लोक वर्णन ➡️गतांक से आगे
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अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल –
इस तीन लोक के मध्य क्षेत्र में स्थित अढ़ाई द्वीप के भरत-ऐरावत के 10 क्षेत्रों की धुरी पर ही इस संसार का काल-चक्र हमेशा घूमता रहता है।
जब काल-चक्र उत्तम से निम्न काल की तरफ जाता है तो अवसर्पिणी काल कहलाता है
लेकिन जब यह नीचे से ऊपर की तरफ जाता है तो उत्सर्पिणी काल कहलाता है।
साथ ही 5 भरत, 5 ऐरावत, 5 महाविदेह के 15 कर्मभूमि क्षेत्रों में ही तीर्थंकर प्रभु जन्म लेते हैं।
एक एक अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी में 24-24 तीर्थंकर एक-एक भरत ऐरावत क्षेत्र में होते हैं। 10 ही भरत-ऐरावत क्षेत्रों में 24-24 तीर्थंकर ऐसे कुल 240 तीर्थंकर समकालीन होते हैं। महाविदेह क्षेत्र में समय का चक्र चलता अवश्य है।
वहां रात के बाद दिन और फिर रात होती है
परन्तु अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी का काल-चक्र एक सा ही रहता हुआ स्थिर रहता है
अतः वहां पर अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी जैसा कुछ भी नहीं होता है।
महाविदेह क्षेत्र का समय सदाकाल एक सा ही रहता है और वहां सदैव चतुर्थ आरे के प्रारम्भ काल के समान समय रहता है।
अवसर्पिणी के छः काल का समय इस तरह का होता है -
1) पहला काल चार कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है.
2) दूसरा काल तीन कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है.
3) तीसरा काल दो कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है.
4) चौथा काल 42 हजार वर्ष कम एक कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है.
5) अभी वर्तमान में चल रहा पंचम काल 21 हजार वर्ष का होता है.
6) छठा काल 21 हजार वर्ष का होता है.
इसके बाद उत्सर्पिणी के छः काल का समय इस तरह का होता है –
1) पहला काल 21 हजार वर्ष का होता है.
2) दूसरा काल 21 हजार वर्ष का होता है.
3) तीसरा काल 42 हजार वर्ष कम एक कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है.
4) चौथा काल दो कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है.
5) पंचम काल तीन कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है.
6) छठा काल चार कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है.
इस तरह अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी के कुल काल का योग 20 कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है.
इसे एक कल्पकाल कहते हैं.
जब अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी के असंख्य कल्पकाल बीत जाते हैं,
तब एक हुंडावसर्पिणी काल आता है. यह एक विशेष काल होता है और इसमें कई तरह के विरोधाभास भी देखने में आते हैं.
हम सभी शायद एक तरह से बहुत भाग्यवान हैं, जो अनंत-अनंत सागर बीतने पर होने वाले इस हुंडावसर्पिणी काल के साक्षी हो रहे हैं.
यहाँ समय की इकाई सागर का कथन बार-बार आया है. सागर समय की बहुत बड़ी इकाई होती है जिसकी कल्पना भी आज के वैज्ञानिक नहीं कर सकते हैं.
जैन शास्त्रों में भी हर जगह इस इकाई का वर्णन अक्सर आता रहता है.
इसका प्रमाण या विवरण इस तरह से है –
• अगर हम दो हजार कोस गहरे तथा इतने ही व्यास की चौड़ाई वाले गोलाकार गड्डे में कैंची से जिसके दो टुकडे न हो सकें ऐसे एक से सात दिन की उम्र के उत्तम भोगभूमि के मेंढें के बालों से भर दें और फिर उसमें से सौ-सौ वर्ष के अंतर से एक-एक बाल निकालें, तो जितने काल में उन सब बालों को निकाल दिया जायेगा, उसे एक व्यवहारपल्य कहते है; व्यवहारपल्य से असंख्यातगुने समय को उद्धारपल्य और उद्धारपल्य से असंख्यातगुने काल को अद्धापल्य कहते हैं। इस तरह के दस कोड़ाकोड़ी (10 करोड़ गुणा 10 करोड़) अद्धापल्यों का एक सागर होता है।
• इसको अगर आप सरल तरीके से समझना चाहे, तो इस तरह से समझ सकते हैं –
किसी भी समुद्र के किनारे पर जाकर बैठ जाइए,
फिर एक सुई को हाथ में लेकर उस सुई की नोक को पानी में डालकर उसे सूखी रेत पर छिड़के.
फिर दुबारा सुई की नोक को पानी में डालकर उसे सूखी रेत पर छिड़के.
इस तरह अनवरत रूप से करते रहे.
जब वह सागर पूरी तरह से ख़त्म हो जाएगा, तो समझना कि एक सागर बराबर समय बीत गया है.
काल चक्र विवरण
गतांक से आगे
सुषमा-सुषमा काल बड़ा ही रमणीय,सुरम्य था। भूमि रज, धूम, अग्नि, हिम, कण्टक आदि से रहित , समतल,रमणीय एवं नाना प्रकार की काली सफ़ेद आदि पंचरंगी तृणो एव मणियो से उपशोभित था। वृक्ष उद्धाल ,कद्धाल , कृतमाल, नृतमाल, दन्तमाल नागमाल आदि अनेक उत्तम जाती के वृक्ष थे । जो फलों से लदे रहते थे और अतीव कांति से सुशोभित थे।
एवं शंख, बिच्छू, चींटी, मक्खी आदि विकलत्रय जीवों से रहित होती है। दिव्य बालू, मधुर गंध से युक्त मिट्टी का स्वादमिश्री जैसा था।और पंचवर्ण वाले चार अंगुल ऊँचे तृण होते हैं। वहाँ वृक्ष समूह, कमल आदि से युक्त निर्मल जल से परिपूर्ण वापियाँ, उन्नत पर्वत, उत्तम-उत्तम प्रासाद, इन्द्रनीलमणि आदि से सहित पृथ्वी एवं मणिमय बालू से शोभित उत्तम-उत्तम नदियाँ होती हैं। इस काल में असंज्ञी जीव, जात विरोधी जीव भी नहीं होते हैं। गर्मी, सर्दी, अंधकार और रात-दिन का भेद भी नहीं होता है एवं परस्त्रीरमण, परधनहरण आदि व्यसन भी नहीं होते हैं। इस काल में युगल रूप से उत्पन्न हुए मनुष्य उत्तम तिल, मशा आदि व्यंजन एवं शंख, चक्र आदि चिन्हों से सहित तथा स्वामी और भृत्य के भेदों से रहित होते हैं। इनके शरीर की ऊँचाई छह हजार धनुष अर्थात् तीन कोस तथा आयु तीन पल्य प्रमाण होती है,
कबूतर की तरह प्रबल पाचन शक्त्ति वाले थे।तीन दिन में
तुवर की दाल जितना सा आहार करते थे।
पहले आरे के मनुष्यो की श्वास
पदम उत्पल तथा गंध द्रव्यों जैसी सुग़धित थी।
पहले आरे के मनुष्यो की प्रकृति
उनके क्रोध,मान,माया,लोभ मंद एवं हल्के होते थे उनका स्वभाव सरल एवं मृदु होते थे।
यहाँ के प्रत्येक स्त्री-पुरुषों के पृष्ठ भाग में दो सौ छप्पन हड्डियाँ होती हैं। इनके शरीर मलमूत्र-पसीने से रहित, सुगंध निश्वास से सहित, तपे हुए स्वर्ण सदृश वर्ण वाले, समचतुरस्र संस्थान और वङ्कावृषभनाराच संहनन से युक्त होते हैं, प्रत्येक मनुष्य का बल नौ हजार हाथियों सदृश रहता है। इस काल में नर-नारी से अतिरिक्त अन्य परिवार नहीं होता है। इस समय वहाँ पर ग्राम, नगर आदि नहीं होते हैं, पहले आरे के मनुष्यो का आकर स्वरुप
बड़े सुन्दर दर्शनीय होते थे,सारे अंग सुव्यवसिथत होते थे।
उस समय छह प्रकार के मनुष्य रहते थे।
1पदम् गंध-पदम् कमल के समान गंध वाले
२. मृग गंध - कस्तुरी सदृश गंध वाले
३. अभय- ममत्व रहित
४. तेजस्वी
५. सह - सहनशील
६. शनैशचरी - उत्सुकता नहीं होने से धीरे-धीरे चलने वाले।
मनुष्य पाद विहारी -पैदल चलने वाले होते थे।
यहां की स्त्री
श्रेष्ठ और सर्वाग सुंदरता युक्त्त तथा महिलोचित गुणों से युक्त्त होती थी।
पहले आरेमेंगाय,भैस,बकरी,भेड़ आदि - यह पशु होते थे,पर उन मनुष्यों के उपयोग में नहीं आते ,वे मनुष्य उनसे दूध आदि प्राप्त नहीं करते थे।
पहले आरे में हाथी,घोड़े,ऊँट आदि होते थे,पर उन मनुष्यों के सवारी के काम नहीं आते थे।
भोगभूमिज तिर्यञ्च
भोगभूमि में गाय, सिंह, हाथी, मकर, शूकर, हरिण, भैंस, बन्दर, तेन्दुआ, व्याघ्र, शृगाल, रीछ, मुर्गा, तोता, कबूतर, राजहंस आदि तिर्यञ्च युगल भी उत्पन्न होते हैं जो परस्पर के वैरभाव से रहित, व्रूâरता रहित, मन्दकषायी होते हैं। वहाँ के व्याघ्र आदि थलचर एवं कबूतर आदि नभचर तिर्यञ्च मांसाहार के बिना दिव्य तृणों का भक्षण करते हैं। चार कोड़ा-कोड़ी सागर प्रमाण इस प्रथम काल में शरीर की ऊँचाई, आयु, बल, ऋद्धि और तेज आदि हीन-हीन होते जाते हैं।
कोई अज्ञानी जिनलिंग को ग्रहण करके छोड़ देते हैं, मायाचार में प्रवृत्त होकर कुलिंगियों को अनेक प्रकार के दान देते हैं, वे भी भोगभूमि में तिर्यञ्च होते हैं।
दस प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैं जो युगलों को अपने-अपने मन की कल्पित वस्तुओं को दिया करते हैं।
कल्पवृक्षों के नाम
1मत्तांग कल्पवृक्ष।
मादक रस प्रदान करता,जिसको प्राप्त कर प्राणी तृप्त हो जाते थे।
2भृत्तांग कल्पवृक्ष:-विविध प्रकार के भोजन-पात्र-बर्तन देने वाले होते है।कल्पवृक्ष सुवर्ण आदि से निर्मित झारी, कलश, गागर, चामर और आसन आदि देते हैं
3️⃣त्रुटितांग
नानाविध वाद्य देता है।उत्तम वीणा, पटु, पटह, मृदंग आदि
4️⃣दीपशिखा कल्पवृक्ष।
दीपक जैसा प्रकाश करते है।
प्रवाल, फल, फूलऔर अंकुरादि के द्वारा जलते हुए दीपकों के समान प्रकाश को देते हैंं,
5️⃣जोतिषिक कल्पवृक्ष।
सूर्य, चंद्र जोतिषिक जैसा उधोत प्रकाश करने वाले होते है।
मध्य दिन के करोड़ों सूर्यों की किरणों के समान होते हुए नक्षत्र, सूर्य और चन्द्र आदि की कान्ति का संहरण करते हैं
6️⃣चित्रांग कल्पवृक्ष।
विविध प्रकार की मालाएं आदि देने वाले होते है।कल्पवृक्ष बेल, तरु, गुच्छ और लताआेंं से उत्पन्न हुए सोलह हजार भेदरूप पुष्पों की मालाओं को देते हैं और
7️⃣चित्र रास कल्पवृक्ष।
विविध प्रकार के रास देने वाले षट् रास भोजन देने वाले होते है।
कल्पवृक्ष सोलह प्रकार के आहार, इतने ही प्रकार के व्यंजन, चौदह प्रकार की दाल, एक सौ आठ प्रकार के खाद्य पदार्थ, तीन सौ त्रेसठ प्रकार के स्वाद्य पदार्थ एवं त्रेसठ प्रकार के रसों को दिया करते हैं।
8️⃣मण्यंग कल्पवृक्ष।
विविध आभूषण प्रदान करते है।
9️⃣गेहकर कल्पवृक्ष।
विविध प्रकार के गृह निवास स्थान प्रदाता जिसमें युगलिक आसानी से सुखपूर्वक रह सकते
है।स्वस्तिक, नंद्यावर्त आदि सोलह प्रकार के दिव्य भवनों को,
1️⃣0️⃣अनग्न कल्पवृक्ष।
वस्त्रों की आवश्यकता पूर्ति करने वाले सुंदर सुखद महीन वस्त्र देने वाले होते है।क्षौमादि वस्त्रों को,
कल्पवृक्ष ये सब कल्पवृक्ष न वनस्पतिकायिक हैं न कोई व्यन्तर देव हैं किन्तु विशेषता यह है कि ये सब पृथ्वीरूप होते हुए जीवों को उनके पुण्य कर्म का फल देते हैं।
🔆काल चक्र विवरण 🔆
गतांक से आगे➡️
भोगभूमिजों के भोग आदि
ये मनुष्य कल्पवृक्षों से दी गई वस्तुओं को ग्रहण करके और विक्रिया से बहुत प्रकार के शरीरों को बनाकर अनेक प्रकार के भोगों को भोगते हैं और चौथे दिन बेर के बराबर आहार ग्रहण करते हैं। ये युगल कदलीघात मरण से रहित होते हुए संपूर्ण आयुपर्यन्त चक्रवर्ती के भोगों की अपेक्षा अनन्तगुणे भोग को भोगते हैं। वहाँ के पुरुष इन्द्र से भी अधिक सुन्दर और स्त्रियाँ अप्सराओं के सदृश सुन्दर होती हैं।
भोगभूमि के आभूषण
भोगभूमि में कुण्डल, हार, मेखला, मुकुट, केयूर, भालपट्ट, कटक, प्रालम्ब, सूत्र (ब्रह्मसूत्र), नूपुर, दो मुद्रिकाएँ, अंगद, असि, छुरी, ग्रैवेयक और कर्णपूर ये सोलह आभरण पुरुषों के एवं छुरी और असि से रहित चौदह आभरण स्त्रियों के होते हैं।
भोगभूमि में उत्पत्ति के कारण
भोगभूमि में मनुष्य और तिर्यञ्च जीव उत्पन्न होते हैं, मिथ्यात्वभाव से युक्त होते हुए भी मन्दकषायी, मधुमांसादि के त्यागी, गुणियों के गुणों में अनुरक्त, उपवास से शरीर को कृश करने वाले, निग्र्रन्थ साधुओं को आहारदान देने वाले जीव या अनुमोदना आदि करने वाले पशु आदि भी यहाँ उत्पन्न होते हैं। जिनने पूर्वभव में मनुष्य आयु को बाँध लिया है और पश्चात् तीर्थंकर के पादमूल में क्षायिक सम्यग्दर्शन को प्राप्त किया है ऐसे कितने ही सम्यग्दृष्टि पुरुष भी भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं।
भोगभूमि के मनुष्य और तिर्यञ्चों की नव मास आयु शेष रहने पर स्त्रियों को गर्भ रहता है और6महीने रहते बच्चा पैदा
होता है, दोनों-युगल के मृत्यु का समय निकट आने पर युगल/बालक-बालिका का जन्म होता है
अर्थात् सन्तान के जन्म लेते ही
४९ दिन पालन पोषण करते थे।
माता-पिता मरण को प्राप्त हो जाते हैं। पुरुष को छींक और स्त्री को जंभाई आते ही वे मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं और उनके शरीर शरत्कालीन मेघ के सदृश तत्क्षण आमूल विलीन हो जाते हैं।
कंही 2 ये मान्यता है तो कंही
पहले आरे के मनुष्यों का दाह संस्कार आदि क्रियाएं नहीं होती है।अपने-अपने क्षेत्रो के क्षेत्रपाल आदि देव उन मृत देहो को उठाकर क्षीर समुद्र में प्रक्षेप कर देते है। जहाँ
कच्छ,मच्छप ग्राह आदि जलचर जन्तु उनका भक्षण कर जाते है।
पहले आरे में माता-पिता,भाई-बहेन , पुत्र-पुत्री,पुत्र-पुत्रवधु आदि के रिश्ते थे परन्तु उन मनुष्यों का तीव्र प्रेम बंध नहीं होता था।
यहाँ विवाह प्रणाली नहीं थी।
भोगभूमि के उत्पत्ति स्थान
मृत्यु के बाद भोगभूमिज मनुष्य या तिर्यञ्च यदि मिथ्यादृष्टि हैं तो भवनत्रिक-भवनवासी, व्यन्तर या ज्योतिष्क देवों में जन्म लेते हैं। यदि सम्यग्दृष्टि हैं तो सौधर्म युगल में जन्म लेते हैं।
औऱ कहीं2 ये मान्यता है ,की
वे मरकर देव लोक ही जाते थे।
भोगभूमिज युगल की वृद्धि
वहाँ के बाल युगल शय्या पर सोकर अंगूठा चूसते हुए तीन दिन निकाल देते हैं, पश्चात् बैठना, अस्थिर गमन, स्थिर गमन, कलागुणों की प्राप्ति, तारुण्य और सम्यग्दर्शन की योग्यता, इनमें से क्रमशः प्रत्येक अवस्था में उन बालकों के तीन-तीन दिन व्यतीत होते हैं अर्थात् इक्कीस दिन में ये युगल सात प्रकार की योग्यता को प्राप्त करके पूर्ण यौवन सहित सर्वकलाकुशल हो जाते हैं।
सम्यक्त्व के कारण
वहाँ पर कोई जीव जातिस्मरण से, कोई देवों के सम्बोधन करने से, कोई ऋद्धिधारी मुनि आदि के उपदेश सुनने से सम्यक्त्व को ग्रहण कर सकते हैं किन्तु इनके श्रावक के व्रत और संयम नहीं हो सकता है।
लगते आरे तीन पल्योपम एवं उतरते आरे दो पल्योपम की आयु थी।
पहला आरा लगते समय मनुष्यों का देहमान तीन कोस (गाऊ)
पहला आरा उतरते समय मनुष्यों का देहमान दो कोस (गाऊ)।
*आज का पेपर*
*दूसरा आरा*
अवसर्पिणी का द्वितीय काल ३ कोड़ा कोडी सागर का माध्यम भोग भूमि (भोग काल)का होता है ! इसका नाम सुषमा नामक आरा है।
दूसरे आरे में मिट्टी का स्वाद
शक्कर जैसा होता है।
दूसरे आरे का स्पर्श रेशम के गुच्छे जैसा होता है
जब चार कोडाकोडी सागरोपम काल प्रमाण पहला आरा पूर्ण होता है तब दूसरा आरा लगता है।पहले से दूसरे में प्रकृति में फर्क पड़ता है
- उसमें अनन्त वर्ण पर्याय अनंत गंध पर्याय ,अनंत रस पर्याय,
अनंत स्पर्श पर्याय,संहनन,संस्थान,आयु,
उत्थान कर्म बल वीर्य पुरुषार्थ पराक्रम पर्याय आदि में क्रमशः हास् होता जाता है।अब उनकी
अवगाहना इस आरे के मनुष्य के शरीर 128 पसलियों से युक्त
चार हजार धनुष प्रमाण ( दो कोस ) होती है।
उनकी
आयु दो पल्योपम होती है।
दूसरे आरे के मनुष्यों की उतरते आरे आयुष एक पल्योपम होता है।दूसरे आरे के मनुष्यों की उतरते आरे अवगाहना
- एक गऊ की होती है?
आहार की इच्छा दो दिन के अन्तराल से होती है।:- बोर जितना आहार लेते है।
दूसरे आरे के मनुष्य अपने संतान का पालन-पोषण 64दिन करते है
जन्म लेने पर बच्चे सोते सोते ५ दिन तक अंगूठा चूसते है ,५ दिन में घुटने के बल चलते है,फिर ५ दिन में मधुर तुतलाती भाषा बोलते है,फिर ५ दिनों में पैरो पर चलने लगते है,फिर ५ दिनों में कला और रूप आदि गुणों से युक्त हो जाते है,फिर ५ दिनोमें में युवावस्था को प्राप्त करते है,फिर ५ दिनों में सम्यग्दर्शन धारण करने की योग्यता प्राप्त कर लेते है !इस काल में जीवों का वर्ण चद्रमा की कांति के समान उज्ज्वल होता है
दूसरे आरे के मनुष्यों की प्रकृति
वे शांत,प्रशांत,सरल,भद्रिक स्वभावी होते है।दूसरे आरे में चार प्रकार के मनुष्य होते थे।
१. एक-प्रवर- श्रेष्ठ
२. प्रचुर जंघ-पुष्ट जंघा वाले
३. कुसुम - पुष्प के सदृश सुकुमार
४. सुशमन - अत्यन्त शांत -इस प्रकार के मनुष्य होते थे।
दूसरे आरे के मनुष्य आयु पूर्ण
देव गति प्राप्त करते है।
इतनी मात्र विशेषता को छोड़कर शेष वर्णन जो सुषमा- काल में कहे गये हैं, उन्हें यहाँ पर भी समझना चाहिए। तीन कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण इस सुषमा नामक काल में पहले से ही ऊँचाई, बल, ऋद्धि, आयु और तेज आदि उत्तरोत्तर हीन-हीन होते जाते हैं।
*भोगभूमि*
की सारांशतः ये निष्कर्ष हैं।
भोगभूमि का जीवों को सुख भरत क्षेत्र के चक्रवर्ती से भी अधिक होता है ! जीवों का बल ९००० हाथियों के बराबर होता है !भोगभूमि में विकलत्रय जीव उत्पन्न नहीं होते ,विषैले सर्प ,बिच्छू आदि जंतु नहीं उत्पन्न होते !वहां ऋतुओं का परिवर्तन नहीं होता ,मनुष्यों की यहाँ वृद्धावस्था नहीं होती ,उन्हें कोई रोग नहीं होता ,कोई चिंता नहीं होती ,उन्हें निंद्रा नहीं आती!
भोगभूमि में युगल बच्चे ही युवा होने पर पति पत्नी की तरह रहते है,कोई विवाह व्यवस्था नहीं है !यहाँ जीवों को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता ,सभी की पूर्ती दस प्रकार के कल्प वृक्षों के नीचे खड़े होकर याचना करने से हो जाती है !
*आज का पैसेज*
*तीसरा आरा*
काल कभी एक समान नहीं रहता
कहते है ,ना परिवर्तन प्रकृति का नियम है, तब
दूसरे आरे के तीन कोड़ाकोड़ी सागर काल के व्यतीत होने पर क्रम से सुषमादुःषमा नामक तृतीय काल प्रवेश करता है,
इस काल का प्रमाण दो कोड़ाकोड़ी सागर है।
तीसरे आरे का नाम। सुषम- दु:षमा था ,अब व्यक्ति के
जीवन में धीरे 2 दुख ने दखल दे
दी थी, पहले जहाँ सुख ही सुख
था ,अब धीरे 2 दुःख आने लगा
था । सुख आज भी बहुत ज्यादा था।महासुखकारी था ।पर हाँ कुछ दुख आगया था।
इस आरे में बहुत कुछ घटित हुआ
इस पूरे आरे को इसलिए
3 भाग में विभक्त किया गया है।
1प्रथम त्रिभाग
२ मध्यम त्रिभाग
३ अन्तिम त्रिभाग।
प्रथम त्रिभाग का आकार -प्रकार उस समय का भूमिभाग बहुत समतल और रमणीय था।
तीसरे आरे में मिट्टी का स्वाद गुड़ जैसा था।तीसरे आरे की मिट्टी का स्पर्श आक की रुई जैसा स्पर्श था।
तीसरे आरे में एक बारिश बरसने पर धरती 100 वर्ष तक सरसब्ज (हरी भरी)रहती थी।
इस समय मनुष्यों के शरीर की ऊँचाई
2000 धनुष प्रमाण थी।
मनुष्यों में 64 पंसलियाँ थी।
मनुष्यों की आयु एक पल्योपम की थी।
तीसरे आरे लगते मनुष्यों का देहमान एक गऊ था।
एक युगल रूप से पुत्र-पुत्री होते थे।
तीसरे आरे के मनुष्य संतान पालन 79 दिन करते थे।
प्रारंभ में मनुष्यों की ऊँचाई दो हजार धनुष-एक कोस, आयु एक पल्य प्रमाण और वर्ण प्रियंगुफल के समान होता है।
स्त्री-पुरुषों का इस काल में पृष्ठभाग की हड्डियाँ चौंसठ होती हैं। सभी मनुष्य समचतुरस्र संस्थान से युक्त, एक दिन के अंतराल से आंवले के बराबर भोजन ग्रहण करने वाले होते हैं। इस काल मेंं उत्पन्न हुए बालकों के शय्या पर सोते हुए अपने अंगूठे के चूसने में सात दिन व्यतीत होते हैं। इसके पश्चात् उपवेशन, अस्थिर गमन, स्थिर गमन, कलागुण प्राप्ति तारुण्य और सम्यक्त्व ग्रहण की योग्यता। इनमें से प्रत्येक अवस्था में क्रमशः सात-सात दिन जाते हैं। इतनी मात्र विशेषता को छोड़कर शेष वर्णन जो सुषमा-सुषमा नामक काल में कह चुके हैं सो ही यहाँ पर समझना चाहिए। इन तीनों ही भोगभूमियों में चोर, शत्रु आदि की बाधाएँ, असि, मसि आदि छह कर्म, शीत, आतप, प्रचंडवायु एवं वर्षा आदि नहीं होती हैं। इन्हें क्रम से उत्तम, मध्यम और जघन्य भोगभूमि भी कहते हैं। पर
फिर मध्य काल तक काफी
चीजें बदलने लगी थी
और अंतिम त्रिभाग में तो काफी
बदलाव आने लगा उत्तम वस्तुओं का अनंतानुगुनित
कमी आने लगी थी।
मनुष्यों का देहमान ५०० धनुष प्रमाण रह गया।
आयु एक करोड़ पूर्व लगभग रह गई।
औऱ वह भी एक जैसा नहीं था,
जघन्य - संख्यात वर्षों का,उत्कृष्ट - असंख्यात वर्षो का आयुष्य होता था।
32 पंसलिया रह गई थी।
मानवों की संरचना,छहों संहनन और छहों संस्थान होते थे।
(तीसरे आरे के तीसरे विभाग के ६६ लाख करोड़ ६६ हजार करोड़ ६०० करोड़ ६६ करोड़, ६६ लाख,६६ हजार,६६६ सागरोपम (६६,६६,६६,६६,६६,६६,६६ करोड़ सागरोपम) काल शेष रहने पर कल्पवृक्ष फल कम देना प्रारंभ कर देते है ।)
अब कल्पवृक्षो से पूरी वस्तुएं प्राप्त नहीं होती थी ,तब युगलिक मनुष्यों में परस्पर झग़ड़ा शुरू होगया था।
अब मनुष्य चारों गतियों में जाने लगा था।
हाँ अब मोक्ष गति में भी जाने लग
गया था।जब समस्या आती है, तो
समाधान भी आता है ,इनकी समस्या कल्प वृक्ष की प्रदत क्षमता में कमी से ये मनुष्य परेशान होने लगे तो इनकी
तकलीफ़ दूर करने ,के लिए
अब कुलकर भी होने लग गये थे।
कल कुलकर से आरम्भ होगा
*आज के प्रश्न*
जैन कालचक्र- तीसरे भाग, सुखमा-दुखमा में १४ कुलकर हुए थे।
इस भरतक्षेत्र के मध्यवर्ती आर्यखण्ड में अवसर्पिणी का तृतीय काल चल रहा था। इनमें आयु, अवगाहना, ऋद्धि, बल और तेज घटते-घटते जब इस तृतीय काल में पल्योपम के आठवें भाग मात्र काल शेष रह जाता है तब कुलकरों की उत्पत्ति प्रारंभ होती है।
जैन धर्म में कुलकर उन बुद्धिमान पुरुषों को कहते हैं जिन्होंने लोगों को जीवन निर्वाह के श्रमसाध्य गतिविधियों को करना सिखाया।[1] जैन ग्रन्थों में इन्हें मनु भी कहा गया है। जैन काल चक्र के अनुसार जब अवसर्पिणी काल के तीसरे भाग का अंत होने वाला था तब दस प्रकार के कल्पवृक्ष (ऐसे वृक्ष जो इच्छाएँ पूर्ण करते है) कम होने शुरू हो गए थे,[2] तब १४ महापुरुषों का क्रम क्रम से अंतराल के बाद जन्म हुआ। इनमें अंतिम कुलकर नाभिराज थे, जो प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के पिता थे।
*चौदह कुलकर कहाँ से आये थे*
प्रतिश्रुति आदि को लेकर नाभिराजपर्यंत ये सब चौदह कुलकर अपने पूर्व भव में विदेह क्षेत्र में महाकुल में राजकुमार थे, उन्होंने उस भव में पुण्य बढ़ाने वाले पात्रदान तथा यथायोग्य व्रताचरणरूपी अनुष्ठानों के द्वारा सम्यग्दर्शन प्राप्त होने से पहले ही भोगभूमि की मनुष्य आयु बाँध ली थी, बाद में श्री जिनेन्द्र देव के समीप रहने से क्षायिक सम्यग्दर्शन तथा श्रुतज्ञान की प्राप्ति हुई थी जिसके फलस्वरूप आयु के अंत में मरकर वे इस भरतक्षेत्र में उत्पन्न हुए थे। इन चौदह कुलकरों में से कितने ही कुलकरों को जातिस्मरण था और कितने ही अवधिज्ञानरूपी नेत्र के धारक थे इसलिए उन्होंने विचार कर प्रजा के लिए ऊपर कहे हुए कार्यों का उपदेश दिया था। ये प्रजा के जीवन को जानने से ‘मनु’ तथा आर्य पुरुषों को कुल की तरह इकट्ठे रहने का उपदेश देने से ‘कुलकर’, अनेकों वंशों को स्थापित करने से ‘कुलंधर’ तथा युग की आदि में होने से ‘युगादि पुरुष’ भी कहे गये थे।
चौदह कुलकर
1️⃣ *प्रतिश्रुतिकुलकर*
प्रथम कुलकर का नाम ‘प्रतिश्रुति’ और उनकी देवी का नाम स्वयंप्रभा था। उनके शरीर की ऊँचाई एक हजार आठ सौ धनुष और आयु पल्य के दसवें भाग प्रमाण थी।उनका नाम विमल वाहन के नाम सेइसलिये प्रसिद्ध हुए क्योंकि वो सफेद हाथी (वाहन)पर सवारी करते थे। सफेदहाथी ने पुर्वभव की प्रीति से प्रेरित होकर इनयुगल को सूंड मे उठा कर अपनी पीठ पर बैठाया
अशोकदत्त के जीव हाथी ने 🐘 युग्मधर्मी जन्मे अपने पूर्व मित्र को देखा👀👀❗ *मित्र के दर्शनरूपी अमृत ✨✨धारा से उसके शरीर 👂🏻👃का *रोम रोम व्याप्त हो रहा हो ,ऐसा उस हाथी के (मन मे) *बीज में से जैसे 🌾🌾अंकुर निकलता है वैसा ही स्नेह ❤❤उत्पन्न हुआ❗ इससे उसने *अपनी सूंड से,उसे(सागरचंद्र के जीव) को आनंद हो इस तरह, आलिंगन 🐘 किया*❗
*उसकी इच्छा न होते हुए भी उसको उठाकर अपने कंधे पर बिठा लिया❗ दोनों *एक दूसरे👀 को👀 देखते रहे देखते देखते उन दोनों को जातिस्मरण👀 👨 👨🏻 🤝🤝 ज्ञान हुआ*❗ और दोनों को *पूर्वजन्म का स्मरण* हुआ❗विमलवाहन कुलकर की पुर्व भव की पत्नी का नाम ,प्रियदर्शना था।
*87*
अशोकदत्त के जीव हाथी ने 🐘 युग्मधर्मी जन्मे अपने पूर्व मित्र को देखा👀👀❗ *मित्र के दर्शनरूपी अमृत ✨✨धारा से उसके शरीर 👂🏻👃का *रोम रोम व्याप्त हो रहा हो ,ऐसा उस हाथी के (मन मे) *बीज में से जैसे 🌾🌾अंकुर निकलता है वैसा ही स्नेह ❤❤उत्पन्न हुआ❗ इससे उसने *अपनी सूंड से,उसे(सागरचंद्र के जीव) को आनंद हो इस तरह, आलिंगन 🐘 किया*❗
*उसकी इच्छा न होते हुए भी उसको उठाकर अपने कंधे पर बिठा लिया❗ दोनों *एक दूसरे👀 को👀 देखते रहे देखते देखते उन दोनों को जातिस्मरण👀 👨 👨🏻 🤝🤝 ज्ञान हुआ*❗ और दोनों को *पूर्वजन्म का स्मरण* हुआ❗
*88*
जब *चार दांत वाले हाथी के कंधों पर बैठे हुए सागरचंद्र को,अचरज🤔से आंखे👀फैलाकर सब 🎎🎎👀 युगलिए, इन्द्र🤴 की तरह देखने लगे❗ वह शंख🐚🐚 डोलर के फूल🌸🌸🌸 और चंद्र🌛🌜 के जैसे विमल हाथी🐘🐘 पर बैठा हुआ था इसलिए युगलिको🎎🎎 ने 🤴🤴 उसको 👌🏻 🎉🎊🍄🌞 👌🏻 *विमलवाहन*
के नाम से पुकारना शुरू किया❗ *जातिस्मरण ज्ञान* से☺ सब तरह की📖📔🗞 *नीतियों को जानने वाला, विमल हाथी की सवारी 🐘🐘करने वाला और कुदरती सूंदर🌞☺ रूप वाला वह सब से🙏🏼🙏🏼 अधिक 👏🏻👏🏻सम्मानित किया*❗
कुछ समय बाद, चरित्र भ्रष्ट यतियों की तरह कल्पवृक्ष का प्रभाव कम होने लगा❗
उस समय आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा के दिन सायंकाल में भोगभूमियों को पूर्व दिशा में उदित होता हुआ चन्द्र और पश्चिम दिशा में अस्त होता हुआ सूर्य दिखलाई पड़ा। ‘यह कोई आकस्मिक उत्पात है’ ऐसा समझकर वे लोग भय से व्याकुल हो गये। उस समय वहाँ पर ‘प्रतिश्रुति’ कुलकर सबमें अधिक तेजस्वी और प्रजाजनों के हितकारी तथा जन्मांतर के संस्कार से अवधिज्ञान को धारण किये हुए थे, सभी में उत्कृष्ट बुद्धिमान गिने जाते थे।उन्होंने जातीस्मरण ज्ञान से पूर्वभव मे पालीहुई न्यायनीति जानी थी । उन्होंने कहा-हे भद्र पुरुषों! तुम्हें जो ये दिख रहे हैं वे सूर्य-चन्द्र नाम के ग्रह हैं, कालवश अब ज्योतिरंग जाति के कल्पवृक्षों की किरण समूह मंद पड़ गई हैं अतः इस समय ये दिखने लगे हैं, ये हमेशा ही आकाश में परिभ्रमण करते रहते हैं, अभी तक ज्योतिरंग कल्पवृक्ष से इनकी प्रभा तिरोहित होने से ये नहीं दिखते थे अतः तुम इनसे भयभीत मत होवो। प्रतिश्रुति के वचनों से उन लोगों को आश्वासन प्राप्त हुआ और उन लोगों ने उनके चरण कमलों की पूजा तथा स्तुति की।
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
💁♂💁 *भगवान रुषभदेवजी/आदिनाथजी जीवन चरित्र* 🙋🙋♂
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*89*
समय बीतने के। बाद *मध्यांग* कल्पवृक्ष विरस मद्य 🥂देने लगे, मानो *वे कोई और कल्पवृक्ष हो, वे बार बार याचना करने पर *भृतांग* पात्र🍴🥄 देने लगे❗ *तुर्यान्ग* ऐसा संगीत 🥁🤦♂ करते मानो *जबरदस्ती या बेगार में पकड् कर लाये गए थे❗ *दीपशिखा और ज्योतिष*, *बार बार प्राथना करने पर भी ✨🌔रात में दिन में जैसे बत्ती का प्रकाश मालूम नही पड़ता उसी तरह प्रकाश देते थे❗ ना *चित्रांग* फूलमालाएं🌸 नही देते थे❗ *चित्ररस* की तो *मानो दान देने की इच्छा ही क्षीण हो गयी वो पहले की तरह 🍣भोजन नही दे रहे थे❗ *मन्यांग* आभूषण 💍नही दे रहे थे❗
*बुरे ग्रहों से रुका हुआ मेघ जिस तरह थोड़ा थोड़ा जल देता है उस तरह *गेहाकर* घर देते थे❗ *अनग्न वृक्ष* वस्त्र देने में कमी करने लगे❗
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
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*90*
उस 🌏काल उस समय के अनुसार *कल्पवृक्षों🎄🎄🎄 का प्रभाव कम होने लगा❗ युगलिको 🎎🎎को भी जिस तरह शरीर के अंग क्षीण होने पर ममत्व 💔कम होता है,ठीक वैसे ही युगलिको कि कल्पवृक्षों पर ममता कम होने लगी❗ एक युगलिया जिस 🎄कल्पवृक्ष का आश्रय लेता तो पहले आश्रय लेनेवाले को पराभव 😟😩😡का भाव आता था,::: *इससे परस्पर का प्रभाव सहन 😬🙄 न होने से असमर्थ होकर सब युगलिको ने *विमलवाहन* 💪🏿को, अपने से अधिक 👏🏻💪🏿* *शक्तिशाली समझ कर , अपना स्वामी 👵🤴 मान लिया*❗ इस तरह उस काल उस समय मे युगलिको 🎎 के *विमलवाहन पहले कुलकर*
हुए❗
91
जल जैसे मर्यादा नही छोड़ता है,वैसे ही" *हा तुंमने यह बुरा 👈काम किया❗" यह शब्द सुनकर युगलिये नियम नही तोड़ते थे❗ वे शारीरिक पीड़ा को सह सकते थे, मगर *हा*❗ *तुंमने ऐसा किया*❗ *इस वाक्य को 🙅🏻♂सहन नही कर सकते थे*❗( इसे वह अधिक दंड समझते थे)
कल आगे का भाग▶▶▶
ल
*नया अध्याय* 📖
*2️⃣कुलकर का आगमन*
*सन्मति’कुलकर*
(सभी कुलकर इनमें से किस📖for को जाति स्मरण या किसी को अवधिज्ञान होता है।)
सन्मति’ नामक द्वितीय कुलकर उत्पन्न हुए। इनके शरीर की ऊँचाई एक हजार तीन सौ धनुष एवं आयु ‘अमम’ के बराबर संख्यात वर्षों की थी। इनकी देवी का नामयशस्वी था उस समय ज्योतिरंग कल्पवृक्ष नष्टप्रायः हो गये और सूर्य के अस्त होने पर अंधकार तथा तारागणभी दिखाई पड़ने लगे देखकर ‘इन लोगों को लगा कोई अत्यन्त भयानक उत्पात प्रकट हुआ हैं’
जिनको इन्होंने कभी नहीं देखाथा। इस प्रकार सभी मनुष्य व्याकुल होकर कुलकर के निकट आये। तब सन्मति कुलकर ने कहा कि समय के साथ साथब ज्योतिरंग कल्पवृक्षों की किरणें सर्वथा नष्ट हो जाने, से इस समय आकाश में अंधकार और ताराओं का समूह दिख रहा है। तुम लोगों को इनकी ओर से भय का कोई कारण नहीं है। ये तो सदा ही रहते थे किन्तु कल्पवृक्षों की किरणों से प्रकट नहीं दिखते थे। ये ग्रह, तारा और नक्षत्र तथा सूर्य-चन्द्रमा जम्बूद्वीप में नित्य ही सुमेरु पर्वत की प्रदक्षिणा किया करते हैं। तब कुलकर के वचनों से वे सब निर्भय हो गये और उनकी पूजा करके स्तुति करने लगे।
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
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*92*
*दूसरा कुलकर*
जब विमालवाहन की आयु छः माह बाकी रही तब उसकी चंद्रयशा नामक स्त्री से *एक युग्म का जन्म हुआ❗ वह असंख्यपूर्व की आयु वाला,प्रथम संस्थान और प्रथम संहनन और आठसो धनुष प्रमाण ऊंचे शरीर वाला था*❗उन दोनों का नाम *चक्षुषमान* 🎎और *चंद्रकांता रखा*❗ *साथ मे उगी 🍁🍁🌴हुई लता और वृक्ष के समान दोनों एकसाथ बढ़ने लगे*❗
*छः महीने तक दोनों का पालन कर, बुढापा और रोग के बगैर मृत्यु पाकर *विमलवाहन सुवर्णकुमार देवलोक 🗼में और उसकी स्त्री चंद्रयशा नागकुमार देवलोक में उत्पन्न हुए*❗ कारण
🍂* *चांद के छिप जानेपर चांदनी भी नही रहती है*❗🍂
*हाथी* 🐘भी अपनी *आयु पूर्ण कर नागकुमार देवलोक में उत्पन्न हुआ*❗
अपने *पिता विमलवाहन की तरह चक्षुष्मान भी *हाकार* *नीति से ही युगलिको की मर्यादाये चलाता रहा*❗
*3️⃣क्षेमंकर कुलकर*
इन कुलकर के स्वर्ग जाने के बाद असंख्यात करोड़ वर्षों का अन्तराल बीत जाने पर इस भरत क्षेत्र में तीसरे कुलकर उत्पन्न हुए। इनका नाम ‘क्षेमंकर’ था, शरीर की ऊँचाई आठ सौ धनुष और आयु ‘अटट’ प्रमाण वर्षों बराबर थी, वर्ण सुवर्ण सदृश और सुनंदा नामक महादेवी थी। उस समय व्याघ्र आदि तिर्यंच जीव क्रूरता को प्राप्त हो गये थे, तब भोगभूमिज मनुष्य उनसे भयभीत होकर क्षेमंकर कुलकर के पास पहुँचे और बोले-हे देव! ये सिंह, व्याघ्रादि पशु बहुत शान्त थे, जिन्हें हम लोग अपनी गोद में बिठाकर अपने हाथ से खिलाते थे, वे पशु आज हम लोगों को बिना किसी कारण ही सींगों से मारना चाहते हैं, मुख फाड़कर डरा रहे हैं हम क्या करें? तब कुलकर बोले-हे भद्र पुरुषों! अब तुम्हें इन पर विश्वास नहीं करना चाहिए, इनकी संगति छोड़ देना चाहिए, ये कालदोष से विकार को प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार से क्षेमंकर कुलकर के वचनों से उन लोगों ने सींग और दाढ़ वाले पशुओं का संसर्ग छोड़ दिया, केवल निरुपद्रवी गाय, भैंस आदि से संसर्ग रखने लगे।
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*93*
*तीसरा कुलकर*
चक्षुषमान और चंद्रकांता का जब अंत समय निकट आया तब *यशस्वी और सुरुपा नमक युगलधर्मी जोड़ा🎎 पैदा हुआ*❗ दूसरे कुलकर समान ही संहनन और संस्थान थे❗ *उनकी आयु कुछ कम थी*❗ वे दोनों क्रमशः बढ़ने लगे❗ *साढ़े सातसौ प्रमाण धनुष वाले* वे दोनों 👣* *जब साथ साथ 👥फिरते थे जो तोरण के खंभे 🕺🕺🏿की भ्रांति पैदा करते थे*❗
आयुपुर्ण 🛌होने पर चक्षुषमान सुवर्णकुमार🌞 और चंद्रकांता 🐍 नागकुमार में उत्त्पन्न हुए❗
*यशस्वी कुलकर अपने पिता के समान,जिस तरह ग्वाल 🐂🐂गायों का पालन करता है उसी तरह सरलता से 👶🏽पालन करने लगा❗ मगर उस समय युगलिक *हाकर* दंडनीति 👨🏾🎓का उल्लंघन करने लगे❗* *जिस तरह मदमाते हाथी 🐘अंकुश के बिना नही मानते है तब यशस्वी ✍🏿ने *माकार* नीति से दंड देना शुरू किया❗यानी *जो थोड़े 👽अपराध करने वाले को *हाकर* और अधिक अपराध 😈👿वाले को *माकार* नीति से दंड व्यवस्था थी❗
*4️⃣क्षेमंधर’कुलकर*
इनकी आयु पूर्ण होने के पश्चात् असंख्यात करोड़ वर्षों का अन्तराल बीत जाने पर सज्जनों में अग्रसर ऐसे ‘क्षेमंधर’ नामक चौथे कुलकर उत्पन्न हुए। इनकी आयु ‘तुटिक’ प्रमाण वर्षों की थी और शरीर की ऊँचाई सात सौ पचहत्तर धनुष की थी, इनका वर्ण स्वर्ण के सदृश और इनकी देवी का नाम विमला था। उस समय क्रूरता को प्राप्त हुए सिंहादि मनुष्यों के मांस को खाने लगे, तब सिंहादि के भय से भयभीत हुए भोगभूमिजों को क्षेमंधर कुलकरने उनसे सुरक्षित करने के लिए दण्डादि डंडा आदि रखने का उपदेश दिया।
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
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*94*
*चौथा कुलकर*
यशस्वी 🤴👸🏼कुलकर और सुरुपा 🎎कि आयु जब थोड़ी बाकी रही तब उनके एक युगलिया इस तरह जन्मा *जिस तरह बुद्धि और विनय एकसाथ जन्मते है❗ माता पिता ने उसका नाम *अभिचन्द्र* रखा कारण *वह चंद्रमा के समान🌝 उजला था और पुत्री का नाम प्रतिरूपा रखा कारण वह राई की बेल👧🏾 के समान थी*❗ वे अपने माता पिता से *कुछ कम आयुवाले और *साढ़े छह सौ धनुष ऊंचे 💪🏿शरीर वाले थे❗ *एक जगह उगे हुए शमी और पीपल की तरह वो बढ़ने लगे🌱🌳🌳❗ *गंगा 🗾और 🗾जमुना के पवित्र प्रवाह के मिले हुए 🌁जल की तरह वो दोनों शोभा पाने लगे*❗
आयु 🛌पूर्ण होने पर *यशस्वी उद्धिकुमार और सुरुपा उसके साथ मरकर नागकुमार 🐍🗻भुवनपति देव- निकाय में उत्पन्न हुए*❗
*अभिचन्द्र भी अपने पिता की तरह, उसी स्थिति में और उन्ही👽😈👿 दोनों( हाकर,माकार) दोनों नीतियों द्वारा दंड देने लगा*❗
*5️⃣सीमंकर कुलकर*
इनके अनंतर असंख्यात करोड़ वर्षों के बीत जाने पर प्रजा के पुण्योदय से ‘सीमंकर’ नाम के पांचवें कुलकर हुए। इनकी आयु ‘कमल’ प्रमाण वर्षों की एवं शरीर की ऊँचाई सात सौ पचास धनुष की थी, वर्ण स्वर्ण के सदृश एवं ‘मनोहरी’ नाम की प्रसिद्ध देवी थी। इनके समय कल्पवृक्ष अल्प हो गये और फल भी अल्प देने लगे थे, इस कारण मनुष्यों में अत्यन्त क्षोभ होने लगा था। परस्पर में इन भोगभूमिजों के झगड़े को देखकर सीमंकर मनु ने कल्पवृक्षों की सीमा नियत करके परस्पर संघर्ष को रोक दिया।
उपर्युक्त प्रतिश्रुति आदि पाँच कुलकरों ने उन भोगभूमिजों के अपराध में ‘हा’/हाय! बुरा कार्य किया, ऐसी दण्ड की व्यवस्था की थी, बस! इतना कहने मात्र से ही प्रजा आगे अपराध नहीं करती थी।बहुत सरल लोग थे।
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*95*
*पांचवा कुलकर*
अंतिम 🛌अवस्था मे प्रतिरूपा ने एक जोड़े🎎 को इसी तरह जन्म दिया *जिस तरह बहुत प्राणियो के चाहने पर रात 🌑🌔चंद्रमा को जन्म देती है*❗
माता पिता ने पुत्र का नाम *प्रसन्नजीत रखा* और पुत्री *सब के चक्षुओ 👀👀को मनोहर लगती थी👁 इसलिए उसका नाम चक्षु- कांता रखा*❗ वे दोनों अपने मातापिता से कम आयु वाले, *तमालवृक्ष के समान श्यामकान्ति वाले बुद्धि और उत्साह🤗 की तरह एकसाथ बढ़ने वाले*, छह सौ धनुष प्रमाण की ऊंचाई वाले, *विषुवत काल--- (सूर्य जब तुला राशि मे आता है) के समान जैसे रात और दिन🌚🌝 समान होते है उसी तरह समान प्रभावाले थे*❗
*मरकर अभिचन्द्रकुमार उदधिकुमार में और🎎 प्रतिरूपा नागकुमार में उत्पन्न हुए*❗
कल आगे का भाग▶▶▶
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
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*96*
प्रसन्नजीत सब युगलिको के राजा यानी पांचवे कुलकर 🤴हुए❗प्रायः राजा के पुत्र राजा ही होते है❗
*कामर्त लोग जैसे लाज और मर्यादा नही मानते वैसे ही उस समय के युगलिये👽 हाकार औऱ माकार👿👿 दंडनीति की उपेक्षा करने लगे❗तब प्रसन्नजीत ने,अनाचार रूपी महाभूत ठीक करने मंत्राक्षर के समान *धिक्कार* नीति का उपयोग करने लगे❗ प्रयोग करने में कुशल वह प्रसन्नजीत, *महावत की तरह तीन 👳अंकुशों से जैसे हाथी 🐘🐘को वश में करता है वैसे ही *वह * हाकार*👽 *माकार*👿😈और *धिक्कार* 👹👹 *दंड द्वारा सब युगलिको को दंड देने लगा*❗ अपने वश में करने लगा❗
*आज का नया अध्याय*
20:08:2020
सीमंधर कुलकर*
पाँचवें कुलकर के स्वर्ग गमन के पश्चात् असंख्यात करोड़ वर्षों का अन्तराल व्यतीत हो जाने पर ‘सीमंधर’ नामक छठे कुलकर उत्पन्न हुए। ये ‘नलिन’ प्रमाण वर्षों की आयु के धारक और सात सौ पच्चीस धनुष ऊँचे थे, इनकी देवी का नाम ‘यशोधरा’ था। इनके समय में कल्पवृक्ष अत्यन्त थोड़े रह गये और फल भी बहुत कम देने लगे इसीलिए मनुष्यों के बीच नित्य ही कलह होने लगा, तब इन कुलकर ने कल्पवृक्षों की सीमाओं को अन्य अनेक वृक्ष तथा छोटी-छोटी झाड़ियों से चिन्हित कर दिया। अर्थात आपस में कल्पवृक्ष बांट दिया उन्होंने प्रति व्यक्ति पेड़ों के स्वामित्व की नींव रखी और निशान भी लगाए। उससे कुछ समय शान्ति रही।
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*97*
*छठा कुलकर*
कुछ काल के बाद युग्म दंपति🎎 की आयु कम रही तब *चक्षुकांता ने स्त्री पुरूष रूप युग्म को जन्म दिया❗ *साढ़े पांचसौ धनुष प्रमाण वाले वे दोनों वृक्ष🌴 और छाया की भांति एकसाथ⛄☃ बढ़ने लगे❗ वह युगलधर्मी जोड़ा🎎 *मरुदेव श्रीकांता* के नाम से🌈🌈 इसलोक में प्रसिद्ध हुए❗ *सुवर्ण की कांति समान वह अपनी प्रिया👩 के साथ इस तरह शोभने लगा जैसे नंदनवन की वृक्षो की 🌴🌴🌴 श्रेणी से मेरुपर्वत🎑🎑 शोभता है*❗
आयुपुर्ण कर *प्रसन्नजीत द्वीपकुमार देवोमे और चक्षुकांता नागकुमार देवो में उत्पन्न हुए*❗
*मरुदेव प्रसन्नजीत की दंडनीति से ही,🤴🤴 इन्द्र जैसे देवताओं को दंड देता है वैसे ही, युगलिको दंड👽👿👹 देकर वश में रखने लगा*❗
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*महावीर के उपदेश ग्रुप*
💁♂💁 *भगवान रुषभदेवजी/आदिनाथजी जीवन चरित्र* 🙋🙋♂
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*98*
*सातवा कुलकर*
*आयु पूर्ण होने मे थोड़ा समय रहा तब मरुदेव की प्रिया श्रीकांता ने एक🎎 युगलिक को जन्म दिया❗ *पुरुष का नाम नाभि और स्त्री का मरूदेवा रखा गया*❗ *सवा पांचसौ प्रमाण ऊंचे शरीर वाले *क्षमा और संयम की भांति एकसाथ बढ़ने लगे*❗
*मरूदेवा प्रियंगुलता समान👱🏻♀ और नाभि सुवर्ण 🌞 के समान कांतिवाले थे*❗ इससे वे *अपने माता पिता की🤴👸🏼 प्रतिबिम्ब की भांति सुशोभित होते थे*❗ *उनकी आयु उनके माता पिता से कुछ कम संख्यतः पूर्व की हुई*❗
*काल करके मरुदेव द्वीपकुमार* देवों में उत्पन्न हुआ और *श्रीकांता भी तत्काल मरकर🏰 नागकुमार* में उत्पन्न हुई❗
*मरुदेव की मृत्यु के पश्चात नाभिराजा 🎉🎊सातवा कुलकर हुआ❗☝🏾 ऊपर बताई हुई दंडनीति के द्वारा ही कुलकरो को दंड देने लगा*❗
*विमलवाहन’कुलकर*
इनके बाद फिर असंख्यात करोड़ वर्षों का अन्तराल बीत जाने पर ‘विमलवाहन’ नामक सातवें कुलकर उत्पन्न हुए। इनकी आयु ‘पद्म’ प्रमाण वर्षों की थी और शरीर की ऊँचाई सात सौ धनुष प्रमाण थी, वर्ण स्वर्ण के सदृश और ‘सुमति’ नाम की महादेवी थी। इस समय गमनागमन से पीड़ा को प्राप्त हुए भोगभूमिज मनुष्य इन कुलकर के उपदेश से हाथी, घोड़े आदि पर सवारी करने लगे और अंकुश, पलान आदि से उन पर नियंत्रण करने लगे।इन्होंने घरेलू पशुओं की सेवाएँ कैसे ली जाए यह बताया। इन्होंने हाथी आदि सवारी योग्य पशुओं को कैसे नियंत्रण में कर उनकी सवारी की जाए, यह सिखाया।
*चक्षुष्मानकुलकर*
सातवें कुलकर के स्वर्ग जाने के बाद असंख्यात करोड़ वर्षों का अन्तराल बीत जाने पर ‘चक्षुष्मान्’ नामक आठवें कुलकर उत्पन्न हुए। इनकी आयु ‘पद्मांग’ प्रमाण और ऊँचाई छह सौ पचहत्तर धनुष की थी, इनकी देवी का नाम ‘धारिणी’ था।
जो प्राकृतिक समस्या थी ,वो तो
थी ,ही एक नई समस्या
यहां अब बच्चों से संबंधित आने लग गई थी, पहले जहाँ बच्चे जल्दी -जल्दी बड़े हो जाते थे,
अब धीरे धीरे उनकी गतिविधिया, धीमी हो गई थी।
कहने का आशय ये है कि
जो वो दिनों में करते थे ,अब महीनों में करते थे,जो
इनके समय से पहले के मनुष्य अपनी संतान को बड़ा होतेनहीं देख पाते थे,
उत्पन्न होते ही थोड़े दिनों में माता-पिता की मृत्यु हो जाती थी ।परन्तु अब वे धीरे 2 बच्चों को बडे होते देखने लगेथे।
साथ साथ बच्चे अब अपने आप,सब कुछ जल्दी नहीं सीख रहे थे ,
अब ये माता पिता के लिए ये नई बात थी, अतएव वे भयभीत हुए, ‘चक्षुष्मान्’ कुलकर के पास आये, तब इन्होंने उपदेश दिया कि ये तुम्हारे पुत्र-पुत्री हैं, इनके पूर्ण चन्द्र के समान सुन्दर मुख को देखो। इस प्रकार बालक के मुखदर्शन का उपदेश दिया।इस से वेस्पष्टरूप से अपने बालको को बड़ा होते देखते।
*9️⃣यशस्वान कुलकर*
आठवें कुलकर के स्वर्गगमन के पश्चात् करोड़ों वर्षों का अन्तराल व्यतीत होने पर ‘यशस्वान्’ नाम के नौवें कुलकर उत्पन्न हुए। इनकी आयु ‘कुमुद’ प्रमाण वर्षों की थी और शरीर की ऊँचाई छह सौ पचास धनुष की थी, इनके ‘कांतिमाला’ नाम की देवी थी। उस समय ये कुलकर प्रजा को अपनी संतान के नामकरण के उत्सव का उपदेश देते थे, तब भोगभूमिज नामकरण करके आशीर्वाद देकर अब बच्चे धीरे धीरे उनके आंख के सामने औऱ बड़े होने लगे
नौवें कुलकर ने बालक के नामकरण करने का उपदेश दिया।
1️⃣0️⃣ *अभिचन्द्र’कुलकर*
नवम कुलकर के स्वर्गस्थ होने पर करोड़ों वर्षों का अन्तराल व्यतीत कर दशवें ‘अभिचन्द्र’ नाम के कुलकर हुए। इनकी आयु ‘कुमुदांग’ प्रमाण थी और शरीर की ऊँचाई छह सौ पच्चीस धनुष की थी। इनकी देवी का नाम ‘श्रीमती’ था। ये बालकों के रुदन को रोकने से लेकर अच्छे से पालने के उपदेश देते थे कि तुम बच्चों को बोलना सिखाओ, यत्नपूर्वक इनकी रक्षा करो। इनके उपदेश से भोगभूमिज अपनी सन्तानों के साथ वैसा ही व्यवहार करते
औऱ धीरे धीरे अपने बच्चों को संभालने लगे थे ।
दसवें कुलकर ने शिशु रोदन निवारण चन्द्रादि दर्शन का उपदेश दिया।
सारांश
क्योंकि तदन्तर बच्चे जैसे
पहले सब अपने से जल्दी सीख
जाते थे, अब उन्हें सीखाना पड़ रहा था, औऱ माँ बाप को भी कि
छोट बच्चों को कैसे संभाले,सीखना पड़ रहा था।
*इन कुलकरों की दण्ड- व्यवस्था*
सीमंकर आदि पाँच कुलकरके समय तकउन युगलों के शिक्षण के निमित्त दण्ड के लिए ‘हा’/हाय! बुरा किया। ‘बस इतना कहने से चलता था, पर अब उन्हें मा’/अब ऐसा मत करना, ऐसे बोलना पड़ता था। और निषेधसूचक दो शब्दों का उपयोग करते हैं और इतने मात्र से ही प्रजा _अपराध_ छोड़ देती है।
https://www.facebook.com/groups/1020406731722749/?ref=share
*अध्याय*
*21:08:2020*
अभिचन्द्र कुलकर के स्वर्गारोहण के पश्चात् उतना ही अन्तराल व्यतीत होने के बाद ‘
*चन्द्राभ’ नाम के ग्यारहवें कुलकर* उत्पन्न हुए। इनकी आयु ‘नयुत’ प्रमाण वर्षों की और शरीर की अवगाहना छह सौ धनुष प्रमाण थी। इनकी देवी का नाम ‘प्रभावती’ था। इनके समय में अतिशीत, तुषार और अतिवायु चलने लगी थी, शीत वायु से अत्यन्त दुःख पाकर वे भोगभूमिज मनुष्य तुषार से ढके हुए चन्द्र आदि ज्योति समूह को नहीं देख पाते थे। इस कारण इनके भय को दूर करते हुए चन्द्राभ कुलकर ने उपदेश दिया कि भोगभूमि की हानि होने पर अब कर्मभूमि निकट आ गई है। काल के विकार से यह स्वभाव प्रवृत्त हुआ है, अब यह तुषार सूर्य की किरणों से नष्ट होगा, यह सुनकर प्रजाजन सूर्य की किरणों से तुषार को नष्ट करते ।इस तरह
ग्यारवें कुलकर ने शीत आदि से रक्षा के उपाय बताये।
चन्द्राभ कुलकर के स्वर्ग जाने के बाद अपने योग्य अन्तर को व्यतीत कर
*‘मरुदेव’ नामक बारहवें कुलकर* उत्पन्न हुए। इनकी आयु ‘नयुतांग’ वर्ष प्रमाण और शरीर की ऊँचाई पाँच सौ पचहत्तर धनुष की थी। इनकी देवी का नाम ‘सत्या’ था। इनके समय में बिजली युक्त मेघ गरजते हुए बरसने लगे। उस समय पूर्व में कभी नहीं देखी गई कीचड़ युक्त जलप्रवाह वाली नदियों को देखकर अत्यन्त भयभीत हुए भोगभूमिज मनुष्यों को मरुदेव कुलकर काल के विभाग को बतलाते हैं अर्थात् काल के विकार से अब कर्मभूमि तुम्हारे निकट है। अब तुम लोग नदियों में नौका डालकर इन्हें पार करो, पहाड़ों पर सीढ़ियों को बनाकर चढ़ो और वर्षा काल में छत्रादि को धारण करो। उन कुलकर के उपदेश से सभी जन नदियों को पारकर, पहाड़ों पर चढ़कर और वर्षा का निवारण करते हुए पुत्र-कलत्र के साथ जीवित रहने लगे।
इस प्रकार बारहवें कुलकर ने नाव आदि द्वारा गमन करने का उपदेश दिया।
अन्त में मरुदेव पल्य के करोड़वें भाग तक जीवित रहकर स्वर्ग चले गये।
इन बारहवें कुलकर के स्वर्गस्थ होने के बाद समय व्यतीत होने पर जब कर्मभूमि की स्थिति धीरे-धीरे समीप आ रही थी, तब *प्रसेनजित् नाम के तेरहवें कुलकर* उत्पन्न हुए। इनकी आयु एक ‘पूर्व’ प्रमाण थी और शरीर की ऊँचाई पाँच सौ पचास धनुष की थी। इनके ‘अभिमती’ नाम की देवी थी। इनके समय में बालकों का जन्म जरायु पटल में हटाने का उपदेश दिया था। ‘यह क्या है’ इस प्रकार के भय से संयुक्त मनुष्यों को इन कुलकर ने से सभी भोगभूमिज प्रयत्नपूर्वक उन शिशुओं की रक्षा करने लगे थे।
इनके बाद ही ‘ *नाभिराज’ नाम के चौदहवें कुलकर उत्पन्न हुए थे।* इनकी आयु ‘एक करोड़ पूर्व’ वर्ष की थी और शरीर की ऊँचाई पाँच सौ पच्चीस धनुष की थी, इनकी ‘मरुदेवी’ नाम की पत्नी थी। इनके समय बालकों का नाभिनाल अत्यन्त लम्बा होने लगा था, इसलिए नाभिराय कुलकर उसके काटने का उपदेश देते हैं और वे भोगभूमिज मनुष्य वैसा ही करते हैं। उस समय कल्पवृक्ष नष्ट हो गये, बादल गरजने लगे, मेघ बरसने लगे, पृथ्वी पर स्वभाव से ही उत्पन्न हुए अनेकों वनस्पतियाँ-वनस्पतिकायिक, धान्य आदि दिखलाई देने लगे। धीरे-धीरे बिना बोये ही धान्य सब ओर पैदा हो गये। उनके उपयोग को न समझती हुई प्रजा कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने से अत्यन्त क्षुधा वेदना से व्याकुल हुई नाभिराज कुलकर की शरण में आकर बोली-हे देव! मन-वांछित फल को देने वाले कल्पवृक्षों के बिना हम पुण्यहीन अनाथ लोग किस प्रकार से जीवित रहें? जो रहें? जो ये वृक्ष, शाखा, अंकुर, फल आदि उत्पन्न हुए हैं, इनमें कौन तो खाने योग्य हैं और कौन नहीं है? इनका क्या उपयोग है, यह सब हमें बतलाइये। इस प्रकार के दीन वचनों को सुनकर नाभिराज बोले-हे भद्र पुरुषों! ये वृक्ष तुम्हारे योग्य हैं और ये विषवृक्ष छोड़ने योग्य हैं। तुम लोग इन धान्यों को खाओ, गाय का दूध निकालकर पीयो। ये इक्षु के पेड़ हैं, दाँतों से इनका रस पियो। इस प्रकार से महाराजा नाभिराज ने मनुष्यों की आजीविका के अनेकों उपायों को बताकर उन्हें सुखी किया और हाथी के गंडस्थल पर मिट्टी की थाली आदि अनेक प्रकार के बर्तन बनाकर उन पुरुषों को दिये और बनाने का उपदेश भी दिया। उस समय वहाँ कल्पवृक्षों की समाप्ति हो चुकी थी, प्रजा का हित करने वाले केवल नाभिराज ही उत्पन्न हुए थे इसलिए वे कल्पवृक्ष के समान प्रजा का हित करते थे।
इन कुलकरों की दण्ड व्यवस्था
ग्यारहवें से लेकर शेष कुलकरों ने ‘हा’ ‘मा’ और ‘धिक्’ इन तीन दण्डों की व्यवस्था की थी अर्थात् ‘खेद है’, अब ‘ऐसा नहीं करना’, तुम्हें ‘धिक्कार’ है जो रोकने पर भी अपराध करते हों।
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*अध्याय*
*24:08:2020*
अन्तिम कुलकर नाभिराज के जमाने में बहुत-सी प्राकृतिक हलचलें आरम्भ हुईं। चूंकि वह काल हमारी पृथ्वी के निर्माण के लिए नया था, इसलिए उसमें जल्दी-जल्दी परिवर्तन हो रहे थे।
नाभिराज के जमाने में धरती पर जमी हुई बर्फ ही सूर्य की गर्मी से पिघलकर पृथ्वी सींचती थी, किन्तु अब आकाश पर काले बादल भी मंडराने लगे और कुछ ही दिनों बाद मनुष्य जाति ने ऐसी प्रबल वर्षा के दर्शन किये कि वह भय से भर उठे। बिजलियां कड़कने लगीं, बादल गरजने लगे और मूसलाधार पानी बरसने लगा।
ताल-तलैया, बर्फीली नदियां आदि उफन उठीं। चारों ओर एक प्रलय-सी मच गयी। आंधी, बिजली और बाढ़ के पानी से सारे कल्पवृक्ष सूख गये।
नाभि राज भी बहुत आकुल
व्याकुल हो गए वो चाह कर भी कोई व्यवस्था नहीं कर पा रहे थे।
पर कहते है, जब जब धरती विकल होती है ,कोई ना कोई महामानव धरती पर अवतरित होता है
तो ये वो ही समय था ,जब प्रकृति नई करवट बदलने वाली थी,
औऱ हमारे प्रथम प्रभु इस धरती
पर आने वाले थे।
जब इन्द्र ने अपने अवधि ज्ञान से जाना
महाराजा नाभिराय और मरुदेवी से अलंकृत पवित्र स्थान में कल्पवृक्षों का अभाव देखकर और ‘‘इन दोनों के स्वयंभू ऋषभदेव पुत्र जन्म लेंगे।’’
आइये अपने सबसे पहले ऋषभदेव जी के पूर्व भव के बारे में जाने⤵️
*प्रथम भव विद्याधर के स्वामी महाबल*
इसी जम्बूद्वीप में विदेहक्षेत्र के अंतर्गत ‘गंधिला’ नाम का देश है। अपने इस भरतक्षेत्र के सदृश वहाँ पर भी मध्य में विजयार्ध पर्वत है, जिसकी दक्षिण-उत्तर दोनों ही श्रेणियों में विद्याधर लोग निवास करते हैं। इस पर्वत की उत्तर श्रेणी में ‘अलका’ नाम की सुन्दर नगरी है। वहाँ पर ‘महाबल’ नाम के राजा धर्मनीतिपूर्वक प्रजा का पालन करते थे। उनके महामति, संभिन्नमति, शतमति और स्वयंबुद्ध ये चार मंत्री थे।
विद्याधरों के पास तीन प्रकार की विद्याएँ हुआ करती हैं-जातिविद्या, कुल विद्या और साधितविद्या। मातृपक्ष से प्राप्त विद्या जातिविद्या है। पितृपक्ष से प्राप्त विद्या कुलविद्या है एवं मंत्रादि से सिद्ध की हुई विद्या साधितविद्या है। इन विद्याओं के बल से वे अनेक प्रकार के रूप, महल, नगर, वस्तु आदि बना लेते हैं और भोगोपभोग सामग्री से अधिक सुखी रहते हैं। विद्या के बल से यत्र-तत्र मानुषोत्तर पर्वत तक विहार करते रहते हैं। मेरु आदि पर्वतों पर जाकर भक्ति, पूजा, वंदना करके महान् पुण्य बंध किया करते हैं।न
किसी दिन राजा महाबल की जन्मगाँठ का उत्सव हो रहा था, विद्याधरों के राजा महाबल सिंहासन पर बैठे हुए थे। उस समय वे चारों तरफ में बैठे हुए मंत्री, सेनापति, पुरोहित, सेठ तथा विद्याधर आदि जनों से घिरे हुए, किसी को स्थान, मान, दान देकर, किसी के साथ हँसकर, किसी से संभाषण आदि कर सभी को संतुष्ट कर रहे थे। उस समय राजा को प्रसन्नचित्त देखकर स्वयंबुद्ध मंत्री ने कहा-हे राजन् ! जो आपको यह विद्याधरों की लक्ष्मी प्राप्त हुई है, उसे केवल पुण्य का ही फल समझिए। ऐसा कहते हुए मंत्री ने अहिंसामयी सच्चे धर्म का विस्तृत विवेचन किया।
यह सुनकर महामति नाम के मिथ्यादृष्टि मंत्री ने कहा कि हे राजन्! इस जगत् में आत्मा, धर्म और परलोक नाम की कोई चीज नहीं है। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चार भूतों के मिलने से ही चैतन्य की उत्पत्ति हो जाती है। जन्म लेने से पहले और मरने के पश्चात् आत्मा नाम की कोई चीज नहीं है इसलिए आत्मा की और परलोक की चिंता करना व्यर्थ है। जो लोग वर्तमान सुख को छोड़कर परलोकसंबंधी सुख चाहते हैं, वे दोनों लोकों के सुख से च्युत होकर व्यर्थ ही क्लेश उठाते हैं।
अनंतर संभिन्नमति मंत्री बोलने लगा कि हे राजन! यह सारा जगत् एक विज्ञान मात्र है क्योंकि यह क्षणभंगुर हैं। जो-जो क्षणभंगुर होते हैं वे सब ज्ञान के ही विकार हैं। ज्ञान से पृथक् चेतन-अचेतन आदि कोई भी पदार्थ नहीं है। यदि पदार्थों का अस्तित्व मानो तो वे नित्य होना चाहिए परन्तु संसार में कोई भी पदार्थ नित्य नहीं दिखते हैं, सब एक-एक क्षण में ही नष्ट हो जाते हैंं अतः परलोक में सुख प्राप्ति हेतु धर्मकार्य का अनुष्ठान करना बिल्कुल ही व्यर्थ है।
इसके बाद शतमति मंत्री अपनी प्रशंसा करता हुआ नैरात्म्यवाद को पुष्ट करने लगा। उसने कहा कि यह समस्त जगत् शून्यरूप है, इसमें नर, पशु, पक्षी, घट, पट आदि जो भी चेतन-अचेतन पदार्थ दिख रहे हैं वे सर्व मिथ्या हैं। भ्रांति से ही वैसा प्रतिभास होता है जैसे कि इंद्रजाल और स्वप्न में दिखने वाले पदार्थ मिथ्या ही हैं, भ्रांतिरूप ही हैं। आत्मा-परमात्मा तथा परलोक की कल्पना भी मिथ्या ही है अतः जो पुरुष परलोक के लिए तपश्चरण आदि अनुष्ठान करते हैं, वे यथार्थ ज्ञान से रहित हैं।
इन तीनों मंत्रियों के सिद्धान्तों को सुनकर स्वयंबुद्ध मंत्री ने अपने सम्यग्ज्ञान के बल से उनका बलपूर्वक खंडन करके स्याद्वाद सिद्धान्त को सत्य सिद्ध कर दिया तथा राजा महाबल के पूर्वजों का पुण्य चरित्र भी सुनाते हुए धर्म और धर्म के फल का महत्व बतलाया। इस प्रकार स्वयंबुद्ध मंत्री के उदार और गंभीर वचनों से समस्त सभा प्रसन्न हो गई।
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