30 अकर्म भूमि

 

Explanation☝️👇

#घातकीखंड में,

 कर्मभूमि के 6 क्षेत्र  है।2भरत + 2 ऐरावत + 2 महाविदेह = 6

#घातकी खंड में,

अकर्म भूमि के 12 क्षेत्रों है।  2 हैमवत + 2 हिरण्य वय + 2 हरिवंश +  रम्यक वर्ष + 2 देवकुरू + 2 उत्तरकुरू = 12

6  + 12 =18

इस तरह घातकी खंड द्वीप में कुल मिलाकर 18 क्षेत्रो होते है।

*🙏आज के प्रश्न🙏*

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*1. अकर्मभूमि में कितने प्रकार के कल्पवृक्ष हैं?*

*1. दस प्रकार के कल्पवृक्ष हैं।*

*2. हेमवंत और हैरण्यवत क्षेत्र के मनुष्यों की उम्र व अवगाहणा कितनी होती हैं?*


*2. हेमवंत और हैरण्यवत क्षेत्र के मनुष्यों की स्थिति एक पल्योपम  की हैं और अवगाहणा एक गाउ की हैं।*


*3. मेरु पर्वत कितना ऊँचा हैं? कितना गहरा हैं?*


*4. मेरुपर्वत पर कितने वन है?*


*5. मेरुपर्वत से कितने योजन ऊपर तारा ग्रह हैं?*



*😊आज के प्रश्नों के उत्तर😊*

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*3.  99,000 योजन का ऊँचा और 1000 योजन का गहरा हैं।*


*4. मेरुपर्वत पर चार वन हैं- भद्रशाल वन, नंदन वन, सौमनस वन और पंडक वन।*


*5. मेरुपर्वत से 790 योजन ऊपर तारा ग्रह हैं।*



अकर्मभूमि के मनुष्य क्या कहलाते हैं ?

योगलिक


अकर्मभूमि के कौन कौन से क्षेत्र ?


5देवकुरू5,,उतरकुरू,

5हरीवास5,,रम्यकवास,

5हेमवय5,, हिरण्यवय( 30 क्षेत्र है)



*📕आज की सामान्य जानकारी 📕*

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             *युगलिक*

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*युगलिक कितने प्रकार के है और कितनी गति में पाए जाते हैं?*


*युगलिक के पांच भेद है -*


*पहला असंख्यात वर्षों की आयु वाले कर्मभूमि मनुष्य, अकर्मभूमि मनुष्य, 56 अंतरद्वीप के मनुष्य, खेचर तिर्यंच युगलिक और स्थलचर तिर्यंच युगलिक ( छोटी गति आगति से)।*


*303 मनुष्य के भेद से मनुष्य के 303 क्षेत्र है। (303 क्षेत्र में मनुष्य पाये जाते हैं।)*


*देवकुरु उत्तरकुरू में हमेशा पहले आरे जैसा भाव रहता है।*


*हरिवास रम्यक्वास में दूसरे आरे जैसा और*


*हेमवंत हेरण्यवत में तीसरे आरे जैसे भाव रहते हैं।*


*महविदेह में हमेशा चौथे आरे के भाव रहते है।*


*जिसकी उम्र एक करोड़ पूर्व से अधिक अर्थात एक करोड झाझेरी या एक समय अधिक भी होती है और उत्कृष्ट  तीन पल्योपम तक पाई जाती ।उसे हम युगलिक कहते हैं।*


*युगलिक तिर्यञ्च और मनुष्य  गति में पाये जाते हैं।*


*खेचर और स्थलचरर को युगलिक में इसलिए बताया गया क्योंकि खेचर की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहर्त की है और सन्नी ही होंगे, असन्नी कभी नहीं होते है।*


*और उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्यातवां भाग, ये जो पल्योपम का असंख्यातवां भाग है ना  वह करोड़ पूर्व से ज्यादा  और पल्योपम से कुछ कम होता है।*


*जो युगलिक होते हैं वो गर्भ से ही उत्पन्न होते है।*


*तिर्यञ्च और मनुष्य की स्थिति ज्यादा होने पर युगलिक कहलाएंगे।*


*युगलिक गर्भ से ही उत्पन्न होते हैं।*


*मनुष्य के 303 भेद के अन्दर 15 कर्मभूमि, 30 अकर्मभूमि और 56 अंतर दीप।*


*15 कर्मभूमि वाले मनुष्य भी युगलिक हो सकता है- 1, 2, 3  आरे में अवसर्पिणी काल में।*


*पहले आरे के प्रारम्भ में 3 पल्योपम, पहला उतरते, दूसरा लगते 2 पल्योपम  और दूसरा उतरते तीसरा लगते एक पल्योपम।*


*करोड़ पूर्व की स्थिति वाला जीव युगलिक नहीं होता है। अभी युगलिक वर्तमान में होते हैं।*


*अभी वर्तमान में भी 30 अकर्म भूमि और 56 अंतरद्वीप ये क्षेत्र पाये जाते है।*


*यहां पर भी कल्पवृक्ष पाये जाते है।*


*अकर्मभूमि में अभी वर्तमान में ) आरे नही चलते तो एक से लेकर छह आरों में से कोई भी आरा अकर्मभूमि में नहीं होता है - बस उस आरे ( 1,2,3) के समान भाव होते हैं।*


*जो तिर्यञ्च युगलिक पाये जाते है, वो भी खेचर और स्थलचर के युगलिक ही लेना, दूसरे नहीं आएंगे। तिर्यच युगलिक अढाईद्वीप के बाहर  नहीं पाये जाते है।*


*अढ़ाई द्वीप के बाहर जो तिर्यंच की स्थिति होती है, भले हो वो असंख्यात  वर्ष की होती है लेकिन वर्तमान में जो ढाई द्वीप के अन्दर 56 अंतर द्वीप और 30 अकर्म भूमि क्षेत्र बताये, वही  पर युगालिक और जहाँ युगलिक क्षेत्र बताया हैं,वहाँ पर ही तियञ्च युगलिक होगें। 15 कर्म भूमि "आदि में युगलिक नहीं रहेंगे।*


#णमोक्कार सूत्र 6


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तीर्थंकर भगवान कहां नही होते?


मनुष्यलोक में युगलिकक्षेत्र यानी हेमवय, हिरण्यवय, हरिवर्ष, रम्यकवास, देवकुरु, उत्तरकुरु ये (6×5 ) 30 अकर्मभूमि व 56 अन्तरद्वीप में नही होते हैं। भरत ऐरावत महाविदेह की विजय के अनार्य खण्ड में नही होते हैं। जंबूद्वीप में महाविदेह की 2 विजय अधोलोक तक झुकी हुई है, मात्र इस अपेक्षा से तीर्थंकर प्रभु को हम अधोलोक में भी कह सकते हैं। भरत ऐरावत क्षेत्र में अवसर्पिणी व उत्सर्पिणी काल के 1, 2 , 5 व छट्ठे आरे में तीर्थंकर नही होते है।


अवसर्पिणी के 3 रे व उत्सर्पिणी के 4थे आरे में एक -एक तीर्थंकर प्रभु तथा अवसर्पिणी के चौथे व उत्सर्पिणी के तीसरे आरे में 23 प्रभु जी होते है।


मनुष्याधिकार 

मनुष्य दो प्रकार के हैं-संमूर्छिम मनुष्य और गर्भव्युत्क्रांतिक मनुष्य। सम्मूर्छिम मनुष्य क्षेत्र के चौदह अशुचि स्थानों में उत्पन्न होते हैं। उनकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त मात्र होती है। गर्भज मनुष्य तीन प्रकार के हैं lकर्मभूमक, अकर्मभूमक और अन्तर्द्वीपक। अन्तर्द्वीपक-हिमवान पर्वत की चारों विदिशाओं में तीन-तीन सौ योजन लवणसमुद्र के भीतर जाने पर चार अन्तर्द्वीप हैं। इसी प्रकार लवणसमुद्र के भीतर चार सौ, पांच सौ, छह सौ, सात सौ, आठ सौ और नौ सौ योजन आगे जाने पर भी चारों विविशाओं में चार-चार अन्तर्द्वीप हैं l इस प्रकार चुल्ल हिमवान के -28 अन्तर्द्वीप हैं। इन अन्तर्द्वीपों में रहने वाले मनुष्य अन्तर्द्वीपक कहलाते हैं। इन अन्तर्द्वीपकों के 28 नाम हैं-१. एकोरुक, 2. आभाविक, 3. वैषाणिक, 4. नांगोलिक, 5. हयकर्ण, 6. गजकर्ण, 7. गोकर्ण, 8. शष्कुलीकर्ण, 9. आदर्शमुख, 10. मेण्ढमुख, 11. अयोमुख, 12. गोमुख, 13. अश्वमुख, 14. हस्तिमुख, 15. सिंहमुख, 16.व्याघ्रमुख, 17. अश्वकर्ण, 18. सिंहकर्ण, 19. अकर्ण, 20. कर्णप्रावरण, 21. उल्कामुख, 22. मेघमुख, 23. विद्युद्दन्त, 24. विद्युज्जिह्वा 25. घनदन्त, 26. लष्टदन्त, 27. गूढदन्त और 28. शुद्धदन्त l इसी प्रकार शिखरी पर्वत की लवणसमुद्रगत दाढाओं पर भी 28 अन्तर्द्वीप हैं। दोनों ओर के मिलाकर 56 अन्तर्द्वीप हो जाते हैं। एकोरुक द्वीप का आयाम-विष्कंभ तीन सौ योजन और परिधि नौ सौ उनपचास योजन है। वह एक पद्मवरवेदिका और एक वनखण्ड से चारों ओर से घिरा हुआ है। इस द्वीप का भूमिभाग बहुत समतल और रमणीय है। वहाँ बहुत सारे दुम, वृक्ष, वन, लता, गुल्म आदि हैं जो नित्य कुसुमित रहते हैं। वहाँ बहुत सी हरी भरी वनराजियां हैं। वहाँ दस प्रकार के कल्पवृक्ष हैं जिनसे वहाँ के निवासियों का जीवन-निर्वाह होता है। 

(1) मत्तांग नामक कल्पवृक्ष से उन्हें विविध पेयपदार्थों की प्राप्ति होती है।

(2) भृत्तांग नामक कल्पवृक्ष से बर्तनों की पूर्ति होती है। (3) त्रुटितांग कल्पवृक्ष से वाद्यों की पूर्ति 

(4) दीपशिखा नामक कल्पवृक्ष से प्रकाश की पूर्ति होती है।

(5) ज्योति-अंग नामक कल्पवृक्ष से सूर्य की तरह प्रकाश और सुहावनी धूप प्राप्त होती है।

(6) चित्रांग नामक कल्पवृक्ष विविध प्रकार के चित्र एवं विविध मालाएँ प्रदान करते हैं।

(7) चित्तरसा नामक कल्पवृक्ष विविध रसयुक्त भोजन प्रदान करते हैं l

(8) मण्यंग नामक कल्पवृक्ष विविध प्रकार के मणिमय आभूषण प्रदान करते हैं।

(9) गेहागार नाम के कल्पवृक्ष विविध प्रकार के आवास प्रदान करते हैं और

(10) अणिग्न नाम के कल्पवृक्ष उन्हें विविध प्रकार के वस्त्र प्रदान करते हैं। 


एकोरुक द्वीप के मनुष्य और स्त्रियां सुन्दर अंगोपांग युक्त, प्रमाणोपेत अवयव वाले, चन्द्र के समान सौम्य और अत्यन्त भोग-श्री से सम्पन्न होते हैं। नख से लेकर शिख तक के उनके अंगोपांगों का साहित्यिक और सरस वर्णन किया गया है। ये प्रकृति से भद्रिक होते हैं। चतुर्थ भक्त अन्तर से आहार की इच्छा होती है। ये मनुष्य आठ सौ धनुष ऊंचे होते हैं, 64 पृष्ठकरंडक (पांसलियां) होते हैं। उनपचास दिन तक अपत्य-पालना करते हैं। उनकी स्थिति जघन्य देशोन पल्योपम का असंख्येय भाग और उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्येय भाग प्रमाण हैं l जब उनकी छह मास आयु शेष रहती है तब युगलिक-स्त्री सन्तान को जन्म देती है। ये युगलिक स्त्री-पुरुष सुखपूर्वक आयुष्य पूर्ण करके अन्यतर देवलोक में उत्पन्न होते हैं। एकोरुक द्वीप में गृह, ग्राम, नगर, असि, मसि, कृषि आदि कर्म, हिरण्य-सुवर्ण आदि धातु, राजा और सामाजिक व्यवस्था, दास्यकर्म वैरभाव, मित्रादि, नटादि के नृत्य, वाहन, धान्य, डांस-मच्छर, युद्ध, रोग, अतिवृष्टि, लोहे आदि धातु की खान, क्रय विक्रय आदि का अभाव होता है। वह भोगभूमि है। इसी तरह सब अन्तर्द्वीपों का वर्णन समझना चाहिए। कर्मभूमिज मनुष्य कर्मभूमियों में और अकर्मभूमिज मनुष्य अकर्मभूमि में पैदा होते हैं। कर्मभूमि वह है जहाँ मोक्षमार्म के उपदेष्टा तीर्थंकर उत्पन्न होते हैं, जहाँ असि (शस्त्र) मषि (लेखन-व्यापार आदि) और कृषि कर्म करके मनुष्य अपना जीवन-निर्वाह करते हैं। ऐसी कर्मभूमियां पन्द्रह हैं-५ भरत, 5 एरवत और 5 महाविदेह l ( ये भरत आदि एक एक जम्बूद्वीप में, दो-दो धातकीखण्ड में और दो-दो पुष्करार्ध द्वीप में हैं। ) यहाँ के मनुष्य अपने पुरुषार्थ के द्वारा कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। ये अपने अपने पुण्य-पाप के अनुसार चारों गतियों में उत्पन्न हो सकते हैं। जहाँ असि-मसि-कृषि नहीं है किन्तु कल्पवृक्षों द्वारा जीवननिर्वाह है वह अकर्मभूमि है। अकर्मभूमियां 30 हैं-पांच हैमवत, पांच हैरण्यवत, पांच हरिवास, पांच, रम्यकवास, पांच देवकुरु और पांच उत्तरकुरु l इनमें से एक-एक जम्बूद्वीप में, दो-दो धातकीखण्ड में और दो-दो पुष्करार्धद्वीप में हैं l 30 अकर्मभूमि और 56 अन्तर्द्वीप भोगभूमियां हैं। यहाँ युगलिक धर्म है-चारित्र धर्म यहां नहीं है।





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