कोशा, एक अदभुत व्यक्तित्व,

 कोशा,


एक अदभुत व्यक्तित्व,


कीचड़ में रहकर भी कमल अशुचियों से अलिप्त रहकर अपना छोटा सा जीवन अन्यो को सौंदर्य, महक देकर, प्रभु चरणों मे समर्पित रहकर सार्थक कर लेता है । ठीक उसी तरह राजनर्तकी या गणिका समुदाय में रहकर भी कोशा ने निमित्त मिलते ही अपने कल्याण का यथासंभव मार्ग सुनिश्चित कर लिया इतना ही नही परन्तु अन्य पतितो को भी पतन से रोककर उनका जीवन उर्ध्वगामी बनाने का प्रयास किया।


कोशा ने श्राविका व्रत ग्रहण कर उसे दृढ़तापूर्वक पालन किया। 


जिनशासन के सती रत्नों के कुछ दृष्टांत की श्रेणी पूर्ण हुई, अब हम थोड़ा अब कोशा के व्यक्तित्व को जानते है।


वीरनिर्वाण की दूसरी शताब्दी की यह घटना है।

पाटलिपुत्र में राजा नंद के राज्य में जब शकडाल महामंत्री का सूर्य प्रखर ताप से तप रहा था । उस समय पाटलिपुत्र में एक कुशल वाकपटु, सौंदर्य में अप्सरा सम, नैसर्गिक अभिनयकला में निपुण, अवसर अनुसार बाहोश नर्तकी कोशा को राज्याश्रय प्राप्त हुआ था। 


शकडाल मंत्रीश्वर के ज्येष्ठ पुत्र स्थूलिभद्र जब सर्व विद्याओं में निपुण बन गए ,  तब शकडाल मंत्री ने संसार के भोगमार्ग से भी स्थूलिभद्र अनभिज्ञ न रहे इस उद्देश्य को लेकर उसे कोशा के यहां रखा। मुग्धावस्था में साहचर्य के परिणाम स्वरूप दोनो में स्नेहांकुर उत्पन्न हुए। दोनो एकदूसरे में अत्यंत मोहासक्त हो गए कि अब उन्हें एकदूसरे के बिना एक पल भी न चलता। 12 वर्ष तक स्थूलिभद्र कोशा के यहां रहे।


एकबार शकडाल मंत्री के प्रतिस्पर्धी वररुचि के रचित षड्यंत्र के कारण राजा, शकडाल को राज्यद्रोही मानने लगा। अपने परिवार की सुरक्षा हेतु शकडाल ने श्रीयक से कहा- जब राज्यदरबार में मुझे देखकर यदि राजा दूसरी तरफ मुंह फेर ले तो उसी समय मेरी हत्या कर देना । जब श्रीयक नही माने तब पुत्र को पितृहत्या के पाप से बचाने के लिए पहले ही अपने मुंह मे विष रखने का वचन दिया।  


फिर दोनो राज्यदरबार में आये । शकडाल मंत्री ने मुंह मे विष रख लिया। श्रीयक ने पिता की आज्ञा का पालन करते हुए उन्हें राज्यद्रोही कहकर उन पर तलवार चला दी। हकीकत में तो शकडाल मंत्री ने विष खा लिया और प्राण त्याग दिए। इस तरह श्रीयक व अन्य परिवारजन राज्य के द्रोह के लिए शंका के दायरे से मुक्त हो गए। राजा नंद ने मगध के महामात्य के पद के लिए स्थूलिभद्र को आमंत्रित किया। 


परन्तु इस घटना से संसार के प्रपंचों को देख समंझ स्थूलिभद्र विरक्त हो गए। उन्होंने संसार के छलबल को त्याग कर सर्वविरती धर्म स्वीकार कर दीक्षित हो गए। एक ही पल में सभी सुख वैभव , परिवार के साथ उन्होंने प्रेयसी कोशा के साहचर्य को भी त्याग दिया।


अब आगे?


कल का जवाब  : - साध्वी ईश्वरीजी की घटना सोपारक नगर की थी।


आज का सवाल : - शकडाल मंत्रीश्वर का प्रतिस्पर्धी कौन था?

कोशा एक अदभुत व्यक्तित्व 2


नर्तकी होते हुए कोशा का स्नेह मात्र स्थूलिभद्र के लिए आरक्षित था। उनके दीक्षित होने से हुए वियोग से कोशा पर मानो वज्रपात सा हुआ। वह प्रतिपल अश्रुपूरित, उदासीन रहने लगी थी। स्थूलिभद्रजी के दिक्षाग्रहण बाद अमात्य पद श्रीयक को सौंपा गया। श्रीयक एक उच्च व्यक्तित्व के धनी थे। श्रीयक भाई स्थूलिभद्र के जाने के बाद कोशा को नियमित मिलते रहते थे।  उसका दुःख दूर करने का प्रयास करते रहे। स्थूलिभद्र के लिए कोशा का निश्चल स्नेह देखकर श्रीयक के मन मे कोशा के लिए आत्मीयता एवं आदर का भाव जन्मा।


संयमग्रहण के कुछ समय पश्चात आर्य स्थूलिभद्रजी ने अपनी साधना को उग्र बनाते हुए, अपने विषयो पर विजयप्राप्ति के अभ्यास हेतु गुरु आज्ञा लेकर चातुर्मास बिताने कोशा के घर पधारे। उसके निवास पर आकर कामोत्तेजक चित्रों से सज्ज चित्रशाला में चातुर्मास बीताने की अनुमति मांगी।


स्थूलिभद्र को अपने यहां देखकर, 4 माह चित्रशाला में बिताने की बात सुनकर कोशा अत्यंत हर्षित हो गई। अभी उसका मोह छूटा नही था। अपने जीवनधन को वापिस पाने का समझकर वह पुलकित हो गई। मुनि ने षडरस युक्त आहार कर के भी , ऐसे कामोद्दीपक वातावरण में रहकर भी अपने विकारो से दूर रहकर साधना करने की बात कही तब कोशा ने उसपर महत्व न देकर अपने व्यवहार से उन्हें पुनः जीत लेने का निर्णय ले लिया। उन्हें चित्रशाला में सस्नेह रुकवाया। 


मुनि को अत्यंत स्वादुत्तम भोजन करवाया गया। भोजन पश्चात सोलह श्रृंगार कर के , वातावरण को सुगंधियों आदि से मदमस्त करते हुए , अपने नूपुर की झंकार से कोशा ने स्थूलिभद्र मुनि को रिझाने के प्रयास प्रारंभ किया। अति संमोहक अंगभंगिमा से युक्त, स्थूलिभद्र के मन में पहले के भावों को जगाने का प्रयास करते हुए कोशा ने अपनी मधुर मुस्कान व कामयुक्त उदगारों से मुनि को लुभाने लगी।


परन्तु मुनि अपनी साधना में अडिग रहे । वे ध्यान में रहे। ज्यो ज्यों कोशा के स्थूलिभद्रजी को भोगमार्ग में जोड़ने के प्रयास बढ़ते रहे त्यों त्यों मुनि ओर मक्कम होकर साधना में दृढ़ होते गए।


कोशा ने भी अपने पूर्व स्नेह को प्राप्त करने का प्रयास न छोड़ा। 12 वर्ष का उनका साहचर्य था। अनेक मुग्ध यादो से उन्हें अनुकूल बनाने का प्रयास करती रही। पर मुनि लेशमात्र विचलित नही हुए। भोग-त्याग का यह द्वंद्व 4 माह तक पूरा चलता रहा। कोशा निरन्तर उत्तमोत्तम कामवर्धक भोजन करवाते हुए, अपनी मोहक भाव भंगिमाओं का पूरा उपयोग करते हुए मुनि को चलित करने का प्रयास करती रही। उसकी दृष्टि मात्र अपने पूर्व स्नेह को प्राप्त करने की थी। अन्य कोई दोष या कपट नही। पर उसके हर प्रयास पर मुनि इन्द्रिय दमन की साधना में और अग्रसर होते गए।


4 माह के अंत मे अंततः कोशा महायोगी मुनि के इन्द्रिय विजय, काम विजय के अलौकिक बलसामर्थ्य के आगे हार स्वीकार की। अपने सारे अपराधों की उसने हृदयपूर्वक क्षमा मांगी। मुनि की उग्र आराधना को उसने सराहना करते हुए असाध्य को सिद्ध करनेवाले योगिराज को सहस्त्र नमस्कार किये।

आर्य स्थूलिभद्रजी ने उसे फिर प्रतिबोधित किया।


अब आगे?


कल का जवाब  : - शकडाल मंत्रीश्वर का प्रतिस्पर्धी वररुचि था ।


आज का सवाल : - ......... ....... का द्वंद्व 4 माह तक चलता रहा?


संदर्भ : - जैन धर्म का मौलिक इतिहास


जिनाज्ञा विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम।


पिक प्रतीकात्मक है।


कोशा एक अदभुत व्यक्तित्व 3


स्थूलिभद्रजी ने कोशा को प्रतिबोधित किया। उनके उपदेश से सत्य मार्ग जानकर समझकर धर्म मे अपनी अगाढ़ श्रद्धा अभिव्यक्त करते हुए श्राविका-धर्म स्वीकार किया । और पूर्ण रूप से उसका पालन करने लगी।


चातुर्मास की समाप्ति पर आर्य स्थूलिभद्रजी गुरु के पास लौटे। जिस तरह आर्य स्थूलिभद्र ने षड रसयुक्त आहार करते हुए कोशा की कामोत्तेजक चित्रशाला में रहकर काम विजय के अभ्यास हेतु चातुर्मास किया था उसी तरह उनके अन्य 3 गुरुभ्राता ने भी दुष्कर स्थानों में सफलता पूर्वक चातुर्मास आराधना की। एक ने उपवास युक्त  सिंहकी गुफ़ा के पास, एक ने निर्जल निराहार रहकर सर्प के बिल के पास , तीसरे मुनि ने कुवे मांडके के पास उपवास पूर्वक रहकर अपनी साधना की।


जब ये तीनो मुनि चातुर्मास की साधना पश्चात गुरुवर के पास आये तब गुरु आचार्य संभुतिविजय जी ने उनकी साधना को दुष्कर बताकर उनकी अनुमोदना कर स्वागत किया।

परंतु जब स्थूलिभद्र मुनि गुरु के पास आये तब गुरु ने उनकी साधना को दुष्कर से भी अतिदुष्कर बताकर उनका अभिवादन किया। तब अन्य शिष्यों के मन में थोड़ी ईर्ष्या उत्पन्न हुई। हमने 4-4 माह उपवास में रहकर भीषण क्षेत्र पर रहकर साधना की तब भी हमारी साधना दुष्कर है, पर निरन्तर उत्तम भोजन करते हुए गणिका की वैभवी चित्रशाला के मध्य रहकर साधना करनेवाले की आराधना दुष्कर से भी दुष्कर??  यह बात उनके मन मे बैठ गई।

जब 8 महीनों तक विहार कर लोगो को धर्मोपदेश देने के पश्चात जब पुनः चातुर्मास करने  का अवसर आया, तब पूर्व में सिंहगुफा के पास रहकर साधना करने वाले मुनि ने गुरु के पास आकर विनती की।


: - गुरुदेव, मेँ यह चातुर्मास कोशा नर्तकी की चित्रशाला में  रहकर षडरस भोजन करते हुए व्यतीत करना चाहता हूं। आप मुझे इसकी आज्ञा दीजिये।

गुरु  उनके मनोभावों , उनकी ईर्ष्या को समंझ गए और कहा : -  वत्स, इस अतिदुष्कर दुष्कर अभिग्रह धारण करने का विचार को त्याग दो। इस अभिग्रह को धारण करने के लिए मात्र मेरुपर्वत के समान अचल, दृढ़ मनोबल वाले स्थूलिभद्र ही समर्थ है।

जब शिष्य ने अपनी जिद न छोड़ी तब घोर पतन की गर्त में जानबूझ कर गिरने को इच्छुक शिष्य की दयनीय स्थिति पर करुणावश गुरुने पुनः समझाया

: - वत्स, यह दुस्साहस न करो, इससे तुम अभी तक उपार्जित किये तप-संयम को भी खो बैठोगे। सामर्थ्य से अधिक भार उठाने पर व्यक्ति के अंगभंग का भय रहता है।

गुरु के हितवचन भी शिष्य को अरुचिकर लगे। गुरु आज्ञा की अवहेलना कर वे कोशा के पास आये।

कोशा श्राविका ने मुनि का स्वागत किया और आने का प्रयोजन पूछा , 


तब मुनि ने कहा : - मैं आर्य स्थूलिभद्र की तरह तुम्हारी चित्रशाला में चातुर्मास करना चाहता हूं। तुम से अनुमति चाहता हूं।


कोशा क्या कहेगी अब आगे?


कल का जवाब  : -भोग-त्याग का द्वंद्व 4 माह तक चलता रहा ।

आज का सवाल : -  अन्य 3 मुनियों ने किस स्थान पर चातुर्मास की साधना की?


संदर्भ : - जैन धर्म का मौलिक इतिहास


जिनाज्ञा विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम।


पिक प्रतीकात्मक है।



संदर्भ : - जैन धर्म का मौलिक इतिहास


जिनाज्ञा विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम।

पिक प्रतीकात्मक है।

कोशा एक अदभुत व्यक्तित्व 4


स्थूलिभद्रजी से ईर्ष्या कर  गुरु से दुष्कर से भी अति दुष्कर साधना के लिए गुरु से अभिवादन मिले यह सोचकर मुनि ने कोशा के पास आकर उसकी चित्रशाला में चातुर्मास व्यतीत करने की अनुमति मांगी।


श्राविका कोशा ने सहर्ष अनुमति प्रदान की। उन्हें चित्रशाला में रुकवाया। षडरस युक्त भोजन करवाया। कोशा को भी मुनि की साधना की परीक्षा करने का मन हुआ। भोजन पश्चात कोशा ने अपने आपको सुसज्जित कर चित्रशाला में प्रवेश किया। 

आश्चर्यम!!!

कोशा को न कोई शब्द की जरूरत पड़ी न कोई कटाक्षनिक्षेप (आकर्षक भाव भंगिमा, इशारे ) की आवश्यकता हुई। कोशा का सज्ज रूप देखकर मुनि कामासक्त हो गए। और यही नही उनसे स्वयं का आवेग ही सहन न हुआ। कामांध होकर वे एक याचक की तरह कोशा से भोग की याचना करने लगे।

कोशा को मुनि की पतित अवस्था पर करुणा हो आई। मुनि को संयम धर्म पर पुनः हमेशा के लिए स्थिर करने के लिए उसने कुछ सोचकर मुनि से कहा : ; 

महात्मन, साधारण व्यक्ति भी यह जानता है कि हम वारांगनाए मात्र धन की दासियाँ है। क्या आपके पास हमारे लिए द्रव्य है?

कामविह्वल मुनि दयनीय स्वर में बोले : - मेरे पास द्रव्य कैसे हो सकता है। तुम मेरी दयनीय स्थिति पर दया कर मेरी मनोकामना पूरी कर दो।

कोशा : - मुनिवर, आप चाहे अपना नियम तोड़ दो। परन्तु हम वारांगना अपने परंपरागत नियमो का उल्लंघन नही करती। बिना द्रव्य आपका मनोरथ सिद्ध नही हो सकता। हा, आप चाहे तो एक उपाय है मेरे पास। नेपाल के क्षितिपाल नए साधुजी को रत्न कंबल का दान करते है। आप वह कंबल ले आओ तो आपकी मनोकामना पूरी हो सकती है।

मुनि विषयो की आकांक्षा में अंध बन चुके थे। ओचित्य अनौचित्य का विवेक खो चुके थे। चातुर्मास में साधु के लिए विहार मनाही होने के बावजूद वे नेपाल के लिए निकल गए। कैसे भी कर के उन्हें अब कोशा को प्राप्त करना था। अनमोल संयम रत्न मुनि गंवा चुके थे। विकट मार्ग, भयानक जंगल, बारिश आदि का समय, लुटेरों का डर, जंगली प्राणियों से भरे वन,  गहन अटवियो को पार कर वे जैसे तैसे नेपाल पंहुचे।

रत्नकंबल प्राप्त किया। उसे पोली लकड़ी के भीतर सुरक्षित कर के पुनः लौटे। राह में एक लुटेरों के दल ने रोक लिया। एक होशियार तोते ने अपनी भाषा मे उसे लुटेरों के नायक को बोल दिया। पशु पक्षिकी भाषा समझने वाले नायक ने यह जान लिया कि उसके पास रहे लकड़ी के दंड में अनमोल रत्न कंबल है। 

अब आगे क्या होगा?


कल का जवाब  : -। एक ने उपवास युक्त  सिंहकी गुफ़ा के पास, एक ने निर्जल निराहार रहकर सर्प के बिल के पास , तीसरे मुनि ने कुवे मांडके के पास उपवास पूर्वक रहकर अपनी साधना की।


आज का सवाल : -  कोशा ने मुनि से क्या मांग की?


संदर्भ : - जैन धर्म का मौलिक इतिहास


जिनाज्ञा विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम।


पिक प्रतीकात्मक है।

कोशा एक अदभुत व्यक्तित्व 5


लुटेरोंके नायक को मुनि ने सच बता दिया। गणिका को प्रसन्न करने के लिए देने के लिए वह रत्नकंबल नेपाल नरेश से मांगकर लाया है। मुनि को वेश्या के लिए इतना अंध बने देख आश्चर्य अभिव्यक्त करते हुए उसने मुनि को जाने की अनुमति  दे दी। 

इस तरह कई मुश्किलों से पार होते हुए, संयम रत्न को खोकर मुनि रत्नकंबल लेकर कोशा के पास पंहुचे। ललचाई आंखों से उसने अपनी आंतरिक अभिलाषा व्यक्त करते हुए कठोर परिश्रम से प्राप्त वह कंबल कोशा के हाथों में दे दिया। 


कोशा ने मुनि को बोधित करने के लिए उसी समय उस कंबल से अपने पैर पोंछे और कंबल को गन्दी नाली के कीचड़ में फेंक दिया।


यह देख मुनि हतप्रभ रह गए। इतने लंबे समय से जिस कंबल के लिए अथाक परिश्रम किया उस कंबल को लेकर तुरन्त ही उसकी ऐसी दुर्दशा? वह अत्यंत खिन्न हो गये। उन्होंने कोशा से पूछा : - है मीनाक्षी, इतने महंगे, दुर्लभ व कठोर परिश्रम से प्राप्त रत्न कंबल को तुमने अशुचिपूर्ण कीचड़ में फेंक दिया। तुम बड़ी मूर्खा हो।


लोहा गरम देख कोशा ने बड़ी चोट मारते हुए कहा

: - जी तपस्वी राज, मैंने तो कुछ समय के आपकी मेहनत के परिणाम स्वरूप मिला यह रत्नकंबल नाली में फेंककर मूर्खता की। आप इसकी चिंता कर रहे है, परन्तु अत्यंत दुर्लभ ऐसे आपको प्राप्य, इतने लंबे समय से पाल रहे चारित्य रत्न को आपने कामवासना में अंध होकर अत्यंत अशुचिमय पंकिल गहन गर्त में गिरा दिया , गिरा रहे हो उसकी तनिक भी चिंता नही है आपको!???

कोशा के बोधप्रद उपदेशयुक्त कटोक्ति को सुनकर मुनि के मन पर छाया हुआ काम-संमोह तत्क्षण विनष्ट हो गया। उन्हें अपने पतन पर अत्यंत पश्चाताप हुआ। इर्ष्या की आग में जलते हुए, काम मोह में फंसकर कितनी गहरी खाई में वे गिर चुके, अपने संयम को गंवा बैठे यह उनको समझ आ गया।

अत्यंत कृतज्ञता पूर्ण शब्दो मे कहा : - श्राविके, तुमने मुझे  समुचित शिक्षा देकर भवसागर में डूबने से बचा लिया। गुरुआज्ञा का उल्लंघन करके मैंने जो यह पापश्चरण किया है, उसकी शुद्धि हेतु में अभी जाकर गुरुदेव की शरण में कठोर प्रायश्चित ग्रहण करूँगा। इतना कहकर मुनि तत्काल वहां से निकल गये। श्राविका कोशा ने संतुष्टि का अनुभव किया।


मुनि ने गुरु के पास जाकर अपने पतन का सारा सत्य किस्सा कह सुनाया। हार्दिक क्षमायाचना के साथ समोचित प्रायश्चित ग्रहण कर स्वयं की शुद्धि की। आर्य स्थूलिभद्रजी की काम विजेता कहकर स्तुति की। और अपने कर्मसमुह को विध्वस्त करने साधना में प्रवृत्त हो गये।


धन्य है ऐसे मुनि जो पतन होते हुए भी निमित्त मिलते ही अपने मन को वापिस मोड़कर आचरण को सुधार लिया।

धन्य है ऐसे आर्य स्थूलिभद्र जो सबके लिए ऐसे प्रेरणास्त्रोत बने।

और धन्य है ऐसी श्राविका कोशा, जिसने न स्वयं का कल्याण किया परन्तु पतन की गर्त में गिर रहे मुनि को अपना सही मार्ग दिखाकर ऐसा बोध दिया कि मुनि पुनः आत्मकल्याण के मार्ग पर चल पड़े।


ऐसे महापुरुषों महासतियो से जिनशासन सर्वोच्च है।


कोशा ने इसके बाद एक और उपकार किया। नगर के सारथी का। कैसे हुआ यह अब आगे देखेंगे।


कल का जवाब  : -कोशा ने मुनि से रत्नकंबल की मांग की ।


आज का सवाल : -  मुनि ने किसका उल्लंघन कर पापाश्चरण किया?


संदर्भ : - जैन धर्म का मौलिक इतिहास


जिनाज्ञा विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम।




कोशा एक अदभुत व्यक्तित्व 6


अदभुत कला कौशल्य


उनदिनों मगधपति नंद ने अपने एक सारथी के रथ संचालन की कुशलता पर प्रसन्न होकर उसे पारितोषिक के रूप में नर्तकी कोशा को प्रदान कर दिया।


कोशा ने तो अंतर्मन से श्राविका-व्रत ग्रहण कर लिए थे । राजाज्ञा का पालन भी आवश्यक था। फिर अपने व्रत पालन पर आए संकट को देखकर कोशा ने बड़ी चतुरता से काम लिया।

वह एक वैरागन कि भांति अपने साज-श्रृंगार का त्याग कर, अपने हास-परिहास को भी त्याग कर सादे वेश में उदास मुखमुद्रा बनाये हुए उस सारथी से मिलती। उसके समक्ष बार बार आर्य स्थूलिभद्रजी की प्रसंशा करते हुए यह कहती : -  " इस संसार मे यदि कोई पूर्ण पुरुष है तो काम विजेता स्थूलिभद्र मुनि ही है उनके अलावा कोई पुरुष मुझे नही दिखता।"


अपने प्रति विरक्त कोशा को आकर्षित करने के लिए सारथी ने अपनी धनुर्विद्या के अदभुत कौशल्य को प्रकट किया। 

उसने आमवृक्ष पर लटक रहे आम के गुच्छे पर एक तीर मारकर स्थिर किया, फिर तीर पर वापिस एक-एक तीर चलाया जिससे तिरो की एक रेखा उसके हाथ से आम के गुच्छे तक बन गई। फिर वहीं रहकर उसने अंतिम तीर को पकड़कर आम के गुच्छे को काट लिया, फिर एक एक तीर खींचते हुए आम के गुच्छे को हाथमें ले लिया। उन आम को कोशा को अर्पण कर दिया। अपने रथ कौशल को प्रकट कर सारथी फुला न समा रहा था।


कोशा ने तनिक भी आश्चर्य न दिखाया। उसने रथिक का अहंकार तोड़ने के लिए अपना कौशल्य दिखाने का उपक्रम किया।

अपनी दासियों से अपने विशाल कक्ष में कहकर सरसव ( राई जैसे ) के दानों का ढेर लगवाया। फिर गुलाब की कुछ पंखड़ियों को सुई में वेध कर सुई समेत उस ढेर पर डाल दिया। फिर अपना अदभुत नृत्य कौशल दिखाते हुए उस सर्षप राशि पर मनोहर नृत्य प्रारंभ किया। एक घटिका तक अदभुत कौशल्य दिखाते हुये उसने नृत्य किया। बड़ी बात यह थी कि एक घटिका उपरांत नृत्य करते हुए भी न वह सर्षपराशी खंडित हुई न ही सुई उसके पैर में चुभी।

कोशा के इस अवर्णनीय कला-कौशल्य को देखकर सारथी चितवत अवाक सा कोशा को देखता रहा। फिर उसने कहा : - किसी भी मानवी द्वारा दुसाध्य ऐसे चमत्कारी, अति सुंदर, अति अद्भुत नृत्य को देखकर मैं अति प्रसन्न हूँ। तुम इस के बदले तुम जो मांगो वह पारितोषिक देना चाहता हूँ। तुम मांग लो।


कोशा : - भद्र, न आपका आम का तीर द्वारा छेदन दुष्कर है न ही मेरा सर्षप राशि पर ऐसा नृत्य करना दुर्लभ है। निरन्तर अभ्यास से ऐसे कठिन कार्य भी सरल हो ही जाते है। वस्तुतः दुश्करातिदुष्कर कार्य आर्य स्थूलिभद्रजी ने किया है। 12 वर्षो तक मेरे साथ कामोपभोग में रहे। परन्तु दीक्षित होने के बाद 4 मास तक इस वैभवी कामोत्तेजक चित्रों से सज्ज चित्रशाला में रहते हुए, षडरस युक्त भोजन करते हुए  भी उच्च संयम युक्त रहकर उन्होंने अजेय काम पर विजय प्राप्त किया। उन महान कामविजयी महान योगी आर्य स्थूलिभद्रजी के चरित्र से प्रेरणा लेकर मैंने श्राविका-व्रत अंगीकार किये है। अब संसार के सभी पुरुष मेरे सहोदर समान है।

कोशा की उपरोक्त बात सुनकर रथिक स्तब्ध रह गया। स्थूलिभद्र मुनि का चरित्र जानकर वह स्वयं विरक्त हो गया। कोशा को छोड़कर मुनि स्थूलिभद्रजी के पास आया। उनके पास दीक्षित होकर शुद्ध श्रमणाचार पालन करने लगा ।


आर्य स्थूलिभद्रजी से प्रेरणा लेकर न मालूम कितने ही पतनकी ओर जाते हुये प्राणियो ने पतन से रुककर अपना उद्धार कर लिया होगा।


......


जिनशासन को जाज्वल्यमान करते इन सभी शासनरत्नो को हमारा शत शत नमन हो।


जिनशासन के सती रत्नों व अंत मे कोशा का संक्षिप्त वर्णन के साथ यह श्रेणी यहीं पूरी करता हूं। समग्र कथानक "जैन धर्म का मौलिक इतिहास" नामक ग्रंथ से लिया। सरलता व सुरुचि के लिए वाक्यों में  अल्प बदलाव किए है। उनमें कंही भी जिनशासन संबंधित देव, गुरु धर्म की कोई भी अशातना हुई हो तो त्रिविधे मिच्छामि दुक्कडम। सकारात्मक प्रतिभाव देकर उत्साह वर्धन करने वालो को हृदयपूर्वक धन्यवाद। इस श्रेणी के लिए अपना प्रतिभाव आवकारी है ताकि अन्य श्रेणियों में कोई गलती न हो।


कल का जवाब  : - मुनि ने गुरुआज्ञा का उल्लंघन कर पापाश्चरण किया।


संदर्भ : - जैन धर्म का मौलिक इतिहास


जिनाज्ञा विपरीत अंशमात्र लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम।


पिक प्रतीकात्मक है।





टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

भगवान पार्श्वनाथ प्रश्नोत्तरी

जैन प्रश्नोत्तरी

सतियाँ जी 16