25 बोल विवेचना भाग 1 से 25
*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*क्रमांक 1*,
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*1:2:21*
*पहला बोल -- गति चार*
*भाग -- 1*
1 नरक गति 2 तिर्यंच गति
3 मनुष्य गति 4 देव गति
गतियाँ जीव की होती है तो आइये पहले जीव के बारे में जाने
जैन दर्शन में जीव दो प्रकार के माने गए हैं --
*२. जीव के दो प्रकार हैं*-
*१. सिद्ध*
*२. संसारी*
वैसे ही राशि
दो भागों में विभक्त है , 1 जीव और 2,अजीव।
इन दो राशिमें सारा संसार समा जाता है। इसके बाहर कुछ भी नही
यह वर्गीकरण संग्रहनय की दृष्टि से है।(संग्रह नय मतलब विस्तृत वस्तु को संक्षिप्त करके
बताना )
इसमें एक दृष्टि से सारा संसार बंध गया। पर यह दृष्किोण व्यावहारिक कम है। किसी भी तत्व को व्यावहारिक बनाए बिना यह जन-भोग्य नहीं बन पाता। इसलिए, उक्त वर्गीकरण को व्यवहार नय की दृष्टि से समझना भी जरूरी है। इस क्रम में हम सबसे पहले जीव तत्त्व को लेते हैं।
जीव के दो प्रकार हैं-सिद्ध और संसारी ।
पहले सिद्ध को जानने का प्रयत्न करते है।(औऱ पहले
सिद्ध गति जो सर्वोपरि गति है
इसे स्थिति के हिसाब से गति कह सकते है । पर गति में इसलिये नहीं गिनते क्योँकि
यहाँ जाना हीहै, आना नहीं)
सिद्धावस्था आत्मा की शुद्धावस्था है | वहां केवल जीव का ही अस्तित्व है। अनादि काल से आत्मा के साथ चिपके हुए कर्म पुद्गल उस स्थिति में टूटकर अलग हो जाते हैं । वहां केवल आत्मा की ज्ञान-दर्शनमयी सत्ता का अस्तित्व है। उस अस्तित्व की पहचान परमात्मा, मुक्तात्मा, सिद्ध, परमेश्वर, ईश्वर आदि अनेक नामों से की जा सकती है ।
सिद्ध शब्द का प्रयोग जैन धर्म में भगवान के लिए किया जाता हैं। सिद्ध पद को प्राप्त कर चुकी आत्मा संसार (जीवन मरण के चक्र) से मुक्त होती है। अपने सभी 8कर्मों का क्षय कर चुके होते है
वह सिद्धशिला जो लोक के सबसे ऊपर है, वहाँ विराजते है।
जैसे ही 8 कर्मों का क्षय होता
वैसे ही 8 गुणों का अभ्युदय होता है
🙏वे सिद्ध भगवंत के आठ गुण इस प्रकार है⤵️
*1अंनतज्ञान* 👉 ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय सेज्ञानावरणकर्म के पूर्ण क्षय होने से अनन्त पदार्थों को युगपत् जानने की सामर्थ्य प्रकट होने को अनन्तज्ञानगुण कहते हैं।
*2अंनतदर्शन* 👉 दर्शनावरणिय कर्म के क्षय से दर्शनावरणिय कर्म के पूर्ण क्षय होने से अनन्त पदार्थों के सामान्य अवलोकन की सामर्थ्यके प्रकट होने को अनन्तदर्शनगुण कहते हैं।
*3अंनतअव्याबाध* 👉 वेदनीय कर्म के क्षय से वेदनीय कर्म के पूर्ण क्षय होने से अनन्तसुख रूप आनन्दमय सामर्थ्य को अव्याबाधत्व गुण कहते हैं।
*4अंनतचारित्र* 👉 मोहनिय कर्म के क्षय से मोहनीय कर्म के पूर्ण क्षय होने से प्रकट होने वाली आत्मीय सामर्थ्यको क्षायिक अंनतचारित्र कहते हैं।
*5 अक्षयस्थिती* 👉 आयुष्य कर्म के क्षय से,आयु के पूर्ण क्षय होने से एक जीव के अवगाह क्षेत्र में अनन्त जीव समा जाएँ ऐसी स्थान देने की सामर्थ्य कोअक्षयस्थिती कहते हैं।
*6अरूपीत्व* 👉 नाम कर्म के क्षय से - नाम कर्म के पूर्ण क्षय होने से इन्द्रियगम्य स्थूलता के अभाव रूप सामर्थ्य के प्रकट होने को अरूपीत्व कहते हैं।
*7अगुरूलघु* 👉 गोत्र कर्मके क्षय से -।
गोत्र कर्म के पूर्ण क्षय होने से प्रकट होने वाली सामर्थ्य को अगुरुलघुत्व गुण कहते हैं
*8अनन्तवीर्य गुण* 👉अंतराय कर्म क्षयसे- अन्तराय कर्म के पूर्ण क्षय होने से आत्मा में अनन्त शक्ति रूप सामर्थ्य के प्रकट होने को अनन्तवीर्यगुण कहते हैं।
सिद्धों के अन्य गुण भी होते हैं। सम्यक्त्वादि आठ गुण मध्यम रुचि वाले शिष्यों के लिए हैं। विस्तार रुचि वाले शिष्य के लिए औऱ भी सिद्ध के अन्य गुण हैं जैसे- अवलंबन से गति रहितता, इन्द्रिय रहितता, शरीर रहितता, योग रहितता, वेद रहितता, कषाय रहितता, , आदि, ज्ञानावरणीय आदि प्रत्येक कर्म
की प्रकृतियों को भिन्न भिन्न गिनने से 31 विशेष,गुण भी होते है
और इसी प्रकार अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व आदि सामान्य गुण इस तरह जैनागम के अनुसार अनंत गुण जानने चाहिए।
कल इनका और विस्तार से वर्णन पढेंगे
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*क्रमांक 2*,
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*
*2:1:21*
*अध्याय*
कल जिन नाम की चर्चा की थी
*सामान्य गुण* की ,आज उनको समझते है
*सामान्य गुण* ये जीव मात्र के गुण हैं
*अस्तित्व गुण*:- जिस शक्ति के कारण द्रव्य का कभी भी नाश नहीं हो सकता न ही किसी के द्वारा उत्पन्न किया जा सकता है, उसे अस्तित्व गुण कहते हैं।
सरल शब्दों में, जिस शक्ति के कारण सभी द्रव्य “होते हैं”। कोई उन्हें नया नहीं बना सकता,ना द्रव्य को कोई भी मिटा नहीं सकता, वह अस्तित्व गुण है।
*वस्तुत्व गुण*:- जिस शक्ति के कारण द्रव्य में अर्थ क्रियाकारित्व होता है, वह वस्तुत्व गुण है।
सरल शब्दों में, जिस शक्ति के कारण प्रत्येक द्रव्य अपना-अपना कार्य करते हैं, और द्रव्य का कोई इस्तेमाल होता ही है, वह वस्तुत्व गुण है।
*द्रव्यत्व गुण*:- जिस शक्ति के कारण द्रव्य में निरंतर परिणमन (परिवर्तन) होता है, वह द्रव्यत्व गुण कहलाता है।
सरल शब्दों में, हर द्रव्य हर समय परिवर्तन होता है, जैसे कोई नई चीज पुरानी होती है या जैसे पहले पेड़ था, फिर काट कर लकड़ी बना फिर लकड़ी को जला दिया तो वह राख बन गया, यह जो अवस्था का बदलना है, यह द्रव्यत्व गुण का कार्य है।
*प्रमेयत्व गुण*:- जिस शक्ति के कारण द्रव्य किसी न किसी ज्ञान का विषय अवश्य होता है, वह प्रमेयत्व गुण कहलाता है।
सरल शब्दों में, द्रव्य हर समय किसी न किसी के जानने में आता ही है, कभी भी द्रव्य छुपा नहीं रहता, वह प्रमेयत्व गुण का कार्य है।
पंद्रह भेद सिद्ध परमात्मा के
*सिद्धों के भेद -* सिद्धात्माओं में कोई भेद नहीं है अपितु केवलज्ञान पाते वक्त जो स्थिति को केन्द्र बिन्दु मानकर सिद्धों के पंद्रह भेदों का वर्णन शास्त्रों में आता है । (व्यवहार नय से भी और भूत नैगम नय से भी।
देखिए नय समझ ने में कितने काम आते हैं)
सिद्ध भगवान् का वर्णन
पूर्वोक्त सिद्ध क्षेत्र में पन्द्रह प्रकार के सिद्ध हुए हैं। वे इस प्रकार हैं:
*1तीर्थकरसिद्ध*-जो तीर्थकर पदवी भोगकर सिद्ध हुए
*(२)अतीर्थकरसिद्ध*-
सामान्य केवली होकर जो सिद्ध हुए है।
पुंडरिकादि गणधर जो सिद्ध हुए वे अजिन सिद्ध ।
*(३) तीर्थसिद्ध*-साधु, साध्वी, आवास और नायिका रूप चतुर्विध तीर्थ की स्थापना
होने के बाद जो सिद्ध हुए हैं।
*४) अतीर्थसिद्ध*-जो्तीर्थ की स्थापना से पहले या तीर्थ का विच्छेद हो जाने के बाद जो सिद्ध हुए
नववे सुविधिनाथजी से सत्तरवं कुन्थुनाथजी तक उनके मोक्ष गए बाद सात अन्तर में तीर्थ का उच्छेद हुआ। उस वक्त सिद्ध हुए सो अतीर्थ सिद्ध जानना।
शासन की स्थापना होने के पूर्व या तीर्थ विच्छेद हो जाने के पश्चात् मोक्ष जाने वाली जैसे मरुदेवा मातादि ।
*(५)स्वयंवुद्धसिद्ध*-
जातिस्मरण आदि ज्ञान से अपने पूर्वभवों को जानकर गुरु के
बिना, स्वयं दीक्षा धारण करके जो सिद्ध हुए हैं। जैसे कपिल केवली।
कल आगे
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*क्रमांक 3*,
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*3 :2:21*
*अध्याय*
*(६) प्रत्येक वुद्ध सिद्ध* -वृक्ष, वृषभ, श्मशान, मेघ, वियोग या रोग आदि का निमित्त
पाकर अनित्य आदि भावना से बोधित चारित्र ग्रहण कर केवली बन मोक्षगामी करकंडू, नमिराजर्षि आदि ।
होकर, स्वयं दीक्षा लेकर जो सिद्ध हुए हैं।
*(७)बुद्धबोधितसिद्ध*-
आचार्य आदि से बोध प्राप्त करके, दीक्षा धारण करके जो सिद्ध हुए हैं।
*(८)स्त्रीलिंगसिद्ध*–वेद-विकार को क्षय करके, स्त्री के शरीर से जो सिद्ध हुए हैं। स्त्रीलिंग में केवली, बन मोक्षगामी चंदनबाला, मृगावती प्रमुख ।
*(९) पुरुषलिंगसिद्ध*-जो पुरुष-शरीर से सिद्ध हुए हैं।
*(१०) नपुंसकलिंग सिद्ध*- जो नपुंसक के शरीर से सिद्ध हुए हैं।कृत्रिम नपुंसक लिंग में केवली बन मोक्षगामी गांगेय ऋषि आदि
*(११) स्वलिंगसिद्ध* -रजोहरण मुखवस्त्रिका आदि साधु का वेष धारण करके जो सिद्ध हुए हैं।
*(१२) अन्य लिंग सिद्ध* - किसी अन्यलिंगी को दुष्कर तपश्चरण आदि से विभंग ज्ञान प्राप्ति हो, जिससे जिनशासन का अवलोकन करके अनुरागी बनने पर अज्ञान मिट जाए और अवधिज्ञानी बनकर परिणाम शुद्ध हो जाने पर केवल ज्ञान प्राप्त हो जाए। आयु कम होने
से लिंग बदले बिना ही सिद्ध हो जाए तापसादि वेश में भाव से जिन प्ररूपित समतारस में निमग्न क्षपक श्रेणी प्राप्त कर केवलज्ञान पाकर देव द्वारा अर्पित श्रमणवेश ग्रहण कर मोक्ष पाने वाले वल्कलचिरी आदि ।
वह अन्यलिंगसिद्ध कहलाता है।
*(१३) गृहिलिंगसिद्ध*-
गृहस्थ के वेष में धर्माचरण करते-करते परिणाम-विशुद्धिश्रावक वेश में क्षपक श्रेणी पद आरूढ़ होकर घनघाती कर्मों को क्षय कर मोक्ष पानेवाले आयुष्य अधिक हो तो देव द्वारा दिया गया वेश ग्रहण कर मोक्ष पाने वाले जैसे भरत चक्री आदि ।
*🙏सिद्ध भगवान की अवगाहना*
*जघन्य :-- एक हाथ आठ अंगुल*
*मध्यम :- - चार हाथ 16 अंगुल*
*उत्कृष्ट :- - 333धनुष 32 अंगुल की है।*
*जघन्य अवगाहना वाले 4 जीव एक साथ सिद्ध हो सकते हैं ,मध्यम अवगाहना वाले 108 जीव एक साथ सिद्ध हो सकते हैं और उत्कृष्ट अवगाहना वाले 2 जीव एक साथ सिद्ध हो सकते हैं।*
*जघन्य 2 हाथ ,मध्यम 7 हाथ ,उत्कृष्ट 500 धनुष्य की अवगाहना वाले मनुष्य सिद्ध हो सकते हैं।*
*एक मात्र मनुष्य गति से जीव सिद्ध हो सकता है। तिर्छालोक
एक रज्जू के विस्तृत है तिर्छालोक में
मात्र 45 लाख योजन क्षेत्र ही मनुष्य क्षेत्र हैं और उसी मनुष्य क्षेत्र से मनुष्य गति के जीव सिद्ध हो सकते हैं।*
*शरीर को छोडने के बाद जीव एक समय में सीधी रेखा में गति करते हुए लोकाग्र में पहुंच जाता है।*
*आज तक अनन्त आत्माएं सिद्ध हो चुकी हैं*
*आगे कल*
25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*क्रमांक 4*,
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*4 :2:21*
*अध्याय*
कल थोड़ी चर्चा की थी कि
एक समय में कौन 2 से सिद्ध
कितने हो सकते है⤵️औऱ जानकारी इस प्रकार हैं-
1️⃣ तीर्थ की विद्यमानता में एक समय में १०८ तक सिद्ध हो,
2️⃣ तीर्थ का विच्छेद होने पर एक समय में १० सिद्ध हो
3️⃣एक समय में २० तीर्थकर सिद्ध हो सकते हैं
4️⃣ सामान्य केवली एक समय में १०८ सिद्ध हों,
5️⃣ एक समय १०८ स्वयंबुद्ध सिद्ध हों,
6️⃣ प्रत्येक बुद्ध6 सिद्ध हो, सकते हैं
7️⃣ बुद्धवोधित १०८ सिध्द हो.
सकते हैं
8️⃣ स्वलिंग भी १०८ सिद्ध हों,सकते हैं
9️⃣अन्यलिंग १० सिद्ध हो, सकते हैं
🔟 गृहलिंग ४ सिद्ध हो. सकते हैं
1️⃣1️⃣स्त्रीलिंग २० सिध्द हों, सकते हैं
1️⃣2️⃣ पुरुषलिंग १०८ सिद्ध हो सकते हैं
यहां जो गणना बतलाई है वह सब जगह एक समय में अधिक से अधिक सिद्ध होने वालों की है।
*कई अन्य प्रकार के सिद्ध*
*पूर्वभवाश्रित सिद्ध* सिद्ध पहले, दूसरे और तीसरे नरक से निकलकर आने वाले जीव एक समय में १० सिद्ध होते हैं।
चौथे नरक से निकले हुए ४ सिद्ध होते हैं।
पृथ्वीकाय और जलकाय से निकले हुए ४ सिद्ध होते हैं। पंचेन्द्रिय गर्भज, तिर्यञ्च और तिर्यञ्चनी की पर्याय से तथा मनुष्य को पर्याय से निकलकर मनुष्य हुए १० जीव सिद्ध होते हैं।
मनुष्य योनी से आए हुए २० सिद्ध होते हैं।
भवनपति, वाणव्यन्तर और ज्योतिषी देवों से आए हुए २० सिद्ध होते हैं।
वैमानिकों से आए १०८ सिद्ध होते हैं और वैमानिक देवियों से आए हुए २० सिद्ध होते हैं।
*क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*क्रमांक 5*,
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*अध्याय*
*5:2:21*
*अध्याय*
क्षेत्राश्रित सिद्ध-ऊंचे लोक में 4
नीचे लोक में २० और मध्यलोक में १०८ सिद्ध होते है समुद्र में 2, नदी आदि सरोवरों में ३,
*विशेष*⤵️
(समुद्र, नदी, अकर्मभूमि के क्षेत्र पर्वत आदि स्थानों में कोई हरण करके ले जाए, वहां वह जीव केवल प्राप्त कर सिद्ध होता है, अन्यथा नहीं।)
प्रत्येक विजय में अलग-अलग २० सिद्ध हों (तो भी एक समय में १०८ से ज्यादा जीव एक समय में सिद्ध नहीं हो सकते)।
मेरुपर्वत के भद्रशाल वन, नन्दन वन और सौमनस वन में ४, पाण्डुक वन में २, अकर्मभूमि के क्षेत्रों में १०, कर्मभूमि के क्षेत्रों से १०८, पहले, दूसरे और पांचवें तथा छठे आरे में १० और तीसरे-चौथे आरे में १०८ जीव सिद्ध होते हैं। यह संख्या भी सर्वत्र एक समय में अधिक से अधिक सिद्ध होने वालों की है।
*अवगाहना-आश्रित सिद्ध*-
जघन्य दो हाथ की अवगाहना वाले एक समय में होते हैं। मध्यम अवगाहना वाले १०८ और उत्कृष्ट ५०० धनुष की अवगाहना वाले एक समय में २ जीव सिद्ध होते हैं।
*सिद्ध होने की रीति*-मध्यलोक में, अढ़ाई द्वीप में, १५ कर्मभूमियों में उत्पन्न होने वाले आठों कर्मो का
नाश करने वाले मनुष्य ही सिद्ध
होते है
औदारिक, तैजस् और , कार्मण शरीर का सर्वथा त्याग करके, अशरीर आत्मा को सिद्धि प्राप्त होती है। आत्मा जब कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त होता है तो अपने स्वभाव से ही उसकी ऊर्ध्वगति होती है। जैसे
ऐरण्ड का फल फटने से उसके भीतर का बीज ऊपर उच्छलता, उसीप्रकार जीव शरीर और कर्म का बंधन हटने पर लोक के अग्र भाग तक पंहुचता है
अथवा जैसे मिट्टी से लिप्त तुम्बा लेप के हटने से ही जल के अग्र भाग पर आकर ढहरता है
उसी प्रकार कर्म-बन्धन टूटने से जीव उर्ध्व करके लोक के अग्रभाग तक पहुँचता है सिद्ध जीव की गति विग्रह रहित होती है और लोकाग्र तक पहुंचने में उसे सिर्फ़ एक समय लगता है। सिद्ध जीव लोक के अग्रभाग में क्यों ढहरता है आगे अलोक में क्यों नहीं जाता? इसका उत्तर यह है कि आगे धर्मास्तिकाय नही है धर्मास्तिकाय
गति में सहायक होता है, अतएव जहां तक धर्मास्तिकाय है, वहीं तक जीव की गति होती है। धर्मास्तिकाय के अभाव में आगे अलोकाकाश में गति नहीं होती।
संसार-अवस्था में कार्मणवर्गणा के पुद्गलों के साथ आत्मा के प्रदेश,क्षीर नीर की तरह
मिले रहते हैं। सिद्ध अवस्था प्राप्त होने पर कर्मप्रदेश भिन्न हो जाते हैं और केवल आत्मप्रदेश ही रह जाते हैं और वे सघन हो जाते हैं। इस कारण अन्तिम शरीर से तीसरे भाग कम, आत्मप्रदेशों की अवगाहना सिद्ध दशा में रह जाती है उदाहरणार्थ ५०० धनुष की अवगाहना वाले शरीर को त्याग कर कोई जीव सिद्ध हुआ है तो उसकी अवगाहना वहा 339 धनुष औऱ ३२ अंगुल की होगी। जो जीव सात हाथ के शरीर को त्याग कर सिद्ध हुए हैं, उनकी अवगाहना वहां ४ हाथ और १६ अंगुल की है। जो जीव दो हाथ की अवगाहना वाले शरीर त्याग कर सिद्ध हुए हैं, उनकी एक हाथ और आठ अंगुल की अवगाहना होगी
*क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*क्रमांक 6*,
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*6:2:21*
*अध्याय*
आइये उस स्थान के बारे में जाने जंहा हमारे सिद्ध परमात्मा रहते हैं
वह पवित्र स्थान है सिद्ध शिला
*सिद्ध शिला* *का वर्णन*⤵️
मोती के श्वेतहार या गोदुग्ध से भी उज्जवल है; सोने के समान दमकती हुई और स्फटिक से भी निर्मल हैं । सिद्ध शिला का वर्ण श्वेत है।,चाँदी के प्रतर,समुद्र के झाग,मुचकुंद के फूल और शंख से भी अनंतगुणी अधिक निर्मल एवं स्वच्छ है सिद्ध शिला।
यह चौदहवें लोक की शिखा पर है और इसके ऊपर सिद्ध शिला धाम है । यहाँ मुक्त पुरुष रहते हैं । यहाँ किसी प्रकार क बंधन या दुःख नहीं हैं ।
सर्वार्थसिद्धि नामक इंद्रक के ध्वज से १२ योजन मात्र ऊपर जाकर ‘ईषत्प्राग्भार’ नाम की आठवीं पृथ्वी स्थित है। तीन भुवन के मस्तक पर स्थित इस पृथ्वी की पूर्व-पश्चिम चौड़ाई १ राजु है, उत्तर-दक्षिण लम्बाई ७ राजु है एवं मोटाई आठ योजन मात्र है अत: यह पृथ्वी लोक के अंत तक आठ योजन मोटी है। इस पृथ्वी के ऊपर तीन वातवलय हैं जो कुछ कम एक योजन मात्र हैं इस आठवीं पृथ्वी के मध्य में रजतमयी, अर्धचन्द्र के आकार वाला मनुष्य क्षेत्र समान, गोल, पैंतालीस लाख योजन विस्तृत ‘सिद्धक्षेत्र’ है। इस क्षेत्र के मध्य की मोटाई आठ योजन है एवं क्रम से घटते-घटते अंत में १ अंगुल मात्र है। अर्थात्
क्रमशः घटती-घटती आखिर में यह मक्खी के पंख से भी पतली हो जाती है।*
45 लाख योजन लम्बी-चौड़ी अर्द्ध गोलाकार सिद्ध शिला है।
*सिद्ध शिला का आकार उल्टे छत्र के आकार का है।*
*सिद्ध शिला पृथ्वीकाय की बनी हुई है।*
*सर्वार्थसिद्ध विमान से लोकान्त की दूरी 21 योजन है।*
(12योजन + 8योजन + 1योजन)
*सिद्ध शिला और लोकान्त के मध्य एक योजन( चार कोस ) की दूरी है।ऊपर वाले एक कोस के छठे भाग (333धनुष और 32अंगुल) में लोकान्त का स्पर्श करते हुए सिद्ध भगवान विराजमान रहते हैं।*(एक कोस = 2000धनुष)
*चक्किकुरुफणिसुरिदे सहमिन्दे जं सुहं तिकालभवं। तत्तो अणंतगुाणदं सिद्धाणं खणसुहं होदि* *।।५६०।।*
अर्थ - चक्रवर्ती के सुख से भोगभूमियों का सुख अनंतगुणा है ।
भोगभूमियों से धरणेन्द्र का सुख अनंतगुणा है उससे देवेन्द्र का सुख अनंतगुणा है। उससे अहमिन्द्रों का सुख अनंतगुणा है। इन सभी के अनंतानंत गुणित अतीत, अनागत और वर्तमान काल संबंधी सम्पूर्ण सुखों को एकत्रित करिये उसकी अपेक्षा भी अनंतगुणा अधिक सुख सिद्धों को क्षण मात्र में उत्पन्न होता है यह तो केवल उदाहरण मात्र है।
मनुष्य क्षेत्र से सिद्धि लोक में जाते वक्त रास्ते में जीव को *केवलज्ञान रूप का साकार उपयोग* होता है।
ये *उत्तराध्ययनसूत्र के 36वें अध्ययन में बताया है---*
*सागरोवउत्ते सिज्झई*।
*लोक के चारों ओर अनन्त और असीम अलोकाकाश हैं। वहाँ आकाश के अतिरिक्त कोई द्रव्य नहीं होता। सर्वत्र आकाश ही आकाश है।*
*विशेष*
भगवान ऋषभदेव, वासुपूज्य और नेमिनाथ ये तीन तीर्थंकर पद्मासन से मोक्ष गये हैं और शेष इक्कीस तीर्थंकर खड्गासन से मोक्ष गये हैं।
सोमवार को *संसारी* का वर्णन होगा
*क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*क्रमांक 7*,
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*8:2:21*
*अघ्याय*
हमने सिद्ध परमात्मा के बारे
कुछ संक्षिप्त में जाना आज
जानते है अब दूसरे भेद *संसारी जीव* के बारे में जानते हैं।
*संसारी जीव* -- वे जीव, जो कषाय और राग-द्वेष से युक्त है और उसके परिणाम स्वरुप बार-बार जन्म-मरण को प्राप्त होते है और घोर दुःख पाते है,
जो संसार का भ्रमण करता है, एक गति से दूसरे गति में जाता है, वह संसारी जीव है। जिनके कर्म-मल लगा हुआ होता है, वे सब जीव संसारी कहलाते हैं। संसारी जीव विविध प्रकार के कर्म-पुद्गलों से जकड़े हुए होते हैं, इसलिए संसारी जीव की स्थिति एक सी नहीं होती। कोई जीव एक इंद्रियवाला होता है तो कोई पांच इंद्रियां वाला, कोई त्रस, कोई स्थावर, कोई समनस्क ( मनसहित), कोई अमनस्क ( मन रहित )। इस प्रकार संसारी जीवों की अनगिनत श्रेणियाँ की जा सकती है।
जन्म और मरण से आत्मा का अस्तित्व नहीं मिटता। यह तो आत्मा की अवस्थाएं हैं -- आत्मा को एक जन्म स्थिति से दूसरी जन्म स्थिति में पहुंचाने वाले हैं। संसारी जीव की मुख्य भवस्थितियाँ ( जन्म-स्थितियाँ ) चार है। उन्हें चार गति कहते हैं -- नरक गति, तिर्यंच गति, मनुष्य गति और देव गति।
हमने सिद्ध परमात्मा औऱ संसारी जीवके बारे
कुछ संक्षिप्त में जाना और आज
जानते है की मूल फर्क क्या है
संसारी आत्मा में औऱ सिद्ध आत्मा में
संसारी आत्मा वह है, जो संसरण(. एक जन्म से दूसरे जन्म में जाने की परंपरा )
करती है-बार-बार जन्म और मरण करती है। संसारी आत्मा का पूर्वजन्म है और पुनर्जन्म होता रहता है। एक इन्द्रिय वाले जीवों से लेकर पांच इन्द्रिय वाले जीवों तक जीव भी इस वर्ग में समाविष्ट हो जाते हैं। इस वर्ग के जीव अनादिकाल से संसारी हैं और तब तक संसारी ही रहेंगे, जब तक समस्त कर्मों का क्षय करके मुक्त नहीं बन जाएंगे । संसारी जीवों के अनेक वर्ग बन सकते हैं, जिनकी चर्चा हम आगे करेंगे ।
क्योंकि जब शुद्ध चैतन्य में स्फुरण(कम्पन, प्रकाशित होना) हुआ तब अपने स्वरूप को भूलकर जो स्फुरण के साथ एक हो गया, वह जीव हो गया परन्तु स्फुरण होते हुए भी जो अपने स्वरूप को नहीं भूले, अपने को स्फुरण से अलग जानकर अपने स्वभाव में डटे रहे, वे ईश्वर कोटि के हो गये।
एक परमात्मा है और दूसरा आत्मा । एक पूर्ण विकसित है, दूसरा अल्प विकसित । एक निरावरण है दूसरा सावरण ।
जो सावरण हैं वे प्रकृति के आधीन जीते हैं परन्तु निरावरण हैं वे माया को वश में करके जीते हैं। माया को वश करके जीनेवाले चैतन्य को ईश्वर कहते हैं।
एक मुक्त है, दूसरा बद्ध । एक विदेह है, दूसरा सदेह । एक अकर्म है, दूसरा सकर्म । एक अक्रिय है, दूसरा सक्रिय सिद्ध जन्म और मरण की परम्परा से अतीत है, दूसरा इस परम्परा का वाहक है। ये दोनों ही चेतना संवलित(युक्त) हैं, किन्तु इनके स्वरूप में बहुत बड़ा अन्तर है ।
* संसारी आत्मा और सिद्ध आत्मा में निम्न तीन फर्क है–
(1) संसारी आत्मा *कर्मों से युक्त* होती हैं जबकि सिद्ध आत्मा *कर्मों से मुक्त* होती हैं।
(2)संसारी आत्मा *सशरीरी* होती हैं जबकि सिद्ध आत्मा *अशरीरी* होती हैं।
(3)संसारी आत्मा *पुनः-पुनः चार गति रूप संसार में परिभ्रमण करती रहती हैं* जबकि सिद्ध आत्मा *सदा सर्वदा के लिए लोकाग्र में तद् रूप में ही अवस्थित रहती हैं।*
**क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*क्रमांक 8*,
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*9:2:2021*
*अध्याय*
*मोक्ष-प्राप्ति का सरलतम उपाय*
मानव-जीवन का सम्यक् लक्ष्य है मोक्ष
क्या है यह सम्यक् लक्ष्य?
मानव-जीवन का सम्यक् लक्ष्य है-'शाश्वत सुखों
की, मोक्ष की प्राप्ति।' प्रत्येक भव्य जीव मोक्ष प्राप्त करने की अभिलाषा रखता है।
सुगमता से यदि मोक्ष प्राप्ति हो जाय तो फिर कहना ही क्या? तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन के बीस बोलों का वर्णन मिलता है। आगम ज्ञाताधर्मकांगसूत्र के आठवें अध्ययन में⤵️
इमेहि य णं वीसाएहि य कारणेहि आसेविय बहुलीकएहिं तित्थयर नाम गोयंकम्मं निव्वत्तिसु तं जहाअरिहंत सिद्ध पक्षण-गुरु-धेर बहुस्सुए-तबस्सीसु।
वच्छलया य तंसिं, अभिक्खणाणोबओगे ब॥
दसण-विणय आवस्सए य, सौलव्वए निरइयारं ।
खणलव तवच्चियाए, वेयाबच्चे समाही य॥
अपुवनाणगहणे, सुयभत्ती पवयणे पभावणया।
एएहिं कारणेहिं, तित्थयरत्न लहड़ जीयो।
अर्थात् ये बीस उपाय
*(१) अरिहंत भगवान पद*
- अरिहन्त पद - जिन वीतरागी आत्माओं ने चार घनघाति कमों का जड़मूल से दिया है, जो 34 अतिशयों एवं अष्ट प्रातिहार्य युक्त हैं उन्हें अरिहंत कहा जाता हैं, अखण्ड केवल ज्ञान, दर्शन के स्वामी हैं। इसी कारण उन्हें महागोप, महामाहण आदि से विभूषित किया गया है। ऐसे अरिहन्त परमात्मा जो नाम स्थापना द्रव्य एवं में उपास्य हैं, उनकी स्तुति, विनय भक्ति करने से तीर्थंकर नाम कर्म का बंध होता है।
अरिहंत भगवान का गुणानुवाद करता हुआ जीव उत्कृष्ट भाव-श्रेणी के आने पर तीर्थकर-नामकर्म का उपार्जन करता है।
*2सिद्ध पद* - जो आत्माएँ आठ कर्मों का क्षय कर मोक्षधाम में लोकाग्रे सिद्ध शिला स्थित है एवं अशरीरी अरूपी-अजरामर-निरंजन है, वे सिद्ध कही जाती है। ऐसी: सुखी अवस्था में हैं। वे जन्म-मरण के बंधनों से सर्वथा मुक्त हैं एवं आधि-व्याधि-उपाधि सभी दुःखों से दूर है। ऐसे सिद्ध परमात्मा के अवर्णवाद के परिहार गुणोत्कीर्तन और गुणप्रकाश करने से तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जित होता है।
*3 प्रवचन भक्ति पद* केवली प्रणीत धर्म में प्रकाशित तत्त्वों का चरम का यथार्थ स्वरूप प्रवचन कहलाता है। प्रभु की तारक देशना 12 अंगों में जिनागमों के ज्ञाता- श्रीचतुर्विध संघ को भी प्रवचन की संज्ञा प्रदान की गई है प्रवचन की साधना एवं संघमयी प्रवचन की विनयभक्ति करने से तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन होता है
*4आचार्य पद (गुरु पद)* - पाँच समिति तीन गुप्ति इत्यादि 36 गुणयुक्त प्रबुद्ध धर्मोपदेशक धर्मतीर्थसंरक्षक एवं श्रीसंघ के नायक होते हैं। 'सूरि तित्थर समो' तीर्थंकरों के समान बताया है। सद्गुरु ही श्रावक के जीवन को सुधारता है, गुरु की 33आशातनाओं के परिहार से एवं वन्दनादि-सेवा-भक्ति करने से आत्मा तीर्थंकर नाम कर्म
का बंध करती है।
*5स्थविर पद* - वय: स्थविर, दीक्षा पर्याय स्थविर, श्रुत स्थविर इत्यादि भेद वाले ज्ञानी जो गीतार्थ हैं एवं संयम मार्ग में अविचलित (स्थिर) रहकर जिनशासन की अपूर्व प्रभावना कर रहे हैं और क्षमा, मृदुता सरलता आदि यतिघर्मों का पालन कर रहे हैं, ऐसे संयम सविता की सेवा भक्ति से, आशातना के परिहार से, गुणोत्कीर्तन से तीर्थकर नाम कर्म का उपार्जन निश्चित होता है।
*6बहुश्रुत पद (उपाध्याय पद)* - ग्यारह अंग, बारह उपांग, चरण सित्तरी, करण सितरी के ज्ञाता अथवा 14 पूर्व, 11 अंग के ज्ञाता ऐसे पच्चीस गुणयुक्त प्रभूतश्रुतज्ञानधारी उपाध्याय वन्दनीय-पूजनीय होते हैं। वाचक, पाठक, उपाध्याय, बहुश्रुत ये पर्यायवाची है। अन्य योग्य पात्रों को श्रुतज्ञान का अभ्यास करवाने वाले उपाध्यायो-बहुश्रुतों के सम्मान-सत्कार से बन्दन विनयादि भक्ति से न केवल तीर्थंकर नामकर्म बंधता है अपितु ज्ञानावरणीय कर्म का भी क्षय होता है।
*7तपस्वी मुनि पद (साधु पद)* - जो मुनिवर पंच महाव्रत आदि 27 गुणों के धारक हैं, क्षुधा आदि 22 परिषहों को सहन करने वाले हैं, स्व-पर हितकर्ता हैं, धर्मोपदेशक हैं वे अवनि(धरती, पृथ्वी।)
के अणगार हैं, जिनशासन के शणगार(श्रृंगार) हैं। बाह्य-आभ्यंतर तपस्या करने वाले साधु साध्वियों की संयम यात्रा में सहायता करके, स्तुति बहुमान करके तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन किया जा सकता है।
*8ज्ञान पद* - सम्यकज्ञान वही है जो पतित व्यक्ति का उद्धार करे एवं उसे उत्थान के मार्ग की ओर सम्प्रेरित करे। आत्मा का स्वभाव ही जानना है। स्वाध्याय, वाचना, पृच्छना, धर्मकथा आदि क्रियाएँ निरन्तर ज्ञानोपयोग एवं सतत श्रुताराधना को प्रेरित कर दीपक की भाँति अंधकार-मय अज्ञान को हटाकर प्रकाशमय ज्ञान की ज्योति प्रकट करती है। सद्ज्ञान से ही कर्तव्य अकर्तव्य की बुद्धि आती है। सतत ज्ञानाराधना ज्ञानोपासना से आत्मा ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय करते-करते तीर्थकर नामकर्म उपार्जित करती है।
*9दर्शन पद* - सुदेव, सुगुरु, सुधर्म पर अटूट अगाध श्रद्धा रखना सम्यग्दर्शन कहलाता है। सम्यग्दर्शन मोक्ष के निकट लेकर जाता है। दर्शन का अभाव मिथ्यात्व को आमंत्रण देता है, जो जन्म देता है संशय, शंका, कुतर्क को एवं मोक्ष से दूर लेकर जाता है। परमात्मा
पर, परमात्मा की वाणी (आगम) पर नि:शंकित, पूर्ण श्रद्धा रखना व अन्य में जागृत करना एवं निरतिचार सम्यक्त्व का पालन करने से तीर्थकर नाम कर्म का बंध होता है।
*क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*क्रमांक 9*,
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*अध्याय*
*10:2:21*
*10विनय पद* - आत्मा का मूलभूत गुण विनय है। आत्मा में नम्रता के बीज बोने का अर्थ है मुमुक्षु भव्य जीव उत्पन्न करना। जैसे कबीर दास जी नेकहा है-
लघुता ते प्रभुता मिले, प्रभुता ते प्रभु दूरी।
चींटी लै सक्कर चली, हाथी के सिर धूरी।।
कबीर कह रहे हैं कि अगर आपको अपना बड़प्पन रखना है तो सदैव छोटे बनकर रहो।छोटा बनने का अर्थ है विनम्र बनकर रहो।विनम्रता रखने में ही आपका बड़प्पन है।विनम्रता से आपका सभी लोगों में मान बढेगा।लघुता से ही प्रभुता मिलती है।प्रभुता से प्रभु दूर अर्थात प्रभुता (अहंकार की भावना रखने से) आपके और परमात्मा के मध्य की दूरी बढ़ जाएगी।अहँकार के कारण ही मनुष्य से परमात्मा दूर हो जाते हैं।कुछ करने और जानने का अहंकार आपको परमात्मा को पाने से वंचित कर देता है।चींटी छोटी है,विनम्र है इसलिए उसे शक्कर मिलती है ।हाथी को अपने विशालकाय और बलशाली होने का अहंकार होता है।इसी बल के अहंकार के कारण वह सूंड से धूल उठाकर अपने सिर पर डालता रहता है।कहने का अर्थ है कि जीवन में कभी भी किसी भी विशेषता का अभिमान नहीं करना चाहिए।विनम्रता आपको शिखर तक ले जा सकती है और अहंकार पतन के अंधकार तक।चयन आपको करना है।परमात्मा के द्वार तक दंडवत लेट कर ही पहुंचा जा सकता है,अहंकार से अकड़कर चलने पर तो उसका दर तक दिखलाई नहीं पड़ेगा।
विनय के कारण ही आत्मा में सम्यक्त्व, ज्ञान, चरित्र आदि गुणों को उदय और विकास हुआ करता है।
अभिमानी मनुष्य अपने बल, ज्ञान, धन, अधिकार आदि का अभिमान हृदय में रखकर अपने आप को बड़ा समझ लेता है। अपने बड़प्पन के मद में चूर रहकर वह अन्य गुणी मनुष्यों की अवहेलना तथा अपमान किया करता है, दूसरों को अपने से महान पूज्य समझना उनकी विनय करना उसको अनुचित प्रतीत होता है। ऐसे अविनयी व्यक्ति का पतन अवश्य होता है। अनेक अविवेकी पुरुष अपनी चंचल लक्ष्मी के अभिमान में आकर किसी भी गुणी की विनय करना अपना अपमान समझते हैं। ऐसे मनुष्य किसी अन्य व्यक्ति को दुर्भाग्यवश किसी विपत्ति में फँसा हुआ देखते हैं तो उन अभिमानियों को उस आपत्तिग्रस्त मनुष्य पर दया नहीं आती, अतः वे अभिमान वश उसकी सहायता नहीं करते, उलटे उसकी हँसी उड़ाते हैं। ऐसे अभिमानी मनुष्य को लक्ष्य करके एक कवि ने कहा है-
*आपद् गतं हससि किं द्रविणान्ध मूढ*।
*लक्ष्मीः स्थिरा भवति नैव कदापि कस्य*।
*यत्किं न पश्यति घटी जलयन्त्रचक्रे।।*
*रिंक्ता भवन्ति भरिताः पुनरेवरिक्ता:*।
हे धनमद में चूर मनुष्य! तू किसी अन्य मनुष्य पर आई हुई विपत्ति को देखकर हँसता क्यों है। जिस पर तू इतना फूला फिरता है वह तेरी लक्ष्मी सदा तेरे पास न रहेगी, वह कभी एक जगह स्थिर नहीं रहती है। तू कुए में पड़ी हुई पानी की रहट को चलता हुआ नहीं देखता? जिसमें पानी का भरा हुआ पात्र खाली होता जाता है और खाली पात्र पानी से भरते जाते हैं।
मनुष्य में बड़प्पन-पूज्यता-मान्यता अभिमान करने से नहीं आती है। बड़प्पन लाने के लिए मनुष्य को विनय भाव को ग्रहण करना पडता है। विनयशील बनकर मनुष्य जब तक गुरुजन-सेवा, लोक-सेवा नहीं करता तब तब ‘बडा‘ नहीं बन पाता।
रत्नत्रय-धारक मुनि, उपाध्याय, आचार्य की विनय करना, उनके समीप आ जाने पर खड़ा हो जाना, झुक कर नम्रता के साथ हाथ जोड़, सिर झुका कर, उनको नमस्कार करना, उनको ऊँचे आसन पर बिठाना यदि वे विहार करें तो उनके पीछे चलना, यदि वे बोलें तो उसको ध्यान से सुनना, जैसा वे आदेश दें उसको ठीक पालन करना गुरु विनय है। इसी को उपचार विनय भी कहते हैं।
अहंकार आदि कषा्यों को निकालने से कर्म रूपी मल का विनाश होता है। और विनय नामक आन्तरिक गुण की उत्पत्ति होती है। आत्मा के प्रदेश- प्रदेश में 10 प्रकार के/52 प्रकार के विनय समाहित करने से आत्मा तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन करती है।
*11आवश्यक पद (चारित्र पद)* - आत्मा का परम लक्ष्य विकृति से प्रकृति की ओर आना है। इसी हेतु से शुद्ध-निर्मल चारित्र का पालन जरूरी है। सामायिक, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्गं आदि षट् आवश्यक क्रिया के अतिचार रहित, दोष रहित, निर्दोष क्रिया के पालन से आत्मा कलंकहीन बनती है। चारित्रिक उपासना हेतु षड़ावश्यक के भावपूर्वक करने से तीर्थंकर नामकर्म का बंध आत्मा करती है एवं सद्गति की ओर प्रयाण करती है।
*12ब्रह्मचर्य पद ( शील पद)* - ब्रह्मचर्य का अर्थ
ब्रह्म अर्थात् आत्मा चर्य अर्थात् रमण करना। स्वयं को आत्मा के सन्निकट रखना, आत्मभाव में लीन रहना ही ब्रह्मचर्य कहलाता है। जो व्यक्ति भोग कामवासना के विकारों का विचार नहीं करते, शील तथा व्रत अर्थात् मूलगुण और उत्तरगुण को निर्दोष पालते हैं व ब्रह्मचारी रहते हैं, उनके शरीर की विशिष्ट ऊर्जा धर्माराधना में सहायक होती है। ब्रह्मचर्य व्रत के भावपूर्ण पालन से तीर्थंकर नाम कर्म बँधता है।
*13शुभ ध्यान पद (क्रिया पद)* - आत्मा को रौद्र आदि कषायी ध्यान से विकेन्द्रित संवेग भावना उत्पन्न करने हेतु धर्म ध्यान, शुक्ल ध्यान ध्याना चाहिए। इससे प्रतिक्षण वैराग्य भाव की अभिवृद्धि होती है एवं कर्मरूपी कचरा भस्म होता है। व्यक्ति जब निर्जरा हेतु शुभ ध्यान ध्याता है, तो पंचाचार विशुद्ध क्रिया भी निर्दोष एवं अतिचार रहित होती है।
शुभ ध्यान में निर्मल क्रियाओं के करने से भी भव-भवान्तर में तीर्थंकरत्व की प्राप्ति होती है
*14तप पद* - जो कर्मों की मैल को तपाता है, उसे तप कहते हैं। बाह्य तप (अनशन, वृत्तिसंक्षेप उणोदरी इत्यादि) तथा आभ्यंतर तप (प्रायश्चित्त वैयावच्च इत्यादि) के यथाशक्ति तपानुष्ठान से आत्मा की शुद्धि होती है। प्रशस्त-निष्काम एवं सम्यक्तप से सभी दुर्भाव संकुचित हो जातेहैं। तथा आत्मा मोक्ष की ओर बढ़ जाती है। तप का माहात्म्य अद्भुत कल्याण एवं इस पद के पूर्ण आराधन से भव्यात्माएँ आगामी भवों में तीर्थंकर पद प्राप्त कर सकती है
*क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*क्रमांक 10*,
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11:2:21*
*अध्याय*
*15दान पद/ गोयम पद*- सुपात्र को साधुजनोचित दान करना, मरण शय्या परलेटे व्यक्ति को अभयदान देना इत्यादि दान कल्याणकारी है। क्योकि दान देने से न केवल को पुण्योपार्जन होता है ,बल्कि याचक का भी कल्याण होता है।धर्म दान की महिमा अपरम्पार है। भावपूर्वक करने से व्यक्ति सदकृत्यों का संचय करता है और साथ ही तीर्थकर नाम कर्म बांधने में सहयोग मिलता है किन्हीं व्याख्याओं में पन्द्रह वा पद गोयम पद लिखा है जिनका आशय है प्रथम गणधर पद वे परमात्मा की वाणी से द्वादश अंगों की रचना कर ज्ञान प्रदान करते है। अत: गणधर की पर्युपासना से भी तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जितत होता है।
ज्ञानदान उत्तमोत्तम दान है। अपेक्षा से यदि विचार करें तो सुपात्रदान एक गुण है और गोयम(दान) पद गुणी है। गुण और गुणी के अभेद सम्बन्ध को ध्यान में रखते हुए सुपात्र दान एवं गोयम पद दोनों का स्थान यथोचित बराबर है।
*16वैयावृत्य पद (जिन पद)* -वैयावृत्य एक निर्जरा प्रधान क्रिया है। इससे पुण्य का बंध भी होता है तथा आत्मा शक्तिमान बनती है। चतुर्विध संघ की सेवा-भक्ति करने से, तेरह प्रकार का वैयावृत्य करने से तीर्थकर नामकर्म का बंध होता है।
किसी शास्त्रकार ने इसे जिन पद भी लिखा है। किन्तु यहाँ अरिहंतादि जिन अर्थ उपयुक्त नहीं है। यहाँ 'जिन' पद का अर्थ राग-द्वेषादि अंतरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने हेतु पुरुषार्थ किया जाए तो सुसंगत है, क्योंकि उन्हीं की वैयावृत्य से तीर्थकरत्व की प्राप्ति होती है।
*17समाधि पद (संयम पद)* संयम का फल समाधि है जिसमें मन एकाग्र और स्थिर हो जाता है व आत्मा क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हो जाती है। सभी प्रकार की आकुलताओं से रहित समभाव में टिककर व 20 असमाधियों से बचकर आत्मा तीर्थकर नाम कर्म का बंध कर सकती है।
*18अभिनवज्ञान पद (अपूर्व श्रुत* पद) बुद्धि के 8 गुणों की प्राप्ति हेतु नवीन अपूर्व अभिलक्षित ज्ञान के अभ्यास से, नए नए ज्ञान के मनन-वाचन से चिन्तन-लेखन से आत्मोत्थान में सहायता प्राप्त होती है तथा तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जित होता है। वैसे ज्ञान का स्वरूप आठवें पद में भी है, किन्तु इसमें नवीन जिज्ञासा रूप ज्ञान की पुष्टि को महत्त्व दिया गया है। इसमें पाँचों ज्ञान के अभ्यास की बात है जबकि अग्रिम पद में श्रुतज्ञान की भक्ति की मुख्यता है।
*19श्रुत पद* - श्रुत ज्ञान-जिनेन्द्र भगवान की दिव्यध्वनि के माध्यम से निकले निरक्षरात्मक (ओंकार रूप ) भाषाओँ /वचनों के आधार पर गणधर देवो द्वारा अंतर्मूर्हत में गुथित ग्रंथों को श्रुत/श्रुत ज्ञान कहते है पाँच प्रकार के ज्ञान में श्रुतज्ञान अपूर्व है।
क्रम में यह दूसरा है। ज्ञान पद अर्थ है सदज्ञान-भक्ति, अभिनवज्ञान पद का अर्थ है नए ज्ञान का अभ्यास एवं श्रुतपद अर्थ है साहित्य प्रभावना/परमात्मा की वाणी को अपने शब्दों में लिखकर / लिखवाकर प्रचार-प्रसार से एवं 8 प्रकार के ज्ञानाचार से आराधित श्रुतपद की भक्ति से तीर्थंकर कर्म बँधता है।
*20तीर्थ पद ( प्रवचन प्रभावना)* - जंगम-स्थावर तीर्थ, तीर्थंकर प्रभु के जिनधर्म शासन प्रभावना करना अत्यंत हितकर है। आठ प्रकार की प्रभावना से जिनोपदेश को, जिन को प्रचारित प्रकाशित करने से, कल्याणक भूमियों के दर्शन-स्पर्शन, अवलम्बन से, चतुर्विध संघ के विस्तार से आत्मा तीर्थंकर नाम गोत्र बाँधती है एवं भवान्तर में तीर्थकर रूप जन्म लेती है।
कहा गया है- "अप्पा सो परमप्पा" अर्थात् आत्मा ही परमात्मा बनती है। किन्तु प्रश्न ये उत्पन्न होता है कि परमात्मा किस प्रकार बना जाए ? इस प्रश्न का सुयोग्य उत्तर निहित् हैं बीस-स्थानक आराधना में। उक्त 20 बोलों/पदों में से किन्हीं एक दो बोलों की भी उत्कृष्ट साथ साधनाकी जाए तो भी अध्यवसायों की श्रेष्ठता से जीव तीर्थंकर नामकर्म बाँधता है। सप्ततिशतद्वार नामक ग्रन्थ में वर्तमान तीर्थंकरों के बारे में कहा है
*पुरमेणे चरमेहिं पुट्ठा जिणहेऊ बीस ते अ इमे*।
*सेसेहिं फासिया पुण एगं दो तिण्णि सव्वे वा*॥
अर्थात् वर्तमान काल के 24 तीर्थंकरों में से प्रथम (ऋषभदेव) एवं अन्तिम (महावीर) तीर्थंकर जी ने 20 स्थानों की आराधना की, जबकि मध्य के शेष तीर्थकरों ने एक, दो, तीन, यावत सभी ने 20 स्थानों का परमोत्कृष्ट आराधन किया।
अब ध्यान लगाकर देखें तो उक्त जो ये तीर्थंकर-गोत्र-उपार्जन के बोल कहे, इनमें
से अधिकांश बोल हैं गुणी-पुरुषों के गुण-कीर्तन करने के। बंधुओं! मोक्ष-प्राप्ति का सरलतम उपाय भी यही है अर्थात् गुणीजनों का वन्दन, कीर्तन। आप भी चाहते हैं
सहज रूप से तीर्थंकर-नामकर्म का उपार्जन। न अधिक तप-संयम की आवश्यकता, न अधिक समय-श्रम की आवश्यकता। कितना आसान है मोक्ष में जाना।
आज ही से आप सभी भावपूर्वक गुणियों का गुणानुवाद प्रारम्भ कर दीजिये। मैं आपको सहयोग करूँगा अर्थात् इसी दिशा में उपदेश-निर्देश देने के लिए
सचेष्ट रहने का प्रयास करूँगा जिससे आप और हम, सभी आत्म-कल्याण के पथ पर अग्रसर हों, आत्म-कल्याण करें। 🙏🙏🙏🙏🙏
*क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*क्रमांक 11*,
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*12:2:21*
*अध्याय*
पहला बोल गति
मृत्यु के बाद गति होती है तो
पहले मृत्यु को जाने कि मृत्यु क्या है।
*मृत्युमार्गे प्रवृत्तस्य, वीतरागो ददातु में। समाधिबोधपाथेयं, यावन्मुक्तिपुरी पुरः*।।
जिस प्रकार विदेश जाते समय घर के प्रेमी जन जाने वाले के साथ मार्ग में खाने पीने की सामग्री रख देते हैं जिससे कि मार्ग में जाने वाले को किसी प्रकार का कष्ट न हो, उसी प्रकार है वीतराग देव! है धर्म-पितामह! मैं मृत्यु-मार्ग पर अग्रसर हो रहा हूँ। मुझे मुक्ति रूपी नगरी में पहुंचना है। मुक्तिपुरी तक सकुशल पहुंचने के लिए मुझे समाधि का बोध अथवा चित्त को समाधि और सदबोध प्रदान कीजिए जिससे मेरी यात्रा सानन्द पूर्ण हो।
*मृत्यु के १७ प्रकार*
*(१) अविचियमृत्यु* (अनुवीचि मरण) -जल की तरंग या लहर को वीचि कहते हैं। जैसे जल में वायु के बाद दूसरी तरंग उठती रहती है उसी तरह
उत्पन्न होने के बाद उदय में आये हुए आयुकर्म के दलिकों का प्रतिसमय निर्जीर्ण (शक्ति हीन)होना। अर्थात् समय-समय पर आयु का कम होते जाना ।वीचि नाम विच्छेद का भी है जिस मरण में कोई व्यवधान न हो, उसे आवीचिमरण कहते हैं ।
*२) तद्भवमरण*-वर्तमान भव में जो शरीर प्राप्त हुआ है, उससे संबंध छूट जाना व प्रतिक्षण आयु आदि प्राणों का बराबर क्षय होते रहना नित्यमरण है
और नूतन शरीर पर्याय को धारण करने के लिए पूर्व पर्याय का नष्ट होना तद्भवमरण है।
लोक प्रसिद्ध मरण तद्भवमरण कहलाता है
*३) अवधिमृत्यु*-अवधि सीमा या मर्यादा को कहते हैं। मर्यादा से जो मरण है उसे अवधिमरण कहते हैं।
एक बार भोगकर छोड़े हुए परमाणुओं को दुवारा भोगने से पहले जब तक जीव उनका भोगना शुरू नहीं करता तब तक अवधिमरण कहलाता है।
कोई जीव वर्तमान भव की आयु को भोगता हुआ आगामी भव की उसी आयु को बाँधकर मरे और आगामी भव में भी उसी आयु को भोगकर मरेगा, तो ऐसे जीव के वर्तमान मरणको अवधिमरण कहा जाता है। तात्पर्य यह कि जो जीव आयु के जिन दलिकों को अनुभव करके मरताहै , यदि पुनः उन्हीं दलिकों का अनुभव करके मरेगा, जीव जिस गति में
एक बार जन्म मरण करता है वह
अवधिमरण कहलाता है
*४) आद्यन्तमरण*-सर्व से और देश से आयु क्षीण होना
*सर्वावधि* प्रकृति स्थिति अनुभव व प्रदेशों सहित जो आयु वर्तमान समय में जैसी उदय में आती है वैसी ही आयु फिर प्रकृत्यादि विशिष्ट बँधकर उदय में आवेगी तो उसको सर्वावधिमरण कहते हैं।
*देशावधि*
यदि वही आयु आंशिकरूप से सदृश होकर बँधे व उदय में आवेगी तो उसको देशावधि मरण कहते हैं
तथा दोनों भवों में एक सी मृत्यु होना।
ऐसे जीव के वर्तमान भव के मरण को आद्यन्तमरण कहते हैं।
*५) बालमरण*-विष, शस्त्र, अग्नि या पानी से अथवा पहाड़ से नीचे गिर कर आत्मघात करके मरना तथा ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना न करके अज्ञानपूर्वक हाय-हाय करते हुए मरना।
*६)पण्डितमरण*-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र सहित समाधिपूर्व पूर्ण होना।
*7वलन्मृत्यु*-संयम एवं व्रत से भ्रष्ट होकर मरना। *8वालपण्डितमरण*- सम्यक्त्व युक्त श्रावक के व्रतो के आचरण करके समाधिभाव के साथ शरीर का त्याग करना।
*9सशल्य मरण*
निदानशल्य और मिथ्यात्वशल्य में से किसी भी शल्य के साथ मरना
*10प्रमादमृत्यु* प्रमाद के वश होकर तथा घोर संकल्प-विकल्पमय परिणामों के साथ प्राणों का परित्याग करना।
*11वशार्त्त मृत्यु*-इन्द्रियों के वश होकर, कषाय के वश होकर, वेदना के वश या हास्य के वश होकर मृत्यु होना।
*क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*क्रमांक 12*,
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**13:2:21*
*अध्याय*
*12विप्रणमृत्यु*-संयम, शील, व्रत आदि का निर्वाह न होने से घात करना।
*13गुद्धपृष्ठमृत्यु*-संग्राम में शूरवीरता के साथ प्राण त्यागना।
*१४) भक्तप्रत्याख्यान मृत्यु*-विधिपूर्वक तीनों प्रकार के आहार के त्याग का यावज्जीव प्रत्याख्यान करके शरीर को त्यागना।
*१५) इंगितमृत्यु*- संथारा ग्रहण करने के पश्चात् दूसरे से वैयावृत्य न कराते हुए शरीर त्यागना।
*१६) पादोपगमन मृत्यु*- आहार और शरीर का यावज्जीवन त्याग करके स्वेच्छापूर्व --चलन आदि क्रियाओं का भी त्याग करके समाधिपूर्वक शरीरोत्सर्ग करना ।
*१७)केवलिमरण*-केवलज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् मोक्ष में जाते समय अन्तिम रूप से शरीर का छूटना।
मृत्यु के यह सत्तरह प्रकार अष्टपाहुड ग्रन्थ के पांचवें भावपाहुड में बताए गए हैं उत्तराध्ययन सूत्र में सामान्य रूप से मृत्यु के दो भेद बताए गए हैं। वे इस प्रकार हैं:
*बालाणं अकामं तु, मरणं असई भवे। पंडियाणं सकामं तु, उक्कोसेण सईं भवे ॥*
-श्रीउत्तराध्ययन, अ०५, गा
अर्थात्- अज्ञानी जीव *अकाल मृत्यु* से मरते हैं। उन्हें पुनः- पुन: मरना पड़ता है। किन्तु पण्डित अर्थात् ज्ञानी पुरुषों का *सकाम मरण* होता है, और वह उत्कृष्ट एक बार ही होता है, उन्हें फिर मरना नहीं पड़ता-वे अमर- मुक्त हो जाते हैं ।
आत्महित के अभिलाषी पुरुषों को दोनों प्रकार की मृत्यु का स्वरूप समझ लेना आवश्यक है। वह निम्नलिखित है:-
*1अकाम मृत्यु* *2सकाम मृत्यु*
*1अकाम मृत्यु*(बाल मरण) ⤵️
जो जीव परलोक में आस्था नहीं रखते, वे कहते हैं-कौन जाने परलोक है या नहीं? हमारे इतने सगे-सम्बन्धी कुटुम्बी और स्नेही लोग मर गए, मगर किसी ने कुछ भी समाचार संदेश नही भेजा
इस प्रकार की विचारधारा से प्रेरित होकर तथाविषय भोग से मैं अत्यंत आशक्त होकर
वे हिंसा करते हुए मिथ्या भाषण करते हुए चोरी करते हुए व्यभिचार का सेवन करते हुए और सभी प्रकार के पापों का आचरण करते हुए संकुचित नहीं होते हैं वह मदिरा का सेवन करने लगते हैं मांस भक्षण से परहेज नहीं करते वेश्या गमन जैसे घोर दुष्कर्म करने से भी नहीं चूकते
वे धर्म के नाम से चिढ़ते हैं पाप के कामों में हर्ष के साथ प्रवृत्ति करते हैं संतों के संगति से दूर रहते हैं चोरों -जोरो की संगति में मजा मानते हैं हाय रे अब मुझे महान कष्ट से संचित किए हुए वह को भोगोपभोग के साधनों को त्याग कर चला जाना पड़ेगा इस तरह के मृत्यु की इच्छा के बिना ही रोते विलाप करते हुए मृत्यु के मुंह में प्रवेश करते हैं इस प्रकार का मरण बाल मरण कहलाता है बाल मरण में मरने वाले प्राणी इस पर संसार में अनंत मरण को प्राप्त होता है।
होती है।
*2सकाम मरण*
महात्मा पुरुष, काल रूपी शत्रु को रोग आदि रूप दूतों के द्वारा निकट आया जान कर तत्काल
सावधान हो जाते हैं वे शारीरिक सुखों का सर्वथा परित्याग करके क्षुदा तृषा आदि के दुखों को दुख ना मानते हुए बल्कि सुख का साधन समझते हुए ज्ञान,दर्शन चरित्र और तप रुपि चतुरंगिणीन सेना से सुसज्जित होकर *सकाम मरण* रूपी संग्राम के द्वारा काल रूपी दुर्दांत शत्रु को पराजित कर देते हैं फल स्वरुप अनंत अक्षय आत्मिक सुख को प्राप्ति रूप मोक्ष के महाराज को प्राप्त करके सदा के लिए निष्कंटक बन जाते हैं।
*क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*क्रमांक 13*,
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**15: 3: 21*
*अध्याय*
जिसने जन्म लिया है, उसे एक न एक दिन मरना तो होगा ही। मृत्यु से बचने का जगत् में कोई उपाय नहीं है। बड़े-बड़े प्रतापशाली, चक्रवर्ती , वासुदेव आदि समर्थ-पुरुष इस भूतल पर आए, मगर उनमें से एक भी मृत्यु से नहीं बचा। वास्तव में मृत्यु से बचना सम्भव ही नहीं है। इस प्रकार जब मृत्यु निश्चित है तो उसे बिगाड़ कर आत्मा का अहित क्यों करना चाहिए? रोते, कराहते और हाय-हाय करते क्यों मरना चाहिए? ऐसा उपाय क्यों नहीं करना चाहिए जिससे कि एक ही बार मर कर सदा के लिए अमरता प्राप्त हो जाए? वह उपाय कितना ही विकट क्यों न हो, फिर भी पुन:- पुन: मृत्यु के घोर कष्ट भोगने की अपेक्षा तो वह उपाय अल्प कष्टकर ही है। अनन्त जन्म-मरण के दुःखों की तुलना में समाधिमरण का कष्ट किसी गिनती में ही नहीं है। ऐसा विचार कर शूरवीर महात्मा सकाममरण करते हैं और सदा के लिए मृत्यु के दुःखों से छूट जाते हैं।
सकाममरण के पांच गुणनिष्पन्न नाम हैं-
( १) मुमुक्षु जीवों की कामना जन्म-जरा-मृत्यु से बचने की होती है। इस कामना की सिद्धि होने के कारण उसे 'सकाम- मरण' कहते हैं।
(२) सब प्रकार की आधि, व्याधि, उपाधि से चित्त जब निवृत्त होता है और शान्ति के साथ धर्मध्यान में लगा रहता है तभी सकाममरण होता है, अत: उसका दूसरा नाम 'समाधिमरण' है।
(३) मृत्यु के समय तीन या चारों प्रकार के आहार का त्याग किया जाता है, अतएव उसे 'अनशन' भी कहते हैं।
(४) अन्तिम बार बिछौने में शयन करने के कारण इसे 'संथारा लेना' भी कहते हैं।
(५) सकाममृत्यु के समय अपने जीवन भर के दोषों का सम्यक् प्रकार से निरीक्षण किया जाता है, उनकी आलोचना, निन्दा और कहा की जाती है, अतएव इसे 'संलेखना' भी कहते हैं।अथवा माया, मिथ्यात्व और निदान रूप तीनों शल्यों की आलोचना आदि करने के कारण इसे सल्लेखना कहते हैं
सल्लेखना दो शब्दों से मिलकर बना है सत्+लेखना। इस का अर्थ है - सम्यक् प्रकार से काया और कषायों को कमज़ोर करना। यह श्रावक और मुनि दोनो के लिए बतायी गयी है। इसे जीवन की अंतिम साधना भी माना जाता है, जिसके आधार पर व्यक्ति मृत्यु को पास देखकर सबकुछ त्याग देता है। जैन ग्रंथ, तत्त्वार्थ सूत्र के सातवें अध्याय के २२वें श्लोक में लिखा है: "व्रतधारी श्रावक मरण के समय होने वाली सल्लेखना को प्रतिपूर्वक सेवन करे"।
जैन ग्रंथो में सल्लेखना के पाँच अतिचार बताये गए हैं:
संलेखना के पांच अतिचार
(१) *इह लोगासंसप्पओगे*-इस संथारे के फलस्वरूप मेरी कीर्ति, ख्याति, प्रतिष्ठा हो, लोग मुझे बड़ा त्यागी, वैरागी समझें, धन्य-धन्य कहें, इस प्रकार इस लोक सम्बन्धी आकांक्षा करने से अतिचार लगता है।
(२) *परलोगासंसप्पओगे*-मृत्यु के पश्चात् मुझे इन्द्र का पद मिले, उत्कृष्ट ऋद्धि का धारक देव बनूं, चक्रवर्ती या राजा होऊ सुन्दर शरीर की प्राप्ति हो, इत्यादि परलोक संबंधी आकांक्षा करने से यह अतिचार लगता है।
(३) *जीवियासंसप्पओगे*-संथारे में अपनी महिमा पूजा होती देख कर बहुत समय अन्तिम
तक जीवित रहने की इच्छा करना। '
(4) *मरणासंसप्पओगे*-क्षुधा तृषा आदि की पीड़ा से व्याकुल होकर जल्दी मर जाने की इच्छा करना।
(५) *कामभोगासंसप्पओगे*
-काम- भोगों की इच्छा करना।
संलेखनावत जीवन का अंतिम और महान् व्रत है । वह मृत्यु को सुधारने की उत्कृष्ट कला है। इस कला की साधना अतीव सावधानी के साथ करनी चाहिए। उक्त पांच अतिचारों में से किसी भी अतिचार का सेवन नहीं करना चाहिए। संथारे का प्रधान फल आत्मशुद्धि और आत्म-कल्याण है उससे आनुषंगिक फल के रूप में जो सांसारिक सुख प्राप्त होने वाले हैं वे तो इच्छा न करने पर भी स्वतः प्राप्त हो जाते हैं । उन फलों की इच्छा करने से व्रत मलिन हो जाता है और व्रत का प्रधान फल मारा जाता है। अतएव किसी भी प्रकार की सांसारिक कामना नहीं रखते हुए जिनेन्द्र भगवान् के गुणों में ही अपने चित्त को रमाकर, संसार के अनित्य स्वरूप का विचार करते हुए, धर्मध्यान में ही संथारे का समय व्यतीत करना चाहिए। कहा भी है
मोक्ष की अभिलाषा रखने वालों को विषय मात्र का त्याग कर देना चाहिए ।
कुछ औऱ विस्तार से जानें
अनशन की पूर्व भूमिका को संथारा कहते हैं। सलेखना से आत्मा को शुद्ध करने के पश्चात शारीरिक क्षमता व मनोबल देख कर संथारा (अनशन ) किया जाता हैं। संथारा दो प्रकार का होता हैं।
(1) सागारी ( थोड़े काल के लिए) (2) यावज्जीवन(पूर्ण जीवन के लिए)
*सागारी संथारा*
मृत्यु का कोई समय निश्चित नहीं है। कभी-कभी वह अचानक ही हमला कर देती है और जीवन-धन का अपहरण कर लेती है। कई लोग सदा की भांति सोते हैं और सोते-सोते ही मृत्यु के ग्रास बन जाते हैं। ऐसी हालत में धर्मशील पुरुषों को सदैव सावधान रहना चाहिए। कदाचित् अचानक मृत्यु आ जाए तो आत्मा कोरा परभव में चला जाएगा, ऐसा भय सदैव रख कर रात्रि में सोते समय इत्वर (स्वल्प) काल के लिए अर्थात् सोकर उठने तक के
समय के लिए और कदाचित् सोते-सोते ही मृत्यु आ जाए तो यावज्जीवन के लिए यथायोग्य या जब कोई अचानक संकट काल आ जाए या बीमारी आदि की भयंकरता हो, उस समय सागारी संथारा किया जाता हैं।रात को सोते समय भी प्रात: काल उठने तक सागारी संथारा किया जाता हैं। इसके लिए निम्नोक्त विधि का उपयोग किया जाता हैं।
तेरापंथ के हिसाब से⤵️
आहार,शरीर उपधि, पचखूं पाप अठार। मरण पाऊं तो वोसिरे, जीऊं तो आगार।
दूसरी विधि(मंदिर मार्गी)⤵️
शयन करने से पहले पूर्वोक्त आवस्सही इच्छाकारेण की पाटी और तस्सुत्तरी की पाटी कह कर चार लोगस्स का कायोत्सर्ग करे। एक लोगस्स प्रकट में कह कर दोनों हाथ जोड़ कर कहे.
भक्खंति, डझंति, मारंति
किंवि उवसग्गेणं मम आउ-अन्तो भवेज्ज तहा सरीरसम्बन्ध- मोह-ममत्त-अट्ठारसपावट्ठाणाणि चउव्विहं पि आहारं वोसिरामि, सुहसमाहिएणं निद्दावइक्कति तओ आगारो।
*अर्थात* सोते समय कदाचित् कोई आपात स्थिति आ जाये जैसे- सिंह आदि खा जाए, आग लगने से शरीर जल जाए, पानी में बह जाऊं, शत्रु आदि मार डाले या आयु पूर्ण होने से मर जाऊं या किसी अन्य उपसर्ग से मेरी आयु का अन्त हो जाए तो मैं अपने शरीर की मोह-ममता का, अठारह पापस्थानों का और चारों प्रकार के आहारों का त्याग करता हूँ| अगर सुख-समाधि के साथ जागृत होऊं तो मैं सब प्रकार से खुला हूँ।
इस प्रकार संकल्प करके नमस्कार मन्त्र का स्मरण करता हुआ शयन करे। जागने पर पूर्वोक्त प्रकार से चार लोगस्स का कायोत्सर्ग करके निम्नलिखित पाठ का उच्चारण करे:
'पडिक्कमामि निगामसिज्जाए संथारा उवट्टणाए परियट्टणाए आउट्टणपसारणाए, छप्पइसंघट्टनाए, कुइए, कक्काराइए, छीए, जंभाइए, आमोसे, ससरक्खामोसे, आउलमाउलाए सुविणवक्तियाए, इत्थीविपरियासयाए, दिट्ठिविपरियासयाए मणविपरियासयाएं, पाणभोयण- विपरियासयाए, जो मे राइसिय अइयारो कओ तस्स मिच्छा मि दुक्कडं।२
इस पाठ का उच्चारण करने के बाद कहना चाहिए:
सागारिय अणसणस्स-आगारयुक्त अनशन (संथारे) का।
पच्चक्खाणं-प्रत्याख्यान (नियम) फासियं-स्पर्शा
पालिय-पाला
(कुण्डलिया छन्द)
मरदों माथे मनुष्य ने मरवानो तो छेज, पण परमार्थ करणे मरणो मुश्किल एज। मरणां मुश्किल एज सकल संसार सभारे। बाह बाह कहि सहु विश्व अहोनिशि कीर्ति उच्चारे।
दाखे दलपतराम वचनना पालो विरदो, मरवानो तो छेज मनुष्य न माथे मरदो।
इतने सूत्र उतारने में कोई भी गलती रह गई हो तो माफ करियेगा
मिच्छामि दुक्कड़म🙏🙏
*क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*क्रमांक 14*,
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*16:2:21*
*अध्याय*
2 यावज्जीवन संथारा(अनगारी संलेखना)
[आर्या छन्द ]
उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायाञ्च निःप्रतीकारे। धर्माय तनुविमोचनमाहुः संलेखनामार्याः॥
-रत्नकरण्डक श्रावकाचार।
अर्थात्-प्राणान्तकारी उपसर्ग के आने पर, अन्न-पानी की प्राप्ति न हो सके ऐसे दुर्भिक्ष के पड़ने पर, वृद्धावस्था के कारण शरीर के अत्यन्त ही जीर्ण हो जाने पर, असाध्य रोग उत्पन्न हो जाने पर, इस प्रकार का संकट आ जाने पर जब प्राण बचने का कोई उपाय न हो तब (अथवा निमित्त ज्ञान आदि के द्वारा अपनी आयु का निश्चित रूप से अन्त समीप आया जान कर) अपने धर्म की रक्षा के लिए शरीर का त्याग संलेखना तप कहलाता है, गणधरों ने कहा है
संलेहणा हि दुविहा, अब्भन्तरिया य बाहिरा चेव । अब्भन्तरा कसाएसु, बाहिरा होइ हु सरीरे ॥ २१ ॥
-भगवती आराधना।
अर्थात्-क्रोध आदि कषायों का त्याग करना आभ्यन्तर संलेखना है और शरीर का त्याग करना बाह्य संलेखना है। इस प्रकार संलेखना दो तरह की है: संलेखना की विधि-संलेखना को 'अपच्छिम मारणंतिय संलेहणा झूसणा आराहणा' भी कहते हैं। जब मृत्यु निकट आ जाए तो उसे सुधारने के लिए धर्मसेवन पूर्वक शरीर का
त्याग करने के लिए सावधान बनना चाहिए। जिनकी मनोकामना संसार के कामों से निवृत्त
१. नवकारसी आदि दस प्रत्याख्यानों को तथा पौषध एवं दया को पारते समय भी यह पाठ बोलना चाहिए।
अन्तिम शुद्धि हो गई है, अर्थात् जिन्हें अब संसार का कोई भी कार्य नहीं करना है, वही आत्मार्थ का साधन करने के लिए अर्थात् संथारा करने के लिए तैयार हो सकते हैं। जो संलेखना करने को उद्यत हुआ है उसका कर्त्तव्य है कि-पहले इस भव में सम्यक्त्व और व्रतों को ग्रहण करने के पश्चात् सम्यक्त्व में और व्रतों में उपयोग पूर्वक जो-जो अतिचार लगे हों, उनकी गवेषणा करे। अतिचारों की गवेषणा करने पर स्ववश, परवश या मोहवश जो जो अतिचार लगे हों, उन सब छोटे-बड़े अतिचारों की आलोचना करने के लिए आचार्य, उपाध्याय अथवा साधु, जो उस अवसर पर निकट में विराजमान हों, उनके समक्ष निवेदन कर दे। कदाचित् आलोचना सुनने योग्य साधु मौजूद न हों तो गंभीरता आदि गुणों से युक्त साध्वी जी के सामने अपने दोषों को प्रकट करे। अगर साध्वी जी का योग भी न मिले तो उक्त गुणयुक्त श्रावक के समक्ष और श्रावक भी मौजूद न हो तो श्राविका के सामने अपने दोषों को प्रकट कर दे। कदाचित् श्राविका भी न हो तो जंगल में जाकर पूर्व तथा उत्तर दिशा की ओर मुख करके, सीमन्धर स्वामी को नमस्कार करके,प्रायश्चित करे और हाथ जोड़ कर खड़ा हो और पुकार कर कहे-प्रभो! मैंने अमुक-अमुक अनाचीर्ण का आचरण किया है, मैं अपनी समझ के अनुसार उसका प्रायश्चित्त आपकी साक्षी से स्वीकार करता हूँ/या करती हूं। अगर वह न्यून या अधिक हो तो 'तस्स मिच्छा मि दुक्कड।
इस प्रकार नि:शल्य होकर फिर संथारा करे। जैसे काले रंग का कोयला आग में पड़ कर श्वेत वर्ण की राख के रूप में परिणत हो जाता है, उसी प्रकार संथारा रूपी अग्नि में झौंकने से आत्मा भी पाप की कालिमा को त्याग कर उज्ज्वल हो जाती है। अतएव संथारा करने के इच्छुक साधक को ऐसे स्थान पर जाना चाहिए जहां खान-पान, भोग-विलास के पदार्थ विद्यमान न हों, संसार-व्यवहार सम्बन्धी शब्द और दृश्य सुनने तथा देखने में न आवें। त्रस एवं स्थावर जीवों की हिंसा होने की सम्भावना न हो ऐसे उपाश्रय, पौषधशाला आदि स्थानों में अथवा जंगल, पहाड़, गुफा आदि स्थानों में जाए। वहां जाकर जहां चित्त की समाधि का योग हो ऐसे शिला आदि स्थानों को रजोहरण से आहिस्ते-आहिस्ते प्रमार्जन करे। कचरे को किसी पाटी आदि पर ले ले और निर्जीव जगह देख कर विधिपूर्वक परठ दे। फिर लघुनीति और बड़ी नीति, श्लेष्म और पित्त आदि को परठने की भूमिका का प्रतिलेखन करे। संथारे की भूमि हरितकाय, अंकुर, चींटी आदि के बिल वगैरह से रहित होनी चाहिए। उसे सूक्ष्म दृष्टि से देखकर फिर संथारा करने की जगह आ जाए ।इतना सब कर चुकने के पश्चात् प्रतिलेखन और प्रमार्जन करने में तथा गमन-आगमन करने में जो पाप लगा हो, उसकी निवृत्ति के लिए पूर्वोक्त विधि के अनुसार 'इच्छाकारेण' का तथा 'तस्सुत्तरी' का पाठ कह कर इच्छाकारेण' का कार्यात्सर्ग करे, तत्पश्चात् ' लोगस्स' का पाठ बोले।, फिर निम्नलिखित शब्द कहे-प्रतिलेखना में पृथ्वीकाय आदि किसी भी काय की विराधना की हो या कोई भी दोष लगा हो तो 'तस्स मिच्छा मि दुक्कडं।'
इसके पश्चात् अगर शरीर कष्ट सहन करने में समर्थ हो तो जमीन पर या शिला परबिछौना
करके उस पर संथारा करें
*क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*क्रमांक 15*,
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**17 :2:21*
*अध्याय*
*अन्तिम शुद्धि*
बिछौना करके उस पर संथारा करे। अगर शरीर असमर्थ प्रतीत हो तो गेहूं, चावल, को द्रव, आदि का पंडाल या घास, जो साफ और सूखा हो और जिसमें धान्य के दाने बिल्कुल न हों, मिल जाए तो उसे लाकर उसका ३।। हाथ लम्बा और सवा हाथ चौड़ा बिछौना करे। उसे श्वेत वस्त्र से ढंक कर उसके ऊपर पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके, पर्यक आसन (पालथी मार कर) आदि किसी सुखमय आसन में बैठे। अगर बिना सहारे बैठने की शक्ति न हो तो भींत आदि किसी वस्तु का सहारा लेकर बैठे। अथवा लेटे-लेटे ही इच्छानुसार आसन करे। फिर दोनों हाथ जोड़ कर दसों उंगलियां एकत्र करे। जिस प्रकार अन्य मतावलम्बी आरती घुमाते हैं, उसी प्रकार जोड़े हुए हाथों को दाहिनी ओर से बाईं ओर उतारता हुआ तीन बार घुमावे। फिर मस्तक पर स्थापित करे। तत्पश्चात् निम्नलिखित ' नमुत्थुणं' के पाठ का उच्चारण करे
संलेखना वाले की भावनाए इसप्रकार होनी चाहिए ⤵️
(१) अहा! पुद्गल के परमाणुओं के मिलने पर इस शरीर पिण्ड का निर्माण हुआ था। देखते-देखते ही इसका प्रलय होने लगा! पुद्गलों का संयोग ही ऐसा विनाशशील है।
(२) प्रभो! आपने कहा था- *'अधुवे असासयंमि'* अर्थात् यह जीवन अध्रुव (अस्थिर) और अशाश्वत (अनित्य) है, आपके इस कथन पर इतने दिन तक मैंने ध्यान नहीं दिया। अब शरीर की यह विनाशशील रचना देखकर मुझे निश्चय हो गया है कि आपका कथन
पूर्ण रूप से सत्य है।
(३) जिस प्रकार मनुष्यों का एक जगह इकट्ठा हो जाना मेला कहलाता है और कालान्तर में उनके बिखर जाने पर शून्य अरण्य हो जाता है, इसी प्रकार अनेक मनुष्यों के मिल जाने पर कुटुम्ब का मेला लग जाता है और पुद्गलों के संयोग से शरीर का मेला बन जाता है। मगर चार दिन बाद ही वह बिखरने लगता है! इसमें हर्ष या विषाद करना उचित नहीं है। जैसे मेले में शामिल होने वाले लोग बिखरते समय चिन्ता या शोक नहीं करते, उसी तरह सोच विचार नहीं करे
१-२. अधिक जीना या जल्दी मरना किसी की इच्छा के अधीन नहीं है। इच्छा करने से आयु कम या ज्यादा नहीं हो सकती, सिर्फ कर्म का बन्धन होता है। अतएव व्यर्थ कर्म-बन्ध नहीं करना चाहिए
अन्तिम शुद्धि
4जिस प्रकार कुटुम्ब या शरीर का मेला विखरते समय मुझे भी शोक करना योग्य नहीं है। संयोग का फल वियोग है। चिन्ता करके भी कोई वियोग से बच नहीं सकता। ऐसी स्थिति में चिन्ता या शोक करके अपनी आत्मा को अशान्त और मलिन करने की क्या आवश्यकता है?
(४) इस जगत् का न कोई कर्ता है, न कोई हर्ता है। सभी पदार्थ स्वभाव से ही मिलते और बिछुड़ते हैं। शरीर का संयोग भी स्वभाव से ही हुआ है और स्वभाव से ही मिटने वाला है। मैं संयोग बनाये रखना चाहूं तो रह नहीं सकता और विखेरना चाहूं तो बिखर नहीं सकता। तो फिर इसके विखरने की चिन्ता मैं क्यों करूं? जो होना होगा सो आप ही हो जाएगा।
(५) मैंआत्मा अजर, अमर, अविनाशी, अमूर्ति, सच्चिदानन्द हूं और शरीर विनश्वर, मूर्तिक और जड़ रूप है। शरीर का नाश होने पर भी मेरे स्वभाव का कदापि नाश नहीं हो सकता। तब इस शरीर की चिन्ता मैं क्यों करूं?
(६) है जिनेन्द्र! मैं अविवेक के कारण इस शरीर को अपना मानता था। पर अब मुझे आभास हुआ है कि वह मेरी भ्रान्ति थी-भूल थी। वास्तव में शरीर मेरा नहीं है। यह मेरी इच्छा के अनुसार चलता नहीं है। मैं कब चाहता था कि यह बूढ़ा हो जाए? मैंने कब इच्छा की थी कि सब अंगोपांग शक्तिहीन, शिथिल और जर्जरित हो जाए? मेरी इच्छा नहीं थी कि यह शरीर नाना प्रकार के रोगों का घर बन जाए। फिर भी यही हुआ। मेरी इच्छा न होने पर भी यह मेरे शत्रु रोगों से मिल गया और इसने बुढ़ापे को स्वीकार कर लिया। अगर यह मेरा होता तो मेरे दुश्मनों से क्यों मिल जाता? मुझे दुखी करने के लिए क्यों तैयार होता? ऐसे स्वामीद्रोही शरीर को अपना मानना उचित नहीं है। अब मैं समझ गया-अब यह मेरा नहीं है। चाहे रहे चाहे जाए!
(७) हे भोले जीव! इस शरीर को माता-पिता अपना पुत्र कहते हैं, भ्राता और भगिनी अपना भाई कहते हैं, काका और काकी अपना भतीजा कहते हैं। मामा और मामी अपना भानजा कहते हैं, पत्नी अपना पति कहती है, पुत्र-पुत्री अपना पिता कहते हैं, इत्यादि सब इसे अपना-अपना कहते हैं और तू इसे अपना कहता है। अब कह यह शरीर वास्तव में किसका है? परमार्थ दृष्टि से देखने पर जान पड़ता है कि यह किसी का नहीं है, क्योंकि कोई भी इसे रखने में समर्थ नहीं है। अतएव सब कुटुम्बियों और संबंधियों से ममत्व का त्याग कर निश्चित समझ ले कि तू सच्चिदानन्द स्वरूप है । अतएव अब निज स्वभाव में रमण करना ही मुझे उचित है।
(८) रे आत्मन्! यह शरीर-सम्पदा इन्द्रजाल की माया के समान है। कहा भी है: *बालो यौवनसम्पदा परिगतः, क्षिप्रं क्षितौ लक्ष्यते। वृद्धत्वेन युवा जरापरिणतो व्यक्तं समालोक्यते। सोऽपि क्वापि गतः कृतान्तवशतो न ज्ञायते सर्वथा, पश्यैतद्यदि कौतुकं किमपरैस्तैरिन्द्रजालैः सखे!* -वैराग्यशतक
*क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*क्रमांक 16*,
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(९) जो जीता है वह मरता नहीं है और जो मरता है वह जीता नहीं है । अर्थात्- आत्मा अविनाशी है और शरीर विनाशशील है। इसलिए मृत्यु शरीर को अपना ग्रास बना सकती है, आत्मा को नहीं। शरीर तो प्रतिक्षण पलटता जा रहा है, क्षीण होता जा रहा है। किन्तु (आत्मा) सदैव तीनों काल ज्यों का त्यों है और रहेगी। मृत्यु की मेरे पास तक पहुंच नहीं हुई और होगी भी नहीं। जिसने इस सच्चाई को भली-भांति समझ लिया है, उसे मृत्यु का भय कदापि नहीं सता सकता।
(१०) आत्मा आकाशवत् है, इस कारण अग्नि में जलता नहीं, पानी में गलता नहीं, वायु में उड़ता नहीं, शस्त्रों से भिदता नहीं, हस्तादि से ग्रहण किया जा सकता नहीं । आत्मा कदापि नष्ट नहीं हो सकती। आकाश से आत्मा में यह अंतर है कि आकाश अचेतन है आत्मा चेतन हैं आकाश जड़ है आत्मा चिन्मय(पूर्ण तथा विशुद्ध ज्ञानमय।परमात्मा, परमेश्वर।
धर्मग्रंथों द्वारा मान्य वह सर्वोच्च सत्ता जिसे सृष्टि का स्वामी माना जाता है)
हूं। अतएव आत्मा कोकभी किसी से भय नहीं हो सकता।
(११) जैसे श्रीमान् के पुत्र के दोनों तरफ जेबों में मेवा भरा रहता है और वह जिधर हाथ डालता है उधर ही उसे स्वादिष्ट पदार्थ मिलते हैं इसी प्रकार आत्मा के भी दोनों हाथों में मेवा है अर्थात् जब तक जीता है तब तक संयम पालता है या श्रावक के व्रत पालता है, स्वाध्याय, तप आदि करता हैं, और जब मर जाएगा तो स्वर्ग-मोक्ष के सुख का अधिकारी बनेगा। महाविदेह क्षेत्र में सीमन्धर स्वामी आदि तीर्थंकरों के, गणधरों के तथा मुनियों और आर्यिकाओं के उपदेश और दर्शन का लाभ प्राप्त करेंगे और फिरइससे राग और द्वेष का उच्छेद करने में समर्थ बनेगा मानव-जन्म को प्राप्त करके संयम और तप के द्वारा कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त करेगा।
(१२) जैसे कोई गृहस्थ श्रीमन्त बन कर, अपने पुराने टूटे-फूटे घर का परित्याग कर देता है और विपुल द्रव्य का व्यय करके मनोहर हवेली बन कर तैयार होते ही बड़े उत्सव और हर्ष के साथ उस नई हवेली में निवास करने लगता है, इसी प्रकार मेरी यह आत्मा संयम-तप आदि द्रव्य से श्रीमन्त बनी है। अब यह आधि, व्याधि, उपाधि से युक्त, ,अस्थि
मांस, रक्त आदि अशुचि द्रव्यों से परिपूर्ण, चमड़ी से मढे हुए, सड़न-पड़न स्वभाव वाल इस
औदारिक शरीर रूप झौंपड़ी का त्याग करने के लिए, पुण्य रूप विपुल द्रव्य को व्यय करके तैयार करवाये हुए, आधियों एवं व्याधियों से रहित, इच्छानुसार रूप में परिणत हो जाने वाले देव के दिव्य शरीर रूपी हवेली में निवास करेगी। उस हवेली तक पहुंचाने के लिए आत्मा को मृत्यु रूपी मित्र सहायक मिल गया है! इसलिए मानव को मृत्यु से झिझकना नहीं चाहिए, उसका स्वागत करना चाहिए।
(१३) लोभी वणिक् भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी आदि के अनेक कष्ट सहन करके, देश-देशान्तर में भटक कर धन और माल का संचय करता है। संचय करके उसे अपने भण्डार में सुरक्षित रखता है और तेजी की प्रतीक्षा करता है। भाव तेज होते ही अत्यन्त कष्ट-पूर्वक इकट्ठे हुए और रक्षित किये हुए माल की ममता का त्याग कर देता है और उसे बेचकर लाभ उठाता है। उसी प्रकार हे जीव! प्राणप्यारे धन कुटुम्ब का परित्याग करके, क्षुधा, तृषा, शीत, ताप, उग्रविहार आदि का कष्ट सहन करके इस शरीर से तप, संयम, धर्म आदि रूप जो माल इकट्ठा किया है और उसे दोषों से बचा कर रक्खा है, उस माल के बदले में अब स्वर्ग-मोक्ष रूपी लाभ प्राप्त करने के लिए यह मृत्यु रूपी तेजी का भाव आया है। इस अवसर पर चूकना नहीं चाहिए और पूरा-पूरा लाभ उठा लेना चाहिए ।
(१४) जैसे दिन भर की हुई मजदूरी का फल सेठ देता है, उसी प्रकार जीवन भर की हुई करनी का फल मृत्यु के द्वारा प्राप्त होता है। तो फिर मृत्यु से दूर क्यों भागना चाहिए? डरना क्यों चाहिए? मृत्यु का तो आभार मानना चाहिए।
(१५) किसी राजा को किसी परचक्री राजा ने पराजित करके कारागार में कैद कर दिया। वह उसे भूख-प्यास, ताड़ना-तर्जना आदि के दु:खों से पीड़ित करने लगा यह समाचार उसके किसी मित्र राजा को मिला। वह अपना दल-बल लेकर आता है और अपने मित्र राजा को कारागृह के कष्टों से छुड़ाता है। इसी प्रकार कर्म रूपी परचक्री राजा ने चेतन रूपी राजा को पराजित करके शरीर रूप कारागृह में बन्द कर रक्खा है। रोग शोक, पराधीनता आदि नाना प्रकार के कष्टों से वह आत्मा को पीड़ित कर रहा है। इन दुःखों से छुड़ाने के लिए मृत्यु रूपी मित्र राजा अपनी राजरोग आदि सेना सहित आया है। अतएव यह मेरा महान् उपकारी है। इसी की सहायता और कृपा से मैं नाना कष्टों से छुटकारा पा सकूंगा और सुखी बन सकूंगा।
(१६) भूत, भविष्य तथा वर्तमान काल में जिन्होंने स्वर्ग और मोक्ष के उत्तम सुखों को प्राप्त किया है, करते हैं और करेंगे, सो सब समाधिमरण का प्रताप समझना चाहिए, क्योंकि समाधिमरण के बिना स्वर्ग और मोक्ष के उत्तम सुखों की प्राप्ति नहीं हो सकती। अतः हे सुखार्थी आत्मन्! तुझे समाधिमरण करना उचित है।
(१७) कल्पवृक्ष की छाया में बैठकर जो जैसी शुभ या अशुभ भावना करता है, उसे वैसा ही शुभ या अशुभ फल प्राप्त होता है। अर्थात् शुभ अभिलाषा का शुभ फल और अशुभ अभिलाषा का अशुभ फल प्राप्त होता है। यह मूल्य भी कल्पवृक्ष के समान है।
*क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*क्रमांक 17*,
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*अध्याय*
*अंतिम शुद्धि*
मृत्यु की छाया में बैठकर अर्थात मृत्यु के समय में जो विषय-कषाय की भावना करता है, मोह-ममता आदि मलिन भावनाओं का सेवन करता है, वह नरक और तिर्यञ्च आदि दुर्गतियों के दुःखों का भागी बनता है। इसके विपरीत जो सम्यक्त्वयुक्त त्याग, वैराग्य, व्रत, नियम, सत्य, शील, दया, क्षमा आदि गुणों का आराधन करता हुआ समाधिभाव धारण करता है, वह स्वर्ग-मोक्ष के सुखों का भाजन बनता है। इसलिए मृत्यु रूपी कल्पवृक्ष को पाकर अब शुभ भाव रखना ही योग्य है, जिससे परमानन्द-परमसुख की प्राप्ति हो सके।
(१८) अशुचि से परिपूर्ण, फूटे हंडे के समान सदैव स्वेद, श्लेष्म, मल-मूत्र आदि घिनावनी वस्तुएं बहाने वाले इस जर्जरित औदारिक शरीर के फंदे से छुड़ा कर अशरीर ( सिद्ध भगवान्) बनाने वाला या देवता के दिव्य शरीर को प्रदान करने वाला समाधिमरण ही है। अतएव समाधिमरण का स्वागत करना ही उचित है।
वैसे-वैसे स्वच्छ होता जाता है और कुन्दन बन जाता है। इसी प्रकार तीव्र वेदनीय कर्म का उदय होने पर समभाव धारण करने से कठिन कर्मों का भी शीघ्र ही समूल नाश हो जाता है। उस समय आत्मा रूपी सुवर्ण शुद्ध एवं निर्मल होकर कंचन अर्थात् सिद्धस्वरूप बन जाता है। कदाचित् कुछ कर्म शेष रह जाएं तो देवगति तो मिलती ही है।
(१९) जैसे धर्मोपदेशक मुनि महात्मा अनेक नये, उपाय, प्रमाण, हेतु, दृष्टान्त आदि के द्वारा शरीर का स्वरूप समझा कर ममत्व को घटाने का प्रयत्न करते हैं, उसी प्रकार मेरे शरीर में उत्पन्न हुआ यह रोग भी मुझे प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा मानो उपदेश दे रहा है कि-अरे जीव! तू इस शरीर पर क्यों ममता करता है? यह शरीर तेरा तो है नहीं । यह तो मेरे स्वामी काल का भक्ष्य है। अब तू इस पर अपनी ममता त्याग दे!
(२०) किं बहुना, यह शरीर मुझे तो मुनिराज से भी अधिक असरकारक उपदेश देने वाला मालूम होता है। क्योंकि जिस शरीर को मैं प्राणप्यारा समझ कर अनेक उपचारों से पाल-पोस कर फूला नहीं समाता था और जिसकी सुन्दरता तथा कोमलता आदि गुणों पर लुब्ध और मुग्ध हो रहा था उस शरीर की ममता मुनिराज के उपदेश से भी छूटना कठिन थी। किन्तु रोग होने पर अनेक प्रकार के उपचारों से निराश करके शरीर ने वह ममता सहज ही छुड़ा दी।
(२१) हे जीव! यदि तू रोग-जन्य दुःख से घबराता हो, सचमुच ही यह रोग तुझे अप्रिय प्रतीत होता हो और इस दुःख से अगर तू ऊब गया हो तो अब तू बाह्य उपचार का परित्याग कर दे। क्योंकि यह रोग कर्माधीन है। कर्माधीन रोग या कष्ट को मिटाने की सत्ता बाह्योपचार में नहीं है। कदाचित् एकाध रोग कुछ कम भी हो गया तो क्या हुआ? हमेशा के लिए तो वह मिट ही नहीं सकता, संख्या या असंख्यात काल के अनन्तर फिर उसका उदय हो जाता है। अगर तू समस्त रोगों की सदा के लिए चिकित्सा करना चाहता है तो श्री जिनेन्द्र भगवान् रूप अलौकिक वैद्यराज द्वारा कही हुई समाधि रूप परमौषध का सेवन कर। समाधि ऐसा अद्भुत रसायन है कि उसके सेवन से मानसिक, शारीरिक और आत्मिक- सभी रोग समूल नष्ट हो जाते हैं। उसको सेवन करने वाला अनन्त, अक्षय, असीम, अव्याबाध आनन्द का भोक्ता बन जाता है।
(२२) मुनिवर गजसुकुमार के मस्तक पर सोमिल ब्राह्मण ने अंगार रखे। मुनि ने अंगारों की घोरतम वेदना सहन की। मुनिराज स्कंधक के शरीर की चमड़ी उनके जीते जी उन्हीं के भगिनीपति (जीजाजी)ने उतरवा ली। उन्होंने वह दुस्सह वेदना सहन की। श्री मुनिसुव्रतनाथ तीर्थंकर के शासन के समय के स्कंधक मुनि के ५०० शिष्यों को पालक प्रधान ने घानी में पिलवा दिया।
उन क्षमाशील मुनियों ने वह असीम वेदना समभाव से सहन की। इन महापुरुषों ने रोमांच
खड़ा कर देने वाली वेदनाएं समभाव, शान्ति और क्षमा के साथ सहन की तो उन्हें तत्काल
मोक्ष की प्राप्ति हुई। हे जीव, इन आदर्श पुरुषों के पावन चरितों से शिक्षा लेकर तू भी दु:खके समय समभाव धारण कर। तेरा भी आत्मकल्याण हो जाएगा। इसमें जरा भी सन्देह नहीं है।
(२४) हे जीव! तूने नरक में दस प्रकार की घोर से घोर क्षेत्र वेदनाएं सहन की हैं। परमाधामियों की निर्दय मार-पीट भी सही है। तिर्यञ्च योनि में क्षुधा, तृषा, ताड़ना, पराधीनता आदि के विविध कष्ट सहन किये हैं। मनुष्यभव में दरिद्रता दारुण वियोग की वेदना, पराधीनता आदि के दुःख भुगते हैं। यहां तक कि देवगति में भी आभियोग्य देव होकर इन्द्र के वज्रप्रहार आदि के दुःख भोगे हैं। वैसे कष्ट तो यहां तुझे नहीं है। मगर जितने कर्मों की निर्जरा अनन्त काल तक कष्ट सहते-सहते भी नहीं हुई, उतनी बल्कि उससे भी अनन्तगुणी निर्जरा समभाव से वेदनीय कर्म के उदय को सहन करने से हो जाएगी। यही नहीं, सदा के लिए उन सब कष्टों से छुटकारा भी पा जाएगा।
*क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*क्रमांक 18*,
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**20:2:21*
*अध्याय*
*अंतिम शुद्धि*
२५) संसार सम्बन्धी लेन-देन के व्यवहार में जो कोई कर्जदार, साहूकार को सौ रुपये के बदले पंचानवे रुपये देकर नम्रतापूर्वक चुकौती मांगता है तो साहूकार सन्तुष्ट होकर चुकौती दे देता है। अगर कर्जदार ढिठाई करता है तो सवाये दाम चुकाने पर भी पिण्ड छूटना कठिन हो जाता है। इसी प्रकार वेदनीय कर्म का यह उदय पूर्वोपार्जित ऋण को चुकाने के लिए आया है। जो कर्ज तेरे माथे पर चढ़ा है उसे नम्रता के साथ चुकता कर दे, जिससे थोड़े में ही तेरा छुटकारा हो जाए।
(२६) आत्मन् ! यह तू निश्चय समझ ले कि-
*'कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि'*
अर्थात् उपार्जन किये हुए कर्मों का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में तू भोगने में समर्थ होता हुआ भी क्यों जी चुराता है? वृथा क्यों ब्याज बढ़ा रहा है? बुद्धिमत्ता इसी में है कि शीघ्र से शीघ्र सारा कर्ज चुकता करके हल्का हो जा।
(२७) विचक्षण (तीव्र दृष्टिवाला)
वणिक् बहुमूल्य वस्तु को अल्प मूल्य में मिलती देखता है तो चुपचाप हर्ष और उल्लास के साथ उसे खरीद लेता है। इसी प्रकार स्वर्ग और मोक्ष के जो सुख मुनिमहात्मा दुष्कर तप, संयम, ध्यान, मौन आदि साधना के द्वारा प्राप्त करते हैं, वही सुख केवल समाधिमरण से ही तुझे मिलता है। तुझे महामूल्य निर्वाण के सुख, समाधिमरण रूप अल्प मूल्य में ही प्राप्त करने का यह सुन्दर सुयोग मिला है । तो किसी भी प्रकार की आनाकानी या गड़बड़ी न करता हुआ व्यवहार में चुपचाप (मौन धारण करके) और निश्चय में समाधि भाव धारण करके उन महामूल्य सुखों को खरीद लेना ही कुशलता है।
(२८) सुभटगण धनुर्विद्या आदि का अभ्यास करके और प्रयोग के द्वारा उसकी साधना करके सुसज्जित रहते हैं और जब कभी शत्रु का सामना होता है तो सिद्ध की हुई उस विद्या के द्वारा शत्रु को पराजित करके अपने किए हुए श्रम को सार्थक समझते हैं। इसी प्रकार हे प्राणी! तूने इतने दिनों तक जो ज्ञानाभ्यास किया है, तप और संयम की महान् साधना की है, वह इसी अवसर के लिए तो की है। उस साधना की सार्थकता आंकने का यही समय है। यह समय जब आ पहुंचा है तो अब मुकाबला कर। उनके सामने डट कर खड़ा हो जा और अपना चिरप्रतीक्षित ध्येय साध ले।
(२९) लोक में उक्ति प्रचलित है-अतिपरिचयादवज्ञा' अर्थात् जिसके साथ अत्यन्त परिचय हो जाता है, उससे स्वभावत: प्रीति कम हो जाती है। इस उक्ति के अनुसार शरीर के प्रति तेरी प्रीति अब कम हो जानी चाहिए, क्यों कि शरीर के साथ तेरा अनादिकाल का परिचय है।
(३०) उपयोग में लाते-लाते सुन्दर वस्त्र भी जब जीर्ण हो जाता है तो उस पर ममता नहीं रहती। उसे उतार कर फेंक दिया जाता है और हर्ष के साथ नूतन वस्त्र धारण कर लिया जाता इसी प्रकार यह औदारिक शरीर अनेक कामों में आने से, रोगों के संयोग से तथा तप, संयम, विनय, वैयावृत्य आदि के काम में लाने से जीर्ण हो गया है। अब इसका परित्याग करके नूतन दिव्य देवशरीर को प्राप्त करना है। इसमें विषाद का क्या कारण है? पुराना वस्त्र उतार कर ही नया धारण किया जाता है, इसी प्रकार इस शरीर का त्याग करने पर ही देवशरीर की प्राप्ति हो सकती है। ऐसी दशा में इस जीर्ण-शीर्ण शरीर का त्याग करने में झिझकने की क्या जरूरत है?
*क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*क्रमांक 19*,
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*22:2:21*
*अध्याय*
समाधिमरण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर
प्रश्न-मृत्यु के आगमन से पहले ही आहार-पानी आदि का परित्याग करके मृत्यु के सन्मुख होकर मर जाना अथवा मृत्यु को आमन्त्रण देकर बुला लेना क्या आत्मघात नहीं है? संलेखना से अपघात का महापातक नहीं लगता?
उत्तर-समाधिमरण और आत्मघात बहुत अन्तर है। प्रथम तो, आत्मघात में इस बात का विचार नहीं किया जाता कि मेरे जीवन का अन्त सन्निकट आ गया है या नहीं? मेरी मृत्यु शीघ्र ही अवश्यम्भावी है या नहीं? दूसरे, आत्मघात कषाय के उदय से किया जाता है औऱ उसमें हठात् प्राणत्याग किया जाता है। समाधिमरण उपसर्ग आदि विशेष कारण होने से किया जाता है। वह कषाय के उदय से नहीं किया जाता, बल्कि कषाय जब उपशान्त होते हैं तब किया जाता है।
क्रोध, मान, माया, लोभ आदि के वश में होकर अन्न-पानी आदि का त्याग करके मरे अथवा क्रोध आदि से पागल होने पर आग में जल कर, पानी में डूब कर, विष का सेवन करके अथवा फांसी आदि लगा करके मरे तो आत्मघात का पाप लगता है। किन्तु क्रोध आदि किसी भी कषाय के बिना, सिर्फ अपनी आत्मा के कल्याण के लिए, संसार और शरीर से मोह-ममता का त्याग करके, चारों आराधनाओं के साथ, आहार आदि का त्याग किया जाता है।
उपसर्ग, दुर्भिक्ष, असाध्य रोग आदि कारण उपस्थित होने पर शरीर से ममता हटाकर शान्ति और समाधि के साथ मृत्यु का वरण किया जाता है, उसे समाधिमरण कहते हैं। समाधिमरण और आत्मघात में इस प्रकार बहुत अन्तर है ।
आत्महत्या का प्रयास एक क्षणिक प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति अचानक मृत्यु प्राप्त कर लेता है, जबकि संथारा की प्रक्रिया बेहद धीमी और लंबी होती है जिसमें व्यक्ति के पास हमेशा यह मौका होता है कि वह चाहे तो पीछे हट जाए।
हट्टे-कट्टे नौजवान संग्राम में मारे जाते हैं। उनका मरना आत्मघात नहीं कहलाता। बल्कि भगवद्गीता में तो यहां तक कहा है कि संग्राम में मृत्यु पाने वाले स्वर्ग में जाते हैं। तो जिस प्रकार बाह्य (द्रव्य) संग्राम में मरना आत्मघात नहीं गिना जाता, उसी प्रकार आध्यात्मिक शत्रुओं का नाश करने वाले भावसंग्राम में प्रवृत्त होकर शरीर का परित्याग करना आत्मघात कैसे गिना जा सकता है? वस्तुत: वह आत्मघात नहीं है।
नीयन्तेऽत्र कषायाः हिंसाया हेतवो यतस्तनुताम् । सल्लेखनामपि ततः प्राहुरहिंसाया हेतवो यतस्तनुताम् ॥
-पुरुषार्थसिद्धयुपाय अर्थात्-हिंसा के कारण रूप कषायों को कम करने के लिए जो कार्य किया जाता है उसे अहिंसा ही कहते हैं। अत: अहिंसा की सिद्धि के लिए किया जाने वाला संलेखनाव्रत भी अहिंसा रूप ही है। उसमें आत्मघात रूप हिंसा किंचिन्मात्र भी नहीं है।
*क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*क्रमांक 20*,
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**23:2:21*
*अध्याय*
*समाधि मरण प्रश्नोत्तर*
(२) प्रश्न-शास्त्रकारों ने मनुष्य जन्म को अत्यन्त दुर्लभ बतलाया है, और मनुष्य शरीर की रक्षा एवं पालन-पोषण करने से ही शुद्ध उपयोग, व्रत, संयम आदि धर्म की साधना भी हो सकती है। अतएव ऐसे उपकारक शरीर की रक्षा करना ही उचित है। संथारा करके उसे नष्ट कर देना कैसे योग्य कहा जा सकता है?
*उत्तर*-आपका कहना सत्य है। हम भी यही जानते और मानते हैं। किन्तु जैसे कोई
साहूकार द्रव्य को उपार्जन करने के लिए दुकान की हिफाजत करता है। फिर भी कभी दुकान में आग लग जाए तो वह जहां तक सम्भव होता है, दुकान और उसमें रखे हुए द्रव्य दोनों को बचाने का प्रयत्न करता है। पर जब वह देखता है कि किसी भी अवस्था में दुकान बच नहीं सकती तो उसमें के द्रव्य को ही बचाने का प्रयत्न करता है। वह दुकान के साथ धन का नाश नहीं होने देता। इसी प्रकार धर्मात्मा पुरुष शरीर रूप दुकान की सहायता से तप, संयम, परोपकार आदि अनेक लाभ उपार्जन करते हैं और इस लाभ के कारण अन्न-वस्त्र आदि से उसका पोषण करते हैं और रोग रूपी साधारण आग लगने पर औषध-सेवन आदिके द्वारा उसकी रक्षा भी करते हैं। किन्तु मृत्यु रूप प्रचंड अग्नि लगने का प्रसंग उपस्थित होने पर, शरीर का किसी भी प्रकार बचाव न होता देखकर, शरीर रूपी दुकान की रक्षा की आशा छोड़ कर सम्यग्ज्ञान आदि रूप रत्नों की ही रक्षा में तत्पर होते हैं। क्योंकि आत्मिक गुणों के प्रसाद से ही अक्षय मोक्ष सुख की प्राप्ति हो सकती है।
*यस्त्वविज्ञानवान भवत्यमनस्कः सदाऽ्शुचिः*।
*न स तत्पदमाप्नोति संसारं चाधिगच्छति ॥*
*यस्तु विज्ञानवान् भवति, समनस्कः सदा शुचिः। स तु तत्पदमाण्नोति, यस्माद् भूयो न जायते*॥
अर्थात्—जिस पुरुष को सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई है और जो विचारशील नहीं है वह सदा अपवित्र है। वह संसार में परिभ्रमण करता है । उसे मुक्तिपद की प्राप्ति नहीं होती। किन्तु जो सम्यग्ज्ञानी और विचारशील है, जिसका अन्तःकरण सदैव पवित्र रहता है,वह शुद्ध भाव में रमण करता है, उसे उस अक्षय पद की प्राप्ति होती है जिससे फिर कभी लौटकर नहीं आना पड़ता।
आत्महत्या कषायों से प्रेरित होकर की जाती है तो सल्लेखना का मूल आधार समता है। आत्मघाती को आत्मा की अविनश्वरता का भान नहीं होता है। वह तो शरीर के नष्ट हो जाने को ही जीवन मुक्ति समझता है। जबकि सल्लेखना का प्रमुख आधार आत्मा की अमरता को समझकर अपनी परलोक यात्रा को सुधारना है। सूर्योदय की लाली सल्लेखना के समान है जो हमें प्रकाश की ओर ले जाती है एवं सूर्यास्त की लाली आत्मघात के समान है जो हमें अंधकार की ओर ले जाती है।
आत्महत्या को समाज में बुरी नज़र से देखा जाता है क्योंकि वह पलायनवादी मानसिकता से जुड़ी है जबकि संथारा लेने वाले व्यक्ति को समाज में अत्यधिक सम्मान के भाव से देखा जाता है क्योंकि वह उन सांसारिक प्रलोभनों तथा वासनाओं से मुक्ति की राह पर बढ़ता है जिस राह पर चलने की हिम्मत साधारण मनुष्य नहीं कर पाते।
*क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*क्रमांक 21*,
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*24:2;21*
*अध्याय*
समाधिमरणस्थ के चार ध्यान
*(१) पिण्डस्थध्यान*-शरीर की उत्पत्ति से लेकर प्रलय अवस्था तक होने वाली शरीर की विचित्रताओं का, अर्थात् पुद्गल के परिवर्तन का, रोग आदि असमाधि के समय के वैराग्यमय विचारों का, शरीर के भीतर और बाहर रहे हुए अशुद्ध पदार्थों का, शरीर की आकृतियों के परिवर्तन का, शरीर और आत्मा की भिन्नता का, मन में चिन्तन करना पिण्डस्थध्यान कहलाता है। लोक के संस्थान का तथा इस ग्रन्थ के प्रथम खण्ड के द्वितीय प्रकरण में कथित लोकस्थित स्थानों का चिन्तन करना भी पिण्डस्थध्यान के ही अन्तर्गत है
इसके इसके पाँच भेद हैं
1. पार्थिवीधारणा - एकान्त में बैठकर साधक विचारे कि-संसार गहन समुद्र है, समुद्र जल से भरा है, यह संसार दुखों से भरा है। यत्र-तत्र स्वर्गादि विषय सुख रूप कमल खिले हैं। मध्य में 1000 पैंखुड़ियों का एक कमल है, ठीक इसके बीच में सुमेरुपर्वत है। उस पर एक आसन है। इस आसन पर मैं आसीन हूँ।
2.आग्नेयधारणा - आगे साधक विचार करता है कि अपने नाभिमण्डल में एक कमल विराजमान है, जिसमें 16 पैंखुड़ियाँ हैं, जिनमें क्रमश: अ आदि 16 अक्षर लिखे हैं। कमल की कर्णिका में ही महामन्त्र विराजमान है जिसमें से मन्द-मन्द धूम (धुएँ) की शिखा निकल रही है, धीरे-धीरे धूम के साथ स्फुलिंगे निकलने लगे हैं। ये पंक्ति बद्ध चिनगारियाँ क्रमश: शनै:-शनै: अग्नि रूप प्रज्वलित होकर कर्मरूपी ईंधन में लग चुकी हैं। अब धीरे-धीरे कर्म वन जलने लगा इसके बाद नोकर्म भी जलने लगा एवं जलकर मात्र भस्म ही शेष बची है।
3.वायुधारणा - इसके बाद ध्यानी चिंतन करता है कि महावेगवान वायु पर्वतों को कंपित करती हुई चल रही है और जो शरीरादि की भस्म है उसको इसने तत्काल उड़ा दिया है और वायु शांत हो गई है।
4.जलधारणा - इसके बाद ध्यानी चिंतन करता है कि बिजली, इन्द्रधनुष आदि सहित चारों तरफ से मूसलाधार वर्षा कर रहा है। यह जल शरीर के जलने से उत्पन्न हुई समस्त भस्म को प्रक्षालित कर देता है।
5.तत्त्वरूपवतीधारण - तत्पश्चात् ध्यानी पुरुष अपने को सप्त-धातु | रहित, पूर्णिमा के चन्द्रमा समान प्रभावाला, सिंहासन पर विराजमान, | दिव्य अतिशयों से युक्त, कल्याणकों की महिमा सहित, मनुष्यों-देवों | से पूजित और कर्मरूपी कलंक से रहित चिंतन करे। पश्चात् अपने शरीर में स्थित आत्मा को अष्ट कर्मों से रहित पुरुषाकार चिंतन करे।
(२) पदस्थध्यान-नमस्कारमन्त्र, लोगस्स, नमोत्थुणं, शास्त्रस्वाध्याय, आलोचनापाठ स्तवन, छन्द, महापुरुषों और सतियों के चरित्र आदि का पठन, श्रवण करके उसके मर्म का चिन्तन करना और मन को स्थिर करके उन महापुरुषों की महान् साधना पर विचार करना पदस्थध्यान है। पदस्थ-ध्यान में 'ओं ह्रीं' आदि पवित्र मन्त्रों का भी ध्यान किया जाता है।
जिसको योगीश्वर अनेक पवित्र मन्त्रों के अक्षर स्वरूप पदों का अवलम्बन करके चिंतन करते हैं, उसे पदस्थ ध्यान कहते हैं। किसी नियत स्थान पर जैसे-नासिकाग्र या ललाट के मध्य में मन्त्र को स्थापित कर उसको देखते हुए चित्त को एकाग्र करता है। हृदय में आठ पैंखुड़ी वाले कमल का चिन्तन करे और आठ पत्रों में से पाँच पत्रों पर णमो अरिहंताण, णमो सिद्धाण, णमो आइरियाण,
का चिंतन करे।
इसी प्रकार हीं बीजाक्षर में तीर्थकर ऋषभदेव से महावीर तक चौबीस तीर्थङ्कर अपने-अपने वर्णों (रंगों) से युक्त हैं, उनका ध्यान करे।
*क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*क्रमांक 22*,
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**25:2;21*
*अध्याय*
*(३)रूपस्थध्यान*-
रूपस्थध्यान का अर्थ
समवसरण में विराजमान अरिहन्त भगवान् के स्वरूप का चिन्तन करना।
अरिहन्त परमात्मा के गुणों के साथ अपनी आत्मा के गुणों की एकता का तथा
आर्हन्त्यदशा प्राप्त करने के साधनों का चिन्तन-मनन करना।तथाइस ध्यान में बारह सभाओं के मध्य विराजित अष्ट प्रातिहार्यों और चार अनंत चतुष्टय से सहित अरिहन्त परमेष्ठी के स्वरूप का चिंतन किया जाता है।
*(४) रूपातीतध्यान*-
रूपातीतध्यान का अर्थ
सिद्ध भगवान् के स्वरूप का चिन्तन करना। सिद्ध भगवान् की आत्मा के साथ अपनी आत्मा के गुणों की समानता एवं एकता स्थापित करना। ऐसा विचार करना कि जैसे सिद्ध भगवान् व्यक्त रूप से सत्-चित् - आनन्द स्वरूप उसी प्रकार मैं भी शक्तिरूप में सत्-चित्-आनन्दमय हूं। अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, अनन्त वीर्य, अखण्डितता, अमूर्तिकता, अजरता, अमरता, अविनाशीपन आदि गुण सिद्ध भगवान् में व्यक्त रूप से हैं। और मुझमें भी यही सब गुण शक्ति रूप में विद्यमान हैं। इस दृष्टि से जो सिद्ध भगवान् हैं सो ही मैं हूं और जो मैं हूं सो ही सिद्ध परमात्मा हैं।
अमूर्त, अजन्मा, इन्द्रियों के अगोचर ऐसे परमात्मा सिद्ध परमेष्ठी का ध्यान करता है। पुन: वह योगी अपनी आत्मा को ही शुद्ध, बुद्ध, निरंजन, निर्विकार परमात्मस्वरूप चिंतन करता है। मैं ही सर्वज्ञ हूँ, सर्वव्यापक हूँ सिद्ध हूँ ।इत्यादि रूप से अपनी शुद्ध आत्मा का ध्यान करता है। इस प्रकार ध्यानी रूपातीत ध्यान में सिद्ध परमेष्ठी के ध्यान का अभ्यास करके शक्ति की अपेक्षा से अपने आपको भी उनके समान जानकर और अपने आपको भी उनके समान व्यक्त करने के लिए जबअपने आप में लीन हो जाता है। तब आप ही कर्मो का नाश हो जाता है व्यक्त रूप से सिद्ध परमेष्ठी हो जाता है।
इस प्रकार चारों ध्यानों को बाह्यरूप में ध्यावे और फिर बाह्य रूप से खिसक कर शारीरिक रूप में संलग्न हो जाए, अर्थात् अपने ही शरीर के विभिन्न भागों को इन ध्यानों का विषय (ध्येय) कल्पित करके चिन्तन करे जैसे-कमर के ऊपर के भाग की तरफ लक्ष्य स्थिर रखना पिण्डस्थध्यान और कमर के नीचे के भाग की तरफ लक्ष्य रखना पदस्थध्यान। ग्रीवा के ऊपर के अंग की तरफ मनोवृत्ति का एकाग्र करना रूपस्थध्यान और सर्व शरीरव्यापी आत्मा का ध्यान करना रूपातीत ध्यान।
*क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*क्रमांक 23*,
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**26:2:21*
*अध्याय*
इस तरह चार प्रकार का धर्मध्यान करके फिर शुक्लध्यान की ओर बढ़ने का प्रयास करना चाहिए। शुक्लध्यान का पहला पाया पृथक्त्ववितर्क है। आत्मद्रव्य और उसकी पर्यायों में गोते लगाकर इसकी साधना करनी चाहिए। तत्पश्चात् पर्यायों के चिन्तन का परित्याग करके केवल मात्र द्रव्य में ही स्थिर हो कर एकत्ववितर्क नामक शुक्लध्यान के दूसरे पाये का चिन्तन करना चाहिए। इस ध्यान से आत्मा जब श्रेणीसम्पन्न हो जाता है और आत्मा के गुणों में तन्मय हो जाता है तो चार घातिया कर्मों का क्षय हो जाता है और केवलदर्शन तथा केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है। फिर शुक्लध्यान का तीसरा पाया आरम्भ होता है। इसमें योग की सूक्ष्मक्रिया बनी रहती हैं, अत: उसे सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपातिध्यान कहते हैं इसके पश्चात् चौथा पाया स्वभावत: आरम्भ हो जाता है। उसमें सूक्ष्मक्रिया का भी अभाव हो जाता है, समुच्छिन्नक्रियाऽनिवृत्तिध्यान कहते हैं। अतः उसे
शुक्लध्यान का चौथा पाया प्राप्त होने पर शेष रहे हुए चार अघातिक कर्मों का भी एक साथ क्षय हो जाता है। तब आत्मा सर्वथा निष्कर्म होकर मोक्ष प्राप्ति करके सिद्धदशा प्राप्त कर लेती है। उस दशा में सम्पूर्ण कृतकृत्यता, परिपूर्ण निष्ठितार्थता और सर्वोत्कृष्ट सुखमय अवस्था प्राप्त हो जाती है। संसार-चक्र से आत्मा का छुटकारा हो जाता है।
कदाचित् शुद्ध ध्यान की मन्दता और शुभ ध्यान की प्रबलता हो जाए और आयु सात लव या इससे कुछ ज्यादा की कम हो और इस कारण से किंचित् कर्म शेष रह जाएं तो उन्हें भोगने के लिए, विमल पुण्य का पात्र बना हुआ जीव सर्वार्थ सिद्ध विमान आदि ऊंचे देवलोक में उत्पन्न होता है। अहमिन्द्र, इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश और लोकपाल इन पांच श्रेष्ठ पदवियों में से किसी एक पदवी का धारक होकर अत्युत्तम सुखोपभोग करके, मनुष्यगति में जन्म लेता है और दस बोलों का धारक मनुष्य होता है पुनः
खेतं वत्थु हिरण्णं च, पसवो दास पोरुसं। चत्तारि कामखंधाणि, तत्थ से उववज्जइ॥ मित्तवं नाइवं होइ, उच्चागोए य वण्णवं॥ अप्पायंके महापण्णे, आभजीए जसो बले ॥
अर्थात्- वह पुण्यशाली पुरुष (१) खेत-बाग- बगीचे, (२) महल - हवेली, (३) धन-धान्य, (४) अश्व, गज आदि पशु, इन चार कामस्कंधों के समूह को प्राप्त करता है। इन चार वस्तुओं का स्कंध एक बोल समझना चाहिए। जीवन सुख के लिए ये चार वस्तुएं मूलत: आवश्यक हैं। अतः जहां यह स्कंध होता है वहीं वह पुण्यात्मा पुरुष उत्पन्न होता है। (२) वह उत्तम मित्रों वाला तथा (३) ज्ञाति वाला होता है। (४) उच्च गोत्र वाला (५) सुन्दर रूप वाला (६) रोगहीन शरीर वाला ( ७) महान् बुद्धि का धनी (८) विनीत तथा सम्माननीय (९) यशस्वी और ( १०) बलवान् होता है।
इस प्रकार सुखमय और गुणमय स्थिति में उत्पन्न होकर जब तक भोगावली कर्म का उदय होता है तब तक रूक्ष वृत्ति से भोग भोग कर पुन: संयम का आचरण करके, यथाख्यात चारित्र में रमण करता हुआ, समस्त कर्मांशों का क्षय करके सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होकर निर्वाण प्राप्त कर अतुल और अनुपम सुखों का भोक्ता बन जाता है।
अंतुलसुहसागरगया, अव्वावाहमणोवमं पत्ता। सव्वमणागयमद्धं, चिट्ठंति सुही सुहं पत्ता॥
-श्रीउववाई सूत्र, २२ अर्थात्-सिद्ध भगवान के सुख की तुलना किसी भी सुख से की ही नहीं जा सकती। ऐसे अनुपम, अतुल, अनुबंध सुख के सागर में मग्न बने हुए अनन्त अनागत (भविष्य) काल तक-सदा के लिए एकान्त सुखी बने रहते हैं।
*क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*क्रमांक 24*,
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**27 : 2: 21*
*अध्याय*
संथारा पर आचार्य श्री तुलसी के उदगार
* आत्म पवित्रता के लिए जो किया जाता हैं, वास्तव में
वही अनशन है।
: अनशन वास्तव में मृत्यु को जानने की सच्ची कला हैं। विवेक पूर्ण शरीर छोड़ने की प्रक्रिया का नाम हैं
अनशन।
अनशन आत्महत्या नहीं, मौत का मुकाबला है।
: :-: आचार्य श्री महाश्रमण जी की विदुषी शिष्या साध्वी श्री राजीमती जी द्वारा संकलित "ज्ञान किरण" से संग्रहित
अब मृत्यु को जाना अब जानते है मृत्यु के बाद कौन कौन सी गति में जा सकते है।
तो पहले जाने गति क्या हैं⤵️
*गति* -- गति शब्द का अर्थ है -- चलना, एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना। परंतु यहाँ पर गति शब्द का व्यवहार एक जन्म-स्थिति से दूसरी जन्म-स्थिति को या एक अवस्था से दूसरी अवस्था को पाने के अर्थ में हुआ है। जैसे मनुष्य-अवस्था में जीव मनुष्य-गति कहलाता है और वही जीव तिर्यंच-अवस्था को प्राप्त हो गया तो हम उसे तिर्यंच गति कहेंगे।
नरक, तिर्यंच, मानुष और देव लोक में बँटे संसार के व्यवस्थापक आठ कर्म हैं। अनंत ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य के पुंजीभूत इस आत्मा की श्रद्धा, ज्ञान, आदि का जिस प्रकार ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी कर्म विरूप करते हैं, उसी प्रकार छठा (नाम) कर्म विविध शरीरों का निर्माण कराता है और आत्मा के अनेक (मनुष्य, देव आदि) नाम रखता है। नामकर्म के प्रथम भेद का नाम गति है। यत: गति नामकर्म जीवों को अनेक रंगभूमियों पर चलाता है अतएव इसे गति कहते हैं (पंचसंग्रहगाथा, ५९)।
*गति और आगति*
जीव का वर्तमान भव से आगामी भव में जाना गति है और जीव का पूर्व भव से वर्तमान में आना आगति है।
*अन्तराल-गति*
जीव एक जन्म से दूसरे जन्म में जाने के लिए जो गति करता है,
औऱ दोनों गतियों के बीच लगने
वाले समय को अंतराल गति कहते हैं
उसका नाम अंतराल-गति है। वह दो प्रकार की होती है -- ऋजु और वक्र। अंतराल-गति के समय स्थूल शरीर नहीं होता। वह मृत्यु के समय छूट जाता है। कार्मण और तैजस -- ये दो सूक्ष्म शरीर जीव के साथ रहते हैं। उस समय गति का साधन कार्मण शरीर होता है।
पूर्व शरीर को छोड़कर दूसरे स्थान में जाने वाले जीव दो प्रकार के होते हैं-सिद्ध और संसारी। सिद्ध वे,जो स्थूल एवं सूक्ष्म दोनों प्रकार के शरीरों को सदा के लिए छोड़कर स्वस्थान पर अवस्थित हो जाते हैंऔर दूसरे वे, जो पहले के स्थूल-शरीर को छोड़कर नये स्थूल-शरीर को प्राप्त करते हैं। पहले प्रकार के जीव मुक्त होते हैं और दूसरे प्रकार के जीव संसारी कहलाते हैं। मोक्षगति में जानेवाले ऋजुगति से ही जाते हैं, वक्रगति से नहीं। पुनर्जन्म के लिए स्थानान्तर पर में जाने वाले जीवों की ऋजु और वक्र -- दोनों गतियाँ होती हैं। ऋजुगति और वक्रगति का आधार उत्पत्ति क्षेत्र है। जब उत्पत्ति-क्षेत्र मृत्यु-क्षेत्र की सम-क्षेणी में होता है तो जीव एक समय में वहां पहुँच जाता है। यदि उत्पत्ति-क्षेत्र विषम-श्रेणी में होता है तो वहां पहुंचने में जीव को एक, दो या तीन घुमाव करने पड़ते हैं।
*ऋजु गति*⤵️
जिसमें प्राप्त स्थान सरल रेखा में हो वह ऋजु गति है ।उसमें एक ही समय में जीव निर्णायक स्थान पर पहुंच जाता है।
ऋजु गति से स्थानान्तर करते समय जीव को नया प्रयत्न नहीं करना पड़ता। वह पूर्व-शरीर को छोड़ता है तब उसे उस ( पूर्व-शरीर ) से उत्पन्न वेग मिलता है और वह धनुष से छूटे हुए बाण की तरह सीधा नए स्थान पर पहुंच जाता है।
*वक्रगति*⤵️
जिसमें प्राप्ति स्थान वक्र रेखा में हो उसे वक्र गति कहते हैं वक्र गति का काल मान 2-3-4 समय का है।*
वक्रगति घुमाववाली होती है। इसमें घूमने का स्थान आते ही पूर्व-देह-जनित वेग मंद पड़ जाता है और सूक्ष्म-शरीर ( कार्मण-शरीर ) द्वारा जीव नया प्रयत्न करता है। यह कार्मण योग कहलाता है। घुमाव के स्थान में जीव कार्मण-योग के द्वारा नया प्रयत्न करके अपने गन्तव्य में पहुँच जाता है। अंतराल गति का कालमान जघन्य एक समय और उत्कृष्ट चार समय होता है।
*क्रमशः*
*25 बोल विस्तृत विवेचन*
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*संकलन कर्ता : अंजुगोलछा*
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*क्रमांक 25*,
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*1:3:21*
*अध्याय*
*लोक और अलोक*
हम 4 गति जानने से पहले
इस लोक को समझे
लोक शब्द 'लुक्' धातु से बना है। लोक्यते इति लोकः, अर्थात् आकाश के जिस भाग में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि द्रव्य दिखाई देते हैं, वह लोक कहलाता है। इसके विपरीत जहां आकाश के अतिरिक्त और कोई भी द्रव्य दिखाई नहीं देता-शुद्ध आकाश ही आकाश है वह अलोकाकाश है।
सर्वज्ञ भगवान् से अवलोकित यह लोक आदि—अन्त से रहित, स्वभाव से ही उत्पन्न और जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल इन छहों द्रव्यों से भरा हुआ है। यह अनन्तानन्त अलोकाकाश के बीचों बीच में है।
अलोक अनंतानन्त अपरम्पार अखण्ड तक अमूर्तिक आकाशातिकाय मय है। जैसे किसी विशाल स्थान के मध्य में छींका लटका हो, उसी प्रकार - मध्य में लोक है। विवाह प्रजापति ( भगवती) सूत्र में कहा है कि जैसे जमीन पर एक दीपक उलटा रख कर उसके ऊपर दूसरा दीपक सीधा रख दिया जाए और उस पर तीसरा दीपक फिर उलटा रख दिया जाए तो जैसा आकार बनता है, वैसा ही आकार लोक का है।
यह लोक नीचे सात राजू चौड़ा है।
आइये पहले परिमाण जानें ताकि आगे समझने में आसानी होगी
*राजू का अर्थ* - राजू का परिमाण-३, ८१, २७, ९७० मन वजन को भार कहते हैं। ऐसे १००० भार के लोहे के गोले को कोई देवता ऊपर से नीचे फेंके। वह गोला छह महीने छह दिन, छह प्रहर, छह घड़ी में जितने क्षेत्र को लांघ कर जावे, उतने क्षेत्र को राजू-परिमाण जगह कहते हैं।
*२. योजन का परिमाण*—
*परमाणु*
जिसके दो भाग की कल्पना भी न हो सके, उस निरंश पुद्गल को परमाणु कहते हैं।
*बादर परमाणु*
ऐसे अनन्त सूक्ष्म परमाणुओं के संयोग से एक बादर परमाणु होता है।
*उष्ण श्रेणिक*
अनन्त बादर परमाणुओं का एक उष्ण श्रेणिक (गरमी का) पुद्गल,
*शीतश्रेणिक (सदी का) पुद्गल*,
आठ उष्णश्रेणिक पुद्गलों का एक शीतश्रेणिक (सदी का) पुद्गल,
*ऊर्ध्वरेणु*
आठ शीतश्रेणिक पुद्गलों का एक ऊर्ध्वरेणु (तरवले में दिखाई देने वाला),
*त्रसरेणु*
आठ ऊर्ध्वरेणु का एक त्रसरेणु (त्रस जीव के चलने से उड़ने वाली धूलि का कण)
*रथरेणु*
आठ त्रसरेणु का एक रथरेणु (रथ चलने पर उड़ने वाली धूलि का कण)
*बालाग्र का अनुतरोतर माप**
आठ रथरेणु का एक *देवकुरु या उत्तरकुरु क्षेत्र के मनुष्य का ब्लाग्र**,
देवकुरु तथा उत्तरकुरु के मनुष्य के आठ बालाग्र का एक *हरिवास-रम्यकवास, क्षेत्र के मनुष्य का बालाग्र*, हरिवास-रम्यकवास के मनुष्य के आठ बालाग्र का एक *हैमवत-ऐरण्यवत क्षेत्र के मनुष्य का बालाग्र*, हेमवत-ऐरण्यवत क्षेत्र के मनुष्य के आठ बालाग्र का एक *पूर्व-पश्चिम महाविदेह क्षेत्र के मनुष्य का बालाग्र*. पूर्व-पश्चिम महाविदेह क्षेत्र के मनुष्य के आठ बालाग्र की एक लीख,
*आठ लीख का एक यूका,, आठ यूका का एक यवमध्य,
आठ यवमध्य का एक अंगुल
*छह अंगुल काएकपाद(मुट्ठी),
*दो पाद की वितस्ति,
* दो वितस्ति का एक हाथ,
* दो हाथ की एक कुक्षि,
* दो कुक्षि का एक धनुष,
* २००० धनुष का एक गव्युति (कोस),
*चार गव्यूति का एक योजन इस योजन अशाश्वत वस्तु का नाप होता है।
शाश्वत (नित्य) वस्तु का माप ४००० कोस एक योजन जितना होता है। आगे सब जगह यही परिमाण समझना चाहिए।
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**क्रमशः*
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