणित किये

अप्काय सूक्ष्म-बादर अंगुलका असंख्यातवां भाग अंगुलका असंख्यातवां भाग


*३) सप्पि थावरकाय* (तेजस्काय)-अग्निकायिक जीव अर्थात् अग्नि ही जिनका शरीर हो जैसे-दीपक की लौ, अग्नि, बिजली आदि।

तेऊकाय का नाम  सप्पी थावर काय है। ठसा हुआ घी का घड़ा अग्नि के सामने रखने से पिघल जाता हैं इसलिए अथवा शिल्पी नामक देवता इसका मालिक होने से इसका नामसप्पी थावर काय नाम पड़ा ।

अग्निकाय 

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आचारांग वृत्ति में अग्नि को सचेतन कहा गया है, 

क्योंकि उसमे उचित आहार-ईधन से वृद्धि और 

ईधन के अभाव में हानि देखी जाती है |

आधुनिक वैज्ञानिको का भी यही मानना है कि 

प्राणवायु (आक्सीजन) के बिना अग्नि प्रज्वलित नहीं होती | 


नामकर्म की आतापक तथा उद्योतक प्रकृतियों के उदय से 

शेष जीवकायों की अपेक्षा तेजस्काय में विशेषता दृष्टिगोचर होती है | 

| अग्नि की एक छोटी-सी चिंगारी में पृथक-पृथक असंख्य जीव होते हैं |

तेउकाय की कुलकोड़ी  3 लाख हैं?


-सूई के भारे अथवा भालें की नोक के समान का संस्थान  हैं


 3 लाख तेउकाय की कुलकोड़ी हैं

 L

 बादर तेउकाय के जीवों का स्वस्थान मनुष्य लोक में ।

 हैं?

 बादर तेउकाय के जीव दिशा में सबसे  अधिक 

  पश्चिम दिशा में (सलिलावती विजय की अपेक्षा ) है

बादर तेउकाय के जीव दिशा में सबसे कम 

 दक्षिण व उत्तर दिशा में (भरत ऐरवत क्षेत्र सबसे छोटा है उनसे मनुष्यों के वास कम होने से )। है

 तेउकाय के जीव एक अन्तमुर्हत में 

जघन्य 1 बार उत्कृष्ट 12,824 बार  जन्म लेते हैं


तेउकाय के जीव   असन्नी  होतेहै

  अंगुल के असंख्यातवे भाग अवगाहनाहोती हैं

 तेउकाय के जीव में कौन सा संहनन सेवार्त

होता हैं?

तेउकाय के जीव एक समय में कितने उत्पन्न हो सकते हैं?

जघन्य 1-2-3 उत्कृष्ट संख्याता असंख्याता उत्पन्न होते हैं।

 

  2 गतियों  से आकर जीव तेउकाय में उत्पन्न हो सकते हैं


तिर्यच व मनुष्य से गतियों में आकर जीव तेउकाय में उत्पन्न हो सकते हैं

 तेउकाय के जीव मरकर तिर्यच मे ही उत्पन्न होते हैं।



तेउकाय के जीवों में 14 वां दण्डक  पाया जाता हैं?

आचारांग में दीर्घ लोक वनस्पति का शस्त्र तेउकाय को

बताया हैं?

 क्योकि वह छहकाय के जीवो को भस्म कर डालता हैं 

 तथा सब ओर से जीवों  का आघात करती है |

इसलिए तेउकाय को दीर्घ लोक शस्त्र  कहा गया हैं

इसका पहला भेद सूक्ष्म तेजस्काय है। इस काय के जीव सारे लोकाकाश में ठसाठस भरे हैं। सूक्ष्म तेजस्काय के दो भेद हैं-अपर्याप्त और पर्याप्त। दूसरा भेद बादर तेजस्काय है। बादर तेजस्काय लोक के देशविभाग (अमुक  भाग) में रहता है। तेउकाय के जीवों में कायस्थिति असंख्यात काल ।

 हैं?

इसके  भी अपर्याप्त और पर्याप्त—यह दो भाग हैं। बादर तेजस्काय के १४ प्रकार प्रधान हैं-

(१) भोभर की अग्नि 

(२) कुंभार के अलाव (अवा) की अग्नि 

(३) टूटती ज्वाला 

(४) अखण्ड ज्वाला

 (५) चकमक की अग्नि 

(६) बिजली की अग्नि 

(७) खिरने वाले तारे की अग्नि 

(८) आरणि की लकड़ी से पैदा होने वाली अग्नि

 (९) बांस की अग्नि 

(१०) काठ की अग्नि

 (११) सूर्यकान्त कांच की अग्नि 

(१२) दावानल की अग्नि

बांस आदि के आपस में टकराने घिसने से उत्पन्न होने वाली आग दावानल कहलाती है ।

 ( १३ ) उल्कापात (आकाश से गिरने वाली) अग्नि

 (१४) वडवानल- समुद्र पानी का शोषण करने वाली अग्नि। इस प्रकार अग्निकाय के मुख्य चार भाग हैं।


तेउकाय के जीव मरकर तेउकाय मेंअसंख्यात बार उत्पन्न हो सकते हैं।

तेउकाय सूक्ष्म-बादर अंगुलका असंख्यातवां भाग अंगुलका असंख्यातवां भाग

तेउकाय का वर्ण सफेद है वह  इसलिए है कि

 अग्नि का परिणाम सफेद होने से काले वर्ण की लड़की भी जलने पर तेउकाय का स्पर्श पाकर राख सफेद हो जाती हैं।

 तेउकाय का का स्वभाव  ऊष्ण हैं?

 




*(४) सुमति थावरकाय* (वायुकाय) के मुख्य चार भेद हैं-सूक्ष्म और बादर के पर्याप्त और अपर्याप्त। अर्थात् सूक्ष्म वायुकाय पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकाय अपर्याप्त, बादर वायुकाय अपर्याप्त, बादर वायुकाय पर्याप्त। सूक्ष्म वायु समस्त लोक में ठसाठस भरा है। बादर वायुकाय लोक के देशविभाग में होता है। बादर वायुकाय सोलह प्रकार का है - ( १) पूर्व का वायु

 (२) पश्चिम का वायु 

(३) उत्तर का वायु 

(४) दक्षिण का वायु

 (५) ऊँची दिशा का वायु

ऊँचाई की तरफ बहने वाली वायु उद्भ्रामक

 (६) नीचा दिशा का वायु 

जबकि नीचे की ओर प्रवाहित होने वाली वायु उत्कलिका कहलाती है ।


(७) तिरछी दिशा का वायु 

(८) विदिशा का वायु 

(९) भ्रमर वायु (चक्कर खाने वाला वायु) 

(१०) चारों कोनों फिरने वाला मण्डलवायु

वह वायु, जो गोल-गोल घूमती हुई बहती है, मंडलाकार(गोलाकार)वायु कहलाती है



 (११) गुंडल वायु-ऊँचा चढ़ने वाला 

(१२) गुंजन करने वाला वायु

 वह वायु, जो गूंजती हुई बहती है,


 (१३) झाड़ आदि को उखाड़ देने वाला झंझावायु, 

(१४) शुद्ध वायु (धीमा-धीमा चलने वाला), 

(१५) घन वायु घनवात का अर्थ गाढी वायु है 

 (१६) तनुवायऔर तनवात का अर्थ पतली वायु है ।


ये दो प्रकारके  नरक और स्वर्ग के नीचे हैं। इत्यादि अनेक प्रकार का वायु है। 


वाउकाय सूक्ष्म-बादर अंगुलका असंख्यातवां भाग अंगुलका असंख्यातवां भाग






*(5) पयवच्च थावरकाय* 

 का नाम  पयावच्च थावर काय है।इसका नाम

प्रजापति देवता मालिक होने के कारण ।

स्थावर में सबसे ज्यादा  जीव वनस्पति काया  में हैं।

वनस्पति में पृथक्-पृथक् अनेक जीव होते हैं। जब तक उनको विरोधी शस्त्र न लगे तब तक वह वनस्पति सचित्त होती है। विरोधी शस्त्र के योग से अचित्त हो जाती है। 


(वनस्पतिकाय) के मुख्य छह भेद हैं-(१) सर्वलोक में  व्याप्त वनस्पतिकाय 

(२) लोक के देश विभाग में रहने वाला बादर वनस्पतिकाय।

 बादर वनस्पतिकाय के दो भेद हैं-प्रत्येक शरीर (जिस वनस्पति के एक शरीर में एक ही जीव हो)  औऱ  साधारण शरीर (जिसके एक शरीर में अनन्त जीव हों।) इस प्रकार सूक्ष्म, प्रत्येक और साधारण के पर्याप्त और पर्याप्त के भेद से छह भेद हो जाते हैं। वनस्पतिकाय के विशेष भेद इस प्रकार हैं:

साधारण वनस्पतिकाय सूक्ष्म-बादर-1)  साधारण वनस्पतिकाय -- जहां एक शरीर में अनंत जीव हो, उसे साधारण वनस्पतियकाय कहते हैं। सभी प्रकार के कन्द-मूल साधारण वनस्पति हैं।

साधारण वनस्पतिकाय का वर्णन इस प्रकार है:-मूली, अदरख, आलू, पिण्डालु, कांदे, लहसुन, गाजर, शकरकन्द, सूरन कन्द, वज्रकंद, मूसली, खरसाणी, अमरवेल, थहर, हल्दी,  आदि



अंगुलका असंख्यातवां भाग अंगुलका असंख्यातवां भाग


6 प्रत्येक वनस्पतिकाय सूक्ष्म-बादर-प्रत्येक वनस्पतियकाय --  जिसके एक-एक शरीर में एक-एक जीव हों, उसे प्रत्येक वनस्पतियकाय कहते हैं। जैसे

पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वाउकाय और प्रत्येक वनस्पतिकाय के जीवों की स्वकाय स्थिति असंख्य उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी होती हैं जब की साधारण वनस्पतिकाय के जीवों की स्वकायस्थिति अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी होती है ।


प्रत्येक वनस्पतिकाय के फल, फुल, छाल, काष्ट, मुल, पत्ता, और बीज  ये सात रुप होते है ।



प्रत्येक वनस्पति के बारह भेद हैं


(१) गुच्छ 

२ वृक्ष

(३) गुल्म 

(४) लता 

(५) वल्ली

 (६) तृण 

(७) वल्लया 

(८) पव्वया 

९) कुहण

 (१०) जलवृक्ष

 (११) औषधि और 

( १२) हरित काय। 


20:4

इनमें से वृक्ष के दो भेद -

 1एगाट्ठिया वृक्ष    -  एक बीज वाले और बहुत बीजों वाले। हरड़, बहेड़ा, आंवला, अरीठा, भिलावा, आसापालव, आम, जामुन, महुवा, खिरनी आदि के वृक्ष एक बीज वाले (गुठली वाले) होते हैंएगट्ठिया वृक्ष के मुल ,कंद स्कंध , शाखा ,छाल प्रवाल में कितने जीव पाये जाते हैं?

 असंख्यात जीव ।

  एगट्ठिया वृक्ष के फल में 1 बीज होते हैं?

बहुबीजक वृक्ष-जिन वृक्षों के फलों में अनेक बीज होजैसे

। जामफल, सीताफल, अनार, बिल्वफल, कपित्थ (कविठ-कैथ) कैर, नींबू, तेंदू (टीमरू) आदि बहुवीज वाले हैं। बहुबीजक वृक्षों के मुल ,कंद ,  स्कंध , शाखा ,छाल , प्रवाल में कितने जीव पाये जाते हैं?

 असंख्यात जीव ।

3080  बहुबीजक वृक्षों के पत्तों  मे कितने  जीव होते  हैं?

 एक जीव ।

3081 बहुबीजक वृक्षों के पत्तों के आश्रित कितने जीव रहते हैं?

 अनेक जीव ।

3082 बहुबीजक वृक्ष के फूल और फल में कितने जीव होते हैं?

 अनेक जीव ।

गुच्छ

रिंगनी, जवासा, तुलसी, पुंवाड़ा आदि पौधे गुच्छ कहलाते है।

 *गुल्म*

सोजाई, जुही, केतकी, केवड़ा, गुलाब आदि अनेक प्रकार के फूलों के झाड़ गुल्म कहलाते हैं। 

झाड़ लता

नागलता, अशोकलता, पद्मलता आदि अनेक प्रकार के जमीन पर फैलकर ऊंचे जाने वाले झाड़ लता कहलाते हैं।

बेलें वल्ली 

 तोरई, ककड़ी, करेला, किंकोड़ा, तूंबा, खरबूजा आदि अनेक प्रकार बेलें वल्ली कहलाती हैं।

 तृण

घास, दूब, डाभ आदि घास को तृण कहते हैं।

वल्लया-वलयाकार अर्थात ढोल के आकार वाले वृक्ष ।

 सुपारी, खजूर, दालचीनी, तमाल, नारियल, इलायची, लौंग, ताड़, केले आदि अनेक प्रकार के वृक्ष, जो ऊपर जाकर गोलाकार बनते हैं, वल्लया कहलाते हैं।

पव्वया

 ईख, एरंड, बेंत, बांस आदि जिनके मध्य में गांठे हों, पव्वया कहलाते है।

कुहाण

 वेल्ली के वेले, कुत्ते के टोप आदि, जमीन फोड़कर निकलने वाले 'कुहाण' कहलाते हैं।

जलवृक्ष-  यह जलरूह वनस्पति भी कहलाती हैं।

 कमल,सिंघाड़ा, सेवार आदि पानी में उत्पन्न होने वाली वनस्पति को जलवृक्ष कहते हैं 

21:4

 १४ प्रकार के लहा धान्य कहलाते

[१] धम [गेहूं] [२] जौ [३] जवार [४] बाजरी [५] शालि [६] वरटी [७] राल [८] कांगनी [९] कोद्रव [१०] वरी [११] मणची [१२] मकई [१३] कुरी [१४] अलसी। उनकी दाल न होने से ये १४ प्रकार के लहा धान्य कहलाते हैं

दस प्रकार के धान्य कठोल 

 और [१] तुअर (२) मौंठ (३) उड़द (४) मूंग (५) चंवला (६) वटरा (७) तेवड़ा (८) कुलथी (९) मसूर और (१०) चना; ये दस प्रकार के धान्य कठोल कहलाते हैं, क्योंकि इनकी दाल होती है। 

चौबीस प्रकार का धान्य जैसे - गेहुँ , जौ ,मुँग , उड़द आदि । १४ प्रकार के लहा धान्य कहलाते+दस प्रकार के धान्य कठोल =24

ये सब २४ प्रकार धान्य औषधि कहलाते हैं।

वनस्पति हरितकाय -वनस्पतिकायिक जीवों की १४ लाख योनियाँ हैं।

 तथा मूली की भाजी, मैथी की भाजी, बथुवे की भाजी,  चन्दलाई  की भाजी आदि अनेक प्रकार की भाजी रूप वनस्पति हरितकाय कहलाती  है।

वनस्पतिकायिक जीवों  के उत्पन्न होने के मुख्यतः आठ प्रकार माने गए हैं :- 

(1) अग्र-बीज -- वह वनस्पति, जिसका सिरा ही बीज हो। जैसे -- कोरंट ( कट्ठसरिया) का वृक्ष आदि।2) मूल-बीज -- वह वनस्पति, जिसका मूल ही बीज हो। जैसे -- कंद आदि।

(3)  पर्व-बीज -- वह वनस्पति, जिसकी गांठें ही बीज हो। जैसे -- ईख आदि।

(4) स्कंध बीज -- वह वनस्पति, जिसके स्कन्ध ही बीज हो। जैसे -- थूअर आदि।

5) बीज-रूह --  वह वनस्पति, जो बीज से उत्पन्न हो।  जैसे -- गेहूं, जौ आदि।

6)  सम्मूर्च्छिम -- वह वनस्पति, जो स्वयमेव पैदा होती है। जैसे -- अंकुर आदि।(7) तृण -- तृणादि, घास।

8)  लता -- चंपा, चमेली, ककड़ी, तरबूज, खरबूज आदि की बेलें।

संतरा, केला आदि जब तब वृक्ष में लगे हैं तब तक जीव है उससे अलग होने के बाद नहीं।



अंगुलका असंख्यातवां भाग एक हजार योजन से कुछ अधिक




22:4:21

शब्द ग्रहण शक्ति – कंदल, कुंडल आदि वनस्पतियाँ मेघ गर्जनासे पल्लवित होती है ।


2.आश्रय ग्रहण शक्ति – बेल, लताएँ, दीवार वृक्ष आदिका सहारा लेकर वृद्धिको प्राप्त करती है ।


3.सुगंध ग्रहण शक्ति – कुछ वनस्पतियाँ सुगंध पाकर जल्दी पल्लवित होती है । 4.रस ग्रहण शक्ति – उख आदि वनस्पतियाँ भूमि से रस ग्रहण करती है ।


5.स्पर्श ग्रहण शक्ति – कुछ वनस्पतियाँ स्पर्श पाकर फैलती है एवं कुछ वनस्पतियाँ संकुचित्त होती है ।


6.निद्रा एवं जागृति – चंद्रमुखी फुल चंद्र खिलने के साथ खिलते है उसके अभाव में संकुचित हो जाते है सुर्यमुखी फुल सुर्य खिलने के साथ खिलते है सुर्यास्त के बाद सिमट जाते है ।


7.राग – पायल की रुनझुन की मधुर अवाज सुनकर रागात्मक दशामें अशोक, बकुल, कटहल, आदि वृक्षो के फुल खिल उठते है ।


8.संगीत – मधुर सुरावलीयाँ सुनकर कई वृक्षो के फुल जल्दी पल्लवित पुष्टित और सुरभित होते है ।


9.लोभ – सफेद आक, पलास, बिल्लि, आदिकी जडे भूमि में दबे हुए धनपर फैल कर रहती है ।


10.लाज - छुईमुई आदी कई वनस्पतियाँ स्पर्श पाकर लाज भय से संकुचित हो जाती है ।


11.मैथुन – अनेक वनस्पतियाँ आलिंगन, चुम्बन, कामुक हाव भाव एवं कटाक्ष से जल्दी फलीभूत होती है, पपीते आदी के वृक्ष नर और मादा साथ साथ हो तो ही पल्लवित होते हैं ।


12.क्रोध – कोकनद का वृक्ष क्रोध में हुंकार की आवाज करता है ।


13.मान – अनेक वृक्षों में अभिमान का भाव भी पाया जाता है ।


14.आहार संज्ञा – वृक्षों,पौधो को जब तक आहार पानी मिलता है तब तक जीवीत रहते है आहार पानी के अभाव में सूखकर मर जाते है ।


15.शाकाहारी, मांसाहारी – वनस्पतिकायिक जीवों में कुछ वनस्पतियाँ पानी, खाद आदि का आहार करती हैं और कुछ वनस्पतियाँ मनुष्य, जलचर, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय के मांस, रुधिर का भक्षण करती है । सनड्रयू और वीनस फ्लाइट्रेप आदि वनस्पतियाँ संपातिम ( उडने वाले ) जीवो का भक्षण करती हैं ।


16.आकर्षण – कई वनस्पतियाँ फैल कर पास में गुजरते हुए मनुष्य, तिर्यंच आदि को अपने कसे हुए शिंकजेमें फंसा देती है ।


17.माया – कई लताएँ अपने फलों को पत्तों के नीचे दबाकर रखती हैं और फल रहित होनेका दिखावा करती हैं ।


18.जन्म – वनस्पतिकाय बोने पर जन्म को प्राप्त करती है वर्षाकाल में चारो तरफ वनस्पति उग आती है ।


19.मृत्यु – वनस्पतियाँ हिमपाल, शीत एवं उष्ण की अधिकता, आहार पानी की कमी, रोग, भय, अन्य जीवो के प्रहार, आयुष्य समाप्ति पर मृत्यु को प्राप्त करती हैं ।


20.वृद्धि – वनस्पति वृद्धि को भी प्राप्त करती है बीज धीरे-धीरे वृद्धि को प्राप्त होता है वटवृक्ष का स्वरुप धारण करने में कई वर्ष व्यतीत हो जाते है ।


21.रोग – अन्य जीवों की भाँति वनस्पति भी रोगग्रस्त होती है । पानी, हवा, धूप, आहार आदि की अल्पता-अधिकता कारण रोग होते है और पुनःस्वयं औषधोपचार प्राप्त कर स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर लेती है ।


23:4:21


यह सब प्रत्येक वनस्पति के भेद हैं। प्रत्येक वनस्पति में उत्पत्ति  के समय  अनन्तजीव पाए जाते हैं, जब तक वह हरी रहे तब तक असंख्यात जीव पाए जाते हैं और पकने के बाद जितने बीज होते हैं उतने ही जीव या संख्यात जीव रहते हैं।



आदि वनस्पति हैं।

?




 सुई की नौक पर समा जाने वाले साधारण वनस्पति के छोटे से टुकड़े में, निगोदिया जीवों के रहने की असंख्यात श्रेणियां (बड़े शहर में होने वाली मकानों की कतार के समान) हैं प्रत्येक श्रेणी में घरों की मंजिलों के समान असंख्यात प्रतर हैं। जिस प्रकार मंजिलों में कमरे होते हैं उसी प्रकार प्रत्येक प्रतर में असंख्यात गोले हैं। और जैसे कमरों में कोठरियां होती हैं, उसी प्रकार प्रत्येक गोले में असंख्यात शरीर हैं और जैसे कोठरियों में मनुष्य रहते है उसी प्रकार प्रत्येक शरीर मे अनन्तानन्त जीव रहते है

जैन दर्शन में वनस्पति को भी एकेंद्रिय जीव का शरीर माना गया है । वह दो प्रकार का है−प्रत्येक व साधारण । एक जीव के शरीर को प्रत्येक और अनंतों जीवों के साझले शरीर को साधारण कहते हैं, क्योंकि उस शरीर में उन अनंतों जीवों का जन्म-मरण,श्वासोच्छ्वास आदि साधारण रूप से अर्थात् एक साथ समान रूप से होता है । एक ही शरीर में अनंतों बसते हैं, इसलिए इस शरीर को निगोद कहते हैं, उपचार से उसमें बसने वाले जीवों को भी निगोद कहते हैं । वह निगोद भी दो प्रकार का है नित्य व इतर निगोद । जो अनादि काल से आज तक निगोद पर्याय से निकला ही नहीं, वह नित्य निगोद है  और त्रसस्थावर आदि अन्य पर्यायों में घूमकर पापोदयवश पुनः-पुनः निगोद को प्राप्त होने वाले इतर निगोद हैं । प्रत्येक शरीर बादर या स्थूल ही होता है पर साधारण बादर व सूक्ष्म दोनों प्रकार का ।

नित्य खाने-पीने के काम में आने वाली वनस्पति प्रत्येक शरीर है । वह दो प्रकार है−अप्रतिष्ठित और सप्रतिष्ठित । एक ही जीव के शरीर वाली वनस्पति अप्रतिष्ठित है और असंख्यात साधारण शरीरों के समवाय से निष्पन्न वनस्पति सप्रतिष्ठित है । तहाँ एक-एक वनस्पति के स्कंध में एक रस होकर असंख्यात साधारण शरीर होते हैं और एक-एक उस साधारण शरीर में अनंतानंत निगोद जीव वास करते हैं । सूक्ष्म साधारण शरीर या निगोद जीव लोक में सर्वत्र ठसाठस भरे हुए हैं, पर सूक्ष्म होने से हमारे ज्ञान के विषय नहीं हैं । संतरा, आमआदि अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति हैं और आलू, गाजर, मूली आदि सप्रतिष्ठित प्रत्येक । अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति पत्ते, फल, फूल आदि भी अत्यंत कचिया अवस्था में सप्रतिष्ठित प्रत्येक होते हैं−जैसे कौंपल । पीछे पक जाने पर अप्रतिष्ठित हो जाते हैं । अनंत जीवों की साझली काय होने से सप्रतिष्ठित प्रत्येक को अनंतकायिक भी कहते हैं । इस जाति की सर्व वनस्पति को यहाँ अभक्ष्य स्वीकार किया गया है ।

24:4

निगोद का अर्थ क्या है ? 


निगोद शरीरों की कुल संख्या किंतनी है ? 


निगोद शब्द की व्युत्पत्ति - नि = नियंता, गो = भूमि, क्षेत्र, निवास, द = ददाति । अनन्तानन्त जीवानां ददाति इति निगोद । 


नि = अनन्तपना है निश्चित जिनंका ऐसे जीवों को, गो = एक ही क्षेत्र, द = देता है उसे निगोद कहते हैं । अर्थात् अनन्त जीवों को एक निवास दे उसको निगोद कहते हैं । निगोद ही शरीर है जिनका उनको निगोद शरीर कहते हैं । अथवा नि = निरन्तर, गो = भूमि अर्थात् अनन्त भव । द = देने का स्थान । उस योनि को निगोद कहते हैं । ( गोमटसार जीवकाण्ड गाथा १९१,४१५,४२९ ) 


निगोद का दूसरा पर्यायवाची नाम साधारण भी है । जिस जीव ने एक शरीर में स्थित बहुत जीवों के साथ सुख दुःख रुप कर्मफल के अनुभव करने योग्य कर्म उपार्जित किया है, वह जीव साधारण शरीर है । अथवा साधारण नामकर्म के उदय से युक्त वनस्पति कायिक जीव साधारण शरीर है ऐसा कथन करना चाहिए । साधारण जीवों का साधारण ही आहार होता है और साधारण ही श्वासोच्छवास ग्रहण होता है । इस प्रकार आगम में साधारण जीवों का लक्षण कहा है । 


साधारण जीवों में जहाँ एक जीव मरण करता है वहाँ पर अनन्त जीवों का मरण होता है और जहाँ पर एक जीव उत्पन्न होता है वहाँ पर अनन्त जीवों का उत्पाद होता है । संख्यात, असंख्यात या एक जीव नहीं मरते किन्तु निश्चित से एक शरीर में निगोद राशि के अनन्त जीव ही मरते हैं । और जिस निगोद शरीर में एक जीव उत्पन्न होता है उस शरीर में नियम से अनन्त निगोद जीवों की उत्पत्ति होती है । एक, संख्यात, असंख्यात जीव एक निगोद शरीर में एक समय में उत्पन्न नहीं होते किन्तु अनन्त जीव ही उत्पन्न होते हैं । वे एक बन्धन बद्ध होकर ही उत्पन्न होते हैं । जो साधारण शरीर जीव हैं वे नियम से वनस्पतिकायिक होते हैं । अवशेष जीव प्रत्येक शरीर है । 


अब निगोद शरीरों की कुल संख्या कितनी है सो कहते हैं । सामान्यपनें समस्त निगोद शरीरों की संख्या असंख्यातासंख्यात लोक प्रमाण है ।


 विशेषपने निगोद शरीर दो प्रकार के होते हैं - (१) बादर निगोद शरीर (२) सूक्ष्म निगोद शरीर । इनमें से बादर निगोद शरीर भी असंख्यातासंख्यात लोक प्रमाण है तथा सूक्ष्म निगोद शरीरों की संख्या भी असंख्यातासंख्यात लोक प्रमाण है । फिर भी बादर निगोद शरीरों से सूक्ष्म निगोद शरीरों की संख्या असंख्यात लोक गुणी ज़्यादा है । दोनों मिलकर भी असंख्यात लोक प्रमाण है । विशेषपनें देखे तो निगोद जीवों को छोड़कर समस्त स्थावर जीवों ( अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति, सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति, अग्निकायिक, पृथ्वीकायिक, जलकायिक, वायुकायिक ) से असंख्यात लोक गुणी ज़्यादा संख्या स्थिति बन्ध के कारण भूत परिणामों की हैं । स्थिति बन्ध के कारणभूत परिणामों से असंख्यात लोक गुणी ज़्यादा अनुभाग बन्ध के कारणभूत परिणामों की है और अनुभाग बन्ध के कारणभूत परिणामों से भी असंख्यात लोक गुणी ज़्यादा निगोद शरीरों की संख्या आती है । जोकि महा असंख्यातासंख्यात लोक प्रमाण है । एक छोटे से जमीकन्द आलु वगैरहा के टुकड़े में असंख्यात लोक प्रमाण बादर निगोद शरीरों के स्कन्ध हैं । प्रत्येक स्कन्ध में असंख्यात लोक प्रमाण अण्डर है । प्रत्येक अण्डर में असंख्यात लोकप्रमाण आवास हैं और प्रत्येक आवास में असंख्यात लोकप्रमाण पुलवी हैं और प्रत्येक पुलवी में असंख्यात लोकप्रमाण निगोद शरीर हैं । अर्थात् पाँच जगह असंख्यात लोक प्रमाण असंख्यात लोक प्रमाण, राशि रखकर उनको आपस में गुणा करने पर जो महा असंख्यातासंख्यात लोक प्रमाण संख्या आती है उतने तो बादर निगोद शरीर है । 

इस प्रकार निगोदिया जीवों के पांच अण्डर कहे जाते हैं।



सातवीं नरक पृथ्वी के नीचे एक राजू ऊँचे क्षेत्र में जो निगोद जीवों के शरीर ( स्कन्ध, अण्डर, आवास, पुलवी ) है वे सब बादर निगोद के शरीर है । इससे अर्थात् बादर निगोद शरीरों से असंख्यात लोक गुणे सूक्ष्म निगोद शरीर हैं जो भी तीनों लोकों में ठसाठस, घड़े में घीवत् - भरे हुए हैं । और विशेषपने निगोद शरीरों की संख्या जाननी हो तो चौदह धाराओं में से द्विरुप घनाघन धारा का अध्ययन करना चाहिए । यहाँ विस्तार के भय से नहीं दे रहे हैं । 


आध्यात्मिक पंडित श्री बनारसीदासजी ने बनारसी विलास नामक ग्रन्थ में पृष्ठ ११६ पर दोहा न. ९७-९८ में निगोद जीवों का वर्णन करते हुए कहा है- 


एक निगोद शरीर में ऐते जीव बखान ।

तीन काल के सिद्ध सब एक अंश परमान ।।९७।।


अर्थ- एक निगोद शरीर में इतने जीव हैं कि तीन काल में मोक्ष जाने वाले जीव उस एक निगोद शरीर का एक अंश अर्थात् अनन्तवाँ भाग होगा अर्थात् तीन काल में जितने सिद्ध होंगे वे सब एक निगोद शरीर का अनन्तवाँ भाग होगा । 


क्या तीनों काल में भी एक निगोद शरीर के जीवों की मुक्ति नहीं होगी ? 


     तीनों कालों में भी एक निगोद शरीर के जीवों की मुक्ति नहीं होगी । एक निगोद शरीर में अक्षय अनन्तानन्त जीव हैं । यदि एक निगोद शरीर के जीवों की मुक्ति हो जावे तो एक दिन ऐसा भी आ सकता है कि सभी निगोदिया जीवों की मुक्ति अवश्य हो जायेगी क्योंकि निगोद शरीरों की कुल संख्या असंख्यात लोक प्रमाण ही है । जबकि ऐसा सिद्धान्त है कि छह महीना और आठ समय में ६०८ जीव मोक्ष जाते रहेंगे । यह क्रम कभी बन्द नहीं होगा । अत: एक निगोद शरीर के जीवों की मुक्ति कभी नहीं होगी । अब अगले दोहे में बताते हैं कि यह एक अंश अर्थात् अनन्तवाँ भाग भी कितना होगा - 


बढ़े न सिद्ध अनन्तता, घटैन राशि निगोद ।

जैसी की तैसी रहे, यह जिन वचन विनोद ।।


अर्थ- छह महीना और आठ समय में ६०८ जीव अनादि काल से मोक्ष जा रहे हैं और भविष्य काल में हमेशा जाते रहेंगे फिर भी सिद्धों की संख्या बढेगी नहीं और एक निगोद शरीर के जीवों में से संख्या घटेगी नहीं । जितनी की जितनी रहेगी और सिद्ध महाराज भी जितने के जितने रहेंगे । ऐसा जिनवचन है । अर्थात् यह एक आश्चर्य है ।

 २. पृथ्वी, पानी, अग्नि, और वायु के जीव १२८२४ जन्म-मरण करते हैं, प्रत्येक वनस्पतिकाय के ३२०००। द्वीन्द्रिय के ८०, त्रीन्द्रिय के ६० चौइन्द्रिय के ४० असंज्ञी पंचेन्द्रिय के २४ और संज्ञी पंचेन्द्रिय के जीव एक जन्म-मरण करते हैं।




निगोद

जो अनन्तो जीवो को एक निवास दे उसे निगोद कहते है ।  आशय यह है की एक ही साधारण शरीर में जहा अनंतो जीव निवास करते है वह निगोद है।  

इस प्रकार निगोदिया जीवों के पांच अण्डर कहे जाते हैं।


.निगोद के जीवो के दो भेद है 1.व्यवहार राशि वाले 2. अव्यवहार राशि वाले

व्यवहार राशि के जीव 

जिन जीवात्माओं ने निगोद को छोडकर एक बार भी बादर पर्याय प्राप्त की हो वे व्यवहार राशि के जीव कहलाते हैं ।

अव्यवहार राशि के जीव

 वे जीव, जो अनन्तकाल-अनादिकाल से निगोद में ही स्थित है, एक बार भी बादरकायिक स्थिति को प्राप्त नही किया है वे अव्यवहार राशि के जीव कहलाते है।

 जब एक जीवात्मा सकल कर्मों का क्षय करके सिद्ध पद को प्राप्त करता है तब एक जीवात्मा अव्यवहार राशि में से व्यवहार राशि में आता हैं ।


जब एक जीवात्मा सकल कर्मों का क्षय करके सिद्ध पद को प्राप्त करता है तब एक जीवात्मा अव्यवहार राशि में से व्यवहार राशि में आता हैं ।

 नित्य निगोद

.यह जीव राशि जहा के जीवों ने आदिकाल से अब तक त्रस पर्याय नही पाई उन्हे नित्य निगोद कहते है । परन्तु भविष्य में त्रस पा सकते है ।नित्य निगोद से जीव कपोत लेश्या की मन्दता से निकलते है ।नित्य निगोद से 608 जीव, आठ समय में निकलते है

इतर निगोद

जो जीव नित्य निगोद से निकल कर अन्य पर्याय पाकर पुनः निगोद में उत्पन्न हों वह इतर निगोद है।

निगोदिया जीवों के रहने के स्थान भी दो है --- (1)--नित्य निगोदिया सातवे नरक के नीचे एक राजू क्षेत्र कलकल पृथ्वी में (2)--इतर निगोदिया सर्वलोक में   ।

निगोद जीवो की तिर्यय गति होती है ।तथा एकेन्द्रिय साधारण वनस्पतिकाय होती है ।

निगोदिया जीव जन्म-- मरण के दुःखो से अत्यन्त पीडित है ,वे एक  श्वास में अठारह बार जन्म लेते है तथा अठारह बार ही मरते है  ।


प्रश्न ३— निगोद से निकलने का क्रम क्या है ?


उत्तर – निगोद से निकला जीव प्रथम पंच स्थावरों पृथ्वी आदि में


उत्पन्न होता है ।


प्रश्न ४ – स्थावर जीव किसे कहते हैं ?


उत्तर – स्थावर नामकर्म के उदय से पृथ्वी जलादि जिनका शरीर हो उन्हें स्थावर जीव कहते हैं । ये एकेन्द्रिय ही होते हैं ।

६) जंगमकाय (त्रसजीव) - त्रस जीवों की उत्पत्ति के आठ स्थान है।


उन स्थानों के



जैन दर्शन में वनस्पति को भी एकेंद्रिय जीव का शरीर माना गया है । वह दो प्रकार का है−प्रत्येक व साधारण । एक जीव के शरीर को प्रत्येक और अनंतों जीवों के साझले शरीर को साधारण कहते हैं, क्योंकि उस शरीर में उन अनंतों जीवों का जन्म-मरण,श्वासोच्छ्वास आदि साधारण रूप से अर्थात् एक साथ समान रूप से होता है । एक ही शरीर में अनंतों बसते हैं, इसलिए इस शरीर को निगोद कहते हैं, उपचार से उसमें बसने वाले जीवों को भी निगोद कहते हैं । वह निगोद भी दो प्रकार का है नित्य व इतर निगोद । जो अनादि काल से आज तक निगोद पर्याय से निकला ही नहीं, वह नित्य निगोद है  और त्रसस्थावर आदि अन्य पर्यायों में घूमकर पापोदयवश पुनः-पुनः निगोद को प्राप्त होने वाले इतर निगोद हैं । प्रत्येक शरीर बादर या स्थूल ही होता है पर साधारण बादर व सूक्ष्म दोनों प्रकार का ।


नित्य खाने-पीने के काम में आने वाली वनस्पति प्रत्येक शरीर है । वह दो प्रकार है−अप्रतिष्ठित और सप्रतिष्ठित । एक ही जीव के शरीर वाली वनस्पति अप्रतिष्ठित है और असंख्यात साधारण शरीरों के समवाय से निष्पन्न वनस्पति सप्रतिष्ठित है । तहाँ एक-एक वनस्पति के स्कंध में एक रस होकर असंख्यात साधारण शरीर होते हैं और एक-एक उस साधारण शरीर में अनंतानंत निगोद जीव वास करते हैं । सूक्ष्म साधारण शरीर या निगोद जीव लोक में सर्वत्र ठसाठस भरे हुए हैं, पर सूक्ष्म होने से हमारे ज्ञान के विषय नहीं हैं । संतरा, आमआदि अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति हैं और आलू, गाजर, मूली आदि सप्रतिष्ठित प्रत्येक । अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति पत्ते, फल, फूल आदि भी अत्यंत कचिया अवस्था में सप्रतिष्ठित प्रत्येक होते हैं−जैसे कौंपल । पीछे पक जाने पर अप्रतिष्ठित हो जाते हैं । अनंत जीवों की साझली काय होने से सप्रतिष्ठित प्रत्येक को अनंतकायिक भी कहते हैं । इस जाति की सर्व वनस्पति को यहाँ अभक्ष्य स्वीकार किया गया है ।









.निगोद के जीवो की काय स्थिति तीन प्रकार की होती है


1.अनादि अनन्त - वे जीव, जो अनादिकाल से निगोद में ही स्थित है, और निगोद में से बहार कभी निकलेंगे भी नहीं । जातिभव्य जीवो की स्थिति अनादि अनन्तकाल की होती हैं ।


2.अनादि सांत - वे जीव, जो अनादिकाल से निगोद में ही स्थित है, निगोद में से बहार निकले नही है, परंतु भवितव्यता के अनुसार कभी न कभी जरूर बहार निकलेंगे। इसमें भव्य और अभव्य दोनो प्रकार के जीव होते है ।


3.सादि सांत – वे जीव, जो एक बार त्रस पर्याय को प्राप्त हो चुके हैं परन्तु कर्म बंधन करके पुनः निगोद में चले गये है, एक बार त्रस पर्याय प्राप्त कर चुके है अतः उनकी सादि स्थिति है और वे कभी न कभी मोक्ष में जायेंगे अतः सान्त स्थिति है । भव्य जीव ही इस स्थिति को प्राप्त करते हैं ।


 ?


सूक्ष्म निगोद के जीव  .दो प्रकार के 1.सांव्यवहारिक निगोद 2.असांव्यवहारिक निगोद ।


सांव्यवहारिक सूक्ष्म निगोद 


 एक जीव जब समस्त कर्मों का क्षय करके मोक्ष को प्राप्त करता है तब एक जीव अव्यवहार राशि से व्यवहार राशि में आता हैं । वह जीव मृत्यु पाकर पुनः सूक्ष्म निगोद में उत्पन्न हो जाये तो वह सांव्यवहारिक जीव कहलाता है ।


.असांव्यवहारिक सूक्ष्म निगोद 


.वे जीव, जो अव्यवहार राशि से व्यवहार राशि में नहीं आये है, अनादिकाल से सूक्ष्म निगोद में ही हैं उन्हें असांव्यहारिक जीव कहते हैं ।


प्रश्न-32.निगोद के जीवों के भव बताईये ?


जवाब-32.निगोद के जीव –


1. एक श्वासोच्छ्वास में साढे सत्रह भव करते हैं ।


2. एक मुर्हूत्त में 65,536 भव करते हैं ।


3. एक दिन में 19,66,080 भव करते हैं ।


4. एक मास में 5,89,82,400 भव करते हैं ।


5. एक वर्ष में 70,77,88,700 भव करते हैं।



निगोद को पहचाने

(चातुस) वर्षा ऋतु में घर के कम्पाऊंड में, पुरानी दीवारों पर अथवा मकान की छत (अगासी) पर हरी, काली, कत्थई आदि रंगों की काई (सेवाल-लील) जम जाती है | उसी को निगोद कहते हैं | आलु वगैरह कंदमूल के जैसे ही निगोद भी अनंतकाय है। उसके एक सूक्ष्म कण में भी अनंत जीव होते हैं। उसके ऊपर चलने से, सहारा लेकर बैठने से, उस पर वाहन चलाने से अथवा इस पर कोई वस्तु रखने से या पानी डालने से निगोद के अनंत जीवों की हिंसा होती है |


आलु (बटाटा) आदि अनंतकाय हैं | जब उन्हें दातों तले चबाना महापाप है, तो अनंतकाय ऐसी निगोद को हम पैरों के नीचे कैसे कुचल सकते हैं?

प्रश्न " कर्मों की स्थिति और अबाधाकाल का थोकडा़" में से दिये जायेंगे।🙏*


एक निगोद अवस्था का दुःख और दूसरा निजात्मा का अपार सुख। पण्डित दौलतराम जी ने ज्ञान को ही परमसुख का कारण कहा है। परन्तु ऐसी ज्ञान-हीनता की दशा तो दुःख का कारण होगी ही। इनसे तो नरक की दशा भी भली होगी। क्योंकि वहाँ अपने दुःख को एहसास करने की तो सामर्थ्य है। सम्यग्दर्शन प्राप्ति की योग्यता तो है। परन्तु निगोद दशा में तो इसकी भी सामर्थ्य नही। करणानुयोग में इन जीवों के लिए एक नाम है - ‘सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक’। अर्थात् यह जीव पर्याप्त भी नही है। अपर्याप्तक है। इनके पर्याप्तिया भी पूर्ण नही है। ऐसे नित्य निगोद से निकलना ऐसा है जैसे भाड़ में भुजते हुए चने का उचट जाना। वहाँ की इतनी अधिक जीव राशि में से छह माह आठ समय में मात्र ६०८ जीव ही निकलतें है।

और वहाँ से निकलकर त्रस होते है। त्रसपर्याय का उत्कृष्ट काल साधिक दो हजार सागर ही है। अर्थात् पुनः इतर निगोद , एकेन्द्रिय अवस्था को चले जाते है। और फिर बहुत से काल वही रहतें है। जैसे अगर किसी व्यक्ति के कोई दुःख होता है तो उसे वह कह तो सकता है। ‘व्यक्त’ कर सकता है। परन्तु निगोदिया जीव के पास यह क्षमता भी नही।




*1. तिर्यंच की उत्कृष्ट स्थिति * एक तिहाई करोड़ पूर्व अधिक तीन पल्योपम की हैं।*

*


*2. "प्रदेशोदय" यानि अनुभूति में नहीं आनेवाला उदय।*

🙏कल के प्रश्न' जीव धडा़ ' थोकडे में से दिये जाऐंगें।🙏

*🙏आज के प्रश्न🙏* *( शाश्वत द्वार, अमर द्वार और गर्भज द्वार।)*

-------------------------------------------------------------

*1. अशाश्वत में सभी जीवों की कौन सी अवस्था ली गई हैं?*


*2. मनुष्य के शाश्वत द्वार में कितने भेद लिये गये हैं?*


*3. अशाश्वत में तिर्यंच के कितने भेद लिये गये हैं?*


*4. अपर्याप्त अवस्था में कौन- कौन से जीव अमर होते हैं?*


*5. क्या मरने वाले में तिर्यंच अपर्याप्त और पर्याप्त दोनों अवस्था में मर सकते है?*


*6. गर्भज में कौन- कौन सी गति के जीव होते हैं?*


*7. नोगर्भज में मनुष्य के कितने भेद लिये गये हैं?*


*8. चौरेन्द्रिय का जीव गर्भज है या नहीं?*


*9. विजय नामक देवविमान के देव गर्भज है या नोगर्भज?*


*10. युगलिक अपर्याप्त अवस्था में अमर हैं या मरने वाले में हैं?*

*🙏आज के प्रश्नों के उत्तर🙏* *( शाश्वत द्वार, अमर द्वार और गर्भज द्वार।*)

---------------------------------------------------------------------

*1. अपर्याप्त अवस्था ली गई हैं।*


*2. 101 सन्नी मनुष्य के पर्याप्त।*


*3. 5 सन्नी तिर्यंच के अपर्याप्त।*


*4. 7 नरक, 86 युगलिक और 99 देवता अपर्याप्त अवस्था में काल नहीं करते है।*


*5. हाँ। तिर्यंच दोनों अवस्था में मर सकते है।*


*6. तिर्यंच गति और मनुष्य गति।*


*7. 101 असन्नी मनुष्य के अपर्याप्त।*


*8. नहीं। चौरेन्द्रिय का जीव नोगर्भज हैं।*


*9. विजय नामक देव विमान के देव नोगर्भज है।*


*10. युगलिक अपर्याप्त अवस्था में अमर हैं।*


🙏कल के प्रश्न' जीव धडा़ ' थोकडे में से दिये जाऐंगें।🙏

*🙏आज के प्रश्न🙏* *( शाश्वत द्वार, अमर द्वार और गर्भज द्वार।)*

-------------------------------------------------------------

तिर्यंच श्रावक का कोनसा 5 वा गुण स्थान होता है?

*1. अशाश्वत में सभी जीवों की  अपर्याप्त अवस्था ली गई हैं।*ली गई हैं?*


*2. मनुष्य के शाश्वत द्वार में 101 सन्नी मनुष्य के पर्याप्त।लिये गये हैं?*


*3. अशाश्वत में तिर्यंच   5 सन्नी तिर्यंच के अपर्याप्त।*   भेद लिये गये हैं


*4. अपर्याप्त अवस्था में कौन- कौन से जीव अमर होते हैं?*


*5.  मरने वाले में तिर्यंच अपर्याप्त और पर्याप्त दोनों अवस्था में मर सकते है



---------------------------------------------------------------------नरक की अपेक्षा निगोद के जीवों को अनंत गुणा दुख़ ज्यादा होता है। 

प्रत्येक आत्मा स्वयं का विकास चाहती है| इसके लिए उसे यह ज्ञान होना आवश्यक है कि वह कहाँ से आया है और कहाँ जायेगा| जब तक उसे इस बात का ज्ञान नहीं होता, वह भव – भ्रमण से छुटकारा नहीं पा सकता|


जीव का प्रथम निवास स्थान निगोद है| यहीं से उसका विकास – क्रम प्रारम्भ होता है| मानव भव में जब कोई एक जीव सभी कर्मों का क्षय कर सिध्दत्व को प्राप्त करता है, तब कोई एक जीव निगोद से निकलकर व्यवहार राशि में प्रवेश करता है| निगोद अति सूक्ष्म एकेन्द्रिय वनस्पतिकाय के वे जीव हैं जिनमें अनन्त जीवों के बीच एक अत्यन्त लघु शरीर होता है| इसकी सूक्ष्मता इतनी है कि जब वे संख्या में अनन्त एकत्रित हो जाते हैं तब उनका शरीर एक सूक्ष्म धूल कण के समान होता है| निगोद दो प्रकार का कहा गया है-


निगोद के जीवन में समानता :-                


निगोद के एक गोले के जीवो की तथा एक गोले से दूसरे गोले की समानता जैसेे......              


अस्तित्त्व सत्ता की समानता       

      

जन्म की समानता 


सुख की समानता 


शरीर की समानता 


आहार की समानता 


पानी की समानता 


जीव को सबसे बड़ा दुख जन्म-मरण का होता है। नरक के जीव का आयुष्य सागरोपमों का होता है, इतने काल में निगोद के जीवों को अनंती बार जन्म-मरण धारण करना पड़ता है।

*


*10:4:21*


*तिर्यंच*

श्वासोच्छवास-काल जितने स्वल्प काल में १७।। बार जन्म लेकर मरते हैं और एक  मुहूर्त में।

*कल से आगे*


(४८ मिनिट में) ६५५३६ बार जन्म-गरण के कष्ट भोगते हैं।

(२. पृथ्वी, पानी, अग्नि, और वायु के जीव १२८२४ जन्म-मरण करते हैं. प्रत्येक वनस्पतिकाय के ३२००० द्वीन्द्रिय के ८०, त्रीन्द्रिय के ६० चौइन्द्रिय के ४० असंज्ञी पंचेन्द्रिय के २४ और संज्ञी पंचेन्द्रिय के जोव एक जन्म-मरण करते हैं।)

 पृथ्वी के भीतर रहा हुआ कन्द कभी पकता नहीं है जैसे विशेष प्रसंग पर सगर्भा स्त्री का पेट चीरकर बच्चा निकाला जाता है, उसी प्रकार पृथ्वी को विदारण करके कन्द निकाला जाता है। इसलिए जैन और वैष्णव धर्म के शास्त्रों में इसे अभक्ष्य अर्थात् खाने के अयोग्य कहा है। यह स्थावर तिर्यंच के २२ भेद हैं। 

*(६) जंगमकाय* (त्रसजीव)-त्रस जीवों की उत्पत्ति के आठ स्थान है। उन स्थानों के कारण त्रस जीवों के आठ भेद हैं। वे इस प्रकार हैं:-

[१] अण्डज-अंडे से उत्पन्न होने । वाले पक्षी आदि।

 [२] पोतज-जन्मते ही चलने-भागने वाले हाथी आदि प्राणी। 

[३]जरायुज-जर (जेर) से उत्पन्न होने वाले गौ मनुष्य आदि प्राणी।

 [४] रसज-रस में उत्पन्न होने वाले कीड़े।

 [५] संस्वेदज-पसीने में उत्पन्न होने वाले जूं आदि प्राणी। 

[६] सम्मूर्छिम- बिना माता-पिता के संयोग के, इधर-उधर के पुद्गलों के मिलने से उत्पन्न हो जाने वाले मक्खी आदि प्राणी। 

[७] उद्भिज-जमीन फोड़कर निकलने वाले पतंगे आदि।

 [2] औपपातिक-उपपात शय्या में तथा नारकीय बिलों में उत्पन्न होने वाले देव और नारकी त्रस जीवों का लक्षण इस प्रकार है-[१] अभिक्कंत- सामने आना [ २] पडिकंत- पीछे लौटना 

[३] संकुचियं-शरीर को सिकोड़ना 

[४] पसारियं-शरीर को फैलाना [५] रुयं-बोलना या रोना, 

[६] भंतं-भयभीत होना।

 [७] तसियं- त्रास पाना

 [८] पलाइयं भागना

 [९] आगइगइ-आवागमन करना। इन लक्षणों से त्रसजीव की पहचान होती है।

कैसे अनन्तानन्त जीव है दुनिया में उदहारण

 सुई के अग्रभाग जितनी थोड़ी सी जगह में इतने जीवों का समावेश किस प्रकार हो सकता है? इसका


उत्तर यह है- मान लीजिए एक करोड़ औषधियां एकत्र करके उनका चूर्ण बनाया हो या अर्क निकालकर


तेल बनाया हो और उसे सुई के अग्रभाग पर रक्खा जाय, तो जैसे सुई के अग्रभाग पर करोड़ औषधियां समा जाती हैं, उसी प्रकार अनन्तानन्त जीवों का भी समावेश हो सकता है। प्रत्यक्ष देखा जाता है कि मुद्रिका में लगाये हुए बाजरे के दाने जितने कांच में कई मनुष्यों के फोटो प्रतिबिम्बित होते हैं। जब स्थूल वस्तुओं में स्थूल वस्तुओं का इस प्रकार समावेश हो जाता है तो सूक्ष्म जीवों के समावेश होने में क्या आश्चर्य है?



*11:4:21*

*त्रस तिर्यंच के* 

२६ भेद इस प्रकार हैं-

*द्वीन्द्रिय*- शंख सीप, कौड़ी, गिंडोला, लट, , जलोक, पोरे, कृमि आदि स्पर्शन और रसना इन दो इन्द्रियों के धारक जीव द्वीन्द्रिय  है।

 यह अपर्याप्त और पर्याप्त के भेद से दो प्रकार के हैं। 

(२) त्रीन्द्रिय - जू, लीख, कीड़ी खटमल, कुंथवा, धनेरा, इल्ली, उदेई (दीमक) , मकोड़े, गधइये आदि काया, मुख और नाक-इन तीन इन्द्रियों के धारक जीव त्रीन्द्रिय कहलाते हैं। यह भी दो प्रकार के हैं- अप्रयापत और पर्याप्त। 

(३) चतुरिन्द्रिय- डांस मच्छर, मक्खी, टिड्डी, पतंग, भ्रमर, बिच्छू, केकड़ा मकड़ी, वधई, कंसारी आदि कान, मुख, नाक और आंख, इन चार इन्द्रियों के धारक जीव चौइन्द्रिय हैं।

 यह भी दो प्रकार के हैं-अपर्याप्त और पर्याप्त। यह तीनों प्रकार के त्रस जीव विकलेन्द्रिय या विकलत्रस कहलाते हैं। विकलेन्द्रिय

विकलेन्द्रिय जीवों की अवगाहना कितनी होती है ?


विकलेन्द्रिय जघन्य उत्कृष्ट


1 द्वीन्द्रिय अंगुल का असंख्यातवां भाग 12 योजन


2 त्रीन्द्रिय अंगुल का असंख्यातवां भाग 3 गाऊ


3 चतुरिन्द्रिय अंगुल का असंख्यातववां भाग 1 योजन

विकलेन्द्रिय जीवों का आयुष्य 




विकलेन्द्रिय जघन्य उत्कृष्ट


1 द्वीन्द्रिय अन्तर्मुहूर्त 12 वर्ष


2 त्रीन्द्रिय अन्तर्मुहूर्त 49 दिवस


3 चतुरिन्द्रिय अन्तर्मुहूर्त 6 मास


प्रश्न-115 विकलेन्द्रिय जीवों की स्वकाय स्थिति बताओ ?


जवाब- 115 संख्यात वर्ष ।


प्रश्न-116 विकलेन्द्रिय जीवोमें कितने प्राण पाये जाते है ?


जवाब- 116 द्वीन्द्रिय जीवोमें 6 प्राणः- 1.स्पर्शनेन्द्रिय 2.रसनेन्द्रिय 3.काय बल 4. वचन बल 5.श्वासोच्छवास 6.आयुष्य ।


त्रीन्द्रिय जीवोमें 7 प्राणः 1.स्पर्शनेन्द्रिय 2.रसनेन्द्रिय 3.घ्राणेन्द्रिय 4.काय बल 5. वचन बल 6.श्वासोच्छवास 7.आयुष्य ।


चतुरिन्द्रिय जीवोमें 8 प्राणः- 1.स्पर्शनेन्द्रिय 2.रसनेन्द्रिय 3.घ्राणेन्द्रिय 4.चक्षुरिन्द्रिय 5.काय बल 6.वचन बल 7.श्वासोच्छवास 8.आयुष्य ।


प्रश्न-117 विक्लेन्द्रिय जीवों के कितनी योनियाँ होती है ?


जवाब- 117 1. द्वीन्द्रिय की - दो लाख


2. त्रीन्द्रिय की - दो लाख


3. चतुरिन्द्रिय की - दो लाख कुल 6 लाख


एकेन्द्रिय और द्वीन्द्रिय जीव उत्त्पति के योग्य संयोग मिलने पर स्वजातीय जीवों के आस पास उत्पन्न हो जाते है । त्रीन्द्रिय जीव स्वजातीय जीवों के मल आदि में एवं चतुरिन्द्रिय जीव स्वजातीय जीवों के मल, लार आदि में संयोगानुसार उत्पन्न हो जाते हैं । वहाँ स्थित औदारिक शरीर के पुद्गलों को शरीर रुप परिणत करके उत्पन्न होते हैं ।



 के


*पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च के बीस भेद हैं*-

*(१) जलचर* अर्थात् पानी में रहने वाले मत्स्य आदि जीव। इनके चार भेद हैं-संज्ञी और असंज्ञी के पर्याप्त तथा अपर्याप्त। जलचर जीवों के कुछ। विशेष नाम ये हैं-मच्छ, कच्छ, मगर, सुंसमार, कछुवा, मेंढक आदि।




*(२) स्थलचर*-पृथ्वी पर चलते-रहने वाले जीव। इनके भी जलचर के समान संज्ञी, असली के पर्याप्त, अपर्याप्त यह चार भेद हैं। स्थलों के कुछ विशेष नाम यह हैं, 

(क) एक खुर वाले-घोड़े, गधे, खच्चर आदि। 

(ख) दो खुर (फट खुर) वाले गाय, भैंस बकरा, हिरन आदि। (ग) गंडीपद-सुनार के एरन के समान गोल पैरों वाले हाथी, गेंडा आदि।

 (घ) सणपद-पंजे वाले सिंह, चीता, कुत्ता, बिल्ली, बन्दर आदि।


१३) खेचर-आकाश में उड़ने वाले। इनके भी चार भेद हैं -संज्ञी और असंज्ञी के पर्याप्त तथा अपर्याप्त। खेचर के विशेष नाम ये हैं-

(क) रोमपक्षी अर्थात् बालों के पंख वाले, जैसे-तोता, मैना, कौआ, चिड़िया, कमेडी, कबूतर, चोल, बगुला, बाज, होल, चण्डूल , जलकुक्कुर आदि।

 (ख) चर्मपक्षी अर्थात् चमड़े के पंख वाले, जैसे-चमगादड़, वटबगुला आदि। 

(ग) सामन्तपक्षी—अर्थात् डिब्बे के समान भिड़े हुए गोल पंखों वाले, 

(घ) वितत- पक्षी- विचित्र प्रकार के पंखों वाले। यह अन्तिम दो प्रकार के पक्षी अढ़ाई द्वीप के बाहर होते हैं।



*12:4:21*


४) उर:परिसर्प-हृदय के बल से चलने वाले सर्प आदि प्राणी। इनके भी चार भेद हैं-संज्ञी और असंज्ञी तथा इन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त। उर : परिसर्प के कुछ विशेष नाम यह हैं:-

(१) अहि (सर्प), इनमें कोई फन वाले होते हैं और कोई बिना फन के होते है। यह सर्प पांचों ही वर्ण के होते हैं। 

(२) अजगर- जो मनुष्य आदि को भी निगल जाते हैं।

 (३) अलसिया—जो बड़ी सेना के नीचे उत्पन्न होते हैं। 

चक्रवर्ती तथा वासुदेव के पुण्य का क्षय होने पर उनके घोड़े की लीद में 12 योजन (48 कोस) लम्बे शरीर वाला अलसिया उत्पन्न होता है। उसके तड़फड़ाने से पृथ्वी में बड़ा-सा गड्ढा हो जाता है। उस गड्ढे में सारी सेना, कुटुम्ब एवं ग्राम दबकर नष्ट हो जाता है।


(४) महोरग-लम्बी अवगाहना वाला, जिसकी लम्बी से लम्बी एक हजार योजन की अवगाहना होती है।

 


(५) भुजपरिसर्प-भुजाओं के बल से चलने वाले जीव; जैसे-चूहा, नेवला, घुंस, काकीडा, विस्मरा, गोह, गुहेरा आदि। इनके भी दो भेद हैं -संज्ञी और असंज्ञी। इन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो-दो भेद होते हैं। सब मिलकर


इस प्रकार ५ x ४ = २० भेद तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय के समझने चाहिएं। २२ + ६ + २० = ४८ भेद तिर्यञ्चों के हुए।



संमूर्च्छिम मनुष्य एवं तिर्यंचों की उत्पत्ति के चौदह अशुचि स्थान कौनसे हैं ?


1.मल, 2.पेशाब, 3. कफ, 4. नाक का मल, 5. वमन 6.पित्त,7. पीब-मवाद्, 8. रूधिर, 9. वीर्य, 10. त्याग किये गये वीर्य के पुद्गल, 11. मुर्दा शरीर, 12. पुरुष-स्त्री का परस्पर संयोग, 13. मेल, 14. पसीना ।

🙏अलग-अलग जीवों में आत्मा🙏


✅एकेन्द्रिय में छह आत्मा ( ज्ञान आत्मा तथा चारित्र आत्मा को छोड़कर ) पाई जाती है।


✅द्वीन्द्रिय से संज्ञी तिर्यंच तथा श्रावक में सात आत्मा ( चारित्र आत्मा को छोड़कर ) पाई जाती है।


✅अकषायी, अरहंतों में सात आत्मा ( कषाय आत्मा को छोड़कर ) पाई जाती है।


✅सिद्धों में चार आत्मा -- द्रव्य, ज्ञान, दर्शन और उपयोग आत्मा पाई जाती है।


✅साधु में आठों ही आत्मा पाई जाती है।


✅*आठ आत्मा में सबसे ज्यादा व सबसे कम जीव* 


✅द्रव्य, उपयोग तथा दर्शन आत्मा के सबसे ज्यादा जीव तथा चारित्र आत्मा के सबसे कम जीव है।


✅*आत्मा श्वास लेती है या शरीर ?*


👉न केवल आत्मा श्वास लेती है,  न केवल शरीर, आत्मा व शरीर दोनों का संग होता है, तब प्राण शक्ति के द्वारा श्वास लिया जाता है।


🌹*आत्मा खाती है या शरीर ?*


👉न केवल आत्मा खाती है,  न केवल शरीर।  दोनों के संयोग से प्राण शक्ति उत्पन्न होती है, उसके द्वारा खाया जाता है।


🌹*आत्मा बोलती है या शरीर ?*


👉न केवल आत्मा बोलती है,  न केवल शरीर।  दोनों के योग से प्राण शक्ति पैदा होती है, वह प्राण शक्ति बोलती है


.  *🙏 ।।श्री महावीराय नम:।। 🙏*


                 *कर्म प्रकृति*


   *【कर्म सिद्धांत – कर्म विज्ञान】*

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*17-04-21      【6️⃣6️⃣】*


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*आठ कर्मों की उत्तर प्रकृत्तियाँ*


*बंध के कारण*


                 *और फलभोग*

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*पाँचवा कर्म– आयुष्य कर्म*

            ( भाग – 6 )

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 *आयुष्य कर्म की उत्तरप्रकृतियाँ*

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.           *( 2 ) तिर्यंच आयुष्य–*


     ☝️जिस कर्म के उदय से जीव को तिर्यंच योनि में अपना भव व्यतीत करना पड़े *वह तिर्यंच आयुष्य कर्म है।*


  *☝️एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तो सभी तिर्यंच गति में ही होते हैं,*


  ☝️पंचेन्द्रिय में देव, मनुष्य और नारकी को छोड़कर शेष सभी पंचेन्द्रिय जीव *तिर्यंच पंचेन्द्रिय* होते हैं।


 *यह अशुभ आयुष्य कर्म है।*


*जानें तिर्यंच आयुष्य बन्ध के कारण–*

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*( 1 ) माया शल्य करना–*


 >>अर्थात् कपट और शल्य मन में रखना, 


>>नियम भंग होने पर भी आलोचना नहीं करना,


>>किसी अन्य के नाम से आलोचना लेकर शल्य सहित आलोचना करना।


*( 2 ) निकृति–* 


>>गूढ़ माया करना,


>>बाहर से सद्भाव दिखाना और भीतर से वैर भाव और आक्रोश रखना,


>>धूर्तता या ठगी करना,


>>ढोंग-पाखण्ड आदि करना।


*( 3 ) असत्य भाषण करना–*


>> झूठ बोलना,


>> क्रोध, भय और लोभ के कारण असत्य भाषण करना,


>> धर्मोपदेश में मिथ्या बातों को मिलाकर प्रचार करना आदि।


*( 4 ) झूठा तोल-माप करना–*

झूठे तोल और झूठे माप करना। खरीदने और बेंचने के तोल-माप अलग-अलग रखना।


*अशुभ आयुष्य कर्म बंध के*


      *निवारण के उपाय–*


*पर्व तिथियों* (2-5-8-11-14) *में आयुष्य कर्म बंध की सम्भावनाएं सर्वाधिक रहती है।*


*🙏अत: हमें इन पर्व तिथियों में ज्यादा से ज्यादा धर्माराधना करनी चाहिए और पापकारी प्रवृत्तियों से बचना चाहिए। जिससे शुभ आयुष्य का बंध हो और अशुभ आयुष्य टल जाए।*


*🙏हम अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व तिथियों के दिन...*


*जमीकंद का त्याग,*


*हरी का त्याग,*


*सचित का त्याग,*


*अब्रह्मचर्य का त्याग,*


 *रात्रिभोजन चौविहार त्याग*


 *तथा अन्यान्य पापकारी प्रवृत्तियों से बचते हुए और धर्माराधना करते हुए  निश्चित रूप से अशुभ आयुष्य कर्म बंध को टाल सकते हैं। अर्थात् तिर्यंच योनि और नरकगति को टाल सकते हैं।*

*जिनवाणी - श्रुतधारा*

*卐 महावीर वाणी 卐*

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*ग्रुप एडमिन, कल्याणमित्र*

१६-४-२०२१

*📕भाग - 91*


*दिव्वावि कामभोगा अधुवा*

                *(दशाश्रुतस्कंध)*


*देवलोक में रहे देवताओं के कामभोग भी शाश्वत् नहीं है ।*


यद्यपि मनुष्य की अपेक्षा देवताओं का आयुष्य खूब लंबा होता हैं, फिर भी उस आयुष्य का भी एकदिन तो अंत आ ही जाता है ।


देवताओं का जघन्य आयुष्य 10,000 वर्ष होता है और उत्कृष्ट आयुष्य 33 सागरोपम का होता है, परंतु उस आयुष्य को भी समाप्त होते कहां देर लगती है । इतने लंबे समय तक सुख भोगनेवाले देवताओं को भी तिर्यंच आदि गति में जाना पड़ता है ।


शास्त्र में लिखा है कि एक दिन में जितने देवताओं का आयुष्य पूरा होता है, उतनी संख्या में भी मनुष्य नहीं है ।


*देवलोक में रहे असंख्य देवता मरकर पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय रुप एकेन्द्रिय में चले जाते हैं ।*


मनुष्य के कामभोग के साधन औदारिक वर्गणा के पुद्गलों से बने होते हैं, जबकि देवताओं के कामभोग के बाह्य पदार्थ वैक्रिय वर्गणा के पुद्गलों से बने होते हैं ।


मनुष्य के भौतिक सुख सामग्री अल्पकाल में ही बिगड जानेवाली होती है, जबकि देवताओं की सुख सामग्री वैक्रिय वर्गणा के पुद्गलों से बनी होने के कारण दीर्घकाल तक टिक सकती है, परंतु वह भी सामग्री शाश्वत नहीं है, अतः देवताओं के वे सुख भी अनित्य और नाशवंत ही है ।


*देवताओं के दिव्य सुख भी नाशवंत हो तो मनुष्य के तुच्छ सुखों की तो क्या गिनती है ?*


आज जिस पुरुष या स्त्री का सुंदर रुप हो, परंतु वह रुप तो कभी भी नष्ट हो सकता है ।


खाने-पीने की सामग्री कितनी ही स्वादिष्ट क्यों न हो उसे बिगड़ते कितनी देर लगती है ? अतः बाह्य सुख सामग्री में राग न करे ।

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*लेखक : पू. पंन्यासप्रवर श्री रत्नसेनविजयजी गणिवर्य*


*संकलन : नीतेश बोहरा, रतलाम*


प्रश्न १६ क्या संवर चारों गतियों में होता है ?


उत्तर 1: देव और नरक, इन दो गतियों में संवर नहीं होता। मनुष्य और तिर्यंच, इन दो गतियों में संवर तत्त्व की निष्पत्ति हो सकती है।


प्रश्न १७ क्या सभी तिर्यंचों में संवर की निष्पत्ति हो सकती है?


उत्तर : नहीं, केवल समनस्क तिर्यंचों में ही संवर संभाव्य है ।


प्रश्न १८ देवता व नारक में संवर क्यों नहीं होता ?


उत्तर : देवता व नारक में अप्रत्याख्यानी कषाय चतुष्क का निरन्तर उदय रहता है। उसके उदय रहते संवर नहीं होता।


प्रश्न १६. समनस्क तिर्यंचों में निसर्ग सम्यक्त्व होती है या अधिगम सम्यक्त्व ?


उत्तर 1: तिर्यंचों में अधिगम सम्यक्त्व मानी गई है। वहां किसी न किसी निमित्त से सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है ।


प्रश्न २० तिर्यंचों के सम्यक्त्व प्राप्ति में कौन-कौन से निमित्त हो सकते हैं?


उत्तर 1: तिर्यंचों के सम्यक्त्व प्राप्ति के तीन हेतु माने गये हैं


१. तीर्थंकरों, सर्वज्ञों तथा मुनियों के उपदेश से।


२. पूर्व जन्म के मित्र देव की प्रेरणा से ।


३. जाति स्मरण ज्ञान की प्राप्ति से ।


मनुष्य लोक में तीनों हेतुओं से तथा मनुष्य लोक से बाहर अंतिम दो हेतुओं से सम्यक्त्व की प्राप्ति हो सकती है। उन्हीं के संवर हो सकता है।


क्या सभी सम्यक्त्वी मनुष्यों के संवर होता है


?

प्रश्न ६. तिर्यंच का आयुष्य पुण्य-प्रकृति है या पाप-प्रकृति ? उत्तर : तिर्यंच का आयुष्य दोनों माना गया है | तिर्यंच में भी कई पुण्य प्रकृतियों का उदय


हो सकता है, किन्तु अधिकतर तिर्यंच पाप प्रकृति के उदय से होते हैं।

: सभी सम्यक्त्वी मनुष्यों के संवर नहीं होता। तीस अकर्म भूमि के यौगलिक सम्यक्त्वी तो हो सकते हैं, किन्तु श्रावक व साधु नहीं बन सकते। अतः उनमें संवर तत्त्व नहीं होता। गृहस्थ अवस्था में तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव' को पांचवां गुणस्थान नहीं आता, इसलिए एक निश्चित कालमान तक इनमें संवर होता ही नहीं। शेष मनुष्यों में संवर हो सकता है।


प्रश्न ७ तिर्यंच में दण्डक कितने होते हैं?


उत्तर : तिर्यंच में कुल नौ दण्डक होते हैं— पांच स्थावर काय, तीन विकलेन्द्रिय, एक तिर्यंच पंचेन्द्रिय (१२ से २० तक) ।


प्रश्न ८. तिर्यंच में गुणस्थान कितने होते हैं ?


उत्तर


: तिर्यंच में पांच गुणस्थान होते हैं प्रथम पांच |


प्रश्न तिर्यंच श्रावक बारहव्रती होते हैं ?


उत्तर : तिर्यंच श्रावक बारहव्रती नहीं, ग्यारहव्रती होते हैं। उनके बारहवां व्रत नहीं होता, क्योंकि सुपात्र दान देने के लिए उनके पास कुछ नहीं होता।


प्रश्न १०. क्या तिर्यंच श्रावक सुपात्र दान की दलाली कर सकता है ? उत्तर : तिर्यंच श्रावक सुपात्र दान की दलाली कर सकता है। बलभद्र मुनि के जीवन में एक प्रसंग आता है कि एक हिरण जाति के श्रावक ने दान की दलाली की थी ।


प्रश्न ११. क्या जलचर तिर्यंच श्रावक सामायिक, पौषध कर सकते हैं? उत्तर : जलचर श्रावक सामायिक, पौषध आदि व्रतों की उपासना कर सकते है। पानी में


भी स्थिर रहकर वे सामायिक आदि करते हैं, ऐसा आचार्यों का अभिमत है।


प्रश्न १२ तिर्यंच में अधिकतम कितने उपयोग होते हैं ? उत्तर : नौ उपयोग होते हैं

तिर्यंच में नौ उपयोग होते हैं



तीन ज्ञान मति, श्रुत, अवधि |


तीन अज्ञान मति, श्रुत, विभंग |


तीन दर्शन


चक्षु, अचक्षु, अवधि।


प्रश्न १३. क्या तिर्यंच में क्षायिक सम्यक्त्व हो सकती है?


उत्तर : तिर्यंच में क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त नहीं हो सकती। वहां क्षायोपशमिक सम्यक्त्व हो सकती है ।


प्रश्न १४ तिर्यंच में निर्जरा के भेद कितने हैं? उत्तर : समनस्क तिर्यंच में सभी १२ भेद तथा अमनस्क तिर्यंच में एक कायक्लेश


भेद पाता है।


प्रश्न १५ तिर्यंच में क्षयोपशम के कितने प्रकार होते हैं ? उत्तर 1: तिर्यंच में क्षयोपशम के छब्बीस प्रकार होते हैं


ज्ञानावरणीय के क्षयोपशम से सात मनःपर्यव ज्ञान को छोड़कर


दर्शनावरणीय के क्षयोपशम से आठ सभी








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