25 बोल day 29 से
Day - 29
*पच्चीस बोल का*
*पाँचवां बोल है - पर्याप्ति छह*
*भाग -- 1*
*1 आहार-पर्याप्ति 2 शरीर पर्याप्ति 3 इन्द्रिय पर्याप्ति*
*4 श्वासोच्छ्वास-पर्याप्ति 5 भाषा-पर्याप्ति 6 मनः -पर्याप्ति*
पर्याप्ति जैन दर्शन का पारिभाषिक शब्द है। *भवारम्भे पौद्गलिकसामर्थ्यनिर्माणं* *पर्याप्ति:* । अर्थात्
जन्म के प्रारंभ में जीवन यापन के लिए जो आवश्यक पौद्गलिक शक्ति का निर्माण होता है, उसे पर्याप्ति कहते हैं। पर्याप्ति अर्थ है -- जीवन उपयोगी पौद्गलिक शक्ति के निर्माण की पूर्णता।
जब जीव एक स्थूल शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर धारण करता है तब भावी जीवन-यात्रा के निर्वाह के लिए अपेक्षित पौद्गलिक सामग्री का निर्माण करता है। इसे या इससे उत्पन्न होने वाली पौद्गलिक शक्ति को पर्याप्ति कहते हैं।
छहों ही पर्याप्तियों का प्रारम्भ एक काल में एक साथ होता है, परंतु उनकी पूर्णता क्रमशः होती है, इसलिए क्रम का नियम रखा गया है। सबसे पहले आहार पर्याप्ति का बंध होता है। आहार पर्याप्ति को पूर्ण होने में एक *समय* और शरीर-पर्याप्ति आदि पाँचों में से प्रत्येक को *अन्तर्मुहूर्त्त* लगता है।
**नोट*--समय जैन सिद्धांत में सबसे सूक्ष्म अर्थात अविभाज्य( जिसके भाग न हो सके ) काल का नाम समय है
*अन्तर्मुहूर्त्त --* दो समय से लेकर दो घड़ी ( 48 मिनट ) में एक समय कम -- इतने काल को अन्तर्मुहूर्त्त कहते हैं।
अन्तर्मुहूर्त्त के तीन भेद हैं :--
*(1) जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त --* दो समय का काल।
*(2) उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त --* दो घड़ी में एक समय कम का काल।
*(3) मध्यम अन्तर्मुहूर्त्त --* जघन्य और उत्कृष्ट के बीच का काल।
Day - 30
*पच्चीस बोल का*
*पाँचवां बोल है - पर्याप्ति छह*
*भाग -- 2*
*1 आहार-पर्याप्ति 2 शरीर पर्याप्ति 3 इन्द्रिय पर्याप्ति*
*4 श्वासोच्छ्वास-पर्याप्ति 5 भाषा-पर्याप्ति 6 मनः -पर्याप्ति*
*1 आहार-पर्याप्ति* सबसे पहले आहार पर्याप्ति का बंध होता है। इसके द्वारा जीव जीवन भर आहार प्रायोग्य
पुद्गलों के ग्रहण,परिणमन और विसर्जन करने की क्षमता अथवा योग्यता प्राप्त कर लेता है।
*आहार* -- औदारिक, वैक्रिय, आहारक और छहों पर्याप्तियों के योग्य जो पुद्गलों का ग्रहण होता है, उसे आहार कहते हैं। आहार तीन प्रकार के हैं -- ओज-आहार, रोम-आहार और कवल-आहार।
*ओज-आहार* -- कार्मण योग के द्वारा प्रथम समय में जो पुद्गल-समूह ग्रहण किया जाता है, वह ओज आहार है।
*रोम-आहार* -- स्पर्शन-इन्द्रिय द्वारा जो पुद्गल-समूह ग्रहण किया जाता है, वह रोम आहार है। रोम-कूप के द्वारा क्षण-क्षण में पुद्गलों का ग्रहण होता रहता है। सूर्य के ताप से संतप्त और प्यासा पथिक वृक्ष की छाया में जाकर रोम-कूप के द्वारा ठंड के पुद्गलों को ग्रहण करता है और परम शांति का अनुभव करता है।
*प्रक्षेप या कवल आहार* -- वह आहार, जो मुख से ग्रहण किया जाए अथवा जो बाह्य साधनों के द्वारा शरीर में प्रक्षिप्त किया जाए। नाक के द्वारा, रबड़ की नली से या गुदा, इंजेक्शन के द्वारा जो आहार शरीर में प्रवेश कराया जाता है, वह सब कवल-आहार की श्रेणी में है। एक आहार मानसिक है, जो देवताओं के होता है।
*आहार-पर्याप्ति* -- जिस पुद्गल-समूह से शरीर आदि पांच पर्याप्तियों के योग्य पुद्गल ग्रहण करने वाली क्रिया की पर्याप्ति या पूर्णता होती है, उसे आहार-पर्याप्ति कहते हैं। जैसे -- मकान बनाने वाला सबसे पहले उसकी सामग्री -- काठ, ईंट, मिट्टी, पत्थर, चूना आदि इकट्ठा करता है, इसी प्रकार जीव जन्म-ग्रहण करते समय आहार के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है। उन पुद्गलों को या उनकी शक्ति को आहार पर्याप्ति कहते हैं।
पर्याप्ति प्राणी का एक विलक्षण लक्षण है। प्राणी के सिवाय यह लक्षण अन्यत्र कहीं भी नहीं मिलता। पर्याप्तियों के द्वारा प्राणियों में विभिन्न पुद्गलों का ग्रहण, परिणमन और उत्सर्ग होता रहता है।
आहार पर्याप्ति के द्वारा जीव प्रतिसमय आहार करने की क्रिया करता है, अपने योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है और उसके द्वारा ही गृहीत आहार खल ( असार मल-मूत्र रूप ) और सार ( रस रूप में ) विभाजित होता है।
आहार-पर्याप्ति के द्वारा आहार के योग्य पुद्गलों को लेते हैं, उन्हें आहार के रूप में परिणत करते हैं और असार पुद्गलों को छोड़ देते हैं।
Day - 31
*पच्चीस बोल का*
*पाँचवां बोल है - पर्याप्ति छह*
*भाग -- 3*
*1 आहार-पर्याप्ति 2 शरीर पर्याप्ति 3 इन्द्रिय पर्याप्ति*
*4 श्वासोच्छ्वास-पर्याप्ति 5 भाषा-पर्याप्ति 6 मनः -पर्याप्ति*
पिछले विवरण के माध्यम से हमने आहार पर्याप्ति के बारे में जानकारी प्राप्त की। आज की पोस्ट में हम शरीर-पर्याप्ति के बारे में जानने का प्रयास करेंगे
*2 शरीर-पर्याप्ति --* शरीर के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करने की पौद्गलिक क्षमता एवं उसकी पूर्णता को शरीर पर्याप्ति कहते है। इससे शरीर के अंगोपांगों की रचना करने वाली क्रिया की पर्याप्ति होती है ।
आहार पर्याप्ति में सब पर्याप्तियों के योग्य पुद्गल ग्रहण किये हुए होते हैं। जिस प्रकार एक मकान का निर्माता मकान बनाने योग्य एकत्रित सामग्री को अपने आवश्यकता के अनुसार विभाजित करता है जैसे यह काठ स्तंभ बनाने के योग्य है, अमुक कपाट बनाने के योग्य, अमुक पत्थर पट्टियों या दीवारों के योग्य है। ठीक इसी प्रकार शरीर पर्याप्ति होती है। शरीर के अंगोपांग का वर्गीकरण का काम शरीर प्रयाप्ति का है आहार-पर्याप्ति में जो पुद्गल शरीर की रचना करने में समर्थ होते हैं, उन पुद्गलों या उनके शरीर बनाने की शक्ति को कहते हैं -- शरीर-पर्याप्ति।
आहार-पर्याप्ति के द्वारा जीव प्रतिसमय आहार करने की क्रिया करता है और शरीर-पर्याप्ति के द्वारा उस आहार का सात धातुओं के रूप में परिणमन होता है। शरीर-पर्याप्ति के द्वारा जीव शरीर के योग्य पुद्गलों को लेता हैं, शरीर के रूप में परिणत करता हैं और असार पुद्गलों को छोड़ देता हैं।
Day - 32
*पच्चीस बोल का*
*पाँचवां बोल है - पर्याप्ति छह*
*भाग -- 4*
*1 आहार-पर्याप्ति 2 शरीर पर्याप्ति 3 इन्द्रिय पर्याप्ति*
*4 श्वासोच्छ्वास-पर्याप्ति 5 भाषा-पर्याप्ति 6 मनः -पर्याप्ति*
पिछले विवरणों में हमने आहार पर्याप्ति और शरीर-पर्याप्ति के बारे में जानकारी प्राप्त की। आज की पोस्ट में जानने का प्रयास करेंगे इन्द्रिय-पर्याप्ति के बारे में।
*3 इन्द्रिय-पर्याप्ति --* त्वचा आदि इंद्रियों की रचना करने वाली क्रिया की पर्याप्ति, जिस पुद्गल समूह से होती है उसे इंद्रिय पर्याप्ति कहते हैं। जैसे -- दीवारें या कमरा बनाने के समय उनमें प्रवेश और निकास के हक रखे जाते हैं, दरवाजे बनाये जाते हैं। घर के समान आकारवाली शरीर-पर्याप्ति में दरवाजों के समान इन्द्रिय-पर्याप्ति है। परोक्ष ज्ञान वाली आत्मा बाह्म इंद्रियों के द्वारा ही वस्तुओं का ज्ञान कर सकती है।
इंद्रिय-पर्याप्ति के द्वारा इंद्रियों के विषय को जानने में सहायता मिलती है। इंद्रिय-पर्याप्ति के द्वारा इंद्रिय के योग्य पुद्गल को लेते हैं, इंद्रिय के रूप में परिणत करते हैं और असार पुद्गलों को छोड़ देते हैं। इसका समय अंतर मुहूर्त होता है। जीव को शरीर धारण करने एवं सक्रिय बने रहने के लिए यह अनिवार्य है।
Day - 33
*पच्चीस बोल का*
*पाँचवां बोल है - पर्याप्ति छह*
*भाग -- 5*
*1 आहार-पर्याप्ति 2 शरीर पर्याप्ति 3 इन्द्रिय पर्याप्ति*
*4 श्वासोच्छ्वास-पर्याप्ति 5 भाषा-पर्याप्ति 6 मनः -पर्याप्ति*
अब तक हमने आहार पर्याप्ति, शरीर-पर्याप्ति और इन्द्रिय-पर्याप्ति के बारे में समझा और कुछ जानकारी प्राप्त करने की कोशिश की। अब हम श्वासोच्छ्वास-पर्याप्ति के बारे मे जानने का प्रयास करते हैं।
*4 श्वासोच्छ्वास-पर्याप्ति*
*श्वासोच्छ्वास* अर्थात् सांस लेना और छोड़ना। बाहर की वायु को शरीर के अंदर लेना और अंदर की वायु को शरीर से बाहर निकालना श्वासोच्छवास कहलाता है। यह काम केवल फेफड़ों के द्वारा ही नहीं होता, परंतु चर्म-छिद्रों के द्वारा भी होता है। जैन दर्शन के अनुसार शरीर से श्वासोच्छ्वास की क्रिया होती रहती है। यदि ऐसा नहीं होता तो घ्राणेन्द्रिय और फेफड़ों के अभाव में वनस्पति काय में श्वासोच्छ्वास की क्रिया नहीं होती क्योंकि वनस्पति-काय में घ्राणेन्द्रिय और फेफड़ा नहीं होता। परंतु जैन-सिद्धांत के अनुसार वनस्पति-काय में भी श्वासोच्छ्वास होता है, अतः यह मानना पड़ेगा कि श्वासोच्छ्वास प्राणी के समूचे शरीर से होता रहता है।
*श्वासोच्छ्वास-पर्याप्ति --* श्वासोच्छ्वास के योग्य पुद्गलों का ग्रहण और उत्सर्ग करने वाली शक्ति-क्रिया की पर्याप्ति होती है जिस पुद्गल समुह से, उसे श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति कहते हैं। श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति के द्वारा श्वासोच्छ्वास के योग्य पुद्गलों को लेते हैं, श्वासोच्छ्वास के रूप में परिणत करते हैं और असार पुद्गलों को छोड़ देते हैं।
Day - 34
*पच्चीस बोल का*
*पाँचवां बोल है - पर्याप्ति छह*
*भाग -- 6*
*1 आहार-पर्याप्ति 2 शरीर पर्याप्ति 3 इन्द्रिय पर्याप्ति*
*4 श्वासोच्छ्वास-पर्याप्ति 5 भाषा-पर्याप्ति 6 मनः -पर्याप्ति*
पिछे के विवरणों के माध्यम से हमने आहार पर्याप्ति, शरीर-पर्याप्ति, इन्द्रिय-पर्याप्ति और श्वासोच्छ्वास-पर्याप्ति के बारे में जानकारी प्राप्त की। आज की पोस्ट में जानने का प्रयास करेंगे भाषा-पर्याप्ति और मनः -पर्याप्ति के बारे में।
*5 भाषा-पर्याप्ति --* भाषा केयोग्य पुद्गलों का ग्रहण और उत्सर्ग करने वाली क्रिया की प्राप्ति जिस पुद्गल समूह से होती है, उसे भाषा-पर्याप्ति कहते हैं। भाषा-पर्याप्ति के द्वारा भाषा के योग्य पुद्गलों को लेते हैं, भाषा के रूप में परिणत करते हैं और असार पुद्गलों को छोड़ देते हैं।
*6 मनः पर्याप्ति --* मन के योग्य पुद्गलों का ग्रहण और उत्सर्ग करने वाली क्रिया की प्राप्ति जिस पुद्गल समूह से होती है, उसे मनः पर्याप्ति कहते हैं। जैसे मकान तैयार होने के बाद, यह कमरा शीतकाल में गर्म रहता है, यह ग्रीष्मकाल में ठंडा रहता है, यह शयन-घर है, यह भोजन-घर है इत्यादि विचारों के समान है मनः पर्याप्ति। हेय ( छोड़ने योग्य ) वस्तुओं का परित्याग एवं उपादेय ( ग्रहण करने योग्य ) वस्तुओं के स्वीकार का ज्ञान मनः पर्याप्ति के आलंबन से ही किया जाता है। मनः पर्याप्ति के द्वारा मानस विचारों के योग्य पुद्गलों को लेते हैं, मानस विचारों के रूप में परिणत करते हैं और असार पुद्गलों को छोड़ देते हैं।
Day - 35
*पच्चीस बोल का*
*पाँचवां बोल है - पर्याप्ति छह*
*भाग -- 6*
*1 आहार-पर्याप्ति 2 शरीर पर्याप्ति 3 इन्द्रिय पर्याप्ति*
*4 श्वासोच्छ्वास-पर्याप्ति 5 भाषा-पर्याप्ति 6 मनः -पर्याप्ति*
अब तक हमने छहों पर्याप्तियों के बारे में जाना। आइए अब हम पर्याप्तियों के बारे में कुछ विशेष जानते हैं।
सभी पर्याप्तियों का प्रारंभ एक साथ होता है लेकिन उनकी पूर्णता क्रमशः होती है। आहार-पर्याप्ति को पुर्ण होने में एक समय लगता है और शेष की पूर्णता का काल क्रमशः एक-एक अन्तर्मुहूर्त्त है।
पर्याप्ति नाम कर्म के उदय से मिलती हैं तथा यह पौद्गलिक शक्ति है इस कारण अजीव है। सबसे कम मनः पर्याप्ति वाले और सबसे अधिक आहार पर्याप्ति वाले जीव है क्योंकि आहार पर्याप्ति सभी जीवो के होती है लेकिन मन:पर्याप्ति केवल संज्ञी जीवो के ही होती है।
*जीवों में पर्याप्तियाँ*
एकेन्द्रिय में प्रथम चार ( मनःपर्याप्ति और भाषा-पर्याप्ति को छोड़कर )।
द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असन्नी तिर्यंच पंचेन्द्रिय में पांच ( मन को छोड़कर )।
देवताओं में भी मन और भाषा के एक साथ होने से पांच पर्याप्ति पाई जाती है।
सन्नी पंचेन्द्रिय अर्थात संज्ञी मनुष्य,तिर्यंच और संज्ञी नारक में छह पर्याप्तियां होती है।
तथा असन्नी मनुष्य में साढ़े तीन पर्याप्तियां होती हैं क्योंकि वे श्वास तो लेते हैं लेकिन छोड़ने से पहले ही उनकी मृत्यु हो जाती है।
*पर्याप्त और अपर्याप्त*
जन्म के समय आहार आदि जितनी पर्याप्तियाँ जिस जीव को बाँधनी है, उनकी पूर्णता कर लेने वाला जीव पर्याप्त एवं अपूर्णता की स्थिति में जीव अपर्याप्त कहलाता है।
Day - 36
*पच्चीस बोल का*
*छठा बोल है - प्राण दस*
*भाग -- 1*
*1 श्रोत्रेन्द्रिय प्राण 2 चक्षुरिन्द्रिय प्राण 3 घ्राणेन्द्रिय प्राण 4 रसनेन्द्रिय प्राण 5 स्पर्शनेन्द्रिय प्राण 6 मनोबल 7 वचनबल 8 कायबल 9 श्वासोच्छ्वास प्राण 10 आयुष्य प्राण*
इस संसार में दो प्रकार के पदार्थ है जीव और अजीव। प्रश्न उठता है जीव और अजीव के बीच में भेद रेखा उत्पन्न करने वाला पदार्थ क्या है। जैन दर्शन के अनुसार पर्याप्ति और प्राण जीव और अजीव की विभाजक रेखा है। इन दोनों का योग ही जीवन हैं और वियोग मृत्यु।
जीव की जीवनी शक्ति को प्राण कहते हैं। इसका संबंध जीव से है। जीवन धारण करने में प्राण शक्ति का उपयोग होता है। इसे परिभाषित करते हुए कहा गया *पर्याप्त्यपेक्षिणी जीवनशक्ति: प्राणा:।* वह अन्तराय कर्म के क्षय-क्षयोपशम भाव से प्राप्त होता है। प्राण अर्थात जीवनी-शक्ति। जिसके संयोग से जीव जीवन-अवस्था को प्राप्त हो और वियोग से मरण-अवस्था को प्राप्त हो, उनको प्राण कहते हैं। प्राण जीवन के बाह्य लक्षण हैं। ये जीव हैं, जीते हैं -- ऐसी प्रतीति प्राणों से ही होती है। प्राणों के बिना कोई भी जीवित नहीं रह सकता। प्राणों की क्रिया होती रहती है -- यही संसारी जीव का जीवन है।
संसार में रहने वाले सभी प्राणी सप्राण होते हैं किंतु सब प्राणियों के प्राणों की संख्या अलग-अलग होती है।
एक इन्द्रिय वाले प्राणियों में चार प्राण पाए जाते हैं दो इंद्रिय वाले जीवों में छह प्राण ,3 इंद्रिय वाले जीवों में सात प्राण ,चार इंद्रिय वाले जीवों में 8 प्राण और संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में 10 प्राण पाए जाते हैं।
सिद्धों में प्राण नहीं पाया जाता।
पाँचों ही इंद्रियों की जो ज्ञान करने की शक्ति है वह पाँच इंद्रिय-प्राण कहलाते हैं। मनन करने, बोलने और शारीरिक क्रिया करने की शक्ति को कहते हैं -- मनोबल, वचनबल और कायबल। बल और प्राण का अर्थ एक ही है पुद्गलों को श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करने और छोड़ने की शक्ति को कहते हैं -- श्वासोच्छ्वास प्राण। अमुक भव में अमुक काल तक जीवित रहने की शक्ति को कहते हैं -- आयुष्य प्राण।
Day - 37
*पच्चीस बोल का*
*छठा बोल है - प्राण दस*
*भाग -- 2*
*1 श्रोत्रेन्द्रिय प्राण 2 चक्षुरिन्द्रिय प्राण 3 घ्राणेन्द्रिय प्राण 4 रसनेन्द्रिय प्राण 5 स्पर्शनेन्द्रिय प्राण 6 मनोबल 7 वचनबल 8 कायबल 9 श्वासोच्छ्वास प्राण 10 आयुष्य प्राण*
पांचवें बोल में हमने पर्याप्ति के बारे में जाना था और छठे बोल में प्राण के बारे में ।
इनको अच्छे से समझने के लिए दोनों के भेद और आपसी संबंध को समझना भी आवश्यक है।
*प्राण और पर्याप्ति में भेद*
प्राण जीव की शक्ति है और पर्याप्ति जीव द्वारा ग्रहण किए हुए पुद्गलों की शक्ति है। पर्याप्ति सहकारी कारण है और प्राण कार्य है। आत्मा की जितनी भी मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति होती है, वह सब बाह्य द्रव्यापेक्षी होती है -- पुद्गलों की सहायता से होती है। वायुयान आकाश में तभी घूम सकता है जब कि उसे ईंधन आदि बाह्य सामग्री की सहायता मिले। जीव की मन, वचन और शरीर से संबंध रखने वाले कोई भी ऐसी प्रवृत्ति नहीं जो पुद्गल द्रव्य की सहायता के बिना हो सके। अतएव संसारी अवस्था में जीव और पुद्गल का घनिष्ठ संबंध रहता है। जीव अदृश्य पदार्थ है और पुद्गल दृश्य पदार्थ। इसी कारण कई व्यक्तियों को जीव के अस्तित्व के विषय में संदेह होता है, पर उन्हें इतना तो समझ लेना चाहिए कि जो कुछ खाने-पीने, चलने-फिरने बोलने आदि की प्रवृत्ति दिखती है, वह किया है। उसका कर्ता अदृश्य जीव है। जीव जब तक शरीर में रहता है तब तक ये क्रियाएँ होती रहती है। इन क्रियाओं का संपादन करने वाली शक्ति प्राण या जीवन-शक्ति कहलाती है और इन क्रियाओं के संपादन में जिन पौद्गलिक शक्तियों की सहायता मिलती है, उन्हें पर्याप्ति कहा जाता है।
इसका तात्पर्य यह हुआ की प्राण जीवनी शक्ति है और पर्याप्ति पौद्गलिक शक्ति।
*प्राण का पर्याप्ति से संबंध*
प्रथम पाँच प्राणों का संबंध इंद्रिय पर्याप्ति से हैं। मन, वचन और कायबल का संबंध क्रमशः मन, भाषा व शरीर पर्याप्ति से है। आयुष्य प्राण का संबंध आहार-पर्याप्ति से हैं। श्वासोच्छ्वास प्राण का संबंध श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति से है।
*जीवों में प्राण*
एकेन्द्रिय में चार प्राण पाये जाते हैं -- स्पर्शनेन्द्रिय प्राण, कायबल प्राण, श्वासोच्छ्वास प्राण और आयुष्य प्राण।
द्वीन्द्रिय में छह प्राण पाये जाते हैं -- चार एकेन्द्रियवत् तथा रसनेन्द्रिय और वचन बल प्राण।
त्रीन्द्रिय में सात प्राण पाये जाते हैं-- छह पूर्ववत् और एक घ्राणेन्द्रिय ।
चतुरिन्द्रिय में आठ प्राण पाये जाते हैं -- पूर्ववत् सात और चछक्षुरिन्द्रिय प्राण।
असन्नी मनुष्य में साढ़े सात प्राण पाये जाते हैं -- पाँच इन्द्रिय प्राण, कायबल, आयुष्य प्राण ये सात पूर्ण और श्वासोच्छ्वास अपूर्ण।
असंज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय में नौ प्राण पाये जाते हैं -- मन को छोड़कर।
सात नारकी, सर्व देवता, संज्ञी मनुष्य, संज्ञी तिर्यंच में दसों प्राण पाये जाते हैं।
Day - 38
*पच्चीस बोल का*
*छठा बोल - प्राण दस*
*भाग -- 3*
*1 श्रोत्रेन्द्रिय प्राण 2 चक्षुरिन्द्रिय प्राण 3 घ्राणेन्द्रिय प्राण 4 रसनेन्द्रिय प्राण 5 स्पर्शनेन्द्रिय प्राण 6 मनोबल 7 वचनबल 8 कायबल 9 श्वासोच्छ्वास प्राण 10 आयुष्य प्राण*
प्राण या जीवन-शक्ति को समझने के लिए मृत्यु को समझना जरूरी है। वर्तमान शरीर-विज्ञान के अनुसार दिमाग, हृदय और फेफड़ों का कार्य-संचालन बंद हो जाना ही मृत्यु है।
जब इस मानव यंत्र के खास-खास पुर्जे जीर्ण होते हैं तब यह समूचा यंत्र बंद हो जाता है। मानव शरीर के मुख्य अंग ह्रदय, फेफड़ा तथा दिमाग हैं। जब किसी बीमारी या दुर्घटना से यह तीनों जख्मी या जीर्ण हो जाते हैं या इनकी शक्ति क्षीण हो जाती है तब इनका काम बंद हो जाता है। यही है मृत्यु।
परंतु इस सिद्धांत के विपरीत हमें ऐसे भी अनेक उदाहरण मिलते हैं कि ह्रदय की गति कई घंटों तक बंद रहने के बाद भी मनुष्य जीवित रह सकता है। अड़तालीस घंटों तक श्वास की गति एवं हृदय की गति एकदम बंद रहने के पश्चात भी मानव जीवित पाया गया है। ऐसे भी कई उदाहरण हैं, जिनमें मानव चालीस दिनों तक संदूक में ( जिसमें हवा के प्रवेश और निकास का कोई भी छिद्र न हो ) बंद रहने के बाद भी जीवित निकला है।
जैन सिद्धांत के अनुसार जीवन-शक्ति के स्रोत दिमाग, ह्रदय और फेफड़े ही नहीं, किंतु दस प्राण हैं। उन दसों में किसी एक शक्ति का काम बंद हो जाने पर मृत्यु नहीं होती। यदि आयुष्य प्राण क्रियाशील है तो किसी एक शक्ति का काम बंद हो जाने पर भी प्राणी जीवित रह सकता है। उक्त उदाहरण में चालीस दिनों तक संदूक में बंद प्राणी के पांचों इन्द्रियां, ह्रदय, फेफड़े और दिमाग -- सभी ने काम बंद कर दिया था। बाह्य पौद्गलिक सामग्री के अभाव में वे अपने काम नहीं कर सकते थे फिर भी उस व्यक्ति में आयुष्य-प्राण अपनी क्रिया कर रहा था और उसी के आधार पर जीवन टिका हुआ था। ज्योंही उसे बाह्य वातावरण का अनुकूल योग मिला, उसकी अवरूद्ध जीवन-शक्तियाँ पुनः क्रियाशील हो गई।
शरीर की समस्त क्रियाएँ और समस्त अंगों का कार्य संचालन तभी तक हो सकता है जब तक आयुष्य-प्राण क्रियाशील होता है। उसके समाप्त होते ही समस्त क्रियाएं संपूर्ण रुप से बंद हो जाती है और हम कहते हैं कि उस प्राणी की मौत हो चुकी है।
*आगे की पोस्ट में जानने का प्रयास करेंगे आयु के दो प्रकार अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय के बारे में।*
Day - 39
*पच्चीस बोल का*
*छठा बोल है - प्राण दस*
*भाग -- 4*
*1 श्रोत्रेन्द्रिय प्राण 2 चक्षुरिन्द्रिय प्राण 3 घ्राणेन्द्रिय प्राण 4 रसनेन्द्रिय प्राण 5 स्पर्शनेन्द्रिय प्राण 6 मनोबल 7 वचनबल 8 कायबल 9 श्वासोच्छ्वास प्राण 10 आयुष्य प्राण*
प्रश्न उठता है हष्ट-पुष्ट शरीर, दिमाग, ह्रदय, फेफड़े, पाँचों इंद्रियों के स्वस्थ होने और कोई खास बीमारी, दुर्घटना नहीं होने पर भी प्राणी अचानक क्यों मर जाता है ? वहीं दूसरी ओर शरीर वृद्ध है। देह जर्जरित है। भयानक विपत्ति आ पड़ी, भयंकर बीमारी भी हुई है, फिर भी वह नहीं मरता, जीवन-काल को बढ़ाएं ही जा रहा है। इसका कारण क्या है ?
ऐसा भी कहा जाता है कि मनुष्य की जितनी आयु होती है, उतना ही वह जीता है। आयुष्य को कोई भी एक मिनट घटा-बढ़ा नहीं सकता। फिर भी हम देखते हैं कि अग्नि में कूदने से निश्चय ही मृत्यु होगी, तीव्र विष खाने से मरना ही होगा। इसका रहस्य क्या है ?
इन सब बातों का उत्तर है आयु के पुद्गल स्वल्प होते हैं तब स्वस्थ प्राणी की भी दुर्घटना के बिना ही मृत्यु हो जाती है।
आयु के पुद्गल अधिक होते हैं तब दुर्घटना और रोग होने पर भी प्राणी आश्चर्यपूर्ण ढंग से जीवित रह जाता है।
*आयु के दो प्रकार होते है --*
*(1) अपवर्तनीय --* जो आयु बन्धकालीन स्थिति के पूर्ण होने से पहले भी भोगी जा सके, अपवर्तनीय आयु है।
*(2) अनपवर्तनीय --* जो आयु बन्धकालीन स्थिति के पूर्ण होने से पहले न भोगी जा सके, अनपवर्तनीय आयु है।
आगामी जन्म की आयु वर्तमान जन्म में ही निश्चित होती है। उस समय अगर परिमाण मंद हो तो आयु का बंध शिथिल होता है, जिससे निमित्त मिलने पर आयु की बंधी हुई काल-मर्यादा घट जाती है। इसके विपरीत अगर परिमाण तीव्र हो तो आयु का बंधन भी गाढ़ होता है, जिससे निमित्त मिलने पर भी बंधी हुई काल-मर्यादा घटती नहीं। तीव्र परिणाम-जनित गाढ़ बंध वाली आयु शस्त्र, विष, दुर्घटना आदि के प्रयोग होने पर भी अपनी नियत काल-मर्यादा से पहले पूर्ण नहीं होती, परंतु मंद परिमाण-जनित शिथिल बंध वाली आयु शस्त्र, विष और दुर्घटना का योग होते ही अपनी नियत काल-मर्यादा समाप्त होने के पहले ही अन्तर्मुहूर्त्त मात्र में भोग ली जाती है। आयु के इस शीघ्र भोग को अपवर्तना या अकाल-मृत्यु कहते हैं और नियत स्थिति तक आयु को भोग लेने को अनपवर्तना, काल-मृत्यु या स्वाभाविक मृत्यु कहते हैं।
Day - 40
*पच्चीस बोल का*
*छठा बोल है - प्राण दस*
*भाग -- 5*
*1 श्रोत्रेन्द्रिय प्राण 2 चक्षुरिन्द्रिय प्राण 3 घ्राणेन्द्रिय प्राण 4 रसनेन्द्रिय प्राण 5 स्पर्शनेन्द्रिय प्राण 6 मनोबल 7 वचनबल 8 कायबल 9 श्वासोच्छ्वास प्राण 10 आयुष्य प्राण*
अपवर्तनीय आयु सोपक्रम ( उपक्रम-सहित ) होती है। यहां आयुष्य कर्म की उदीरणा हो सकती है। तीव्र शस्त्र, तीव्र अग्नि आदि जिन निमित्तों से अकाल-मृत्यु होती है, उन निमित्तों का प्राप्त होना उपक्रम है।
अनपवर्तनीय आयु सोपक्रम और निरूपक्रम -- दो प्रकार की होती है। इस आयु को अकाल-मृत्यु लाने वाले उक्त निमित्तों की प्राप्ति होती भी है और नहीं भी होती। उक्त निमित्त मिलने पर भी अनपवर्तनीय आयु वालों की आयु पूर्ण नहीं होती, वे जीवित ही रहते हैं। वे अकाल-मृत्यु किसी भी हालत में प्राप्त नहीं कर सकते। हरेक प्रकार की दुर्घटना में वे बच निकलते हैं।
नारक, देव, असंख्यात वर्षजीवी मनुष्य और तिर्यंच, चर्मशरीरी और त्रिषष्टिशलाकापुरूष -- तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, प्रतिवासुदेव, अनपवर्तनीय आयु वाले होते हैं। उनकी आयुस्थिति जितनी नियत होती है उतनी ही रहती है। इसके पहले वे किसी भी हालत में मर नहीं सकते।
सामान्य मनुष्य और तिर्यंच अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय -- दोनों प्रकार की आयु वाले होते हैं। निमित्त मिलने पर उनकी अकाल-मृत्यु भी हो भी सकती है और निमित्त न मिलने पर अकाल-मृत्यु नहीं भी होती।
कर्म वाद के अनुसार इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार होगा कि जो आयुष्य-कर्म चिरकाल तक भोगा जाने वाला होता है, वह एक साथ जल्दी ही भोग लिया जाता है। उसका कोई भी भाग बिना भोगे नहीं छूटता।
*उदाहरणार्थ --*
(1) जैसे यदि घास की सघन राशि में एक तरफ से छोटी-सी अग्नि की चिंगारी छोड़ दी जाए तो वह चिंगारी एक एक तिनके को क्रमशः जलाते-जलाते उस सारी राशि को जलाने में काफी समय लगा सकती है, परंतु वही चिंगारी अगर घास की शिथिल राशि में छोड़ दी जाए तो कुछ ही क्षणों में वह समूची राशि को जला डालेगी।
(2) दो समान वस्त्र के टुकड़े समान पानी में भिगोए औरएक कपड़े को फैलाकर सुखाये और दूसरे को समेटकर। पहला कपड़ा जल्दी सूखेगा और दूसरा बहुत देरी से। पानी का परिमाण और कपड़े की शोषण-क्रिया समान होने पर भी कपड़े के संकोच और फैलाव के कारण सूखने में देरी और जल्दी का फर्क पड़ता है। इसी प्रकार समान परिमाणयुक्त अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय आयु के भोगने में भी सिर्फ देरी और जल्दी का ही अंतर पड़ता है और कुछ नहीं।
*प्राण और प्राण वायु में अंतर*
प्राण जीवनी शक्ति है जबकि प्राण वायु पौद्गलिक शक्ति है और वह प्राण की सहयोगी है।
मनोबल प्राण के जीव कम तथा आयुष्य प्राण के जीव अधिक है।
Day - 41
*पच्चीस बोल का*
*सातवां बोल है - शरीर पांच*
*भाग -- 1*
*1 औदारिक 2 वैक्रिय 3 आहारक 4 तैजस 5 कार्मण*
जिसके द्वारा चलना, फिरना, खाना-पीना आदि क्रियाएं होती है, *क्षीर्यते इति शरीरं* प्रतिक्षण जीर्ण-शीर्ण होना जिसका स्वभाव है, *सुख-दुःखानुभव साधनं शरीरं* जिसके द्वारा सुख-दुःख की अनुभूति होती है, जो शरीर नाम कर्म के उदय से मिलता है और संसारी आत्माओं का निवास-स्थान होता है, उसे शरीर कहते हैं।
आत्मा अरूपी,अमूर्त्त है। उसको हम देख नहीं सकते। पर संसारी आत्माएं किसी दृष्टिकोण से रूप-युक्त भी मानी जाती है। इसलिए वे हमारे प्रत्यक्ष भी हैं। संसार की समस्त आत्माओं के शरीर होता है। शरीर को हम देखते हैं, तब आत्मा का हमें अपने आप बोध हो जाता है।
आत्मा स्वयं शरीर का निर्माण कर उसको अपनी समस्त जीवन-क्रिया का साधन बनाती है, अतः उसके चले जाने के बाद उन क्रियाओं का नाश हो जाता है। यह निश्चय है कि शरीर आत्मा से सर्वथा पृथक् है। आत्मा जीव है और शरीर अजीव।आत्मा ज्ञानमय है और शरीर ज्ञान-शून्य है -- पौद्गलिक है। आत्मा को पौद्गलिक सुख-दुःख का जितना भी अनुभव होता है वह सब शरीर के द्वारा ही होता है।
*(1) औदारिक शरीर --* जो शरीर स्थूल पुद्गलों से निष्पन्न होता है, वह औदारिक शरीर है। औदारिक शरीर आत्मा से अलग हो जाने के बाद भी टिका रहता है। औदारिक शरीर का छेदन-भेदन किया जा सकता है परंतु अन्य शरीरों में छेदन-भेदन संभव नहीं है। मोक्ष की प्राप्ति भी
केवल औदारिक शरीर से ही हो सकती है। औदारिक शरीर मे हाड, मांस, रक्त आदि होते हैं। इनका स्वभाव है गलना, सड़ना एवं विनाश होना। मनुष्य,एवं तिर्यंच में औदारिक शरीर होता है
*क्रमशः ...........*
*लिखने में कुछ गलती हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं।*
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