लब्धि

लब्धियाँ

अट्ठावीस लब्धियाँ—१. आमौषधि लब्धि 2. विपँडौषधिलब्धि 3. खेलौषधिलब्धि 4. जल्लौषधि लब्धि 5. सौषधिलब्धि 6. संभिन्नश्रोतोलब्धि 7. अवधिलब्धि 8. ऋजुमतिलब्धि 9. विपुलमतिलब्धि 10. चारणलब्धि 11. आशीविषलब्धि 12. केवलीलब्धि 13. गणधरलब्धि 14. पूर्वधरलब्धि 15. अरहंतलब्धि 16. चक्रवर्तीलब्धि 17. बलदेवलब्धि 18. वासुदेवलब्धि 19. क्षीरमधुसर्पि-आसवलब्धि 20. कोष्ठकबुद्धिलब्धि 21. पदानुसारीलब्धि 22. बीजबुद्धिलब्धि 23. तैजसलब्धि 24. आहारक लब्धि 25. शीतलेश्यालब्धि 26. वैक्रियलब्धि 27. अक्षीणमहानसीलब्धि एवं 28. पुलाकलब्धि-ये अट्ठावीस लब्धियाँ हैं। 


परिणाम विशेष और तप विशेष के प्रभाव से जीव को ये लब्धियाँ प्राप्त होती हैं lआमर्ष अर्थात् संस्पर्श विप्रुष अर्थात् मूत्र और विष्ठा। अन्य आचार्यों के अनुसार विड् अर्थात् विष्ठा और पत्ति यानि पेशाब अर्थ है। विप्रुड् से अन्य सुगन्धित अवयवों का ग्रहण होता है जो रोगादि को उपशान्त करने में समर्थ हैं जिस लब्धि के प्रभाव से जीव अपने शरीर के संपूर्ण रोमों व छिद्रों द्वारा सुन सकता है अथवा सभी विषयों को सभी इन्द्रियों से ग्रहण कर सकता है अथवा एक साथ सुनाई देने वाले वादित्र आदि के शब्दों को अलग-अलग करके जान सकता है वह लब्धि संभिन्नश्रोतस् कहलाती है l ऋजु अर्थात् सामान्य, उसको ग्रहण करने वाला मनपर्यवज्ञान 'ऋजुमति' है। जैसे कोई व्यक्ति घड़े का विचार कर रहा है तो 'ऋजुमति मनपर्यवी' इतना जान सकता है कि 'अमुक व्यक्ति घड़े का विचार कर रहा है' विशेष कुछ भी नहीं जान सकता। विपुलमति वस्तुगत विशेष धर्मों को जानता है। अर्थात् घड़े को जानने के साथ-साथ उसकी पर्यायों को भी जानता है l आशी अर्थात् दाढ़ा, उसमें रहने वाला जहर 'आशीविष' कहलाता है। वह जहर दो प्रकार का है-कर्म और जाति के भेद से। इन दो भेदों के भी अनेक भेद और चार भेद हैं l दूध, मधु और घृत तुल्य उपमा वाले मधुर वचन जिस लब्धि के प्रभाव से निकलते हों, वह क्षीरमधुसर्पिराश्रवलब्धि है। कोठी में पड़े हुए धान्य की तरह जिसके सूत्र और अर्थ हों वह कोष्ठकबुद्धिलब्धिधर 

है l जिसके प्रभाव से एक सूत्र पढ़कर स्वयं की बुद्धि द्वारा अनेक सूत्रों का ज्ञान कर सकता है वह पदानुसारी लब्धि है। एक पद के अर्थ का बोध होने पर अनेक पद के अर्थ का बोध कराने वाली लब्धि बीजबुद्धि है l जिसके द्वारा लाई गई भिक्षा, जब तक वह स्वयं भोजन न करे तब तक लाखों व्यक्ति भोजन कर लें फिर भी शेष नहीं होती, उसके खाने पर ही भिक्षा पूर्ण होती है, वह अक्षीणमहानसीलब्धिधर , है। भव्य पुरुष को पूर्वोक्त सभी लब्धियाँ होती हैं। भव्य स्त्रियों को जितनी लब्धियाँ होती हैं वे आगे कहेंगे I 


विवेचनलब्धि = शुभ-अध्यवसाय या संयम की आराधना द्वारा जन्य, कर्म के क्षय या क्षयोपशम से उत्पन्न विशिष्ट आत्मिक शक्ति 'लब्धि' कहलाती है। मुख्य रूप से लब्धियाँ अट्ठावीस हैं। इनके अतिरिक्त जीवों के शुभ-शुभतर व शुभतम परिणाम विशेष के द्वारा अथवा असाधारण तप के प्रभाव से अनेकविध लब्धियाँ ऋद्धि विशेष जीवों को प्राप्त होती हैं।

(1) आमौषधि लब्धि -आमर्ष अर्थात् स्पर्श  जिस लब्धि के प्रभाव से लब्धि-विशिष्ट आत्मा के कर आदि का स्पर्श होने पर स्व और पर के रोग शान्त हो जाते हैं वह आमौषधि लब्धि कहलाती है l


(2) विप्रुडौषधि लब्धि—यहाँ प्रसिद्ध पाठ है 'मुत्तपुरीसाण विप्पुसो वाऽवि। ‘विप्रुड्' का अर्थ है अवयव अर्थात् मूत्र व पुरीष (विष्ठा) के अवयव विपुड् कहलाते हैं। 'विप्पुसो वाऽवि' ऐसा पाठअन्यत्र कहीं भी उपलब्ध न होने से उपेक्षित है। यदि यह पाठ माने तो 'विगुड्' का अर्थ होगा मूत्र-पुरीष के ही अवयव। क्योंकि 'वाऽवि' में 'वा' शब्द समुच्चयार्थ है, 'अपि' शब्द एवकारार्थ है तथा क्रम की भिन्नता का सूचक है। किसी का कथन है, कि विड् अर्थात् विष्ठा और ‘पत्ति' का अर्थ अश्रवण होता है। जिस लब्धि के प्रभाव से मूत्र-पुरीष के अवयव सुगन्धित तथा स्व-पर का रोग शमन करने में समर्थ होते हैं वह विप्रुडौषधि लब्धि है। सूत्र सूचक होने से यहां खेल, जल्ल, केश, नखादि के अवयवों का भी ग्रहण होता है। 


(3) खेलौषधि लब्धि—जिस लब्धि के प्रभाव से व्यक्ति का श्लेष्म सुगंधित एवं रोगनाशक होता है। 


(4) जल्लौषधि लब्धि—जिस लब्धि के प्रभाव से व्यक्ति के कान, नाक, आँख, जीभ एवं शरीर का मैल सुगंधित एवं रोगनाशक होता है।


 (5) सर्वौषधि लब्धि—जिस लब्धि के प्रभाव से व्यक्ति के मल-मूत्र, श्लेष्म, नाक, कान आदि का मैल, केश और नख सभी सुगन्धित एवं रोगापहारी होते हैं। 


(6) संभिन्नश्रोतो लब्धि-जिस लब्धि के प्रभाव से शरीर के सभी प्रदेशों में श्रवण-शक्ति उत्पन्न हो जाती है अथवा जिस लब्धि के प्रभाव से पाँच-इन्द्रियों से ग्राह्य-विषय को एक ही इन्द्रिय से ग्रहण करने की शक्ति पैदा हो जाती है, अथवा जिस लब्धि से बारह योजन तक विस्तृत चक्रवर्ती के सैन्य में बजने वाले विविध वाद्यों विविध स्वरों को व्यक्ति एक ही साथ अलग-अलग करके सुन सकता 


(7) अवधि लब्धि—जिस लब्धि से इन्द्रियों की सहायता के बिना मात्र आत्मशक्ति से मर्यादा में रहे हुए रूपी द्रव्यों का ज्ञान होता है। 


(8) ऋजुमति लब्धि-यह मन:पर्यवज्ञान का भेद है। मनोगत भाव को सामान्य रूप से ग्रहण करने वाली बुद्धि ऋजुमति है। उदाहरणार्थ-कोई व्यक्ति घड़े के बारे में सोच रहा है, तो ऋजुमति अपने ज्ञान से इतना जान सकता है कि उस व्यक्ति ने घड़े का चिन्तन किया है, किन्तु वह यह नहीं जान सकता कि वह घड़ा कहाँ का है? किस द्रव्य का है? किस रंग का है? इस ज्ञान की विषय सीमा ढाई अंगुल न्यून ढाई द्वीप में रहे हुए संज्ञी पंचेन्द्रिय के मनोगत भाव हैं। 


(9) विपुलमति लब्धि-यह भी मन:पर्यवज्ञान का भेद है। यह मनोगत भावों को ग्रहण करता है, किन्तु चिन्तनीय वस्तु को अपनी सभी पर्यायों (विशेषताओं) के साथ ग्रहण करता है, जैसे किसी व्यक्ति ने घड़े का चिंतन किया, तो विपुलमति ‘इसने घड़े का चिंतन किया है' यह जानने के साथ यह भी जानता है कि इसके द्वारा सोचा हुआ घड़ा सोने का है, पाटलिपुत्रनगर का है, आज का बना हुआ है, महान् है, भीतर घर में रखा हुआ है। इस प्रकार अनेक विशेषणों से युक्त 'घट' को जानता है l


(10) चारण लब्धि-जिस लब्धि के प्रभाव से मानवीय शक्ति की सीमा से परे के क्षेत्रों में भी लब्धिधारी का गमनागमन होता है l


(11) आशीविष लब्धि—आशी = दाढ़, विष = जहर अर्थात् जिनकी दाढ़ों में भयंकर जहर होता है वे 'आशीविष' कहलाते हैं। इसके दो भेद हैं-कर्म आशीविष और जाति आशीविष  (i) कर्म आशीविष-पंचेन्द्रिय तिर्यंच, मनुष्य और आठवें सहस्रार देवलोक तक के देवता आदि अनेक प्रकार के जीव कर्म आशीविष हैं। ये जीव तप-चारित्र आदि अनुष्ठान के द्वारा अथवा अन्य किसी गुण से आशीविष साँप, बिच्छु, नाग आदि से साध्य-क्रिया करने में समर्थ होते हैं। अर्थात् ये शाप आदि देकर दूसरों का नाश करते हैं। देवों में यह लब्धि अपर्याप्त-अवस्था में ही होती है। कोई जीव आक्-भव सम्बन्धी लब्धि के संस्कार को लेकर देवता में उत्पन्न होता है उसे ही अपर्याप्तावस्था में यह लब्धि रहती है। पर्याप्त अवस्था में लब्धि-निवृत्त हो जाती है। जो देवता पर्याप्तावस्था में शापादि प्रदान करते हैं, वह उनकी भव-प्रत्ययिक शक्ति का परिणाम है और ऐसी शक्ति सभी देवों में होती है। जबकि लब्धि वही कहलाती है, जो विशिष्ट साधना एवं आराधना से उत्पन्न होती है  (ii) जाति आशीविष के 4 प्रकार हैं (अ) वृश्चिक - बिच्छू के जहर की असर अर्ध-भरत प्रमाण शरीर में हो सकती (ब) मेंढक (स) सर्प (द) मनुष्य - मेंढक के जहर की असर भरत प्रमाण शरीर में हो सकती है। - सर्प के विष की असर जंबू-द्वीप प्रमाण शरीर में हो सकती है। - मनुष्य के जहर की असर ढाई-द्वीप प्रमाण शरीर में हो सकती है l


(13) गणधर लब्धि-जिस लब्धि के प्रभाव से व्यक्ति द्वादशांगी का प्रणेता तीर्थंकर परमात्मा का प्रधान शिष्य गणधर बनता है। 


(14) पूर्वधर लब्धि-तीर्थंकर परमात्मा द्वादशांगी का मूल आधारभूत जो सर्वप्रथम उपदेश गणधरों को देते हैं, वह पूर्व कहलाता है। गणधर उस उपदेश को सूत्र रूप में व्यवस्थित करते हैं। पूर्व की संख्या चौदह है, जिन्हें दस से चौदह पूर्व का ज्ञान होता है, वे पूर्वधर कहलाते हैं। जिस लब्धि के प्रभाव से पूर्वो का ज्ञान प्राप्त होता है, वह पूर्वधर लब्धि कहलाती है। 


(15) अर्हत् लब्धि-जिस लब्धि के प्रभाव से अर्हत् पद प्राप्त होता है।


 (16) चक्रवर्ती लब्धि—जिस लब्धि के प्रभाव से चक्रवर्ती पद की प्राप्ति होती है। चक्रवर्ती चौदह रत्न और छ: खण्ड का स्वामी होता है।


 (17) बलदेव लब्धि-जिस लब्धि के प्रभाव से बलदेव पद की प्राप्ति होती है। 


(18) वासुदेव लब्धि—जिस लब्धि के प्रभाव से वासुदेव पद की प्राप्ति होती है। वासुदेव सात रत्न और त्रिखण्ड का अधिपति होता है। 


(19) क्षीरमधुसर्पिराश्रव लब्धि-जिस लब्धि के प्रभाव से वक्ता का वचन, श्रोता को दूध, मधु और घृत के स्वाद की तरह मधुर लगता है जैसे, वज्रस्वामी आदि के वचन सुनने में अति मधुर लगते थे lयहाँ यह तात्पर्य है कि गन्ने का चारा चरने वाली एक लाख गायों का दूध पचास हजार गायों को....उनत्या दूध..पच्चीस हजार गायों को....इस प्रकार आधा-आधा करके अंत में एक गाय को पिलाने पर उसका दूध एवं उससे बना मंद आंच पर पकाया हुआ, विशिष्ट वर्णादि से युक्त घी कैसा मधुर होता है, उससे अधिक मधुर-वचन, इस लब्धि के प्रभाव से मिलता है। ऐसा दूध और घी मन की संतुष्टि एवं शरीर की पुष्टि करने वाला होता है, वैसे इस लब्धि से संपन्न आत्मा का वचन, श्रोता के तन-मन को आह्लादित करता है। अमृताश्रवी, इक्षुरसाश्रवी आदि लब्धियाँ भी इसी प्रकार समझना। अथवा-जिस लब्धि के प्रभाव से पात्र में आया हुआ स्वादरहित भी आहार, दूध, घी एवं मधु की तरह स्वादिष्ट एवं पुष्टिकर बन जाता है।


(20) कोष्ठक-बुद्धि कोठी में डाला हुआ अनाज बहुत समय तक सुरक्षित रह सकता है, वैसे जिस लब्धि के प्रभाव से सुना हुआ या पढ़ा हुआ शास्त्रार्थ चिरकाल तक यथावत् याद रहता है।


(21) पदानुसारी लब्धि—जिस लब्धि के प्रभाव से एक पद सुनकर अनेक पदों का ज्ञान हो जाता है।


(22) बीज-बुद्धि—जिस लब्धि की शक्ति से बीज-भूत एक अर्थ को सुन कर अश्रुत अनेक , अर्थों का ज्ञान होता है। यह लब्धि गणधर-भगवन्तों को होती है। वे तीर्थंकर परमात्मा के मुख से अर्थ-प्रधान उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप त्रिपदी को सुनकर अनन्त अर्थों से भरी हुई द्वादशांगी की रचना करते हैं।


(23) तेजोलेश्या—जिस लब्धि से, आत्मा क्रुद्ध होकर अपने तैजस्-पुद्गल को ज्वाला के रूप में बाहर निकालकर अपनी अप्रिय वस्तु, व्यक्ति आदि को भस्म कर सकता है। 


(24) शीतलेश्या—जिस लब्धि से आत्मा अपने शीत तेज-पुद्गलों को तेजोलेश्या से जलते हुए आत्मा पर डालकर, उसे भस्म होने से बचा सकता है। भगवान महावीर के समय में कूर्म गाँव में अति करुणाशील वैशंपायन नाम का तपस्वी अज्ञानतप करता था। स्नानादि के अभाव में उसके सिर में अगणित जुएँ पड गई थीं। उसे देखकर गोशालक ने 'यका शय्यातर' (जुओं का जाला) कहकर उसका हास किया था। इससे अत्यन्त क्रुद्ध होकर उस तपस्वी ने गोशालक को भस्म करने हेतु तेजोलेश्या का प्रयोग किया। तेजोलेश्या से गोशालक की रक्षा करने के लिये अत्यंत करुणाशील भगवान महावीर ने तत्काल शीतलेश्या का प्रयोग किया। तेजोलेश्या की सिद्धि छट्ठ के पारणे छट्ठ करने वाले, पारणे में एक मुट्ठी उड़द के बाकुले एवं चुल्लू भर जल लेने वाले साधक को छमास में तेजोलेश्या सिद्ध होती है। 


(25) आहारक लब्धि—प्राणीदया, तीर्थंकर की ऋद्धि एवं अपने संशयों का निराकरण करने के लिये जिस लब्धि से चौदह पूर्वधर साधक अन्य क्षेत्र में जाने योग्य एक हाथ प्रमाण का आहारक शरीर बनाते हैं।


(26) वैक्रिय लब्धि-जिस लब्धि से मनचाहे रूप बनाने की शक्ति प्राप्त होती है। यह लब्धि मनुष्य और तिर्यंच को आराधनाजन्य एवं देव-नरक को सहज होती है। 


(27) अक्षीणमहानसी लब्धि-जिस लब्धि-शक्ति से छोटे से पात्र में लायी हुई भिक्षा लाखों लोगों को तृप्त कर देती है, फिर भी पात्र भरा रहता है। पात्र तभी खाली होता है, जब लब्धिधारी स्वयं उस भिक्षा का उपयोग करता है।


(28) पुलाक लब्धि—जिस लब्धि के प्रभाव से साधक शासन व संघ की सुरक्षा के लिये चक्रवर्ती की सेना से भी अकेला जूझ सकता है। पूर्वोक्त अट्ठावीस लब्धियों के अतिरिक्त अन्य भी कई लब्धियाँ हैं, जैसे 

(i) अणुत्व लब्धि-जिस शक्ति से साधक अपना शरीर अणु जितना बनाकर मृणालतंतु में प्रवेश कर सकता है और वहाँ चक्रवर्ती की तरह सुखभोग कर सकता है। 

(ii) महत्त्व लब्धि—मेरु की तरह महान् शरीर बनाने की शक्ति विशेष 

(iii) लघुत्व लब्धि-शरीर को वायु से भी हल्का बनाने की विशिष्ट शक्ति 

(iv) गुरुत्व लब्धि-शरीर को वज्र से भी भारी बनाने की शक्ति विशेष 

(v) प्राप्ति लब्धि-अपने स्थान पर बैठे-बैठे ही अपने अंगोपांगों को इच्छित-प्रदेश तक फैलाने की विशिष्ट शक्ति। 

(vi) प्राकाम्य लब्धि जल में स्थल की तरह और स्थल में जल की तरह चलने की विशिष्ट शक्ति l 

(vii) वशित्व लब्धि-प्राणीमात्र को वश करने वाली विशिष्ट शक्ति।

 (viii) अप्रतिघातित्व लब्धि-पर्वत आदि के व्यवधान को भेदकर निराबाध गमन-आगमन कराने वाली विशिष्ट शक्ति। 

(ix) अन्तर्धान लब्धि-अदृश्य करने वाली विशिष्ट शक्ति l (x) कामरूपित्व लब्धि-एक साथ इच्छित अनेक रूप बनाने की विशिष्ट शक्ति।


किसके कितनी लब्धि होती है?


भव्य पुरुष-सभी लब्धियाँ होती है l


भव्यस्त्री -अर्हत्, चक्रवर्ती, बलदेव,  वासुदेव, संभिन्न-श्रोता,चारण, पूर्वधर,गणधर पुलाक और आहारक इन दस लब्धियों को छोड़कर शेष सभी लब्धियाँ होती है भगवान मल्लिनाथ स्त्री रूप में तीर्थंकर बने यह आश्चर्यजनक घटना है l


अभव्य पुरुष-  अर्हत् ,केवली ऋजुमति,  विपुलमति, चक्रवर्ती,  , बलदेव, वासुदेव, संभिन्न-श्रोता, चारण, पूर्वधर, गणधर, पुलाक और आहारक इन तेरह को छोड़कर शेष सभी लब्धियाँ होती   हैं। 


अभव्य स्त्री- अभव्य पुरुष में नहीं होने वाली तेरह और मधुघृत सर्पिराश्रव = चौदह  लब्धियाँ नहीं होती है l

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

भगवान पार्श्वनाथ प्रश्नोत्तरी

जैन प्रश्नोत्तरी

सतियाँ जी 16