मृत्यु के अनेक रूप

 मंगलकारी मृत्यु

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यह जिन्दगानी पानी पर खिंची गई लकीर के समान है... अतः हे आत्मन् ! हजार काम छोड़कर भी धर्माचरण कर लेना।


धर्माचरण करना ... जीवन का असली बीमा करवाना है। घर से बाहर निकलने से पहले बीमा करवा लेना क्योंकि बाहर चारों तरफ मौत ही मौत मंडरा रही है। यदि आज तुमने ऐसा नहीं किया तो कल निश्चित ही खतरा होगा।


जिसने जिन्दगी में मृत्यु की तैयारी कर ली उसके लिए मृत्यु कभी अशुभ नहीं हो सकती। मृत्यु उन्हीं के लिए अशुभ होती है जिनका जीवन अशुभ होता है। जीवन उन्हीं का अशुभ होता है जिन्होंने लालच में लिपटकर कर्मों का बोझा बढ़ाया है।


हर रोज धर्म में मन लगता रहा अर्थात् शुभ में स्थिरता बढ़ती गई तो रोज-रोज मृत्यु की तैयारी होती रहेगी और अन्त में मृत्यु मंगलकारी सिद्ध होगी। ऐसी मृत्यु अपने लिए और दूसरों के लिए Turning Point बनती है और आन्तरिक दृष्टि को भी उद्घाटित करती है।


मौत को सुधारने का एक ही उपाय है, जीवन को संवारो... जीवन को संवारने का एक ही उपाय है, प्रत्येक पल का सदुपयोग करो।


जितने दिन जिन्दा हो उसे गनीमत समझो और इससे पहले कि लोग तुम्हें मुर्दा कहे, नेकी कर जाओ। आनेवाले कल की हमने हमेशा चिन्ता की है किन्तु आनेवाले जन्म की हमें कोई चिन्ता नहीं है। आगे के जन्म की यदि हमें फिक्र होगी तो मौत मंगलकारी सिद्ध होगी।


चौबीस घंटों में से अगर चौबीस मिनट भी धर्म को तन्मयता से साध लिया तो जीवन सध जाएगा. जिन्दगी सम्भल जाएगी।


जीवन की लालसा

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एक पेड़ पर दो बाज पक्षी अपना शिकार चोंच में दबाये हुए परस्पर शिकार-कथा सुनाने के लिए बैठे थे। एक की चोंच में साँप था और दूसरे की चोंच में चूहा।


बाज पक्षियों ने जब अपनी पकड़ ढीली की तो साँप ने चूहे की ओर देखा और चूहे ने साँप की ओर। जब साँप, चूहे का स्वादिष्ट भोजन पाने के लिए जीभ लपलपाने लगा तब चूहा साँप को देखकर भयवश शिकारी-बाज के डैनों में छिपने का उपक्रम करने लगा। यह दृश्य देखकर दोनों बाज पक्षी विचारमग्न हो गए।


एक बाज ने अपनी चोंच में पकड़े हुए साँप की ओर संकेत करते हुए कहा, "यह कैसा विचित्र प्राणी है ? जीभ की लिप्सा के आगे इसे अपनी मौत का भी विस्मरण हो रहा है।" तब दूसरे बाज ने चूहे की ओर देखते हुए कहा, "यह भी तो कितना नासमझ है... इसे पता है अगले पल यह मेरा निवाला बनने वाला है तब भी साँप से डरकर अपने को बचाने के लिए मेरे ही डैनों में छिपने की भरपूर कोशिश कर रहा है।"


उस पेड़ के नीचे बैठा हुआ एक मुसाफिर दोनों बाज पक्षियों का संवाद सुनकर चिन्तन करने लगा, क्या हम मनुष्यों की भी दशा ऐसी विचित्र नहीं है ? चूहे की भाँति मनुष्य अन्तिम क्षण तक जीने की आशा नहीं छोड़ता और साँप की तरह उसकी अदस्य लालसाएँ जीवन के अन्त तक जीवित रहती हैं।


हकीकत यह है, लालसा अनन्त है... जो कभी तृप्त नहीं होती। तृप्त होना मन का स्वभाव नहीं है। यदि आग को लकड़ियों से बुझाया जा सकता हो और सागर को नदियों से तृप्त किया जा सकता हो तो मन की कामनाओं को तृप्त किया जा सकेगा।


जीने की इच्छा ही सब दुःखों की जननी है। चाहे शरीर जीर्ण-शीर्ण हो जाए, बाल सफेद हो जाए... दांत टूट जाए तब भी उसकी जीने की इच्छा खत्म नहीं होती


अन्तिम सच

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जीवन का सबसे बड़ा सच मृत्यु है। इस दुनिया में कोई धर्म और कर्म को माने या न माने... ईश्वर की सत्ता को माने या न माने किन्तु मौत को ... आस्तिक हो या नास्तिक, सभी मानते हैं। 


आत्मा का शरीर से अलग हो जाने का नाम मृत्यु है क्योंकि जब तक शरीर और आत्मा का सम्बन्ध है तब तक जीवन है। चूँकि मृत्यु जीवन की असलियत है इसलिए इसे समझने की जरूरत है।


मनुष्य की एकमात्र यही भूल है, उसे सूरज का निकलना याद रहता है मगर उसका ढलना याद नहीं रहता। ढलता हुआ सूरज एक बौना सा संदेश देकर जाता है, अब संभल जाना ... अन्धकार होने वाला है। जो सूरज उग चुका है उसके ढलने में ज्यादा देर नहीं लगती क्योंकि सुबह का सूरज साँझ का सूरज बनने में हर पल संलग्न है।


इस प्रकार मिलन के क्षण में विदाई को न भूलें ... किसी से मिलो तो याद रखना कल बिछुड़ना भी है ... देर-सवेर तो विदा होना ही है। किसी से हाथ मिलाते वक्त यह मत भूला देना, इसे कल अलविदा भी कहना है। खिलते फूल में मुरझाये फूल की झलक देख लेना। यूँ जीवन में प्रतिपल घटित होने वाली मृत्यु को मत भूल जाना। जैसे गरमी के मौसम में सूर्य की किरणें जल को सुखाती हैं वैसे ही दिन और रात जो निरन्तर बीत रहे हैं, वे प्राणियों के आयुष्य को सुखाते हैं।


मरघट से आगे मनुष्य के साथ उसके अच्छे-बुरे कर्म जाते हैं। इस बहाने जीवन में थोड़ा ही सही धर्माचरण, सत्संग और सत्कार्य का संचय कर लेना क्योंकि अन्तिम सफर में सिर्फ ये ही काम आते हैं।


जीवन का सूर्यास्त होने से पूर्व श्रद्धा की नौका में ... सद्‌गुरू के संगाथ से ... धर्म का चप्पू चलाकर उस पार लग जाना।


संसार का घटनाक्रम

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.... जन्म... जीवन ... मृत्यु ...


यह घटनाक्रम संसार में अनादि काल से चल रहा है। जब तक जन्म, जीवन और मृत्यु का यह चक्र चलता रहेगा तब तक आत्मा दुःख और अशान्ति से ग्रस्त रहेगी।


इसलिए महापुरूषों की वाणी प्रेरित करती है, ऐसा पुरूषार्थ करो ... फिर से जन्म लेना ही न पड़े।


जन्म विकृति है ... क्योंकि जन्म के समय अबोधता है। जीवन संस्कृति है... क्योंकि जीवन के काल में स्वतंत्रता है। मृत्यु प्रकृति है ... क्योंकि मृत्यु संसार की स्वाभाविकता है।


जहाँ जन्म नहीं वहाँ जीवन नहीं... जहाँ जीवन नहीं, वहाँ रोग, बुढ़ापा, मृत्यु कुछ भी नहीं है। एकमात्र 'मोक्ष' का स्थान ऐसा है,


जहाँ जन्म नहीं है इसलिए दुःख भी नहीं है


जहाँ जीवन नहीं है इसलिए अशान्ति भी नहीं है ...


जहाँ मृत्यु नहीं है इसलिए पीड़ा भी नहीं है।


श्री शंकराचार्य कहते हैं, 'आयुष्य नीर, तन अंजलि, टपकत श्वासोच्छ्वास' अर्थात् हर श्वास के साथ आयुष्य का जल तन की अंजलि से टपक रहा है। जब तक मोक्ष की मंजिल नहीं मिलेगी तब तक मृत्यु के चरण निरन्तर पथ की दूरी नापते चले जाएँगे।


'आत्मा' और 'मृत्यु' के चिन्तन से जिसने जीवन में ताजगी प्राप्त की है ऐसे अंग्रेज कवि J. Collins ने कहा, 'जीवन का विनाशी वस्त्र मैंने सत्तर वर्ष तक ओढ़ा है, जब भी उसके उतारने का समय आयेगा तब मैं बिलकुल ना नहीं कहूँगा बल्कि उस समय मैं अपना चेहरा दर्पण में देख मुस्कुराऊँगा"


जीवन का सार

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एक चिन्तनकार ने लिखा है -


"छोटा सा तू कितने बड़े अरमान है तेरे, 

मिट्टी का तू सोने के सब सामान है तेरे। 

मिट्टी की काया मिट्टी में जिस दिन समायेगी, 

न सोना काम आयेगा न चाँदी आयेगी ।"


जब तक आँखें खुली हैं तब तक मनुष्य कितनी खटपट और उठापटक करता है। नाना प्रकार के उपद्रव और झंझटें खड़ी करता है और कितना लड़ता-झगड़ता है।


ये अनबन, तेरा-मेरा, गाली-गलौज और मार-पीट तभी तक है जब तक आँखें खुली हैं। जब आँखें सदा के लिए मूँद जाती हैं तो ये घर-मकान, जमीन-जायदाद, हवेलियाँ-तिजोरियाँ, पद- प्रतिष्ठा, मान-अपमान और शत्रु-मित्र सब ज्यों के त्यों पड़े रह जाते हैं।


जिन्दगी के हर पल पर मौत का साया है... हर क्षण पर मृत्यु का सख्त पहरा है ... हर साँस जीवन है तो हर साँस मृत्यु है।


इसलिए ऐसा सोचना मत आदमी बुढ़ापे में मरता है और जवानी में नहीं मरता चूँकि वह हर पल मर रहा है।


जिसके लिए बड़ा भारी पाप व अन्याय किया वह धन या परिवार साथ नहीं जायेगा फिर भी अपने-पराये का जाल-जंजाल प्राणों के छूटने तक बना रहता है। यहाँ अपना कुछ नहीं क्योंकि न कुछ ले कर आये थे और न कुछ ले कर जाएँगे ... ।


जिसके पालन-पोषण और सजाने-संवारने में सारा जीवन लगा दिया वह शरीर भी साथ नहीं जाएगा। मौत के बाद कुछ घंटों में इस नश्वर देह ने भस्म हो जाना है तो क्यों न इस तन से परमार्थ को साधा जाए ... 


आखिर ऐसा क्यों ...?

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'हे भगवन् ! मुझे मौत दो, अब मैं जीना नहीं चाहता। ऐसे जीने से तो मर जाना अच्छा है।'


ऐसे उद्‌गार मनुष्य अक्सर दुःख से घबराकर, निराश और व्याकुल अवस्था में कह देता है किन्तु मौत आने पर भगवान के आगे गिड़गिड़ाकर बचने का ही प्रयास करता है। लोग दुःख से घबराकर मृत्यु को याद कर लेते हैं पर उनका याद करना इतना नकली और परिस्थितिजन्य है कि मौत आ जाने पर वे भयंकर दुःख में भी जीना ही अच्छा समझते हैं।


आश्चर्य है, एक क्षण पूर्व जो व्यक्ति अपनी मौत के लिए मिन्नतें कर रहा था ... दूसरे पल वह मौत से बचने के लिए प्रार्थना करता हुआ नजर आता है। आखिर ऐसा क्यों? इस सम्बन्ध में गहराई से विचार करने पर तीन कारण उपस्थित होते हैं।


पहला कारण है, जीवन के प्रति गहरा लगाव... जो मनुष्य को विकट परिस्थितियों में भी जीने को लालायित करता है। ऐसी जीवैषणा के कारण मनुष्य समस्त प्रतिकूलता के बीच भी जीने के लिए तत्पर रहता है।


दूसरा कारण है, 'मुझे सद्गति मिलेगी या नहीं'... इस आशंका से वह जीवन को छोड़ना नहीं चाहता। जीवन में सत्कार्य के अवसरों को खो देने के कारण दुर्गति का भय उसके मन में सदा बना रहता है।


तीसरा कारण है, उसका संदिग्ध मन जो मृत्यु सम्बन्धी अस्पष्ट धारणाओं के कारण द्वन्द्व और भ्रम पैदा करता है। फलतः वह जीवन को छोड़ना नहीं चाहता।


हालाँकि जो जीवन को सम्यक् रीति से जीते हैं वे अपनी मृत्यु को फेस टू फेस झेलकर जीवन का असली मूल्य प्राप्त कर लेते हैं

मौत की कोई दवा नहीं

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एक माँ का इकलौता जवान बेटा मर गया तो वह रोती हुई महात्मा बुद्ध के चरणों में गिड़गिड़ाने लगी, "महात्मन् ! मेरे पुत्र को जिन्दा कर दीजिये, इसके लिए मैं कुछ भी करने को तैयार हूँ।"


महात्मा बुद्ध ने कहा, "हम तुम्हारे बेटे को अवश्य जीवित कर देंगे किन्तु इसके लिए तुम्हें एक मुट्ठी चावल उस घर से लाने होंगे जहाँ किसी की मृत्यु न हुई हो।"


माता फौरन गाँव की ओर चल पड़ी और दिन भर भटकती रही .... किन्तु किसी भी घर से वह मुट्ठी भर चावल न ले सकी.... आखिर हताश हो कर उसे खाली हाथ बुद्ध के पास लौटना पड़ा। उसे कोई भी ऐसा डेरा नहीं मिला जहाँ मौत ने अपना फेरा न डाला हो। निराश हो कर वह महात्मा बुद्ध के चरणों में पहुँची और विलाप करने लगी।


तब महात्मा बुद्ध ने सच्चाई को उद्घाटित करते हुए कहा, "जीवन की समस्त घटनाओं में सिर्फ मृत्यु ही निश्चित है। जैसे वसन्त के बाद पतझड़ का क्रम निश्चित है इसी प्रकार जन्म के बाद मृत्यु भी सुनिश्चित है। इस कारण हर उपाय मृत्यु के सामने असहाय है।"


यह सुन कर माँ की चेतना जाग गई और उसने बुद्ध के चरणों में प्रार्थना की "मुझे संन्यास दे दो, मैं भी अपनी मौत की तैयारी प्राणांत से पूर्व कर लेना चाहती हूँ। बेटा तो गया ... अब मेरा जाना भी दूर नहीं है। मुझे यह भली-भाँति समझ आ गया कि मौत सभी के साथ जुड़ी हुई है।"


इस पृथ्वीलोक में बहुत सी घटनायें ऐसी हैं जो अटल हैं जिन्हें सत्ता, संपत्ति या शस्त्र नहीं बदल सकते। कहा भी है -

"लुकमान सा दाना हकीम, मरते-मरते यूँ कह गया। 

हर हकीकत में यारों! मौत की कोई दवा नहीं ।"


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 🟠(16) जो व्यक्ति छोटे-छोटे दु:खों से घबराता है और आर्तध्यान के वशीभूत हो जाता है, वह मृत्यु के दु:ख में समाधि कैसे रख सकेगा? जो छोटा पत्थर उठाने में भी घबराता हो, वह पर्वत के भार को कैसे सहन कर सकेगा?

🟠(17) *वैराग्य शतक* में कहा है कि मृत्यु तुमसे दूर नहीं है, मृत्यु तो तुम्हारे साथ ही चल रही है। जिस प्रकार व्यक्ति की छाया व्यक्ति को छोड़कर दूर नहीं रहती है, वह तो जहां जाए साथ ही रहती है, इसी प्रकार मृत्यु भी छाया के बहाने अपने साथ ही चल रही है।अवसर पाते ही वह अपना हमला कर देती है और हमारे स्वामित्व व संबंधों को तोड़ देती है।

🟠 (18) जन्म के साथ मृत्यु का सीधा संबंध है। जिसने जन्म को स्वीकार किया, उसे मृत्यु को स्वीकार करना ही चाहिए। जन्म के बाद मृत्यु को अस्वीकार करना प्रकृति के सनातन सत्य का ही विरोध है। भगवान महावीर ने मृत्यु को नहीं जन्म को ही भयंकर कहा है। संसार का एक अबाधित नियम है कि जिसका जन्म नहीं ,उसकी मृत्यु नहीं एवं जिसने जन्म लिया उसकी मृत्यु निश्चित है।

 🟠(19) अनंतानंत जन्मों के साथ ही हर बार मृत्यु की घटना जुड़ी हुई है। हर जन्म के बाद मृत्यु की पीड़ा का हमने एहसास किया है, किंतु आश्चर्य है कि मृत्यु हमारे लिए हमेशा नई वस्तु बनी है। जितनी बार हमने जन्म लिया उतनी बार मृत्यु का वरण किया फिर भी आज हमें मृत्यु से डर है।

🟠(20) राजा हो या रंक, श्रीमंत हो या गरीब, सत्ताधारी हो या सत्ताविहीन, सेठ हो या नौकर, पुण्यशाली हो या पापी, अभिमानी हो या विनम्र-- मृत्यु न तो किसी के अधीन होती है और न ही किसी को छोड़ती है। मृत्यु अनिवार्य प्रसंग है। 

🟠(21)लोग दु:ख से घबरा कर मृत्यु  को याद कर लेते हैं,  पर उनका याद करना इतना नकली और परिस्थिति जन्य है कि मृत्यु आ जाने पर वे भयंकर दु:ख में भी जीना ही अच्छा समझते हैं।

🟠 (22) जिसके पालन पोषण और सजाने- संवारने में सारा जीवन लगा दिया, वह शरीर भी साथ में नहीं  जाएगा। मृत्यु के बाद कुछ ही घंटों में इस नश्वर देह को भस्म हो जाना है, तो क्यों न इस तन से परमार्थ को साधा  जाए......!

 🟠 (23)मृत्यु को सुधारने का एक ही उपाय है, जीवन को संवारो ..... जीवन को संवारने का एक ही उपाय है, प्रत्येक पल का सदुपयोग करो।

🟠(24) संसार की सभी वस्तुएं नश्वर हैं, कभी-कभी उसका विनाश होगा। लिहाजा छूट जाने वाली वस्तुओं से मोह नहीं करना। इस प्रकार जीवन में निर्लेपता का भाव पनपाकर मृत्यु की कला को आत्मसात् कर लेना चाहिए।

🟠( 25) मृत्यु के समय न कोई सहायक होता है और न कोई रक्षक... अतः मौत की सच्चाई को हर पल नजर के सामने रखना चाहिए ।


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 🌷(36) हम जिसे मृत्यु कहते हैं.... वह केवल एक शरीर से आत्मा का  वियोग है। एक शरीर को छोड़कर आत्मा दूसरी गति में चला जाता है... वहां जाकर नये शरीर का सर्जन करता है। जब आयुष्य कर्म समाप्त हो जाता है, तब मृत्यु होती है।

🌷(37) यदि मृत्यु की यथार्थता का विचार करें तो संसार के भौतिक पदार्थों पर मोह मूढता में परिणमन  नहीं होकर स्वयं निर्मोही बनने लगेगा। फिर किसी के प्रति राग- द्वेष या आसक्तिजन्य अपेक्षा जागृत नहीं होगी। वह स्वयं सोचेगा कि क्षणिक एवं विनाशी, क्षणभंगुर एवं अस्थाई ऐसे जीवन में किसके साथ प्यार करूं? या किसके साथ नफरत करुँ?

🌷 (38) समाधि मृत्यु अर्थात् साहजिक मृत्यु ,सहज भाव से देह का त्याग/देह का विसर्जन।देह का साहजिक त्याग तभी संभव है, जब जीवन में देह से ममत्त्व त्याग का अभ्यास किया हो।

🌷 (39) भाड़े का घर खाली करते समय कुछ भी दु:ख नहीं होता है क्योंकि हम मानते/ जानते हैं कि यह घर हमारा नहीं है। यह देह भी भाड़े का घर है। आयुष्य रुपी भाड़ा चुकाया है, उतने दिन हम इस देह रूपी घर में रह सकते हैं, अधिक नहीं। इस प्रकार का सम्यग् बोध हो जाए तो मृत्यु के समय देह त्याग करते हुए कुछ भी दु:ख और पीड़ा का अनुभव नहीं होगा।

🌷 (40) व्यक्ति और वस्तुओं के साथ किए गए संबंधों को तो मृत्यु तोड़ डालती है, परंतु उन पदार्थों के प्रति रही हुई ममता का त्याग, हमारी इच्छा के अधीन है। ममता ही बंधन का कारण है और ममता का विसर्जन बंधन- मुक्ति का उपाय है। सामान्यतः हर व्यक्ति को सबसे अधिक राग स्व देह पर होता है। देह के राग को तोड़ना अत्यंत कठिन है।

🌷 (41) अत्यंत ही सावधान और अप्रमत्त बन कर जीवन जीना चाहिए, ताकि किसी भी समय आने वाली मृत्यु का हम स्वागत(Welcome)कर सकें।

🌷 (42) मृत्यु भय तो उन्हीं  को होता है,  जिन्होंने पापमय जीवन गुजारा हो।

🌷( 43) मृत्यु के पीछे रोना पाप है। दिखावे के लिए रोए, तो माया/ दंभ का पाप लगता है एवं मोह के कारण रोए तो राग के पाप का बंध होता है।

🌷 (44) दु:ख आने पर मृत्यु की इच्छा रखना अज्ञानता है। मृत्यु की इच्छा रखने करने मात्र से दु:ख भाग नहीं जाता है। मानव आत्महत्या (आत्मघात) करे तो भी अशुभ कर्मों के परिणाम से बच नहीं सकता।

 🌷(45) आग लगने पर कुआं खोदने वाले को मूर्ख नहीं महामूर्ख कहा जाता है, उसी प्रकार शरीर, इंद्रियां एवं आयुष्य क्षीण हो जाने के बाद धर्म आराधना कर नहीं सकेंगे, इसलिए जब तक मृत्यु ने दस्तक नहीं दी, तब तक सत्कर्म, सत्कार्य, सदाचरण, सद्भावना एवं सद्धर्म का आचरण कर लेवें।

                  

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🌷 (56) मृत्यु के बिना जीवन उस राजा की भांति है, जो एक कथाकार के समक्ष यह कहने को विवश हो जाता है, बस और नहीं... अब अंत करो।

🌷 (57) जिंदगी में धन- जायदाद, सौंदर्य- ऐश्वर्य और संगी साथी मिले ना मिले, किंतु मौत अवश्य होगी, यह सर्वाधिक सुनिश्चित है।

🌷 (58) दूध फटने का गम उसे होता है, जिसे रसगुल्ले बनाना नहीं आता। मरने का गम उसे होता है, जिसे मृत्यु को महोत्सव बनाना नहीं आता।

 🌷(59) मानव जीवन की मंगलता   राग में नहीं त्याग में है... विलास में नहीं विराग में है.... स्वार्थ में नहीं परमार्थ में है... वस्तुओं को जुटाने में नहीं, मृत्यु की वास्तविकता को जानने में है।

 🌷(60) साधारणतया ऐसा होता है.... जब अपना जन्मदिन या शादी आदि का कोई प्रसंग हो तो अपनी मौजूदगी में सब उपस्थित होते हैं। सिर्फ एक मृत्यु का प्रसंग ऐसा है, जहां हमारे लिए सब लोग उपस्थित होते हैं किंतु हम स्वयं अनुपस्थित हैं ।

🌷(61) सच बात यह है कि इंसान अपने सिर का कर्जा... पापों का बोझा  और मृत्यु की वास्तविकता को याद रखना नहीं चाहता.... जहां तक हो सके इन्हें टालना चाहता है। हालांकि इन तीनों का स्मरण रखने में ही जीवन की सफलता है।

🌷( 62) जीवन अध्ययन काल है तो मृत्यु परीक्षा की घड़ी है। बिना अध्ययन के परीक्षा में सफल नहीं हुआ जा सकता और बिना परीक्षा दिए अध्ययन की परख नहीं हो सकती।

🌷 (63) मंजिल छोटी है पर उस तक पहुंचने का मार्ग लंबा होता है... इसी भांति मृत्यु चाहे एक पल की घटना हो, परंतु उसे सुधारने के लिए जिंदगी भर सावधानी रखनी पड़ती है।

 🌷(64) मृत्यु कोई छोटा-मोटा दोस्त नहीं है, बल्कि एक अजीज और मुक्कमल दोस्त है, जो उत्पाद, व्यय,ध्रौव्य, सृजन, सिंचन, संहार के मर्म को स्पष्ट करता है।

🌷 (65)मरण का रण जीतने के लिए इस सत्य को रेखांकित करना जरूरी है मृत्यु का कहीं कोई अस्तित्व ही नहीं है; और जो मरने या नष्ट होने का ही है।आप ही सोचिए कि जो जिसका स्वभाव है वह क्या कभी उसे छोड़ सकता है?

                 


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 ⭐(76.) जिसके विश्वास, संयम और चरित्र का पतन हो जाता है, उसके जीते जी मृत्यु हो जाती है।

⭐(77.) मृत्यु से मुकाबला करने के लिए कटिबद्ध हो कर बैठ जाना जीवन की बहुत बड़ी कला है।

⭐(78.)जिसे क्षण-क्षण मृत्यु दिखायी देने लगती है, वह जागरुक बन जाता है। जैसे जीवन का दर्शन है, वैसे ही मृत्यु का दर्शन भी है। जो इसे समझ लेता है, वह अपने जीवन की दिशा को बदल देता है।

⭐(79) वही मृत्यु महोत्सव है, जिसे व्यक्ति रोते-बिलखते नहीं हंसते-खेलते झेलता है।

⭐(80.) मात्र श्वासोच्छवास का चलना जीवन नहीं है, परंतु वह मृत्यु की तरफ प्रयाण है... सच्चा जीवन तो वह है, जहाँ प्रत्येक पल में सम्यग् सावधानी हो।

⭐(81.) लाखों की सम्पत्ति इकट्ठी करने में सफलता प्राप्त करने के बाद भी यदि मृत्यु के पश्चात् परलोक में एक कोड़ी भी साथ ले जाने में निष्फल हो तो इस सम्पत्ति केद्वाराअनेक आत्माओं को समाधि देने में हम निमित्त क्यों नहीं बनें।

⭐( 82.) मृत्यु आग की भाँति है। जैसे मिट्टी में पड़े हुए सोने को जला डालने की ताकत आग में नहीं है, परन्तु वह कचरे को जलाकर राख कर देती है। यही हाल मौत का है... उसमें आत्मा के एक भी आत्म प्रदेश को समाप्त कर डालने की क्षमता नहीं है पर शरीर के एक भी अंग को वह सलामत नहीं रहने देती। 

⭐(83.) मृत्यु उन सब चीजों को यहीं छोड़ जाती है, जो हमारी अपनी नहीं थी और वह सब ले जाती है, जो  पुण्य-पाप की गठरी हमने बांध रखी है ।

⭐(84.) मृत्यु आने के पूर्व शक्ति और समय का दुर्व्यय न हो, इसकी सावधानी रखना कल ये आँखे क्षीण और निस्तेज होने वाली है, ऐसा जानकर आँखों का सदुपयोग कर लेना... सिर्फ आँख की बात नहीं, जन्म-जन्म से बंधे अशुभ कर्म किसी भी समय उदय में आकर अँधा, बहरा, गूंगा या लँगड़ा बना सकते हैं, ऐसी अनगिनत, अनचाही/अनेक संभावनाएँ वास्तविकता में बदले उससे पहले उसका सदुपयोग कर लेना।

⭐(85.)आयुष्य का एक-एक कतरा समाप्त हो रहा है... इस टूटते हुए बहुमूल्य जीवन को पुनः जोड़ा नहीं जा सकता। न तीर्थंकर- न पैगंबर- न शंकर- न पुरंदर..... कोई भी आयुष्य  को बढ़ा नहीं सकता..... इस जिंदगी को बढ़ाने का कोई कीमिया नहीं और जीर्ण होते हुए जीवन को बचाने का कोई उपाय नहीं.... अतः मृत्यु आने से पहले हर घटना- दुर्घटना के प्रसंग पर जिंदगी की घड़ी को देखना ना भूलें, वरना जीवन तबाह हो जाएगा।

                  क्रमशः .........


     हर पल तैयार रहो

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शारीर में पैदा होने वाले अनेक रोगों को रोका जा सकता है, व्यापार में होने वाले भारी नुकसान से बचा जा सकता है... गिरते हुए मकान को संभाला जा सकता है... किन्तु मृत्यु के आगमन पर कोई पैबंद नहीं लगाया जा सकता ... वह सुनिश्चित है।


एक बात अच्छी तरह से समझ लेना, बौद्धिक हो या भौतिक कोई भी शक्ति आपको मौत से नहीं बचा सकती।


करोड़ों की पूँजी हो या डॉक्टर की डिग्री हो, प्रधानमंत्री का पद हो या पग-पग पर यश हो ... कोई भी आपको मौत के चंगुल से नहीं छुड़ा सकता।


मृत्यु के समय न कोई सहायक बन सकता है और न कोई रक्षक ... अतः मौत की सच्चाई को हर पल नजर के सामने रखना।


मनुष्य की जिन्दगी एक सुन्दर पंछी की भाँति है, जो किसी डाल पर बैठा हुआ थोड़ी देर चहचहाता है और फिर उड़ जाता है।


काका साहेब कालेलकर लिखते हैं, जीवन के साथ मरण तो आता ही है। जिस तरह वाक्य के अन्त में पूर्ण विराम ... दिन की प्रवृत्ति के अन्त में नींद... नाटक समाप्त होते ही पर्दा ... यात्रा समाप्त होते ही मंजिल मिलती है ऐसे ही जीवन के अन्त में मरण होता है।


यदि संसार में सभी जीवों के लिए यही नियम है तो मौत के आगमन को नियति जानकर उसकी तैयारी करने में तत्पर हो जाना।


जीवन में संयोग का सुख है इस कारण जीना अच्छा लगता है, किन्तु मृत्यु में वियोग का दुःख है अत: वह अच्छी नहीं लगती। यथार्थ यह है, मृत्यु का दर्शन जिन्दगी का असली दर्शन है और मौत का स्वाध्याय सच्चा स्वाध्याय है। 


अतः मात्र एक ही बार आने वाली मौत का मेहमान की भाँति स्वागत करने के लिए हर पल तैयार रहो क्योंकि मृत्यु वह सोने की चाबी है जो अमरत्व के भवन को खोल देती है।


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🥀🥀संकलनकर्ता :

🙏 शैलेन्द्र कुमार जैन,

इन्दौर ( मध्यप्रदेश) 452-005

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जिन्दगी : मौत की अमानत

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साँझ ढलने से पहले अपने दीये को संभाल लेना क्योंकि जिन्दगी मौत की अमानत है।


अमानत को अमानत ही समझकर उसकी सार-संभाल करना, उस पर मालकियत का ठप्पा मत लगा देना क्योंकि तुम एक परदेसी हो ... एक दिन तुम्हें अपने देश वापिस लौटना है।


इसलिए ऋषि-मुनि कहते हैं -


'करिष्यामि करिष्यामि इति चिन्तयेत्। 

मरिष्यामि मरिष्यामि इति विस्मृतम् ।।'


अर्थात् 'मैं करूँगा - मैं करूँगा' ऐसा तो हम विचार करते हैं किन्तु 'मैं मरूँगा - मैं मरूँगा' यह हम भूल गये हैं। प्रतिदिन कितने प्राणी मर रहे हैं फिर भी शेष लोग संसार में बसे रहना चाहते हैं। इससे बढ़कर आश्चर्य और क्या होगा ?


जैसे धर्मशाला में ठहरने वाले यात्री को यह ख्याल होता है, मुझे यहाँ से जाना है। अत: वह धर्मशाला को घर नहीं समझता और न सुख-सुविधा जुटाने में धन खर्च करता है परन्तु समझ में नहीं आता कि जिन्दगी के गणित को समझने के मामले में मनुष्य धोखा कैसे खा बैठा है ?


संसार की वस्तुएँ ऐसा क्षणिक सुख देती हैं जो सुबह की चाँदनी के समान और शाम के कुहासे की भाँति लुप्त हो जाता है। संत कबीर ने कहा, 'क्या माँगू, कायम कुछ नहीं रहता। देखते-देखते दुनिया चली जा रही है। जिस रावण के एक लाख पुत्र, सवा लाख नाती ... उसके घर में आज दीया है न बाती ।'


आश्चर्य है, चार दिन की जिन्दगी में सामग्रियों का ढेर इकट्ठा करने के मामले में मनुष्य इस असलियत को क्यों भूल जाता है,


"मुट्ठी बाँध आए थे... हाथ पसार कर चल दिए।"


मृत्यु की स्मृति

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'तुम इस संसार में अब सिर्फ सात दिन के मेहमान हो' महात्मा से यह वचन सुनकर युवक की भाव धारा अशुभ से शुभ की ओर मुड़ गई। वह शीघ्र ही शुभ कार्यों में जुट गया।


उसने बरसों तक जिनका कर्जा टालने का सोच रखा था उनका कर्जा तत्काल चुका दिया। लम्बे अर्से से जिनके साथ मनमुटाव या अनबोला था उनके घर जा कर वह तहदिल से क्षमा माँग आया। अर्जित संपत्ति का कुछ भाग दीन-दुःखियों को यह सोचकर बाँट आया कि जिसका त्याग मुझे बेबसी से भी करना पड़ेगा तो अच्छा है उस धन को दान में देकर उसका सदुपयोग क्यों न कर लूँ...?


सुस्पष्ट है, जीवन की समस्त गतिविधियों में यकायक आमूलचूल ऐसा परिवर्तन घटित होने का मूल कारण है, मृत्यु को निकट जान कर उसका सतत स्मरण करना। मनुष्य की सदैव यही कोशिश रहती है कि मृत्यु को भुलाया जाए। वह मृत्यु को नजरअंदाज करके जीने की चेष्टा करता है। यही कारण है दुनिया में इतने पाप हो रहे हैं।


यदि किसी को पता लग जाए कि मेरी जिन्दगी का आज आखिरी दिन है तो वह क्या करेगा? क्या उस दिन वह किसी पर क्रोध कर सकेगा ? क्या किसी के साथ छल-कपट वाला व्यवहार कर पायेगा ? क्या उस दिन शॉपिंग करने या दिल बहलाने जा सकेगा ? क्या उस दिन वह मूवी देख सकेगा ?


नहीं ... उस दिन कोशिश यही होगी कि अब तक जो पाप हुए हैं उनका मैं प्रायश्चित कर लूँ ...।


जिनसे वैर-विरोध है उनसे मैं क्षमा याचना कर लूँ ... अधिक से अधिक मैं तप-जप और दान-पुण्य कर लूँ ...।


मृत्यु के स्मरण से पाप... ताप... संताप घटने लगते हैं... दुर्व्यवहार रूक जाता है ... धर्म का असली मूल्य समझ में आ जाता है।


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🥀🥀संकलनकर्ता :

🙏 शैलेन्द्र कुमार जैन, [ राजगढ़ वाला ]

इन्दौर ( मध्यप्रदेश) 452-005

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एक मुट्ठी भर राख

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देह... मिट्टी का एक खिलौना है जिसका टूटना तय है इसलिए इसके टूटने-फूटने पर अधिक आश्चर्य मत करना।


वैसे भी यह शरीर बीमारियों का घर है अतः अचानक किसी असाध्य रोग के आ जाने पर उदास मत हो जाना...। शरीर स्वस्थ रहे तो चमत्कार जानना और बीमार हो जाए तो स्वाभाविक घटना समझना क्योंकि यह तो शरीर का स्वभाव है।


जिस शरीर के लालन-पालन एवं पोषण-संरक्षण के लिए आदमी जिन्दगी भर न जाने कितने पाप करता है किन्तु उस शरीर की हैसियत एक मुट्ठी भर राख से ज्यादा नहीं है। इसका बोध श्मशान में मिलता है। दूसरों की श्मशान यात्रा देखकर अपने मौत की तैयारी कर लेना।


जब यात्रा के लिए सुबह प्रस्थान करना हो तो आज शाम से तैयारी प्रारम्भ हो जाती है क्योंकि सुबह नींद खुले या न खुले ... । जीवन में भी हर सुबह एक नई यात्रा प्रारम्भ होती है, अतः हर रात उसकी तैयारी कर लेना।


अपने होश-हवास में कुछ ऐसे सत्कर्म जरूर कर लेना ताकि मृत्यु के बाद आत्मा की शान्ति के लिए किसी अन्य को भगवान से प्रार्थना न करनी पड़े कि 'हे भगवन् ! उसकी आत्मा को शान्ति देना' क्योंकि औरों के द्वारा की गई प्रार्थनाएँ बिलकुल भी काम आने वाली नहीं है।


अपना किया हुआ और अपना दिया हुआ ही काम आता है। इसलिए केवल जिन्दगी की नहीं मौत की भी तैयारी करनी है ...। कहा भी है -


हार को जीत में बदलने की कला सीखो, रूदन को गीत में बदलने की कला सीखो। अगर जिन्दगी का आनन्द पाना है तो, मृत्यु को मुस्कुराकर गले लगाने की कला सीखो ॥

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🥀🥀संकलनकर्ता :

🙏 शैलेन्द्र कुमार जैन, [ राजगढ़ वाला ]

इन्दौर ( मध्यप्रदेश) 452-005

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वे कभी मरते नहीं

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प्रसिद्ध विचारक सुकरात को जब जहर देकर मार डालने की सजा सुनाई गई तब उनके चेहरे पर बिलकुल भी व्यथा नहीं थी।


यह देखकर उनके अनुयायियों ने पूछा, "आपकी मौत का दिन बिलकुल निकट आ रहा है तो क्या आपको डर नहीं लगता?"


सुकरात ने हँसते-हँसते जबाब दिया, "मेरे सामने दो विकल्प हैं। कुछ लोग कहते हैं, आत्मा अमर है। यदि यह बात सही है तो मौत होने पर भी कुछ खोना नहीं है और चन्द लोग कहते हैं, शरीर और आत्मा एक ही है, परलोक जैसी कोई चीज नहीं है। यदि यह बात सही है तो मौत के साथ ही सब कुछ समाप्त हो जाना है फिर खोने के लिए बचेगा ही क्या ?"


"यह सोचकर मैं प्रसन्न हूँ कि जब तक जीवन है तब तक प्रसन्नता से जी लूँ और जब मौत आये तो उसे समाधिपूर्वक अपना लूँ।" कहा भी है -


क्या पता मौत का कब पैगाम आ जाए। न जाने जिन्दगी की आखिरी शाम कब हो जाए ॥


आज नहीं तो कल, कल नहीं तो कभी न कभी मृत्यु निश्चित रूप से आती है किन्तु उसकी तारीख और घड़ी निश्चित नहीं है।


यह बात विशेष तौर पर ध्यान में रखने योग्य है ... मौत किस समय, किस जगह और किस प्रकार आयेगी यह नहीं कहा जा सकता परन्तु उसका आगमन निश्चित है इसमें कोई शंका नहीं है।


इस वास्तविकता को जो स्वीकार कर लेता है उसके लिए यह निस्संदेह कहा जा सकता है कि वे कभी भी मरते नहीं। इसी बात को महायोगी आनन्दघन जी ने अपने एक पद में दर्शाया है,


'अब हम अमर भये न मरेंगे।'

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🥀🥀संकलनकर्ता :

🙏 शैलेन्द्र कुमार जैन, [ राजगढ़ वाला ]

इन्दौर ( मध्यप्रदेश) 452-005

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मृत्यु की स्मृति

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'तुम इस संसार में अब सिर्फ सात दिन के मेहमान हो' महात्मा से यह वचन सुनकर युवक की भाव धारा अशुभ से शुभ की ओर मुड़ गई। वह शीघ्र ही शुभ कार्यों में जुट गया।


उसने बरसों तक जिनका कर्जा टालने का सोच रखा था उनका कर्जा तत्काल चुका दिया। लम्बे अर्से से जिनके साथ मनमुटाव या अनबोला था उनके घर जा कर वह तहदिल से क्षमा माँग आया। अर्जित संपत्ति का कुछ भाग दीन-दुःखियों को यह सोचकर बाँट आया कि जिसका त्याग मुझे बेबसी से भी करना पड़ेगा तो अच्छा है उस धन को दान में देकर उसका सदुपयोग क्यों न कर लूँ...?


सुस्पष्ट है, जीवन की समस्त गतिविधियों में यकायक आमूलचूल ऐसा परिवर्तन घटित होने का मूल कारण है, मृत्यु को निकट जान कर उसका सतत स्मरण करना। मनुष्य की सदैव यही कोशिश रहती है कि मृत्यु को भुलाया जाए। वह मृत्यु को नजरअंदाज करके जीने की चेष्टा करता है। यही कारण है दुनिया में इतने पाप हो रहे हैं।


यदि किसी को पता लग जाए कि मेरी जिन्दगी का आज आखिरी दिन है तो वह क्या करेगा? क्या उस दिन वह किसी पर क्रोध कर सकेगा ? क्या किसी के साथ छल-कपट वाला व्यवहार कर पायेगा ? क्या उस दिन शॉपिंग करने या दिल बहलाने जा सकेगा ? क्या उस दिन वह मूवी देख सकेगा ?


नहीं ... उस दिन कोशिश यही होगी कि अब तक जो पाप हुए हैं उनका मैं प्रायश्चित कर लूँ ...।


जिनसे वैर-विरोध है उनसे मैं क्षमा याचना कर लूँ ... अधिक से अधिक मैं तप-जप और दान-पुण्य कर लूँ ...।


मृत्यु के स्मरण से पाप... ताप... संताप घटने लगते हैं... दुर्व्यवहार रूक जाता है ... धर्म का असली मूल्य समझ में आ जाता है।


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🥀🥀संकलनकर्ता :

🙏 शैलेन्द्र कुमार जैन, [ राजगढ़ वाला ]

इन्दौर ( मध्यप्रदेश) 452-005

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मौत अनिवार्य है

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इस दुनिया में मौत एक अनिवार्य घटना है। अनिवार्य का मतलब है, जिसका निवारण नहीं किया जा सकता... जिसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता।


लाख प्रयत्न के बाद भी मौत आनी है और सब कुछ यहीं पर छोड़ जाना है तो क्यों न प्राप्त शक्तियों का सदुपयोग कर जीवन को सार्थक बनाया जाए।


जो मृत्यु के रहस्य को समझ लेता है वह मृत्यु को सुधार लेता है ... परन्तु खेद इस बात का है कि सामान्यतया जो प्राप्त होता है उसके प्रति व्यक्ति लापरवाह रहता है और जो उसके हाथ में नहीं है उसके प्रति उसका गहरा आकर्षण होता है।


ऋषि-मुनियों का कथन है, जो घटना अचानक घटती है उसमें परिवर्तन करने का पुरूषार्थ संभव है परन्तु जो 'अनिवार्य' घटना है उसे स्वीकार किये बिना अन्य कोई विकल्प नहीं है।


जैसे बीमारी का निवारण हो सकता है... प्रतिकूलता का निवारण किया जा सकता है... किन्तु मृत्यु अनिवार्य है अतः उसका स्वीकार करना सीखें। स्थिति कैसी भी हो, स्वीकार करते ही हर स्थिति का गुण बदल जाता है। कितना गहन दुःख हो या बीमारी से संत्रस्त मृत्यु आ रही हो अगर आप स्वीकार कर सकते हैं तो तत्क्षण मृत्यु भी मित्र बन जाएगी।


संत कबीर ने कहा है -


"जा मरने से जग डरे, मो मन में आनन्द । 

कब मरिहौ कब पाइहौ, पूरण परमानन्द ॥"


अर्थात् जिस मृत्यु से जग डरता है उसके लिए मेरे मन में आनन्द है कि मैं कब मरूँगा और कब परम आनन्द को प्राप्त करूँगा। स्पष्ट है, पवित्रात्माओं के लिए मृत्यु परम आनन्द का द्वार है।


मृत्यु शिव है

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पुराणों के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और शिव को प्रतीक के रूप में माना गया है। उनका कथन है, ब्रह्मा संसार को जन्म देते हैं... विष्णु जीवन देते हैं और शिव मिटाते हैं। संसार का प्रत्येक प्राणी जन्म, जीवन और मृत्यु इन तीन अवस्थाओं से गुजरता है ...।


जन्म हो चुका है इसलिए मनुष्य सोचता है, ब्रह्मा की पूजा क्यों करे ... अतः भारत में ब्रह्मा का सिर्फ एक ही मन्दिर है क्योंकि वे जन्म के देवता हैं। जो हो चुका उसकी बात ही खत्म हो गई।


जीवन अभी है इसलिए कुछ लोग विष्णु की पूजा में लीन है ... फिर भी वे बहुत समझदार नहीं हैं क्योंकि हर पल जीवन हाथ से फिसल रहा है। इस जीवन में जो भी जुटाया जाता है वह सब यहीं रह जाता है।


मृत्यु के देवता शिव है ... संसार में सबसे ज्यादा मन्दिर शिव के हैं। भारत के कोने-कोने में हर छोटे गाँव में शिव का मन्दिर अवश्य मिलेगा क्योंकि जीवन का अन्त शिव के साथ सम्बन्धित है। शिवमन्दिर मृत्यु की याद दिलाते हैं ... जिन्हें मौत की याद बनी रहती हैं वे धर्म को नहीं भूल सकते।


जीवन रहते हुए जिसे मरण का बोध हो जाए वह धार्मिक है। धार्मिक और अधार्मिक में यही फर्क है। अधार्मिक मृत्यु से अबोध रह कर जीता है किन्तु धार्मिक को यह बोध रहता है कि जीवन एक दिन मृत्यु में समाप्त होगा ... यह जीवन मंजिल नहीं पड़ाव है ...। 


जब मृत्यु दिखाई पड़ जाए तो जीवन के मूल्य बदल जाते हैं... जो कल तक महत्वपूर्ण मालूम पड़ता था वह आज व्यर्थ सिद्ध हो जाता है ... जिसको मेरा माना था वह मन से छूटने लगता है ... अतः जीवन का केंद्र मौत को बना लेना ...।


      अपनी अर्थी खुद सजा लेना

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इस धरा पर जिन्दा रहते के लिए वायु से भी ज्यादा आयु की जरूरत है। जो आयु केवल खाने- पीने, घूमने-फिरने और सोने में निकल गई उसका क्या मूल्य है...? जीवन का असली मूल्य इसके निर्वाह में नहीं... निर्माण में है।


जन्म को जीवन मत समझ लेना... जीवन एक कोरे कागज की भाँति है मृत्यु के क्षण में जीवन के कोरे कागज पर पूरी कथा लिखी जाती है। अतः जो करने जैसा है वह इस चलाचली की जिन्दगी में कर लेना।


कानों में बहरापन आये उससे पूर्व जो सत्य है उसे सुन लेना ... आँखों की रोशनी क्षीण हो उससे पहले सत्शास्त्रों का स्वाध्याय कर लेना... जुबाँ लड़खड़ाये उससे पहले प्रभु-भक्ति के गीत गुनगुना लेना... हाथ काँपने लगे उससे पूर्व दीन-दुःखियों की सेवा में मन पिरो लेना... पैरों में कमजोरी आये उससे पूर्व तीर्थयात्रा कर लेना ... दिमाग की स्मृति कमजोर ही उससे पहले जिनको जो देना है वह दे देना और मन दुर्बल हो उससे पूर्व मृत्यु का स्मरण कर लेना ...।


आदमी का असली जन्म उस दिन होता है जिस दिन मृत्यु याद आती है...। जैसे बचपन में माँ सबसे अच्छी लगती है ... जवानी में बेटा सबसे अच्छा लगता है ... बुढ़ापे में पोता सबसे अच्छा लगता है... इसी तरह मौत के समय धर्म और भगवान सबसे अच्छे लगने चाहिए ...।


जीवन के रहते हुए जब जीवन का सम्पूर्ण अर्थ समझ में आ जाता है उस दिन व्यक्ति अपनी अर्थी को खुद सजाने की तैयारी कर लेता है...।


पता नहीं कब मौत आ जाए और अर्थी पर चढ़ना पड़ जाए ... अतः जीवन रहते हुए अपनी अर्थी को अर्थपूर्ण बना लेना ...


    यदि मृत्यु न होती

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सम्राट सिकन्दर उस जल की तलाश में था जिसे पीने से लोग अमर हो जाते हैं। कहते हैं, दुनिया भर को जीतने का उसने जो आयोजन किया वह भी अमृत की तलाश के लिए ही था।


आखिर उसने वह रहस्यमय जगह खोज निकाली ... एक ऐसी गुफा में प्रवेश किया जहाँ अमृत का झरना बह रहा था ... बरसों पुरानी आकांक्षा की तृप्ति का क्षण सामने देख वह खूब आनन्दित हो गया ...। अमृत को अंजलि में भर कर जैसे ही वह पीने के लिए झुका वैसे ही उसे एक आवाज सुनाई दी, 'रूको ... इस जल को पीने की भूल मत करना ...।'


सिकन्दर ने साश्चर्य इधर-उधर गौर से देखा तो उसे एक कौआ नजर आया जो बड़ी दयनीय अवस्था में था ... जिसे कौवे के रूप में पहचानना भी मुश्किल था ... उसके सारे पंख झड़ गये थे ... सारा शरीर जीर्ण-शीर्ण कंकाल मात्र था।


कौवे ने आपबीती सुनाते हुए कहा, "मैंने भी आपकी तरह अमृत की तलाश में एक दिन यह अमृत जल पी लिया था किन्तु अब मैं मरना चाहता हूँ, जीने के सारे उपकरण क्षीण हो गए हैं... ऐसी अवस्था में मैं आगे जी भी नहीं सकता और अमृत जल पी लेने के कारण अब मर भी नहीं सकता।"


परमात्मा से एक ही प्रार्थना करता हूँ... "मुझे मरना है ... मैं अपना ये जीर्ण-शीर्ण रूप बदलना चाहता हूँ... किन्तु मेरा यह कैसा दुर्भाग्य है, मैं मरना चाहता हूँ पर मर नहीं सकता ... मेरी इस कहानी को सुनने के बाद भी यदि तुम इस जल को पीना चाहते हो तो तुम्हारी मर्जी है...।"


कौवे की व्यथा सुनकर सिकन्दर घबरा गया और उसी क्षण चुपचाप गुफा से बाहर निकल कर सोचने लगा दुनिया में मौत भी कितनी अनिवार्य है ...


अकेले चले जाएँगे

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जन्म के समय व्यक्ति अकेला था। जन्म लिया तो जिन्दगी के रास्ते में सगे-सम्बन्धी ... साथी- परिवार की भीड़-भाड़ मिली और कुछ लोगों को हमने सच्चा प्रेमी और सहयोगी मान लिया। जब श्वासांत की घड़ी में मृत्यु आई तब उसने एक पल में सारे सपने चकनाचूर कर दिये।


चार लोगों ने मिलकर भारी मन से हमें कंधे पर रखा... श्मशान में ले जा कर चित्ता पर लिटा दिया और आग लगा दी तो फिर से हम अकेले चल पड़े। इस यथार्थ को शायर ने संवेदनशील शब्दों में रेखांकित किया है -


"शुक्रिया ! ऐ कब्र तक पहुँचाने वाले शुक्रिया। 

अब अकेले चले जायेंगे इस मंजिल से हम ॥"


तन के पिंजरे से प्राण पखेरू कब उड़ जाए क्या पता ? इस कारण जीवन में जो करने जैसा है उसे अविलम्ब कर लेना। जो शुभ है.... धर्म हैं... अच्छाई व भलाई है उसे करने में बहाना मत खोजना ... न मुहूर्त की प्रतीक्षा करना। शुभ कार्य करने के लिए किसी मुहूर्त की आवश्यकता नहीं है। शुभ कार्य अपने आप में स्वयं एक सफल मुहूर्त है।


जो धर्म-बोध लेना है उसे कल नहीं आज ले लेना। जो पुण्य की साधना करनी है उसे आज और अभी कर लेना।


धर्म करने के लिए ज्यादा सोचने-विचारने की जरूरत नहीं है क्योंकि आगामी पल कैसा होगा उसकी कोई खबर नहीं... जो साँस भीतर जा रही है वह लौटकर आयेगी भी इसकी क्या गॉरंटी है ? अतः स्मरण रहे...


'ये जीवन काँच का बाजा, अचानक टूट जाएगा। 

समय की एक ठोकर से, ये गिर कर चूर हो जाएगा ।।'


          मृत्यु एक वरदान है

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जिन्दगी वर्षों से बनती है... वर्ष महीनों से बनते हैं... महीने दिनों से ... दिन घंटों से ... घंटे मिनटों से ... मिनट सेकण्डों से और सेकण्ड समय से बनता है।


अतएव कहा जाता है, जो व्यक्ति समय के प्रति लापरवाह है वह जिन्दगी के प्रति भी लापरवाह है... जो जिन्दगी के प्रति लापरवाह है वह मौत के प्रति भी लापरवाह है।


हकीकत यह है,


जिन्दगी को मौत का पीना जहर है।

हर वक्त हर साँस में कहर ही कहर है। 

चाँद पर भले ही कोई दुनिया बसाले। 

अन्त में इन्सान का मरघट ही शहर है ।


संसार में मृत्यु का रहस्य समझने के लिए दर्शन शास्त्र का जन्म हुआ। मृत्यु, जन्म से विपरीत नहीं है। जैसे सर्जन और विसर्जन की प्रक्रिया साथ-साथ चलती है... यूँ जन्म और मृत्यु भी सहगमन करते हैं। इस सत्य से मानव अभिज्ञ होते हुए भी मोह के कारण जन्म की खुशी मनाता है और आखिरी साँस के टूटने पर रोता है।


परमात्मा के सारगर्भित वचन हैं, मोह को उम्र के साथ क्षीण करो... होशपूर्वक जीवन जीओ। मौत से जूझने का उपाय जीवन नहीं है क्योंकि जीवन को तो मौत जीत लेती है।


चाहे दवाईयाँ ले लो या अन्य कोई नवीन इन्तजाम कर लो... इससे आदमी थोड़ा-बहुत लम्बा जी लेगा किन्तु मौत तो आनी ही है। लिहाजा जीवन बढ़ाने की मत सोचो अपितु उसे सार्थक करने की सोचो।


सार्थक जीवन जीनेवाले व्यक्ति के लिए मृत्यु वरदान है ही किन्तु जिन्होंने पापमय उद्देश्यहीन जीवन जिया है या अपने जीवन के कागज पर गलत लकीरें खींच दी हैं उनके लिए भी मृत्यु वरदान है क्योंकि मृत्यु उन्हें नये जन्म के रूप में जीने का पुनः एक अवसर देती है अतः मृत्यु सभी के लिए वरदान है।


मृत्यु क्या देती है ?

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संसार महावृक्ष पर हंसने वाली हर नई जिन्दगी एक दिन आखिर जीर्ण-शीर्ण हो कर बिछड़ जाती है... सबकी बारी एक दिन आती है फिर भी मृत्यु के नाम मात्र से लोग घबराते हैं क्योंकि मृत्यु चिन्ता देती है। मृत्यु की चिन्ता में अनेक चिन्ताएँ समाहित हैं।


दरअसल, मृत्यु की सतत चिन्ता की वजह से मौत के रहस्य को सुलझाने के लिए जितना चिन्तन-मनन लाजमी है उतना लोग नहीं कर पाते।


मृत्यु सबसे पहले शरीर की चिन्ता देती है। कहीं मेरे शरीर में रोगों का भयंकर आक्रमण तो नहीं हो जाएगा।


दूसरी चिन्ता धन-दौलत और पदार्थों के छूट जाने की पीड़ा के रूप में है। तीसरी चिन्ता स्नेही, सगे-सम्बन्धी एवं मित्र-परिवार के वियोग की है।


जो अनुकूलता इस जन्म में मिली है उसके बदल जाने की आशंका से चित्त का व्याकुल होना चौथी चिन्ता है।


मृत्यु के बाद कहाँ और कैसा जन्म होगा और कौन से कष्ट झेलने पड़ेंगे इसकी स्पष्ट रूपरेखा न होने से मन का व्यथित होना पाँचवी चिन्ता है।


मौत के बाद क्या मिलेगा यह मनुष्य को मालूम नहीं है परन्तु मौत क्या छुड़वा देगी यह तो सामने दिखता है। इसी भय से मनुष्य उसके पास जो है उसका भोग-उपभोग करने के लिए जीवन को टिकाये रखने का भरसक प्रयत्न करता है।


यह बात ध्यान देने योग्य है, जिस स्थान से छूट पाना संभव न हो वहाँ पर हँसते-हँसते खड़े रहने में बहादुरी है। दार्शनिक सुकरात के ये वचन यथार्थ है, 'मृत्यु के बारे में सदैव प्रसन्न रहो और इसे सत्य मानो कि सज्जन आदमी के जीवन में या मृत्यु के पश्चात् कोई बुराई नहीं आ सकती।'


चेतावनी

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दुनिया का हर आदमी मृत्यु की कतार में खड़ा है, इसलिए हर पल जागृत रहना।


चूँकि जीवन एक यात्रा है जिसकी समाप्ति मौत है। जैसे पंछी पिंजरे को छोड़कर उड़ जाता है ऐसे ही आत्मा का शरीर के पिंजरे को छोड़कर उड़ जाने का नाम मृत्यु है। आत्मा को यह देह रूप पिंजरा छोड़ना पड़े उससे पूर्व इन तीन तथ्यों का चिन्तन बार-बार कर लेना ...।


पहला तथ्य यह है, मेरे जीवन में कभी भी रोगों का आक्रमण हो सकता है और मैं इसे टाल नहीं सकता। चाहे कितने ही कुशल डॉक्टर, वैद्य या चिकित्सक मिल जाए... वे भी मुझे बीमारी से नहीं बचा सकते।


दूसरा तथ्य यह है, समय की धारा में बहते हुए मेरी यह सुड़ौल काया जीर्ण-शीर्ण होगी और एक दिन जब बुढ़ापा आयेगा तब आवाज कंपकंपायेगी ... कदम लड़खड़ायेंगे... हाथ-पैर थरथरायेंगे और आँखें निस्तेज हो जायेगी जिसे मैं टाल नहीं सकता।


तीसरा चिन्तन यह है, किसी भी पल जीवन से चलाचली होगी और उसे मैं टाल नहीं सकता। कहा भी है-


न गाती है न गुनगुनाती है, 

न चिल्लाती है न रोती है। 

मौत जब लेने आ जाती है, 

चुपके से लेकर चली जाती है।


मौत आग की भाँति है। जैसे मिट्टी में पड़े हुए सोने को जला डालने की ताकत आग में नहीं है परन्तु वह कचरे को जलाकर राख कर देती है। यही हाल मौत का है... उसमें आत्मा के एक भी आत्म प्रदेश को समाप्त कर डालने की क्षमता नहीं है पर शरीर के एक भी अंग को वह सलामत नहीं रहने देती।


प्रतिदिन का ऐसा चिन्तन अभिमान पर चोट करता है तथा आसक्ति से विरक्त रखकर धर्माचरण की ओर गतिशील रखता है।



अनपेक्षित परिवर्तन

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मृत्यु जीवन का ऐसा परिवर्तन है जो बड़ा डरावना  लगता  है क्योंकि मृत्यु परिवर्तन तो करती है पर वह परिवर्तन मन की इच्छा से सर्वथा विपरीत होता है। यदि मनुष्य मौत का स्वीकार इच्छित परिवर्तन मानकर कर ले तो मरण का भय समाप्त हो जाएगा।


जैसे एक बार एक व्यक्ति पैदल यात्रा करते हुए थक गया  ।उसने भगवान से प्रार्थना करते हुए कहा, प्रभु ! कुछ भी करों  परन्तु इसी समय मेरे सामने एक घोड़ा हाजिर करो।


प्रार्थना के पश्चात् अभी वह पाँच सौ कदम चला होगा कि उसे अपने गाँव का मुखिया दिखाई दिया। मुखिया ने कहा, "मेरा एक काम करना होगा। मैं घोड़ी को लेकर दूसरे गाँव जा रहा था और अचानक घोड़ी ने रास्ते में बच्चे को जन्म दे दिया है। तुम तो स्वस्थ हो अतः घोड़ी के बच्चे को कंधे पर उठाकर गाँव तक ले चलो।"


बेचारा व्यक्ति गाँव के मुखिया को मना भी नहीं कर सकता था। उसने घोड़े के बच्चे को उठाकर भगवान से कहा, 'प्रभु ! मैंन घोड़ा माँगा बैठने के लिए और तुमने घोड़ा भेज दिया उठाने के लिए।'


यही बात है, मन चाहता है अपेक्षित परिवर्तन और मृत्यु कर देती है अपेक्षा से विरुद्ध परिवर्तन। मन चाहता है रोगी काया का स्वस्थ परिवर्तन और मौत कर देती है काया का ही निष्क्रिय रूप में परिवर्तन।


मन को अपेक्षित परिवर्तन से मुक्त करना होगा या मृत्यु द्वारा होने वाले परिवर्तन को स्वीकार करने के लिए स्वयं को साधना होगा।


हे आत्मन् ! प्रतिदिन मन को चिन्तन-मनन में लगा ... शरीर रोगग्रस्त है... जीवन मृत्युग्रस्त है. .... आत्मा कर्मग्रस्त है. ...अतः अमरत्व के पुरुषार्थ में संकल्पबद्ध हो जा ...। 



        Only Ultimatum

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दुनिया में जन्म, जरा, रोग व मृत्यु जैसे महादुःख से हर प्राणी पीड़ित है। जन्म महादुःख है ... इसलिए जन्म का प्रसंग एक चेतावनी है... हर पल जिन्दगी का Only Ultimatum ले कर आता है...।


दरअसल आत्मा का न जन्म होता है... न कभी मृत्यु होती है। वह तो अजर-अमर है। मरण तो सदा आत्मा के चोले का होता है। शरीर मरणधर्मा है और आत्मा मृत्यु से परे है। कहा भी है, 'न हन्यते हन्यमाने शरीरे' अर्थात् शरीर के नाश होने पर आत्मा का नाश नहीं होता।


आत्मा के शरीर रूपी आवरण पर बाल्यावस्था, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था और वृद्धावस्था की आवन-जावन है। पोशाक जीर्ण- शीर्ण होने पर ही छोड़ी जाए ऐसा जरूरी नहीं है बल्कि कई बार ऐसा भी होता है कि आज जो लिबास पहना उसे कल उतार कर फेंकना पड़ जाए...।


जीवन में भी ऐसा संभव है, आज जन्म लिया कल मरण आ जाए... शरीर हर पल मौत के करीब होता जा रहा है ... एक न एक दिन मरना ही है...।


जैसे घर में आग लगने पर मनुष्य घर छोड़ कर बाहर निकलने का मार्ग शीघ्रता से खोज लेता है


व्यापार में होने वाले नुकसान को मनुष्य हँसते चेहरे से स्वीकार कर लेता है


जिगरी दोस्त द्वारा की गई अनचाही बेवफाई को मनुष्य समझदारी से झेल लेता है.


जीवन में घटित होने वाली अनेक कठिनाइयों को जब आदमी स्वस्थता से पार कर लेता है तो उसे मौत का भी प्रसन्नता से सत्कार करना चाहिए ...।


मरण : सकाम और अकाम

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मौत इस जन्म का ताला है किन्तु इससे अगले जन्म में उजाला करना हो तो इस जिन्दगानी में मोह-माया रूपी मधुमक्खियों का जो छत्ता संग्रहित किया है उसे ज्ञान व संयम की अग्नि में जलाकर राख कर देना ...।


मौत क्या है और इसके प्रति हमारा विचार व व्यवहार किस प्रकार होना चाहिए इस संदर्भ में प्रभु महावीर ने दो प्रकार की मृत्यु बताई है, अकाम मरण और सकाम मरण।


रोते-बिलखते ... तड़पते-छटपटाते हुए मरना अकाम मरण है। मृत्यु को स्वीकार करते हुए प्रसन्नता के साथ मरना सकाम मरण है। अकाम मरण तांडव है और सकाम मरण महोत्सव है।


अपना आखिरी सफर महोत्सव बन जाए इसके लिए एक लम्बी साधना की अपेक्षा होती है। साधना के अभाव में जीवन के अन्तिम क्षणों में समाधि का भाव जागना बहुत मुश्किल है। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं -


जनम जनम मुनि जतन कराहिं। 

अन्त में राम मुख आवत नाहिं ॥


जन्म-जन्म तक मुनि-जन प्रयत्न करते हैं पर अन्तिम समय में मुख पर राम का नाम नहीं आता। गृहस्थ जीवन के लिए तो यह कठिन है ही, मुनि-जन के लिए भी सरल नहीं है।


जो जीवन भर मोह-माया में लिप्त रहा हो, उसका मन अन्तिम समय में प्रभु चिन्तन या आत्म जागृति में लग जाए यह बहुत कठिन है। एतदर्थ ज्ञान एवं वैराग्य की भाव धारा से स्वयं को सतत सिंचित करते रहना। संसार में रहो पर संसार के होकर मत रहो, इसी को वैराग्य कहते हैं। वैराग्य के बिना कोई भी मनुष्य सबको समान दृष्टि से नहीं देख सकता और न सबकी सेवा में अपने को लगा सकता है।



         मृत्यु के समय क्या होता है ?

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आत्मा अमर है और शरीर नाशवान है तो सवाल उठता है मौत के समय क्या होता है ? मौत के समय हम कुछ खोते हैं या नहीं ? अंग्रेजी का एक महत्वपूर्ण वाक्य है, 'You can not loose what you never had.' अर्थात् जो तुम्हारा था ही नहीं वह कभी तुमसे छूट नहीं सकता।


इसी आधार पर यदि मृत्यु का विचार किया जाए तो निश्चय हो जाता है कि मौत के समय धन-दौलत, स्वजन-परिजन, पद-प्रतिष्ठा और शरीर आदि सब यहीं रह जाते हैं क्योंकि वे हमारे नहीं है। वे हमें बाँधने नहीं आते, हम स्वयं मोहवश बँध जाते हैं।


जैसे-जैसे परिचय, सान्निध्य, घनिष्ठता और समय की अवधि बढ़ती जाती है वैसे-वैसे उस वस्तु, व्यक्ति और परिस्थिति के प्रति आसक्ति प्रबल होने लगती है।


मौत उन सब चीजों को यहीं छोड़ जाती है जो हमारी अपनी नहीं थी और वह सब ले जाती है जो पुण्य-पाप की गठरी हमने बांध रखी है। जिसके साथ सम्बन्ध जोड़ा था कि यह मेरा है ... वह मात्र कर्म के संयोग से हमें प्राप्त हुआ था। आत्मा अकेली ही परलोक में जाती है क्योंकि वह अमर है, शरीर तो विनाशी है।


यह प्रकृति का गहन सत्य है हर गति के केन्द्र में स्थिति होती है... परिवर्तन के केन्द्र स्थान में एक अपरिवर्तित तत्व है। जैसे बैलगाड़ी का पहिया घूमता है पर उसकी धूरि स्थिर होती है। ऐसे ही जन्म, यौवन, बुढ़ापा और मृत्यु की विभिन्न अवस्थाओं के बीच आत्मा ही एकमात्र स्थिर तत्व है।


इसलिए आत्मज्ञान सबसे बड़ा ज्ञान है। जैसे स्वप्न में होनेवाली शारीरिक पीड़ा बिना जागे दूर नहीं होती, इसी प्रकार संसार का दुःख बिना आत्मज्ञान हुए दूर नहीं होता। जो आत्मा को जान ले, वह कभी मौत से नहीं डरता।


मौत पर विजय

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एक बार नचिकेता पर प्रसन्न हो कर यमराज ने उसे एक वर मांगने को कहा। नचिकेता ने कुछ सोचकर कहा, "मुझे यह बतला दीजिए कि मौत से छुटकारा कैसे मिले ...?"


बालक का प्रश्न सुनकर यमराज चौंक पड़े और बोले, "यदि तुम चाहो तो मैं तुम्हें अमर कर सकता हूँ ताकि राजा बन कर तुम खूब ऐश्वर्य का भोग कर सको।"


नचिकेता ने कहा, "मेरे अकेले अमर होने से क्या होगा? जबकि दुनिया के तमाम लोग मौत का शिकार होते रहेंगे। यदि आप मुझे कुछ देना चाहते हैं तो ऐसा ज्ञान दीजिए जिससे मौत से छुटकारा मिल सके ..." इतना कहकर नचिकेता हठ करके बैठ गया।


यमराज ने रूष्ट होकर कहा, "यदि तुम इस तरह हठ करोगे तो तुम्हें फाँसी पर लटका दिया जाएगा। जिस ज्ञान को तुम सीखना चाहते हो वह एक गुप्त मंत्र है जो मनुष्य को नहीं बताया जा सकता।"


नचिकेता ने कहा, "मैं फाँसी से नहीं ड़रता, मुझे आप वही मंत्र बतलाइए।"


यमराज ने बालक की दृढ़ता और पात्रता देखी तो उसे एकान्त में ले जा कर कहा, "जब तेरी आत्मा परमात्मा बनने की साधना को पूर्ण कर समस्त कर्मों से मुक्ति प्राप्त कर लेगी तब मृत्यु से मुक्ति मिलेगी।"


नचिकेता मृत्यु पर विजय पाने का रहस्य जान कर प्रसन्न हो गया क्योंकि उसे सदा के लिए मौत से मुक्त होने का कीमिया मिल गया था।


उसने जान लिया, भय से ही दुःख आते हैं और भय से ही मृत्यु होती है। जैसे घड़े का प्रकाशक सूर्य घड़े का नाश हो जाने पर नष्ट नहीं होता, वैसे ही देह-प्रकाशक आत्मा देह के नष्ट होने पर नष्ट नहीं होती।



        क्या पता तू रहे ना रहे

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ओस की बूँद जैसी क्षणिक जिन्दगी में समय कम है और विघ्न बहुत है ... अतः इस जीवन को किसी बहानों में मत खो देना।


यह जन्म सोने के लिए नहीं सोई हुई आत्मा को जगाने के लिए मिला है परन्तु मनुष्य ने इस जीवन के अमूल्य पलों को यूँ ही मात्र आजीविका जुटाने में ... इच्छाओं की पूर्ति में ... रिश्तेदारी एवं मित्राचारी निभाने में... घर को सजाने-संवारने में बीता दिया है।


आचार्य कुन्दकुन्द ने समय को आत्मा कहा है। जैसे सोने का प्रत्येक धागा मूल्यवान होता है, इसी प्रकार समय का प्रत्येक क्षण भी मूल्यवान होता है। इसलिए समय का सदुपयोग आत्मा की पूजा है। समय को व्यर्थ करना तिल-तिल कर मरने जैसा है।


समय सरकता है ... अभी ग्यारह बजे थे और अब बारह बज गये। कल शनिवार था और आज रविवार हो गया ... जिन्दगी का और एक दिन हमारी मुट्ठी से सरक गया।


मौत आने से पूर्व शक्ति और समय का दुर्व्यय न हो इसकी सावधानी रखना। कल ये आँखें क्षीण और निस्तेज होने वाली है ऐसा जान कर आँखों का सदुपयोग कर लेना ... सिर्फ आँख की बात नहीं, जन्म-जन्म से बँधे अशुभ कर्म किसी भी समय उदय में आकर अँधा, बहरा, गूँगा या लँगड़ा बना सकते हैं ...। ऐसी अनगिनत अनचाही अनेक संभावनाएँ वास्तविकता में बदले उससे पहले उसका सदुपयोग कर लेना।


हे आत्मन् ! जब पाँचों इन्द्रियों के स्टेशन बन्द होने लगे तब धर्मध्यान कैसे हो सकेगा...? याद रहे, रेडियो स्टेशन बन्द हो जाने पर रेडियो चालू किया जाए तो संगीत नहीं बजेगा। अतः जो आत्म-हितकारी धर्म-साधना है वह अभी इस पल कर लो क्योंकि क्या पता इस जिन्दगानी में तू रहे ना रहे और रह भी जाए तो तेरे सत्कर्म करने के भाव रहे ना रहे ... ।


मौत का वॉरंट

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कौन कहता है मौत कह कर नहीं आती ...? मृत्यु पूर्व सूचना देकर आती है। सबसे पहले वह बाल सफेद कर देती है... यह उसका पहला नोटिस है ...।


परन्तु आदमी सफेद बालों को काला कर लेता है जिससे वह नोटिस पढ़ने में न आए हालाँकि सफेद बाल निवृत्ति का ... प्रतीक है ... दरअसल ये सफेद बाल धीरे से कान में कहते हैं, बहुत काले काम कर लिये अब पुण्य के कुछ उजले काम भी कर लो ...।


मृत्यु की दूसरी नोटिस में वह दाँत तोड़ देती है... किन्तु मनुष्य नकली बत्तीसी लगवाकर उस नोटिस की भी उपेक्षा कर लेता है।


देखने की शक्ति क्षीण होने पर आँखों में लेंस फिट करवा लेता है तो सुनने की शक्ति क्षीण होने पर कान में मशीन लगवा लेता है ...


झुर्रियाँ पड़ने पर चेहरे की प्लास्टिक सर्जरी करवा लेता है इस प्रकार खुद से खुद को धोखा देता है ...।


मौत की हर एक नोटिस को मनुष्य बिना पढ़े निरस्त करता जाता है और स्वयं को सुरक्षित मान लेता है ... ।


कुछ समझदार ऐसे भी हैं जो नोटिस को पढ़कर मौत की असलियत का चिन्तन कर अपनी जीवन पद्धति ... विचारधारा बोलचाल के ढंग में आमूलचूल परिवर्तन कर देते हैं, इसलिए वे अन्त में पछताते नहीं ...। उनके जीवन की छोटी-बड़ी हर प्रवृत्ति संयम का पुट पाकर सम्यक् बन जाती है। संसार की तमाम प्रवृत्तियों से मन विमुख होकर 'स्व' से जुड़ने लगता है।


कुछ लोग ऐसे भी हैं जो मृत्यु के नोटिस को बार-बार पढ़कर भी गौर नहीं करते ... उसका स्वीकार नहीं करते तो मौत अन्त में अपना वॉरंट जारी कर देती है ...।

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🥀🥀संकलनकर्ता :

🙏 शैलेन्द्र कुमार जैन, [ राजगढ़ वाला ]

इन्दौर ( मध्यप्रदेश) 452-005

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