हरि वंश की उत्पत्ति

 20वें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रत स्वामी का जन्म कल्याणक महोत्सव तिथि ज्येष्ठ कृष्णा अष्टमी एवं मोक्ष कल्याणक  तिथि ज्येष्ठ कृष्ण नवमी, 

वि सम्मत 2546, 

शुक्रवार,शनिवार, दिनांक 15/05/2020 एवं 16/05/2020.

आप सभी को प्रभु का दोनों कल्याणक मांगलिक रहे। 


तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रत स्वामी का परिचय एवं पुर्व भव। 


जंबुद्वीप के अपरविदेह क्षेत्र में भरत नामक विजय में चंपा नामक एक विशाल नगर था। यहाँ राजा सूरश्रेष्ठ का शासन था। वह अत्यंत पराक्रमी एवं संयमी, दयालु राजा था। एक बार नंदन नामक मुनि नगर में पधारे। राजा भी दर्शन वंदन हेतु उनके पास गये, वहाँ देशना सुनकर राजा वैराग्य वासित बने।और उन्हीं के पास दिक्षा ली। अर्हंत की भक्ति एवं जपतप आराधना कर बीस स्थानको में से कई स्थानको की आराधना कर तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन किया। राजमुनि सुरश्रेष्ठ ने यहाँ आयुष्य पुर्ण कर प्राणत देवलोक में देव बने। वहाँ से च्यव कर वह हरिवंश में अवतरित हुए। 

     हरिवंश की उत्पत्ति का भी रोचक इतिहास है यहाँ पर संक्षिप्त में बताउँगा। 

      जंबुद्वीप के भरतक्षेत्र में वत्स देश के मंडनकुप कौशांबी नामक नगर था। वहाँ सुमुख नामक राजा राज्य करता था। उसका एश्वर्य इन्द्र के समान था। एक दिन वह शिकार के लिए वन में गया और उसे विरकुविंदनी वनमाला नामक स्त्री दिखाई दी। एसी सुंदर स्त्री को देख राजा कामवासित हो गया। उसी समय अनमना सा होकर वापस राजमहल में आया।मंत्री ने राजा से उदासी एवं अनमने होने का कारण पुछा।राजा ने वनमाला के संबंध में मंत्री सुमति को बताया और शिघ्र उससे मिलाने का आग्रह किया। 

    दासी को भेज कर विरकुविंदनी की ब्याहता स्त्री वनमाला को बुलाया वह भी राजा को देख कर कामवासना से पिडित हो गयी थी अत: वह दासी के साथ राजमहल में आ गयी। राजा ने अनुराग पुर्वक उसे अपने अंत:पुर में रखा। 

   इधर वनमाला का पति उसके वियोग से दुखी बन कर पागलो समान वनमाला को ढुढ़ रहा था एक दिन राजा एवं वनमाला उद्यान में क्रीडा कर रहे थे उसी समय विरकुविंद वनमाला वनमाला करता हुआ उसी उद्यान के पास से गुजर रहा था राजकर्मी उसे घेरे हुए मजाक बना रहे थे, जिज्ञासा वश राजा और वनमाला भी उसे देखने आये। और जब राजा व वनमाला ने सच्चाई जानी तो पछतावा हुआ।दोनों अपने आप को कोसने लगे इस तिव्र पाप की निंदा कर धर्मिष्ठ जिवों की प्रशंसा कर रहे थे उसी समय आकाश से बिजली उन पर गिरी और मृत्यु को प्राप्त हुएं। 

    परस्पर स्नेह के कारण एवं मृत्यु समय शुभभाव होने से दोनों हरिवर्ष क्षेत्र में युगलिक के रूप में उत्पन्न हुएं।उनका नाम हरि एवं हरिणी था। दस प्रकार के कल्पवृक्षो से ईच्छीत सामग्री प्राप्त कर दोनों पति पत्नी के रूप में सुख विलास पुर्वक रहे। 

     इधर वनमाला का पति दोनों की मृत्यु बीजली गीरने से जानकर शांत मुद्रा में आ गया और तप आराधना कर मृत्यु को प्राप्त हुआ। और सौधर्म कल्प में देवता बना। वहाँ अवधि ज्ञान से अपने पुर्व जन्म को और हरि हरिणी नामक जुडवा युगलिक को भी देखा। उन्हें देख क्रोधित हुआ और मारने को तत्पर हुआ। वह सोच रहा था कि इन दोनों स्त्री पुरुष को मुझे मारना है किंतु यहाँ मारा तो क्षेत्र के प्रभाव से ये दोनों स्वर्ग में जायेंगे। 

   वह वहाँ से उन दोनों को कल्पवृक्ष के साथ उडाकर चंपापुर लाया। चंपापुर का राजा चंद्रकीर्ति इक्ष्वाकु कुल का उसी समय बिना पुत्र के मृत्यु को प्राप्त हुआ था। 

  नगरवासी राजा बनाने के लिए योग्य व्यक्ति को ढूंढ रहे थे। उस देवता ने नगर वासीयों को हरि एवं हरिणी को सोंपा और कहा कि यही अब तुम्हारे राजा है। इन्हें पशु पक्षी का मांस खाने में देना मद्यपान कराना। हरि का राज्याभिषेक किया। देव ने उन दोनों का आयुष्य कम कर दिया। उनके शरीर की ऊंचाई भी कम कर सौ धनुष कर दी।इस तरह इन दोनों को पाप क्षेत्र में डाल कर देवता अंतरध्यान हो गया। इनके एक पृथ्वीपति नामक पुत्र हुआ। आयुष्य पुर्ण कर दोनों नरक में गये। इस तरह हरिवंश की स्थापना हुई। 

   पृथ्वीपति ने चिरकाल तक राज्य कर अपने पुत्र महागिरी को शाशन देकर दिक्षा ली। और स्वर्ग में गयें। 

   महागिरी ने राज्य अपने पुत्र हिमगिरि को देकर दिक्षा ली और मोक्ष में गयें। 

   हिमगिरि ने वसुगिरी को राज्य देकर दिक्षा ली और मोक्ष में गयें। इसीप्रकार यह क्रम चलता रहा हरिवंश में अनेक राजा हुए कुछ तो मोक्ष में और कुछ स्वर्ग में गयें। 

  

    प्रभु तीर्थंकर मुनिसुव्रत स्वामी का च्यवन। 


     इस भरत क्षेत्र के मगध देश में राजगृह नामक नगर है। यहाँ हरिवंश कुल के सुमित्र नामक राजा राज्य करते थे। उनके पद्मावती नामक रानी थी। प्राणत कल्प में जो सुरश्रेष्ठ राजा का जिव देवता हुए थे उन्होंने वहाँ से आयुष्य पुर्ण कर श्रावणी पुर्णिमा को चंद्र के श्रवण नक्षत्र में आने पर रानी पद्मावती की कुक्षी में अवतरित हुए। रानी ने तीर्थंकर जन्म को सुचित करने वाले चौदह महास्वपन देखें। 

प्रभु के पिता --- सुमित्र राजा, 

प्रभु की माता --- पद्मावती रानी, 

च्यवन तिथि --- श्रावणी पुर्णिमा, 

नक्षत्र --- श्रवण, 

जन्म तिथि -- जेष्ठ वदि अष्टमी, 

जन्म स्थान -- राजगृह नगरी

नक्षत्र--- श्रवण, 

लांछन --- कछुआ, 

वर्ण --- तमालपत्र जैसा श्याम, 

नाम--- कुमार मुनिसुव्रत, 

शरीर की उचाई -- बीस धनुष, 

प्रभु की शादी प्रभावती व अन्य कईं राज कन्याओं से हुई। जन्म से साढे़ सात हजार वर्ष बितने पर राज्य भार ग्रहण किया। 

      पृथ्वी पर पालन करते पन्द्रह हजार वर्ष व्यतीत हो गये। तब तीन ज्ञान के स्वामी प्रभु ने अपने भोग्यकर्म पुरे जान कर दिक्षा ग्रहण की। 

दिक्षा तिथि -- फागुन शुक्ला द्वादशी, 

नक्षत्र -- श्रवण

शिबिका ---- अपराजिता, 

दिक्षा स्थान -- निलगुहा उद्यान

समय  दिन का आखिरी पहर, 

सहदिक्षीत --- 1000 राजा, 

तप   ---   बैला, 

प्रथम गोचरी दाता   --- ब्रह्म दत्त राजा, क्षीर से बेले का पारणा। 

छद्मस्त समय ग्यारह माह, 

केवलज्ञान स्थान --- निलगुहा उद्यान, 

केवलज्ञान वृक्ष --- चंपक वृक्ष 

केवलज्ञान तिथि --- फागुन कृष्णा द्वादशी, 

नक्षत्र  -- श्रवण, 

केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद विहार करते हुए तीर्थंकर मुनिसुव्रत स्वामी को ग्यारह माह कम साढ़े सात हजार वर्ष व्यतीत हुए। 

प्रभु के परिवार में, 

साधु --- 30 हजार,

साध्वीजी ---50 हजार, 

चौदह पुर्व धारी ---500, 

अवधिज्ञानी --1 हजार 8 सौ, 

मन: पर्यव ज्ञानी -- 1500,

वैक्रीयलब्धि वाले -- 2000,

वाद लब्धि वाले -- 1200,

श्रावक  -- 1 लाख 72 हजार, 

श्राविका  --  3 लाख 50 हजार, 

निर्वाण समय नजदीक जानकर प्रभु सम्मैद शिखर पर एक हजार मुनियों के साथ पधारे वहाँ एक माह का अनशन कर ज्यैष्ठ कृष्ण नवमी के दिन श्रवण नक्षत्र में हजार मुनियों के साथ शास्वत पद यानि मोक्ष में पधारे। 

प्रभु ने साढ़े सात हजार वर्ष कुमार अवस्था में, पंद्रह हजार वर्ष राज्य शासन में, साढ़े सात हजार वर्ष दिक्षा में यों सब मिलाकर तीस हजार वर्ष के आयुष्य को पुर्ण कर प्रभु का निर्वाण हुआ। तीर्थंकर श्री मल्लीनाथ स्वामी के मोक्ष गमन के पश्चात 54 लाख वर्ष व्यतीत होने पर तीर्थंकर मुनिसुव्रत स्वामी का निर्वाण हुआ। 


एक बार पुनः प्रभु के कल्याणक पर बधाइयाँ, 



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