देव गति पुरी2


पृथ्वी से दस योजन की ऊंचाई पर वैताढ्य पर्वत पर १० योजन चौड़ी और  वैताढ्य पर्वत के बराबर लम्बी दो विद्याधर श्रेणियां हैं। दक्षिण की श्रेणी में गगनवल्लभ आदि ५० नगर हैं और उत्तर श्रेणी में रधानुपुर चक्रवाल आदि ६० नगर हैं। इनमें रोहिणी, प्रज्ञप्ति, गगनगामिनी आदि हजारों विद्याओं के धारक विद्याधर (मनुष्य) रहते हैं। वहां से १० योजन ऊपर इसी प्रकार की दो श्रेणियां और हैं। वे आभियोग्य देवों की हैं। वहां प्रथम देवलोक के इन्द्र शकेन्द्र जी के द्वारपाल–(१) पूर्व दिशा के स्वामी सोम महाराज (२) दक्षिण दिशा के स्वामी यम महाराज (३) पश्चिम दिशा के स्वामी वरुण महाराज और (४) उत्तर दिशा के स्वामी वैश्रमण महाराज के आज्ञापालक और (१) अन्न के रक्षक अन्नजृम्भक (२) पानी के रक्षक पानजृम्मक (३) सुवर्ण आदि धातुओं के रक्षक लयनजृम्भक (४) मकान के रक्षक शयनजृम्भक (५) वस्त्र के रक्षक वस्त्रजृम्भक (६) फलों के रक्षक फलजृम्भक (७) फूलों के रक्षक फूलजृम्भक (८) साथ रहे हुए फलों और फूलों के रक्षक फल-फूलजृम्भक (९) पत्र- भाजी के रक्षक अविपतजृम्भक और (१०) बीज-धान्य के रक्षक बीजजृम्भक इन दस प्रकार के देवों के आवास हैं। ये देव अपने-अपने नाम के अनुसार वाण-व्यन्तर देवों से अन्न पानी आदि उक्त वस्तुओं की रक्षा करने के लिए प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल फेरी लगाने निकलते हैं।

20:7

उक्त अभियोग्य श्रेणी से ५ योजन ऊपर, १० योजन चौड़ा और पर्वत के बराबर लम्बा वैताढ्य पर्वत का शिखर है। यहां ६ योजन ऊंचे अलग-अलग नौ कूट (डूंगरी) हैं। यहां महान् ऋद्धि के धारक और वैताढ्य पर्वत के स्वामी वैताढ्य गिरिकुमार रहते हैं।


जम्बूद्वीप के पूर्व दिशा के विजय द्वार के नीचे के नाले से लवणसमुद्र का पानी भरतक्षेत्र में आता है। इस कारण नौ योजन विस्तार वाली खाड़ी है। उसके तट पर तीन देवस्थान हैं – (१) पूर्व में मागध, (२) मध्य में वरदाम और, (३) दक्षिण में प्रभास तीर पर होने से इन्हें तीर्थ कहते हैं।

वैताढ्यपर्वत से उत्तर में चुल्लहिमवन्त पर्वत से दक्षिण में गंगा नदी से पश्चिम में और सिन्धु नदी से पूर्व में, बीचोंबीच ८ योजन ऊंचा, गोलाकार ऋषभकूट नामक पर्वत है। जब चक्रवर्ती महाराज भरत क्षेत्र के छहों खण्डों पर विजय प्राप्त करने के लिए निकलते हैं, तब इस पर्वत पर वे अपना नाम अंकित कर देते हैं।


मेरुपर्वत से दक्षिण में, भरतक्षेत्र की सीमा पर १०० योजन ऊंचा, २५ योजन जमीन में गहरा, २४९२५ योजन लम्बा १०५२१२/२६ योजन (१६ कला) चौड़ा पीत स्वर्ण वर्ण का चुल्ल हेमवन्त नामक पर्वत है। इसके ऊपर ११ कूट हैं। प्रत्येक कूट पांच-पांच सौ योजन ऊंचे हैं। पर्वत के मध्य में १००० योजन लम्बा ५०० योजन चौड़ा और १० योजन गहरा पद्मद्रह (कुण्ड) है। इस कुण्ड में रत्नमय कमल है, जिस पर श्रीदेवी सपरिवार रहती है। इस पद्मद्रह से तीन नदियां निकली हैं।


मेरुपर्वत से दक्षिण में, हैमवत क्षेत्र के पास उत्तर दिशा में २०० योजन ऊंचा ५० योजन जमीन में गहरा, पूर्व पश्चिम में ५४९२९१६/१९ (१६ कला) लम्बा, उत्तर दक्षिण में ४२१०१०/१९ योजन (१० कला) चौड़ा, 'महाहिमवान्' पर्वत पीला स्वर्णमय है। इस पर पांच-पांच सौ योजन के आठ कूट हैं। इसके मध्य में २००० योजन लम्बा, १००० योजन चौड़ा, १० योजन गहरा 'महापद्म द्रह है। इसमें रत्नमय कमलों पर हीदेवी सपरिवार रहती है। इस द्रह में से दो नदियां निकलती हैं।1रोहित नदी2हरिकान्ता नदी


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मेरुपर्वत से दक्षिण में, हैमवत क्षेत्र के पास उत्तर दिशा में २०० योजन ऊंचा ५० योजन जमीन में गहरा, पूर्व पश्चिम में ५४९२९१६/१९ (१६ कला) लम्बा, उत्तर दक्षिण में ४२१०१०/१९ योजन (१० कला) चौड़ा, 'महाहिमवान्' पर्वत पीला स्वर्णमय है। इस पर पांच-पांच सौ योजन के आठ कूट हैं। इसके मध्य में २००० योजन लम्बा, १००० योजन चौड़ा, १० योजन गहरा 'महापद्म द्रह है- इसमें रत्नमय कमलों पर ह्री देवी सपरिवार रहती है। इस द्रह में से दो नदियां निकलती हैं।1रोहित नदी2हरिकान्ता नदी


[१३] वैताढ्य पर्वत के पूर्व पश्चिम में दो गुफाएं कही गई हैं। वे उत्तर दक्षिण लम्बी हैं तथा - पूर्व पश्चिम चौड़ी हैं। उनकी लम्बाई पचाय योजन, चौड़ाई बारह योजन तथा ऊँचाई आठ योजन है। उनके वज्ररत्नमय हीरकमय कपाट हैं, दो-दो भागों के रूप में निर्मित, समस्थित कपाट इतने सघन निश्छिद्र या - - निविड हैं, जिससे गुफाओं में प्रवेश करना दुःशक्य है। उन दोनों गुफाओं में सदा अंधेरा रहता है। वे ग्रह, चन्द्र, सूर्य तथा नक्षत्रों के प्रकाश से रहित हैं, अभिरूप एवं प्रतिरूप हैं। उन गुफाओं के नाम तमिस्रगुफा तथा खंडप्रपातगुफा हैं ।

महाहिमवान् पर्वत के सदृश महत्ता तथामहाहिमवान् पर्वत के सदृश महत्ता तथामलय, मेरु एवं महेन्द्र संज्ञक पर्वतों के सदृश प्रधानता या विशिष्टता लिये हुए हैं। वहाँ के मनुष्यों का संहनन, संस्थान, ऊँचाई एवं आयुष्य बहुत प्रकार का है। (वे बहुत वर्षों का आयुष्य भोगते हैं। उनमें कई नरकगति में कई तिर्यंञ्चगति में, कई मनुष्यगति में तथा कई देवगति में जाते हैं। कई सिद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं परिनिर्वृत होते हैं,) सब दुःखों का अंत करते हैं।

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उन विद्याधर श्रेणियों के भूमिभाग से वैताढ्य पर्वत के दोनों और दश दश योजन ऊपर दो आभियोग्य

श्रेणियां अभियोगिक देवों-शक्र, लोकपाल आदि के आज्ञापालक देवों-व्यन्तर देवविशेषों की आवास पंक्तियां हैं। वे पूर्व-पश्चिम लम्बी तथा उत्तर दक्षिण चौड़ी हैं। उनकी चौड़ाई दश दश योजन तथा लम्बाई पर्वत जितनी है। वे दोनों श्रेणियां अपने दोनों ओर दो-दो पद्मवरवेदिकाओं एवं दो-दो वनखंड़ों से परिवेष्टितहैं। लम्बाई में दोनों पर्वत जितनी हैं। वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए।

उनका बड़ा समतल, रमणीय भूमिभाग है। मणियों एवं तृणों से उपशोभित है। मणियों के वर्ण, तृणों के शब्द आदि अन्यत्र विस्तार से वर्णित हैं।


वहाँ बहुत से देव, देवियां आश्रय लेते हैं, शयन करते हैं, (खड़े होते हैं, बैठते हैं, त्वग्वर्तन करते हैं - देह को दायें बायें घुमाते हैं, मोड़ते हैं, रमण करते हैं, मनोरंजन करते हैं, क्रीड़ा करते हैं, सुरत क्रिया करते हैं। यों वे अपने पूर्व-आचरित शुभ, कल्याणकर पुण्यात्मक कर्मों के फलस्वरूप) विशेष सुखों का उपयोग करते हैं।

मलय, मेरु एवं महेन्द्र संज्ञक पर्वतों के सदृश प्रधानता या विशिष्टता लिये हुए हैं।

उन अभियोग्य श्रेणियों में देवराज, देवेन्द्र शक्र के सोम-पूर्व दिक्पाल, यम-दक्षिण दिक्पाल, वरुण बहुत से भवन हैं।  

पश्चिम दिकपाल और वैश्रमण उत्तर दिकपाल आदि आरोपी देवताओं के भवन बाहर सेगोल तथा भीतर से चौरस हैं। भवनों का वर्णन अन्यत्र द्रष्टव्य है। ' वहाँ देवराज, देवेन्द्र शक्र के अत्यन्त ऋद्धिसम्पन्न द्युतिमान् (बलवान, यशस्वी) तथा सौख्यम्पन्न सोम, यम, वरुण एवं वैश्रमण संज्ञक आभियोगिक देव निवास करते हैं।


उन आभियोग श्रेणियों के अति समतल, रमणीय भूमिभाग से वैताढ्य पर्वत के दोनों पार्श्व में दोनों ओर पाँच-पाँच योजन ऊँचे जाने पर वैताढ्य पर्वत का शिखर तल है। वह पूर्व-पश्चिम लम्बा तथा उत्तर दक्षिण चौड़ा है। उसकी चौड़ाई दश योजन है, लम्बाई पर्वत जितनी है। वह एक पद्मवरवेदिका से तथा एक वनखंड से चारों ओर परिवेष्टित है। ।उसका भूमिभाग बहुत समतल तथा रमणीय है। वह मृदंग के ऊपर के भाग जैसा समतल

है, बहुविध पंचरंगी मणियों से उपशोभित है। वहाँ स्थान-स्थान पर बावड़ियाँ एवं सरोवर हैं। वहाँ अनेक वाणव्यन्तर देव, देवियां निवास करते हैं, पूर्व-आचीर्ण पुण्यों का फलभोग करते हैं।दक्षिणार्ध भरतकूट पर अत्यन्त ऋद्धिशाली, (द्युतिमान्, बलवान्, यशस्वी, सुखसम्पन्न एवं


सौभाग्यशाली) एक पल्योपमस्थितिक देव रहता है। उसके चार हजार सामानिक देव, अपने परिवार से परिवृत


चार अग्रमहिषियाँ, तीन परिषद्, सात सेनाएं, सात सेनापति तथा सोलह हजार आत्मरक्षक देव हैं।



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दक्षिणार्ध भरतकूट पर अत्यन्त ऋद्धिशाली, (द्युतिमान्, बलवान्, यशस्वी, सुखसम्पन्न एवंसौभाग्यशाली) एक पल्योपमस्थितिक देव रहता है। उसके चार हजार सामानिक देव, अपने परिवार से परिवृत

चार अग्रमहिषियाँ, तीन परिषद्, सात सेनाएं, सात सेनापति तथा सोलह हजार आत्मरक्षक देव हैं

 दक्षिणार्ध भरतकूट की दक्षिणार्धा नामक राजधानी है, जहाँ वह अपने इस देव परिवार का तथा बहुत से अन्य देवों और देवियों का आधिपत्य करता हुआ सुखपूर्वक निवास करता है, विहार करता है सुख भोगता है। भगवन् ! दक्षिणार्ध भरतकूट नामक देव की दक्षिणार्धा नामक राजधानी कहाँ है ? गौतम ! मन्दर पर्वत के दक्षिण में तिरछे असंख्यात द्वीप और समुद्र लाँघकर जाने पर अन्य जम्बूद्वीप है। वहाँ दक्षिण दिशा में बारह हजार योजन नीचे जाने पर दक्षिणार्ध भरतकूट देव की दक्षिणार्धभरता नामक

राजधानी है। उसका वर्णन विजयदेव की राजधानी के सदृश जानना चाहिए। (दक्षिणार्धभरतकूट, खंडप्रपातकूट,

।मणिभद्रकूट, वैताध्याकूट, पूर्णभद्रकूट, तिमिसागुहकूट, उत्तरार्द्धभारतकूट,)

सिद्धायतन जैसा है। ये क्रमशः पूर्व से पश्चिम की ओर हैं। इनके वर्णन की एक गाथा है

वैताढ्य पर्वत के मध्य में तीन कूट स्वर्णमय हैं, बाकी के सभी पर्वतकूट रत्नमय हैं।

वैताढ्य पर्वत भरत क्षेत्र को दक्षिणार्ध भरत तथा उत्तरार्ध भरत नामक दो भागों में विभक्त करता हुआ स्थित है। उस पर वैताढ्यगिरिकुमार नामक परम ऋद्धिशाली, एक पल्योपमस्थितिक देव निवास करता है। इन कारणों से वह वैताढ्य पर्वत कहा जाता है।


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 ! इसके अतिरिक्त वैताढ्य पर्वत का नाम शाश्वत है। यह नाम कभी नहीं था, ऐसा नह है, यह कभी नहीं है, ऐसा भी नहीं और यह भी नहीं होगा, ऐसा भी नहीं है। यह था, यह है, यह होगा यह ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित एवं नित्य है 

मेरु पर्वत से उत्तर में एरण्यवत क्षेत्र के पास, महा हिमवन्त पर्वत जैसा ही रुक्मी रूपी है, इसके मध्य में महापद्म द्रह जैसा ही 'महापुण्डरीक' द्रह है। इसमें रत्नमय कमल बुद्धि' देवी सपरिवार रहती है। इसमें से दो नदियां निकली हैं– (१) रूप्यकूला नदी,(२) 'नरकांता'


मेरुपर्वत से दक्षिण दिशा में महाहिमवान् पर्वत के पास, उत्तर दिशा में पूर्व पश्चिम ७३९०११७/ योजन (१७ कला), उत्तर दक्षिण में ८४२११/१९ योजन (१ कला) हरिवास क्षेत्र है। इसमें रहने वाले युगलियों का शरीर पन्ना के समान हरा है। यहां दूसरे आरे के समान रचना (हालत-अवस्था) सदैव रहती है। इसके मध्य 'विकटपाती' नामक वृत्त वैताढ्य पर्वत है।


मेरु के दक्षिण में, हरिवास क्षेत्र के निकट उत्तर में पृथ्वी से ४०० योजन ऊंचा, १०० योजन जमीन में गहरा, पूर्व-पश्चिम में ९४१५६२/१९ योजन (२ कला) लम्बा, उत्तर–दक्षिण में १६८४२ योजन चौड़ा माणिक के समान रक्तवर्ण वाला, 'निषध' पर्वत है। इसके ऊपर नौ कूट हैं और मध्य में ४००० योजन लम्बा, २००० योजन चौड़ा और १० योजन गहरा 'तिगिंछ' नामक द्रह है। इसके मध्य रत्नमय कमलों पर धृतिदेवी सपरिवार रहती है। इस द्रह सेसे दो नदियां निकलती हैं-हरिसलीला और सीतोदा



हरिसलीला और सीतोदा

की उत्तर दिशा में रम्यकवास क्षेत्र के पास, दक्षिण में बतलाए हुए निषेध पर्वत जितना, नीलम के समान वर्ण वाला नीलवन्त पर्वत है। इसके मध्य में तिगिंछ द्रह के बराबर केसरिद्रह है। उसमें रत्नमय कमलों पर कीर्त्तिदेवी सपरिवार निवास करती है। इस द्रह में से दो नदियां निकली हैं- नारीकान्ता और सीता ।

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द्रहों के मध्य में रहने वाली भवनपति देवियों की आयु एक पल्योपम की है। उनके ४००० सामानिक देव हैं, १६००० आत्मरक्षक देव हैं, ८००० आभ्यन्तर परिषद् के देव हैं, १०००० मध्य परिषद् के देव हैं, १२००० बाह्य परिषद् के देव हैं, ७ अनीकनायक देव हैं, ४ महत्तरी देवियां हैं, १२०००००० आभियोग्य देव हैं। इन सबके रहने के लिए अलग-अलग रत्नमय कमल हैं और १०८ भूषण रखने के कमल हैं। इस प्रकार सब १२०५०१२० कमल हैं जिन पर रत्नमय भवन हैं।


मेरुपर्वत के दक्षिण में, निषध पर्वत के पास उत्तर में विद्युत्प्रभ और सीमनस गजदन्त पर्वत के मध्य में, १९८४२२/१८ योजन (२ कला) चौड़ा, ५३००० योजन लम्बा, अर्धचन्द्राकार देवकुरु क्षेत्र है। इसमें सदैव पहले आरे जैसी रचना रहती है। देवकुरु क्षेत्र में ८॥ योजन ऊंचा रत्नमय शाल्मली वृक्ष है। उसका अधिष्ठाता गरुड़ वेणुदेव है।


मेरुपर्वत के उत्तर में, नीलवन्त पर्वत के पास दक्षिण में, दोनों गजदन्त पर्वतों के बीच में, देवकुरु क्षेत्र के समान ही 'उत्तरकुरु' क्षेत्र है। वहां शाल्मलि वृक्ष के समान ही जम्बू-वृक्ष है। इस पर जंबूद्वीप का अधिष्ठाता महाऋद्धि का धारक अणढ़ी नामक देव रहता है।?"


जम्बूद्वीप के चारों द्वारों से पंचानवे-पंचानवे हजार योजन की दूरी पर लवणसमुद्र के भीतर वज्ररत्न के चार पाताल-कलश हैं। वे एक लाख योजन गहरे हैं। पचास हजार योजन बीच में चौड़े हैं, एक हजार योजन तलभाग में चौड़े हैं और एक हजार योजन मुखभाग में चौड़े हैं। उनका १०० योजन मोटा दल (ठीकरी) है। उनके नाम इस प्रकार हैं (१) पूर्व में वलयमुख, (२) दक्षिण में केतु, (३) पश्चिम में यूप और (४) उत्तर में ईश्वर, प्रत्येक कलश के तीन-तीन काण्ड हैं। प्रथम काण्ड में ३३३३३१/ योजन में वायु भरा है, दूसरे ३३३३३९१/३ योजन के काण्ड में वायु और पानी मिले हुए भरे हैं और तीसरे ३३३३३१/ योजन के काण्ड में सिर्फ पानी भरा है। इन चारों कलशों के मध्य चारों अन्तरों में वज्ररत्नमय छोटे कलशों की नौ-नौ पंक्तियां बनी हैं। पहली पंक्ति में २१५ कलश, दूसरी में २१६, तीसरी में २१७, चौथी में २१८, पांचवीं में २१९, छठी में २२०, सातवीं में २२१, आठवीं में २२२ और नौवीं में २२३ कलश हैं। ये छोटे कलश १००० योजन गहरे, बीच में १००० योजन चौड़े, तलभाग में तथा मुखभाग में १०० योजन चौड़े हैं। इनका दल १० योजन मोटा है। इन सब कलशों के भी तीन-तीन काण्ड हैं। ३३३ योजन से कुछ अधिक भाग में वायु भरी है, ३३३ झाझेरा (कुछ अधिक) में पानी और वायु भरी है और ३३३ झाझेरा योजन में सिर्फ पानी भरा है। छोटे-बड़े सब कलश ७८८८ होते हैं। इन कलशों के नीचे के काण्ड की वायु जब गुंजायमान होती है, तब ऊपर के काण्ड से पानी उछलकर नीचे लिखी दकमाला से दो कोस ऊपर चढ़ जाता है। अष्टमी और पक्खी के दिन पानी ज्यादा उछलता है, जिससे समुद्र में भरती आती है। प्रत्येक बड़े कलश पर १७४००० नागकुमार जाति के देव सोने के कुड़छे से पानी को दबाते हैं। इसलिए वे वेलंधर देव कहलाते हैं। 

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प्रथम काण्ड में ३३३३३१/ योजन में वायु भरा है, दूसरे ३३३३३९१/३ योजन के काण्ड में वायु और पानी मिले हुए भरे हैं और तीसरे ३३३३३१/ योजन के काण्ड में सिर्फ पानी भरा है। इन चारों कलशों के मध्य चारों अन्तरों में वज्ररत्नमय छोटे कलशों की नौ-नौ पंक्तियां बनी हैं। पहली पंक्ति में २१५ कलश, दूसरी में २१६, तीसरी में २१७, चौथी में २१८, पांचवीं में २१९, छठी में २२०, सातवीं में २२१, आठवीं में २२२ और नौवीं में २२३ कलश हैं। ये छोटे कलश १००० योजन गहरे, बीच में १००० योजन चौड़े, तलभाग में तथा मुखभाग में १०० योजन चौड़े हैं। इनका दल १० योजन मोटा है। इन सब कलशों के भी तीन-तीन काण्ड हैं। ३३३ योजन से कुछ अधिक भाग में वायु भरी है, ३३३ झाझेरा (कुछ अधिक) में पानी और वायु भरी है और ३३३ झाझेरा योजन में सिर्फ पानी भरा है। छोटे-बड़े सब कलश ७८८८ होते हैं। इन कलशों के नीचे के काण्ड की वायु जब गुंजायमान होती है, तब ऊपर के काण्ड से पानी उछलकर नीचे लिखी दकमाला से दो कोस ऊपर चढ़ जाता है। अष्टमी और पक्खी के दिन पानी ज्यादा उछलता है, जिससे समुद्र में भरती आती है। प्रत्येक बड़े कलश पर १७४००० नागकुमार जाति के देव सोने के कुड़छे से पानी को दबाते हैं। इसलिए वे वेलंधर देव कहलाते हैं। 

नागकुमार  देव

इनके दबाने पर भी पानी रुकता नहीं है। उससे १६००० योजन ऊंची और १०००० योजन चौड़ी समुद्र के मध्य में दकमाला (पानी की दीवाल) है।

28:7

 जम्बूद्वीप और धातकीखण्ड में स्थित तीर्थंकर, साधु, साध्वी श्रावक, श्राविका, सम्यग्दृष्टि आदि उत्तम पुरुषों के तप, संयम, धर्म, पुण्य के अतिशय से समुद्र का पानी कभी भी झड़क नहीं डालता है।जम्बूद्वीप के चारों द्वारों से दिशाओं और विदिशाओं में, बयालीस बयालीस हजार योजन पर १७२१ योजन ऊंचे, नीचे के भाग में १०२२ योजन चौड़े, ऊपर ४२४ योजन चौड़े आठपर्वत हैं। इन पर्वतों पर वेलंधर देवों के आवास है, जिनमें से सपरिवार रहते हैं। इसी जगह १२५०० योजन का गौतम द्वीप है, जिसमें लवण-समुद्र का स्वामी सुस्थितदेव सपरिवार रहता है। इस गौतम द्वीप के चारों और ८८|| योजन से कुछ अधिक ऊँचे चन्द्र-सूर्य के द्वीप हैं। वहां ज्योतिषी देव क्रीड़ा करते हैं।

धातकीखण्ड द्वीप को चारों ओर से घेरे हुए, वलय के आकार का ८००००० योजन का चौड़ा, इस तीर से उस तीर तक एक सरीखा १००० योजन गहरा कालोदधि नामक समुद्र है। इसके पानी का स्वाद साधारण पानी जैसा है। इसमें दो गौतम द्वीप और १०८ चन्द्रमा सूर्य के द्वीप हैं ।

कुचसमुद्र इस प्रकार अगला- अगला, पूर्व-पूर्व वाले द्वीपसमुद्र को घेरे हुए असंख्यात द्वीप हैं और असंख्यात समुद्र हैं। सबका विस्तार दुगुना-दुगुना होता गया है। इन सबके अन्त में आधा रज्जु चौड़ा स्वयंभूरमण समुद्र है। उससे १२ योजन दूर चारों ओर अलोक है। ऊपर ज्योतिषचक्र से १९९१ योजन दूरी पर अलोक है।

29:7

ज्योतिषचक्र


जम्बूद्वीप के सुदर्शन मेरु के समीप की समतल भूमि से ७९० योजन ऊपर तारामण्डल है। आधा कोस लम्बे-चौड़े और पाव कोस ऊंचे तारा के विमान हैं। तारादेव की जघन्य स्थिति पल्योपम का आठवां भाग एवं उत्कृष्ट पाव पल्योपम की है। तारादेवियों की स्थिति जघन्य पल्य के आठवें भाग और उत्कृष्ट पल्योपम के आठवें भाग से कुछ अधिक है। तारा के विमान को २००० देव उठाते हैं।

28:7

जम्बूद्वीप और धातकीखण्ड में स्थित तीर्थंकर, साधु, साध्वी श्रावक, श्राविका, सम्यग्दृष्टि आदि उत्तम पुरुषों के तप, संयम, धर्म, पुण्य के अतिशय से समुद्र का पानी कभी भी झड़क नहीं डालता है।जम्बूद्वीप के चारों द्वारों से दिशाओं और विदिशाओं में, बयालीस बयालीस हजार योजन पर १७२१ योजन ऊंचे, नीचे के भाग में १०२२ योजन चौड़े, ऊपर ४२४ योजन चौड़े आठपर्वत हैं। इन पर्वतों पर वेलंधर देवों के आवास है, जिनमें से सपरिवार रहते हैं। इसी जगह १२५०० योजन का गौतम द्वीप है, जिसमें लवण-समुद्र का स्वामी सुस्थितदेव सपरिवार रहता है। इस गौतम द्वीप के चारों और ८८|| योजन से कुछ अधिक ऊँचे चन्द्र-सूर्य के द्वीप हैं। वहां ज्योतिषी देव क्रीड़ा करते हैं।


धातकीखण्ड द्वीप को चारों ओर से घेरे हुए, वलय के आकार का ८००००० योजन का चौड़ा, इस तीर से उस तीर तक एक सरीखा १००० योजन गहरा कालोदधि नामक समुद्र है। इसके पानी का स्वाद साधारण पानी जैसा है। इसमें दो गौतम द्वीप और १०८ चन्द्रमा सूर्य के द्वीप हैं ।


कुचसमुद्र इस प्रकार अगला- अगला, पूर्व-पूर्व वाले द्वीपसमुद्र को घेरे हुए असंख्यात द्वीप हैं और असंख्यात समुद्र हैं। सबका विस्तार दुगुना-दुगुना होता गया है। इन सबके अन्त में आधा रज्जु चौड़ा स्वयंभूरमण समुद्र है। उससे १२ योजन दूर चारों ओर अलोक है। ऊपर ज्योतिषचक्र से १९९१ योजन दूरी पर अलोक है।




ज्योतिषचक्र




जम्बूद्वीप के सुदर्शन मेरु के समीप की समतल भूमि से ७९० योजन ऊपर तारामण्डल है। आधा कोस लम्बे-चौड़े और पाव कोस ऊंचे तारा के विमान हैं। तारादेव की जघन्य स्थिति पल्योपम का आठवां भाग एवं उत्कृष्ट पाव पल्योपम की है। तारादेवियों की स्थिति जघन्य पल्य के आठवें भाग और उत्कृष्ट पल्योपम के आठवें भाग से कुछ अधिक है। तारा के विमान को २००० देव उठाते हैं।





 



तारामण्डल से १० योजन ऊपर, एक योजन के ६१ भाग में से ४८ भाग लम्बा चौड़ा और २४ भाग ऊंचा, अंक रत्नमय सूर्यदेव का विमान है। सूर्य विमानवासी देवों की आयु जघन्य पाव पल्योपम की और उत्कृष्ट एक पल्योपम तथा एक हजार वर्ष की है। इनकी देवियों की आयु जघन्य पाव पल्योपम और उत्कृष्ट आधा पल्योपम एवं ५०० वर्ष की है। सूर्य के विमान को १६००० देव उठाते हैं।


सूर्यदेव के विमान से ८० योजन ऊपर एक योजन के ६१ भाग में से ५६ भाग लम्बा चौड़ा और २८ भाग ऊंचा, स्फटिक रत्नमय चन्द्रमा का विमान है। चन्द्र विमानवासी देवों


२. चन्द्र, सूर्य आदि ज्योतिष्क देवों के वर्णन में योजन तथा कोस शाश्वत समझना चाहिए। ४००० अशाश्वत कोस का एक शाश्वत योजन होता है। ३. सूर्य विमान से एक योजन नीचे केतु का विमान है और चन्द्र विमान से एक योजन नीचे राहु का विमान है। ऐसा दिगम्बर सम्प्रदाय के चर्चाशतक ग्रंथ में उल्लेख है।


४. दिगम्बर आम्नाय के मिथ्याखण्डनसूत्र में लिखा है— चन्द्रमा का विमान सामान्यतः १८०० कोस चौड़ा है। सूर्य का विमान १६०० कोस चौड़ा है और ग्रह एवं नक्षत्रों के विमान जघन्य १२५ कोस और उत्कृष्ट ५०० कोस के चौड़े हैं। इसी प्रकार समतल भूमि से १६००००० कोस सूर्य का विमान और १७६००००


कोस चन्द्रमा का विमान है।


एक पल्योपम तथा एक लाख वर्ष की है। इनकी देवियों की आयु जघन्य पाव पल्योपम की और उत्कृष्ट आधे पल्योपम की तथा ५०००० वर्ष की है। चन्द्र विमान को भी १६००० देव उठाते हैं।


चन्द्रविमान से ४ योजन ऊपर नक्षत्रमाला है। इनके विमान पांचों वर्णों के रत्नमय हैं। एक एक कोस के लम्बे-चौड़े और आधे कोस के ऊंचे हैं। नक्षत्र विमानों में रहने वाले देवों की आयु जघन्य पाव पल्योपम की तथा उत्कृष्ट आधे पल्योपम की है। इनकी देवियों की आयु जघन्य पाव पल्योपम की और उत्कृष्ट पाव पल्योपम से कुछ अधिक की है। नक्षत्र विमान को ४००० देव उठाते हैं।

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४. दिगम्बर आम्नाय के मिथ्याखण्डनसूत्र में लिखा है— चन्द्रमा का विमान सामान्यतः १८०० कोस चौड़ा है। सूर्य का विमान १६०० कोस चौड़ा है और ग्रह एवं नक्षत्रों के विमान जघन्य १२५ कोस और उत्कृष्ट ५०० कोस के चौड़े हैं। इसी प्रकार समतल भूमि से १६००००० कोस सूर्य का विमान और १७६००००

कोस चन्द्रमा का विमान है।




एक पल्योपम तथा एक लाख वर्ष की है। इनकी देवियों की आयु जघन्य पाव पल्योपम की और उत्कृष्ट आधे पल्योपम की तथा ५०००० वर्ष की है। चन्द्र विमान को भी १६००० देव उठाते हैं।


चन्द्रविमान से ४ योजन ऊपर नक्षत्रमाला है। इनके विमान पांचों वर्णों के रत्नमय हैं। एक एक कोस के लम्बे-चौड़े और आधे कोस के ऊंचे हैं। नक्षत्र विमानों में रहने वाले देवों की आयु जघन्य पाव पल्योपम की तथा उत्कृष्ट आधे पल्योपम की है। इनकी देवियों की आयु जघन्य पाव पल्योपम की और उत्कृष्ट पाव पल्योपम से कुछ अधिक की है। नक्षत्र विमान को ४००० देव उठाते हैं।



 


5:8

नक्षत्रमाला से ४ योजन ऊपर ग्रहमाला है। ग्रहों के विमान भी पांचों वर्गों के रत्नमय हैं। ग्रह विमान दो कोस लम्बे-चौड़े और एक कोस ऊंचे हैं। ग्रह विमानवासी देवों की आयु पाव पल्योपम की और उत्कृष्ट एक पल्योपम की है। इनकी देवियों की जघन्य आयु पाव पल्योपम की और उत्कृष्ट आयु आधे पल्योपम की है। ग्रह के विमान को ८००० देव उठाते


नक्षत्रमाला से चार योजन की ऊंचाई पर हरित-रत्नमय बुध का तारा है। इससे तीन योजन ऊपर स्फ रत्नमय शुक्र का तारा है। इससे तीन योजन ऊपर पीत रत्नमय बृहस्पति का तारा है। इससे तीन योजन ऊपर रक्त-रत्नमय मंगल का तारा है। इससे तीन योजन ऊपर जाम्बूनदमय शनि का तारा है। इनमें रहने वाले देवों की आय और इन विमानों को उठाने वाले देवों की संख्या ग्रहमाला के विषय में वर्णित आयु आदि के ही समान समझनी चाहिए। इस प्रकार सम्पूर्ण ज्योतिषचक्र मध्यलोक में ही है और समतल भूमि से ७९० योजन की ऊंचाई से आरम्भ होकर ९०० योजन तक अर्थात् ११० योजन में स्थित है। ज्योतिषी


देवों के विमान जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत से ११२१ योजन चारों तरफ दूर फिरते-घूमते हैं।


जम्बूद्वीप में २ चन्द्रमा, २ सूर्य, लवणसमुद्र में ४ चन्द्र, ४ सूर्य, धातकीखण्ड द्वीप में १२ चन्द्र, १२ सूर्य, पुष्करार्धद्वीप में ७२ चन्द्रमा, ७२ सूर्य हैं। अढ़ाई द्वीप के भीतर कुल १३२ चन्द्रमा और १३२ सूर्य हैं। यह चन्द्र-सूर्य पांच मेरुपर्वतों के चारों ओर सदैव भ्रमण करते रहते हैं। अढाईद्वीप के बाहर जो असंख्यात सूर्य और असंख्यात चन्द्र हैं वे सदैव स्थिर रहते हैं। अढ़ाई द्वीप के बाहर चन्द्र-सूर्य आदि ज्योतिषी देवों के विमानों की लम्बाई-चौड़ाई तथा ऊंचाई, अढ़ाईद्वीप के अन्दर के ज्योतिष्क विमानों से आधी समझना चाहिए। अढाई द्वीप के भीतर के ज्योतिषी देवों के विमान आधे कवीठ (कपित्थ-कैथ) के फल के आकार के नीचे से गोल और ऊपर से सम हैं। अढाई द्वीप के बाहर के ज्योतिष्क देवों के विमान ईंट के आकार के लम्बे ज्यादा और चौड़े कम हैं। इन बाहर के विमानों का तेज भी मन्द होता है। यहां के सूर्य और चन्द्रमा का जैसा तेज उदित होते समय होता है, वैसा वहां के चन्द्र-सूर्य का हल्का तेज सदैव रहता है।


अढ़ाई द्वीप के ज्योतिष्क देव भ्रमण करते रहते हैं, अत: यहां दिन-रात्रि आदि का भेद होता है और इसी आधार पर समय, आवलिका, मुहूर्त्त आदि काल का प्रमाण होता है। परन्तु बाहर के ज्योतिष्क देव स्थिर रहते हैं, अतएव जहां रात्रि है वहां सदा रात्रि ही रहती है और जहां दिन है वहां दिन ही रहता है।


सब ज्योतिषियों के इन्द्र जम्बूद्वीप के चन्द्र और सूर्य' हैं। चन्द्र सूर्य के साथ ८८ ग्रहरे हैं, २८ नक्षत्र हैं और ६६९७५०००००००००००००० (छयासठ हजार नौ सौ पचहत्तरकोड़ाकोड़ी) तारे हैं। प्रत्येक ज्योतिषी के स्वामी के ४ अग्रमहिपियां (इन्द्रानियां) हैं। प्रत्येक इन्द्रानी का चार-चार हजार देवियों का परिवार है ४००० सामानिक देव हैं। १६००० आत्मरक्षक देव हैं। आभ्यन्तर परिषद के ८००० देव हैं। मध्य परिषद् के १०००० देव हैं और बाह्य परिषद् के १२००० देव हैं। सात प्रकार की अनीक हैं। इसके सिवाय और भी बहुत सा परिवार है। वे पूर्वोपार्जित पुण्य के फल भोग रहे हैं। इस प्रकार इस भूतल से ९०० योजन नीचे और ९०० योजन ऊपर कुल १८०० योजन में मध्यलोक है। मेरुपर्वत तीनों लोकों का स्पर्श करता है।


१. ज्योतिषियों के विमान उठाने वाले जितने जितने देव कहे हैं, उनके ४ विभाग करना। जिसमें एक विभाग पूर्व दिशा में सिंह के रूप में, दूसरा विभाग दक्षिण में हस्ती के रूप में तीसरा विभाग पश्चिम


दिशा में बैल के रूप में और चौथा उत्तर दिशा में घोड़े के रूप में विमान उठाकर फिरते हैं। २. असंख्यात द्वीप समुद्रों के ज्योतिषियों का परिमाण (हिसाब) लगाने की युक्ति इस प्रकार है- धातकीखण्ड द्वीप में १२ चन्द्र और १२ सूर्य कहे हैं। इन्हें तिगुना करने से १२ x ३ = ३६ हुए। इनमें जम्बूद्वीप के २ लवण समुद्र के ४ मिला देने से ४२ हुए। बस, कालोदधि में ४२ चन्द्र और ४२ सूर्य हैं। इसी प्रकार कालोदधि के ४२ को तिगुना करने से ४२ ३ = १२६ हुए। इनमें जम्बूद्वीप के २, लवण समुद्र के ४ और धातकीखण्ड के १२यों १८ मिलाने से १४४ हुए। अतएव पुष्कर द्वीप में १४४ चन्द्र और १४४सूर्य हैं। इसी प्रकार आगे भी किसी विवक्षित द्वीप या समुद्र की चन्द्रसंख्या या सूर्यसंख्या को तिगुनी करके पिछले द्वीप-समुद्रों की चन्द्र संख्या को जोड़ देने से किसी भी द्वीप और समुद्र के चन्द्रों या सूर्यों की संख्या मालूम हो जाती है। चन्द्रों और सूर्यो की संख्या अलग-अलग समझना चाहिए।


अड़ाई द्वीप के बाहर सूर्य और चन्द्र में ५०००० योजन का अन्तर है। चन्द्र का चन्द्र से और सूर्य का सूर्य से १००००० योजन का अन्तर है। सभी स्थानों में इसी प्रकार समझना चाहिए। १. दिगम्बर सम्प्रदाय के ग्रन्थ में उल्लेख है कि आश्विन और चैत्र की पूर्णिमा के दिन जो चन्द्र और सूर्य भरतक्षेत्र में प्रकाशित होते हैं, वही इन्द्र हैं।


२. ८८ ग्रहों के नाम – १. अगारक, २. विकालक, ३. लोहिताक्ष, ४. शनैश्चर, ५. आधूनिक ६ प्रघूनिक, ७. कण, ८. कणक, ९. कणकणक, १०. कणवितानी, ११. कण शतानी, १२. सोम, १३ सहित १४. अश्वसत, १५. कार्पोत्वत, १६. कर्बुक, १७, अजकर्क, १८. दुदभक, १९. शंख, २०. शंख नाम, २१. शंख वर्ण, २२. कश, २३. कंश नाम, २४. कंश वर्ण, २५. नील २६. नीलाभास, २७. रूप, २८. रूपायभास, २९. भस्म, ३० भस्मरास, ३१. तिल, ३२. पुष्पवर्ण, ३३. दक, ३४. दकवर्ण, ३५. काय, ३६. बध्य, ३७. इन्द्रागी, ३८. धूमकेतु, ३९. हरि, ४०. पिंगलक, ४१. बुध, ४२. शुक्र, ४३. बृहस्पति, ४४. शुक्र, ४५. अगस्ति, ४६ माणवक, ४७, कालस्पर्श, ४८. धुरक, ४९. प्रमुख, ५०. विकट, ५१. विषघ्न कल्प, ५२. प्रकल्प, ५३. जयल, ५४. अरुण, ५५. अनिल, ५६. काल, ५७. महाकाल, ५८ स्वस्तिक, ५९ सौवस्तिक, ६० वर्द्धमानक, ६१. पालम्बोक, ६२. नित्योदक, ६३. स्वयंप्रभ, ६४ आभास, ६५. प्रभास, ६६. श्रेयस्कर, ६७ क्षेमंकर, ६८. आभकर ६९. प्रभाकर, ७०. अरज, ७१. विरज, ७२. अशोक, ७३. तसोक, ७४. विमल, ७५. वितत, ७६. विवस्त्र, ७७. विशाल, ७८. शाल, ७९. सुव्रत, ८० अनिवृत्त, ८१. एकजटी, ८२. द्विजटी ८३. करी, ८४. करीक, ८५. राजा, ८६, अर्गल, ८७ पुष्पकेतु, ८८. भावकेतु।


३. २८ नक्षत्र– १. अभिजित, २. श्रवण, ३. घनिष्ठा, ४. शतभिषा, ५. पूर्वाभाद्रपद, ६. उत्तराभाद्रपद, ७. रेवती, ८. अश्विनी ९. भरणी, १०. कृतिका, ११. रोहिणी, १२. मृगशिर, १३. आर्द्रा, १४. पुनर्वसु, १५. पुष्य, १६. आश्लेषा, १७. मघा, १८. पूर्वाफाल्गुनी, १९. उत्तरा फाल्गुनी, २० हस्त, २१. चित्रा, २२. स्वाति, २३. विशाखा, २४. अनुराधा, २५ जेष्ठा, २६ मूल, २७. पूर्वाषाढ़ा, २८. उत्तराषाढ़ा ।


 ☑️ज्योतिर्वासी देव

प्रकाश करने का ही स्वभाव होने से इन देवों की ज्योतिषी देव यह संज्ञा सार्थक है।

 प्रकाशमान विमानों में रहने के कारण यह देव ज्योतिष कहलाते हैं। हमें जो सूर्य-चंद्र दिखते हैं, वे ज्योतिष्क देव नहीं, वे तो उनके विमान हैं। इन पर वे कभी-कभी क्रीडा करने आते हैं। उनका शाश्वतिक निवास पृथ्वी पर होता है। मनुष्य लोक में जो ज्योतिष्क है वे सदा भ्रमण किया करते हैं।

*वे पांच प्रकार के हैं-*

सूर्य, चंद्र, ग्रह, नक्षत्र और तारा।☑️तक हो गया

मनुष्य लोक के बाहर के सूर्य आदि ज्योतिष्क विमान स्थिर है। उनकी लेश्या और उनका प्रकाश भी एक समान रहता है। समस्त ज्योतिष्कों का एक दंडक माना गया है।

*वैमानिक - दंडक चौबिसवां।*

ज्योतिष चक्र से असंख्य योजन की दूरी पर छब्बीस देवलोक है। उनमें उत्पन्न होने वाले देव वैमानिक कहलाते हैं। ये सबसे अधिक वैभवशाली होते हैं। ये दो भागों में बंटे हुए हैं- *कल्पोपपन्न और कल्पातीत।*  कल्प का अर्थ है-मर्यादा। कल्पोपपन्न देवों में स्वामी, सेवक, बड़े छोटे आदि की मर्यादा होती है। कल्पातीत देवों में स्वामी सेवक का कोई भेद नहीं रहता वह सब *अहमिन्द्र* होते हैं।





1 जम्बू द्वीप में कितने नक्षत्र है

56

2जम्बू द्वीप में कितने चन्द्र सूर्य है

2.2

3  जम्बू द्वीप में कितने तारे कोड़ा कोड़ी में है

133950

4 जम्बू द्वीप में कितने ग्रह है

176

5अढ़ाई द्वीप में कितने ग्रह है

11616

6  सबसे अधिक तारे कहा है

अढ़ाई द्वीप में

7अढ़ाई द्वीप में कितने नक्षत्र है

3696

8 सर्वाधिक ग्रह चन्द्र सूर्य तारे नक्षत्र कहा है

अढ़ाई द्वीप

9 अढ़ाई द्वीप में कितने तारे है

8840700

10 अढ़ाई द्वीप में जितने सूर्य है उतने ही चन्द्र हैकय्या

हा

11सबसे धीमी गति किसकी

चन्द्र

12सबसे कम रिद्धि किसकी

तारे की

13 क्लोद्धि समुद्र में कितने सूर्य है

42

13 छ दर्जन सूर्य चन्द्र कहा है

अर्द्ध पुष्कर द्वीप में

14 लवण समुद्र में सूर्य कितने

4

15किनके मंडल नहीं होते है

ग्रह और तारे के मंडल नहीं होते

16 एक दर्जन सूर्य चन्द्र किसके

घातकी खण्ड में

17 अर्द्ध पुष्कर द्वीप मेंकितने नक्षत्र है

2016

18लवण समुद्र में कितने नक्षत्र है

112

19क्लोद्धि समुद्र में कितने ग्रह है

3696

20लवण समुद्र में तारे कितने

267900





ज्योतिष्क देवों के पाँच भेद हैं


☑️सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारा। इनके विमान चमकीले होने से इन्हें ज्योतिष्क देव कहते हैं, ये सभी विमान अर्धगोलक सदृश हैं। ये सभी देव मेरुपर्वत को ११२१ योजन (४४,८४००० मी.) छोड़कर नित्य ही प्रदक्षिणा के क्रम से भ्रमण करते हैं। इनमें चन्द्र, सूर्य और ग्रह ५१० ४८/८१ योजन प्रमाण गमन क्षेत्र में स्थित परिधियों के क्रम से पृथक्-पृथक् गमन करते हैं परन्तु नक्षत्र और तारे अपनी-अपनी परिधिरूप मार्ग में ही गमन करते हैं।☑️तक होगया


ज्योतिष्क देवों की ऊँचाई


☑️पाँच प्रकार के देवों के विमान इस चित्रा पृथ्वी से ७९० योजन से प्रारंभ होकर ९०० योजन की ऊँचाई तक अर्थात् ११० योजन में स्थित हैं। सबसे प्रथम ताराओं के विमान हैं, जो सबसे छोटे १/४ कोस (२५० मी.) प्रमाण हैं। इन सभी विमानों की मोटाई अपने-अपने विमानों से आधी-आधी है। ☑️  तक हो गया

☑️राहु के विमान चन्द्र के नीचे एवं केतु के विमान सूर्य के नीचे रहते हैं अर्थात् ४ प्रमाणांगुल (२००० उत्सेधांगुल) प्रमाण ऊपर चन्द्र-सूर्य के विमान स्थित होकर गमन करते हैं। ये राहु-केतु के विमान ६-६ महीने में पूर्णिमा एवं अमावस्या को क्रम से चन्द्र एवं सूर्य के विमानों को ढँक देते हैं, इसे ही ग्रहण कहते हैं। इस पृथ्वी से तारा आदि विमानों की ऊँचाई एवं उनका प्रमाण यंत्र में देखिए। (नोट-परिशिष्ट में चार्ट नम्बर १२ देखिए)।☑️तक हो गया


वाहन जाति के देव


☑️इन सूर्य, चन्द्र के प्रत्येक विमानों को आभियोग्य जाति के ४००० देव विमान के पूर्व में सिंह के आकार को धारण कर, दक्षिण में ४००० देव हाथी के आकार को, पश्चिम में ४००० देव बैल के आकार को एवं उत्तर में ४००० देव घोड़े के आकार को धारण कर ऐसे १६००० देव सतत खींचते रहते हैं, इसी प्रकार ग्रहों के ८०००, नक्षत्रों के ४००० एवं ताराओं के २००० वाहनजाति के देव होते हैं।☑️तक हो गया


ज्योतिष्क देवों की गति


☑️गमन में चन्द्रमा सबसे मंद है। सूर्य उसकी अपेक्षा तीव्रगामी, उससे शीघ्रतर ग्रह, इनसे शीघ्रतर नक्षत्र एवं नक्षत्रों से भी शीघ्रतर गति वाले तारागण हैं।☑️


सूर्यादि की किरणें


ये विमान पृथ्वीकायिक (चमकीली धातु) से बने हुए अकृत्रिम हैं। सूर्य के बिम्ब में स्थित पृथ्वीकायिक जीव के आतप नामकर्म का उदय होने से उसकी किरणें उष्ण हैं। चन्द्र के बिम्ब में स्थित पृथ्वीकायिक के उद्योत नामकर्म का उदय होने से उनके मूल में शीतलता है और किरणें भी शीतल हैं, ऐसे ही तारा आदि के समझना।


विमान और जिनमंदिरों का प्रमाण


सभी ज्योतिर्वासी देवों के विमानों के बीचों-बीच में एक-एक जिनमंदिर है और चारों ओर देवों के निवास स्थान बने हुए हैं। ये विमान एक राजु प्रमाण चौड़े इस मध्यलोक तक हैं अत: असंख्यात हैं, इसी निमित्त से जिनमंदिर भी असंख्यात ही हो जाते हैं। उनमें स्थित १०८-१०८ प्रतिमाओं को मेरा नमस्कार होवे। सूर्य का गमन क्षेत्र-सूर्य का गमन क्षेत्र जम्बूद्वीप के भीतर १०८ योजन एवं लवण समुद्र में ३३० ४८/८१ योजन है अर्थात् समस्त गमन क्षेत्र ५१० ४८/८१ योजन (२०४३१४७ १३/६१) मील है। इतने प्रमाण में १८४ गलियाँ हैं। इन गलियों में दो सूर्य क्रमश: एक-एक गली में संचार करते हैं।


☑️दक्षिणायन


उत्तरायण-जब सूर्य प्रथम गली में रहता है, तब श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन दक्षिणायन प्रारंभ होता है और जब वह अंतिम गली में पहुँचता है, तब उत्तरायण प्रारंभ होता है। एक मिनट में सूर्य का गमन-एक मिनट में सूर्य का गमन ४४७६२३ ११/१८ मील प्रमाण है। चक्रवर्ती द्वारा सूर्य के जिनबिम्ब का दर्शन-जब सूर्य पहली गली में आता है, तब अयोध्या नगरी के भीतर अपने भवन के ऊपर स्थित चक्रवर्ती सूर्य विमान में स्थित जिनबिम्ब का दर्शन कर लेते हैं। चक्रवर्ती की दृष्टि का विषय ४७२६३ ७/२० योजन (१८९०५३४००० मील) प्रमाण है। चन्द्र का गमन क्षेत्र-सूर्य के इसी गमन क्षेत्र में चन्द्र की १५ गलियाँ हैं। इनमें वह प्रतिदिन एक-एक गली में गमन करता है। एक मिनट में चन्द्र का गमन-एक मिनट में चन्द्रमा ४२२७९६ ३१/१६४७ मील तक गमन करता है।


कृष्णपक्ष-शुक्लपक्ष


जब चन्द्रबिम्ब पूर्ण दिखता है, तब पूर्णिमा होती है। राहु विमान चन्द्रविमान के नीचे गमन करता है। राहु प्रतिदिन एक-एक मार्ग में चन्द्रबिम्ब की एक-एक कला को ढँकते हुए १५ दिन तक १५ कलाओं को ढँक लेता है, तब अंतिम दिन की १६ कला में १ कला शेष रह जाती है, उसी का नाम अमावस्या है। फिर वह राहु प्रतिपदा के दिन में प्रत्येक गली में १-१ कला को छोड़ते हुए पूर्णिमा को १५ कलाओं को छोड़ देते हैं, तब पूर्णिमा हो जाती है। इस प्रकार कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष का विभाग हो जाता है। एक चन्द्र का परिवार-इन ज्योतिषी देवों में चन्द्रमा इन्द्र है तथा सूर्य प्रतीन्द्र है अत: एक चन्द्रमा इन्द्र के एक सूर्य प्रतीन्द्र, ८८ ग्रह, २८ नक्षत्र, ६६ हजार ९७५ कोड़ा-कोड़ी तारे ये सब परिवार देव हैं। जम्बूद्वीप में दो चन्द्रमा और दो सूर्य हैं। दिन-रात्रि का विभाग-सूर्य के गमन से ही दिन-रात्रि का विभाग होता है। मानुषोत्तर पर्वत के अन्दर के ही सूर्य आदि ज्योतिषी देव गमन करते हैं। आगे के सभी ज्योतिष विमान स्थिर हैं

🔴 *जितनी रिद्धि अधिक उतनी गति(चाल) धीमी।*

किसके लिए कहा गया है।❓🤔


 *उत्तर* :--- *चंद्र देवविमान की* 


नीचे से ऊपर देव रिद्धि  बढ़ती जाती है। भवनपति ,व्यंतर देवों से ज्योतिषी देवों की रिद्धि अधिक होती है।

ज्योतिषी में भी सबसे कम रिद्धि तारा देवों की सर्वाधिक चंद्र देव की होती है,लेकिन चंद्र विमान की गति ज्योतिषी देवों में सबसे धीमी होती है और तारा देवों की अधिक।


इसीलिए ज्योतिषी देवों के लिए कहा गया है कि जिसकी रिद्धि अधिक उसकी गति धीमी।🙏🙏

अनुत्तर विमान और ग्रैवेयक की रिद्धि/गति/अवधि ज्ञान  अधिक है लेकिन इनके विमान भी स्थिर है और ये देव गमना गमन नही करते हैं, क्योंकि गमन योग्य इन्हें कोई प्रयोजन नही होता है। तत्व विचारणा के समय कोई जिज्ञासा, शंका  होने पर मनोवर्गणा के पुद्गत द्वारा तीर्थंकर जी प्रश्न पूछकर वही रहते हुए समाधान पा लेते हैं। 


(जिनवाणी विरुद्ध लिखने में आया हो तो मिच्छामि दुक्कडम)🙏


✍️ *उमंग मुणोत* 🍃🍂☑️


उपलब्ध ग्रन्थों के अनुसार संक्षेप में  ज्योतिर्ष लोक का वर्णन करते हैं।


 सूर्य चन्द्रमा के विमान


सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और तारे-ये सब ज्योतिष निकाय के देव हैं। आकाश में दिखने वाले सूर्य चन्द्रमा आदि इन्ही देवों के विमान है।


इन विमानों का आकार अर्ध गोलाकार होता है। अर्थात् जिस प्रकार गोले के दो खण्ड करके उन्हें उधर्वमुख रखा जावें तो चौड़ाई का भाग ऊपर एवं गोलाई वाला भाग नीचे रहता है। इसी प्रकार उध्र्वमुख अर्धगोले के सदृश ज्योतिष देवों के विमान है। इन विमानों के नीचे का गोलाकार भाग ही हमारे द्वारा देखा जाता है। ये विमान पृथ्वीकायिक (चमकीली धातु) के बने हुए, अकृत्रिम है। सूर्य के बिम्व में स्थित पृथ्वीकायिक जीव के आताप नाम कर्म का उदय से सूर्यविमान मूल में ठन्डा होने पर भी उसकी किरणें गरम होती है। चन्द्र बिम्ब में स्थित पृथ्वीकायिक जीव के उद्योत नाम कर्म का उदय होने से चन्द्र विमान मूल में ठन्डा है एवं उसकी किरणें भी शीतल हैं। इसी प्रकार तारा आदि के विमानों में भी उद्योत नामकर्म का उदय जानना चाहिए।


 


सूर्य चन्द्र की गणना


सूर्य चन्द्र आदि एक - दो नहीं किन्तु असंख्यात (जिन्हे गिना न जा सके) हैं। एक राजू प्रमाण लम्बे और एक राजू प्रमाण चौड़े मध्यलोक में पूर्व पश्चिम धनोदधि वातवलय पर्यन्त सूर्यादि के विमान फैले हुए हैं। जम्बूद्वीप में दो सूर्य एवं दो चन्द्रमा है एक चन्द्रमा के परिवार में एक सूर्य, अठासी (88) ग्रह, अट्ठाईस (28) नक्षत्र एवं छयासठ हजार नौ सौ पचहत्तर कोड़ाकोड़ी (66975 कोड़ा कोड़ी) तारे होते हैं।


 


लवण समुद्र में चार चन्द्रमा अपने परिवार विमानों सहित है। धातकी खण्ड में बारह (12) चन्द्रमा कालोदधि समुद्र में ब्यालीस चन्द्रमा अपने सूर्यादि के विमानों के परिवार सहित होते हैं। इसके आगे मानुषोत्तर पर्वत के परभाग वाले पुष्करार्ध द्वीप के प्रथम वलय में एक सौ चौबालीस (144) चन्द्रमा परिवार सहित है एवं इस द्वीप में अंतिम वलय में इनकी संख्या (288) दो सौ अट्ठासी हो जाती है। आगे इनकी संख्या बढ़ते-बढ़ते अन्तिम स्वयम्भू रमण समुद्र तक असंख्यात हो जाती है।


सूर्य चन्द्रमा आदि का अवस्थान


पृथ्वी तल से सात सी नब्बे (790) योजन की ऊँचाई से लेकर नौ सौ (900) योजन तक की ऊँचाई में ज्योतिष मण्डल अवस्थित है। भूमि के समतल भाग से सात सौ नब्बे (790) योजन ऊपर, सबसे नीचे तारागण हैं, उनसे दस योजन ऊपर प्रतीन्द्र सूर्य और उससे अस्सी योजन ऊपर इन्द्र चन्द्रमा भ्रमण करते हैं। चन्द्रमा से तीन योजन ऊपर नक्षत्र और नक्षत्र से तीन योजन ऊपर बुध के विमान स्थित हैं। बुध ग्रह से तीन योजन ऊपर शुक्र, शुक्र से तीन योजन ऊपर बृहस्पति, उससे चार योजन ऊपर मंगल एवं मंगल से चार योजन ऊपर शनि ग्रह भ्रमण करता है। इस प्रकार सम्पूर्ण ज्योतिष मण्डल एक सौ दस (110) योजना नभस्थल में स्थित है।


 

सूर्य चन्द्रमा का गमन


ढाई द्वीप और दो समुद्र सम्बन्धी ज्योतिषी देव (विमान) मेरू पर्वत से ग्यारह सौ इक्कीस (1121) योजन छोड़कर मेरू पर्वत की प्रदक्षिणा करते हुए निरन्तर गमन करते हैं। इनसे बाहय क्षेत्र के ज्योतिषी देव अवस्थित हैं।


 इन सूर्य और चन्द्रमा आदि को आभियोग्य जाति के देव खीचतें हैं। चन्द्र और सूर्य के पूर्व दिशा में चार हजार देव सिंह के आकर को धारण कर, दक्षिण में 4000 देव हाथी के आकार को धारण कर, पश्चिम में 4000 देव बेल के आकार को धारण कर एवं उत्तर में 4000 देव घोड़े के आकार को धारण कर ऐसे 16000 देव सतत् खींचते रहते हैं। इसी प्रकार ग्रहों को कुल 8000 देव, नक्षत्रों को 4000 देव एवं ताराओं को 2000 वाहन जाति के देव खींचते रहते हैं।

चण्डकौशिक 2


ज्योतिष देव के भव से काल कर 

वह साधु का जीव कनखल आश्रम के कुलपति के पुत्र बने।

2) समवसरण में सुवर्णमय दूसरे गढ की रचना ज्योतिष देव करते हैं, जिसमें 5000 सिढियाँ होती हैं।

जंबूद्वीप में 2, लवण समुद्र में 4, धातकी खंड में 12, कालोदधि समुद्र में 42 तथा पुष्करार्ध में 72 सूर्य और चंद्र हैं । इस प्रकार ढाई द्वीप में 132 सूर्य और 132 चंद्र हैं ।


ग्रह, नक्षत्र और तारा चंद्र का ही परिवार है, और जो चंद्र का परिवार है, वो ही सूर्य का भी परिवार है । सूर्य का अलग परिवार नहीं है ।


1 चंद्र का परिवार 88 ग्रह, 28 नक्षत्र और 66,975 कोड़ाकोड़ी तारा हैं ।

यहां से बाद में

द्वीप-समुद्र - जंबूद्वीप

ग्रह - 176

नक्षत्र - 56

तारा - 1,33,950

कोड़ाकोड़ी


द्वीप-समुद्र - लवण समुद्र

ग्रह - 352

नक्षत्र - 112

तारा - 2,67,900

कोड़ाकोड़ी


द्वीप-समुद्र - धातकी खंड

ग्रह - 1,056

नक्षत्र - 337

तारा - 8,03,700

कोड़ाकोड़ी


द्वीप-समुद्र - कालोदधि

ग्रह - 3,696

नक्षत्र - 1,176

तारा - 28,12,950

कोड़ाकोड़ी*


द्वीप-समुद्र - पुष्करार्ध

ग्रह - 6,336

नक्षत्र - 2,013

तारा - 48,22,200

कोड़ाकोड़ी


मनुष्यलोक में सूर्य आदि के ये विमान सदैव घूमते रहते हैं । चंद्र आदि से सबकी गति क्रमशः अधिक-अधिक है । चंद्र की गति सबसे कम है, उससे अधिक सूर्य की गति है । सूर्य से ग्रह की गति अधिक है, ग्रह से नक्षत्र की गति अधिक है और नक्षत्र से तारों की गति अधिक है ।


तारों की ऋद्धि सबसे कम है, तारों से नक्षत्र की ऋद्धि अधिक है । नक्षत्र से ग्रह की ऋद्धि अधिक है । ग्रह से सूर्य की ऋद्धि अधिक है और सूर्य से चंद्र की ऋद्धि अधिक है ।


सूर्य आदि की गति के कारण ही काल विभाग का व्यवहार चलता है । काल के अविभाज्य अंश को समय कहते हैं । असंख्य समय की 1 आवलिका होती है ।


अवस्थित सूर्य-चंद्र


मनुष्यलोक के बाहर असंख्य सूर्य-चंद्र आदि के विमान हैं, परंतु वे सब स्थिर हैं ।


सूर्य-चंद्र आदि स्थिर होने से जिस क्षेत्र में सूर्य आदि का प्रकाश नहीं पहुँचता है, उस क्षेत्र में सदा काल अंधेरा ही रहता है ।


मनुष्यलोक के बाहर के सूर्य-चंद्र के विमानों का प्रकाश समशीतोष्ण होता है अर्थात् सूर्य के किरण अतितीक्ष्ण नहीं होते हैं और चंद्र के किरण अतिशीतल नहीं होते हैं ।


संकलन - नितेश बौहरा रतलाम


ज्योतिषी देवेन्द्रों का पूर्व भव 


चंद्र विमानवासी चंद्र देव :-श्रावस्ति नाम की नगरी में अंगजीत नामक संपन्न वणिक रहता था lअनेक लोगों का वह आलंबनभूत, आधारभूत और चक्षुभूत था अर्थात् अनेक लोगों का वह मार्गदर्शक अग्रसर था। एक बार वहाँ पार्श्वनाथ भगवान विचरण करते हुए पधारे। अंगजीत सेठ दर्शन करने गया। भगवान की देशना सुनी। संसार से विरक्त हुआ। पुत्र को कुटुम्ब का भार संभला कर स्वयं भगवान के पास दीक्षित हो गया। उसने ग्यारह अंगों का कंठस्थ ज्ञान किया। अनेक प्रकार की तपस्याएँ की। 15 दिन के संथारे में काल करके चंद्र विमान में इंद्र रूप में उत्पन्न हुआ। संयम की आराधना में कुछ कमी होने से वह संयम का विराधक हुआ। . चंद्र देव ने दैविक सुख भोगते हुए कभी अवधिज्ञान के उपयोग से जम्बूद्वीप के इस भरत क्षेत्र में विचरण करते हुए भगवान महावीर स्वामी को देखा। फिर सपरिवार भगवान के दर्शन वंदन करने के लिये आया एवं जाते समय 32 प्रकार की नाट्यविधि का एवं अपनी ऋद्धि का प्रदर्शन किया। उसके जाने के बाद गौतम स्वामी के पूछने पर भगवान ने उसके पूर्व भव का कथन किया। वर्तमान में जो चंद्र विमान हमें दिखता है उसमें यह अंगजीत का जीव इन्द्र रूप में देव है। वहाँ उसके चार अग्रमहिषी देवी है। सोलह हजार आत्मरक्षक देव आदि विशाल परिवार है। 


आज के वैज्ञानिक इस चन्द्र विमान में नहीं पहुँच कर अपनी कल्पना अनुसार अन्यान्य पर्वतीय स्थानों में ही भ्रमण कर रहे हैं। क्यों कि ज्योतिष-राज चन्द्र का विमान रत्नों से निर्मित एवं अनेक देवों से सुरक्षित है। जब कि वैज्ञानिकों को अपने कल्पित स्थान में मिट्टी पत्थर के सिवाय कुछ भी नहीं मिलता है। अंगजीत मुनि ने संयम जीवन में क्या विराधना की, इसका स्पष्ट उल्लेख सूत्र में नहीं है किंतु विराधना करने का संकेत मात्र है। (पुष्पिका सूत्र के नाम से प्रचलित एवं वास्तव में उपांगसूत्र के तीसरे वर्ग में यह वर्णन है।) 


सूर्यविमान वासी सूर्य देव :- श्रावस्ति नगरी के अंदर सुप्रतिष्ठित नामक वणिक रहता था इसका पूरा वर्णन अंगजीत के समान है अर्थात् सांसारिक ऋद्धि, संयम ग्रहण, ज्ञान, तप, संलेखना, संयम की विराधना आदि प्रथम अध्ययन के समान ही है। पार्श्वनाथ भगवान के पास दीक्षा अंगीकार की और ज्योतिषेन्द्र सूर्य देव हुआ। चन्द्र के समान यह देव भी एक बार भगवान महावीर स्वामी की सेवा में उपस्थित हुआ एवं अपनी ऋद्धि और नाट्य विधि का प्रदर्शन किया। ये चन्द्र और सूर्य दोनों ही ज्योतिषेन्द्र महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेंगे और वहाँ यथासमय तप संयम का पालन कर संपूर्ण कर्म क्षय करके शिव गति को प्राप्त करेंगे। वैज्ञानिक सूर्य के रत्नों के विमान को आग का गोला समझते हैं यह मात्र उनकी कल्पना का भ्रम है। जैन सिद्धांत में इसे रत्नों का विमान बताया है जो कि ज्योतिषेन्द्र सूर्य देव के संपूर्ण परिवार का निवास स्थान एवं जन्म स्थान है। इसमें हजारों देव देवियाँ उत्पन्न होते हैं, निवास करते हैं l


यह जम्बूद्वीप में भ्रमण करने वाला सूर्य विमान है। ऐसे दो विमान सूर्य के और दो चन्द्र के जम्बूद्वीप में भ्रमण करते हैं। पूरे मनुष्य क्षेत्र में 132 चन्द्रविमान और 132 सूर्यविमान भ्रमण करते हैं। मनुष्य क्षेत्र के बाहर असंख्य चन्द्र और असंख्य सूर्य विमान अपने स्थान पर स्थिर रहते हैं।




स्थिति+प्रभाव+सुख+द्युति+लेश्या +विशुद्धि +इन्द्रियाविषयात:+अवधिविषयत:+अधिका:
शब्दार्थ-स्थिति-आयु,प्रभाव-प्रभाव,सुख-सुख,द्युति-कांति लेश्याविशुद्धि-लेश्या की विशुद्धि ,इन्द्रियाविषयात:इन्द्रिय का विषय और अवधिविषयत:-अवधि ज्ञान का विषय ,अधिका:-अधिक अधिक है 
अर्थ - ऊपर ऊपर  के  देवों  की आयु,प्रभाव,सुख,कांति ,लेश्या विशुद्धि,इन्द्रिय विषय और अवधि ज्ञान के विषय क्रमश उत्तरोत्तर वृद्धिगत होते है !
विशेष-
१-आयु-नीचे से ऊपर के देवों  की आयु बढ़ती जाती है ;प्रथम स्वर्ग में उत्कृष्ट आयु २अगर से कुछ अधिक है जबकि सर्वार्थ सिद्धि में जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ३३ सागर है ,बीच के स्वर्गों और /ग्रैविकों अनुदिश और अनुत्तर में इनके बीच पहले स्वर्ग युगल से बढ़ती हुई है !
२-प्रभाव - देवों के श्राप  देने या उपकार करने की क्षमता को उनका प्रभाव कहते है !यह भीनीचे से ऊपर  स्वर्गों के डिवॉन में वृद्धिगत है !किन्तु ऊपर ऊपर के डिवॉन में अहंकार कम कम होता जाता है इसलिए इस प्रभाव को वे कभी प्रयोग में नहीं ला ते है!
३-सुख -इन्द्रियों के द्वारा उनके विषयों का अनुभव करना सुख है !यद्यपि ऊपर ऊपर के डिवॉन का नदी,पर्वत ,अटवी आदि में विहार करना क्रमश कम होता जाता है ,देवियों  की संख्या व् परिग्रह क्रमश  कम होता जाता  भी सुख की उन्हें क्रमश अधिक अनुभूति होती है !
४-द्युति-शरीर ,वस्त्र ,आभरण की छटा द्युति है !उप्र २ के देवों  का शरीर छोटा  है ,वस्त्र और आभरण भी कम होता जाता है,किन्तु इन सबकी द्युति क्रमश वृद्धिगत होती हैं !
५-लेश्या विशुद्धि-ऊपर के स्वर्गों में देवों  की लेश्या विशुद्धि  वृद्धिगत होती है ,उनकी लेश्या निर्मल होती जाती है !
६-इन्द्रियविषय -प्रत्येक इन्द्रिय का जघन्य और उत्कृष्ट विषय बतलाया है ! उस से अपेक्षा नीचे के देवों से  ऊपर के देवों के इन्द्रिय  विषय वृद्धिगत है !अर्थात ऊपर पर के देवों की  द्वारा विषय को ग्रहण करने  सामर्थ्य उत्तरोत्तर वृद्धिगत है !
७-अवधि विषय-ऊपर के देवों  की अवधि ज्ञान की सामर्थ्य  भी क्रमश वृद्धिगत है!प्रथम व् दुसरे कल्प के देव अवधिज्ञान द्वारा प्रथम , ३ सरे -४थे कल्प के देव दुसरे ,५ वे से ८ वे कल्प तक के देव तीसरी,९वे से १२ वे कल्प तक के देव चौथी ,१३ वे से१६वे तक के देव पांचवी , नव ग्रैवेयक के देव छठी नरक भूमि  तक और  नव अनुदिशों और अनुत्तरों के देव  पूर


12:8

देवविक्रिया पद


१४. उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर के दूसरे अन्तेवासी अग्निभूति नामक अनगार थे। उनका गौत्र गौतम था। उनकी ऊंचाई सात हाथ की थी। " यावत् वे भगवान् की पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले–भन्ते! असुरेन्द्र असुरराज चमर कितनी महान् ऋद्धि वाला, कितनी महान् द्युति वाला, कितने महान् बल वाला, कितने महान् यश वाला, कितने महान् सुख वाला, कितनी महान् सामर्थ्य वाला और कितनी विक्रिया करने में समर्थ है?

13:8

गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर महान् ऋद्धि वाला, महान् द्युति वाला, महाबली, महायशस्वी, महासुखी और महान् सामर्थ्य वाला है। वह चमरञ्चा राजधानी में चौंतीस लाख भवनावास, चौंसठ हजार सामानिक, तैंतीस तावत्रिंशक, चार लोकपाल, पांच सपरिवार


भगवई


पटरानियां, तीन परिषद्, सात सेनाएं, सात सेनापति, ६ दो लाख छप्पन हजार आत्मरक्षक देव और चमरचञ्चा राजधानी में रहने वाले अन्य अनेक देवों तथा देवियों का आधिपत्य, पौरपत्य, स्वामित्व, भर्तृत्व ( पोषण ) तथा आज्ञा देने में समर्थ और सेनापतित्व करता हुआ', अन्य देवों से आज्ञा का पालन करवाता हुआ वह आहत नाट्यों, गीतों तथा कुशल वादक के द्वारा बनाए गए वादित्र, तन्त्री, तल, ताल, त्रुटित, घन और मृदंग की महान् ध्वनि से युक्त दिव्य भोगार्ह भोगों को भोगता हुआ रहता है। वह इतनी महान् ऋद्धि वाला, इतनी महान् द्युति वाला, इतने महान् बल वाला, इतने महान यश वाला, इतने महान् सुख वाला, इतनी महान् सामर्थ्य वाला है और इतनी विक्रिया करने में समर्थ है। जैसे कोई युवक युवती का प्रगाढता से हाथ पकड़ता है अथवा गाड़ी के चक्के की नाभि जैसे अरों से युक्त होती है, उसी प्रकार गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर (अपनी विक्रिया से निर्मित एवं अपने शरीर से प्रतिबद्ध रूपों से जम्बूद्वीप को आकीर्ण करने के लिए) वैक्रिय समुद्घात से समवहत होता है। समवहत होकर वह अपने शरीर से संख्येय योजन लम्बा दंड निकालता है। उसके पश्चात् वह रत्न, वज्र (हीरा), वैडूर्य (लहसुनिया), लोहिताक्ष (लोहितक), मसारगल्ल (मसृणपाषाणमणि), हंसगर्भ (पुष्पराग), पुलक, सौगन्धिक (माणिक्य), ज्योतिरस (सफेद और लाल रंग से मिश्रित मणि), अञ्जन (समीरक), अञ्जनपुलक, चांदी, स्वर्ण, अंक, स्फटिक और रिष्ट नामक मणि – इन रत्नों से स्थूल ( असार) पुद्गलों को झटक देता है और सूक्ष्म (सार) पुद्गलों को ग्रहण करता है। उन्हें ग्रहण कर, वह फिर दूसरी बार वैक्रिय समुद्घात से समवहत होता है।

14:8

गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर सम्पूर्ण जम्बूद्वीप द्वीप को अनेक असुरकुमार देवों और देवियों से आकीर्ण, व्यतिकीर्ण, उपस्तृत (बिछौना-सा बिछाया हुआ), संस्तृत (भलीभांति बिछौना-सा बिछाया हुआ) स्पृष्ट (छूने) और अवगाढावगाढ (अत्यन्त सघन रूप से व्याप्त) करने में समर्थ है।


और दूसरी बात, गौतम! असुरेन्द्र असुरराज चमर तिरछे लोक के असंख्य द्वीप-समुद्रों को अनेक असुरकुमार देवों और देवियों से आकीर्ण, व्यतिकीर्ण, उपस्तृत, संस्तृत, स्पृष्ट और अवगाढावगाढ करने में समर्थ है।


गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की विक्रिया शक्ति का यह इतना विषय केवल विषय की दृष्टि से प्रतिपादित है। चमर ने क्रियात्मक रूप में न तो कभी ऐसी विक्रिया की, न करता है और न करेगा।

Vo 30%


६. सात सेनाएं, सात सेनापति


इनकी विशद जानकारी के लिए द्रष्टव्य ठाणं, ७/११३-१२६।


७. आत्मरक्षक


इसकी तुलना शिरोरक्षक से की गई है । वे हाथ में शस्त्र लिये पीछे खड़े रहते हैं। देवजगत में इसकी कोई आवश्यकता नहीं है, फिर यह क्य अनावश्यक प्रयोग नहीं है? इसका समाधान इस प्रकार किया गया है कि यह व्यवस्था बड़प्पन की मर्यादा है अथवा प्रति प्रकर्ष के लिए की गई है। "

प्रस्तुत सूत्र में नेतृत्व के द्योतक कितनेशब्द हैं

८. आधिपत्य..... सेनापतित्व


प्रस्तुत सूत्र में नेतृत्व के द्योतक पांच शब्द हैं १ २ – १. आधिपत्य – अनुशासन


२. पौरपत्य – अग्रगामिता


३. स्वामित्व – स्वामिभाव


४. भर्तृत्व—संरक्षणऔर पोषण ५. आज्ञा-ईश्वर-सेनापत्य - आदेश-निर्देश देने में समर्थ सेनापति

15:8

६. आहत नाट्यों, गीतों


आहत–वृत्तिकार ने इसके दो संस्कृत रूप दिये हैं – १ आख्यान


( कथानक ) – प्रतिबद्धनाट्य और उसके उपयुक्त गीत । २. अहत - अव्याह


नाट्य और गीत ।


प्रथम अर्थ वृद्ध व्याख्या के आधार पर किया गया है और दूस वृत्तिकार का अपना अभिमत है।


१०. इतनी महान् ऋद्धि वाला ( एमहिड्डीए ) वृत्तिकार ने इसका रूप एवं महर्द्धिक किया है । इयन्महर्द्धिक


मतान्तर माना है। १४


११. युवक युवती का...... युक्त होती है


भगवई


वांछित रूप निर्माण के लिए फिर दूसरी बार वैक्रिय समुद्घात का प्रयोग कर उस रूपका निर्माण करता है ।


नाना प्रकार के रूपों का निर्माण करने में अनेक मणियों के सूक्ष्म पुद्गलों का उपयोग किया जाता है। लेसर की किरणों का उपयोग आज वैज्ञानिक जगत् में भी प्रचलित है। वह भी मणि के सूक्ष्म पुद्गलों का एक प्रयोग है।


वृत्तिकार ने इस विषय में प्रश्न उपस्थित किया है – मणियों के पुद्गल औदारिक (स्थूल) हैं। फिर उनका वैक्रिय शरीर के निर्माण में कैसे उपयोग हो सकता है? वैक्रिय शरीर के निर्माण में वैक्रिय वर्गणा के पुद्गलों का ही ग्रहण होना चाहिए। इस प्रश्न का समाधान उन्होंने काव्य की भाषा में ही किया है। उनका मत है कि मणियों का उल्लेख सार पुद्गलों का प्रतिपादन करने के लिए किया गया है। इसलिए प्रस्तुत सूत्रांश का अर्थ रत्न,वज्र आदि मणि नहीं, किंतु उन मणियों के तुल्य सार पुद्गल हैं। वृत्तिकार ने मतान्तर का उल्लेख किया है। उसका अभिप्राय यह है कि वैक्रिय कर्त्ता वैक्रिय रूप निर्माण के समय औदारिक वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करता है। तत् पश्चात् वे वैक्रिय के रूप में परिणत हो जाते हैं। '


मूल सूत्र-पाठ के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि मणियों के सूक्ष्म पुद्गल शरीर निर्माण के काम में लिये जाते हैं। इसलिए उनका वैक्रिय वर्गणा के रूप में परिणमन होना संभव लगता है।


शब्द-विमर्श


तंत्री - वीणा


- हथेली तल -


ताल – संगीत में नियत मात्राओं पर हथेली से स्वर उत्पन्न करना । वृत्तिकार ने तल-ताल का अर्थ हस्तताल किया है वैकल्पिक रूप में तल का अर्थ हस्त और ताल का अर्थ झांझ किया है।


मृदंग – ढोल की तरह का एक बाजा, मुरज |


वृत्तिकार ने घन मृदंग का अर्थ घनाकार मृदंग या मर्दल किया है। नाभि-चक्रमध्य


वज्र – वज्रमणि हीरा । कौटिल्य अर्थशास्त्र में इसके विषय में विस्तृत जानकारी मिलती है।


वैडूर्य – लहसुनिया धूमिल रंग का एक मणि जो लाल, पीले और हरे रंग का भी होता है ।


लोहिताक्ष – किनारो की ओर लाल रंग वाला और बीच में काला । इसका एक नाम 'लोहितक' भी मिलता है। मसारगल्ल–मसृण पाषाणमणि (चिकनी धातु) इसका वर्ण मूंगे जैसा होता है

अंजनपुलक - नीले और काले रंग से मिश्रित एक मणि ।


अंक - रत्न की एक जाति ।


स्फटिक – पारदर्शी मणि


रिष्ट -- रत्नविशेष |

16:8

भन्ते ! यदि असुरेन्द्र असुरराज चमर इतनी महान् ऋद्धि वाला है यावत् इतनी विक्रिया करने में समर्थ है, तो भन्ते ! असुरेन्द्र असुराज चमर के सामानिक देव कितनी महान् ऋद्धि वाले यावत् कितनी विक्रिया करने में समर्थ हैं ?


गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर के सामानिक देव महान् ऋद्धि वाले, महान् द्युति वाले, महाबली, महा यशस्वी, महासुखी और महान् सामर्थ्य वाले हैं। वे वहां पर अपने-अपने भवनों का, अपने-अपने सामानिक देवों का और अपनी-अपनी पटरानियों का आधिपत्य करते हुए यावत् दिव्य भोगार्ह भोग भोगते हुए रहते हैं। वे इतनी महान् ऋद्धि वाले हैं यावत् इतनी विक्रिया करने में समर्थ है। जैसे कोई युवक युवती का प्रगाढ़ता से हाथ पकड़ता है अथवा गाड़ी के चक्के की नाभि जैसे अरों से युक्त होती है उसी प्रकार गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर का प्रत्येक सामानिक देव वैक्रिय समुद्घात से समवहत होता है यावत् दूसरी बार फिर वैक्रिय समुद्घात से समवहत होता है। गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर का प्रत्येक सामानिक देव सम्पूर्ण जम्बूद्वीप द्वीप को अनेक असुरकुमार देवों और देवियों से आकीर्ण, व्यतिकीर्ण।, उपस्तृत, संस्तृत, स्पृष्ट और अवगाढावगाढ करने में समर्थ हैं।


और दूसरी बात, गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर का प्रत्येक सामानिक देव तिर्यक् लोक के असंख्य द्वीप-समुद्रों को अनेक असुरकुमार देवों और देवियों से आकीर्ण, व्यतिकीर्ण, उपस्तृत, संस्तृत, स्पृष्ट और अवगाढावगाढ करने में समर्थ है।


गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर के प्रत्येक सामानिक देव की विक्रिया शक्ति का यह इतना विषय केवल विषय की दृष्टि से प्रतिपादित है। उन देवों ने क्रियात्मक रूप में न तो कभी ऐसी विक्रिया की, न करते हैं और ना करेंगें

17:8

इतनी महान् ऋद्धि वाले यावत् इतनी विक्रिया करने में समर्थ हैं, तो भन्ते ! असुरेन्द्र असुरराज चमर के तावत्रिंशक देव कितनी महान ऋद्धि वाले हैं ? जैसे सामानिक देवों की प्रज्ञापना है, वैसा ही तावत् त्रिंशक देवों के विषय में ज्ञातव्य है । लोकपाल का प्रज्ञापन भी वैसा ही है, केवल इतना अन्तर है - यहां द्वीप-समुद्र संख्येय कहने चाहिए।


७. भन्ते ! यदि असुरेन्द्र असुरराज चमर के लोकपाल इतनी महान् ऋद्धि वाले हैं यावत् इतनी विक्रिया करने में समर्थ हैं, तो असुरेन्द्र असुरराज चमर की पटरानियां कितनी महान् ऋद्धि वाली यावत् कितनी विक्रिया करने में समर्थ हैं?


गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की पटरानियां महान् ऋद्धि वाली यावत् महान् सामर्थ्य वाली हैं। वे अपने-अपने भवनों, अपनी अपनी एक-एक हजार सामानिक देवियों, अपनी-अपनी महत्तरिकाओं (प्रधान देवियों) और अपनी अपनी परिषदों का आधिपत्य करती हुई यावत् इतनी महान् ऋद्धि वाली हैं। उनका शेष सारा प्रज्ञापन लोकपालों की तरह वक्तव्य है।


८. "भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है, " इस प्रकार भगवान् द्वितीय गौतम अग्निभूति श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन- नमस्कार करते हैं। वंदन- नमस्कार कर जहां तीसरे गौतम वायुभूति अनगार हैं, वहां आते हैं। वहां आकर तीसरे गौतम वायुभूति अनगार से इस प्रकार कहते हैं—गौतम! इस प्रकार असुरेन्द्र असुर राज चमर इतनी महान ऋद्धि वाला है - यहां से लेकर पटरानियों की वक्तव्यता समाप्त होती है, वहां तक का समग्र विषय अग्निभूति ने बिना पूछे ही वायुभूति को बतला दिया।


६. तीसरे गौतम वायुभूति अनगार दूसरे गौतम अग्निभूति अनगार के ऐसे आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन और प्ररूपण पर न श्रद्धा करते हैं, न प्रतीति करते हैं और न रुचि करते हैं। वह इस तथ्य पर अश्रद्धा, अप्रतीति और अरुचि करते हुए उठने की मुद्रा में उठते हैं, उठ कर जहां श्रमण भगवान् महावीर हैं, वहा आते हैं, यावत् पर्युपासना करते हुए वे इस प्रकार बोले–भन्ते! दूसरे गौतम अग्निभूति अनगार मेरे सामने इस प्रकार


द्वितीय गौतम अग्निभूति अनगार श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना नमस्कार करते हैं, वन्दन नमस्कार कर वे इस प्रकार बोले - भन्ते ! यदि वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि इतनी महान् ऋद्धि वाला है यावत् इतनी विक्रिया करने में समर्थ है, तो भन्ते ! नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरण कितनी महान् ऋद्धि वाला है यावत कितनी विक्रिया करने में समर्थ है?


गौतम ! नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरण महान् ऋद्धि वाला यावत् महान् सामर्थ्य वाला है। वह वहां चौवालीस लाख भवनावास, छह हजार सामानिक देव, तेतीस तावत्रिंशक देव, चार लोकपाल, छह सपिरवार पटरानियां, तीन परिषद्, सात सेनाएं, सात सेनापति, चौबीस हजार आत्मरक्षक देव तथा अन्य अनेक देवों और देवियों का आधिपत्य करता हुआ रहता है। वह इतनी विक्रिया करने में समर्थ है। जैसे कोई युवक युवती का प्रगाढ़ता से हाथ पकड़ता है यावत् सम्पूर्ण जम्बूद्वीप द्वीप उसी प्रकार यावत् तिरछे लोक के संख्येय द्वीप समुद्रों को अनेक नागकुमार और नागकुमारियों से आकीर्ण करने में समर्थ है। यावत् क्रियात्मक रूप में न तो कभी ऐसी विक्रिया की, न करता है और न करेगा । सामानिक, तावत्रिंशक, लोकपाल और पटरानियां उनकी विक्रिया की वक्तव्यता चमर के सामानिक, तावत्रिंशक, लोकपाल और पटरानियों के समान है। केवल इतना अन्तर है – ये संख्येय द्वीप-समुद्रों को अपने रूपों से आकीर्ण करने में समर्थ है।


१५. इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार, वानमन्तर और ज्योतिष्क देवों के संबंध में भी ज्ञातव्य है । विशेष बात यह है कि दक्षिण दिशा के सब देवों के संबंध में अग्निभूति प्रश्न करते हैं और उत्तर दिशा के सब देवों के संबंध में वायुभूति प्रश्न करते हैं ।









 (



ज्योतिर्वासी देव


ज्योतिष्क देवों के  चर अचर 10 भेद हैं


सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारा। इनके विमान चमकीले होने से इन्हें ज्योतिष्क देव कहते हैं, ये सभी विमान अर्धगोलक सदृश हैं। ये सभी देव मेरुपर्वत को ११२१ योजन (४४,८४००० मी.) छोड़कर नित्य ही प्रदक्षिणा के क्रम से भ्रमण करते हैं। इनमें चन्द्र, सूर्य और ग्रह ५१० ४८/८१ योजन प्रमाण गमन क्षेत्र में स्थित परिधियों के क्रम से पृथक्-पृथक् गमन करते हैं परन्तु नक्षत्र और तारे अपनी-अपनी परिधिरूप मार्ग में ही गमन करते हैं।


ज्योतिष्क देवों की ऊँचाई


पाँच प्रकार के देवों के विमान इस चित्रा पृथ्वी से ७९० योजन से प्रारंभ होकर ९०० योजन की ऊँचाई तक अर्थात् ११० योजन में स्थित हैं। सबसे प्रथम ताराओं के विमान हैं, जो सबसे छोटे १/४ कोस (२५० मी.) प्रमाण हैं। इन सभी विमानों की मोटाई अपने-अपने विमानों से आधी-आधी है। राहु के विमान चन्द्र के नीचे एवं केतु के विमान सूर्य के नीचे रहते हैं अर्थात् ४ प्रमाणांगुल (२००० उत्सेधांगुल) प्रमाण ऊपर चन्द्र-सूर्य के विमान स्थित होकर गमन करते हैं। ये राहु-केतु के विमान ६-६ महीने में पूर्णिमा एवं अमावस्या को क्रम से चन्द्र एवं सूर्य के विमानों को ढँक देते हैं, इसे ही ग्रहण कहते हैं। इस पृथ्वी से तारा आदि विमानों की ऊँचाई एवं उनका प्रमाण यंत्र में देखिए। 


वाहन जाति के देव


इन सूर्य, चन्द्र के प्रत्येक विमानों को आभियोग्य जाति के ४००० देव विमान के पूर्व में सिंह के आकार को धारण कर, दक्षिण में ४००० देव हाथी के आकार को, पश्चिम में ४००० देव बैल के आकार को एवं उत्तर में ४००० देव घोड़े के आकार को धारण कर ऐसे १६००० देव सतत खींचते रहते हैं, इसी प्रकार ग्रहों के ८०००, नक्षत्रों के ४००० एवं ताराओं के २००० वाहनजाति के देव होते हैं।


ज्योतिष्क देवों की गति


गमन में चन्द्रमा सबसे मंद है। सूर्य उसकी अपेक्षा तीव्रगामी, उससे शीघ्रतर ग्रह, इनसे शीघ्रतर नक्षत्र एवं नक्षत्रों से भी शीघ्रतर गति वाले तारागण हैं।


सूर्यादि की किरणें


ये विमान पृथ्वीकायिक (चमकीली धातु) से बने हुए अकृत्रिम हैं। सूर्य के बिम्ब में स्थित पृथ्वीकायिक जीव के आतप नामकर्म का उदय होने से उसकी किरणें उष्ण हैं। चन्द्र के बिम्ब में स्थित पृथ्वीकायिक के उद्योत नामकर्म का उदय होने से उनके मूल में शीतलता है और किरणें भी शीतल हैं, ऐसे ही तारा आदि के समझना।


विमान और जिनमंदिरों का प्रमाण


सभी ज्योतिर्वासी देवों के विमानों के बीचों-बीच में एक-एक जिनमंदिर है और चारों ओर देवों के निवास स्थान बने हुए हैं। ये विमान एक राजु प्रमाण चौड़े इस मध्यलोक तक हैं अत: असंख्यात हैं, इसी निमित्त से जिनमंदिर भी असंख्यात ही हो जाते हैं। उनमें स्थित १०८-१०८ प्रतिमाओं को मेरा नमस्कार होवे। सूर्य का गमन क्षेत्र-सूर्य का गमन क्षेत्र जम्बूद्वीप के भीतर १०८ योजन एवं लवण समुद्र में ३३० ४८/८१ योजन है अर्थात् समस्त गमन क्षेत्र ५१० ४८/८१ योजन (२०४३१४७ १३/६१) मील है। इतने प्रमाण में १८४ गलियाँ हैं। इन गलियों में दो सूर्य क्रमश: एक-एक गली में संचार करते हैं।


अढ़ाई द्वीप में देवता


ज्योतिष्क देवता के 10 भेद (5 चर 5 अचर) में से अढ़ाई द्वीप में सूर्य चन्द्र आदि 5 भेद हैं जिन्हें भ्रमणशील होने से चर कहते हे, जिनके विमान नीचे से गोल होते है।अढाई द्वीप के बाहर के ज्योतिष्क देव के विमान नीचे से चोकोर होते है l

*जिनवाणी - श्रुतधारा*

*प्रातः स्मरणीय महापुरुष*

*10 अगस्त 2021*

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*ग्रुप एडमिन कल्याण मित्र*


*🌹अंतिम केवली जंबु-स्वामी तथा प्रभवस्वामी🌹*


*📕 भाग - 2*


महावीर प्रभु ने कहा, "यह जो *विद्युतमाली* देव बैठा हुआ है वह आज से 7 दिन बाद अपने देव आयुष्य को पूर्ण कर इसी राजगृही नगरी में ऋषभदास सेठ का पुत्र *'जंबुकुमार'* होगा । वही मेरे शासन में अंतिम केवली होगा अर्थात् इसके बाद मेरे शासन में किसी को केवलज्ञान उत्पन्न नहीं होगा । इसी जंबुस्वामी से भरत क्षेत्र में से दस वस्तुओं का विच्छेद भी हो जाएगा ।"


महावीर प्रभु के मुख से यह बात सुनने के बाद श्रेणिक महाराजा ने दूसरा प्रश्न किया, "प्रभो ! इस देव की अद्भुत कांति व शोभा को देखते हुए तो ऐसा लगता है कि मानों यह अभी-अभी उत्पन्न हुआ हो...तो फिर इसका च्यवन होगा ?"


*"सामान्यतया यह नियम है कि देवताओं का आयुष्य जब छः मास ही बाकी रह जाता है, तब शरीर की शोभा-कांति क्षीण हो जाती है, सदैव ताजी रहने वाली कल्पवृक्ष के फूलों की माला भी उस समय कुम्हलाने लग जाती है ।* परंतु इस विद्युतमाली के देह पर च्यवन के कुछ भी चिह्न नजर नहीं आ रहे थे, इसी कारण श्रेणिक महाराजा के दिल में यह प्रश्न खड़ा हुआ कि इस देव का च्यवन निकट काल में होने पर भी इसके देह का सौन्दर्य इतना अधिक तेजस्वी क्यों है ?"


श्रेणिक के इस प्रश्न का जवाब देते हुए प्रभु ने कहा - "हे श्रेणिक ! जो देव एकावतारी होते हैं अर्थात् देव भव का त्यागकर मानव भव को प्राप्त कर उसी भव में मोक्ष जाने वाले होते हैं, उनके देह पर च्यवन चिह्न नजर नहीं आते हैं अर्थात् न तो उनके गले में रही फूलों की माला कुम्हलाती है और न ही उनके देह की कांति क्षीण होती है । यह देव भी एकावतारी है और इसने पूर्व भव में बहुत ही सुन्दर आराधना की है ।"


प्रभु के मुख से इस बात को सुनते ही जंबुद्वीप का अधिपति अनादृत देव खुश होकर एकदम नाचने लगा और बोला, "अहो मेरा कुल कितना उत्तम है ।" देव के इन वचनों को सुनकर श्रेणिक ने पुनः प्रश्न किया, "प्रभो ! आपके इस जवाब को सुनकर इस देव को इतनी खुशी क्यों हो रही है ?"


प्रभु ने कहा, "जिस कुल में यह चरम मोक्षगामी विद्युतमाली देव उत्पन्न होगा, उसी कुल में से च्यवकर यह देव बना है, अतः अपने ही कुल में चरम केवली के अवतरण की बात सुनकर यह देव खुशी के मारे झूम रहा है ।"


*🤔 क्रमशः ....*

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*लेखक - प. पू. आचार्यदेव श्रीमद्विजय रत्नसेनसूरीश्वरजी म.सा.*

*संकलन - नीतेश बोहरा, रतलाम*





भगवाई 12 पृ

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