नमुत्थुणं (25 बोल ) क्लास का6

 30:4:21

निगोद के एक गोले के जीवो की तथा एक गोले से दूसरे गोले की समानता जैसेे…… अस्तित्त्व सत्ताकी समानता जन्म की समानता सुख की समानता शरीर की समानता आहार की समानता पानी की समानता श्वासोश्चास की समानता इंद्रिय की समानता संवेदना की समानता आयुष्यकर्म की समानता मिथ्यात्व मोहनीयकर्म की समानता निगोद के गोले में जीव है अतः इतनी सारी क्रियाएं होती है। एक ही शरीर में अनंता जीवों को साथ रहना है, अतः इतनी सारी समानता होती है। । ८४ के चक्कर में चार गति में कोई भी जीव, कहीं भी स्थिर- स्थाई रह नहीं सकता है। आयुष्य कर्म पूर्ण करके शरीर छोड़कर जीव दूसरी गति में चला जाता है उसी का नाम है मृत्यु। नवकार गिने बिना अथवा सुने बिना जीव चला न जाए, उसकी तैयारी आज से ही कर लेनी चाहिए।  ९ महीने तक प्रसव की पीड़ा सहन करने वाली माँ का उपकार हम चुका नहीं सकते हैे , तो अनंत काल तक निगोद के काले गर्भ से जन्म देनेवाले सिद्धात्मा का ऋण कैसे चूका पाएंगे? ऋण चूकाने हेतु “णमो सिद्धांणं “ का जप करना अनिवार्य  आवश्यक है । जिससे हम भी कर्ममुक्त होकर सिद्ध बन सके। मां-बाप का उपकार स्मरण करके उनकी आज्ञा का पालन करना, उनका सत्कार – सम्मान करना ,उनके चरण स्पर्श करना, यह सब जन्म देने का उपकार का ऋण चुकाने का तरीका है।

*निगोदिया जीव  के दुःख*

नरक की अपेक्षा निगोद के जीवों को अनंत गुणा दुख़ ज्यादा होता है। जीव को सबसे बड़ा दुख जन्म-मरण का होता है। नरक के जीव का आयुष्य सागरोपमों का होता है, इतने काल में निगोद के जीवों को अनंती बार जन्म-मरण धारण करना पड़ता है


निगोदिया जीव कैसे सह पाता होगा यह मरण का दुःख? यह तो भुक्तभोगी जाने या फिर सर्वज्ञ।

निगोदिया जीवों के दुःखों की कल्पना आप उस पुरुष से कर सकते हैं, जिसके हाथ-पैर रस्सी के द्वारा कस दिये गये हैं, मुँह में कपड़ा ठूँस दिया गया है, जिससे वह बोल भी नहीं सके। गले में रस्सी का फँदा डाल कर उसे वृक्ष पर लटका दिया गया है, ऊपर से उसकी नंगी पीठ पर नमक का पानी छींट कर कोड़े लगाये जा रहे हैं। वह अपने दुःखों को व्यक्त नहीं कर पायेगा। उसी प्रकार निगोदपर्याय के दुःख वह जीव व्यक्त नहीं कर सकता।


*1:5:21*

*अध्याय*


निगोदिया जीव अर्थात् साधारण वनस्पतिकायिक जीव। ये जीव  ये 8 शरीर -पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, , देव, नारकी  औऱ मनुष्य  औऱ तिर्यंच इनके शरीरों पर नहीं पाये जाते। बाकि पूरे लोकाकाश में वे ठसाठस भरे हुये हैं। 


एक राई जितना सूक्ष्म स्थान भी ऐसा नहीं मिलेगा, जहाँ निगोदिया जीव न हो।

भाड़ भूँजते हुये एकाध दाना कदाचित् बाहर आ जाता है, ठीक उसी प्रकार क्लेशसमुदाय को सहते-सहते भाग्योदय से यह जीव उस अवस्था से निकल कर पृथ्वीकायिक, जलकायिक अग्निकायिक, वायुकायिक अथवा प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव बन जाता है। 

पर

जब यह जीव पृथ्वीकायिक बना तो इसने नानाविध कष्ट उठाये। मिट्टी को लोग खोदते हैं, जलाते हैं, रौंदते हैं, कूटते हैं, धूप की ताप से वे जीव मरते हैं। भागने में असमर्थ वे जीव पराधीनपने के दुःखों से सदैव सन्तप्त होते हैं।


जलकायिक की पर्याय को प्राप्त हुआ जीव रौन्दा गया, फैंका गया, जलाया गया। पत्थरों से टकारा कर अनेक प्रकार के दुःखों को सहन करने वाले इस जीव का बहुत काल इस पर्याय में व्यतीत हुआ।


जब यह जीव अग्निकायिक बना तो हवा के द्वारा हिलाया जाना, पानी अथवा मिट्टी के द्वारा बुझाया जाना, लोहे से निकलते हुये स्फुल्लिंगों को घन की चोटों से पीटा जाना आदि क्रियाओं से कष्ट सहता रहा।


जब कभी यह जीव  वायुकायिक बना तो दीवार आदि की टक्कर से, गर्मी के झोंकों से, पंखों से, तीव्र जलवृष्टि से इसने अनेक दुःख सहे। 


वनस्पतिकायिक अवस्था में यह जीव छेदन-भेदन, अग्नि द्वारा जलाया जाना आदि अनेक प्रकार के दुःखों का पात्र बना।

इत्यादि दुःखों को सहन करते हुये यह जीव अनन्तकालपर्यन्त स्थावर पर्याय में ही रहा॥

*प्रश्न के उत्तर*

*1:5:21*



1️⃣जलकायिक की पर्याय को प्राप्त हुए जीव के दो कष्ट बताये

🅰️जीव रौंदा गया,फेंका गया।

2️⃣निगोदिया जीव अर्थात् क्या

🅰️साधारण  वनस्पतिकायिक।

3️⃣पृथ्वीकायिक बना तो इसने नानाविध कष्ट उठायेकोई दो कष्ट बताएं

🅰️खोदा  गया,जलाया जाता है।

 4️⃣ कितने शरीर छोड़े तो संसार का एक भी स्थान ऐसा नहीं बचा है, जहाँ वे न रहते हो। 

🅰️8 शरीर।

5️⃣भागने में असमर्थ वे जीव किस के दुःखों से सदैव सन्तप्त होते हैं।

🅰️पराधीनपने।

6️⃣वनस्पतिकायिक अवस्था में इस जीव  के कोई दो कष्ट बताये

🅰️छेदन-भेदन किया गया,अग्नि द्वारा जलाया जाना।

7️⃣लोहे से निकलते हुये किस को घन की चोटों से पीटा जाना।

🅰️स्फुलिंगो को।

8️⃣ पंखों से, तीव्र जलवृष्टि से इसने अनेक दुःख सहे किस

काय के जीव ने

🅰️वायुकायिक।

9️⃣भाग्योदय से यह जीव उस अवस्था से निकल कर

ये कौन कौन सी काय के जीव बन जाता हैं कोई दोकाय के नाम लिखे।

🅰️पृथ्वीकाय,जलकायिक।

🔟 ये8 शरीर छोड़े तो संसार का एक भी स्थान ऐसा नहीं बचा है , जहां यह ना हो

कोई दो शरीर का नाम बताइए

मनुष्य,देव।


4:5:21


*3:5:21*

*त्रस तिर्यञ्च*

अब अपने त्रस तिर्यंच के बारे में जानते हैं उनकी क्या-क्या विशेषताएं उनके बारे में पता करते हैं पहले तो यह देखें त्रस होता क्या है जो

अपनी रक्षार्थ स्वयं चलने-फिरने की शक्तिवाले जीव त्रस कहलाते हैं। दो इंद्रिय से लेकर संज्ञी पंचेंद्रिय तक अर्थात् लट्, चींटी आदि से लेकर मनुष्य देव आदि सब त्रस हैं। ये जीव यद्यपि अपर्याप्त होने संभव हैं पर सूक्ष्म कभी नहीं होते। लोक के मध्य में 1 राजू विस्तृत और 14 राजू लंबी जो त्रस नाली कल्पित की गयी है, उससे बाहर में ये नहीं रहते, न ही जा सकते हैं। सिर्फ (समुद्धातअवस्था को छोड़ कर)

जिनके त्रस नामकर्म का उदय है वे त्रस कहलाते हैं।

त्रसकाय दो प्रकार कहे हैं–विकलेंद्रिय और सकलेंद्रिय। दो इंद्रिय, तेइंद्रिय, चतुरिंद्रिय इन तीनों को विकलेंद्रिय जानना और शेष पंचेंद्रिय जीवों को सकलेंद्रिय

=एकेंद्रिय द्वींद्रिय त्रीइंद्रिय और चतुरिंद्रिय और असंज्ञी पंचेंद्रिय जीव मिथ्यादृष्टि नामक प्रथम गुणस्थानो में ही होते हैं

पंचेन्द्रिय त्रस तिर्यंच 5वे गुणस्थान तक जा सकते हैं

 सम्मूर्च्छन तिर्यञ्च के चार गुण स्थान हो सकते हैं-   भोगभूमि में सम्मूर्च्छन पंचेन्द्रिय जीव नहीं होते हैं, इसलिए सम्मूर्च्छन तिर्यञ्च में क्षायिक-सम्यक्त्व नहीं कहा है 


*त्रस तिर्यंच के* -

पंचेन्द्रिय तिर्यंचो की स्वकाय स्थिति सात या आठ भव । होती है 


संमूर्च्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीवों में पांच इन्द्रियाँ (स्पर्श-रस-घ्राण-चक्षु-श्रोत) दो बल (वचन-काय बल), श्वासोच्छवास और आयुष्य रुप नौ प्राण पाये जाते है और गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यंचो में इन नव प्राणों के अतिरिक्त दसवां मनोबल प्राण भी पाया जाता हैं ।

*पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीवों की 4लाख योनियाँ होती हैं *

बद्धायुष्क*- जिसने अगले भव की आयु बाँध ली है 

 वह बद्धायुष्क कहलाता है ।


जिस जीव ने आगामी आयु का बन्ध (बद्धायुष्क) कर लिया है, उसका अकाल मरण नहीं होता है 

  बद्धायुष्क का कथन क्षायिक एवं कृतकृत्यवेदक की मुख्यता से ही किया गया है ।

(जो करने योग्य कार्यों को कर चुके हैं वे कृतकृत्य हैं)

 तिर्यञ्च को क्षायिकसम्यग्दर्शन नहीं  होता है, क्योंकि, क्षायिक-सम्यग्दर्शन का प्रारम्भ कर्मभूमिया मनुष्य ही केवली, श्रुतकेवली के पादमूल(पैर का निचला भाग ; ।) में करते हैं । तथा जिसने तिर्यच् मनुष्य और नरकायु को बाँध लिया है वह मिथ्यात्व के साथ ही मरणकर तिर्यचादि गतियों में जाताहै, क्योंकि सम्यग्दृष्टि मनुष्य (बद्धायुष्क मनुष्य को छोड्‌कर) और तिर्यच् नियम से स्वर्ग में ही जाते हैं ।

जिन मनुष्यों ने सम्यग्दर्शन होने के पहले तिर्यंच आयु को बाँध लिया है वे पीछे सम्यक्त्व को ग्रहणकर...क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर असंख्यात वर्ष की आयुवाले तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं अन्यत्र नहीं। इस कारण भोगभूमि के तिर्यंचों में उत्पन्न होने वाले जीवों की अपेक्षा से असंयत सम्यग्दृष्टि के अपर्याप्त काल में क्षायिक सम्यक्त्व पाया जाता है। और उन्हीं भोगभूमि के तिर्यंचों में उत्पन्न होने वाले जीवों के कृतकृत्य वेदक की अपेक्षा वेदक सम्यक्त्व भी पाया जाता है।

*वेदक सम्यक्त्व*

दर्शनमोहनीय कर्म के उदय का वेदन करने वाले जीव को वेदक कहते हैं, उसके जो सम्यग्दर्शन होता है उसे वेदक सम्यग्दर्शन कहते हैं


*प्रश्न के उत्तर*

*3:5:21*

 


1️⃣तिर्यञ्च को  कौन सा सम्यग्दर्शन नहीं  होता है,

🅰️क्षायिक सम्यग्दर्शन

2️⃣सम्मूर्च्छन पंचेन्द्रिय जीव कहाँ नहीं होते हैं, 

🅰️भोगभूमि में 

3️⃣त्रसकाय  कितने प्रकार के  होते है कौन कौन से नामलिखें

🅰️दो प्रकार के होते हैं 

विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रिय

4️⃣सम्यग्दृष्टि मनुष्य (बद्धायुष्क मनुष्य को छोड्‌कर) और तिर्यच् नियम से कहाँ जाते हैं ।

🅰️स्वर्ग में 

5️⃣पंचेन्द्रिय तिर्यंचो की स्वकाय स्थिति  कितने भव । होती है 

🅰️सात या आठ भव

6️⃣नव प्राणों के अतिरिक्त दसवां मनोबल प्राण किसमे  पाया जाता हैं

🅰️गर्भज पंचेन्द्रियतिर्यंचों में 

7️⃣किन  जीवों के कृतकृत्य वेदक की अपेक्षा वेदक सम्यक्त्व भी पाया जाता है।

🅰️भोगभूमि के तिर्यंच में 

8️⃣ये जीव यद्यपि अपर्याप्त होने संभव हैं पर यह क्या कभी नहीं होते।

🅰️सूक्ष्म 

9️⃣कौन से  नामकर्म का उदय है वे त्रस कहलाते हैं।

🅰️त्रस नामकर्म 

🔟बद्धायुष्क किसे कहते है

🅰️जिसने अगले भव की आयु बांध ली है।


4:5:21

 त्रस काय को जँगम काय भी कहते हैं।



 पंचेन्द्रिय जीव  3लोकों में पाये जा सकते हैं 


 त्रसकाय में कितनी  के जीव - चारों गति के जीव (नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव)पाये जाते हैं 


त्रस जीवों के 9 लक्षण  है 

उत्तर- 1. अभिकृत = सामने आना ।

 2. पड्डिक्कतं = पीछे लोटना 3. संकुचियं श -सिकोड़ना ।

 4. पसारियं -शरीर को फैलाना । 5. रुयं -बोलना या रोना ।

 6. भंतं = = = होना 

7. तसियं = त्रास पाना । 

8 पलाइयं- भागना 

9. आगइगइ = आवागमन करना कारणों से त्रस जीवों की पहचान होती हैं

तिर्यंच का आयुष्य दोनों(पाप, पुण्य) माना गया है | तिर्यंच में भी कई पुण्य प्रकृतियों का उदय हो सकता है, किन्तु अधिकतर तिर्यंच पाप प्रकृति के उदय से होते हैं।


तिर्यंच श्रावक बारहव्रती नहीं, ग्यारहव्रती होते हैं। उनके बारहवां व्रत नहीं होता, क्योंकि सुपात्र दान देने के लिए उनके पास कुछ नहीं होता।

पर तिर्यंच श्रावक सुपात्र दान की दलाली कर सकता है। बलभद्र मुनि के जीवन में एक प्रसंग आता है कि एक हिरण जाति के श्रावक ने दान की दलाली की थी ।

तिर्यंच में नौ उपयोग होते हैं    तीन दर्शन

चक्षु, अचक्षु, अवधि।   औऱ


तीन ज्ञान मति, श्रुत, अवधि |

तिर्यंच में क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त नहीं हो सकती।

(दर्शनमोहनीय कर्म के क्षीण हो जाने पर जो निर्मल श्रद्धान होता है उसको क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैंं।)

 हां उनको क्षायोपशमिक सम्यक्त्व हो सकती है ।

(निज शुद्धात्मसन्मुख पुरुषार्थी जीव के पूर्वोक्त सात प्रकृतियों के क्षयोपशम के समय में अर्थात् निमित्त से होनेवाले श्रद्धागुण के सम्यक् परिणमन को क्षायोपशमिकसम्यक्त्व कहते हैं ।)


तिर्यंच में क्षयोपशम के छब्बीस प्रकार होते हैं


तिर्यंच में कुल नौ दण्डक होते हैं— पांच स्थावर काय, तीन विकलेन्द्रिय, एक तिर्यंच पंचेन्द्रिय (१२ से २० तक) ।

तिर्यंचों में अधिगम सम्यक्त्व मानी गई है। 

(मौखिक उपदेशों को सुनकर या लिखित उपदेशों को पढ़कर जीव जो भी गुण दोष उत्पन्न करता है वे अधिगमज कहलाते हैं,)

वहां किसी न किसी निमित्त से सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है


*4:5:21*

प्रश्न  के उत्तर



1️⃣लिखित उपदेशों को पढ़कर

जीव जो भी गुण दोष उत्पन्न करता है वे क्या कहलाता हैं

🅰️ *अधिगमज*

 2️⃣तिर्यंच के तीन दर्शन है कौन कौन से


🅰️ *चक्षु, अचक्षु, अवधि*

3️⃣तिर्यंच में भी कई कौन सी प्रकृतियों का उदयहो सकता हैं

🅰️ *कई पुण्य प्रकृत्तियों का*

4️⃣त्रस काय को और  भी क्या कहते हैं।

🅰️ *जँगम काय*

5️⃣तिर्यंच में कुल  कितने दण्डक होते 12 से--- तक

🅰️ *9दंडक 12से20तक*

6️⃣पलाइयं का अर्थक्या है

🅰️ *भागना*

7️⃣उनके बारहवां व्रत नहीं होता, क्यों?

🅰️ *क्योंकि सुपात्र दान देने के लिये उनके पास कुछ नहीं होता*

8️⃣बलभद्र मुनि के जीवन में एक प्रसंग आता है कि एक कौन सी जाति के श्रावक ने दान की दलाली की थी ।

🅰️ *हिरण जाति*

9️⃣उनको कौन सा सम्यक्त्व हो सकती है ।

🅰️ *क्षायोपशमिक सम्यकतव*


🔟त्रस जीवों के कितने लक्षण  है और कोई दो के नाम लिखे।

🅰️ *9लक्षण। भंतं,तसियं*

*5:5:21*

*अध्याय*


तिर्यंचों के सम्यक्त्व प्राप्ति के तीन हेतु माने गये हैं⤵️


१. तीर्थंकरों, सर्वज्ञों तथा मुनियों के उपदेश से।


चंडकौशिक जी को महावीर जी

ने उपदेश दिया।


और एक बार स्वंय वीर भगवान

जब सिंह योनि में थे और मांस

भक्षण कर रहे थे तब

सिंह किसी समय एक हिरण को पकड़कर खा रहा था। उसी समय अतिशय दयालु ‘ दो चारण ऋद्धिधारी मुनि आकाश मार्ग से उतर कर उस सिंह के पास पंहुचे और शिलातल पर बैठकर जोर—जोर से उपदेश देने लगे।

और उनसे प्रतिबोधित  

सिंह का मांसाहार के सिवाय और कोई आहार नहीं अत: मांस का त्याग करने से उसने ‘‘निराहार व्रत’’ ग्रहण किया था।


*२. पूर्व जन्म के मित्र देव की प्रेरणा से* ।


*३. जाति स्मरण ज्ञान की प्राप्ति से* ।उदाहरण

पार्श्वनाथजी को ध्यानमग्न अवस्था में देखकर जातिस्मरण ज्ञान महीधर हाथी को हुआ।


 जंगल में आग देखकर मेरुप्रभ हाथी जातिस्मरण ज्ञान हुआ

 सर्प के भव में कुरगडु मुनि।

को जातिस्मरण ज्ञान हुआ❓


धर्मनाथ जी की पर्षदा में  चूहे को जातिस्मरण ज्ञान हुआ।

:  

जैसे नंदनमनिहार के जीव मेंढक  को जाति स्मरण ज्ञान की प्राप्ति हुई औऱ अपना कल्याण किया

ऐसे कई उदाहरण है।

केवल समनस्क तिर्यंचों में ही संवर संभाव्य है ।

*1. तिर्यंच की उत्कृष्ट स्थिति * एक तिहाई करोड़ पूर्व अधिक तीन पल्योपम की हैं।*त्रसपर्याय का उत्कृष्ट काल साधिक दो हजार सागर ही है

*अब तिर्यंच से एक परिचय करें*


*त्रस तिर्यंच के*  *श्रेणीबद्ध*

*२६ भेद है*

*२६ भेद इस प्रकार हैं-*

(*द्विन्द्रिय से चतुरिन्द्र तक का विस्तृत वर्णन इंद्रिय वर्णन के साथ करेंगे, अभी एक परिचय*)

 इसमें दस भेद संमूर्च्छिम के और दस भेद गर्भज के होते है 


*1द्वीन्द्रिय*- शंख सीप, कौड़ी, गिंडोला, लट, , जलोक, पोरे, कृमि आदि स्पर्शन और रसना इन दो इन्द्रियों के धारक जीव द्वीन्द्रिय  है।

यह अपर्याप्त और पर्याप्त के भेद से दो प्रकार के हैं। 


*(२) त्रीन्द्रिय* - जू, लीख, कीड़ी खटमल, कुंथवा, धनेरा, इल्ली, उदेई (दीमक) , मकोड़े, गधइये आदि काया, मुख और नाक-इन तीन इन्द्रियों के धारक जीव त्रीन्द्रिय कहलाते हैं। यह भी दो प्रकार के हैं- अप्रयापत और पर्याप्त। 


(३) चतुरिन्द्रिय- डांस मच्छर, मक्खी, टिड्डी, पतंग, भ्रमर, बिच्छू, केकड़ा मकड़ी, वधई, कंसारी आदि कान, मुख, नाक और आंख, इन चार इन्द्रियों के धारक जीव चौइन्द्रिय हैं।


 यह भी दो प्रकार के हैं-अपर्याप्त और पर्याप्त। यह तीनों प्रकार के त्रस जीव विकलेन्द्रिय या विकलत्रस कहलाते हैं।


*प्रश्न के उत्तर*

*5:5:21*

*इस no पर भेजे* ⤵️

1️⃣त्रसपर्याय का उत्कृष्ट काल कितना है।

🅰️साधिक दो हजार सागर

2️⃣शिलातल पर बैठकर जोर—जोर से कौनउपदेश देने लगे।

🅰️दो चारण ऋद्धि धारी मुनि 

  3️⃣किसने मांस का त्याग करने से उसने ‘‘निराहार व्रत’’ ग्रहण किया था।

🅰️वीर प्रभु नेसिंह की योनि में 

4️⃣जंगल में आग देखकर किसकोजातिस्मरण ज्ञान हुआ

🅰️मेरुप्रभ हाथी को

5️⃣२६ भेद में से 10 -भेद किस किसके है

🅰️समूर्छिम और गर्भज

6️⃣जलोक, पोरे, कृमि  कौन सी इन्द्रिय के जीव है

🅰️द्वीन्द्रिय

7️⃣धर्मनाथ जी की पर्षदा में  किसे को जातिस्मरण ज्ञान हुआ।

🅰️चूहे को

8️⃣केकड़ा मकड़ी, वधई, कंसारी कौन सी इन्द्रिय के जीव है

🅰️चतुरिन्द्रिय

9️⃣तिर्यंचों के सम्यक्त्व प्राप्ति के कितनेहेतु माने गये हैं

🅰️तीन

🔟सर्प के भव में कौन से मुनिको जातिस्मरण ज्ञान हुआ❓

🅰️करगडु मुनि को


*6:5:21*

*अध्याय*


3. असन्नी तिर्यंच पंचेन्द्रिय काल करके   देव गति  में भी  जा सकते है। 

सन्नी तिर्यंच पंचेन्द्रिय में पर्याप्तक जीवों में किसी-किसी में अवधिज्ञान विभंगज्ञान हो सकता है । वह भी वर्षायुष्क में ही हो सकता है, असंख्यात वर्षायुष्कों में नहीं होता । 

*हम प्रतिक्रमण में बोलते हैं  4 गति 84 लाख जीव योनियों पर राग द्वेष आया हो तो   -तस्स मिच्छामि दुक्कड़म*

उसमे तिर्यञ्चों की जातियाँ(योनिया) - इतनी है🌈

(3) पृथ्वीकायिक की - 7 लाख


(4) अपकायिक की - 7 लाख


(5) तेजसकायिक की - 7 लाख


(6) वायुकायिक की 

- (7) प्रत्येकवनस्पतिकायिक की -10 लाख

14 लाखसाधारण वनस्पति काय के -

(1) नित्यनिगोद की - 7 लाख


(2) इतर निगोद की - 7 लाख


(8) द्वीन्द्रिय की - 2 लाख


(9) त्रीन्द्रिय की - 2 लाख


(1०) चतुरिन्द्रिय की - 2 लाख


(1) पंचेन्द्रिय की -4 लाख


कुल =62 लाख




*तिर्यञ्चों के कुल- इस प्रकार है*


(1) पृथ्वीकायिक के -22 लाख करोड़


(2) अपकायिक के - 7 लाख करोड़


(3) तेजसकायिक के - 3 लाख करोड़


(4) वायु कायिक के- 7 लाख करोड़


(5) वनस्पतिकायिक के - 28 लाख करोड़


(6) द्वीन्द्रिय के - 7 लाख करोड़


(7) त्रीन्द्रिय के -8 लाख करोड़


(8) चतुरिन्द्रिय के -9 लाख करोड़


(9) जलचर के - 12 1/2 लाख करोड़


(1०) थलचर के - 19 लाख करोड


( 11) नभचर के - 12 लाख करोड़


योग=134 1/2 लाख करोड़ कुल

भोगभूमिज

तिर्यंचों के पहला, दूसरा, तीसरा और चौथा ये चार गुणस्थान तक हो सकते हैं। वहाँ पर पाँचवां देशविरत गुणस्थान नहीं होता है।

क्योंकिवँहा गुरुओं के उपदेश या देवों के प्रतिबोध आदि कारणों से पाँच अणुव्रतों को ग्रहण नहीं कर सकते

भोगभूमिज तिर्यंचों में संकल्पवश केवल एक सुख ही होता है और कर्मभूमिज तिर्यंचों में सुख-दु:ख दोनों ही पाये जाते हैं।

भोगभूमिया तिर्यंंच के  कुल होते हैं🌈


भोगभूमिया तिर्यञ्चों के 31 लाख करोड़ कुल होते हैं-


थलचर के - 19 लाख करोड़ तथा नभचर के 12 लाख करोड़ । भोगभूमि में एकेन्द्रिय, विकलत्रय तथा जलचर जीव नहीं पाये जाते हैं । इसलिए उनके कुल ग्रहण नहीं किये है । नोट - यद्यपि वहाँ एकेन्द्रिय, औऱ जलचर जीव होते हैं, लेकिन वे भोगभूमिया नहीं होते हैं, सामान्य  हैं, इसलिए यहाँ उनके कुलों का ग्रहण नहीं किया है ।

*प्रश्न के उत्तर*

*6:5:21*


1️⃣भोगभूमि में  कौन 2 से जीव नहीं पाये जाते हैं ।

🅰️एकेन्द्रिय,विकलत्रय तथा जलचर 

2️⃣असन्नी तिर्यंच पंचेन्द्रिय काल करके कहाँ   जा सकते है। 

🅰️देव गति में 

3️⃣हम प्रतिक्रमण में क्या बोलते हैं 

🅰️चार गति चौरासी लाख जीवयोनि पर राग-ध्देष आया हो तो तस्स मिच्छामि दुकक्ङम 

4️⃣भोगभूमिजतिर्यंचों के  कितने  गुणस्थान तक हो सकते हैं।

🅰️चार गुणस्थान 

5️⃣भोगभूमिया तिर्यञ्चों के कितने करोड़ कुल होते हैं-


🅰️31लाख करोड़ 

6️⃣अवधिज्ञान विभंगज्ञान हो सकता है । वह भी ----- में ही हो सकता है

🅰️वर्षायुष्क 

7️⃣तिर्यंच की कूल(total) कितनी जातियाँ है

🅰️62लाख 

 8️⃣भोग भूमि के थलचर के - कुल(परिवार) कितने है

🅰️19लाख करोड़ 

9️⃣ द्वीन्द्रिय की -  कितनी जातियाँ होती है

🅰️2लाख 

🔟7 लाख करोड़ कुल(परिवार) किस किस के है

🅰️पृथ्वी कायिक के 7 लाख 

अप्पकायिक 7 के लाख

‌ तेजस कायिक के 7 लाख

नित्य निगोद 7के लाख

इतर निगोद के 7 लाख

वायु कायिक  के 7 लाख

द्विन्द्रिय के 7 लाख

*7; 5:21*

*अध्याय*


*आइयेएक नजर  दृष्टि अगोचर द्वीप  के तिर्यंच पर भी* 

*जानकारी के बतौर कर ले*


मानुषोत्तर पर्वत से आगे असंख्यातों द्वीपों में स्वयंभूरमण पर्वत के इधर-उधर तक जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था है। इन सभी में असंख्यातों तिर्यञ्च युगल रहते हैं।


स्वयंभूरमण पर्वत के उधर आधे द्वीप में और स्वयंभूरमण समुद्र में कर्मभूमि की व्यवस्था है ।अर्थात् यहाँ के तिर्यंच कर्मभूमि के तिर्यञ्च हैं। वहाँ प्रथम गुणस्थान से पंचम गुणस्थान तक हो सकता है। देवों द्वारा सम्बोधन पाकर या जातिस्मरण आदि से असंख्यातों तिर्यञ्च सम्यग्दृष्टि देशव्रती बनकर स्वर्ग प्राप्त कर लेते हैं।


असंख्यात द्वीपों में "जघन्य-भोग-भूमि" हैं, जिनमे असंख्यात त्रियंच-युगल रहते हैं !


जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड, पुष्करार्ध और स्वयंभूरमण नामक जो चार द्वीप हैं उनको छोड़कर शेष असंख्यात द्वीपों में उत्पन्न हुए जो पंचेन्द्रिय संज्ञी, पर्याप्तक तिर्यंच जीव हैं वे पल्यप्रमाण आयु से युक्त, दो हजार धनुष ऊँचे, सुकुमार, कोमल अंगो वाले, मंदकषायी, फलभोजी हैं। ये युगल उत्पन्न होकर चतुर्थ भक्त्त से भोजन करते हैं। ये सब मरकर नियम से सुरलोक में जाते हैं। उनकी उत्पत्ति सर्वदर्शियों द्वारा अन्यत्र नहीं कही गई है१।


इसके अनन्तर आधे स्वयंभूरमण द्वीप में और स्वयंभूरमण समुद्र में जो तिर्यंच हैं वे कर्मभूमियां कहलाते हैं अर्थात् स्वयंभूरमण द्वीप में भी बीचोंबीच में चूड़ी के समान आकार वाला मानुषोत्तर पर्वत के सदृश एक पर्वत है उसका नाम स्वयंप्रभ पर्वत है। इस पर्वत से इधर-इधर भोगभूमिज तिर्यंच हैं और उसके परे कर्मभूमिज तिर्यंच हैं। भोगभूमिज तिर्यंचों में विकलत्रय जीव (दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इन्द्रिय) नहीं होते हैं।

लवण समुद्र,कालोदधि और स्वयंभूर मण  सागर में जलचर जीव होते है शेष में नहीं होते !स्वयंभूरमन सागर में महामत्स्य १००० योजन लम्बा २५० योजन चौड़ा और ५००   योजन ऊँचा है !जो की मरकर सातवे नरक में जन्म लेता है !


अढाई द्वीप में हस्ती और सिंह की आयु मनुष्य की आयु के ही बराबर होती है, घोड़ेकी आयु मनुष्य का चौथा भाग, बकरे-मेढ़े, जम्बुक की आयु आठवा भाग; गाय, भैंस, ऊंट, गधे पांचवां भाग और कुत्ते की आयु दसवां भाग समझना चाहिए ।

*8:5:21*

*अध्याय*

स्वयंभूरमण समुद्र में तिमितिमिंगिलादिक महामत्स्य रहते हैं, उनका शरीर बहुत बड़ा होता है। उनके शरीर की लंबाई हज़ार योजन की कही है। वे मत्स्य छह मास तक अपना मुँह उघाड़कर नींद लेते हैं, नींद खुलने के बाद आहार में लुब्ध होकर अपना मुँह बंद करते हैं, तब उनके मुँह में जो मत्स्य आदि प्राणी आते हैं, उनको वे निगल जाते हैं। वे मत्स्य आयुष्य समाप्ति के अनंतर अवधिस्थान नामक नरक में प्रवेश करते हैं। इन मत्स्यों के कान में शालिसिक्थ(तंडुल मत्स्य) नामक मत्स्य रहते हैं, वे उनके कान का मल खाकर जीवन निर्वाह करते हैं। उनका शरीर तंडुल के सिक्थ के प्रमाण होता है इसलिए उन्हें तंडुल मत्स्य कहते हैं ,औऱ इसलिए  भी उनका नाम सार्थक है। वे अपने मन में ऐसा विचार करते हैं कि यदि हमारा शरीर इन महामत्स्यों के समान होता तो हमारे मुंह से एक भी प्राणी न निकल सकता, हम संपूर्ण को खा जाते।  इस प्रकार तंडुल मत्स्य

के विचार से उत्पन्न हुए पाप से वे भी अवधिस्थान नरक में प्रवेश करते हैं।




*अढ़ाई द्वीप के बाहर के पक्षी*(खेचर)


*सामन्तपक्षी*—अर्थात् डिब्बे के समान भिड़े हुए गोल पंखों वाले, 


*वितत- पक्षी*- विचित्र प्रकार के पंखों वाले। यह अन्तिम दो प्रकार के पक्षी अढ़ाई द्वीप के बाहर होते हैं।


*पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च के  भेद हैं*-


*(१) जलचर* अर्थात् पानी में रहने वाले मत्स्य आदि जीव। इनके चार भेद हैं-संज्ञी और असंज्ञी के पर्याप्त तथा अपर्याप्त। जलचर जीवों के कुछ विशेष नाम ये हैं-मच्छ, कच्छ, मगर, सुंसमार, कछुवा, मेंढक आदि।

गर्भज जलचर के जीवोंकी उत्कृष्टअवगाहना

१ हजार योजन होती है

गर्भज जलचर का उत्कृष्ट आयुष्य करोड पूर्व वर्ष होता है

गर्भज जलचर की स्वकाय स्थिति 6-7 होती है।

शास्त्रो में वर्णित है चुडी एवं नलिया के अतिरिक्त समस्त आकारों में जलचर प्राणी होते है  जलचर जीवों के संमूर्च्छिम एवं गर्भज रुप दो भेद होते हैं । ये दोनो पर्याप्ता-अपर्याप्ता की अपेक्षा से कुल चार भेद होते है ।मत्स्य क्षायिक सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता है क्योंकि तिर्यञ्च में क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव भोग-भूमियों में ही होते हैं 

जलचर तिर्यंच श्रावक : जलचर श्रावक सामायिक, पौषध आदि व्रतों की उपासना कर सकते है। पानी मेंभी स्थिर रहकर वे सामायिक आदि करते हैं, ऐसा आचार्यों का अभिमत है।

*2) खेचर*-आकाश में उड़ने वाले। 

गर्भज खेचर जघन्यअंगुल का असंख्यातवां भागउत्कृष्ट दो से नौ धनुष्य अवगाहना

संमूर्च्छिम खेचर अंगुल का असंख्यातवां भाग दो से नौ धनुष्य

इनके भी चार भेद हैं -संज्ञी और असंज्ञी के पर्याप्त

 तथा अपर्याप्त। खेचर के विशेष नाम ये हैं-


*(क) रोमपक्षी*- अर्थात् बालों के पंख वाले, जैसे-तोता, मैना, कौआ, चिड़िया, कमेडी, कबूतर, चोल, बगुला, बाज, होल, चण्डूल , जलकुक्कुर आदि।


 *(ख) चर्मपक्षी* अर्थात् चमड़े के पंख वाले, जैसे-चमगादड़, वटबगुला आदि। 

*४) उर:परिसर्प*-हृदय के बल से चलने वाले सर्प आदि प्राणी। इनके भी चार भेद हैं-संज्ञी और असंज्ञी तथा इन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त।

गर्भज उरपरिसर्प जघन्य अंगुल का असंख्यातवां भाग उत्कृष्ट एक हजार योजन

*प्रश्न के उत्तर*


*8:5:21*




1️⃣ तंडुल मत्स्य कौन सी नरक में जाते है

🅰️अवधिस्थान नामक

2️⃣हृदय के बल से चलने वाले सर्प आदि प्राणी को क्या कहते हैं।


🅰️उरःपरिसर्प


3️⃣गर्भज खेचर जघन्य  औऱ उत्कृष्ट  अवगाहना  कितनी


🅰️जघन्य अंगुल का असंख्यातवां भाग  ,उत्कृष्ट दो से नौ धनुष्य 


4️⃣तोता, मैना, कौआ, चिड़िया, कमेडी, ये किस श्रेणीके खेचर है


🅰️रोम पक्षी


5️⃣क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव कँहा होते है


🅰️भोग भूमि में 


6️⃣चर्मपक्षी। किसे कहते है* 


🅰️चमडे़ के पंख वाले जैसे चमगादड़, वटबगुला आदि को 


7️⃣ अढ़ाईद्वीप  के बाहर के पक्षी*(खेचर) का एक नाम 

लिखें।


🅰️सामन्त पक्षी


8️⃣खेचर किसे कहते हैं


🅰️आकाश में उडने वाले को 


9️⃣इन मत्स्यों के कान में   कौन सा मत्स्य रहते हैं,


🅰️शालिशिक्थ


🔟किसके अतिरिक्त समस्त आकारों में जलचर प्राणी होते है।


🅰️चूड़ी और नलिया



*10:5:21*

*अध्याय*


उर : परिसर्प के की उत्कृष्ट  आयु क्रोड  पूर्व है


उर : परिसर्प के

कुछ विशेष नाम यह हैं:- 



*(१) अहि (सर्प)*, इनमें कोई फन वाले होते हैं और कोई बिना फन के होते है। यह सर्प पांचों ही वर्ण के होते हैं। 


*(२) अजगर*- जो मनुष्य आदि को भी निगल जाते हैं।


 *(३) अलसिया*—जो बड़ी सेना के नीचे उत्पन्न होते हैं। 


चक्रवर्ती तथा वासुदेव के पुण्य का क्षय होने पर उनके घोड़े की लीद में 12 योजन (48 कोस) लम्बे शरीर वाला अलसिया उत्पन्न होता है। उसके तड़फड़ाने से पृथ्वी में बड़ा-सा गड्ढा हो जाता है। उस गड्ढे में सारी सेना, कुटुम्ब एवं ग्राम दबकर नष्ट हो जाता है।


*(४) महोरग*-लम्बी अवगाहना वाला, जिसकी लम्बी से लम्बी एक हजार योजन की अवगाहना होती है।


*

*(५) भुजपरिसर्प*-भुजाओं के बल से चलने वाले जीव;


 जैसे-चूहा, नेवला, घुंस, काकीडा, विस्मरा, गोह, गुहेरा आदि। इनके भी दो भेद हैं -संज्ञी और असंज्ञी। इन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो-दो भेद होते हैं।

 सब मिलकर

इस प्रकार ५ x ४ = २० भेद तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय के समझने चाहिएं।  

वैसे सारे मिला कर २२ + ६ + २० = ४८ भेद तिर्यञ्चों के हुए।

सन्नी तिर्यंच पंचेन्द्रिय


1. शरीर सन्नी तिर्यंच पंचेन्द्रिय में शरीर  चार प्रकार के होते है औदारिक, वैक्रिय, तैजस और कार्मण।


2. अवगाहना- सन्नी तिर्यंच पंचेन्द्रिय के पाँच भेद जलचर, स्थलचर, खेचर, उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प सभी की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग, 

उत्कृष्ट जलचर की 1000 योजन,

 स्थलचर की 6 गाउ,

 खेचर की प्रत्येक धनुष, उरपरिसर्प की 1000 योजन और 

भुजपरिसर्प की प्रत्येक गाउ की।


सन्नी तिर्यंच पंचेन्द्रिय वैक्रिय लब्धि का प्रयोग करे तो अवगाहना जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग, 

उत्कृष्ट पृथक्त्व सौ (जघन्य 200 उत्कृष्ट 900 ) योजना


3. संहनन- छहों संहनन ।


4. संस्थान- छहों संस्थान


5. कषाय चारों कषाय।


6,संज्ञा चारों संज्ञा


7. लेश्या छहों लेश्या ।


8. इन्द्रिय पाँचों इन्द्रियाँ


9. समुद्घात- समुद्घात होती है पाँच वेदनीय, कषाय, मारणान्तिक, वैक्रिय और तैजस 

10. सन्नी सभी सन्नी है, असन्नी नहीं।


11. वेद- तीनों वेद ।


12. पर्याप्ति छहों पर्याप्ति


13. दृष्टि तीनों दृष्टि |


14 दर्शन दर्शन पावे तीन चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन।


15. ज्ञान- ज्ञान पावे तीन मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान।


16. अज्ञान- तीनों अज्ञान


17. योग-  13 योग  होते है- 4 मन के, 4 वचन के और 5 काया के औदारिक, औदारिक मिश्र, वैक्रिय, वैक्रिय मिश्र और

कार्मण काययोग।


18 उपयोग -9उपयोग  होते हैं तीन ज्ञान, तीन अज्ञान और तीन दर्शन


19. आहार -आहार 288  प्रकार  का छहों दिशाओं से लेते है।


20. उपपात - एक समय में जघन्य 1-2-3 यावत् संख्याता, उत्कृष्ट असंख्याता  होता है

संकलन अंजुगोलछा

*प्रश्न के उत्तर*

*10:5:21*


1️⃣आहार कितने प्रकार के होते और आहार कँहा से लेते हैं

🅰️ *288 प्रकार के छहों दिशाओं से लेते है*

2️⃣9उपयोग  होते हैं कौन कौंन से कोई 3 नाम लिखे

🅰️ *तीन ज्ञान, तीन अज्ञान, तीन दर्शन*

3️⃣उर : परिसर्प के कुछ विशेष नाम यह हैं क़ोई दो नाम लिखो

🅰️ *अहि सर्प,अजगर*

4️⃣समुद्घात होती है कोई दो का नाम  लिखे

🅰️ *वैक्रिय, तेजस*

5️⃣5 काया के कौन कौन से योग होते हैं लिखे

🅰️ *औदारिक, औदारिक मिश्र, वैक्रिय, वैक्रिय मिश्र,कार्मण योग*

6️⃣उस गड्ढे में क्या-क्या दबकर नष्ट हो जाता है।

🅰️ *सारी सेना, कुटुंब एवं ग्राम*

7️⃣उत्कृष्ट जलचर की अवगाहना कितनी

🅰️ *1000 योजन*

 8️⃣कौन सा सर्प पांचों ही वर्ण के होते हैं। 

🅰️ *अहि सर्प*

9️⃣जो बड़ी सेना के नीचे उत्पन्न होते हैं उन्हें क्या कहते है

🅰️ *अलसिया*

🔟चूहा, नेवला, घुंस, ये किसके प्रकार है

🅰️ *भुजपरिसर्प*

*इस no पर भेजे* ⤵️



*अंजुगोलछा*

*आप लिख कर टाइप करके या वॉइज  मैसेज भी भेज सकते हैं*


*ऊपर का अध्याय पढ़ कर इन प्रश्न का उत्तर  देना है, कल प्रातः 10बजे तक*।

*11:5:21*

*अध्याय*


21- स्थिति सन्नी तिर्यंच पंचेन्द्रिय के पाँच भेद- जलचर, स्थलचर, खेचर, उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प ।

सभी की स्थिति (आयु)जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट जलचर की एक करोड़ पूर्व 

स्थलचर की तीन पल्योपम खेचर की पल्योपम के असंख्यातवें भाग 

उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प की एक एक करोड़ पूर्व की।


• करोड़ पूर्व या इससे कम स्थिति वाले सन्नी तिर्यंच पंचेन्द्रिय पर्याप्त ही वैक्रिय लब्धि का प्रयोग कर सकते हैं, इससे ऊपरकी स्थिति वाले नहीं।

22. मरण समोहया असमोहया दोनों प्रकार के मरण से मरते हैं।


23. जन्म - एक समय में जघन्य 1-2-3 यावत् संख्याता, उत्कृष्ट असंख्याता  जन्म


24. गति- चारों गति और चौबीस दण्डक से आते हैं और चारों गति, चौबीस दण्डक में जाते हैं ।


25. प्राण प्राण  दसों ही।


26. योग- योग  तीनों ही ।




*संमूर्च्छिम मनुष्य औऱ तिर्यंच* =

 वे जीव, जो माता-पिता के संयोग के बिना अन्य बाह्य संयोग प्राप्त होने पर उत्पत्ति होती है उत्पत्ति स्थान में स्थित औदारिक पुद्गलों को शरीर में परिणत करके उत्पन्न होते हैं, उनको संमूर्च्छिम जीव कहा जाता हैं ।

और सन्धि विच्छेद करे तो

तीनों लोकों में ऊपर, नीचे, और तिरछे देह का चारों ओर से मूर्च्छन् अर्थात् ग्रहण होना सम्मूर्छन है। (अर्थात् चारों ओर से पुद्गलों का ग्रहण कर अवयवों की रचना होना); 

कर्मभूमि में चक्रवर्ती, बलभद्र वगैरह बड़े राजाओं के सैन्यों में मलमूत्रों का जहाँ क्षेपण करते हैं ऐसे स्थानों पर, वीर्य, नाक का मल, कफ, कान और दाँतों का मल और अत्यंत अपवित्र प्रदेश इनमें तो तत्काल उत्पन्न होते हैं। जिनका शरीर अंगुल के असंख्यात भाग मात्र रहता है।  उनको सम्मूर्च्छन मनुष्य एव त्तिर्यच कहते हैं।

और अधिकांश जो जन्म लेने के बाद शीघ्र नष्ट होते हैं और जो लब्ध्यपर्याप्तक भी होते हैं


एक, दो, तीन, चार इंद्रिय वाले जीवों का, किन्हीं पंचेंद्रिय तिर्यंचों तथा मनुष्यों का संमूर्च्छन जन्म होता है।

 

एवं तिर्यंचों की उत्पत्ति के चौदह अशुचि स्थान कौनसे हैं ?


1.मल, 2.पेशाब, 3. कफ, 4. नाक का मल, 5. वमन 6.पित्त,7. पीब-मवाद्, 8. रूधिर, 9. वीर्य, 10. त्याग किये गये वीर्य के पुद्गल, 11. मुर्दा शरीर, 12. पुरुष-स्त्री का परस्पर संयोग, 13. मेल, 14. पसीना ।

जघन्य दस हजार तथा उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यात्वें भाग की आयुष्य वाले संमूर्च्छिम तिर्यंच प्राणी प्रथम नरक तक 

जाते है।

*प्रश्न के उत्तर*

*11:5:21*

 


1️⃣स्थलचर की उत्कृष्ट आयु कितनी

🅰️तीन पल्योपम 

2️⃣तिर्यंचों की उत्पत्ति के कितने अशुचि स्थान है, कोई दो स्थान बताये 

🅰️चौदह स्थान है 

कफ, रुधिर 

3️⃣मूर्च्छन् अर्थात् क्या

🅰️ग्रहण होना

4️⃣किस आयु के पंचेन्द्रिय पर्याप्त ही वैक्रिय लब्धि का प्रयोग कर सकते हैं,

🅰️करोड़ पूर्व या इससे कम स्थिति वाले 

 5️⃣कौन सी   आयुष्य वाले संमूर्च्छिम तिर्यंच प्राणी प्रथम नरक तक जाते है।

🅰️जघन्य दस हजार और उत्कृष्ट  पल्योपम के असंख्यातवे भाग की

 6️⃣चारों --- और चौबीस --- से आते हैं

🅰️चारो गति और चौबीस दण्डक

7️⃣संमूर्च्छिम मनुष्य औऱ तिर्यंच* किसे  

  🅰️जिनकी उत्पत्ति बाह्य संयोग से होती है और जिनका शरीर अंगुल के असंख्यात भाग मात्र रहता है। 

8️⃣अत्यंत अपवित्र प्रदेश इनमें तो तत्काल क्या होते हैं।

🅰️समूर्छिम जीव

9️⃣कौन से  दोनों प्रकार के मरण से मरते हैं।

🅰️समोहया, असमोहया

🔟एक एक करोड़ पूर्व कीआयु किस किस की है

🅰️उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प


*12:5:21*

पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीवों की अवगाहना  होती है ⤵️


पर्याप्ता पंचेन्द्रिय तिर्यंच जघन्य उत्कृष्ट

1 संमूर्च्छिम जलचर अंगुल का असंख्यातवां भाग एक हजार योजन

2 गर्भज जलचर अंगुल का असंख्यातवां भाग एक हजार योजन

3 संमूर्च्छिम चतुष्पद अंगुल का असंख्यातवां भाग दो से नौ कोस

4 गर्भज चतुष्पद अंगुल का असंख्यातवां भाग छह कोस

5 संमूर्च्छिम उरपरिसर्प अंगुल का असंख्यातवां भाग दो से नौ योजन

6 गर्भज उरपरिसर्प अंगुल का असंख्यातवां भाग एक हजार योजन

7 संमूर्च्छिम भुजपरिसर्प अंगुल का असंख्यातवां भाग दो से नौ धनुष्य

8 गर्भज भुजपरिसर्प अंगुल का असंख्यातवां भाग दो से नौ कोस

9 संमूर्च्छिम खेचर अंगुल का असंख्यातवां भाग दो से नौ धनुष्य

10 गर्भज खेचर अंगुल का असंख्यातवां भाग दो से नौ धनुष्य

पंचेन्द्रिय अपर्याप्ता गर्भज एवं संमूर्छिम तिर्यंचो की अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी होती है ।



 पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीवों का आयुष्य इतना होता है ⤵️


पंचेन्द्रिय तिर्यंच जघन्य उत्कृष्ट

1 संमूर्च्छिम जलचर अन्तर्मुहूर्त करोड पूर्व

2 गर्भज जलचर अन्तर्मुहूर्त करोड पूर्व

3 संमूर्च्छिम चतुष्पद अन्तर्मुहूर्त चौरासी हजार वर्ष

4 गर्भज चतुष्पद अन्तर्मुहूर्त तीन पल्योपम

5 संमूर्च्छिम उरपरिसर्प अन्तर्मुहूर्त तिरपन हजार वर्ष

6 गर्भज उरपरिसर्प अन्तर्मुहूर्त करोड पूर्व

7 संमूर्च्छिम भुजपरिसर्प अन्तर्मुहूर्त बयालीस हजार वर्ष

8 गर्भज भुजपरिसर्प अन्तर्मुहूर्त करोड पूर्व

9 संमूर्च्छिम खेचर अन्तर्मुहूर्त बहत्तर हजार वर्ष

10 गर्भज खेचर अन्तर्मुहूर्त पल्योपम का असंख्यातवां भाग

*प्रश्न*

*12:5:21*


1️⃣संमूर्च्छिम जलचर की अवगाहना

🅰️

2️⃣संमूर्च्छिम चतुष्पद  की अवगाहना

🅰️

3️⃣गर्भज भुजपरिसर्प कीअवगाहना

🅰️

4️⃣गर्भज खेचर कीअवगाहना

🅰️

5️⃣संमूर्च्छिम उरपरिसर्प की अवगाहना

🅰️

6️⃣गर्भज खेचर  का आयुष्य

🅰️

7️⃣संमूर्च्छिम खेचर का आयुष्य

🅰️

8️⃣गर्भज भुजपरिसर्प का आयुष्य

🅰️

9️⃣संमूर्च्छिम भुजपरिसर्पका आयुष्य

🅰️

🔟गर्भज उरपरिसर्प का आयुष्य

🅰️

*इस no पर भेजे* ⤵️



*अंजुगोलछा*

*आप लिख कर टाइप करके या वॉइज  मैसेज भी भेज सकते हैं*


*ऊपर का अध्याय पढ़ कर इन प्रश्न का उत्तर  देना है, कल प्रातः 10बजे तक*।

*13:5:21*

जंगमकाय (त्रसजीव)—त्रस जीवों की उत्पत्ति के आठ स्थान हैं। उन स्थानों के कारण त्रस जीवों के आठ भेद हैं। वे इस प्रकार हैं

:- [१] अण्डज-अंडे से उत्पन्न होने वाले पक्षी आदि।  जैसे सांप, तोता, कबूतर, मूर्गी आदि ।

[२] पोतज–वे जीव, जो बिना किसी आवरण से पेदा होता हैं । वे पोतज गर्भज कहलाते हैं । 

 जो जन्मते ही चलने-भागने वाले हाथी आदि प्राणी। 

[३] जरायुज –  जर (जेर) से उत्पन्न होने वाले

वे जीव, जो रक्त और मांस से युक्त जाल के आवरण में लिपटे हुए पैदा होते हैं, वे जरायुज गर्भज कहलाते हैं । जैसे मनुष्य, गाय, भैंस, बकरी आदि ।


 [४] रसज–रस में होने वाले कीड़े। शराब की तलछट

गुड़,रसौत आदि 


[५] संस्वेदज-पसीने में उत्पन्न होने वाले जूं आदि प्राणी। 

[६] सम्मूर्छिम– बिना माता-पिता के संयोग के, इधर-उधर के पुद्गलों के मिलने से उत्पन्न हो जाने वाले मक्खी आदि प्राणी। 

[७] उद्भिज–जमीन फोड़कर निकलने वाले पेड़, पौधे या लताएँ आदि अंकुर . उत्स; झरना।

[८] औपपातिक– देवशय्या पर दिव्य वस्त्रों से आच्छादित स्थान उपपात कहलाता है । उस उपपात स्थान पर स्थित वैक्रिय पुद्गलों को ग्रहण करके शरीरमें परिवर्तित करना औपपातिक जन्म कहलाता है । इस प्रकार का जन्म देवताओं का होता है । नारकी जीव चौडे मुँह वाली कुंभी में स्थित वैक्रिय पुद्गलों को शरीर रुप में परिणत करके जन्म लेते हैं ।

***********


पंचेन्द्रिय में देव, मनुष्य और नारकी को छोड़कर शेष सभी पंचेन्द्रिय जीव *तिर्यंच पंचेन्द्रिय* होते हैं।


*यह अशुभ आयुष्य कर्म है।*

*जानें तिर्यंच आयुष्य बन्ध के कारण–*

*( 1 ) माया शल्य करना–*

मायाप्रत्यया—कपट करने से लगने वाली क्रिया। इसके भी दो भेद हैं—

*(१) *आत्मभाववक्रता*–

दगाबाजी करना, जगत में धर्मात्मा कहलाना किन्तु अन्तर में धर्म के प्रति श्रद्धा न होना, व्यापार आदि में कपट करना । *(२) परभाववक्रता*- झूठे नाप-तोल रखना, • अच्छी वस्तु में बुरी वस्तु मिलाना, जैसे घी में तेल, दूध में पानी आदि मिलाकर बेचना, दूसरो को ठग-विद्या सिखलाना तथा इन्द्रजाल, मंत्रशास्त्र आदि दूसरों को सिखलाना।

 *और निम्न बिंदु*


💥अर्थात् कपट और शल्य मन में रखना, 


💥नियम भंग होने पर भी आलोचना नहीं करना,


💥किसी अन्य के नाम से आलोचना लेकर शल्य सहित आलोचना करना।

*14 :5:21*


*तिर्यंच  मे जन्म के कारण*


*( 2 ) निकृति–*  शब्द के इतने अर्थ हैअपमान ; तिरस्कार 2. बहिष्कार 3. दैन्य ; दीनता 4. दुष्टता ; नीचता 5. दूसरों को ठगने की क्रिया या भाव ; प्रताड़ना ; वंचना

ये सारे अर्थ हमें तिर्यंच योनि की ओर ही अग्रसर करती है

इसके अलावा

*इसके ओर बिंदु भी है*


💥गूढ़ माया करना,

💥बाहर से सद्भाव दिखाना और भीतर से वैर भाव और 💥आक्रोश रखना,


💥ढोंग-पाखण्ड आदि करना।


*( 3 ) असत्य भाषण करना–*

💥 झूठ बोलना,

💥क्रोध, भय और लोभ के कारण असत्य भाषण करना,


💥धर्मोपदेश में मिथ्या बातों को मिलाकर प्रचार करना आदि।


*( 4 ) झूठा तोल-माप करना–*


झूठे तोल और झूठे माप करना। खरीदने और बेंचने के तोल-माप अलग-अलग रखना।


*अशुभ आयुष्य कर्म बंध के*


*निवारण के उपाय–*


*पर्व तिथियों* (2-5-8-11-14) *में आयुष्य कर्म बंध की सम्भावनाएं सर्वाधिक रहती है।*

*🙏अत: हमें इन पर्व तिथियों में ज्यादा से ज्यादा धर्माराधना करनी चाहिए और पापकारी प्रवृत्तियों से बचना चाहिए। जिससे शुभ आयुष्य का बंध हो और अशुभ आयुष्य टल जाए।*


*🙏हम अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व तिथियों के दिन...*

*जमीकंद का त्याग,*

*हरी का त्याग,*


*सचित का त्याग,*

*अब्रह्मचर्य का त्याग,*

*रात्रिभोजन चौविहार त्याग*

*तथा अन्यान्य पापकारी प्रवृत्तियों से बचते हुए और धर्माराधना करते हुए  निश्चित रूप से अशुभ आयुष्य कर्म बंध को टाल सकते हैं। अर्थात् तिर्यंच योनि और नरकगति को टाल सकते हैं।*


3 गति*


*मनुष्य गति*

आइये आज हम  स्वयं को पहचाने स्वयं से स्वयं का परिचय करवाये- कहीं ये अर्थ भी उभर कर सामने आता हैं कि-

मनु की संतान होने के कारण अथवा विवेक धारण करने के कारण यह मनुष्य कहा जाता है।

जैन शास्त्रानुसार वह कर्म जिसे करने से मनुष्य  मरकर मनुष्य का ही जन्म पाता है।

मनुष्य गति मनुष्य नाम कर्म के उदय से प्राप्त होती है।मनुष्य गति में चारों गति से आये हुए जीव उत्पन्न हो सकते हैं और मनुष्य गति से जीव चारों गतियों में जा सकते हैं। 


मोक्ष की प्राप्ति मनुष्य शरीर द्वारा ही संभव है ।इसकारण यह गति सर्वोत्तम समझी जाती है

क्योंकि कर्म मुक्ति की साधना मनुष्य जीवन से ही संभव है। इसलिए मनुष्य गति को श्रेष्ठ और प्रशस्त  बताया गया है।

*प्रश्न के उत्तर*

*14:5:21*


1️⃣किसकारण यह गति सर्वोत्तम समझी जाती है

🅰️मोक्ष की प्राप्ति इस गति (मनुष्य)व्दारा ही संभव है इसलिए 

2️⃣मनु की संतान होने के कारण।  अथवा क्या धारण करने के कारण यह मनुष्य कहा जाता है।

🅰️विवेक 

3️⃣मनुष्य गति  कौन से नाम कर्म के उदय से प्राप्त होती है।

🅰️मनुष्य गति नाम कर्म के उदय से 

4️⃣पापकारी प्रवृत्तियों से  क्योंबचना चाहिए 

🅰️जिससे शुभ आयु का बंध हो और अशुभ आयु टल जाएँ 

5️⃣पर्व तिथियों कौन सी है* 

🅰️2-5-8-11-14

6️⃣जमीकंद का त्याग,*

*हरी का त्याग, विशेष कब करना चाहिए*

🅰️अष्टमी,चतुर्दशी 

7️⃣धर्मोपदेश    में  क्या बातों को मिलाकर प्रचार करना

🅰️मिथ्या बातें 

8️⃣बाहर से क्या दिखाना और भीतर से वैर भाव 

🅰️सद्भाव 

9️⃣निकृति शब्द के कई अर्थ है कोई दो बताएं

🅰️तिरस्कार 

बहिस्कार 

🔟पर्व तिथियों में क्या क्या करना चाहिए कोई दो काम बताए

🅰️सचित का त्याग 

रात्रि भोजन चौविहार का त्याग 



*इस no पर भेजे* ⤵️



*अंजुगोलछा*

*आप लिख कर टाइप करके या वॉइज  मैसेज भी भेज सकते हैं*


*ऊपर का अध्याय पढ़ कर इन प्रश्न का उत्तर  देना है, कल प्रातः 10बजे तक*।

*15:5;21*

*25 बोल का विस्तृतवर्णन*

*मनुष्य गति*


*मनुष्य लोक का वर्णन*

वर्णन जहां हम रहते हैं, यह मनुष्यलोक रत्नप्रभा पृथ्वी की छत पर है। इसके मध्यभाग में (बीचों- बीच) सुदर्शन मेरु पर्वत है। मेरु पर्वत के नीचे के भूमिभाग में, बिल्कुल बीचों-बीच गाय के स्तन के आकार के आठ रुचक प्रदेश हैं। इन रुचक प्रदेशों से ९०० योजन नीचे और ९०० योजन ऊपर, कुल १८०० ऊंचाई वाला और दस रज्जु घनाकार विस्तार वाला तिरछा लोक (या मनुष्य- लोक है)



1. मनुष्यगति किसे कहते हैं ?

*कई विवेचना*

जिस कर्म का निमित्त पाकर आत्मा मनुष्य भाव को प्राप्त करता है, वह मनुष्यगति है।

जो मन से उत्कृष्ट होते हैं, वे मनुष कहलाते हैं और इनकी गति को मनुष्यगति कहते हैं। 

जो मन के द्वारा नित्य ही हेय-उपादेय, तत्व-अतत्व, धर्म-अधर्म का विचार करते हैं और कार्य करने में निपुण हैं, वे मनुष्य कहलाते हैं और उनकी गति को मनुष्यगति कहते हैं। (गोजी,149) 

मनु (कुलकर) की संतान होने से मनुष्य कहलाते हैं।

 


मनुष्यों के ३०३ भेद


मनुष्यों के मुख्य दो भेद हैं-गर्भज और सम्मूच्छिम। इनमें से गर्भज मनुष्य १०१ प्रकार के हैं–१५ कर्मभूमिज, ३० अकर्मभूमिज और ५६ अन्तर्द्वीपज इन १०१ मनुष्यों के पर्याप्त तथा अपर्याप्त भेद से २०२ भेद हो जाते हैं। इन १०१ प्रकार के गर्भज मनुष्यों के मल-मूत्र आदि १४ प्रकार के मलों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य सम्मूच्छिम मनुष्य कहलाते हैं। ये अपर्याप्त अवस्था में ही मर जाते हैं, अतएव उनके १०१ भेद ही होते हैं। इस प्रकार २०२ गर्भज और _१०१ सम्मूच्छिम मिलकर ३०३ भेद मनुष्यों के होते हैं। इनका कुछ विस्तार इस प्रकार है:


गर्भज मनुष्यों के भेद में १५ भेद कर्मभूमिज के बताए गए हैं,



अत: कर्मभूमि का स्वरूप समझ लेना आवश्यक है। 


 जहाँ पात्रदान के साथ आजीविका चलाने के लिए असि,(तलवार,अर्थातयुद्ध) मसि(लेखन कार्य), कृषि, विद्या, शिल्प और वाणिज्य कर्म किए जाते हैं। अशुभ कर्म से नरक, शुभ कर्म से स्वर्ग, तपस्या के द्वारा (मुनि बनकर) सर्वार्थसिद्धि विमान तक एवं समस्त (अष्ट) कर्मों का क्षय करके मोक्ष इसी कर्मभूमि से प्राप्त होता है और कर्मभूमि में जन्म लेने वाले कर्मभूमिज कहलाते हैं।

ऐसी कर्मभूमियां १५ हैं-पांच भरत (एक जम्बू द्वीप का, दो धातकीखण्ड द्वीप के और दो पुष्करार्धद्वीप के), पांच ऐरवत और पांच महाविदेह।


*25 बोल  विस्तृत विवेचन*

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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*

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*अध्याय*,

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*मनुष्य गति*

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*25:5 :21*

*25:5:21*


आत्मा का पाँचवा गुण *अक्षय स्थिति* है।

 अर्थात् आत्मा अपने स्थान से कभी च्युत नहीं होता, *किन्तु आयुष्य कर्म आत्मा को एक निश्चित समय तक अमुक स्थान पर रोक लेता है।*


फिर आत्मा दूसरे स्थान पर जाता है, *वहाँ पर भी आयुष्य कर्म उसे नियत समय तक रोक लेता है।*



*आयुष्य कर्म एक बेड़ी के समान है*

जीव आयुष्य कर्म में जकड़ा

जिस प्रकार किसी कैदी को बेड़ियों में जकड़ने पर वह मुक्त नहीं हो सकता है, उसी प्रकार * जीवात्मा अपनी अक्षय स्थिति को नहीं पा सकता है।जब तक आयुष्य कर्म शेष रहता है, तब तक जीव चौदह रज्जुलोक में परिभ्रमण करता रहता है और मुक्ति को प्राप्त नहीं होता।


यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि *आखिर जीवन-मृत्यु देनेवाला कौन है ?* तथा

 जीवात्मा अपने जीवन में *आयुष्य कर्म का बंध कब और कैसे करता है ?* 


आयुष्य कर्म का बंध कब और कैसे ?*


मनुष्य तथा संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों के आयुष्य का बंधन एक विशेष नियम के द्वारा होता है।


वर्तमान जीवन में जितनी आयु है, उसे तीन भागों में बांटने पर उस आयु का दो तिहाई भाग बीत जाने पर जब एक तिहाई उम्र शेष रह जाती है उस समय अगले भव की आयु का बंध होता है।*

*जैसे –* किसी जीव का वर्तमान जीवन 81 वर्ष का है तो उसके आगामी भव के लिए उसकी वर्तमान उम्र 54 वर्ष पूर्ण होते ही *आयुष्य का बंध* हो जाता है।


*अगर उस समय*(54 वर्ष पूर्ण होने पर) *भी आयुष्य का बंध नहीं होता है तो शेष बची हुई आयु को तीन भागों में बाँटने पर उसका दो तिहाई समय बीत जाने पर आगामी भव के लिए आयुष्य का बंध होता है।*


*इस प्रकार फिर भी आयुष्य का बंध न हो तो घटते-घटते अंतरमुहूर्त में आयुष्य कर्म का बंध अवश्य हो जाता है।*


( उदाहरण से समझें आगामी आयुष्य बंध को)


*किसी 81 वर्ष आयु वाले जीव का*

*आगामी भव का आयुष्य बंध*

*54 वर्ष पूर्ण होने पर अथवा–*

*72 वर्ष पूर्ण होने पर अथवा–*

*78 वर्ष पूर्ण होने पर अथवा–*

*80 वर्ष पूर्ण होने पर भी हो सकता है तथा शेष एक वर्ष आयु के भी इसी प्रकार घटते क्रम में  आगामी भव का आयुष्य बंध हो सकता है।*




*अंतत: वर्तमान आयुष्य का अन्तरमुहूर्त समय शेष रहते अवश्य आगामी भव के आयुष्य का बंध हो जाता है।*

आयुष्य कर्म बंध की उपरोक्त पद्धति को जानते हुए वर्तमान में हमें प्राप्त मनुष्य जीवन में प्रतिपल  सजग रहना चाहिए *इस पर संक्षेप में अपने विचार रखने के भाव 

जीव का आगामी भव का आयुष्य बंध किस किस समय पर हो सकता है यह । आयुष्य कर्म बंध एक बार होने पर पुनः परिवर्तित नहीं होता है। आयुष्य कर्म बंध के समय जिस भावना में या जिस प्रवृत्ति में हम होते हैं उसी के फलानुसार आगामी भव का आयुष्य बंध हो जाता है।*


*जीवन के हर पल को धर्ममय बनाएं



*क्रमशः*


*25 बोल  विस्तृत विवेचन*

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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*

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*अध्याय*,

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*मनुष्य गति*

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**26:5:21*


*26:5




*पाँचवा कर्म– आयुष्य कर्म*

            

*देवताओं और नारकी का आगामी भव का आयुष्य बंध उनके वर्तमान भव के छह महीने रह जाने पर होता है।*


*आयुष्य दो प्रकार का होता है–*


*( 1 ) अनपवर्तनीय आयुष्य–* जितने काल तक के लिए आयुष्य कर्म बंधा है उतने काल तक आयुष्य भोगी जाए, बीच में न टूटे उसे *अनपवर्तनीय आयुष्य* कहते हैं।


*( 2 )  अपवर्तनीय आयुष्य –* जब बाह्य कारणों का निमित्त पाकर बँधा हुआ आयुष्य कर्म अपनी स्थिति पूर्ण करने से पहले ही एक साथ भोग लिया जाता है उसे *अपवर्तनीय आयुष्य* कहते हैं।


*☝️देव, नारकी, असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले मनुष्य-तिर्यंच*(युगलिक) *चरमशरीरी और 63 श्लाका पुरुषों की आयु तो अनपवर्तनीय होती हैं।*

               *किन्तु*


*शेष जीवों की आयु दोनों प्रकार की हो सकती है, अर्थात् बीच में टूट भी सकती है।*


 *

*प्रायः किसी को धर्माचरण या तप-त्याग के लिए कहा जाता है तो यही उत्तर मिलता है कि धर्म और तप त्याग जीवन के अंतिम समय में करने के लिए होता है। यहाँ पर विचारणीय बात यह है कि किसी को अपने आयुष्य की जानकारी नहीं होती है। जितना आयुष्य हम मनुष्यगति का बंध करके इस भव में आए हैं उससे आगे एक पल भी नहीं निकलता है।*


     *हम हमारे बचपन को , युवावस्था को बिना तप-त्याग के और बिना धर्माचरण के बिता देते हैं। अगर उस समय में आगामी आयुष्य का बंध हो जाता है तो हमारी उत्तम गति होना सम्भव नहीं होता है।*


  *उच्च गति का बंध –* जब भी हमारे आगामी आयुष्य का बन्ध हो रहा है और हम यदि धर्माचरण में हैं और हमारे तप-त्याग आदि है निश्चय ही हमारी उत्तम गति का कर्म बंध हो सकता है। यह समय हमें जानकारी में नहीं होता है अतः हमारे से जितना सम्भव हो त्याग-प्रत्याख्यान और धर्म-ध्यान आदि सदैव करते रहना चाहिए। उच्च गति के आयुष्य बंध हेतु निम्न नियम रखे जा सकते हैं _



हमने जैन कुल में जन्म लिया है यह हमारे पुण्य प्रताप से है।



*क्रमशः*


*25 बोल  विस्तृत विवेचन*

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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*

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*अध्याय*,

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*मनुष्य गति*

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समुद्र में फेंके गए मोती को जैसे प्राप्त करना दुर्लभ है, उसी प्रकार यह मानव जीवन भी महादुर्लभ है, जिसको पाने के लिए देवता भी तरसते हैं।


● हमने जैन कुल में जन्म लिया है यह हमारे पुण्य प्रताप से है। *हमें कम से कम  येनहीं करना चाहिए।*

▪️रात्रिभोजन


● वनस्पति काय सेवन की सीमा करनी चाहिए। *जमीकंद*(साधारण वनस्पति) *का पूर्णतः त्याग कर देना चाहिए।*


कहा तो यहाँ तक जाता है कि जिसके रात्रिभोजन चौविहार त्याग है और जमीकंद का पूर्णतः त्याग है – उसका जन्म छठे आरे में नही होता है।*

● कम से कम नवकारसी तप प्रतिदिन करें।


● प्रतिदिन सामायिक, संवर अवश्य करें।


●महाव्रती नहीं बन सकें तो भी बारहव्रती अवश्य बनें।


*☝️इस प्रकार हम छोटे-छोटे नियमों को जीवन का हिस्सा बनाकर  जब भी आयुष्य का बंध हो तो तिर्यंच अथवा नरकगति के बंध से बच सकते हैं।*


*धर्म-ध्यान और त्याग तप हमें समझ आने से लेकर हमारे जीवन के अंतिम समय तक जीवन में करते रहना चाहिए। न जाने कब हमारे आयुष्य  का बंध हो। हमें मनुष्य गति मिली है और जैन कुल मिला है तो अवश्य ही हमें अपने भव भ्रमण को सीमित करने का प्रयास करना चाहिए।*



*निम्न गति का बन्ध –* जब हम धर्म-ध्यान और तप-त्याग से रहित जीवनयापन कर रहे होते हैं और हमारे आयुष्य का बंध होता है तो निश्चय ही हमारे निम्न गति (तिर्यंच या नरक) का बंध हो सकता है। एक बार नरकायुष्य का बंध हो जाने पर जीव त्याग तपस्या और धर्म-ध्यान नहीं कर पाता है।




*भगवान् महावीर ने फरमाया है कि उनके शासनकाल में अनन्त जीव मोक्षगामी बनेंगे अर्थात् मोक्ष मार्ग पर अग्रसर होंगे।*


  *हमें चिंतन ये करना है कि उन अनंत जीवों में अपना नम्बर है या नहीं। विशेष कर उन व्यक्तियों को यह चिंतन अवश्य करना चाहिए जो शौक से कंदमूल खाते हैं  और रात्रिभोजन करते हैं।*


*भोगभूमि में उत्पन्न होने का क्या कारण है ?* 

जो मिथ्यात्व भाव से युक्त होते हुए भी मंद कषायी हैं, मद्य, माँस, मधु और उदम्बर फलों के त्यागी हैं। जो यतियों को आहार दान देते हैं या अनुमोदना करते हैं। ऐसे कर्मभूमि के मनुष्य और तिर्यच्च भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं एवं जिन मनुष्यों ने पहले मनुष्यायु, तिर्यच्चायु का बंध कर लिया है एवं बाद में क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त किया है ऐसे सम्यग्दृष्टि मनुष्य भी भोगभूमि में उत्पन्न क्रमशः मनुष्य औऱ तिर्यंच होते हैं।


*संमूच्छन मनुष्य की क्या विशेषता है*? 

संमूच्छन मनुष्य छ: पर्याप्तियाँ एक साथ प्रारम्भ करता है, किन्तु एक भी पर्याप्ति पूर्ण नहीं करता और मरण हो जाता है। इनकी आयु क्षुद्रभव प्रमाण एवं अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग रहती है इनका मात्र नपुंसक वेद ही होता है ये स्त्रियों के काँख वगैरह एवं गुह्य (गुप्त) स्थानों में उत्पन्न होते हैं। आँखों से नहीं देखे जाते।



*क्रमशः*


*25 बोल  विस्तृत विवेचन*

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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*

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*अध्याय*,

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*मनुष्य गति*

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*मनुष्य आयुष्य बंध का कारण* *

मनुष्यगति – थोडा आरम्भ और थोडा परिग्रह करने से

1️⃣ *प्रकृति भद्रता–*(सरल स्वभाव)

मन-वचन-काया की एकरूपता रखना सरलता है। ह्रदय में सरलता रखना *

मनुष्य आयुष्य बंध का कारण है।* दिखावट या बनावट न करना इसी श्रेणी में आते हैं।

*( 2 ) विनीत स्वभाव–* बड़ों, गुरुजनों, गुणीजनों के प्रति अहोभाव रखना विनम्रता है।

▪️नम्र स्वभाव रखना,


▪️गुणों का गुणकीर्तन करना,


▪️ उनकी आशातना न करना,

 आज्ञा का पालन करना,

बडे औऱ गुरुजनों की सेवा-वैयावृत्य आदि करने वाला *विनीत स्वभावी* कहलाता है और वह मनुष्य आयुष्य का बंध करता है।


*( 3 ) दयाशीलता–* 

 दूसरों के दु:ख से दु:खी होना,

 अनुकम्पा भाव रखना,

 दु:खी-रोगी जीवों पर करुणा करना,

 दूसरों के कष्टों को दूर करने का भाव मन में रखना *मनुष्य भव बंध का कारण है।*




*( 4 ) ईर्ष्या रहित होना–* दूसरों के सुखों को देखकर मन में उत्पन्न होने वाली जलन *ईर्ष्या भाव* है।

मन में अमत्सरता का भाव रखना,

 अहंकार न करना,

किसी की मदद करके गुणगान न करना,

 तुच्छ वृत्ति न रखना।


ये सब ईर्ष्या भाव से रहित होने की निशानी है और *ईर्ष्या भाव रहितता मनुष्य भव बंध का कारण है।*


तीसरी गति मनुष्य गति होती है। जो जीव कम से कम पाप करता हुआ निरंतर धर्म-ध्यान में जीवन व्यतीत करता है।  


*मनुष्य गति के दुःख*


नरको में सागरों पर्यन्त घोर दुख उठाने के बाद किसी महान पुण्य कर्म के कारण मनुष्य गति का बंध किया। वहां से आकर मां के पेट में नवमास पर्यन्त वह घोर दुःख पाया, जिसके विवेचन करना शक्य नहीं है। कभी अल्प आयु लेकर के आये तो पेट में ही मरण को प्राप्त हो गये। जिस समय जन्म हुआ था उस समय क्या दशा हुई थी, अगर आज भी विचार करें तो उस कष्ट का कुछ भाग तो अनुभव में आ ही जाता है। कभी पैदा होते ही समस्त हो गये, अगर बच भी गये तो बालपन खेल-कूद में गंवा दिया कुछ ज्ञान नहीं किया। किया तो सच्चा ज्ञान नहीं लौकिक ज्ञान किया, जो अकेला रहने पर धर्म कार्यों में बाधक होता है। लौकिक ज्ञान करना बुरा नहीं है, ंपरंतु उसके साथ-2 धर्मज्ञान भी होगा तो सार्थकता है, अन्यथा तो किया न किया समान ही है। 

युवा अवस्था में हितपथ पर न लगे विषय-भोगों में ही लीन रहे; चाह रूपी दाह में जलते रहे और अनेक प्रकार के दुःखों का सामना करना पड़ा। कभी निर्धन बने तो दुःखी रहे, कभी धनवान बने तो पुत्रादि के वियोग जन्य दुःखों से दुःखी रहे। कभी अंगहीन होने से दुःखी रहे, कभी बुद्धिहीन होने से दुःखी रहे, वृद्ध हुए तो शरीर ने साथ नहीं दिया, इन्द्रियां भी शिथिल हो गयी, चला-फिरा नहीं गया अर्थात धर्ममृत के समान अवस्था हो गयी। उस समय हमने कितने दुःख हुआ था, उसे तो हम आज भी आंशिक रूप से जान सकते हैं,दूसरों का मरण देखकर। अब हमें यह नरजन्म मिला है, इसे भी उसी प्रकार विषय-भोगों में न व्यतीत कर दें। बाल्यकाल में सम्यग्ज्ञान प्राप्त करें। युवा अवस्था में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरूषाार्थों को यथाशक्ति अपनाये, नही तो बुढ़ापा भी अर्धमृतक के समान व्यतीत नहीं होगा अन्यथा तो पूरे जीवन भर दुःख ही दुःख है।

*क्रमशः*

*25 बोल  विस्तृत विवेचन*

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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*

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*अध्याय*,

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*मनुष्य गति*

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*मनुष्य की गति आगति के बारे में जाने*


(यह गति आगति के आंकड़े

इस जैनागम स्तोक वारिधि द्वितीय कक्षा नाम की पुस्तक से लिया गया है)



अनेक सूत्रों एवं ग्रन्थों में गति *आगति* -जीव जिस गति से आकर उत्पन्न होता है, उसे आगति ।

तथा मरने के बाद जिस गति में जाकर उत्पन्न होता है, उसे गति कहते हैं

। संसारी जीवों के 563 भेद इस प्रकार हैं- नरक गति के 14,

तिर्यंच गति 48, 

मनुष्य गति के303,

 देव गति के 198.

. *असन्नी मनुष्य की आगति* 171 की (179 की लड़ में से 4 तेउकाय के एवं 4 वायुकाय के, इन 8 भेदों को छोड़कर ) 

*गति* 179 की पूर्ववत् ।  *कर्मभूमिज सन्नी मनुष्य की आगति*- 276 की ( 99 जाति के देवता, पहली से छठी तक ये छःनरक, एवं 179 की लड़ में से तेउकाय, वायुकाय के 8 भेद छोड़कर 171 की, इस प्रकार


171+99+6=276)

* *गति* 563 की *1अकर्मभूमिज सन्नी मनुष्य की आगति*-

 20 की- ( 15 कर्मभूमिज मनुष्य एव 5 सन्नी तिर्यंच पंचेन्द्रिय का पर्याप्त ) 

*गति*- अलग-अलग- 5 *2देवकुरु और 5 उत्तरकुरु की गति* 128 की- (64

जाति के देवता के अपर्याप्त पर्याप्त )


*3,   5 हरिवास और 5 रम्यक्वास की गति*- 126 की- ( उपर्युक्त 128 में से पहला किल्विषी का अपर्याप्त पर्याप्त छोड़कर ) ।

*4 ,,   5 हेमवय और 5 ऐरण्यवय की गति* -124 की- ( उपर्युक्त 126 में से दूसरे देवलोक के

अपर्याप्त पर्याप्त छोड़कर )


 *अन्तरद्वीपों के युगलिक मनुष्यों की आगति*- 25 की ( पहली नरक की तरह 15 कर्मभूमिज मनुष्य, 5 सन्नी, 5 असन्नी तिर्यंच पंचेन्द्रिय इन सबके पर्याप्त ।

 *गति* 102 की- ( 51 जाति के देवता के अपर्याप्त पर्याप्त ) 


*तीर्थंकर की आगति*- 38 की- ( 35 वैमानिक देवता +3 किल्विषी छोड़कर ) और पहली तीसरी नरक, इन सबके पर्याप्त ) 

*गति* मोक्ष की ।

 . *चक्रवर्ती की आगति* 82 की (15 परमाधार्मिक एवं 3 किल्विषी ये 18 भेद छोड़कर 81 जाति केदेवता एवं पहली नरक, इनके पर्याप्त ) 

*गति*- चक्रवर्ती पद पर रहते हुए काल करे तो गति 14 की गति हो मतलब  ( 7 नरक के अपर्याप्त पर्याप्त), 

जैसे इस अवसर्पिणी काल मे 

ब्रह्म दत चक्रवर्ती जी और सुभौम चक्रवर्ती

पदवी त्याग कर  मुनि जीवन धारण  कर काल करे तो गति साधु की तरह 70 जाति के देवता की - ( 35 वैमानिक देवता के अपर्याप्त पर्याप्त ) अथवा मोक्ष की ।


. *बलदेव की आगति* 83 की- (चक्रवर्ती के 82 एवं दूसरी नरक का पर्याप्त ) | बलदेव की गति अमर है, क्योंकि वे नियमा साधु बनते हैं। अतः साधु की जो गति है वही ।

*बलदेवकी गति*  अर्थात् 70 जाति के देवता या मोक्ष की पूर्ववत् ।


. *वासुदेव की आगति*- 32 की - ( 35 वैमानिक में से 5 अनुत्तर विमान को छोड़कर 30 वैमानिक देवता एवं पहली, दूसरी नरक, इनके पर्याप्त ) *गति* ये नियम पूर्वक नरक में जाते है

14 की (7 नरक के अपर्याप्त पर्याप्त ) 

*क्रमशः*

*25 बोल  विस्तृत विवेचन*

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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*

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*अध्याय*,

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*मनुष्य गति*

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*केवली की आगति* 108 की (15 परमाधार्मिक एवं 3 किल्विषी को छोड़कर 81 जाति के देवता,

 15,कर्मभूमिज मनुष्य, 5 सन्नी तिर्यंच पंचेन्द्रिय, बादर पृथ्वीकाय, अप्काय, वनस्पतिकाय और

पहली से चौथी नरक, इस तरह 81+15+5+1+1+1+4 = 108 के पर्याप्त ) 

*गति- मोक्ष* की ।

*आराधक साधुजी की आगति* -275 की (सन्नी मनुष्य के 276 की आगति में से छठी नरक का पर्याप्त छोड़कर ) । 

*गति* 70 जाति के देवता या मोक्ष की पूर्ववत् ।


.  *आराधक श्रावकजी की आगति*- 276 की- ( सन्नी मनुष्यवत्)। 

*गति* 42 की (12 देवलोक

एवं 9 लोकान्तिक, इनके अपर्याप्त पर्याप्त ) ।



*सम्यग्दृष्टि की आगति*- 363 की- (समुच्चय जीव की आगति 371 में से तेउकाय, वायुकाय के 8 छोड़कर ) । *गति*-282 की ( 81 जाति के देवता, 15 कर्मभूमिज मनुष्य, 30 अकर्मभूमिज मनुष्य, 6 नरक ( सातवीं नरक छोड़कर) और 5 सन्नी तिर्यंच पंचेन्द्रिय, इन 137 के अपर्याप्त पर्याप्त =274, पाँच असन्नी तिर्यंच पंचेन्द्रिय एवं तीन विकलेन्द्रिय, इन 8 के अपर्याप्त 274+8=282 )। . *मिथ्यादृष्टि की आगति* 371 की- समुच्चय जीव की आगति के समान ।

*गति* - 553 की (563 में

से पाँच अनुत्तर विमान के अपर्याप्त, पर्याप्त छोड़कर ) । . *मिश्रदृष्टि की आगति* 363 की- सम्यग्दृष्टि के समान

*गति*- अमर, क्योंकि मिश्रदृष्टि पने में जीव काल नहीं करता है।

*.स्त्रीवेद की आगति* 371 की- ( समुच्चय जीववत्)

*गति* 561 की ( सातवीं नरक का अपर्याप्त पर्याप्त छोड़कर ) ।


. *पुरुषवेद की आगति* 371 की ( समुच्चय जीववत् ) *गति* 563 की । . *नपुंसकवेद की आगति* 285 की - ( 179 की लड़, 99 जाति के देवता और 7 नरक के पर्याप्त )


*गति*- 563 की।


. *गर्भज की आगति* 285 की- ( पूर्ववत् )

*गति* 563 की ।

. *नोगर्भज की आगति* 329 की (179 की लड़, 86 युगलिक मनुष्य और 64 जाति के देवता,


इनके पर्याप्त )

*गति* 395 की (असन्नी तिर्यंच पंचेन्द्रियवत् )।


. *माण्डलिक राजा की आगति* 276 की सन्नी मनुष्यवत् ।

*गति* 535 की ( 563 भेदों में से ग्रैवेयक एवं 5 अनुत्तर विमान देव के अपर्याप्त पर्याप्त, इन 28 भेदों को छोड़कर ) ।


*क्रमशः*

*25 बोल  विस्तृत विवेचन*

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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*

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*अध्याय*,

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*मनुष्य गति*

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(यह गति आगति के आंकड़े

इस जैनागम स्तोक वारिधि द्वितीय कक्षा नाम की पुस्तक से लिया गया है)

मनुष्य गति के*

मनुष्य भरत क्षेत्र में दो क्षेत्र में  विभक्त है

*1,आर्य* गुण और गुणवानों से जो सेवित हैं धर्म-कर्म सहित उत्तम गुण वाले मनुष्य आर्य कहलाते हैं।औऱ ये बहुत सौभाग्य

की बात है कि हम  इसी क्षेत्र में रहते है

*2 अनार्य* पाप क्षेत्र में जन्म लेने वाले अनार्य कहलाते हैं । उनका आचार खान- पान आदि असभ्य होता है ।

अनार्य क्षेत्र  के लोग अत्यंत क्रोधी ,क्षुद्र क्रूर एवम अधम मनोवृत्ति के है ।उनके खेल और मनोरंजन के साधन भी हिंसक और घोर पापपूर्ण है ।

वही अनार्य क्षेत्र जंहा महावीर स्वामी पधारे

लोग उन्हें देख कर क्रोध में भभक उठते ,मारते पीटते और शिकारी कुत्तों को छोड़कर कटवाते वे भयंकर कुत्ते भगवान के पाँवो में दांत गढ़ा देते, मांस तोड़ लेते और असहय पीड़ा उत्पन्न करते ।

  उस भूमि में विचरने वाले शक्यादी साधु हैं।भी क्रूर कुत्तों से बचाव करने  के लिए लाठिये रखते थे ,फिर भी कुत्ते उनका पीछा करते और काट  भी खाते

अनार्य क्षेत्र के लाट प्रदेश के तोसलीग्राम ,मे सात बार❗

जंहा महावीर स्वामी को फांसीकी सजा सुनाई गई


कभी2 यहां उत्तम प्रकृति वाले

जीव भी पैदा हो जाते है

जैसे आद्र कुमार जी


मुक्ति का दरवाजा जहाँ खोल बन्ध होता वे 10 क्षेत्र  है 5 भरत क्षेत्र 5 ऐरावत क्षेत्र 

इस अवसर्पिणी में माँ मोरादेवा जी ने मोक्ष का दरवाजा खोला

और जम्बू स्वामी ने बंद किया।


*मनुष्य जाति के भेद कहाँ कितने*

303 मनुष्य भेद में से जम्बूद्वीप में 27 भेद है

भरत, एरवत, महाविदेह, 6 अकर्मभूमि यह 9 के अपर्याप्त, पर्याप्त और समूर्छिम

9 × 3 = 27

पुष्करार्ध द्वीप में अभी मनुष्य के  भेद54*


पूर्व पुष्करार्ध और पश्चिम पुस्करार्ध मिलाकर 54 भेद भरत, एरवत, महाविदेह, 6 अकर्मभूमियो 9 के अपर्याप्त, पर्याप्त और समूर्छिम

9  × 2 ×  3 = 54


सदाकाल कर्मभूमि के मनुष्य महाविदेह क्षेत्र में*

*क्रमशः*

*25 बोल  विस्तृत विवेचन*

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*अध्ययन*


*2:6:21*



*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*

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हम से 10 योजन ऊचाई पर रहने वाले मनुष्य विद्याधर  है*

आइये जाने इस भरतक्षेत्र में 

*विद्याधरों की उत्पत्ति कब हुई* 


ऋषभ के सौ पुत्रों के अतिरिक्त दो कंवर और ऐसे थे, जिनको उन्होंने पुत्र की तरह ही वात्सल्य दिया। वे महलों में ही रहते थे। उनपालित पुत्र के नाम थे नमि और विनमि। दोनों भाई भगवान् के द्वारा सुझाये प्रत्येक अभियान को जनता तक पहुंचाने में बड़े सिद्धहस्त थे। संयोगसे दोनों ही किसी कार्य को लेकर सुदूर प्रदेशों में गये हुए थे। पीछे से ऋषभ देव अभिनिष्क्रमण कर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली।


जब वे दोनों वापिस आये तो पता चला कि बाबा सब कुछ अपने बेटों को दे दिया उन्हें कुछ नहीं दियादोनों भाई बाबा के पास आये और मीठे उपालम्भों के साथ कुछ देने की मांग की। प्रभु मौन थे। वे भी साथ में रहने लगे और सुबह, शाम मध्याह में जोर-जोर से बोलकर अपनी मांग को दुहराने लगे।

कई दिनों के बाद सुरपति इन्द्र भगवान् के दर्शनार्थ आये। इ भाइयों की हठपूर्वक मांग उन्होंने सुनी। सोचने लगे- 'प्रभु निवृत्त हो ये दोनों कुछ पाने की आशा से पीछे-पीछे फिर रहे हैं।'तब इन्द्र ने बहुत समझाया

जब नहीं समझे तो इन्द्र ने कहा- 'लो, तुम्हें ऐ देता हूं, जो बिना दिया हुआ है। वैताढयगिरि पर्वत पर जाओ। दोनों दक्षिण और उत्तर दोनों ओर नगर बसाओ।' दोनों ने निवेदन किया ऊंचाई पर चढ़ पाना असम्भव है। चढ़ भी जायेंगे तो नगर कैसे बसेंग जनता क्यों आयेगी वहां?' इन्द्र ने कहा- 'चिन्ता क्यों करते हो? लो, मैं तुम्हें हजार विद्याएं देता हूं जिनसे तुम पक्षी की भांति आकाश में उड़ सकते हो इसके अतिरिक्त दिन को रात और रात को दिन बना सकते हो। जीवन की सारी भौतिक सुविधाएं इन विद्याओं से तुम प्राप्त कर सकते हो


दोनों भाई उन विद्याओं को सिद्ध कर वैताढ्य पर्वत पर गये दक्षिण की ओर साठ नगर और उत्तर की ओर पचास नगर बसाये और इन्द्र सहयोग से सामान्य जीवन की सभी सुविधाएं वहां उपलब्ध हो गई। अत्यधिक सुविधाएं देखकर अनेक लोग वहां बसने को आतुर हो  उठे कुछ हीसमय में काफी लोग वहां आ बसे। उनकी संतान ही आगे चलकर विद्याधर कहलाई।


*मनुष्यगति में कितने गुणस्थान होते हैं ?*


 भोगभूमि के मनुष्यों में 1 से 4 तक गुणस्थान होते हैं एवं कर्मभूमि में 1 से 14 तक गुणस्थान होते हैं। 

.  


हेमवय क्षेत्र के मनुष्य में संस्थान सिर्फ एक*सम चतूरस्त्र संस्थान

800 धनुष्य की उत्कृष्ट अवगाहना 56 ,अन्तरद्वीपज मनुष्य कीहै


हेरण्यवयवत क्षेत्र के मनुष्य को अभी  मति, श्रुत दो ही ज्ञान मिलते है*



एरवत क्षेत्र के मनुष्य को पांचों शरीर मिल सकते है*


हेमवय क्षेत्र के मनुष्य वेक्रिय शरीर नहीं होता

अवसर्पिणी काल के प्रथम आरे की सभी लाक्षणिकता*देवकुरु, उत्तर कुरु क्षेत्र*में हमेशा  मिलेगी

रम्यकवास के मनुष्य में प्रथम चार लेश्या होती है


कल से देव गति

*क्रमशः*

*25 बोल  विस्तृत विवेचन*

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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*

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*अध्याय*,

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*देव गति*

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*25 बोल  विस्तृत विवेचन*

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*अध्ययन* *


*3:6:21*


 *देव्यंति स्वरूप इति देवा* 

अर्थात: जो अपने शरीर(स्वरूप) से दीप्तिमान हैं


 देव नामकरण के उदय से उत्पन्न होते हैं उन्हें देव कहते हैं।जिनका रूप-लावण्य-यौवन सदा प्रकाशमान हो, वे देव हैं । उन देवों की गति को देवगति कहते हैं

जो देवगति में पाये जाने वाले परिणाम से सदा सुखी हों,


जिनका शरीर सुंदर, प्रकाशमान वैक्रियक होता है, वे देव कहलाते हैं।


*देव के 8 गुण*

(ये 8 ऋद्धि हिंदू मान्यता में भी हैं)

अणिमा आदि आठ गुणों का स्वरूप -


 *1अणिमा* - अपने शरीर को अणु बराबर छोटा करने की शक्ति अर्थात् इतना छोटा शरीर बनाना कि सुई के छेद में से निकल जावे।

 *2महिमा* - अपने शरीर को मेरु प्रमाण बड़ा करने की शक्ति अर्थात् अपने शरीर को मेरु अथवा हिमालय बराबर बड़ा बना लेना।

*3लघिमा* - रुई के समान शरीर को हल्का बना लेने की क्षमता अर्थात् मकड़ी के तंतु पर पैर रखने पर भी वह न टूटे।

*4गणिमा* - बहुत भारी अर्थात् करोड़ो व्यक्ति मिलकर भी जिसे न उठा पाए, इतना भारी, वजनदार शरीर बनाने की शक्ति।

 *5प्राप्ति*- एक स्थान पर बैठे-बैठे ही दूर स्थित पदार्थों का स्पर्श कर लेना, उठा लेने की क्षमता। जैसे यहाँ बैठे-बैठे ही हिमालय के शिखर को छू लेना इत्यादि।

*6प्राकाम्य* - एक जिसकी प्राप्ति से सब प्रकार की कामनाएँ बहुत सहज में और तुरन्त पूरी की जा सकती हैं।

जल में भूमि की तरह गमन करना और भूमि में जल की तरह डुबकी लगा लेना।

*7ईशित्व* - आठ प्रकार की सिद्धियों में से एक जिसे प्राप्त करने पर साधक सब पर शासन करने के योग्य हो सकता है।

सब जीवों तथा ग्राम, नगर एवं खेड़े आदि पर प्रभुत्व की क्षमता।

*8सकामरूपित्व* - बिन बाधा के पहाड़ आदि के बीच में से गमन करना, अदृश्य हो जाना, गाय, सिंह आदि अनेक प्रकार के रूप बनाने की क्षमता

आठ गुणों से सहित क्रीड़ा करते हैं। 

इसके अलावा तीन ऋद्धि औऱ

हैं।

जिसका वर्णन कल

**संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*

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*,

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*क्रमशः*

*25 बोल  विस्तृत विवेचन*

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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*

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*अध्याय*,

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*देव गति*

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**4:6:21*

इसके अलावा तीन ऋद्धि औऱ

हैं।जो निम्नलिखित है⤵️


*1 अप्रतिघात* - इस ऋद्धि के बल से शैल, शिला और वृक्षादि के मध्य में होकर आकाश के समान गमन करना।


*2. अंतर्धान* - जिससे अदृश्यता प्राप्त होती है, वह अंतर्धान नामक ऋद्धि है।


. *3कामरूपित्व* - जिससे युगपत् बहुत से रूपों को रचता है, वह कामरूप ऋद्धि है।

ये सारी सिद्धिया  देवताओं या में होती है।इनके अलावा भी बहुत ऋद्धि या होती है



*देवों की पहचान के चार लक्षण बताये गये*




१. अम्लान पुष्पमाला -उनके गले में पड़ी पुष्पमाला कभी मुरझाती नहीं है

२. अनिमेष नेत्र हैं- वे पलक नहीं झपकाते

 3. पृथ्वी से चार अंगुल ऊपर रहते हैं-

4. उनकी प्रतिछाया नहीं पड़ती

ये देवता के लक्षण महावीर जी अपनी देशना में बता रहें थे तो ना चाहते हुए भी रोहिणीये चोर ने सुना जिससे उसकी अभय कुमार के रचना किये जाल से जान छूटी


*देवायुष्य बन्ध के कारण–*


*( 1 ) सराग संयम पालन–*

संयम में  राग का शेष रह जाना

जब चारित्र ग्रहण कर लेने पर भी राग और कषाय का अंश शेष रह जाता है तो वह शुद्ध संयम नहीं कहलाता उसे *सराग संयम* कहते हैं। 


पाँच समिति तीन गुप्ति का पालन करनेवाला वीतरागी साधु आयुष्य कर्म का बंध नहीं करता है। *राग सहित संयम पालने वाला साधु देवायुष्य का बंध करता है।*

*क्रमशः*

*25 बोल  विस्तृत विवेचन*

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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*

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*अध्याय*,

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*देव गति*

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**5:6:21*


*( 2 ) संयमासंयम–*


 संयमासंयम का अर्थ है कुछ संयम और कुछ असंयम। *इसे देशविरति चारित्र कहते हैं।*

श्रावक के व्रत में स्थूल रूप में हिंसा, झूठ, चोरी आदि का प्रत्याख्यान होता है किन्तु सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों की आरम्भजा हिंसा का सर्वथा त्याग नहीं होता। *ऐसे संयमासंयम का पालन करने वाला गृहस्थ भी देवायुष्य का बंध करता है।*


*( 3 ) अकाम निर्जरा–* 

हमारे पूर्व संचित कर्म उनका अबाधाकाल पूर्ण होने पर उदय में आते हैं तथा कर्मानुसार अनुकूल या प्रतिकूल फल देकर आत्मा से अलग हो जाते हैं। कर्मों के फल को यदि समभाव से न भोगा जाए तो उसके परिणाम स्वरूप होने वाली निर्जरा अकाम निर्जरा कहलाती है।


इसके अतिरिक्त आत्म-शुद्धि के उद्देश्य से रहित होकर स्वर्गादि की कामना से निदानपूर्वक तप करने से जो निर्जरा होती है वह भी अकाम निर्जरा की श्रेणी में आती है। 

*कुछ विशेष बिंदु जिससे अकाम निर्जरा होती हैं*


● अनिच्छा से या दबाव से,


● भय से या पराधीनता से,


● लोभवश या मजबूरी से अथवा

 बिना प्रत्याख्यान के भूख आदि के कष्ट को सहन करना *अकाम निर्जरा* है।


मिथ्यात्वी जीवों की, अज्ञानी जीवों की निर्जरा *अकाम निर्जरा* कहलाती है। *अकाम निर्जरा करनेवाला जीव भी देवायुष्य का बंध करता है।*


*( 4 ) बाल तप–*


इसका अर्थ है–अज्ञान युक्त तप या सम्यक्त्व से रहित तप। जिस तप में आत्मशुद्धि का लक्ष्य न होकर अन्य कोई भौतिक या लौकिक लक्ष्य हो उसे *बाल तप* कहा जाता है।

*बाल तप के विशेष बिंदु*

*जैसे –* ● बर्फ पर सोना,


● उल्टा लटककर पंचाग्नि तप करना,


● समाधि लेना आदि तप महीनों तक ये किये जाते हैं।

*इस तप में शुभ योग होता है परन्तु उस जीव को सम्यक् दर्शन नहीं होता इसलिए वह जीव देवायुष्य का बंध करता है।*

*आइये  मनुष्य लोक के देव से मिलते है* , जो होते  तो मनुष्य है पर देव से कम नही हैं

ये पाँच प्रकार के है

 मत्यु क्षेत्र  के - देव 5 प्रकार के हुए वे इस प्रकार है


*1भव्य - द्रव्य देव**

जो जीव अगले भव में देव गति में उत्पन्न हो ने वाले है उन्हें भव्य - द्रव्य देव कहते हैं 



 *2नर देव* चक्रवर्ती को

 कहते हैं।

*3 धर्म देव* 27 गूणो को धारण करने वाले को धर्म देव  कहते है‼

 


*4 देवाधिदेव*

तीर्थंकर भगवान को और देवाधिदेव

 देव की उपाधि दी गई हैं ⁉


 *5भाव देव*

जिनका देवगति नाम कर्म एवं देवायु का उदय है भाव देव 

 कहते है।

*क्रमशः*

*25 बोल  विस्तृत विवेचन*

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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*

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*अध्याय*,

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*देव गति*

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**7:6:21*


*आइये देखते हैं कौन ,कौन सी* 

*देवगति   में जाता है*

(पूरा ब्यौरा तो नहीं 

संक्षिप्त में ही जानकारी दे रही हूँ)



*अभवी* -अभवी यानी जिसमें मोक्ष जाने की योग्यता नहीं होती पर वे देवलोक के अधिकारी तो होते हैं

अभवी की गति जीव के 563 भेदों में से 5 अनुत्तर विमान को छोड़कर 553 हो सकती हैं

अर्थात

चार ही प्रकार के देवों में जा सकते हैं। 

वैमानिक देवों में नौ ग्रैवेयक तक के देवों में उत्पन्न हो सकते हैं। पांच अनुत्तर विमान में  अभवि नहीं जाते।

 कुछ आचार्यों का अभिमत है कि  अभवि नौ लोकान्तिक देवों में भी नहीं जाते।

संयमी मुनि के आयुष्य का बंध केवल वैमानिक देवों का ही होता है, इसलिए संयमी

मुनि केवल वैमानिक देव ही बनते हैं।


असयंत भव्य - द्रव्य देव नव ग्रैवेयक तक की देव गति तक जा सकते हैं ।


अविराधाक साधु सर्वार्थ सिद्ध तक की देवगति तक जा सकते हैं।


जिनका देवगति नाम कर्म एवं देवायु का उदय है उन्हें भाव देव

  कहते है भावदेव दो गति में जा सकते है 


अविराधक श्रावक औऱ

श्राविक- श्राविका

बारहवे देवलोक तक  जा सकते हैं...?


विराधक साधु और

हँसी - मजाक करने वाले साधु मर कर पहले देवलोक तक उत्पन्न  हो सकते है।


विराधक श्रावक औऱ

कंद - मूल भक्षण करने वाले तापस मर कर ज्योतिष देवलोक तक उत्पन्न हो सकते हैं 

अम्बड़जी के मत के सन्यासी काल कर पाँचवे देवलोक तक

  तक जा सकते हैं।



किल्विषी भावना वाले साधु औऱ

आचार्य - उपाध्याय आदि के अवर्णवाद बोलने वाले साधु काल कर छठे देवलोक तक देवलोक तक उत्पन्न हो सकते हैं।

 असन्नी तिर्यंच पंचेंद्रिय मरकर वाणव्यंतर तक  देवगती में जा सकता  है


सन्नी  तिर्यंचआठवें देवलोक तक  जा सकते हैं...

*क्रमशः*


*25 बोल  विस्तृत विवेचन*

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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*

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*अध्याय*,

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*देव गति*

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**8:6:21*


8:6


आइये पहले जानते है कि यह रहते कहाँ है ।

ये जंहा रहते है उसे कहते है *ऊर्ध्वलोक*


*ऊर्ध्वलोक का वर्णन* 


 मध्य-लोक के ऊपर लोक के अंत तक उर्ध्व-लोक है !

- मध्य-लोक में शोभायमान "सुमेरु-पर्वत" की चूलिका (चोटी) से "एक बाल" के अंतर/फासले से शुरू होकर लोक के अंत तक के भाग को "उर्ध्व-लोक" कहा है !


उर्ध्व-लोक का आकार खड़े मृदङ्ग के  जैसा है !

कंही लिखा है इसका आकार

ढोलक जैसा है

इसकी :-

ऊंचाई - 1,00,040 योजन कम 7 राजू है 

मोटाई - 7 राजू

और

चौड़ाई - नीचे 1 राजू, बीच में 5 और ऊपर 1 राजू है !



यहां (देव लोक ) से बहुत ऊंची इनकी पृथ्वियां हैं, उनमें बड़े-बड़े विमान हैं। इनमें विशाल महल बने हुए हैं, उनमें ये देव उत्पन्न होते हैं।


*देव लोक में जन्म*

देवों की उत्पत्ति उत्पाद शय्या में होती है। ऐसी उत्पादशय्याएं संख्यात योजन वाले देवस्थान में संख्यात हैं और असंख्यात योजन वाले में असंख्यात हैं। उन शय्याओं पर देव दुष्य वस्त्र ढंका रहता है। धर्मात्मा और पुण्यात्मा जीव जब उसमें उत्पन्न होते हैं तो वह अंगारों पर डाली हुई रोटी के समान फूल जाती है। तब पास में रहे हुए देव उस विमान में घंटानाद

करते हैं और उसकी अधीनता वाले सभी विमानों में घंटे का नाद हो जाता है। घटनाद सुनकर देव और देवियां उस उत्पादशय्या के पास इकट्ठे हो जाते हैं और जयजयकारी ध्वनि से विमान गूंज उठता है। अन्तमूहर्त्त के बाद उत्पन्न हुआ देव पांचों पर्याप्तियों से पर्याप्त होकर तरुण वय 

वाले के समान शरीर को धारण करके, देवदूष्य वस्त्रों से शरीर को आच्छादित कर बैठा हो जाता है। तब पास में खड़े हुए देव उससे प्रश्न करते हैं-आपने क्या करनी की थी जिससे हमारे नाथ बने ? तब वह देवयोनि के स्वभाव से प्राप्त हुए (भवप्रत्यय) अवधि ज्ञान से अपने पूर्व जन्म पर विचार करके, वहां के स्वजन-मित्रों को सूचना देने के लिए आने को तैयार होता है। तब वे देव कहते हैं वहां जाकर यहां का क्या हाल सुनाओगे पहले मुहूर्त भर नाटक तो देख लो ! तब नृत्यकार अनीक जाति के देव, अपनी दाहिनी भुजा से १०८ कुमार और बाई भुजा से १०८ कुमारियां निकाल कर ३२ प्रकार का नाटक करते हैं। गंधर्व-अनीक जाति के देव ४९ प्रकार के वाद्यों के साथ छह राग और छत्तीस रागनिया • मधुर स्वर से अलापते हैं। इस में यहां के २००० वर्ष पूरे हो जाते हैं। वह देव वहां के सुख में लुब्ध हो जाता है और दिव्य भोगोपभोग में लीन हो जाता है।



*क्रमशः*























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