देव गति पूरी

 *🙏आज की सामान्य जानकारी🙏*

**************************

*क्रमशः---* 

*वैमानिक देव के दो भेदः-* *मायी मिथ्थादृष्टि और अमायी सम्यग्दृष्टि। मायी मिथ्थादृष्टि इन निर्जरा पुद्गलों को जानते देखते नहीं हैं किन्तु उनका आहार करते हैं। अमायी सम्यग्दृष्टि के दो भेद- अनन्तरोपपन्न और परम्परोपपन्न। अनन्तरोपपन्न अमायी सम्यग्दृष्टि देव इन निर्जरा पुद्गलो को जानते देखते नहीं हैं किन्तु इनका आहार करते हैं। परम्परोपपन्न अमायी सम्यग्दृष्टि के दो भेद- पर्याप्त और अपर्याप्त। अपर्याप्त परम्परोपपन्न अमायी सम्यग्दृष्टि देव निर्जरा पुद्गलों को जानते देखते नहीं हैं किन्तु इनका आहार करते हैं। पर्याप्त परम्परोपपन्न अमायी सम्यग्दृष्टि देव के दो भेद- उपयोग सहित और उपयोग रहित। उपयोग रहित निर्जरा पुद्गलों को जानते देखते नहीं हैं किन्तु उनका आहार करते हैं। उपयोग सहित इन निर्जरा पुद्गलों को जानते देखते हैं और इनका आहार करते हैं।*


*👏तत्व केवली गम्य👏*

आभ्यंतर परिषद के देव- 12000

मध्यम परिषद के देव-14000

बाह्य परिषद के देव -16000


अवधि ज्ञान नरक के नीचे तक

आठ कृष्णराजी,,,,,,,,,✍🏼,,किशोर शाह

राजी,==शिला,/रेखा,

भगवतिसूत्र,शतक,६,उदेशा,५.

पाचवे ब्रह्नलोक देवलोक के तीसरे रिस्ट प्रतारमे

असंख्यात योजन लम्बी नव कृष्ण पृथ्वी शिला है। 

रिष्ट प्रतरके पूर्वमे दो,पश्चिममे दो,उत्तरमे दो,दक्षिणमे दो,इस तरह चार दिशामे आठ 

कृष्णराजी समचोरस अखडाके आकारमें है।

दो कृष्णराजी षटकोंन(६,corner) है।उत्तर और दक्षिणकी दो,त्रिकोण

आकरकी है।

पूर्व,दक्षिण,पूर्व,पश्चिम की ये चार अभ्यन्तर

चोख़ूणी, चतुष्ट कोणीय है।ये कृष्णराजीके बीचमे

नव लौकांतिक देव के विमान है।

ये कृष्णराजी इतनी बड़ी है कि कोई ऋद्धिवान

देव तीन चपटी बजाए,इतने समयमे जम्बूद्वीपकि 

२१,बार प्रदक्षिणा करता है,इस झड़पसे १५,दिन में एक कृष्णराजी कि प्रदक्षिणा पूरी नही कर शकता इतनी बड़ी ये है।

ये कृष्णराजी में गाज,विज,बारिश भी होती है 

लेकिन वो वैमानिक देव करते है।

ये कृष्णराजी में फक्त बादर पृथ्वी काय जीव है

दूसरे कोई जीव नही है,सर्व,जीव अनेकबार

अथवा अनंतिबार वहां बादर पृथ्वी में उतपन हुए है।

ये कृष्णराजिका इतना भयंकर काला वर्ण

है कि उसे देखकर देव भी भय पमता है,भयभीत

होता है।

ये कृष्णराजी के बीचमे ९,लौकांतिक विमान है।



प्रश्नका जवाब,,,


प्रथम ओर दूसरे देवलोक की देवी,,,ऊपर के देवलोक के देवोकि इच्छासे ऊपर आठमें देवलोक तक जाती है,,,अपनी इच्छासे नही

जाती,,,

नव प्रकारके लौकांतिक देव,

भगवती सूत्र,शतक,६,उदेशा,५

,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,✍🏼,,किशोर शाह।

ये नव प्रकरके देवो समकीती होते है।

जब तीर्थंकर भगवानको दीक्षा लेनेका समय

होता है तब ये सभी लौकांतिक देव भगवानको

दीक्षा लेनेकी विनती करते है की प्रभु आप थोड़े समयमे मोक्ष प्राप्त करनेवाले हो,आप शीध्रहि दीक्षा ग्रहण करो और तीर्थ प्रव्रतावो।

जो त्रस नाल है इनके किनारे पर रहने है इसलिए

लौकांतिक देव कहते है।।।।




पाचवे देवलोक के पास तीसरे अरिष्ट नामके

प्रतर की दक्षिण दिशा में,त्रसनाल की अंदर

पृथ्वी परिणामरूप काले रंगकी अखाड़ा के 

आकरकी नव कृष्ण राजू है,इनमे चार दिशा ए

चार,,,चार विदिशाएं चार,,,ओर एक माध्यमे,

इनमे लौकांतिक जातिके देव रहते है,

इनके नाम इस प्रकार है।


१,इशनमे,सारस्वत देव,,,,,विमान अर्ची।

२,पूर्वमे,,,आदित्य देव,,अर्चिमालि विमानमे 

ये दोनों प्रकरके देवोका ७००देवोका परिवार है।


३,अग्निकोण,,वन्हि देव,,,,वैरोचन विमान।

४,दक्षिणमे,,,, वरुण देव,,,,, प्रभंकर विमान,

ये दोनों प्रकरके देवोका १४००००,देवोका परिवार है।।


५,नैऋत्य कोण,,,, गार्डतोया देव,,,चंद्राभ विमान

६,,,पश्चिममे,,,तुषित देव,,,सूर्याभ विमान

ये दोनों प्रकरके देवोका ७०००,देवोका परिवार है


७,,वायव्य कोनमे,,,अव्याबाढ देव,,,शकाभ विमान

८,,,उत्तर दिशामे,,अग्निदेव,,,सुप्रतिष्ठ विमान।

९,,सर्वकी माध्यमे,,,,,अरिष्ट देव,,,रिष्टाभ् विमानमे।

ये तीनो प्रकरके देवोका ९००,देवोका परिवार है।

इस सकल तीर्थ वंदना में :


पहले देव लोक में  है 32 लाख मंदिर और उसमें जिन प्रतिमाएं हैं 57 करोड़ 60 लाख !


दूसरे देव लोक में है 28लाख मंदिर और उसमें जिन प्रतिमाएं हैं 50 करोड़ 40 लाख !


तीसरे  देव लोक में  है 12 लाख मंदिर और उसमें जिन प्रतिमाएं हैं  21 करोड़ 60 लाख !


चौथे देव लोक में  है 8 लाख मंदिर और उसमें जिन प्रतिमाएं हैं 14 करोड़ 40 लाख !


पांचवे  देव लोक में  है 4  लाख मंदिर और उसमें जिन प्रतिमाएं हैं 7  करोड़ 2० लाख !

छठे  देव लोक में  है  50 हज़ार मंदिर और उसमें जिन प्रतिमाएं हैं 90 लाख !

....

इस प्रकार ये सूत्र पढ़ने मात्र से 84 लाख 97 हज़ार (84,97,023)  शाश्वत जिन मंदिरों 

और 

उसमें स्थापित  1 अरब  52 करोड़ 94 लाख 44 हज़ार 760 ( 1,52,94,44,760)  शाश्वत जिन प्रतिमाओं को वंदन हो जाता है !

त्कृष्ट आयुष्य - 23 सागरोपम*

*देवलोक - दूसरा ग्रैवेयक*
*जघन्य आयुष्य - 23 सागरोपम*
*उत्कृष्ट आयुष्य - 24 सागरोपम*

*देवलोक - तीसरा ग्रैवेयक*
*जघन्य आयुष्य - 24 सागरोपम*
*उत्कृष्ट आयुष्य - 25 सागरोपम*

*देवलोक - चौथा ग्रैवेयक*
*जघन्य आयुष्य - 25 सागरोपम*
*उत्कृष्ट आयुष्य - 26 सागरोपम*

*देवलोक - पाँचवाँ  ग्रैवेयक*
*जघन्य आयुष्य - 26 सागरोपम*
*उत्कृष्ट आयुष्य - 27 सागरोपम*

*देवलोक - छठा ग्रैवेयक*
*जघन्य आयुष्य - 27 सागरोपम*
*उत्कृष्ट आयुष्य - 28 सागरोपम*

*देवलोक - सातवाँ ग्रैवेयक*
*जघन्य आयुष्य - 28 सागरोपम*
*उत्कृष्ट आयुष्य - 29 सागरोपम*

*देवलोक - आठवाँ  ग्रैवेयक*
*जघन्य आयुष्य - 29 सागरोपम*
*उत्कृष्ट आयुष्य - 30 सागरोपम*

*देवलोक - नौवाँ ग्रैवेयक*
*जघन्य आयुष्य - 30 सागरोपम*
*उत्कृष्ट आयुष्य - 31 सागरोपम*

*देवलोक - विजय आदि चार अनुत्तर में*
*जघन्य आयुष्य - 31 सागरोपम*
*उत्कृष्ट आयुष्य - 32 सागरोपम*

*देवलोक - सर्वार्थसिद्ध में*8
*जघन्य आयुष्य - ----*
*उत्कृष्ट आयुष्य - 33 सागरोपम*

*🎍विशेषताएँ🎍*

*9 ग्रैवेयक व 5 अनुत्तर विमानवासी कल्पातीत होते हैं अर्थात् वहाँ स्वामी सेवक भाव नहीं होते हैं 



*अभव्य आत्मा साधुपने का स्वीकार करे तो अधिकतम नौवें ग्रैवेयक तक जा सकती है ।*

*सम्यग्दृष्टि साधु महात्मा ही पाँच अनुत्तर में जा सकते हैं । सर्वार्थसिद्ध विमानवासी एकावतारी होते हैं तथा शेष चार अनुत्तरवासी के अधिकतम 24 भव होते हैं, वे भी सिर्फ देव और मनुष्य के ही भव होते हैं ।*



प्रश्न- :  संयम या त्याग-व्रत के बिना भी जीव देव बन सकते है? (भगवती सूत्र )





उत्तर- संयम, त्याग-तप की आराधना करने वाले जीव तो देव बनते

ही है और व्रत-नियम नहीं करने वाले भी कितनेक जीव देव बन

सकते हैं । यथा- जो लोग पुण्यवानी की कमी से लाचारी से भूख

प्यास सहन करते है, लाचारी से ब्रह्मचर्य पालते है; इसी प्रकार ठंडी,

गर्मी, मैल आदि सहन करते ; इस प्रकार कष्टमय जीवन जीने वाले

क्रूर परिणाम नहीं होने से सामान्य परिणामो में मरकर सामान्य देव अर्थात् छोटी उम्र के वाणव्यंतर देव बनते है । वहाँ उन देवो का

जघन्य १०-२० हजार वर्ष का जीवन, उत्कृष्ट एक पल्योपम का जीवन भी अच्छी सुख-सुविधा वाला होता है अर्थात् दैवी सुख उन्हें प्राप्त होते

 है । उन देवों के भी अपने देवलोक रूप विशिष्ट नगर होते है । जो अपनी पृथ्वी के अंदर १०० योजन नीचे जाने के बाद के ८०० योजन में होते है। वहाँ उनका वैभव  मानव से हजारों लाखों गुना श्रेष्ठ होता है।

देव के सुख तो मिलते हैं पर बाद में अगले भव दुर्गति के होते हैं। 64 जाति के यानी दूसरे किलविशी तब के देव तो ज्यादातर मरने के बाद पृथ्वी पानी और वनस्पति में ही आसक्ति के कारण उत्पन्न होते हैं।




*आओ लोक की सैर करें* 

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*🔺🔺उर्ध्वलोक🔺*

*🔸पहला देवलोक🔸*

*(  सौधर्म देवलोक  )*

*घनोदधि के आधार पर*

*इन्द्र का नाम*-- शकेन्द्र है।

*विमान*-----32 लाख है।

*(सब विमान रत्नमय होते हैं)*

*विमान का वर्ण*--सफेद, पीला लाल,नीला,काला।

*विमान का चिन्ह*--मृग है।

*सामानिक देव*--84,000 है।

*आत्मरक्षक देव*--3,36,000 है।   

*प्रथम देवलोक के देवों की आयु*

*जघन्य*---- एक पल्योपम

*उत्कृष्ट*---- दो सागरोपम

●इस देवलोक के  देवों में *पीत (तेजो)लेश्या होती है।*

●इन देवों का शरीर *सात हाथ परिमाण होता है।*

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*🔸दूसरा देवलोक🔸*

*(  ईशान देवलोक  )*

*घनोदधि के आधार पर*

*इन्द्र का नाम*-- ईशानेन्द्र है।

*विमान*------ 28 लाख है।

*(सब विमान रत्नमय होते है)*

*विमान का वर्ण*-सफेद,पीला, लाल,नीला,काला।

*विमान का चिन्ह*--महिष है।

*सामानिक देव*--80,000 है।

*आत्मरक्षक देव* --3,20,000 है।

*दूसरे देवलोक के देवों की आयु*

*जघन्य*------ एक पल्योपम

*उत्कृष्ट*--दो सागरोपम से कुछ अधिक

●इस देवलोक के देवों में *पीत(तेजो)लेश्या होती हैं।*

●इन देवों का शरीर *सात हाथ परिमाण होता हैं।*

🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥

*🔸तीसरा देवलोक🔸*

 *( सनत्कुमार देवलोक )*

*घनवात के आधार पर*

*विमान*------ 12 लाख है।

*विमान का वर्ण*--सफेद, पीला, लाल,नीला।

*विमान का चिन्ह*-- वराह है।

*सामानिक देव*-- 72,000 है।

*आत्मरक्षक देव*-- 2,88,000 है।

*तीसरे देवलोक के देवताओं की आयु*

*जघन्य*--- दो सागरोपम

*उत्कृष्ट*--- सात सागरोपम

●इस देवलोक के देवों में- *पद्म लेश्या होती हैं।*

●इन देवों का शरीर *छह हाथ परिमाण होता है।*

🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥

*🔸 चौथा देवलोक 🔸*

*(  माहेन्द्र देवलोक  )*

*घनवात के आधार पर*

*विमान*-- 8 लाख है।

*विमान का वर्ण*-- सफेद,पीला,लाल,नीला।

*विमान का चिन्ह*-- सिंह है।

*सामानिक देव*-- 70,000 है।

*आत्मरक्षक देव*--2,80,000 है।

*चौथे देवलोक के देवताओं की आयू*

*जघन्य*--दो सागरोपम से कुछ अधिक

*उत्कृष्ट*-- सात सागरोपम से कुछ अधिक

●इन देवों में *पद्म लेश्या होती है।*

●इस देवलोक के देवों का शरीर *छह हाथ परिमाण होता है।*

🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥

*🔸पाँचवां देवलोक🔸*

   *(  ब्रह्म देवलोक  )*

*घनवात के आधार पर*

*विमान*--------- 4 लाख है।

*विमान का वर्ण*-- सफेद, पीला, लाल।

*विमान का चिन्ह*-- बकरा है।

*सामानिक देव*-- 60,000 है।

*आत्मरक्षक देव*-- 2,40,000 है।

*पाँचवे देवलोक के देवताओं की आयु*

*जघन्य*--- सात सागरोपम

*उत्कृष्ट*--- दस सागरोपम

●इस देवलोक के देवों में *पद्म लेश्या होती है*

●इन देवों का शरीर *पाँच हाथ परिमाण होता है।*

🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥

*🔸छठवां देवलोक🔸*

*(  लान्तक देवलोक  )*

*घनोदधि और घनवात के आधार पर*

*विमान*--------50 हजार है।

*विमान का वर्ण*-- सफेद, पीला, लाल।

*विमान का चिन्ह*-- मेंढक है।

*सामानिक देव*-- 50,000 है।

*आत्मरक्षक देव*-- 2,00,000 है।

*छठे देवलोक के देवताओं की आयु*

*जघन्य*--- दस सागरोपम

*उत्कृष्ट*--- 14 सागरोपम

●इस देवलोक के देवों में *शुक्ल लेश्या होती है।*

●इन देवों का शरीर *पाँच हाथ परिमाण होता है।*

🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥

*🔸सातवां देवलोक🔸*

*(  महाशुक्र देवलोक  )*

*घनोदधि और घनवात के आधार पर*

*विमान*-------- 40 हजार विमान है।

*विमान का वर्ण*-- सफेद, पीला।

*वीमान का चिन्ह*-- अश्व है।

*सामानिक देव*-- 40,000 है।

*आत्मरक्षक देव*-- 1,60,000 है।

*सातवें देवलोक के देवताओं की आयु*

*जघन्य*---  14 सागरोपम

*उत्कृष्ट*---   17 सागरोपम

●इस देवलोक के देवों में *शुक्ल लेश्या होती है।*

●इन देवों का शरीर *चार हाथ परिमाण होता है।*

🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥

*🔸आठवां देवलोक🔸*

*(  सहस्रार देवलोक  )*

*घनोदधि और घनवात के आधार पर टिका हुआ*

*विमान*---------- 6000 है।

*विमान का वर्ण*-- सफेद,पीला

*विमान का चिन्ह*-- हाथी है।

*सामानिक देव*---    30,000 है।

*आत्मरक्षक देव*-- 1,20,000 है।

*आठवें देवलोक के देवताओं की आयु*

*जघन्य*--- 17 सागरोपम

*उत्कृष्ट*---  18 सागरोपम

●इस देवलोक के देवताओं में *शुक्ल लेश्या होती है।*

●इन देवताओं का शरीर *चार हाथ परिमाण होता है।*

🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥

*🔸 नवां-दसवां-देवलोक 🔸*

*(  आनत-प्राणत देवलोक  )*

*आकाश के आधार पर टिके हुए*

*इन्द्र का नाम*--  प्राणतेन्द्र है।

*विमान*-- दोनों के कुल 400 है।

*विमान का वर्ण*--  सफेद।

*विमान का चिन्ह*--सर्प है।

*सामानिक देव*-- 20-20 हजार है।

*आत्मरक्षक देव*-- 80-80 हजार है।

*नौवें देवलोक के देवताओं की आयु*

*जघन्य*---  18 सागरोपम

*उत्कृष्ट*---   19 सागरोपम

*दसवें देवलोक के देवताओं की आयु*

*जघन्य*---- 19 सागरोपम

*उत्कृष्ट*----  20 सागरोपम

●इस देवलोक के देवताओं में *शुक्ल लेश्या होती है।*

●इन देवताओं का शरीर *तीन हाथ परिमाण होता है।*

🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥

*🔸11वां-12वां देवलोक🔸*

*(आरण और अच्युत देवलोक)*

*इन्द्र का नाम*--- अच्युतेन्द्र है।

*विमान*-- दोनों के कुल 300 है।

*विमान का वर्ण*-- सफेद।

*विमान का चिन्ह*-- वृषभ है।

*सामानिक देव*--10-10 हजार है।

*आत्मरक्षक देव*-- 40-40 हजार है।

*11वें देवलोक के देवताओं की आयु*

*जघन्य*---- 20 सागरोपम

*उत्कृष्ट*---- 21 सागरोपम

*12वें देवलोक के देवताओं की आयु*

*जघन्य*----- 21 सागरोपम

*उत्कृष्ट*----- 22 सागरोपम

●11वें और 12वें देवलोक के देवताओं में *शुक्ल लेश्या होती है।*

●इन देवताओं का शरीर *तीन हाथ परिमाण होता है।*

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★उपरोक्त 1से 12 देवलोकों के देव

 *"कल्पोपन्न देव" कहलाते हैं।* (क्योंकि इनमें छोटे-बड़े का भेद होता है, स्वामी-सेवक का सम्बन्ध होता है)

*★ इन्द्र*-- जैसे मनुष्य लोक में राजा होते हैं, वैसे देवलोक में इन्द्र होते हैं।

*★सामानिक देव*-- जैसै यहाँ राजाओं के भाई होते हैं, वैसे वहाँ इन्द्र के सामानिक देव होते हैं।

*★आत्मरक्षक देव*--राजाओं के अंगरक्षकों की तरह इन्द्रों के भी अंगरक्षक देव होते हैं।

🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥

*क्रमशः.........*


महत्त्व- देवलोक में उत्पन्न होने में मुख्य ही कारण है पर कहीं मन काम करता है प्रश्न ६


-


कहीं पर दृष्टि काम करती है- प्रश्न १ कहीं पर वेश काम करता है प्रश्न ९


कहीं गुणस्थान काम करता है प्रश्न ४ - कहीं आराधक विराधक पता कारण है


कहीं भ्रष्टता काम करती है प्रश्न १४ कहीं आहार काम करता है प्रश्न ७


प्रश्न २


कहीं मन्त्र-तन्त्र हास्य निंदादि काम करते हैं प्रश्न १३ फ्र असंयतादि भव्य-द्रव्य-देव


श्री भगवती सूत्र के पहले शतक के दूसरे उद्देशक में 'असंयत भव्य-द्रव्य-देव' विषयक वर्णन इस प्रकार है।


प्रश्न १. अहो भगवन् ! असंयत (अभव्य, कृष्ण पक्षी, मिथ्यात्वी) भव्य-द्रव्य देव मर कर देवों में जावे, तो कहाँ उत्पन्न होता है?


उत्तर- हे गौतम! जघन्य भवनपति (नौवें) ग्रैवेयक में उत्पन्न होता है।


में, उत्कृष्ट ऊपर के


प्रश्न २. अहो भगवन् ! अविराधक साधुजी मर कर


कहाँ उत्पन्न होते हैं?


उत्तर- हे गौतम ! जघन्य पहले सर्वार्थसिद्ध में उत्पन्न होते हैं।


देवलोक में, उत्कृष्ट


प्रश्न ३. अहो भगवन् ! विराधक साधुजी मर कर कहाँ उत्पन्न होते हैं?


उत्तर- हे गौतम ! जघन्य भवनपति में, उत्कृष्ट पहले देवलोक में उत्पन्न होते हैं। **7. असंयतादि भव्य-द्रव्य-देव ***********


प्रश्न' असंयतादि भव्य- द्रव्य- देव ' थोक

४. अहो भगवन् ! अविराधक श्रावक मर कर कहाँ उत्पन्न होते हैं? उत्तर- हे गौतम ! जघन्य पहले देवलोक में, उत्कृष्ट बारहवें देवलोक में उत्पन्न होते हैं।


प्रश्न ५. अहो भगवन् ! विराधक श्रावक मर कर कहाँ उत्पन्न होते हैं? उत्तर- हे गौतम ! ज. भवनपति में उत्कृष्ट ज्योतिषी में उत्पन्न होते हैं।


प्रश्न ६. अहो भगवन ! असन्नी (बिना मन वाले अकाम-निर्जरा करने वाले तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव) मर कर कहाँ उत्पन्न होते हैं? उत्तर- हे गौतम ! जघन्य भवनपति, उत्कृष्ट व्यंतर में उत्पन्न होते हैं। प्रश्न ७. अहो भगवन् ! कन्द-मूल भक्षण करने वाले तापस मर कर कहाँ उत्पन्न होते हैं?


उत्तर- हे गौतम ! ज. भवनपति में, उत्कृष्ट ज्योतिषी में उत्पन्न होते हैं। प्रश्न ८. अहो भगवन् ! कान्दर्पिक (हँसी-मजाक करने वाले) साधु मर कर कहाँ उत्पन्न होते हैं?


उत्तर- हे गौतम ! जघन्य भवनपति में, उत्कृष्ट पहले देवलोक


में उत्पन्न होते हैं।


प्रश्न ९. अहो भगवन् ! चरक-परिव्राजक और अम्बड़जी के मत के संन्यासी मर कर कहाँ उत्पन्न होते हैं?


उत्तर- हे गौतम ! जघन्य भवनपति में, उत्कृष्ट पाँचवें देवलोक प्रश्न १०. किल्विषी भावना वाले, आचार्य, उपाध्याय आदि के


में उत्पन्न होते हैं।


अवर्णवाद बोलने वाले साधु मरकर कहाँ उत्पन्न होते हैं? उत्तर- हे गौतम ! जघन्य भवनपति में, उत्कृष्ट छठे देवलोक में उत्पन्न होते हैं।


प्रश्न ११. अहो भगवन् ! सन्नी तिर्यंच भर कर कहाँ :


उत्पन्न होते हैं?


.उत्तर- हे गौतम! जघन्य भवनपति में, उत्कृष्ट आठवे देवलोक में उत्पन्न होते हैं।

१२. अहो भगवन् ! आजीवक (गोशालक) मत के


मानने वाले साधु मर कर कहाँ उत्पन्न होते हैं? उत्तर- हे गौतम ! जघन्य भवनपति में उत्कृष्ट बारहवें देवलोक में उत्पन्न होते हैं।


प्रश्न १३. अहो भगवन् ! आभियोगिक (मंत्र-जंत्रादि करने


वाले) साधु मरकर कहाँ उत्पन्न होते हैं?


उत्तर- हे गौतम ! जघन्य भवनपति में उत्कृष्ट बारहवें देवलोक


में उत्पन्न होते हैं।


प्रश्न १४. अहो भगवन् ! सलिंगी दर्शन-व्यापन्न (साधु के लिंग को धारण करने वाले समकित से भ्रष्ट, निहव आदि) मर कर कहाँ उत्पन्न होते हैं?


उत्तर- हे गौतम ! जघन्य भवनपति में, उत्कृष्ट ऊपर के (नौवें) ग्रैवेयक में उत्पन्न होते हैं।



🙏आज के प्रश्न🙏

^^^^^^^^^^^^^^^^^^^

1. ' असंयतादि भव्य- द्रव्य- देव' का थोकडा कौन से सूत्र से लिया गया हैं?

A. जिवाभिगम सूत्र से।

B. भगवती सूत्र से।


2. अविराधक साधु मरकर कहाँ उत्पन्न होते है?

A. जघन्य पहले देवलोक में और उत्कृष्ट सर्वार्थसिद्ध में।

B. जघन्य भवनपति में और उत्कृष्ट पहले देवलोक में।


3. सन्नी तिर्यंच मरकर कहां उत्पन्न होते है?

A. जघन्य भवनपति और उत्कृष्ट पांचवें देवलोक तक।

B. जघन्य भवनपति में और उत्कृष्ट आठवें देवलोक में।


4. असन्नी कहा तक जा सकता हैं?

A. छठे देवलोक तक।

B. वाण- व्यंतर तक।


5. विराधक श्रावक मरकर कहां उत्पन्न होते हैं?

A. जघन्य भवनपति और उत्कृष्ट ज्योतिषी में।

B. जघन्य भवनपति में और उत्कृष्ट आठवें देवलोक तक।


*वैमानिक देव सम्बंधित प्रश्न-उत्तर*


८. क्या हम इस शरीर से देवलोक में जा सकते हैं या नहीं ?

उत्तर- इस शरीर से तो नहीं किन्तु शुभ करणी से पुण्योपार्जन कर देवलोक में उत्पन्न हो सकते हैं।

९. वैमानिक देव किस लोक में रहते हैं ?

उत्तर- ऊर्ध्वलोक में शनिश्वर के विमान से डेढ़ राजू ( असंख्याता योजन ) ऊपर पहला और दूसरा देवलोक आसपास दोनों मिलकर पूर्ण चन्द्रमा जैसे गोल है।

१०. तीसरा और चौथा देवलोक कहाँ है?

उत्तर- पहले और दूसरे देवलोक से असंख्याता योजन ऊपर आस - पास गोल चन्द्रमा के आकार में है।

११. पांचवां छट्ठा , सातवां , आठवां देवलोक कहां है?

उत्तर- तीसरे चौथे से असंख्याता योजन ऊपर एक पर एक घड़े के बेवड़े जैसा पांचवां , छट्ठा , सातवां और आठवां देवलोक है।

१२. नौवां, दसवां, ग्यारहवां व बारहवां देवलोक कहां हैं?

उत्तर- आठवें के ऊपर नौवां , दसवां आस - पास और ग्यारहवां , बारहवां आस - पास है।

१३. प्रत्येक देवलोक कितने बड़े हैं?

उत्तर- असंख्याता योजन के लम्बे चौड़े हैं । 


१४. यहां से कोई देव सीधा ऊंचा चढ़े तो बीच में कितने और कौन - कौन से देवलोक आवेंगे?

उत्तर- पहला , तीसरा , पांचवां , छट्ठा , सातवां , आठवां , नवमां और ग्यारवां । इस तरह से आठ देवलोक आवेंगे।

१५. इस तिर्छा लोक के उत्तर तरफ के आधा भाग में से कोई देवता पर चढ़े तो कौन - कौन से देवलोक आवेंगे?

उत्तर- दूसरा , चौथा , पांचवां , छट्ठा , सातवां , आठवां , दसवां और बारहवां।

क्रमशः


*वैमानिक देव सम्बंधित प्रश्न-उत्तर*


१६. त्रैपल्योपमिक किल्विषी देव कहां रहते हैं ?

उत्तर- देवों के विमान पहला दूसरा देवलोक के नीचे के भाग में।❇️

१७. त्रैसागरिक किल्विषी देव कहां रहते हैं ?

उत्तर- तीसरे , चौथे देवलोक के पास नीचे के भाग में।❇️

१८. त्रयोदश सागरिक किल्विषी देव कहां रहते हैं ?

उत्तर- छठे देवलोक के पास नीचे के भाग में।❇️

१९. किल्विषी देवताओं में प्रायः कैसे जीव उत्पन्न होते हैं ? 

उत्तर- जिनेश्वर की वाणी के उत्पादक उत्सूत्र ( यानी सूत्र विरुद्ध जैसे भगवान की वाणी मःहणो ! मःहणो ! यानी मत मारो, सब जीवों की दया पालो ऐसी है परन्तु विरुद्ध प्ररुपणा करने वाले कहते हैं कि हिंसा बिना धर्म होता ही नहीं ) ऐसे जिन आज्ञा के विरोधक जीव किल्विषी में जाते हैं।

२०. किल्विषी जीवों का मान सन्मान कैसा होता है ?

उत्तर- जैसे यहां ढेढ भंगी का मान सन्मान है वैसा ही वहां उनका भी है  नजदीक देवताओं की सभा में बिना बुलाये जाते हैं , बैठते हैं , उनकी भाषा किसी को अच्छी लगती नहीं , कभी बीच में बोल जावे तो "मभाष देवा" ऐसा कहकर रोक देते हैं।

*वैमानिक देव सम्बंधित प्रश्न-उत्तर*


२१. नव लोकांतिक देव कहां रहते हैं ?

उत्तर- पांचवें ब्रह्मदेव लोक में। 

२२. नव लोकांतिक देव का मान सन्मान कैसा होता है ?

उत्तर- उनका मान सन्मान बहुत अच्छा है , लोकान्तिक देव प्रायः समकित सत्य को , अंगीकार करने वाले होते हैं। *होने वाले तीर्थंकर देव को जब दीक्षा लेने का समय आता है , तब यह देव उनसे अरज करते हैं कि हे भगवान! आप दीक्षा धारण करो और जगजीवों के कल्याण के लिये धर्म की स्थापना करो।*

२३. नव ग्रैवेयक कहां है ? 

उ . ग्यारहवां व बारहवां देवलोक से असंख्यात योजन ऊपर नवग्रेवेयक की तीन त्रिक है।

२४. पांच अनुत्तर विमान कहां हैं ?

उत्तर- नव ग्रैवेयक से असंख्याता योजन ऊपर। 

२५. विमानों को अनुत्तर क्यों कहते हैं ?

उत्तर- अनुत्तर का अर्थ प्रधानअथवा श्रेष्ठ। इन विमानों में रहने वाले सब समकिती है , प्रथम चार विमानों के देव निश्चित मोक्ष जाते हैं और सर्वार्थ सिद्ध के देव *एकाभवतारी* ✳️ होते हैं। उनको सबसे अधिक सुख है।  

२६. नव ग्रैवेयक व पांच अनुत्तर विमान में देवी होती है या नहीं ?

उत्तर- नहीं , उन देवों को विषय भोग की मलीन इच्छा होती ही नहीं है।

२७. कौन से देवलोक तक देवी उत्पन्न होती है ? 

दूसरे देवलोक तक।


✳️ यह भव और अगला मनुष्य भव के *बीच में देवता का एक भव* होना/करना = एकाभवतारी।


*देव सम्बंधित पोस्ट पूर्ण।


❇️ *लोक का फोटो पोस्ट पूर्ण के पश्चात अंत मे भेजा जाएगा।



प्रश्नोत्तरी SENSETHSSETTES 473) कल्पोपन्न देवों के कितने भेद होते हैं ? उ. प्रमुख तीन भेद होते हैं- 1) बारह देवलोक 2) नवलोकान्तिक 3) तीन किल्बिषिक। 474) कल्पातीत देवों के कितने भेद होते हैं ? उ. प्रमुख रूप से दो भेद होते हैं-१) नवग्रैवेयक 2) पांच अनुत्तर। 475) बारह देवलोकों के नाम बताओ? उ. बारह देवलोक- 1) सौधर्म 2) ईशान 3) सनत्कुमारं 4) माहेन्द्र 5) ब्रह्मलोक 6) लांतक 7) महाशुक्र 8) सहस्रार 9) आनत 10) प्राणत 11) आरण 12) अच्युत। 476) वैमानिक देवताओं के कितने विमान हैं ?. उ. पहले स्वर्ग में बत्तीस लाख, दूसरे स्वर्ग में अट्ठाईस लाख, तीसरे स्वर्ग में बारह लाख, चौथे स्वर्ग में आठ लाख, पांचवें स्वर्ग में चार लाख, छठे स्वर्ग में पचास हजार, सातवें स्वर्ग में चालीस हजार, आठवे स्वर्ग में छह हजार, नवमें से बारहवें में सात सौ, प्रथम तीन ग्रैवेयकों में एक सौ ग्यारह, अगले तीन ग्रैवेयकों में एक सौ सात, अंतिम तीन ग्रैवेयकों में सौ और पांच अनुत्तरों में पांच विमान हैं। इस प्रकार देवों का परिग्रह उत्तरोत्तर कम होता जाता है। 477) बारह देवलोक किस प्रकार स्थित हैं ? उ. ज्योतिष्चक्र से असंख्यात योजन उपर सौधर्म और ईशान कल्प है, उनके बहुत उपर समश्रेणी में सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प है। उनके उपर किन्तु मध्य में बह्मलोक है। उसके उपर समश्रेणी में लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार ये तीनों कल्प एक दूसरे के उपर क्रमशः स्थित है। इनके उपर सौधर्म-ईशान की भाँति आणत और प्राणत कल्प स्थित है। उनके उपर समश्रेणी में आणत के उपर आरण और प्राणत के उपर अच्युत कल्प स्थित हैं। 478) सौधर्म आदि स्वर्गों के विमानों का वर्ण कैसा हैं? उ.१) सौधर्म और ईशान के विमान काले, नीले, लाल, पीले और सफेद 2) सनत्कुमार और माहेन्द्र के विमान काले, लाल, पीले, सफेद 3) ब्रह्मलोक और लांतक के विमान लाल, पीले, सफेद

एक पल्योपम से एक समय अधिक से दस पल्योपम तक की आयु वाली देवियां तीसरे देवलोक के देवों के भोग में आती हैं। दस पल्योपम से एक समय अधिक से बीस पल्योपम तक आयु वाली देवियां पांचवें देवलोक के देवों के भोग में आती हैं। बीस पल्योपम। से एक समय अधिक से ३० पल्योपम तक की आयु वाली देवियां सातवें देवलोक के देवों के भोग में आती हैं। तीस पल्योपम से एक समय अधिक से चालीस पल्योपम तक की आयु वाली देवियां नौवें देवलोक के देवों के भोग में आती हैं। चालीस पल्योपम से एक समय अधिक से पचास पल्योपम तक की आयु वाली देवियां ग्यारहवें देवलोक के देवों के भोगमें आती हैं।

एक पल्योपम अधिक से एक समय और पन्द्रह पल्योपम तक की आयु वाली देवियां चौथे देवलोक के देवों के भोग में आती हैं। पन्द्रह पल्योपम से समयाधिक और पच्चीस पल्योपम तक की आयु वाली देवियां छठे देवलोक के देवों के भोग में आती हैं। पच्चीस पल्योपम से समयाधिक और ३५ पल्योपम तक की आयु वाली देवियां आठवें देवलोक के देवों के भोग में आती हैं। ३५ पल्योपम से समयाधिक और ४५ पल्योपम तक की आयु वाली देवियां दसवें देवलोक के देवों के भोग में आती हैं और ४५ पल्योपम से समयाधिक तथा ५५ पल्योपम तक की आयु वाली देवियां बारहवें देवलोक के देवों के भोग में आती हैं

के देव. देवी के अंगोपांगों को देखने से ही तृप्त हो जाते हैं। यहां तक के देव पहले और दूसरे देवलोक की अपरिगृहीता देवियों को अपने स्थान पर ले जा सकते हैं। नौवें, दसवें, ग्यारहवें और बारहवें देवलोक के देव अपने स्थान पर जब भोग की इच्छा करते हैं, तो प्रथम या दूसरे देवलोक में रही हुई, उनके भोग में आने योग्य देवियों का मन उनकी ओर आकर्षित हो जाता है। वे देव उनके विकारयुक्त मन का अवधिज्ञान से अवलोकन करते ही तृप्त हो जाते हैं।बारहवें देवलोक के ऊपर वाले देवों को भोग की इच्छा ही नहीं होती।






तीसरे चौथे देवलोक में देवी के स्पर्श मात्र से तृप्ति हो जाती है।


पाँचवे-छठे देवलोक में देवी के रूपदर्शन मात्र से तृप्ति हो जाती है।


सातवें-आठवें देवलोक में देवी के शब्द श्रवण मात्र से तृप्ति हो जाती हैं।


नवें से बारहवें देवलोक में देवी के चिंतन मात्र से तृप्ति हो जाती है।





तीसरा देवलोक

उक्त दोनों देवलोकों की सीमा के ऊपर, १६ ॥ रज्जु घनाकार विस्तार में, घनवात (जमी) हुई हवा) के आधार पर, दक्षिण दिशा में तीसरा सनत्कुमार नामक देवलोक है ।तीसरे देवलोक के देवों की जघन्य दो सागरोपम और उत्कृष्ट सात सागरोपम की आयु है।


चौथा देवलोक

और उत्तर दिशा में चौथा माहेन्द्र नामक देवलोक है। दोनों में बारह बारह प्रतर हैं। इन प्रतरों में छह-छह सौ योजन ऊंचे और छब्बीस-छब्बीस सौ योजन की नींव वाले विमान हैं। तीसरे देवलोक में १२००००० और चौथे देवलोक में ८००००० विमान हैं।  चौथे देवलोक के देवों की जघन्य दो सागरोपम से कुछ अधिक और उत्कृष्ट सात सागरोपम से कुछ अधिक आयु है।

पांचवा देव लोक

इन दोनों देवलोकों की सीमा से आधा रज्जु ऊपर १८३/४ रज्जु घनाकार विस्तार में, मेरुपर्वत पर बराबर मध्य में घनवात के आधार पर पांचवां ब्रह्म नामक देवलोक है। इसमें छह प्रतर हैं, जिसमें सात सौ योजन ऊंचे और २५०० योजन अंगनाई (नींव) वाले ४००००० विमान हैं। वहाँ के देवों की आयु जघन्य सात सागरोपम और उत्कृष्ट दस सागरोपम को









आओ लोक की सैर करें🌸*

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      🔺🔺 *उर्ध्वलोक* 🔺🔺

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*☝️लोक की सैर करते हुए हम लोक को तीन विभागों से जानने का प्रयास कर रहे हैं।*


       *1️⃣ प्रथम विभाग*


✅हमने सर्वप्रथम जाना *अधोलोक को* जो समतल भूमि से नीचे की ओर 7 रज्जू से कुछ ज्यादा लम्बाई में है।


       *2️⃣ दूसरा विभाग*


✅उसके पश्चात हमने समझा *मध्यलोक को* जिसे तिर्छालोक भी कहते हैं जिसकी लम्बाई अर्थात् मोटाई 1800 योजन है।


☝️900योजन समतल भूमि से ऊपर तक तिर्छालोक है जहाँ ज्योतिषी देव विद्यमान है।100 योजन पृथ्वी की मोटाई है और उसके नीचे 800योजन में वाणव्यंतर देवों का निवास है।


*3️⃣ तीसरा विभाग है...*


    ✅ *उर्ध्वलोक* ✅

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सीधी भाषा में इसे *ऊँचा लोक* भी कहा जाता है।


☝️ समतल भूमि के ऊपर 900 योजन से प्रारम्भ होकर लोक के अग्र भाग तक *ऊर्ध्वलोक* है।इसकी लम्बाई 7रज्जू प्रमाण है।


*उर्ध्वलोक में क्या क्या है?*

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🙏12 देवलोक है।


🙏 3 किल्विषक है।


🙏 9 लौकांतिक है।


🙏 5 अनुत्तर विमान है।


🙏 सिद्धशिला और सिद्धक्षेत्र है।


*☝️समतल भूमि से 900 योजन ऊपर तक मेरुपर्वत का हिस्सा है।*


 *🙏उर्ध्वलोक में मूख्यतया वैमानिक देव रहते हैं।* विमान में रहने के कारण इन देवों को वैमानिक देव कहते हैं।


   *7 रज्जू के उर्ध्वलोक को*

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*☝️समतल भूमि से क्रमशःइस प्रकार समझ सकते हैं–*


*🙏डेढ़ रज्जू ऊपर*---पहला-दूसरा देवलोक है।


*🙏अढा़ई रज्जू ऊपर*---तीसरा-चौथा देवलोक है।


*🙏सवा तीन रज्जू ऊपर*---पाँचवाँ देवलोक है।


*🙏साढ़े तीन रज्जू ऊपर*---छठवाँ देवलोक है।


*🙏पौने चार रज्जू ऊपर*---सातवाँ देवलोक है।


*🙏चार रज्जू ऊपर*---आठवाँ देवलोक है।


*🙏साढेचार रज्जू ऊपर*---नवमाँ-दसवाँ देवलोक है।


*🙏पाँच रज्जू ऊपर*/--ग्यारहवाँ-बारहवाँ देवलोक विद्यमान है।


*☝️अर्थात् समतल भूमि से पाँच रज्जू ऊपर तक प्रथम देवलोक से बारहवां देवलोक विद्यमान है।*


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*🙏पाँच रज्जू से छह रज्जू के मध्य में*--- 9 ग्रैवेयक देव विद्यमान है।


 *🙏छह रज्जू से 7 रज्जू से कुछ कम ऊँचाई में*--- 5 अनुत्तर विमान विद्यमान है।


 *🙏उसके आगे सिद्धशिला है जो बारहवें सर्वाथसिद्ध विमान से 12 योजन ऊपर है।*


(सिद्धशिला 45 लाख योजन लम्बी-चौड़ी है)


*🙏सिद्धशिला के ऊपर एक योजन तक लोक है।आगे अलोक है।*


🙏 *लोक के इस अन्तिम एक योजन क्षेत्र में ऊपर वाले एक कोस के छठवें भाग में "लोकान्त का स्पर्श करते हुए सिद्ध भगवान विराजमान रहते हैं। यही सिद्धक्षेत्र कहलाता है*


(4 कोस के बराबर 1 योजन होता है)


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*प्रस्तुति–* सुरेश चन्द्र बोरदिया भीलवाड़ा


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जो अपने शरीर से दीप्तिमान हैं *देव्यंति स्वरूप इति देवा*  और देव नामकरण के उदय से उत्पन्न होते हैं उन्हें देव कहते हैं।
जो देवगति में पाये जाने वाले परिणाम से सदा सुखी हों,

जो नित्य अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशत्व (वशित्व), सकाम रूपित्व इन आठ गुणों से सहित क्रीड़ा करते हैं। जिनका शरीर सुंदर, प्रकाशमान वैक्रियक होता है, वे देव कहलाते हैं।


अणिमा आदि आठ गुणों का स्वरूप -

  1. अणिमा - अपने शरीर को अणु बराबर छोटा करने की शक्ति अर्थात् इतना छोटा शरीर बनाना कि सुई के छेद में से निकल जावे।
  2. महिमा - अपने शरीर को मेरु प्रमाण बड़ा करने की शक्ति अर्थात् अपने शरीर को मेरु अथवा हिमालय बराबर बड़ा बना लेना।
  3. लघिमा - रुई के समान शरीर को हल्का बना लेने की क्षमता अर्थात् मकड़ी के तंतु पर पैर रखने पर भी वह न टूटे।
  4. गरिमा - बहुत भारी अर्थात् करोड़ो व्यक्ति मिलकर भी जिसे न उठा पाए, इतना भारी, वजनदार शरीर बनाने की शक्ति।
  5. प्राप्ति - एक स्थान पर बैठे-बैठे ही दूर स्थित पदार्थों का स्पर्श कर लेना, उठा लेने की क्षमता। जैसे यहाँ बैठे-बैठे ही हिमालय के शिखर को छू लेना इत्यादि।
  6. प्राकाम्य - जल में भूमि की तरह गमन करना और भूमि में जल की तरह डुबकी लगा लेना।
  7. ईशित्व - जब जीवों तथा ग्राम, नगर एवं खेड़े आदि पर प्रभुत्व की क्षमता।
  8. सकामरूपित्व - बिन बाधा के पहाड़ आदि के बीच में से गमन करना, अदृश्य हो जाना, गाय, सिंह आदि अनेक प्रकार के रूप बनाने की क्षमता



(2) जो अणिमादि गुणों से सदा अप्रतिहत (बिना रोक-टोक) विहार करते हौं,

( 3) जिनका रूप-लावण्य-यौवन सदा प्रकाशमान हो, वे देव हैं । उन देवों की गति को देवगति कहते हैं

देवगति नाम कर्म के उदय से प्राप्त अवस्था को देव गति कहते हैं। जो निरूपम क्रीड़ा का अनुभव करते हैं, वे देव हैं।

देवों की पहचान के चार लक्षण बताये गये


१. अम्लान पुष्पमाला। २. अनिमेष नेत्र ।


हैं


३. मनसाकारी-मन के अनुसार प्रत्येक कार्य का संपादित होना ४. पृथ्वी से चार अंगुल ऊपर रहना।


देवत्व प्राप्ति के मुख्य चार हेतु हैं


१. सराग संयम राग सहित व्यक्ति का संयम


२. संयमासंयम


श्रावकत्व का पालन


३. बाल तपस्या मिथ्यात्वी की तपस्या


४. अकाम निर्जरा मोक्ष की इच्छा बिना की तपस्या


.  *🙏 ।।श्री महावीराय नम:।। 🙏*

*🔸🔸श्री उत्तराध्ययन सूत्र🔸🔸*


.                     1️⃣3️⃣4️⃣


   *🔹🔹तेतीसवां अध्ययन🔹🔹*

 

                 *कर्म प्रकृति*


   *【कर्म सिद्धांत – कर्म विज्ञान】*

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.                 *【5️⃣8️⃣】*


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*आठ कर्मों की उत्तर प्रकृत्तियाँ*


*बंध के कारण*


                 *और फलभोग*

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*पाँचवा कर्म– आयुष्य कर्म*

            ( भाग – 8 )


 *आयुष्य कर्म की उत्तरप्रकृतियाँ*

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.           *( 4 )🤴 देव आयुष्य🤴*

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🙏आत्मा को निश्चित समय तक देवगति में रखने वाले आयुष्य कर्मों के पुद्गलों का बंध *देवायुष्य कर्म* है। देवों के 198 प्रकार कहे गये हैं। इनमें से किसी भी प्रकार से देवभव में उत्पन्न होना देवायुष्य का कार्य है।


*🙏यह शुभ आयुष्य कर्म है।*


*देवायुष्य बन्ध के कारण–*

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*( 1 ) सराग संयम पालन–*


        ☝️जब चारित्र ग्रहण कर लेने पर भी राग और कषाय का अंश शेष रह जाता है तो वह शुद्ध संयम नहीं कहलाता उसे *सराग संयम* कहते हैं। 


       पाँच समिति तीन गुप्ति का पालन करनेवाला वीतरागी साधु आयुष्य कर्म का बंध नहीं करता है। *राग सहित संयम पालने वाला साधु देवायुष्य का बंध करता है।*


*( 2 ) संयमासंयम–*

 संयमासंयम का अर्थ है कुछ संयम और कुछ असंयम। *इसे देशविरति चारित्र कहते हैं।*


☝️श्रावक के व्रत में स्थूल रूप में हिंसा, झूठ, चोरी आदि का प्रत्याख्यान होता है किन्तु सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों की आरम्भजा हिंसा का सर्वथा त्याग नहीं होता। *ऐसे संयमासंयम का पालन करने वाला गृहस्थ भी देवायुष्य का बंध करता है।*


*( 3 ) अकाम निर्जरा–* 


● अनिच्छा से या दबाव से,


● भय से या पराधीनता से,


● लोभवश या मजबूरी से अथवा


● बिना प्रत्याख्यान के भूख आदि के कष्ट को सहन करना *अकाम निर्जरा* है।


☝️मिथ्यात्वी जीवों की, अज्ञानी जीवों की निर्जरा *अकाम निर्जरा* कहलाती है। *अकाम निर्जरा करनेवाला जीव भी देवायुष्य का बंध करता है।*


*( 4 ) बाल तप–*


इसका अर्थ है–अज्ञान युक्त तप या सम्यक्त्व से रहित तप। जिस तप में आत्मशुद्धि का लक्ष्य न होकर अन्य कोई भौतिक या लौकिक लक्ष्य हो उसे *बाल तप* कहा जाता है।


*जैसे –* ● बर्फ पर सोना,


● उल्टा लटककर पंचाग्नि तप करना,


● समाधि लेना आदि तप महीनों तक ये किये जाते हैं।


*☝️इस तप में शुभ योग होता है परन्तु उस जीव को सम्यक् दर्शन नहीं होता इसलिए वह जीव देवायुष्य का बंध करता है।*


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🙏 हमने अब तक जाना कि जीव अपने आगामी भव का आयुष्य बंध किस प्रकार और किस समय करता है परन्तु किसी जीव को अल्पायु प्राप्त होती है और किसी जीव को दीर्घायु प्राप्त होती है ? *आगामी पोस्ट में हम अल्पायुष्य बंध और दीर्घायुष्य बंध के कारणों को जानेंगे...*


*प्रस्तुति –* सुरेश चन्द्र बोरदिया भीलवाड़ा





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संहनन वाला कौन से देवलोक में उत्पन्न होता है ?

संहनन

उत्तर


: देवलोक


१ से ४ देवलोक तक सभी छ


५, ६ देवलोक पांच सेवार्त छोड़कर


७, ८ देवलोक।   चार कीलिका व सेवार्त को छोड़कर

९ से १२ देवलोक तीन अर्धनाराच, कीलिका व सेवार्त को छोड़कर

ग्रैवेयक दो वज्रऋषभनाराच, ऋषभनाराच

५ अनुत्तर एक वज्रऋषभनाराच







🍁 देव गति के दुख 🍁🍁


🍁देवों में भी छोटे बड़े पन को भेद-जनक दुःख है, नीची जाति के देव उच्च कोटि के जीवों को देखकर मन में घूरते हैं। बड़े देव विषय भोगों में लीन रहकर अपने भविष्य का जीवन बिगाड़ते हैं, मरने से ६ मास पहले जब उनके गले की माला मुर्झा जाती है तब उनकी देव पर्याय छूटने का जो महान् दुःख होता है उसको वह भुक्त-भोगी जीव जानता है, दूसरा कोई क्या जाने।

*दिव्वावि कामभोगा अधुवा*

                *(दशाश्रुतस्कंध)*


*देवलोक में रहे देवताओं के कामभोग भी शाश्वत् नहीं है ।*


यद्यपि मनुष्य की अपेक्षा देवताओं का आयुष्य खूब लंबा होता हैं, फिर भी उस आयुष्य का भी एकदिन तो अंत आ ही जाता है ।


देवताओं का जघन्य आयुष्य 10,000 वर्ष होता है और उत्कृष्ट आयुष्य 33 सागरोपम का होता है, परंतु उस आयुष्य को भी समाप्त होते कहां देर लगती है । इतने लंबे समय तक सुख भोगनेवाले देवताओं को भी तिर्यंच आदि गति में जाना पड़ता है ।


शास्त्र में लिखा है कि एक दिन में जितने देवताओं का आयुष्य पूरा होता है, उतनी संख्या में भी मनुष्य नहीं है ।


*देवलोक में रहे असंख्य देवता मरकर पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय रुप एकेन्द्रिय में चले जाते हैं ।*


मनुष्य के कामभोग के साधन औदारिक वर्गणा के पुद्गलों से बने होते हैं, जबकि देवताओं के कामभोग के बाह्य पदार्थ वैक्रिय वर्गणा के पुद्गलों से बने होते हैं ।


मनुष्य के भौतिक सुख सामग्री अल्पकाल में ही बिगड जानेवाली होती है, जबकि देवताओं की सुख सामग्री वैक्रिय वर्गणा के पुद्गलों से बनी होने के कारण दीर्घकाल तक टिक सकती है, परंतु वह भी सामग्री शाश्वत नहीं है, अतः देवताओं के वे सुख भी अनित्य और नाशवंत ही है ।


*देवताओं के दिव्य सुख भी नाशवंत हो तो मनुष्य के तुच्छ सुखों की तो क्या गिनती है ?*


आज जिस पुरुष या स्त्री का सुंदर रुप हो, परंतु वह रुप तो कभी भी नष्ट हो सकता है ।


खाने-पीने की सामग्री कितनी ही स्वादिष्ट क्यों न हो उसे बिगड़ते कितनी देर लगती है ? अतः बाह्य सुख सामग्री में राग न करे ।

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३.द्धेष को....??

३.मेत्री से


४.ग्रह नक्षत्र में सर्वश्रेष्ट कौन...??

४.चन्द्रमा


५.आभूषणों में सर्वश्रेष्ट कौन...??

५.मुकुट


६.हाथी में सर्वश्रेष्ट कौन...??

६.ऐरावत जो इन्द्र का वाहन है।


७.देवलोक में सर्वश्रेष्ट कौनसा...?

७.ब्रह्मलोक

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१९.माहण किसे कहते है...??

१९.किसी की भी हिंसा ना करे ।


२०अणगार मतलब...??

२०.घर के बिना


१६.निग्रंथ किसे कहते है...??

उ.जिसमें राग द्धेष की गांठ ना हो


Q4.उर्ध्वलोक में क्या क्या है...??

४.12 देवलोक, 3 किल्बिषिक, 9लोकांतिंक, 9ग्रैवेयक, 5अनुत्तर व सिद्धशीला...।


५.नौकर जैसे देव को क्या बोलते है...??

उ५.अभियोगिक देव


६.प्रजा जैसे देव को क्या बोलते है....??

६.प्रकीर्णक देव


७.अंगरक्षक देव को क्या बोलते है...??

उ७.आत्मरक्षक देव


८.चंडाल जैसे देव को क्या बोलते है...??

उ८.किल्बिषिक देव


९.गुरू स्थानिक देव को क्या बोलते...??

उ९.त्रायस्त्रिंशत्


१०.इन्द्रसभा के सभासद देवों को क्या बोलते है...??

उ१०. परिषदय


*🙇‍♀कौन से जीव  नरक और तिर्यंच इन दो गति में कभी भी जन्म नहीं लेंगे ❓*


*💁 चार अनुत्तर विमान के देव कभी भी नरक और तिर्यंच इन दो गति में जन्म नही लेंगे! एक बार चार अनुत्तर विमान में देव रूप में उत्पन्न होने के बाद भविष्य में मनुष्य और देवगति(वो भी सिर्फ वैमानिक देव) में ही जन्म लेते है!*


*


आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति तो यथावत् है, भाषा और मनःपर्याप्ति का कार्य युगपत् हो जाता है, इसलिए पर्याप्ति पांच मानी गई हैं।



देव गति के भेदों के भेद198 भेद- 10 भवनपति, 15 परमाधामी, 16 वाणव्यन्तर, 10 त्रिजृंभक, 10 ज्योतिषी, 12 देवलोक, 3 किल्विषी, 9 लौकान्तिक, 9 ग्रैवेयक और 5 अनुत्तर विमान । इन 99 प्रकार के देवों के अपर्याप्त व पर्याप्त की अपेक्षा से 198 भेद होते हैं।


देवगति नामकर्म के उदय की सामर्थ्य से जो संग्रह किये जाते हैं, वे 'निकाय' (भेद)कहलाते हैं।
देव चार प्रकार के हैं- (1) भवनवासी (2)व्यन्तर ( 3) ज्योतिष्क (4) वैमानिक

भवनवासी - भवन में रहना जिनका स्वभाव है, वे भवनवासी देव है । व्यंतर - जिनका नाना देशों में निवास है, वे व्यन्तर हैं ।ये दो का वर्णन हमनें नरक गति के साथही कर लिया था चूँकि इनके निवास स्थान भी अधो लोक में है इसलिए अब हम वैमानिकी देव लोक को जाने

आइये पहले जानते है कि यह रहते कहाँ है ।
ये जंहा रहते है उसे कहते है *ऊर्ध्वलोक*

*ऊर्ध्वलोक का वर्णन औऱ वैमानिक देव*

 मध्य-लोक के ऊपर लोक के अंत तक उर्ध्व-लोक है !
- मध्य-लोक में शोभायमान "सुमेरु-पर्वत" की चूलिका (चोटी) से "एक बाल" के अंतर/फासले से शुरू होकर लोक के अंत तक के भाग को "उर्ध्व-लोक" कहा है !

उर्ध्व-लोक का आकार ढोलक जैसा है !
इसकी :-
ऊंचाई - 1,00,040 योजन कम 7 राजू है !
मोटाई - 7 राजू
और
चौड़ाई - नीचे 1 राजू, बीच में 5 और ऊपर 1 राजू है !


शनैश्चर के विमान की ध्वजा से १॥ रज्जु ऊपर १९॥ रज्जु घनाकार विस्तार में घनोदधि

(जमे हुए पानी) के आधार पर, लगडाकार, जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत से दक्षिण दिशा में 

यहां से बहुत ऊंची इनकी पृथ्वियां हैं, उनमें बड़े-बड़े विमान हैं। इनमें विशाल महल बने हुए हैं, उनमें ये देव उत्पन्न होते हैं।

🌷🌷*आओ लोक की सैर करें🌷🌷

                

        🌷🌟*देवलोक सम्बंधित कुछ प्रश्न और उत्तर–*

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🙏🌺*1. देवताओं का देवलोक में जन्म कैसे होता है?*


*उत्तर:--* देवलोक में देवताओं का जन्म उपपाद--शय्याओं में होता है। उन शय्याओं पर देव दूष्य ढका रहता है।जब कोई जीव वहाँ उत्पन्न होता है तो वह शय्या उसी प्रकार फूल जाति है जैसे अंगारों पर बनी हुई रोटी फूल जाति है। तब पास में रहे हुए देव उस वीमान में घंटानाद करते हैं।घंटानाद सुनकर देव-देवियाँ एकत्रित हो जाते हैं और जय-जयकार की ध्वनि से वह विमान गूँज उठता है।


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*🙏🌺2. देवताओं का पालन पोषण कैसे होता है?*


*उत्तर :--* देवलोक में जन्म लेने वाला जीव (देव)अन्तर्मुहूर्त में ही अपनी पर्याप्तियों को पूर्ण करके 32 वर्ष के युवा के समान देव दुष्य वस्त्रों से अलंकृत होकर उठ बैठता है। अतः पालन-पोषण की आवश्यकता नहीं होती है।


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🙏🌺*3.  देवों के सन्तान होती है या नहीं? ?*


*उत्तर :--* नहीं। देवताओं के संतान नहीं होती। वे तो स्वयं ही देव शय्या में उत्पन्न हो जाते हैं। जब तक आयुष्य पूर्ण नहीं करते तब तक उस शय्या में दूसरा देव उत्पन्न नहीं होता है।


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🙏🌺*4. क्या देवता विषय सेवन करते हैं? करते हैं तो किस तरह?*


*उत्तर :--* हाँ। देव विषय सेवन करते हैं। 


☝️भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी और पहले, दूसरे देवलोक के देव मनुष्यों की तरह काया से कामभोग भोगते हैं।


 ☝️तीसरे चौथे देवलोक में देवी के स्पर्श मात्र से तृप्ति हो जाती है।


☝️पाँचवे-छठे देवलोक में देवी के रूपदर्शन मात्र से तृप्ति हो जाती है।


☝️सातवें-आठवें देवलोक में देवी के शब्द श्रवण मात्र से तृप्ति हो जाती हैं।


☝️नवें से बारहवें देवलोक में देवी के चिंतन मात्र से तृप्ति हो जाती है।


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🙏🌺*5. क्या सभी देवलोकों में देवियाँ उत्पन्न होती हैं?*


*उत्तर :--* नहीं ,  सभी देवलोकों में देवियाँ उत्पन्न नहीं होती।


☝️भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी, पहले, और दूसरे देवलोक में ही देवियाँ उत्पन्न होती हैं।


 ☝️आगे के देवलोकों में देवियाँ उत्पन्न नहीं होती ,किन्तु देवियों के स्मरण मात्र से पहले, दूसरे देवलोक की देवियाँ ही वहाँ पहूंच जाती हैं।


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 🙏🌺*6. सभी देवों के कुल कितने इन्द्र होते हैं ?*


*उत्तर :--* सभी देवों के कुल 64 इन्द्र निम्नानुसार होते है–


10 भवनपति के-- *20 इन्द्र*


16 वाणव्यंतर के-- *32 इन्द्र*


ज्योतिषी के      --  *2 इन्द्र*


12 देवलोक के--- *10 इन्द्र*




🙏🌺*7.  देवता कौन -सा आहार करते हैं ?*


*उत्तर :--* देवता वैक्रिय पुद् गलों का आहार करते हैं।




🙏🌺*8. क्या भगवान महावीर के शासन में कोई जीव सर्वार्थसिद्ध में गया है ?*


*उत्तर :--* हाँ ,भगवान महावीर के शासन में बहुत सी आत्माएँ उत्कृष्ट करणी करके *सर्वार्थसिद्ध* में गई हैं---जैसै..


*(1) काकन्दी के धन्नाजी ,*


*(2) राजगृही के शालिभद्रजी आदि।*

वैमानिक देवों के जो छब्बीस प्रकार हैं, उनमें बारह प्रकार के देवों में शासक शासित व्यवस्था है। वहां इन्द्र का एकछत्र राज्य है। अनुशासन करने वालों के लिये वहां कठोर दण्ड की व्यवस्था है। ऊपर के चौदह प्रकारों के देवों में अपनी-अपनी व्यवस्था है, सब अहमिन्द्र हैं। वहां शासक-शासित का सम्बन्ध नहीं है।




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*☝️नव ग्रैवेयक और पाँच अनुत्तर विमानों के देव  "कल्पातित देव" कहलाते हैं।ये सब देव  "अहमिन्द्र" होते हैं।*


*☝️सामान्यतः देवों को साता(सुख-वेदना) ही होती है। कभी असाता (दु:ख वेदना)हो जाये तो वह एक अन्तर्मुहूर्त से अधिक काल तक नहीं रहती। साता वेदना भी लगातार छह महीने तक एक-सी रहकर बदल जाती है।*


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*🙏हम लोक की सैर करते हुए अधोलोक से सर्वार्थसिद्ध विमान तक के बारे में जान पाए हैं।*


*🙏यहाँ से आगे हम लोक के अन्तिम छोर पर स्थित "सिद्धशिला" के बारे में जानने का प्रयास करेंगे।*







 ज्योतिष मंडल से ऊपर एक रज्जु जाने पर पहले, दूसरे देवलोक की सीमा शुरू हो जाती है। दक्षिण दिशि में प्रथम व उत्तर दिशि में दूसरे देवलोक के विमानों की श्रेणियां फैली हुई हैं। उनसे ऊपर क्रमशः अन्य वैमानिक देवलोकों के विमान अवस्थित हैं।


प्रश्न २२. वैमानिक के कितने प्रकार हैं?


उत्तर 1: इनके कुल छब्बीस प्रकार हैं


बारह देवलोक


१. सौधर्म।   २. ईशान ३. सनत्कुमार ४. महेन्द्र

५. ब्रह्म ६ लान्तक ७  शुक्र८.सहस्रार

9 आनन्त,१०. प्राणत

11आरण, 12 अच्युत

नौ ग्रैवेयक

१. सुदर्शन2,सुप्रतिबद्ध3 मनोरम। ४. सर्वतोभद्र

5सुविशाल 6 सुमन रस ७. सौमनस 8प्रियंकर

9 नन्दीकर

पांच अनुत्तर

1 विजय2 वैजयन्त 3 जयंत

सुविशाल 4 . अपराजित५. सर्वार्थसिद्ध

वैमानिक देवों के जो छब्बीस प्रकार हैं, उनमें बारह प्रकार के देवों में शासक शासित व्यवस्था है। वहां इन्द्र का एकछत्र राज्य है। अनुशासन भंग करने वालों के लिये वहां कठोर दण्ड की व्यवस्था है। ऊपर के चौदह प्रकारों के देवों में अपनी-अपनी व्यवस्था है, सब अहमिन्द्र हैं। वहां शासक-शासित का सम्बन्ध नहीं है।

वैमानिक देवों का अवधि ज्ञान कितना है?


उत्तर : देखने के तीन कोण होते हैं ऊंचा, नीचा और तिरछा। पहले देवलोक से सर्वार्थसिद्ध विमान तक के समस्त वैमानिक देव ऊपर में अपने-अपने विमानों पर फहरा रही ध्वजा तक देखते हैं। तिरछे में असंख्य द्वीप समुद्रों को देख लेते







प्रश्न २३. क्या इन देवों में शासक और शासित होते हैं?


उत्तर 1: वैमानिक देवों के जो छब्बीस प्रकार हैं, उनमें बारह प्रकार के देवों में शासक शासित व्यवस्था है। वहां इन्द्र का एकछत्र राज्य है। अनुशासन भंग करने वालों के लिये वहां कठोर दण्ड की व्यवस्था है। ऊपर के चौदह प्रकारों के देवों में अपनी-अपनी व्यवस्था है, सब अहमिन्द्र हैं। वहां शासक-शासित का सम्बन्ध नहीं है।


प्रश्न २४ वैमानिक देवों का अवधि ज्ञान कितना है?


उत्तर : देखने के तीन कोण होते हैं ऊंचा, नीचा और तिरछा। पहले देवलोक से सर्वार्थसिद्ध विमान तक के समस्त वैमानिक देव ऊपर में अपने-अपने विमानों पर फहरा रही ध्वजा तक देखते हैं। तिरछे में असंख्य द्वीप समुद्रों को देख लेत

किस संहनन वाला कौन से देवलोक में उत्पन्न होता है ?


उत्तर: देवलोक


१ से ४ देवलोक तक सभी 6 संहनन वाले

५, ६ देवलोक-पांच सेवार्त छोड़कर

 ७, ८ देवलोक चार कीलिका व सेवार्त को छोड़कर

९ से १२ देवलोक तीन अर्धनाराच, कीलिका व सेवार्त को छोड़कर


9 ग्रेवेयक दो वज्रऋषभनाराच, ऋषभनाराच


५ अनुत्तर एक वज्रऋषभनाराच

के कितने इन्द्र हैं ?


उत्तर : देवों के ६४ इंद्र हैं।

भवनपति--इनके दस प्रकार हैं। इनमें प्रत्येक के उत्तर और दक्षिण में स्वतंत्र भवन हैं। उत्तर और दक्षिण में

असुरकुमार आदि प्रत्येक भवनपति के एक-एक इन्द्र हैं, इस तरह १० दक्षिण के १० उत्तर के २० इन्द्र हैं

व्यन्तर के --व्यंतर और वाणव्यंतर अभिधा से १६ प्रकार हैं। उत्तर और दक्षिण के दो विभाग से कुल ३२ हो गए प्रत्येक के एक-एक इन्द्र होने से कुल ३२इन्द्र है

ज्योतिष्क--ज्योतिष्कइनके सूर्य और चन्द्र ये दो इन्द्र हैं। वैसे तो असंख्य सूर्य-चन्द्र हैं, पर समाहार से दो इन्द्र ही लिए गए हैं।

वैमानिक

प्रथम आठ देवलोक के एक-एक इन्द्र हैं। नौवें दसवें का एक तथा ग्यारहवें बारहवें का एक संयुक्त इन्द्र हैं, इस तरह बारह देवलोक के दस इन्द्र हैं। नव ग्रैवेयक व पांच अनुत्तर विमान में सभी अहमिन्द्र हैं। इस प्रकार २०+ ३२+२+१० ६४ इन्द्र हैं।





*पहला • सौधर्म देवलोक* (स्वर्ग) है और उत्तर दिशा में

पहले देवलोक के इन्द्र का नाम शक्रेन्द्र है। शक्रेन्द्र की आठ अग्रमहिषियां (इन्द्रानियां) हैं। दूसरे देवलोक के इन्द्र का नाम ईशानेन्द्र है। इनकी भी आठ अग्रमहिषियां (इन्द्रानियां) हैं। प्रत्येक इन्द्रानी का सोलह-सोलह हजार देवियों का परिवार हैपहले देवलोक में ३२००००० विमान हैं ।पहले देवलोक के देवों की आयु जघन्य एक पल्योपम की और उत्कृष्ट दो सागरोपम की है। उनकी परिगृहीता देवी की आयु जघन्य एक पल्योपम की और उत्कृष्ट सात पल्योपम की है।   . सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र । यह जिन शिशु को सुमेरूपर्वत पर ले जाकर एक हजार आठ कलषों से उनका अभिषेक करता है।

 इनके  सामनिक देव है- 84000

आत्म रक्षक देव-336000

आभ्यंतर परिषद के देव- 12000

मध्यम परिषद के देव-14000

बाह्य परिषद के देव -16000

चिन्ह-मर्ग

देहमान- 7 हाथ

अवधि ज्ञान नरक के नीचे तक


  *दूसरा ईशान देवलोक* है। इन दोनों देवलोकों में तेरह-तेरह प्रत्तर हैं।

(विशेष जैसे मकान में मंजिल होती है, उसी प्रकार देवलोकों में प्रतर होते हैं। जैसे मंजिल में कमरे होते हैं, उसी प्रकार प्रतरों में विमान होते हैं।)

इन प्रतरों में पांच-पांच सौ योजन ऊंचे और सत्ताईस-सत्ताईस सौ योजना की नींव वाले विमान हैं। 

और दूसरे देवलोक में २८००००० विमान हैं।

 । दूसरे देवलोक के इन्द्र का नाम ईशानेन्द्र है। इनकी भी आठ अग्रमहिषियां (इन्द्रानियां) हैं। प्रत्येक इन्द्रानी का सोलह-सोलह हजार देवियों का परिवार है।

दूसरे देवलोक के देवों की आयु जघन्य एक पल्योपम से कुछ अधिक और उत्कृष्ट दो सागरोपम से कुछ अधिक है। इनकी परिगृहीता देवियों की आयु जघन्य एक पल्योषम से कुछ अधिक और उत्कृष्ट नौ पल्योपम की है। दूसरे देवलोक से आगे देवियों की उत्पत्ति नहीं होती।

इनके  सामनिक देव है-80000

आत्म रक्षक देव-320000

आभ्यंतर परिषद केदेव- 10000

मध्यम परिषद के देव-12000

बाह्य परिषद के देव -14000

चिन्ह-महिष

देहमान-7 हाथ

अवधि ज्ञान नरक के नीचे तक सभी 12 देवलोक में  समान ही होता हैं



उक्त दोनों देवलोकों की सीमा के ऊपर, १६॥ रज्जु घनाकार विस्तार में, घनवात (जमी हुई हवा) के आधार पर, दक्षिण दिशा में,
*तीसरा सनत्कुमार नामक देवलोक है* तीसरे देवलोक में १२००००० और चौथे देवलोक में ८००००० विमान हैं।

तीसरे देवलोक के देवों की जघन्य दो सागरोपम और उत्कृष्ट सात सागरोपम की आयु है।

इनके  सामनिक देव है-

आत्म रक्षक देव-

आभ्यंतर परिषद केदेव-

मध्यम परिषद के देव-

बाह्य परिषद के देव -

चिन्ह-

देहमान-


और उत्तर दिशा में चौथा माहेन्द्र नामक देवलोक है।

चौथे देवलोक के देवों की जघन्य दो सागरोपम से कुछ अधिक और उत्कृष्ट सात सागरोपम से कुछ अधिक आयु है।


 दोनों में बारह-बारह प्रतर हैं।
इन प्रतरों में छह-छह सौ योजन ऊंचे और छब्बीस-छब्बीस सौ योजन की नींव वाले विमान हैं।  

इन दोनों देवलोकों की सीमा से आधा रज्जु ऊपर १८३/४ रज्जु घनाकार विस्तार में, मेरुपर्वत पर बराबर मध्य में घनवात के आधार पर 

पांचवां ब्रह्म नामक देवलोक है। इसमें छह प्रतर हैं, जिसमें सात सौ योजन ऊंचे और २५०० योजन अंगनाई (नींव) वाले ४००००० विमान हैं। वहां के देवों की आयु जघन्य सात सागरोपम और उत्कृष्ट दस सागरोपम को है।

पांचवें देवलोक के तीसरे अरिष्ट नामक प्रतर के पास, दक्षिण दिशा में, त्रसनाड़ी के भीतर, पृथ्वी-परिणाम रूप, कृष्ण वर्ण की, मुर्गे के पींजरे के आकार की, परस्पर मिली हुई आठ कृष्ण राजियां हैं। चार चारों दिशाओं में और चार चारों विदिशाओं में हैं। इन आठों के आठ अन्तरों में आठ विमान हैं और आठों के मध्य में भी एक विमान है। इस प्रकार कुल 9 विमान हैं, इनमें लौकान्तिक जाति के देवों का निवास है। इन विमानों और उनमें रहने वाले देवों के नाम इस प्रकार है:

 नव लौकान्तिक  देव विमान


(१) ईशान कोण में अर्चि नामक विमान है। उसमें 'सारस्वत' देव रहते हैं।
2 पूर्व दिशा में अर्चि माली नामक विमान हैं उसमें आदित्य
देव रहते है इन दोनोंप्रकार के देवों का 700 देवों का परिवार है
है और उस वाह्न दव रहते हैं।

(४) दक्षिण दिशा में प्रभंकर विमान है, जिसमें 'वरुण' देव रहते हैं। इन दोनों का १४००० देवों का परिवार है।

(५) नैऋत्य कोण में चन्द्राभ विमान है, जिसमें 'गर्दतोय' देव रहते हैं।

(६) पश्चिम में सूर्याभ विमान है, जिसमें 'तुषित' देव रहते हैं। इन दोनों का ७००० देवों का परिवार है।

(७) वायुकोण में शक्राभ विमान है, जिसमें 'अव्याबाध' देव रहते हैं। 

(८) उत्तर दिशा में सुप्रतिष्ठित विमान है, जिसमें 'अग्नि' देव रहते हैं।

(९) सब के मध्य में अरिष्टाभ विमान है, जिसमें 'अरिष्ट' देव रहते हैं। इन तीनों का ९०० देवों का परिवार है।

यह नौ ही प्रकार के देव सम्यग्दृष्टि, तीर्थंकरों की दीक्षा के अवसर पर चेताने वाले







देव चार प्रकार के होते हैं -- भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक।

देवों का शरीर वैक्रिय होता है। वह उत्तम परमाणुओं द्वारा निर्मित होता है। उसमें हाड़, मास, रक्त आदि नहीं होते हैं। मरने के बाद यह शरीर कपूर की भांति उड़ जाता है। देवों के उत्पन्न होने का एक नियत स्थान देवशय्या होता है। देव और नारक का जन्म उपपात कहलाता है। देवता में पांच पर्याप्तियां पाई जाती है। उनकी भाषा और मन एक ही होता है।


जैन दर्शन -देव दैवीया

जरूर🙏पढ़े🙏👇

जैन दर्शन नुसार चार निकाय के देव - देवियाँ होते है । … भवनवासी, व्यंतर , ज्योतिष और कल्पवासी ।


 देव - देवियाँ भवनों में , स्वर्गो में रहते है ।


 देव - देवियाँ उपपाद शैया पर उत्पन्न होते है उनके गर्भ जन्म नहीं होता ।


देव - देवियों के विवाह नहीं होता … विवाह का संस्कार मात्र मनुष्य गति में है …


विवाह मर्यादा मनुष्यों को कम से कम एक-देश संयम धारण करने का पात्र बनती है ।


देव गति में विवाह परंपरा नहीं होती सो देव - देवियाँ बिना विवाह के प्रविचार करते है ।... (Like Live-In Relationship)


 देवियाँ मात्र 2nd स्वर्ग तक उत्पन्न होती है … उपर के स्वर्गों से आकर देव , अपनी - अपनी देवी को ले जाते है ।


देवियों की गर्भ धारणा नहीं होती सो देव - देवियों की कोई सन्तान नहीं होती ।


 देवियों कि गर्भ धारणा या सन्तान नहीं होती सो किसी देवी को माता कहना उचित नहीं ।


देवियाँ ना तो मंगल - सूत्र पहनती है , ना ही उनके कोई सुहान की निशानी होति है कारण देव - गति में विवाह परंपरा नहीं ।


अपने देव की आयु का क्षय होने पर कुछ देवियाँ दुसरे देवों को स्वीकार कर लेती है … शील पालन नहीं कर पाती ।


 देव - देवियों को उपवास , एकाशन आदि व्रत नहीं करते आते क्योंकि उनके कंठ से अमृत झर जाता है … अपने आप … सो देवों के अंश मात्र संयम भी नहीं हो सकता ।


 देव - गति में 4th गुणस्थान के ऊपर गुणस्थान प्राप्त करना संभव नहीं ।


तीर्थंकर भगवान की पालखी उठाने का मान प्रथम मनुष्यों को मिलाता है देवों के नहीं कारण देव संयम धारण - पालन नहीं कर सकते … एक- देश संयम भी ।


देव मनुष्य बनने के लिए तरसते है क्योंकि मात्र मनुष्य पर्याय में संयम , दीक्षा , मोक्ष होता है , देवगति में नहीं ।


 देव - देवियाँ मात्र सम्यग - दृष्टी जीव के मदत को आते है , जैसे सीता , द्रोपती आदि … मिथ्या दृष्टी जीव के मदत को नहीं ।


 पुरुष द्वारा किसी देवी की मूर्ति के वस्त्र बदले जाना यह उस देवी के साथ अप्रत्यक्ष व्यभिचार होता है … जिनालयो में अन्य श्रावक - श्राविका ओं के सामने यह व्यभिचार … उस देवी को पीड़ा देने वाला होता है … और अशुभ कर्मों के बंध का कारण होता है ।


 देव - देवियाँ दिव्य वस्त्र पहनते है … जो मैले नहीं होते, पुराने नहीं होते या कभी फटते भी नहीं … मनुष्यों द्वारा देव - देवियों को वस्त्र भेट करना व्यर्थ है … वे उन्हें ग्रहण ही नहीं करते ।


देव - देवियों के आभुषण भी दिव्य होते सो उन्हें साधरण आभूषण आदि भेट देना भी व्यर्थ ही होता है ।


मनुष्य देवों से श्रेष्ठ होते है सो मनुष्यों का देव - देवियों का पूजन आदि करना उचित या किसी भी फल को देने वाला नहीं मात्र अशुभ कर्मों का बंध करने वाला ही होता है ।


यक्ष - यक्षिणी व्यंतर जाती के देव - देवी होते है ।


प्रश्न-१५ : 'लवसत्तम देव' ऐसा कथन किनके लिये और क्यों है ?

उत्तर- जो देव पूर्व भव में सात लव जितनी उम्र ज्यादा होती तो मोक्ष चले जाते; ऐसे देवों को शास्त्र में लवसत्तम देव कहा गया है l

सर्वार्थसिद्ध विमान के सभी देव लवसत्तम देव कहे जाते है । वे सभी एक मनुष्य भव करके मोक्ष जाने वाले होते है । एक लव एक सेकंड से बडा और एक मिनट से छोटा होता है । ४८ मिनट (मुहूर्त)

में ७७ लव होते है । ३३ सागरोपम की उम्र में भोगने योग्य पुण्यांशों

का तप-संयम से ७ लव में क्षय हो सकता है। जिस तरह सात पीढी

चलने वाले धन का प्रचंड अग्नि द्वारा अल्प समय में नाश हो सकता

है । वैसे ही ३३ सागर के योग्य पुण्यकर्म, ७ लव के जितने अल्प

समय में ध्यान-तप की अग्नि में क्षय हो जाते है ।


चार अनुत्तर विमान के देव लवसत्तम नहीं होते है । उनकी

३१ सागर से ३३ सागर की स्थिति पूर्ण होने पर वे एक भव या

उत्कृष्ट १३ भव करके मुक्त होते है । वे चारों अनुत्तर विमान के

समस्त देव यदि पूर्व भव में दो दिन की उम्र अधिक होती तो

एक छठ-बेले की तपस्या से संपूर्ण कर्म क्षय करके मोक्ष चले जाते ।


सर्वार्थसिद्ध और ४ अनुत्तर विमान के देवों की आपस में यह भिन्नता

यहाँ सातवें उद्देशक में दर्शाई गई है । यो पाँचों ही अणुत्तर विमान

कहलाते है । जहाँ संपूर्ण लोक की अपेक्षा सर्वोत्तम, श्रेष्ठ, श्रेष्ठतम

वर्ण, गंध, रस, स्पर्श होते है । उनसे अधिक ऊँचे शब्दादि विषय अन्यत्र कहीं भी नहीं होते है । इसलिये उन्हें अनुत्तर देव और उनके स्थान अनुत्तर विमान कहे जाते है 

। भगवती  सूत्र शतक-१४

 ॥ उद्देशक-७ स पूर्ण ।।

श्वासोच्छ्वास के थोकडे सम्बन्धी ज्ञातव्य तथ्य:-


1. इस थोकड़े में यह बतलाया गया है कि संसारी जीव एक बार श्वासोच्छ्वास लेने के बाद दुबारा श्वासोच्छ्वास कब लेते हैं,

इन दोनों के बीच में कितना अन्तर होता है । दूसरे शब्दों में श्वास लेने में कितना-कितना विरह (अन्तर ) पड़ता है, उसे इस थोकड़े से जाना जा सकता है।


2. देवों में जितने सागरोपम की स्थिति होती है, उनके उतने पक्ष जितना श्वासोच्छ्वास क्रिया का विरह काल होता है ।


3. श्वासोच्छ्वास का विरह (अन्तर) बाह्य श्वासोच्छ्वास की अपेक्षा समझना चाहिए।


4. देवताओं में श्वास ग्रहण की प्रक्रिया अन्तर्मुहूर्त्त तक चलती है। फिर अन्तर्मुहूर्त्त तक श्वास छोड़ते हैं। उदाहरण के रूप में एक

सैकण्ड तक श्वास लेते रहना फिर एक सैकण्ड तक श्वास छोड़ते रहना। अर्थात् अन्तर्मुहूर्त तक श्वास लेने छोड़ने की प्रक्रिया चलती है।


5. श्वासोच्छ्वास के थोकड़े से स्पष्ट होता है कि सामान्यत: जो जीव जितने अधिक दु:खी होते हैं, उन जीवों की श्वासोच्छ्वास क्रिया उतनी ही अधिक और शीघ्र चलती है । अत्यन्त दुःखी

जीवों के तो यह क्रिया निरन्तर चलती रहती है ।


6. जो जीव जितने अधिक सुखी होते हैं, उनकी श्वासोच्छ्वास क्रिया उत्तरोत्तर देरी से चलती है अर्थात् उनका श्वासोच्छ्वास और विरहकाल अधिक-अधिक होता है, क्योंकि श्वासोच्छ्वास

क्रिया अपने आप में दुःख रूप होती है। यह बात अपने अनुभव से भी सिद्ध है तथा शास्त्र भी इस बात का समर्थन करते हैं।


7. श्वासोच्छ्वास मात्र घ्राणेन्द्रिय (नासिका) से ही नहीं लिया जाता वरन् स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय (मुख) और घ्राणेन्द्रिय इन तीनों से लिया जाता है।

8. एकेन्द्रिय जीव स्पर्शनेन्द्रिय से ही श्वास लेते तथा छोड़ते हैं ।


बेइन्द्रिय जीव स्पर्शन तथा मुख से श्वास लेते-छोड़ते हैं।


तेइन्द्रिय, चौरेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जीव तीनों इन्द्रियों से (स्पर्शन , मुख तथा घ्राण) श्वास लेते तथा छोड़ते हैं ।


9. श्वासोच्छ्वास की प्रक्रिया हर गति, जाति आदि के जीवों में अलग-अलग प्रकार से होती है।

Kishor Shah श्वासोच्छ्वास का थोकड़ा

श्री प्रज्ञापना सूत्र के सातवें पद के आधार से श्वासोच्छूवास का थोकड़ा इस प्रकार है-

नारकी के नेरिये, आभ्यंतर-ऊँचा श्वास,

नीचा श्वास और

बाह्य-ऊँचा श्वास, नीचा श्वास, लोहार की धमण की तरह निरन्तर लेते हैं।


भवनपति देवों में असुरकुमार देव जघन्य 7 स्तोक' में और उत्कृष्ट एक पक्ष से अधिक समय में श्वासोच्छ्वास लेते हैं। शेष नव

निकाय के देव और व्यंतर जाति के देव जघन्य 7 स्तोक और उत्कृष्ट पृथक्त्व मुहूर्त्त में श्वासोच्छ्वास लेते हैं l


ज्योतिषी देव, जघन्य और उत्कृष्ट पृथक्त्व मुहूर्त्ते में।


वैमानिक देवों में प्रथम देवलोक के देव जघन्य पृथक्त्व मुहूर्तेऔर.   उत्कृष्ट दो पक्ष में l


दूसरे देवलोक के देव जघन्य पृथक्त्व मुहूर्त्त झाझेरा, उत्कृष्ट दो पक्ष झाझेरा में।


तीसरे देवलोक के देव जघन्य 2 पक्ष, उत्कृष्ट 7 पक्ष में।


चौथे देवलोक के देव जघन्य 2 पक्ष झाझेरा, उत्कृष्ट 7 पक्ष झाझेरा में।


पाँचवें देवलोक के देव जघन्य 7 पक्ष, उत्कृष्ट 10 पक्ष में।


छठे देवलोक के देव जघन्य 10 पक्ष, उत्कृष्ट 14 पक्ष में।


सातवें देवलोक के देव जघन्य 14 पक्ष, उत्कृष्ट 17 पक्ष में |


आठवें देवलोक के देव जघन्य 17 पक्ष, उत्कृष्ट 18 पक्ष में l


नौवें देवलोक के देव जघन्य 18 पक्ष, उत्कृष्ट 19 पक्ष में।


दसवें देवलोक के देव जघन्य 19 पक्ष, उत्कृष्ट 20 पक्ष में।


ग्यारहवें देवलोक के देव जघन्य 20 पक्ष, उत्कृष्ट 21 पक्ष में।


बारहवें देवलोक के देव जघन्य 21 पक्ष, उत्कृष्ट 22 पक्ष में ।


पहली ग्रैवेयक के देव जघन्य 22 पक्ष, उत्कृष्ट 23 पक्ष में।


दूसरी ग्रैवेयक के देव जघन्य 23 पक्ष, उत्कृष्ट 24 पक्ष मेंl


तीसरी ग्रैवेयक के देव जघन्य 24 पक्ष, उत्कृष्ट 25 पक्ष में।


चौथी ग्रैवेयक के देव जघन्य 25 पक्ष, उत्कृष्ट 26 पक्ष में।


पाँचवी ग्रैवेयक के देव जघन्य 26 पक्ष, उत्कृष्ट 27 पक्ष मेंl


छठी ग्रैवेयक के देव जघन्य 27 पक्ष, उत्कृष्ट 28 पक्ष में।


सातवीं ग्रैवेयक के देव जघन्य 28 पक्ष, उत्कृष्ट 29 पक्ष में ।


आठवीं ग्रैवेयक के देव जघन्य 29 पक्ष, उत्कृष्ट 30 पक्ष में l


नौवीं ग्रैवेयक के देव जघन्य 30 पक्ष, उत्कृष्ट 31 पक्ष में।


चार अनुत्तर विमान के देव जघन्य 31 पक्ष, उत्कृष्ट 33 पक्ष में।


और सर्वार्थसिद्ध विमान के देव 33 पक्ष में श्वासोच्छ्वास लेते हैं।


पाँच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय, तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय और मनुष्य,

विमात्रा-अनियत समय में श्वासोच्छ्वास लेते हैं ।

जिस देवलोक की जितनी सागरोपम आयु है उतने पक्ष(सागरोपम छोङ दीजिये)से श्वास लेते है।जैसे किसी की आयु दश सागरोपम है,तो वह दश पक्ष से श्वास लेगा।

देवताओं में श्वास ग्रहण की प्रक्रिया अन्तर्मुहूर्त्त तक चलती है फिर अन्तर्मुहूर्त तक श्वास छोड़ते हैं




चार अनुत्तर विमान में दो बार तथा सर्वार्थसिद्ध विमान में एक बार से अधिक जन्म नहीं होता है ।

दूसरे देवलोक से ऊपर देवियों के रूप में जन्म ही नहीं होता है । अतः इन स्थानों पर अनन्त बार

जन्म-मरण करने का निषेध किया गया है ।✅✅



नंदमणियार का जीव मेंढक समवसरण की तरफ जाते हुए

राजगृही के नरेश श्रेणिक के घोड़ों के नीचे मरकर कौन सा देव बना ?

आठवें देवलोक में दुर्दशांक देव बना✅















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सतियाँ जी 16