सुमेरुपर्वत
सुमेरुपर्वत
प्रश्न-सुमेरु पर्वत कहां है ?
उत्तर-जंबूद्वीप में सात क्षेत्र हैं-भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत। इनमें विदेहक्षेत्र बीच में आ जाता है। इस विदेह के ठीक बीच में सुमेरुपर्वत स्थित है।
प्रश्न-जंबूद्वीप कहां है ?
उत्तर-इस मध्यलोक में असंख्यात द्वीप समुद्र हैं जो कि एक दूसरे को वेष्ठित किए हुए हैं। इनमें सर्वप्रथम द्वीप का नाम जंबूद्वीप है। इस जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में ही हम लोग रहते हैं।
प्रश्न-क्या यह सुमेरुपर्वत पृथ्वीतल पर ही है ?
उत्तर-हां, यह पर्वत पृथ्वीतल पर ही है।
प्रश्न-इसकी ऊँचाई और चौड़ाई का प्रमाण क्या है ?
प्रश्न-इसकी ऊँचाई और चौड़ाई का प्रमाण क्या है ?
उत्तर– यह पर्वत एक लाख चालीस योजन १ ऊँचा है। इसकी नींव पृथ्वी के अन्दर १ हजार योजन की है अतः ऊपर में यह ९९००० योजन ऊँचा है इसकी चूलिका ४० योजन प्रमाण है। नींव के तल में इसका विस्तार १००९०१०/११ योजन है। पृथ्वी के ऊपर इसका विस्तार १०००० योजन है। आगे घटते-घटते चूलिका के अग्रभाग में इसका विस्तार ४ योजन मात्र रह गया है।
पृथ्वी पर जहां पर इसका विस्तार १०००० योजन है वहीं पर इस पर्वत के चारों ओर में भद्रशाल वन स्थित है। इस भद्रशाल वन में ५०० योजन ऊपर जाकर नंदनवन आता है। यह नंदनवन मेरु के चारों ओर ५०० योजन प्रमाण है अर्थात् मेरु में अंदर भाग में ५०० योजन की कटनी है इसी का नाम नंदनवन है। नंदनवन में ६२५०० योजन ऊपर जाकर सौमनस वन है यह वन भी ५०० योजन विस्तार वाला है। इससे ऊपर ३६००० योजन जाकर पांडुकवन है। यह पांडुकवन नाम की कटनी ४९४ योजन विस्तृत है। इसके ठीक मध्य में ४० योजन ऊँची चूलिका है, जिसका विस्तार पांडुकवन में १२ योजन, मध्य में ८ योजन और अग्रभाग में ४ योजन मात्र है।
इस पर्वत में हानि का क्रम-यह सुमेरु पर्वत पृथ्वीतल पर १०००० योजन विस्तृत है। इसके विस्तार में ११ प्रदेश के ऊपर १ प्रदेश घट गया है। ऐसे ही पांडुकवन तक घटता गया है अर्थात् जैसे ११ प्रदेश ऊपर जाने पर १ प्रदेश घटता है, वैसे ही ११ अंगुल जाने पर १ अंगुल घटा है, ११ हाथ जाने पर १ हाथ घटा है और ११ योजन ऊपर जाने पर १ योजन घट जाता है। इतनी इसमें विशेषता है कि जब नंदनवन की कटनी अन्दर की ओर ५०० योजन प्रमाण की हो गई है तब नंदनवन से ऊपर ११००० योजन तक यह पर्वत समवृत्त रहा है अर्थात् इतने योजन तक ११ प्रदेश पर १ प्रदेश घटने का क्रम नहीं रहा है। ऐसे ही सौमनस वन भी ५०० योजन का होने से उसके ऊपर भी ११००० योजन तक समान रहा है इसके बाद घटने का क्रम बना है।
प्रश्न-इस सुमेरु पर्वत का वर्ण कैसा है ?
उत्तर-यह पर्वत मूल में-नींव में १ हजार योजन प्रमाण वङ्कामय है। पृथ्वीतल से लेकर ६१ हजार योजन पर्यन्त उत्तम रत्नमय है अर्थात् नाना रत्नों से निर्मित नाना वर्णमय है। आगे ३८००० योजन तक सुवर्णमय है और इसकी चूलिका नीलमणि से बनी हुई है।
प्रश्न-इस पर्वत में जिनमन्दिर कहां-कहां हैं ?
उत्तर-भद्रशाल वन में चारों ही दिशाओं में चार जिनमन्दिर हैं। नंदनवन में चारों ही दिशाओं में एवं पांडुकवन की चारों ही दिशाओं में चार जिनमन्दिर होने से कुल १६ जिनमन्दिर हो जाते हैं।
भद्रसाल के जिनमन्दिर का विस्तार २०० कोश, लम्बाई ४०० कोश और ऊँचाई ३०० कोश प्रमाण है। यही प्रमाण नंदनवन के चारों चैत्यालयों का है। सौमनवन के मन्दिरों का प्रमाण इनसे आधा है अर्थात् विस्तार १०० कोश, लम्बाई २०० कोश और ऊंचाई १५० कोश है। पांडुकवन के जिनमन्दिर इससे भी अर्धप्रमाण वाले हैं अर्थात् विस्तार ५० कोश, लम्बाई १०० कोश और ऊंचाई ७५ कोश प्रमाण है।
पांडुकवन के जिनमन्दिर के प्रमुख द्वार की ऊंचाई १६ कोश, विस्तार ८ कोश है। मन्दिर के दक्षिण-उत्तर के द्वारों का प्रमाण इससे आधा होता है। ये तीनों ही द्वार दिव्य तोरण स्तम्भों से संयुक्त हैं। ये जिनमन्दिर कुन्दपुष्प सदृश धवल मणियों से निर्मित हैं। इनके दरवाजे कर्वेâतन आदि मणियों से निर्मित वङ्कामयी हैं।
जिनमंदिर के मध्य में स्फटिक मणिमय १०८ उन्नत सिंहासन हैं। उन सिंहासनों पर ५०० धनुष१ प्रमाण ऊंची १०८ जिनप्रतिमायें विराजमान हैं जो कि अनादि अनिधन हैं, अकृत्रिम हैं, इन जिनप्रतिमाओं मेें से प्रत्येक जिनप्रतिमा के आजू-बाजू में श्रीदेवी, श्रुतदेवी तथा सर्वाण्हयक्ष व सनत्कुमार यक्षों की मूर्तियां रहती हैं। प्रत्येक जिनप्रतिमा के निकट भृंगार, कलश, दर्पण, चंवर, ध्वजा, बीजना, छत्र और सुप्रतिष्ठ ये ८ मंगलद्रव्य प्रत्येक १०८-१०८ होते हैं। इन जिनमंदिरों में सुवर्ण, मोती आदि की मालाएं लटकती रहती हैं। धूपघट, मंगलघट आदि के प्रमाण अलग-अलग बताये हुए हैं। इन अकृत्रिम जिनमंदिरों का विस्तृत वर्णन त्रिलोकसार, तिलोयपण्णत्ति आदि ग्रन्थों से समझना चाहिए।
प्रश्न-भद्रशाल, नन्दन आदि को वन संज्ञा क्यों है ?
उत्तर-इन वनों में कर्पूर, तमाल, ताल, कदली, लवंग, दाडिम, पनस, सप्तच्छद, मल्ली, चंपक, नारंगी, मातुलिंग, पुनाग, नाग, कुब्जक, अशोक आदि वृक्ष सुशोभित हो रहे हैं। इन वनों में अनेक पुष्करिणी, वापिका आदि हैं। देवों के क्रीड़ागृह बने हुए हैं और अनेक वूâट, देव भवन आदि से रमणीय हैं। वहां पर देवगण, विद्याधर आदि सतत क्रीड़ा किया करते हैं। चारणऋद्धिधारी मुनिगण भी वहां विचरण करते रहते हैं।
प्रश्न-तीर्थंकर शिशु का जन्माभिषेक इस पर्वत पर कहां होता है ?
उत्तर-इस पर्वत के पांडुकवन में चारों दिशाओं में तो चार जिनमंदिर हैं और चारों विदिशाओं में चार शिलायें हैं जिनके नाम पांडुकशिला, पांडुवंâबला, रक्ता शिला और रक्तवंâबला हैं। ईशान दिशा में पांडुकशिला है, आग्नेय दिशा में पांडुकम्बला शिला है, नैऋत्य दिशा मेें रक्ता शिला है और वायव्य दिशा में रक्तकम्बला है।
पांडुकशिला १०० योजन लम्बी, ५० योजन विस्तृत अर्धचन्द्राकार है। यह ८ योजन ऊंची है ऊपर समवृत्ताकार है और वनवेदी आदि से संयुक्त है। इस शिला के मध्य भाग में उन्नत सिंहासन है। इसके दोनों तरफ एक-एक भद्रासन है। ये सिंहासन ५०० धनुष ऊंचे हैं। धवल छत्र, चामर, घन्टादि मंगलद्रव्यों से संयुक्त हैं और पूर्वाभिमुख हैं। सभी शिलायें इसी प्रकार हैं। मध्यलोक में भरतक्षेत्र में जब तीर्थंकर का जन्म होता है तब सौधर्म इन्द्र आदि स्वर्ग से आकर तीर्थंकर कुमार को बहुत ही वैभव के साथ ले जाकर मेरु की प्रदक्षिणा देते हुए पांडुक शिला के ऊपर स्थित मध्य के सिंहासन पर शिशु-भगवान को विराजमान करते हैं। सौधर्म इन्द्र दायीं ओर के भद्रासन पर और ईशानेंद्र बायीं ओर के भद्रासन पर स्थित होकर भगवान के जन्माभिषेक की क्रिया सम्पन्न करते हैं।
पांडुकशिला पर भरतक्षेत्र के तीर्थंकरों का जन्माभिषेक होता है। पांडुकम्बला शिला पर पश्चिम विदेह के तीर्थंकरों का अभिषेक होता है। रक्ता शिला पर ऐरावत क्षेत्र के तीर्थंकरों का एवं रक्तकम्बला शिला पर पूर्व विदेहक्षेत्र के तीर्थंकरों का अभिषेक होता है।
आज तक इस जंबूद्वीप के भरत-ऐरावत और पूर्वविदेह-पश्चिम विदेह में अनंतों तीर्थंकर हो चुके हैं। उन सभी के जन्माभिषेक का पुण्य अवसर इस सुमेरुपर्वत को ही प्राप्त हुआ है अतएव यह सुमेरुपर्वत महातीर्थ हो चुका है, महान् पवित्रता को प्राप्त है और अपने दर्शन, वंदन करने वालों को भी पवित्र करने वाला है।
यह पर्वत तीनों लोकों और तीनों कालों में सबसे ऊंचा है, इसके समान अन्य कोई पर्वत न हुआ है और न होगा ही। सूर्य, चन्द्रमा आदि ज्योतिषीदेव भी सदा इस पर्वत की
प्रदक्षिणा किया करते हैं।
प्रश्न-इस पर्वत का दर्शन आज के युग में हम लोगों को हो सकता है क्या ?
उत्तर-आज के युग में हम लोगों के वहां तक पहुंचने की शक्ति नहीं है। यह पर्वत हमारे यहां से लगभग २० करोड़ मील की दूरी पर है। आज हम और आप इस पर्वत के चैत्यालयों की, उनमें विराजमान जिनप्रतिमाओं की परोक्ष में ही वंदना कर सकते हैं और इन पांडुक आदि शिलाओं की भी परोक्ष में ही वंदना करके महान पुण्य संचय कर सकते हैं, इसमें किञ्चित् भी संदेह नहीं है।
जम्बूवृक्ष कहां है ?
प्रश्न-जम्बूवृक्ष कहां है ?
उत्तर-यह जम्बूवृक्ष उत्तरकुरु नामक उत्तम भोगभूमि में स्थित है।
प्रश्न-यह उत्तरकुरु भोगभूमि कहां है ?
उत्तर– इस जम्बूवृक्ष में सात क्षेत्र में मध्य के क्षेत्र का नाम विदेह है। यह ३३,६८४ योजन प्रमाण विस्तृत है। इसके बीचोंबीच में सुमेरु पर्वत है। इस सुमेरु पर्वत की विदिशाओं में हाथी दांत के सदृश, अनादिनिधन, महारमणीय गजदन्त नाम से प्रसिद्ध चार पर्वत हैं। तिरछे रूप से लंंबे ये चारों पर्वत निषध, नील और मेरू से संलग्न हैं। मेरूपर्वत के ईशान कोण में माल्यवान् पर्वत है, आग्नेय में सौमनस्य, नैऋत्य में विद्युत्प्रभ और वायव्य में गन्धमादन पर्वत है। आग्नेय और नैऋत्य विदिशा के गजदन्त मेरु के पास ५०० योजन ऊंचे हैं, आगे आकर निषध पर्वत के पास ४०० योजन ऊंचे रह गये हैं। ऐसे ही ईशान और वायव्य के गजदंत पर्वत मेरु के पास ५०० योजन एवं नील पर्वत के पास ५०० योजन ऊंचे हैं। ये चारों पर्वत सर्वत्र ५०० योजन चौड़े हैं। इनकी लम्बाई ३०२०९ ६/१९ योजन प्रमाण है। माल्यवान् पर्वत पर नववूâट हैं, सौमनस्य पर सात हैं, विद्युत्प्रभ पर नव हैं एवं गन्धमादन पर सात कूट हैं। इन चारों पर्वत पर मेरु के निकट वाले कूट का नाम सिद्धकूट है, उनमें जिनमंदिर हैं, शेष कूटों में देव-देवियों के भवन बने हुए हैं। दोनों गजदंत से निषध-नील पर्वत के पास का अन्तराल ५३००० योजन है।
मेरु की तलहटी में भद्रसाल वन है। उसके आगे वेदी है। इस भद्रसाल वेदी से निषध पर्वत तक क्षेत्र का विस्तार ११५९२२/१० योजन है। इसी क्षेत्र का नाम देवकुरु है। ऐसे ही उधर के मेरु पर्वत के उत्तर में नील पर्वत के दक्षिण में और गजदन्तों के पूर्व, पश्चिम में बीच के क्षेत्र का नाम ‘उत्तरकुरु’ है। इन देवकुरु-उत्तरकुरु क्षेत्रों में उत्तम भोगभूमि की रचना है जो कि शाश्वत है। इस उत्तरकुरु में ईशान दिशा में ‘जम्बूवृक्ष’ है और ‘देवकुरु’ में नैऋत्यकोण मेंं ‘शाल्मलीवृक्ष’ है।
प्रश्न-यह जम्बूवृक्ष कैसा है ?
उत्तर-मेरू की ईशान दिशा में ५०० योजन विस्तार वाला एक स्वर्णमय चबूतरा है। इसके मध्य में तीन कटनियां बनी हुई हैं। पहली कटनी १२ योजन, दूसरी ८ योजन, तीसरी ४ योजन की है, इनकी ऊंचाई ८ योजन है। इस स्थल के बहुमध्य भाग में ‘जम्बूवृक्ष’ है। यह ८ योजन ऊंचा है। इसकी वङ्कामय जड़ दो कोस गहरी है। इस वृक्ष का दो कोश मोटा, दो योजन मात्र ऊंचा स्कन्ध है। इस वृक्ष की चारों दिशाओं में चार महाशाखायें हैं। इनमें से प्रत्येक शाखा ६ योजन लम्बी है और इतने मात्र अन्तर से सहित है। इनके सिवाय क्षुद्र शाखायें अनेकों हैं। यह वृक्ष पृथ्वीकायिक है, जामुन के समान इसमें फल लटकते हैं। इसके पत्ते मरकतमणि के बने हुए हैं जो कि हवा के झकोरे से हिलते रहते हैं इसीलिए इसका ‘जम्बूवृक्ष’ नाम सार्थक है क्योंकि ‘जामुन’ को संस्कृत में ‘जम्बू’ कहते हैं।
प्रश्न-इस वृक्ष पर जिनमंदिर कहां है ?
उत्तर-जम्बूवृक्ष की उत्तरी शाखा पर अकृत्रिम जिनमंदिर बना हुआ है। यह मन्दिर १ कोश लम्बा, अर्धकोश चौड़ा और पौन कोश ऊंचा है। इसमें १०८ जिनप्रतिमायें विराजमान हैं। शेष तीन दिशाओं की तीन शाखाओं पर आदर-अनादर नामक व्यंतर देवों के भवन बने हुए हैं।
प्रश्न-जम्बूवृक्ष के परिवार वृक्ष कहां है ?
उत्तर-इस जम्बूवृक्ष के चारों तरफ गोपुर द्वारों से युक्त उत्तम रत्नों से सुशोभित बारह दिव्य वेदियाँ हैं। ये वेदियां दो कोश ऊंची और पांच सौ धनुष चौड़ी हैं। इन्हें पद्म वेदिका भी कहते हैं। इन वेदियों के मध्य उपवन खण्ड, वापी, पुष्करिणी, पुष्पलतायें आदि मनोरम स्थल हैं। इन वेदिकाओं के अन्तराल में ही १४०११९ प्रमाण परिवार वृक्ष हैं। ये सभी परिवार वृक्ष अपने मूलवृक्ष से आधे प्रमाण वाले हैं, ये सभी भी अनादिनिधन, महारमणीय, पृथ्वीकायिक रत्नों से निर्मित हैं। इन सबकी उत्तरी शाखा पर भी एक-एक जिनमंदिर है और अन्य शाखाओं के भवनों पर परिवार देव रहते हैं। इस जम्बूवृक्ष के निमित्त से ही इस द्वीप का ‘जम्बूद्वीप’ यह सार्थक नाम प्रसिद्ध है।
प्रश्न-यह जम्बूवृक्ष ‘उत्तरकुरु’ में है। ऐसे ही देवकुरु में शाल्मली वृक्ष है, उसका वर्णन वैâसा है ?
उत्तर-उस शाल्मलीवृक्ष का सारा वर्णन जम्बूवृक्ष के सदृश ही है। उस वृक्ष की दक्षिणी शाखा पर जिनमंदिर है। उस वृक्ष के भी इतने ही परिवार वृक्ष हैं, जिन सभी पर जिनमंदिर हैं। उसके मूलवृक्ष की तीन शाखाओं पर वेणु और वेणुधारी नाम के व्यंतर देवों के भवन बने हुए हैं, ये सभी देव सम्यग्दृष्टियों पर प्रेम करने वाले हैं, ऐसा आगम में कहा है।
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