तीसरा गुण स्थान




गुणस्थान :-

गुण-स्थान :- अनादिकाल से यह जीव अज्ञान के वश में आकर विषयों और कषायों में प्रवृत्ति करता हुआ इस संसार में भटक रहा है !

इस भ्रमण में इस जीव ने अनन्तों बार चौरासी लाख योनियों में जन्म लिया ...

कभी अच्छे कर्मों के उदय से देवों के दिव्य-सुखों को भोग खुश, तो कभी त्रियंच-नरक और मनुष्य गति के दुखों को भोग कर विचलित होता रहा ...

अपने सच्चे आत्म-स्वरुप का दर्शन न हो सकने के कारण अनादि-काल से इस जीव की दृष्टि विपरीत ही रही है ! जीव की इस विपरीत दृष्टि के कारण ही उसे "मिथ्यादृष्टि" कहा जाता है !


गुणस्थान की आदर्श/मूल परिभाषा है कि

"मोह और योग के निमित्त से जीव के श्रद्धा और चरित्र गुण की होने वाली तारतम्यरूप अवस्थाओं को गुणस्थान कहते हैं !"

           याने,

मोह(मिथ्यात्व) और योग(मन-वचन-काय) के मिलने से आत्मा के श्रद्धा(यथार्थ श्रद्धान) और चारित्र रूप गुणों की अलग-अलग अवस्थाओं को गुण-स्थान कहते हैं l


मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्या को छोड़कर किस प्रकार से यथार्थ दृष्टि (सम्यग्दृष्टि) वाला बनता है, और किस प्रकार अपने गुणों का विकास करते हुए परमात्मा बनता है, उसके इस क्रमिक विकास में आत्मा के गुणों के जिन-जिन स्थानो पर वो रुकता है, उन्हें गुण-स्थान कहते हैं !!!

याने,

बहिरात्मा(मिथ्यादृष्टि) से अंतरात्मा(सम्यग्दृष्टि) और फिर परमात्मा बनने के लिए इस जीव को आत्मिक गुणों की आगे-आगे प्राप्ति करते हुए, जिन-जिन स्थानो से गुज़रना पड़ता है, उन्हें गुण-स्थान कहते हैं !


 गुण-स्थान को समझने के लिए उससे सम्बंधित कुछ अन्य विषय समझना उचित होगा ... जैसे :- उपशम/क्षय/ क्षयोपशम


गुणस्थान को समझने हेतु पहले कुछ सम्बंधित विषय जानने आवश्यक हैं ...


भाव :-

तत्वार्थ सूत्र जी के दूसरे अध्याय के पहले सूत्र में जीव के पांच भाव बताये हैं :-

१ - औपशमिक

२ - क्षायिक

३ - मिश्र (क्षायोपशमिक)

४ - औदायिक, और

५ - पारिणामिक भाव


१ - उपशम या औपशमिक भाव :-


द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के निम्मित से "कर्म शक्ति के प्रकट न होने को" उपशम कहते हैं, और कर्मों के उपशम से आत्मा का जो भाव होता है उसे "औपशमिक भाव" कहते हैं l

याने कारण मिल जाने पर कर्म कि शक्ति के दब जाने से आत्मा में निर्मलता का होना औपशमिक भाव है l

उदाहरण :- गंदे पानी में निर्मली मिला देने से मैल नीचे बैठ जाता है, और ऊपर का जल स्वच्छ हो जाता है !


२ - क्षय या क्षायिक भाव :-


कर्मों के पूरी तरह से नष्ट हो जाने को क्षय कहते हैं, कर्मों का बिलकुल अभाव हो जाने से आत्मा का जो निर्मल स्वभाव बनता है, सो " क्षायिक भाव" है !

उदाहरण :- ऊपर वाले दृष्टांत में जब मैल नीचे बैठ गया, तो ऊपर ऊपर से साफ़ पानी को निकाल कर दूसरे बर्तन में रख लिया, जैसे यह जल निर्मल हो गया, सो ही आत्मा भी निर्मल हो जाती है कर्मों के क्षय से l


३ -मिश्र (क्षायोपशमिक) भाव :-


कुछ कर्मों का क्षय और कुछ का उपशम सो मिश्र (क्षायोपशमिक) भाव है

उदाहरण :- ऊपर वाले दृष्टांत में जब पानी को दूसरे बर्तन में डाला तब भी उसमे कुछ मैल साथ में चला गया और नए बर्तन में नीचे बैठ गया !

यानि, वर्त्तमान में आने वाले सर्वघाती कर्मों उद्धयभावी का क्षय और उन्ही के आगामी काल में आने वाले कर्मों का उपशम होना l

ये तीन भाव प्रमुख है, सम्यक्त्व कि प्राप्ति में l


मोह(मिथ्यात्व) ज्यादा होगा तो श्रद्धान विपरीत ही होगा ! और दृष्टि विपरीत होगी तो आत्मा का दर्शन हो नहीं सकता !


चउदस जीव समासा कमेण सिद्धा य णादव्वा !!"

गुणस्थान चौदह होते हैं,


इसमें आरोहण(नीचे से ऊपर) और अवरोहण(ऊपर से नीचे) दोनों होते हैं l


ऐसे तो असंख्यात गुणस्थान होते हैं, क्यूंकि आत्मा के गुणों कि अवस्था भी असंख्यात हैं, किन्तु प्रयोजन भूत करने के लिए चौदह गुणस्थान प्रमुख बतलाये हैं !

प्रश्न:-मुझे तो चाहे किसी एक देव से मतलब है अथवा सब देव वन्दनीय हैं, निन्दाकिसी की नहीं करनी चाहिए इस प्रकार वैनयिक और संशय मिथ्यादृष्टि मानताहै, तब उनमें तथा मिश्र गुणस्थानवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टि में क्या अन्तर है ?

उत्तर : वेनयिक मिथ्यादृष्टि तथा संशयमिध्यादृष्टि तो सभी देवों में तथा सब शास्त्रों में से किसी

एक की भक्ति के परिणाम से मुझे पुण्य होगा ऐसा मानकर संशय रूप से भक्ति करता है उसको किसी एकदेव में निश्चय नहीं है और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव के दोनों में निश्चय है। (बृ.ब्र.सं. १३. टी.)


सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव का मिथ्यात्वसहित मिथ्यादृष्टि गुणस्थान को अथवा सम्यक्त्वसहित असंयत गुणस्थान को छोड़कर अन्य गुणस्थानों में गमन का अभाव है।

सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव न संयम को प्राप्त होता है और न देश संयम को।



दूसरा और तीसरा गुणस्थान जीव के पतन काल में होते हैं, उत्थान काल में नहीं  l



चौथे असंयत/अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में रहते हुए जीव के जब "मोहनीय कर्म की सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति" का उदय आता है, तो वह जीव चौथे गुणस्थान से गिरकर तीसरे गुणस्थान में आ जाता है l


इस गुणस्थान का काल भी अधिक से अधिक एक अन्तर्मुहुर्त का होता है l



नोट :- तीसरे गुणस्थान वाला जीव अगर संभल जाए तो चौथे गुणस्थान में पहुच जाता है, वर्ना नीचे के गुणस्थानों में उसका पतन निश्चित ही है l


सम्यगमिथ्यात्व का उदय तीसरे गुणस्थान में होता है l


 1 ले मिथ्यात्व के गुणस्थान पर 1) मतिज्ञान, 2) श्रुतज्ञान तथा 3) विभंगअवधि और अवधिज्ञान होता है l 


ये ही 2 रे, 3 रे, तथा चौथे सम्यक्त्व के गुणस्थान पर भी होते हैं। 


तीसरे मिश्रगुणस्थान पर ८ कर्मों की उदीरणा कर सकता है । मिश्र गुणस्थान पर लम्बे काल तक स्थिर नहीं रहता है, वहाँ अंतर्मुहूर्त पश्चात् तो गुणस्थान का परिवर्तन हो जाता है । आयुष्य कर्म की अन्तिम आवलिका तक आयुष्य की उदीरणा न होने से ७ कर्म की उदीरणा होती है अन्यथा सदा ८ कर्म की उदीरणा होती है ।


मिश्र गुणस्थान तीसरे पर मरता नहीं है, अतः ८ की उदीरणा करता है 


मतलब ये कि, जीव गुणस्थान जब चढ़ना शुरू करता है, तो पहले से सीधे चौथे में पहुँचता है, और वहाँ से गिर कर तीसरे/दूसरे में पहुँचता है l

यह आत्मा की संदेह सहित दोलायमान अवस्था है। इसमें विचार-धारा निश्चित नहीं होती है। तत्व के प्रति दृष्टि मिश्रित होती है। सम्यक् है या असम्यक्- इस प्रकार संदेहशील होती है । इस द़ोलायमान अवस्था वाले व्यक्ति का गुण स्थान मिश्र गुणस्थान होता है। पहले गुण स्थान और इस गुणस्थान में यही भिन्नता है कि पहले वाले की दृष्टि तत्व के प्रति एकांत रूप से मिथ्या होती है। और इस गुणस्थान वाले की संदिग्ध होती है



तीसरे गुणस्थानक में मृत्यु नहीं होती है, अतः वहाँ आठ कर्मों की उदीरणा होती है। आयुष्य की अंतिम आवलिका में यद्यपि उदीरणा रुक जाती है, परंतु इस गुणस्थानक का संभव नहीं है।

ज्ञान मार्गणा में 5 ज्ञान के साथ 3 अज्ञान का भी समावेश किया है। 

यहाँ सर्वप्रथम अज्ञानत्रिक का बंध स्वामित्व बतलाते हैं ।

अज्ञान त्रिक में पहले दो या तीन गुणस्थानक होते हैं। अज्ञान का कारण मिथ्यात्व हैं। अतः यहाँ सामान्य से तीर्थंकर नाम कर्म व आहारक द्विक कम हो जाने से पहले गुणस्थानक में 117, दूसरे में 101 व तीसरे में 74 प्रकृतियों का बंध होता है। तीसरे गुणस्थानक में जीव की दृष्टि सर्वथा शुद्ध या सर्वथा अशुद्ध नहीं होती है। मिश्रदृष्टि में ज्ञान भी मिश्र रूप होता है कुछ अंश में ज्ञान व कुछ अंश में अज्ञान होता है।इस दृष्टि में शुद्धता अधिक हो तो ज्ञान व अशुद्धता अधिक हो तो अज्ञान माना जाता है ।

जो कर्म उदयमान हो उसी की उदीरणा होती है, जो कर्म उदयमान नहीं है, उसकी उदीरणा नहीं होती है।

उदयमान कर्म आवलिका प्रमाण शेष रह जाता है, तब उदीरणा रुक जाती है।

तीसरे गुणस्थानक को छोड़ पहले से छठे गुणस्थानक में सात या आठ कर्मों की उदीरणा होती है। जब आयु की उदीरणा नहीं होती है, तब सात कर्मों की और आयुष्य की उदीरणा हो तब आठ कर्मों की उदीरणा होती है।

इस नियम के अनुसार वर्तमान भव का आयुष्य जब आवलिका प्रमाण बाकी रह जाता है, तब आयु की उदीरणा रुक जाती है ।

उदीरणा अर्थात् एक आवलिका के बाहर रहे हुए कर्म-दलिकों की खींचकर उदयावलिका में लाकर डालना ।

जब आयुष्य कर्म आवलिका मात्र बाकी होता है, तब आवलिका के बाहर तो आयुष्य कर्म के दलिक है नहीं, अतः किसकी उदीरणा होगी ? 

यद्यपि आगामी भव का आयुष्य सत्ता में है परंतु वह आवलिका के बाहर है- अभी उसका उदय चालू नहीं है, अतः उसकी तो उदीरणा होती नहीं है।

अंतिम आवलिका में आयुष्य की उदीरणा न होने से चरम आवलिका में सात कर्मों की ही उदीरणा होती है।

तीसरे गुणस्थानक में मृत्यु नहीं होती है, अतः वहाँ आठ कर्मों की उदीरणा होती है। आयुष्य की अंतिम आवलिका में यद्यपि उदीरणा रुक जाती है, परंतु इस गुणस्थानक का संभव नहीं है।

जो जीव मिथ्यात्व से तीसरे गुणस्थानक में आता है, उसमें अशुद्धि विशेष होती हैं और जो चौथे से तीसरे गुणस्थानक में आता है, उसमें सम्यक्त्व का अंश होने से विशुद्धि होती है, अतः विशुद्धि हो तो ज्ञान एवं अशुद्धि हो तो अज्ञान माना जाता है।

इसी अपेक्षा से अज्ञान में दो या तीन गुणस्थानक माने जाते हैं। 


जो जीव मिथ्यात्व से तीसरे गुणस्थानक में आता है, उसमें अशुद्धि विशेष होती हैं और जो चौथे से तीसरे गुणस्थानक में आता है, उसमें सम्यक्त्व का अंश होने से विशुद्धि होती है, अतः विशुद्धि हो तो ज्ञान एवं अशुद्धि हो तो अज्ञान माना जाता है।


दूसरे-तीसरे गुणस्थानक में मिश्र मोहनीय की ध्रुव सत्ता :* मोहनीय की 28 प्रकृतियों की सत्तावाला ही सास्वादन गुणस्थान में आ सकता है, अतः सास्वादन गुणस्थान में मिश्रमोहनीय की सत्ता अवश्य होती है।

सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान को वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और मोहकर्म की 28 प्रकृतियों की सत्तावाले मिथ्यादृष्टि जीव भी प्राप्त होते हैं। (अर्थात् अनादि मिथ्यादृष्टि या जिन्होंने सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियों की उद्वेलना कर दी है ऐसे मिथ्यादृष्टि ‘सम्यग्मिथ्यादृष्टि’ गुणस्थान को प्राप्त नहीं होते)।



मिश्रमोहनीय के उदय बिना मिश्र गुणस्थानक प्राप्त नहीं होता है, अतः वहाँ मिश्रमोहनीय की सत्ता अवश्य होती है ।


मिथ्यात्व की ध्रुव सत्ता :* मिथ्यात्व गुणस्थानक में मिथ्यात्व की सत्ता अवश्य होती है। मोहनीय की 28 प्रकृतियों की सत्तावाला ही सास्वादन गुणस्थान प्राप्त कर सकता है, अतः सास्वादन में भी मिथ्यात्व की सत्ता होती है।


इस गुणस्थान में एक संज्ञी पर्याप्तक ही जीव समास संभव है, एकेंद्रियादि असंज्ञी पर्यंत के जीव तथा सर्व ही प्रकार के अपर्याप्तक जीव इसको प्राप्त नहीं कर सकते)।


प्रारम्भ के चार गुणस्थान दर्शनमोहनीय के निमित्त से होते हैं।




सम्यक्त्व से पतित होकर तीसरे गुणस्थानक में आए जीव को भी मिथ्यात्व की सत्ता अवश्य होती है। मिथ्यात्व से मिश्र गुणस्थानक पर आए जीव को भी 28 या 27 (सम्यक्त्व रहित) प्रकृति की अवश्य सत्ता होती है, अतः पहले तीन गुणस्थान में मिथ्यात्व की ध्रुवसता होती है। 

सास्वादन में समकित मोहनीय की ध्रुव सत्ता :* मोहनीय की 28 प्रकृतियों की सत्तावाला जीव ही सास्वादन गुणस्थानक में आ सकता है, अतः यहाँ भी समकित मोहनीय की सत्ता होती है। 


तीसरे गुणस्थानक में आहारकद्विक, औदारिकमिश्र, वैक्रियमिश्र और कार्मण इन पाँच को छोड़ दस योग होते हैं।

अपर्याप्त अवस्था में तीसरा गुणस्थानक नहीं होता है, अतः अपर्याप्त अवस्था भावी कार्मण योग, औदारिक मिश्र और वैक्रिय मिश्र योग नहीं होते हैं तथा संयमधर को ही आहारकद्विक होने से तीसरे गुणस्थानक में भी ये दो योग नहीं होते हैं।


फिर मिथ्यात्व सास्वादन, मिश्र, देशविरति और सूक्ष्म संपराय चारित्र का अपना-अपना एकही गुणस्थानक है, क्योंकि वे वे गुण (दोष) उसी गुणस्थानक में होते हैं ।


मिथ्यात्व सास्वादन और अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानक में आहारक द्विक को छोड़कर तेरह योग होते हैं ।

अपूर्वकरण से लेकर पाँच गुणस्थानकों में चार मन, चार वचन और एक औदारिक कुल नौ योग होते हैं।

मिश्र गुणस्थानक में उक्त नौ व वैक्रिय, कुल 10 योग होते हैं।

आहारक और आहारक मिश्र ये दो योग सर्वविरतिधर के ही होते हैं, अत: पहले, दूसरे व चौथे गुणस्थानक में ये दो योग नहीं होते है। इनके सिवाय के तेरह योग होते हैं। 


तीसरे गुणस्थानक में आहारकद्विक, औदारिकमिश्र, वैक्रियमिश्र और कार्मण इन पाँच को छोड़ दस योग होते हैं।

अपर्याप्त अवस्था में तीसरा गुणस्थानक नहीं होता है, अतः अपर्याप्त अवस्था भावी कार्मण योग, औदारिक मिश्र और वैक्रिय मिश्र योग नहीं होते हैं तथा संयमधर को ही आहारकद्विक होने से तीसरे गुणस्थानक में भी ये दो योग नहीं होते हैं।

  नारकी जीव मे 4गुणस्थान होते है पर

पहले 4 - मिथ्यात्व,सास्वादन, मिश्र और अविरत सम्यग्ददृष्टि-नारकियों में पंचमादि गुणस्थान  नहीं होते कारण-अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से


गुणस्थान : स्वरूप एवं समीक्षा 


3. सम्यक्-मिथ्यादृष्टि गुणस्थान या मिश्र गुणस्थान यह गुणस्थान भी विकास-श्रेणी का सूचक न होकर पतनोन्मुख अवस्था का ही सूचक है, जिसमें अवक्रान्ति करने वाली पतनोन्मुख आत्मा चतुर्थ गुणस्थान से पतित होकर आती है। यद्यपि उत्क्रान्ति करने वाली आत्माएँ भी प्रथम गुणस्थान से निकलकर तृतीय गुणस्थान को प्राप्त कर सकती हैं यदि उन्होंने कभी भी चतुर्थ गुणस्थान का स्पर्श किया हो। जो चतुर्थ गुणस्थान में यथार्थ का बोध कर पुन: पतित होकर प्रथम गुणस्थान को प्राप्त करती हैं वे ही आत्माएँ अपने उत्क्रान्ति काल में प्रथम गुणस्थान से सीधे तृतीय गुणस्थान में आती हैं। लेकिन जिन आत्माओं ने कभी सम्यक्त्व ( यथार्थ बोध ) का स्पर्श नहीं किया है वे अपने विकास में प्रथम गुणस्थान से सीधे चतुर्थ गुणस्थान में जाती हैं। क्योंकि संशय उसे हो सकता है जिसे यथार्थता का कुछ अनुभव हुआ है। यह एक अनिश्चय की अवस्था है, जिससे साधक यथार्थ बोध के पश्चात् संशयावस्था को प्राप्त हो जाने के कारण सत्य और असत्य के मध्य  झूलता रहता है। नैतिक दृष्टि से कहें तो यह एक ऐसी स्थिति है जबकि व्यक्ति वासनात्मक जीवन और कर्तव्यशीलता के मध्य अथवा दो परस्पर विरोधी कर्तव्यों के मध्य उसे क्या करना श्रेय है, इसका निर्णय नहीं कर पाता) वस्तुत: जब व्यक्ति सत्य और असत्य के मध्य किसी एक का चुनाव न कर अनिर्णय की अवस्था में होता है, तब ही यह अनिश्चय की स्थिति उत्पन्न होती है। इस अनिर्णय की स्थिति में व्यक्ति को न सम्यग्दृष्टि कहा जा सकता है, न मिथ्यादृष्टि। यह भ्रान्ति की एक ऐसी अवस्था है जिसमें सत्य और असत्य ऐसे रूप में प्रस्तुत होते हैं कि व्यक्ति यह पहचान नहीं कर पाता कि इनमें से सत्य कौन है ? फिर भी इस वर्ग में रहा हुआ व्यक्ति असत्य को सत्य रूप में स्वीकार नहीं करता है। यह अस्वीकृत भ्रान्ति है, जिसमें व्यक्ति को अपने भ्रान्त होने का ज्ञान रहता है, अत: वह पूर्णत: न तो भ्रान्त कहा जा सकता है न अभ्रान्त। जो साधक सन्मार्ग या मुक्ति पथ में आगे बढ़ते हैं, लेकिन जब उन्हें अपने लक्ष्य के प्रति संशय उत्पन्न हो जाता है, वे चौथी श्रेणी से गिरकर इस अवस्था में आ जाते हैं। अपने अनिश्चय की अल्प कालावधि में इस वर्ग में रहकर, सन्देश के नष्ट होने पर या तो पुन: चौथे सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में चले जाते हैं या पथ-भ्रष्ट होने से पहले मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में चले जाते हैं। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह पाशविक एवं वासनात्मक जीवन के प्रतिनिधि इदम् ( अबोधात्मा ) और आदर्श एवं मूल्यात्मक जीवन के प्रतिनिधि नैतिक मन ( आदर्शात्मा ) के मध्य संघर्ष की वह अवस्था है जिसमें चेतन मन ( बोधात्मा ) अपना निर्णय देने में असमर्थता का अनुभव करता है और निर्णय को स्वल्प समय के लिये स्थगित रखता है। यदि चेतन मन वासनात्मकता का पक्ष लेता है तो व्यक्ति भोगमय जीवन की ओर मुड़ता है अर्थात् मिथ्यादृष्टि हो जाता है और यदि चेतन मन आदर्शों या नैतिक मूल्यों के पक्ष में अपना निर्णय देता है, तो व्यक्ति आदर्शों की ओर मुड़ता है अर्थात् सम्यग्दृष्टि हो जाता है। मिश्र गुणस्थान जीवन के संघर्ष की अवस्था का द्योतक है, जिसमें सत्य और असत्य, शुभ और अशुभ अथवा मानव में निहित पाशविक वृत्तियों और आध्यात्मिक वृत्तियों के मध्य संघर्ष चलता है। लेकिन जैनविचारधारा के अनुसार यह वैचारिक या मानसिक संघर्ष की अवस्था अन्तर्मुहूर्त ( 48 मिनट ) से अधिक नहीं रहती। यदि आध्यात्मिक एवं नैतिक पक्ष विजयी होता है तो व्यक्ति आध्यात्मिक विकास की दिशा में आगे बढ़कर यथार्थ दृष्टिकोण को प्राप्त कर लेता है, अर्थात् वह चतुर्थ अविरत सम्यक्दृष्टि गुणस्थान में चला जाता है, किन्तु जब पाशविक वृत्तियाँ विजयी होती हैं तो व्यक्ति वासनाओं के प्रबलतम आवेगों के फलस्वरूप यथार्थ दृष्टिकोण से वंचित हो पुन: पतित होकर प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में चला जाता है। इस प्रकार नैतिक प्रगति की दृष्टि से यह तीसरा गुणस्थान भी अविकास की अवस्था ही है; क्योंकि जब तक व्यक्ति में यथार्थ बोध या शुभाशुभ के सम्बन्ध में सम्यक् विवेक जाग्रत नहीं हो जाता है, तब तक वह नैतिक आचरण नहीं कर पाता है। इस तीसरे गुणस्थान में शुभ और अशुभ के सन्दर्भ में अनिश्चय की अवस्था अथवा सन्देहशीलता की स्थिति रहती है, अत: इस अवस्था में नैतिक आचरण की सम्भावना नहीं मानी जा सकती। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस तृतीय मिश्र गुणस्थान में अर्थात् अनिश्चय की अवस्था में मृत्यु नहीं होती, क्योंकि आचार्य नेमिचन्द्र का कथन है कि मृत्यु उसी स्थिति में सम्भव है जिसमें भावी आयुकर्म का बन्ध हो सके। इस तृतीय गुणस्थान में भावी आयुकर्म का बंध नहीं होता, अत: मृत्यु भी नहीं हो सकती। इस सन्दर्भ में डॉक्टर कलघाटगी कहते हैं कि इस अवस्था में मृत्यु सम्भव नहीं हो सकती, क्योंकि मृत्यु के समय इस संघर्ष की शक्ति चेतना में नहीं होती है, अत: मृत्यु के समय यह संघर्ष समाप्त होकर या तो व्यक्ति मिथ्या दृष्टिकोण को अपना लेता है या सम्यक् दृष्टिकोण को अपना लेता है। यह अवस्था अल्पकालिक होती है, लेकिन अल्पकालिकता केवल इसी आधार पर है कि मिथ्यात्व और सम्यक्त्व की सीमा-रेखाओं का स्पर्श नहीं करते हुए संशय की स्थिति में अधिक नहीं रहा जा सकता। लेकिन मिथ्यात्व और सम्यक्त्व की सीमाओं का स्पर्श करते हए यह अनिश्चय की स्थिति दीर्घकालिक भी हो सकती है। गीता अर्जुन के चरित्र के द्वारा इस अनिश्चय की अवस्था का सुन्दर चित्र प्रस्तुत करती है। आंग्ल साहित्य में शेक्सपीयर ने अपने हेमलेट नामक नाटक में राजपूत्र हेमलेट के चरित्र का जो शब्दांकन किया है वह भी सत् और असत् के मध्य अनिश्चयावस्था का अच्छा उदाहरण है।

सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में मारणान्तिक समुद्धात नहीं होता है।


सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में मरण नहीं होता है।


सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में आयुबन्ध भी नहीं होता है।


सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त है।


सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान वाला संयम को भी प्राप्त नहीं कर सकता है।












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